• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » सहजि सहजि गुन रमैं : पीयूष दईया

सहजि सहजि गुन रमैं : पीयूष दईया

piyush daiya  at jaipur Literature Festival photo-mananv singhi होने      और     न      होने     के    बीच  पीयूष दईया की कविताएं : प्रभात त्रिपाठी प्रथम पाठ से ही महसूस होता है कि पीयूष की ये कविताएं वेदना की सान्द्र निजता को कुछ इस तरह रच रही हैं, जहां पाठक […]

by arun dev
April 26, 2014
in Uncategorized
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें
piyush daiya  at jaipur Literature Festival photo-mananv singhi


होने      और     न      होने     के    बीच 
पीयूष दईया की कविताएं

: प्रभात त्रिपाठी
प्रथम पाठ से ही महसूस होता है कि पीयूष की ये कविताएं वेदना की सान्द्र निजता को कुछ इस तरह रच रही हैं, जहां पाठक उसे अपने अनुभव, स्मृति और कल्पनाशीलता में मुक्त भाव से पा सके. विषयी और विषय को देखते महसूस करते, थोड़ा बहुत अपने अनुभवों की भाषा में जानते पाठक पाता है कि यहां वेदना की प्रगाढ़ता, जो सहज भाव से किसी अन्तरंग की मृत्यु से जुड़ी महसूस होती है, एक तरह की स्वरता भी अपने में समोये है. यह प्रशांत और गम्भीर स्वरता ही इन्हें पाठक के अन्तर्मन तक पहुंचाती है. संरचना की जाहिर भिन्नता का कारण भी सम्भवतः यही है, कि कहने, सहने, रहने, जीने के अन्दर कहीं वह मरना भी शामिल है, जिसके अ-भाव को, भाव की ऐसी धीर और इसी धीरता से सम्पृक्त ऐसी अनेक-स्वरीय ललित भाषा में कहा जा सके, जो दुख की इस प्रगाढ़ता को दो टूक आर्थी स्तर पर कहने की औसत सांसारिकता या सामाजिकता से भिन्न है. लगता है कि अक्षर से स्वर और स्वर से शब्द, शब्द से चित्र, और चित्र से फूटते आलोक में अर्थ का आस्वाद ही नहीं बल्कि अनुभव तक जाने के लिए ही एक कि़स्म का खिलंदड़ापन भी इन कविताओं में है, मगर यह महज़ कौतुक के स्तर पर सक्रिय खेल नहीं है. वेदना और अस्ति-चिन्ता का आत्मानुभवी एहसास इसकी गति-प्रकृति और शिल्प में प्रयोगधर्मिता को निरा खेल बनने से रोकते हैं: शब्द चित्रों में अन्तर्निहित एकदम निजी आशयों को पाठकों पर थोपने के बजाय–इसलिए ही यहां पाठ का एक मुक्त अवकाश है. बेशक ’’पाठ’’ यहां प्रचलित और प्रशंसित मुख्यधारा के ’’पाठों’’ से बिलकुल ही अलग और मौलिक है.

लगता यह भी है कि इतने निकट से ’’मृत्यु’’ के अनुभवों को सामने लाती इन कविताओं में ’’दुख’’ उस तरह से वाचाल नहीं लगता कि उसे तात्कालिक भावुक प्रतिक्रिया की तरह देखा जा सके. शायद रचने के दौरान या कि रचना-प्रक्रिया में कविता की अपनी परम्परा की स्मृति की सक्रियता भी रही हो, कला की अपनी भाषा को स्वायत्त करने की ऐसी चेष्टा भी, जो उसे दुख के निरे आत्म-प्रकाशन से थोड़ा अलग कर सके. प्रतिबिम्बित करते बिम्बों की जगह, एक तरह की पारिवारिक स्थानिकता है, जो इसकी भाषा की सर्जनात्मकता का उत्स और आधार दोनों है. और यही वजह है कि इसमें जीवन और मृत्यु युगपद चित्रों की तरह, बल्कि गतिमान चित्रों की तरह गति करती लगती है. अन्त में यह कि इन कविताओं को पढ़ते हुए शायद अनायास और अकारण मुझे अज्ञेय की ये पंक्तियां भी याद आयी थीं: ’’होने और न होने की सीमा-रेखा के बीच सदा बने रहने का….व्रत जिसने ठाना, सहज ठन गया जिससे, वही जिया पा गया अर्थ.’’

छाया  निर्मल लक्षकार 

   

१.

सुबह का भूला लौटा
शाम में: क्षति भीगा.
मां-पिता
अलौट
शमशान से चले गये होंगे
निधन-वास में रहने. विश्राम कुटी
ख़ाली अभी: पांव नहीं धर सकता, शान्त. 
दिया जले कौन जा सकता है वहां? मरे पीछे
का पानी किस के लिए गिरता है?
अपना देखो. मन्दिर को
विरह नहीं: विधि अनजान
विद्यमान है
पात्र परिणत
सब घर
लौटा, क्षति भीगा. 

 २.

कोई भूमि(का) नहीं
मरमर सिर्फ़
भिन्न लगे अभिन्न
भिनसारे तक
पदचाप में
अगेह
—जो मेरा प्राप्य है
    चुन लूंगा–
देवनागरी को
पालागन


३.

छुआ जन्म
फल:
—पा रहा
पकड़े हाथ–
शान्त
सब वास(ना)
चलती सांस रचती
मरने की रोशनी
जन्म अकेला
फल

४.

जनम झीना
उचार
अदृष्य
देख लेती
    आंख
   
—ख़ाली खोंता
   अन्दर
   से

५.

क्षमा व्योम की दिवंगत लौ है

६.

मैंने तोड़ा नहीं आईना
हज़ार टुकड़ों में वरना
अपने देख न पाता
मुझे आईना

७.

वही है
कगार पर शायद
(अ)स्थिर
दीवानी के ख़्वाब में दीवाना

८.

छिपते दिन में
लौटते हुए
नज़र आये
त्यागे गये चिह्न
यति के
असीसते
जैसे फूल, रक्त में शब्द
ठहर गया वह सोखते
श्रद्धा से
दरसपोथी में
(उ)जाला राख रास्ता



छाया  निर्मल लक्षकार  
पता है, त(लाश)
                                

१.

लिखत
आंख पढ़त
हर लेती होनी
देखती 
पिंजर में अक्षरी
दर्ददर्षी है
खुला ज़ख़्म, शब्द में श्मशान
काता जीव का
उलटी जीभ
न(।)र
सीख मिली
पढ़त
आंख लिखत

२.

गोचर से छिपा
गिर न जाय
कहीं
पंखुरियां जिसकी
फूल वह
हिलगा पर
खो बैठा
सारा
फूल भी
बचाने की कोशिश में
गोचर (न) रहा 

३.

जग जाने सो
अभंग एक
निरन्तर
सच का शब्द
—पुतलियों में–
 
सहिदानी सौंप सब
करनी
हर ओर
अनाम
चुप
च(।)ल 

४.

दिल से चला गया जो
लौटा न फिर
अपने घर
रीते माथ, बेहाथ
खप्पर लिए
कोई
घर है जहां
भिक्षु नहीं

५.

त(लाश) में लिखा पता
अपने में
चुप
शब्द
कोष्ठक में

६.

पौ फ टे क क्ष में
सा रा बो ल
अ बो ल
लो क अ प ना अ के ला
छो ड़ ग या
सु न ना 
ख़ा ली लि खा
दि वं ग त भी त र मौ न रो श नी

७.

कक्ष में कोख
बेजान कोई
  
बूझ सका न बुझ ने में पा सका
बुझे बिना
लगता है, नाल वही
लगता है, शरीर वही
लगता है, जान वही
अभी, अब नहीं
सफ़ेदा

दूसरी ओर से  
____________________________

Piyush Daiya is one of the foremost names in the current Hindi literary and art scene and has participated earlier in Jaipur Literature Festival. He has edited many Journals (Purovaak, Bahuvachan, Rangayan, Natrang) as well as books on literature, arts, folklore, and culture, including two Readers of folk-studies Lok and Lok ka Alok, two volumes of Kala Bharati for the Lalit Kala Akademi, Delhi, besides having this, he has been consultant editor for a reader on Raza, published by Vadhera Art Gallery, 2013 and is a curator of Lokmat Samachar’s annual editions Deep Bhav.
He has also been credited for three books evolving out of his conversations with well-known painters and has edited and translated Haku Shah’s essays into Hindi as well as his four books for children. Piyush is currently working on similar projects with the painter Ram kumar and poet-critic Ashok Vajpeyi. His collection of poems chinnh (2013) along with Hindi Translation of the Greek poet Cavafy, published by Yatra Books, has been much admired.

He is presently working on his novel Marg Madarjaat, for which he is awarded the Krishna Baldev Vaid Fellowship.
todaiya@gmail.com
ShareTweetSend
Previous Post

मार्खेज़: बड़ी अम्मा का फ्यूनरल: अनुवाद: अपर्णा मनोज

Next Post

सिक्किम: परमेश्वर फुंकवाल

Related Posts

सहजता की संकल्पगाथा : त्रिभुवन
समीक्षा

सहजता की संकल्पगाथा : त्रिभुवन

केसव सुनहु प्रबीन : अनुरंजनी
समीक्षा

केसव सुनहु प्रबीन : अनुरंजनी

वी.एस. नायपॉल के साथ मुलाक़ात : सुरेश ऋतुपर्ण
संस्मरण

वी.एस. नायपॉल के साथ मुलाक़ात : सुरेश ऋतुपर्ण

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक