![](https://samalochan508692074.files.wordpress.com/2021/06/bd69b-25e025a425a825e025a4258225e025a425a62b25e025a4259525e025a425bf25e025a425b625e025a5258b25e025a425b02b25e025a425a825e025a425b525e025a425b2.jpg)
श्रद्धा-सुमन
नंद जी खड़ाऊँ पहनते थे. मुझे आज भी उनके खड़ाऊँ की आवाज़ कानों में साफ सुनाई पड़ती रहती है. वे अपने ऊपर के कमरे से सीढ़ियों से उतरते थे. आंगन के सामने एक छोटे से कमरे में मैं बैठा उनका इंतज़ार करता था. वे अक्सर सफेद कुर्ता पाजामा या धोती या लुंगी पहने आते थे. कई बार तो सफेद बनियान और लुंगी में भी.
आज मुझे याद नहीं आ रहा कि मैं उनसे पहली बार कैसे मिला था. लेकिन यह मुझे अच्छी तरह याद है कि उनको मैंने अपनी कविताओं की एक छोटी सी कॉपी दिखाई थी जो तब वैशाली-कॉपी में लिखी गयी थी.
उन्होंने तब मुझे कुछ कवियों को पढ़ने की सलाह दी थी. मैं तब साहित्य में नव सिखुआ था. केवल मधुकर गंगाधर और शंकरदयाल सिंह से मिला था पर समकालीन साहित्य विशेषकर कविता में उन लोगों की कोई गति नहीं थी. अरुण कमल का नाम भी पहली बार उनके मुंह से सुना था और एक दिन अरुण कमल उनसे मिलने आये थे लेकिन मैं उनसे मिला नहीं. उस छोटे से कमरे में बैठा नवल जी का इस बात के लिए इंतज़ार करता रहा कि वे कब सीढ़ियों से उतरकर आएंगे.
मैं हिंदी का छात्र नहीं था इसलिए तब हिंदी आलोचना के बारे में बिलकुल नहीं जानता था. केवल शुक्ल जी, रामविलास जी और नामवर जी का नाम सुना भर था. नवल जी तब आलोचना के क्षेत्र में स्थापित हो रहे थे और उनकी कीर्ति फैलने लगी थी. युवा लेखकों में वे लोकप्रिय हो रहे थे. बिहार में नलिन विलोचन शर्मा, डॉ. नागेश्वर लाल, सुरेंद्र चौधरी और चंद्रभूषण तिवारी ये चार नाम ही तब आलोचक के रूप में जाने जाते थे. लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर नवल जी अधिक जाने गए और सबसे अधिक किताबें उन्होंने ही लिखीं. आखिर क्या कारण है कि नवल जी को आज अधिक याद किया जा रहा है. हिंदी आलोचना में आखिर उनका क्या अवदान था ?
पटना के साहित्यिक जगत में तब यह बात प्रचलित थी कि नामवर जी से नवल जी के मधुर संबंध हैं और वे उनको बहुत मानते हैं. वैसे तब खगेन्द्र जी और नवल जी की जोड़ी भी चर्चित थी लेकिन ख्याति अधिक नवल जी की ही थी. बाद में मैं बी. ए. इतिहास में आनर्स करने रांची चला गया और 82 में दिल्ली आ गया पढ़ने, तब नवल जी के सम्पर्क में नहीं रहा पर कुछ पत्राचार चलता रहा. उनके पोस्टकार्ड मुझे आज भी याद हैं. किसी बड़े लेखक से यह मेरा पहला पत्राचार था. तब वह ‘आलोचना’ पत्रिका में हिंदी आलोचना का विकास नामक एक श्रृंखला लिख रहे थे. उनके लेखों को पढ़कर एक पत्र लिखा जिसका जवाब उन्होंने दिया था. मेरी जानकारी में आजादी के बाद हिंदी आलोचना के विकास पर वह पहला विस्तृत लेख था जो बाद में उनकी किताब के रूप में छपा. आज वह किताब हिंदी आलोचना के विकास पर महत्वपूर्ण मानी जाती और छात्रोपयोगी भी. वह एक शिक्षक थे इस नाते वह ऐसी आलोचना के पक्षधर थे जो छात्रों के भी काम आए. दिल्ली आकर मैं अपनी पढ़ाई और नौकरी के संघर्ष में फंस गया जिससे उनके सम्पर्क में नहीं रह पाया, लेकिन पटना जब तब गया तो कभी-कभी उनसे मिलने भी गया. विवाह के बाद पत्नी के साथ भी.
मैं उनकी कृतियों से परिचित था, जब भी उनकी किताब आई उसे उलटा पलट जरूर. 80 के बाद उनकी कई किताबें आईं और वे एक महत्वपूर्ण आलोचक के रूप में उभरे. वे एक लिक्खाड़ के रूप में भी चर्चित थे. दरअसल वह एक पेशेवर आलोचक थे. जीवन में कुछ करना चाहते थे. एक शिक्षक के रूप में भी उनकी बहुत ख्याति थी. पर उन्हें लिखने में आनंद आता था. वे अपने निंदकों और आलोचकों की परवाह नहीं करते थे. वे अपने विचारों में दृढ़ थे. लेखकों के बारे उनकी अपनी स्वतंत्र राय थी. वे कहते थे कि युवा लोगों को मध्यकाल के कवियों को पढ़ना चाहिए. एक बार उन्होंने मुझसे अपूर्वानंद के बारे में कहा कि वे अज्ञेय आदि में दिलचस्पी लेते हैं लेकिन भक्तिकाल के कवियों में नही. तब अपूर्वानंद से मेरा परिचय नहीं हुआ था पर \’उत्तरशती\’ में उनकी एक कविता पढ़ी थी और नवल जी को एक कार्ड भी भेजा था.
नवल जी की ख्याति \’निराला रचनावली\’ के सम्पादन से मिली. मुक्तिबोध रचनावली की तरह वह एक व्यवस्थित रचनावली थी. बाद में तो कई खराब रचनावलियाँ आईं. वे शुद्ध हिंदी पर बल देते थे और प्रूफ की गलतियों को बर्दाश्त नहीं करते थे. इस प्रसंग में वे शिवपूजन सहाय की चर्चा करते थे. उन्होंने शिवपूजन जी के गद्य पर एक लेख लिखा था जो इस तरह का पहला लेख था. मुझे याद है कि पूर्वग्रह में नवल जी का एक पत्र छपा तथा जिसमें उन्होंने लिखा था- ‘मेरे जीवन का यह पहला लेख है जो किसी पत्रिका में शुद्ध छपा है.’
निराला को वे बीसवीं सदी का सबसे बड़े कवि मानते थे. एक बार इलाहाबाद में हिंदी साहित्य सम्मेलन के निराला पर कार्यक्रम में वे आये थे और उनकी ही अध्यक्षता में गोष्ठी थी. मैंने पहली बार कोई लेख मंच से पढ़ा. पर्चा खत्म होने पर उन्होंने मेरी तारीफ की जबकि उन्होंने कभी मेरी तारीफ नहीं की थी. मुझे आश्चर्य भी हुआ और उनके इस उत्साह से बल भी मिला. शायद वह निराला के प्रति मेरे अगाध प्रेम को भांप गए थे.
आज के कई समकालीन कवि इन दोनों का नाम सुनकर नाक भौंह सिकोड़ते हैं लेकिन नवल जी ने बिना किसी पूर्वग्रह के इनका मूल्यांकन किया, विश्लेषण किया. ‘दिनकर’ पर जब भाजपा ने दिल्ली के विज्ञान भवन में समारोह किया, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संस्कृति के चार अध्याय पर बोला तो उसे कवर करने मैं गया हुआ था. वह इतना नकली और राजनीतिक कार्यक्रम था कि मुझे इस बात से चिढ़ हुई कि दिनकर का इस्तेमाल किया जा रहा है, तब रात मैंने नवल जी को फोन कर उनकी राय दिनकर के बारे में पूछी और बताया कि मोदी ने दिनकर के बारे में क्या-क्या बोला तो नवल जी ने छूटते ही कहा –
\”दिनकर दक्षिणपंथी नही थे. भाजपा उनको भुना रही है और उनकी गलत छवि बना रही है.\”
मैंने अगले दिन दिनकर विवाद पर एक खबर भी चलाई थी. नवल जी टेक्स्ट आधारित आलोचना करते थे हालांकि लेखकों का एक वर्ग उनकी आलोचना पद्धति से खुश नहीं था. दिनमान में एक युवा लेखक ने नवल जी की आलोचना की थी पर धीरे-धीरे नवल जी की धाक अपने कार्यों से बनने लगी. रामविलास जी की तरह वे अपने काम में लगे रहे और समारोहों में जाना कम कर दिया. वे उत्तर-छायावाद को भी केंद्र में ले आये. हिंदी आलोचना में उत्तर-छायावाद पर ध्यान नहीं दिया गया था. नवल जी के ससुर रुद्र जी उत्तर-छायावाद के कवि थे. उन्होंने उनकी भी रचनावली सम्पादित की. एक बार जब मैं और रामकृष्ण पाण्डेय उनसे मिलने गए तो उन्होंने कहा कि
\”लेखक का काम केवल लिखना नहीं बल्कि उसे छपवाना भी है और पाठकों तक पहुंचाना भी.”
असल में नवल जी एक पेशेवर लेखक थे जिन्होंने अपने जीवन का सार्थक इस्तेमाल किया और तुलसीदास से लेकर युवा कवि राकेश रंजन तक को पसंद किया. वे वामपंथी थे पर केवल वामपंथी नहीं थे. अपने ७५ वें जन्मदिन पर उन्होंने कहा था कि वह वामपंथी थे. इस ‘थे’ का अर्थ बहुत सारगर्भित है. असल में नवल जी पर यह आरोप लगते रहे थे कि वे अपनी आलोचना में \”रूढ़\” होते जा रहे हैं. शायद इसलिए उन्होंने अपना रास्ता बदला और साहित्य को केवल विचारधारा की कसौटियों पर नहीं कसा बल्कि टेक्स्ट की व्याख्या पर भी जोर देना शुरू किया. यही कारण है कि वह अज्ञेय को भी पसंद करने लगे थे.
![](https://samalochan508692074.files.wordpress.com/2021/06/12784-10251918_768399009837095_3789158166751414193_n.jpg)
नंद जी अपनी आलोचना को अत्यधिक उदार बनाना चाहते थे. उन्होंने साहित्य में वैचारिक संकीर्णता का हश्र देख लिया था. पटना के साहित्य जगत में उनको लेकर बहुत तरह की बातें कही जाती थीं पर नवल जी ने अपना रास्ता बनाया. उन्होंने सोचा होगा कि मुझे भी रामविलास जी की तरह काम करना है, श्रम करना है और साहित्य समाज को कुछ देकर जाना है चाहे वह अच्छा हो या बुरा. वह नकारवादी वामपंथी नहीं बने रहना चाहते थे. उनके इस ‘थे’ का शायद यही अर्थ था.
vimalchorpuran@gmail.com