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Home » परख : मुक्तिबोध : एक व्यक्तित्व सही की तलाश में लेखिका (कृष्णा सोबती)

परख : मुक्तिबोध : एक व्यक्तित्व सही की तलाश में लेखिका (कृष्णा सोबती)

(विक्रम नायक का यह चित्र इसी किताब में है\’, आभार के साथ) ‘मुक्तिबोध : एक व्यक्तित्व सही की तलाश में\’, मुक्तिबोध के इस ‘अनौपचारिक पाठ’ की लेखिका कृष्णा सोबती हैं जिसे चित्रकार मनीष पुष्कले ने आकर्षक ढंग से परिकल्पित किया है. पढ़ते हैं क्या कहना है इस पुस्तक पर समीक्षक मीना बुद्धिराजा का. एक  जटिल  कवि  […]

by arun dev
June 15, 2018
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(विक्रम नायक का यह चित्र इसी किताब में है\’, आभार के साथ)




‘मुक्तिबोध : एक व्यक्तित्व सही की तलाश में\’, मुक्तिबोध के इस ‘अनौपचारिक पाठ’ की लेखिका कृष्णा सोबती हैं जिसे चित्रकार मनीष पुष्कले ने आकर्षक ढंग से परिकल्पित किया है.

पढ़ते हैं क्या कहना है इस पुस्तक पर समीक्षक मीना बुद्धिराजा का.






एक  जटिल  कवि  का  पुनर्पाठ  
मीना बुद्धिराजा


उचटता ही रहता है दिल
नहीं ठहरता कहीं भी   
ज़रा भी
यही मेरी बुनियादी खराबी
अपनी इस अवश्यंभावी बेचैनी के साथ कवि ‘गजानन माधव मुक्तिबोध’ एक बार फिर नये रूप में उपस्थित हैं और पाठकों के बीच चर्चा के केंद्र में हैं. मुक्तिबोध हिंदी साहित्य के सबसे विवादास्पद और जरूरी कवि एवं लेखक रहे हैं. उनका काव्य हमेशा पाठकों और आलोचकों के सामने एक चुनौती बनकर आता रहा है. तमाम संवादों और विवादों के बीच मुक्तिबोध को किसी पंरपंरा, संगठन, वाद और विचारधारा विशेष से जोड़ने की कोशिशें भी चलती रहीं हैं जबकि इस बंधन में उन्हें कभी बांधा नहीं जा सकता. उनकी प्रेरणा हमेशा दूसरों की प्रेरणाओं से भिन्न रही. वास्तव में आज के समकालीन विमर्शों के दौर में भी उनकी कविताएँ मानवीय प्रतिबद्धता और वैचारिक आत्मालोचन का अकाट्य तर्क बनी हुई हैं. मुक्तिबोध का काव्य  उनके भीतर जमा किसी अवरूद्ध तनाव की विस्फोटक अभिव्यक्ति के रूप में सामने आता है.




युग कवि मुक्तिबोध की कविताओं और उनकी रचनाशीलता के  जरूरी और विविध आयामों को प्रस्तुत करते हुए हमारे समय की प्रख्यात और शीषर्स्थ कथाकार – लेखिका ‘कृष्णा सोबती’ द्वारा लिखित महत्वपूर्ण पुस्तक “मुक्तिबोध-एक व्यक्तित्व सही की तलाश में” शीर्षक से अभी हाल में ‘राजकमल प्रकाशन’ से प्रकाशित हुई है. कृष्णा सोबती जी एक रचनाकार के रूप में हिंदी की वरिष्ठतम उपस्थिति हैं. जिनकी आँखों ने लगभग एक सदी का इतिहास देखा और जो इस इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में अपने आसपास के परिवेश और समय से उतनी ही व्यथित हैं, जितनी अपने समय और समाज में निपट अकेली,  बेचैन मुक्तिबोध की रूह रही होगी- मानवता के विराट और सर्वसमावेशी उज्ज्वल स्वप्न के लगातार दूर होते जाने से कातर और क्रुद्ध.

भारतीय इतिहास और साहित्य के दो समय यहां रू-ब-रू हैं. यह पुस्तक वस्तुत: पाठकीय दृष्टि से मुक्तिबोध का एक अनौपचारिक और गहन पाठ है जिसे कृष्णा सोबती जी ने अपने गहरे संवेदित मन से किया है. भारतीय साहित्य के परिदृश्य पर हिंदी की गरिमामय और विश्वसनीय उपस्थिति के साथ सोबती जी अपनी परिपक्व-संयमित रचनात्मक अभिव्यक्ति के जानी जाती हैं. प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हमारे समय की वरिष्ठ  कथाकार द्वारा एक बड़े कवि की कविताओं के पाठ की दृष्टि से भी यह एक अद्वितीय पुस्तक है.
हिंदी के जिन कवियों को बार-बार परखने की कोशिश की गई, जिन्हें बार-बार पढ़ा गया और पढ़ा जा रहा है,  उनमें मुक्तिबोध अग्रणी हैं. ऐसे में यह  पुस्तक हिंदी के सबसे विलक्षण इस बड़े कवि को फिर से नये संदर्भों में पढे जाने का अवसर देती है. एक कवि के रूप में मुक्तिबोध समय के साथ प्रासंगिक और समकालीन होते जा रहे हैं. अपने शिल्प- विन्यास में ही नहीं बल्कि विषय-वस्तु की दृष्टि से भी यह एक अनूठी पुस्तक है. यह एक अनौपचारिक तौर से पुस्तक के रूप में मुक्तिबोध की कविताओं के चुनिंदा अंशो पर सोबती जी का गहन पाठ है. यहां उनके काव्य बिंबों की विविधता है.  यह एक प्रकार से मुक्तिबोध को नये तरह से पढ‌ने का प्रयास है. यह पुस्तक एक मौलिक और अनौपचारिक कृति इसलिये भी है कि इसकि कोई विशेष रूप से भूमिका नहीं लिखी गई है और कोई अनुक्रमणिका नहीं है. मुक्तिबोध की  प्रमुख कविताओं के अंश और काव्य- पक्तियाँ हैं और उन पर लेखिका सोबती जी का  गंभीर भाष्य और सटीक टिप्पणियाँ हैं जो उनका एक नया पाठकीय रूझान भी कहा जा सकता है.
मुक्तिबोध  एक रचनाकार के रूप में हिंदी कविता की वह शीर्ष लेखनी रहे हैं जो अपने संपूर्ण काव्य में आत्मसमीक्षा और मानव जगत के गहन विवेचक तथा अपने प्रति कठोर प्रस्तावक  बने रहे. उन्होनें एक दुर्गम पथ की और संकेत किया था, जिससे होकर हमें अनुभव और अभिव्यक्ति की परिपूर्णता तक जाना था; क्या हम वहां जा सके ? यह पुस्तक इन्ही गंभीर प्रश्नों को केंद्र में रखकर पुनर्विचार और मुक्तिबोध के माध्यम से आज के समय से भी एक अनिवार्य संवाद स्थापित करती है.





पुस्तक- मुक्तिबोध : एक व्यक्तित्व सही की तलाश में
लेखिका- कृष्णा सोबती

प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन,  नई दिल्ली
प्रथम संस्करण-2017

मूल्य- रू.- 495
एक कवि के रूप में मुक्तिबोध इस मायने में अद्वितीय हैं कि उनके द्वारा अभिव्यक्त सच्चाई, आज के उलझे और जटिल समय में अधिक सच,  अधिक भयावह और क्रूर होकर हमारे सामने है. क्या कविता में आत्मसंघर्ष कम हुआ है और वह जन प्रतिबद्धता से दूर हुई है?  जैसा कि लेखिका कृष्णा सोबती जी ने एक जगह लिखा है- ‘विचारधारा कोई भी हो, वह अपनी सजगता में अपने समय को देखने से कतराए नहीं.‘ यह पुस्तक इन्हीं सवालों और कारणों की वज़ह से भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह हमारे समय में मुक्तिबोध की अनिवार्य उपस्थिति को रेखांकित करती है. हिंदी कविता ने अपने आधुनिक दौर में लेखकीय ईमानदारी में कभी ‘अभिव्यक्ति के खतरे’ और जोखिम उतने नहीं उठाए जितने मुक्तिबोध ने अपनी कविता और वैचारिकी तथा जीवन सभी में उठाए –
      
देख
मुझे पहचान
मुझे जान
देखते नहीं हो
मेरी आग
मुझ में
जल रही
अब भी  !
पुस्तक के आरंभ में ये परिचयात्मक पंक्तियां मानों मुक्तिबोध की संपूर्ण काव्य- यात्रा में उनके अनथक व्यक्तित्व को अत्यंत मजबूती से स्थापित करती है जो आत्मसंघर्ष के रूप में उनकी काव्य चेतना का केंद्रीय शब्द और विचार बना हुआ है.उनकी कविताओं मे कोई तात्कालिक संभावनाएं  नहींअपितु दुख:, विषाद और बेचैनी का तीक्ष्ण, बीहड़ तथा गहन अँधेरा है जो मानवीय अस्मिता के अंतर्विरोधों और अंत:संघर्ष से उत्पन्न हुआ है. सोबती जी लिखती हैं–‘मुक्तिबोध स्वंय अपनी सोच के अँधेरों से आतंकित होते हैं. फिर उजालों को अपनी रूह में भरते हैं. अपनी आत्मशक्ति की प्रखरता को जांचते हैं और मुक्तिबोध से आत्मबोधी बन जाते हैं.‘ यह कथन मुक्तिबोध की समस्त काव्य चेतना और रचनाशीलता का केंद्र कह जा सकता है –
बशर्ते तय करो
किस और हो तुम, अब
सुनहले उधर्व आसन के
निपीड़क पक्ष में, अथवा
कहीं उससे लुटी,टूटी
अ‍ॅँधेरी निम्न कक्षा में तुम्हारा मन
अचानक आसमानी फासलों में से
चतुर संवाददाता चाँद ऐसे
मुस्कराता है.
पुस्तक में अलग-अलग टिप्पणियों और शीषर्कों के अंतर्गत एक कवि के साथ-साथ विभिन्न संदर्भों में उनका वैचारिक और बौद्धिक व्यक्तित्व भी उभर कर पाठकों के सामने आता है. इस रूप में कविता की मन:स्थितियों के अँधेरों -उजालों के बीचों बीच तैरता मुक्तिबोध का आक्रामक आत्मविश्वास इन काव्य पंक्तियों को कुछ ऐसे गतिमान करता है कि इनके जीवंत अक्स सीधे पाठक की अंतसचेतना को उद्वेलित करते हैं. यथार्थ की अनेक अँधेरी तहों को खोलते हुए वे जिस प्रखर सत्य को खोज निकालते हैं और अपने समय की जिस मनुष्य विरोधी शक्तियों और वृतियों की शिनाख्त उस समय करते हैं वे हमारे समय और समाज में भी अपनी पूरी भयावहता में सच होकर असहनीय रूप में उपस्थित हैं.
मुक्तिबोध यह सब किसी बँधे-बँधाए शिल्प और शैली में नहीं करते ,बल्कि अपनी स्वाभाविक भंगिमाओं की तर्ज में अपनी कविता के भाव और कथ्य को अंजाम देते हैं. उनकी कविता का वैशिष्टय उनका विचार पक्ष है जो व्यक्ति और समाज के ऐन बीचों बीच की जटिलताओं में से गुजरता है जहां उनकी रचनात्मक मानसिकता का अद्भुत विस्तार है-
बात अभी  कहाँ पूरी हुई है
आत्मा की एकता में दुई है
इसीलिए
स्वंय के अँधेरों के शब्द और
टूटी हुई पंक्तियाँ
व उभरे हुए चित्र
टटोलता हूँ उनमेंकि
कोई उलझा, अटका हुआ सत्य
कहीं मिल जाए
उलझन में पड़ा हूँ
अपनी ही धड़कन गिनता हूँ
पुस्तक की अनेक टिप्पणियाँ और शीर्षक जैसे गतिमति और व्यक्तिमत्ता, पुनर्रचना, तह के नीचे, बूँद-बूँद, विचार-प्रवाह, मानव-मूल्य और पक्षधरत, संघर्ष जुड़े रहे हैं, जुड़ाव, समय से मुठभेड़, अंतर्विरोधों की पहचान, उन्हें टेरते हैं, रहस्यमय आलोक अनगिनत आयामों में मुक्तिबोध की रचनात्मक यथार्थ दृष्टि को प्रतिबिंबित करती हैं. भारतीय लोकतंत्र के जरूरी सवालों पर उनकी गहरी बेचैनी से उत्पन्नराजनीतिक सवाल उतने ही आज भी प्रासंगिक माने जा सकते हैं-
अपने लोकतंत्र में
हर आदमी उचककर चढ़ जाना
चाहता है
धक्का देते हुआ बढ़ जाना
चाहता है
लोकतंत्र में लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों के नैतिक दायित्व के विषय मे उनकी दृष्टि स्पष्ट हैं. एक आत्मालोची कवि के रूप में मुक्तिबोध में मध्यवर्गीय महत्वाकांक्षाओं की दुविधा कभी नहीं रही. अपने आत्मसंशय, आत्मसंवाद और  आत्मिक बेचैनी को जिस जिम्मेदारी,  निर्ममता और कठोरता से वे अभिव्यक्त करते हैं वह हिंदी कविता में दुर्लभ है-
  
अब तक क्या किया
जीवन क्या जिया
ज्यादा लिया और दिया कम
मर गया देश
अरे जीवित रह गए तुम.
मुक्तिबोध पहले ऐसे कवि हैं जो पाठक-समीक्षक को प्रश्न करने के लिये उकसाते हैं क्योंकि उनकी जनपक्षधरता और प्रतिबद्धता स्पष्ट है‌-
जीवन के प्रखर समर्थक से जब
प्रश्नचिन्ह बौखला उठे थे दुर्निवार
सोबती जी की एक महत्वपूर्ण टिप्पणी इस पुस्तक की समग्र चेतना और कथ्य को समग्रता में आत्मसात कर लेती है, जिसे आवरण पृष्ठ पर भी दिया गया है-

“उनकी कविता का आत्मिक मात्र कवि के गहन आन्तरिक संवेदन में से ही नहीं उभरता. शब्दों में गठित वह बाहर की बड़ी दुनिया से जुड़ी व्यक्तित्व चेतना का अंग भी बन जाता है. एक ओर मुक्तिबोध का सजग,सशक्त और किसी हद तक जिद्दी पक्ष है और दूसरी ओर उनकी रचनाशीलता को घेरे हुए इस धरती का बृहत्तर दृश्यव्य है.

आलोचक की ठंडी अंतर्दृष्टि से हटकर साहित्य का साधारण पाठक मुक्तिबोध की पंक्तियों में उस मानवीय ताप को भी महसूस करता है जो इनसानी नस्ल को हजारों-हजार साल से सालता रहा है. इनसान और इंसान के बीच बराबरी का वह महत्वाकांक्षी रोमांस जिसके साथ मानवता के संघर्ष जुड़े रहे हैं.”
पुस्तक के अंतिम पृष्ठों में हिंदी की प्रसिद्ध साहित्यिक-वैचारिक पत्रिका ‘कल्पना’का भी विशेष रूप से उल्लेख किया गया है जिसमें मुक्तिबोध की कालजयी कविता ‘अँधेरे में’सबसे पहले प्रकाशित हुई. जिसने सदी के साहित्यिक विस्तार पर शिल्प और कथ्य के नए मुहावरे के साथ एक अमिट हस्ताक्षर के रूप में उन्हें स्थापित कर दिया. और अंत में मुक्तिबोध के जीवन के अंतिम दिनों और एम्स अस्पताल में उनकी मृत्यु  और उस अविस्मरणीय समय  का भी अत्यंत भावुक प्रसंग दिया गया है जो पाठक को अंतर्मन कों गहरे व्यथित कर देता है मानों कविताओं की तरह अँधेरा और तिलिस्मी खोह का धुंधलका यहां भी उनका चिरसाथी बन गया है.
(Courtesy : Phpotograph by VipinKumar/HT)

पुस्तक की भाषा पठनीय, प्रवाहमान और एक विलक्षण ताजगी से परिपूर्ण है.  यहां लेखिका सोबती जी के भाषा-संस्कार का घनत्व, समृद्ध जीवतंता और प्रांजलता के साथ संप्रेषणीयता का वही शिल्प और कौशल विद्यमान है जो उनकी  सघन लेखकीय अस्मिता की पहचान रही है. उनके अनुसार  मुक्तिबोध का लेखन समय को लांघ जाने वाला कालातीत लेखन है जो इस पुस्तक में जीवनके प्रति आस्थावान प्रत्येक व्यक्ति की तरह निष्पक्ष, निर्मल और निर्मम सत्य के रूप में पाठकों के लिये उजागर होता है. पुस्तक में कवि मुक्तिबोध के कुछ दुर्लभ छाया-चित्र भी दिये गये हैं जो हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में पुस्तक को संग्रहणीय बनाते है. पृष्ठ सज्जा की शैली भी नवीन और कलात्मक है और पंरपरा की लीक से हटकर अभिव्यक्ति के का नया स्वरूप प्रस्तुत करती है.

आज आधी सदी के बाद भी मुक्तिबोध की कविताएँ पाठकों के अंतर्मन को उद्वेलित करती हैं. क्योकि वे सभी त्रासदियों, संघर्षों और अंतर्द्वंद्वों के बीच जूझते मनुष्य की बात को स्पष्ट और दो टूक कहती हैं. यह ऐसी कला है  जिसमें  बाहर और भीतर के विभाजन आसान नहीं थे और रूप, शिल्प , वस्तु के अलग-अलग पैमाने नहीं थे. उनका यह आत्मसंघर्ष यथार्थ के साथ रहते हुए पंरपरागत सौंदर्यशास्त्र के मानकों का अतिक्रमण कर जाता है. उनकी कविताएँ अपने होने का इस हद तक जोखिम उठाती थीं कि पुराने सभी प्रतिमानों को ध्वस्त कर देती हैं. उनका काव्य राष्ट्र से संवाद करता दस्तावेज़ है. मुक्तिबोध जिसे लिख रहे थे वह भविष्य का यथार्थ था. आत्मग्लानि और अपराधबोध के समकालीन दौर  में ये कविताएँ पढने वाले पाठकों- आलोचकों को उद्विग्न व अशांत कर देती हैं. 


उनकी लँबी कविताएँ अभी भी हमारे धैर्य, एकाग्रता और वैचारिकता का निरंतर इम्तहान लेती हैं. यह कविताएँ अपने पाठकों से स्वंय में बहुत गंभीरता और पाठ के बाद कई पुनर्पाठ करनें के लिए उकसाती हैं. उनकी कविताएँ अभिजात रुचि संपन्न आलोचना, आत्ममुग्ध- रचनाशीलता, कलात्मक स्वप्न तंद्रा और हमारी गैर- द्वंद्वात्मक चेतना पर आघात करते हुए फिर से बेचैन कर देती हैं और चिंतकों-विचारकों के लिये समस्या उत्पन्न करती हैं. ‘आत्मसंघर्ष’ अभी भी उनके संपूर्ण लेखन और काव्य का केंद्रीय शब्द और विचार बना हुआ है. 


वास्तव में मुक्तिबोध स्वंय में एक प्रखर सत्य और परम अभिव्यक्ति आत्मसंभवा की खोज हैं जिसकी तलाश हम सभी को है. इस मायने में भी यह पुस्तक नये रूप से उनका एक गहन आलोचनात्मक पुनर्पाठ भी तैयार करती है.

_____________

मीना बुद्धिराजा
प्राध्यापिका-हिंदी विभाग, अदिति कॉलेज , दिल्ली विश्वविद्यालय
संपर्क- 9873806557
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