लालबहादुर वर्मा से मेरा पहला परिचय उनकी क़िताब ‘यूरोप का इतिहास’ (पुनर्जागरण से क्रांति तक) से हुआ जब मैं १८ साल का ही था, इस पुस्तक को मैंने किसी उपन्यास की तरह बार-बार पढ़ा. इतिहास पर इतना रोचक और दृष्टिसम्पन्न लेखन मैंने आजतक नहीं देखा है, बाद में उनका और भी लिखा हुआ मैं पढ़ता रहा और सीखता रहा.
लालबहादुर वर्मा अकादमिक अर्थों में प्रभावशाली इतिहासकार तो हैं हीं. उनमें बेहतरी के लिए एक बदलावपसंद कार्यकर्ता हमेशा रहा है.
बदलती परिस्थितियों और बदलावों को समझने के लिए बहुत से लोग लालबहादुर वर्मा को पढ़ते-सुनते थे, उनकी व्याख्याएँ समझ का दायरा विस्तृत करती थीं. उनका न होना हिंदी-बौद्धिकता की भारी क्षति है.
उनका आख़िरी संवाद अधिवक्ता और संस्कृतिकर्मी राकेश गुप्त के साथ हुआ था जिसमें वह प्रबोधन के लिए जमीनी स्तर पर कार्य करने की आवश्यकता पर जोर देते हैं. ज़ाहिर है इस संवाद का अब अपना महत्व है. इसे यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है.
आलोचक विचारक विनोद शाही ने इसके साथ ही लालबहादुर वर्मा से अपने सम्बन्धों की चर्चा के बीच उनके अनके पक्षों को उद्घाटित किया है, इतिहास-बोध की चर्चा की है.
समालोचन की तरफ से यह विनीत स्मरण.
लालबहादुर वर्मा
आखिरी पड़ाव और भविष्य में छलांग
विनोद शाही
यह काम उनके अलावा शायद और कोई नहीं कर सकता था. मैं पिछले दस बारह बरस से उनके पीछे पड़ा था. जब भी बात होती उन्हें याद दिलाता. मैं उन्हें याद दिलाता, महात्मा गांधी के \’हिंद स्वराज\’ के इस कथन का कि मानव जाति का अब तक का सारा इतिहास हिंसा का इतिहास है. जबकि असल इतिहास तो मानव समाज की आपसदारी का इतिहास है और होना चाहिए, क्योंकि उसी की वजह से मनुष्य और उसकी सभ्यता विकास करती हुई मौजूदा ऊंचाई तक पहुंची है. लेकिन उसकी बजाए जो इतिहास लिखे और लिखवाए गए हैं, वह दूसरों को पराजित करके सत्ता पर काबिज होने वाले विजेताओं के इतिहास है.
लिखे और लिखवाए गए इस तरह के तमाम इतिहास मानव जाति के एक प्रतिशत से भी कम के लोगों की कहानी को हमारे सामने लाते हैं. शेष पूरा समाज किस तरह से आगे बढ़ा है इसकी खोज खबर लेने वाला कोई नहीं है. पिछले कुछ अरसे से इतिहास में भी सामान्य जन का इतिहास लिखने की बात पर जोर दिया जा रहा है. परंतु असल प्रश्न वर्चस्वी लोगों तथा सामान्य जनों के बीच के विभाजन का भी नहीं है. असल बात है लोगों के आपसी सहयोग से निर्मित होने वाले उस समाज की, जो अपनी सभ्यता और संस्कृति को निरंतर नई शक्ल में रचता और गढ़ता है. इस तरह का \’जन इतिहास\’, सभ्यता मूलक अथवा संस्कृति मूलक होने की वजह से, एकदम अलग प्रकृति वाला हो सकता है.
असल बात दृष्टि की है. लालबहादुर वर्मा हमेशा इतिहास की बजाय इतिहास–बोध की बात करते रहे. इतिहास के गंभीर विद्यार्थी होने या उसे पढ़ने पढ़ाने वाले लोग और बहुत होंगे. उस लिहाज से भी उनकी समाज को कुछ कम दिन नहीं है. उन्होंने अपने पीछे बहुत बड़ा छात्र समुदाय छोड़ा है, जो उनकी इतिहास दृष्टि को आगे ले जाने का काम कर सकता है. लेकिन जो बात लालबहादुर वर्मा को विशिष्ट बनाती है वह यह है कि वह अपने इस अकादमिक क्षेत्र वाले काम को भी बहुत पीछे छोड़ कर उस इतिहास बोध की खोज में लग गए थे जो मनुष्य को मनुष्य बनाता है और मानव जाति को उसका मानवीय सार प्रदान करके उस भविष्य की ओर ले जाता है जिसकी उसे हमेशा से तलाश रहती है. मैं उनकी इस बात को उनके बाकी तमाम कामों से बहुत ऊपर रखता रहा हूं. इसलिए जब भी हमारी मुलाकात होती तो मैं पूछता आपका वह जो बड़ा प्रोजेक्ट है, मानव जाति के \’वास्तविक इतिहास\’ को लिखने का, वह कहां तक पहुंचा? वे कहते,
‘हां मुझे वह तो करना ही है, पर फिलहाल कुछ दूसरे अधिक महत्वपूर्ण काम हमारे सामने हैं. आइये, उन पर बात करते हैं.’
फिर बात दूसरी दिशा में मुड़ जाती. कभी अन्ना हजारे के आंदोलन में पर्चे बांटकर लौटने के बाद के उनके अनुभवों की ओर. कभी इलाहाबाद के कुंभ के मेले में इतिहास-बोध का शिविर लगाकर भक्तों की भीड़ को एक नई सोच देने के अपने प्रबोधन के प्रयासों की ओर. तो कभी किसान आंदोलन की संभावनाओं की ओर. देश में जब भी कहीं कुछ भी कुछ महत्वपूर्ण घट रहा होता वह उसमें एक एक्टिविस्ट के रूप में शामिल होकर देश के भविष्य की चिंता करने वाले एक कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय मिलते.
अपने देश के विकास को अवरुद्ध करने वाली जकड़बंदियों और सीमाओं को लेकर वे अक्सर बेचैन नजर आते.
अपने जीवन के आखिरी दौर में उनकी यह बेचैनी बहुत बढ़ गई थी. वह चाहते थे कि भारत में फ्रांस की तरह पुनर्जागरण जैसी कोई बड़ी तबदीली सामने आए. इसलिए पूरे भारत में रहते हुए भी अक्सर फ्रांस में अपने शोध कार्य वाले अतीत के काल खंड के दौरान पाये गए अनुभवों को याद करते.
वह खुद को एक \’इनकॉरिजिबल ऑप्टिमिस्ट\’ कहते थे. उन्हें लगता था कि यह देश भी एक दिन बदलेगा. पर कैसे?
इस संदर्भ में मैं उनके साथ 19 अप्रैल 2021 को हुई अपनी आखिरी बातचीत को याद करने से खुद को बचा नहीं पा रहा हूं. मैंने हाल ही में भारतीय पुनर्जागरण पर अपनी नई किताब की पांडुलिपि तैयार की थी. उस पर उनकी सम्मति के लिए मैंने उसका एक प्रारूप उनको भेज दिया था. उन्होंने वह किताब पढ़ी और फिर बहुत उत्साह से भर कर मुझे फोन किया,
मैंने गांधी के हिंद स्वराज को इससे पहले भी कई बार पढ़ा था, पर आपकी इस किताब को पढ़ने के बाद मुझे लगा के उस पर और गहराई से विचार करने की जरूरत है. आपने अनेक नए संदर्भ और प्रश्न उठा दिए हैं. खास तौर पर उसमें \’हिंद स्वराज\’ पर जो अध्याय हैं, उसे तो हम अलग से एक पुस्तिका के रूप में छाप सकते हैं. इतिहास-बोध निकालते हुए हमने अनेक ऐसी पुस्तिकाएं प्रकाशित की थी और फिर उन्हें बेहद कम मूल्य पर या मुफ्त में भी छात्रों और पाठकों के बीच वितरित किया था. भारत के संभावित पुनर्जागरण को निगाह में रखते हुए इस तरह के काम अब हम सबको मिलकर करने होंगे. लेकिन अब यह काम उस रूप में नहीं हो सकेंगे कि हमने सोचा, विचार किया, किताब प्रकाशित करवा ली और लोगों के बीच उसके पहुंचने का और उनकी प्रतिक्रिया आने का इंतजार करते रहे. वह बात बहुत सीमित परिणाम लाती है. हमें सामूहिक स्तर पर और अधिक सक्रिय होने की जरूरत है. अगर हम कोई ऐसी संस्था बना सकें जो भारत के संभावित पुनर्जागरण के काम को अपने हाथ में ले सकें, तो हमारे इस तरह के काम जमीन पर उतर पाएंगे.
मैं भी कुछ लोगों से विचार-विमर्श कर रहा हूं. आप भी देखें. अगर कुछ संसाधन जुटा पाए, तो हम इस दिशा में आगे बढ़ेंगे. जैसे ही कोरोना के हालात ठीक होते हैं हमें बाहर निकलना होगा. परंतु तब तक अपने इस बड़े कार्य के लिए हमें व्यावहारिक स्तर पर बहुत से कदम उठा लेने होंगे.
लालबहादुर वर्मा की इन बातों को आज ही याद करता हूं तो समझ में आता है कि वह एक भविष्यद्रष्टा तो थे ही, ज़मीनी स्तर पर भविष्य को कैसे संभव बनाना है, इस बारे में उनकी चिंताएं अधिक गहरी थी.
उस दिन मेरी उनसे जो बात हुई थी उसका बहुत कुछ भूल भी गया था. परंतु आज जब वह हमारे बीच नहीं रहे, तो हम दोनों के साझे मित्र राकेश गुप्ता का फोन आया है. उन्होंने मुझे बताया है कि उस दिन मुझसे जो बात हुई, उसके तुरंत बाद उन्होंने मुझे (इलाहाबाद के अधिवक्ता राकेश गुप्ता) फोन करके इस संदर्भ में व्यावहारिक योजनाएं बनानी आरंभ कर दी थी. पहले उन्होंने इधर के हालात पर चिंता प्रकट हुए, उनका विवेचन और विश्लेषण किया और फिर अपने मुद्दे पर चले आए. मुझे लगा कि यह संयोग की बात है कि राकेश गुप्ता ने उस दिन उनसे हुई वह बातचीत रिकॉर्ड कर ली थी. पर फिर पता चला कि यह बात उन दोनों के बीच एक तरह के समझौते की तरह थी कि वे जो भी बात करें, वह रिकार्ड कर ली जाये. खैर, अब उन्होंने वह ऑडियो रिकॉर्डिंग मुझे भेज दी है. मुझे लगता है कि लालबहादुर वर्मा जी को याद करने का इससे अच्छा और क्या तरीका हो सकता है कि मैं उस दिन उनकी राकेश गुप्ता से हुई उस बातचीत का लिप्यंतरण करके आप सब मित्रों से साझा करूँ. यह संभवतः उनका आखिरी महत्वपूर्ण संवाद है. क्योंकि उसके एक-दो दिन के भीतर ही उन्हें कोरोना ने आकर घेर लिया था. उसके बाद आखिरकार 15 मई को इस बीमारी से जूझते टकराते, अनेक बार हमें आशा बंधाते, अंततः वे अपनी योजनाओं को हमारे बीच छोड़ कर, हम से रुखसत हो गए.
राकेश गुप्ता का आग्रह है कि इस संवाद की इन बातों के आधार पर हमें अब हम ख्याल मित्रों का एक छोटा सा समूह बनाना चाहिए और उनके विचारों को व्यवहारिक पर जमीन पर उतारने के लिए प्रयास आरंभ कर देने चाहिए. संभव है, उनसे हुई इस रिकॉर्डिंग में उठी हुई बातों को सुनकर आप भी इसी नतीजे पर पहुंचें. नीचे मैं इस रिकॉर्डिंग का लिप्यंतरण प्रस्तुत कर रहा हूं.
लालबहादुर वर्मा:
हमारा समाज बेहद पाखंडी समाज होता जा रहा है. हम लोग जीवन के हर पक्ष में अपने पाखंड को जी रहे हैं. मैंने इतना पाखंडी समाज, पूरे विश्व में, जितनी मेरी जानकारी है, दूसरा नहीं देखा. इस पाखंड को बाकायदा पाला पोसा गया है. पितृसत्ता ने और ब्राह्मण वाद ने, इससे इस स्थिति तक पहुंचाया है. इस दुश्चक्र को कैसे तोड़ा जाएगा?
राकेश गुप्त:
इसके लिए प्रबोधन एक रास्ता है. इलाहाबाद में हम आपकी अगुवाई में कुछ अरसे से प्रबोधन के अनेक कार्यक्रम तो करते ही आ रहे हैं.
लालबहादुर वर्मा:
खाली प्रबोधन से कैसे होगा? यह अकेले-अकेले सोचने वाला मामला नहीं रहा. हमें कुछ ज़मीनी कार्यक्रम करने की बाबत सोचना पड़ेगा. विनोद शाही से इस बारे में अभी बात हुई. मैंने उनसे कहा कि मैं इतनी सारी योजनाएं बनाता हूं, परंतु उनमें से किसी को भी अब क्रियान्वित कर पाने की स्थिति में नहीं रह गया हूं. मैंने उनसे कहा आप प्रबुद्ध आदमी है परंतु अब हालात लोगों के बीच जाने के अधिक हैं. उनसे कहा कि आप हैं, आलोक श्रीवास्तव हैं, मैं हूं, आप है, रविंद्र शुक्ला है. हम सब अलग-अलग तरीके से बहुत कुछ सोचते हैं, जो सार्थक है. परंतु मेरा मानना यह है कि अब व्यक्तिगत प्रयास करने का समय गया. हमें नयी संस्थाएं बनानी पड़ेगी. मैंने उनसे कहा, चार पांच लोगों की ही सही पर कोई संस्था खड़ी होनी चाहिए. योजना बनाकर इनके बीच वीडियो कॉन्फ्रेंस हो और फिर आपस में ही मिल बैठने के कार्यक्रम बनाए जा सकते हैं. इतने से ही बहुत से नए कार्यक्रम किए जा सकेंगे. इस सबके लिए बहुत धन जुटाने की जरूरत भी नहीं है. अगर अपना काम करते हुए हम लोगों को कुछ प्रभावित कर सके तो संस्था को खड़ा करना कठिन नहीं.
जैसे हालात है मुझे लगता है अगर हम कुछ नहीं करेंगे तो देर हो जाएगी. अब मैं यह बात आप लोगों पर छोड़ रहा हूं. मुझे लगता है, अब मैं इस तरह की कोई योजना खुद बना पाने की स्थिति में नहीं रह गया हूं. मेरे पास बीसियों योजनाएं हैं और वे सब सार्थक लगती है. पर मैं कारगर किसी को नहीं बना सका. अभी तक मेरी मुलाकात किसी ऐसे आदमी से नहीं हुई जो कुशल प्रबंधन कर सके. इतना महत्वाकांक्षी नहीं हूं कि हम दुनिया बदलने निकल पड़ेंगे. हम तो अपना पर्यावरण भर बदल लें बस, इतना ही पर्याप्त है.
राकेश गुप्त:
आपके पाखंड वाली बात से याद आया की पहले तो हमें वैचारिक पर्यावरण बदलना होगा. हमारे एक मित्र हैं विज्ञान और संविधान की बहुत बात करते हैं पर उसे जब अपने घर में लागू करने की बात आई, तो उन्हें संविधान बुरा लगने लगा. हमारी नैतिकता बस इतनी ही गहरी है. ऊपर से मज़ेदार बात यह है, जैसा कि मुझे लगता है वह संसद सदस्य बनने की तैयारी कर रहे हैं. \’मैनिपुलेटर\’ किस्म के आदमी हैं. प्रबंधन के नाम पर ऐसे लोगों की ही चलती है.
लालबहादुर वर्मा:
पर ऐसे लोग बड़ी जल्दी पकड़ में आ जाते हैं. वह लोगों को ज्यादा देर मुगालते में नहीं रख सकते. लोग कुछ देर लिहाज करते हैं. फिर असलियत सामने आ जाती है. अवसरवादी होना एक बात है और विद्रोही होना दूसरी बात. जहां कहीं पाखंड दिखाई दे हमें उसके विरोध में खड़े होने की अपनी आजादी के अधिकार को बरकरार रखना होगा. वह आजादी जो स्पार्टाकस के पास थी, वह एक ऐसी बुनियादी बात है जिसे कोई मनुष्य से छीन नहीं सकता. जब कोई कहता है कि आप आदमी को मयस्सर नहीं आदमी होना, तो वह जो बायोलॉजिकल आदमी है उसे मिर्ची लगती है कि वह आदमी कहलाने के लायक क्यों नहीं है.
इधर कुछ फैसले आए हैं. मद्रास उच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग के खिलाफ सख्त टिप्पणियां की हैं. अगर हमारे राजनीतिक दल चुनाव आयोग के सामने प्रदर्शन करने की स्थिति में भी नहीं रह गए हैं, तो क्या ऐसे लोगों की भी कमी हो गई है, जो अपनी दीवानगी को जी सकें. और उसका इजहार कर सकें. एक आदमी भी काफी है, जो अपने दोनों और पोस्टर लगाकर चुनाव अधिकारियों को गिरफ्तार करने की मांग कर सकता है. यह भी पता हो कि कुछ नहीं होगा, तब भी एक संदेश तो जाता ही है. अमेरिका के वाइट हाउस के सामने एक आदमी 35 बरस से आणविक हथियारों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहा है. सबको पता है कुछ नहीं होगा. पर संदेश तो जाता है कि आणविक हथियार मानव जाति के लिए आत्मघाती हैं.
राकेश गुप्त:
निदा फाजली याद आते हैं. वे कहते हैं कि दो और दो चार करना काफी नहीं है. आदमी को आदमी होने के लिए कुछ नादानी करने की जरूरत भी पड़ती है. यह वही बात है जिसे आप दीवानगी कहते हैं. यही तो इंकलाबी होना है.
लालबहादुर वर्मा:
लोग डरने लगे हैं, ऐसे लोगों से. सत्ता में बैठे लोग इतने असंवेदनशील हो गए हैं, कि उन्हें मरवा तक डालते हैं. जो आदमी होने की कोशिश करता है, उसे ही नहीं, उसकी लाश तक को मारने का इंतजाम कर लिया जाता है.
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लालबहादुर वर्मा के साथ राकेश गुप्ता के इस संवाद को ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे के यहां दो तरह के लोगों की बात की गई है एक वे लोग हैं, जो पाखंडी हो गए हैं; और दूसरी तरफ हुए लोग हैं जो मनुष्य होने की कोशिश में है. हमारे समाज में पाखंड के विविध रूप इतनी गहरी जड़ पकड़ चुके हैं कि अब ठीक से मनुष्य होने के हालात जैसे बचे ही नहीं है. पाखंड का विश्लेषण करेंगे तो पाएंगे कि यह मामला सांस्कृतिक धरातल पर धूर्त हो जाने का है. हर तरह के छल प्रपंच को ऐसी दलीलों से ढांप दिया जाता है, जिनसे मनुष्यता और समाज विरोधी कोई भी बात किसी के सामने कोई नैतिक संकट खड़ा नहीं करती. निज के स्वार्थ के लिए सामाजिक नैतिकता को तिलांजलि देने में किसी को कोई तकलीफ नहीं होती. परंतु वही लोग आसपास पहले हर तरह के भ्रष्टाचार के सबसे बड़े आलोचक बन कर हमारे सामने उपस्थित हो जाते हैं. अगर कुछ लोग विचारों की तबदीली के लिए या सामाजिक व्यवहार के तौर-तरीकों में नैतिक बदलाव के लिए कोशिश करते हैं तो ऐसे लोगों मैं किसी ना किसी तरह के स्वार्थ की मौजूदगी को खोज कर उन्हें हाशिए पर धकेल दिया जाता है. यह कहना आसान होता है कि फलां व्यक्ति जो कुछ अच्छा काम कर रहा है उसके पीछे उसकी यश पाने की या सामाजिक प्रभाव या शक्ति हासिल करने की अथवा किसी राजनीतिक दल का समर्थन पाने की भूख काम कर रही होगी. हाल ही में जिस तरह के जितने भी समाज सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रतिरोध सामने आए हैं, उन सब का इसी प्रकार राजनीतिकरण कर लिया जाता है और उन्हें संदेहास्पद बना दिया जाता है. हाल ही में सामने आए किसान आंदोलन के साथ भी यही हुआ है.
कोरोना ने हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था की पोल खोल दी है. इसमें सभी को बेहतर चिकित्सा सुविधाएं चाहिए. लॉकडाउन होता है, तब भी सबको अपनी रोजी-रोटी की फिक्र अधिक होती है. सबके सामने कसौटी निज की अधिक मुखर होकर अच्छे और बुरे की कसौटी बनती रहती है. जो लोग हालात पर उंगली रखते हैं, उन्हें इस या उस दल के प्रवक्ता होने के संदेह में खारिज कर दिया जाता है. सच और झूठ के बीच इतना कम फासला रह गया है कि अब किसी को अपने पाखंडी होने की स्थिति के बावजूद खुद को सही साबित करने में ज्यादा मुश्किल नहीं आती. अधिकारों की प्राप्ति के लिए जन समाज का राजनीतिकरण होना एक अच्छी बात है परंतु जब नैतिक मूल्यों का भी राजनीतिकरण हो जाता है तब मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने वाली चेतना को बचाना बेहद कठिन मालूम पड़ने लगता है. हम आज ऐसे ही कठिन हालात में है.
लालबहादुर वर्मा ऐसे कठिन हालात से लड़ने के लिए किसी कारगर संस्था को बनाने की बात करते-करते इस दुनिया से चले गए. वे हम लोगों से शायद कुछ अधिक ही उम्मीद लगाकर इस दुनिया से रुखसत हो गए. उनकी मुझसे जो अपेक्षाएं थी, उनकी वजह से मैं खुद को लगभग एक अपराधी की स्थिति में खड़ा पाता हूं. नहीं जानता क्या कर पाऊंगा और कितना कर आऊंगा?
यह जो बेबसी का भाव है, इसको मैंने तब भी अनुभव किया था जब पिछले वर्ष फरीदाबाद में विकास नारायण राय के घर पर १६ जून २०१९ को हम लोग एक चिंतन शिविर के लिए इकट्ठे हुए थे. बात आखिरकार यहां तक चली आई कि हमें अपनी धरती को बचाने के लिए कुछ ठोस कदम उठाने होंगे. प्रकृति और पर्यावरण के संदर्भ में कुछ बहुत कार्य कर कार्यक्रमों को व्यवहारिक रूप प्रदान करना होगा. तब एक योजना बनी. एक \’ईको फ्रेंडली\’ आश्रम बनाया जाएगा. उसके लिए धन एकत्र होने लगा. जो मित्र उपस्थित थे उन सब ने मिलकर 10 लाख तक का वायदा भी कर डाला. मुझे यह देख कर हैरानी हो रही थी कि 84साल का यह युवा व्यक्ति घर पर आराम करने की स्थिति में शायद कभी नहीं आएगा. वह हमेशा कुछ ना कुछ ऐसा करता रहेगा जो पूरे समाज के लिए एक सार्थक संदेश देने का काम करता रह सके. पर वह योजना शुरू होने से पहले खत्म हो गई, क्योंकि उसके तुरंत बाद को कोरोना की महामारी ने, सामान्य गतिविधियों के साथ-साथ सारे परिवर्तनकारक भविष्योन्मुख कार्यक्रमों पर भी ग्रहण लगा दिया. हम सब बेबस हो गये थे, हालांकि इस दफा ये बेबसी, निजी कम, सामूहिक अधिक थी.
तथापि उस चिंतन शिविर के लिए लालबहादुर वर्मा ने अपने जिन विचारों को एक प्रस्ताव के रूप में हम सब मित्रों में वितरित किया था उसे यहां आप सबके साथ साझा कर रहा हूं.
\”प्रिय बन्धु,
आज का सारभूत संकट यह लगता है कि घर से संसार तक, पर्यावरण के संकट यानी धरती के विध्वंस के प्रति हम सचेत नहीं हो पा रहे. मानव जीवन की गुणवत्ता के अनंत विस्तार की संभावना है पर हम आत्म हनन की ओर अग्रसर हैं.
जरा सोचिये: जब बंदर आदमी बना तो यह एक यूनिवर्सल प्रक्रिया थी यानी सभी मनुष्य एक जैसे थे. पर आदमी के इंसान बनने की- जैविक प्राणी के सांस्कृतिक प्राणी बनने की प्रक्रिया के दौरान समाज में एक नियंत्रक समुदाय पैदा होता गया. उसने अब तक के सारे आविष्कारों- आग और पहिया से- आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस तक, अपने नियंत्रण में रखा और मुख्यतः अपने हित के लिए इस्तेमाल किया है. ‘सभ्यता के कुछ शताब्दियों के दौरान’ जन के बहुलांश को हर सृजन से लाभों से वंचित रखकर मानव ईश्वर की तरह सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञाता और सर्वव्यापी बनने की होड़ में है. इस बदनीयत कोशिश में मानव, अमानवीयता, अजनबीयत, लालच और परपीड़न की ओर अग्रसर है.
आइए विकास और क्रांतियों की एक वैकल्पिक प्रक्रिया की कल्पना करें जिसमें सृजन में सबकी भागीदारी हो- ‘सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया’ चरितार्थ हो सके. अगर ऐसा हो पाता तो मानव समाज कितना सृजनशील और समृद्ध हो जाता इसकी कल्पना ही आनंददाई है.
संकट यह है कि सृजन की यह राह अधिकाधिक अवरुद्ध की जा रही है. उसे आत्महनन की ओर मोड़ दिया गया है. इस सत्ता-निर्मित संकट को सूक्ष्म रूप में हम व्यक्तिगत और पारिवारिक स्तर पर इसे भोगते और महसूस करते हैं.
नई राह का निर्माण घर से शुरू हो सकता है. इसके लिए हमें जीवन की गुणवत्ता को यूनिवर्सल मुद्दा बनाना पड़ेगा. हमें पर्यावरण, शिक्षा, लोकतंत्र, लौकिकता, सेकुलरिज्म, न्याय और सौंदर्यबोध आदि का घर में ही पहले पोषण करना होगा.
आइए विश्वास करें कि ‘सत्यम-शिवम-सुंदरम’ और ‘स्वतंत्रता-समानता तथा भातृत्व’ जैसे मूल्य और उसके लिए जरूरी संस्थाएं आज कितनी संभव है उतनी पहले कभी नहीं थी. पर उसके लिए हमें विश्व नागरिक, आशावादी और सृजनशील बनना होगा.
आइए कोशिश करें कि इस संक्रमण और संकट के दौरान कोई साझा हस्तक्षेप विकसित हो. हमारे परिवारों से लेकर– समाज और सम्पूर्ण विश्व में श्रम कि गरिमा, महत्ता और श्रम की संस्कृति स्थापित हो. इसके लिए मुख्यतः शिक्षा को माध्यम बनाकर कुछ उपाय सूझ रहे हैं जैसे परिवार में पर्यावरण के सांस्कृतिक पक्ष पर जोर, पूरक शिक्षण, प्रबोधन, काउंसिलिंग, कॉमिक्स, पारिवारिक पत्रिका, appreciation courses, documentary बनाना, सांस्कृतिक मेले आयोजित करना, ऑनलाइन स्कूलिंग …………..
इस तरह के कार्य जहाँ जो कर सके उसे सहयोग करना .\”
यह सब पढ़ कर इस बात को कोई भी व्यक्ति अनुभव कर सकता है, के लालबहादुर वर्मा जितने गहरे चिंतित थे उससे अधिक वे एक्टिविस्ट की भूमिका में हमेशा कुछ ना कुछ ऐसा करते रहना चाहते थे जिससे जड़ता को तोड़ने और एक नया समाज व एक नया मनुष्य बनाने की दिशा में हम एक कदम आगे बढ़ा सकें.
इतिहास के प्राध्यापक होने के नाते उनकी दिलचस्पी अतीत में जितनी थी उससे अधिक इस बात में थी के इतिहास हमारे भीतर उस तरह का बोध कैसे बनता है, जिसके सहारे हम भविष्य में हस्तक्षेप करने लायक हो सकें. वे जब \’इतिहास बोध\’ नाम की पत्रिका निकालते थे तो उसके आखिरी आठ दस अंको को उन्होंने \’कल, आज और कल\’ नामक शीर्षक के आधार पर, विविध विषयों की गहराई में उतरने के लिए समर्पित किया. धर्म, शिक्षा, राजनीति, संस्कृति, अर्थ तंत्र आदि जितने विषय ज़रूरी लगे, उनके संबंध में वे कल, आज और कल, इन तीनों आयामों पर केंद्रित होने का प्रयास करते रहे. इस सिलसिले की परिणति उनके द्वारा निकाले गए उस अंक के रूप में सामने आई, जिसे उन्होंने मैत्री का विमर्श कहा. मुझे लगता है कि मैत्री की बात उनके पूरे जीवन के सार की तरह है.
उनके एक्टिविस्ट होने के आरंभिक दौर का संबंध उनकी मार्क्सवादी विचारधारा से जुड़े भाईचारे या कॉमरेड होने की बात से है. परंतु धीरे-धीरे वे मार्क्सवाद के उस \’जार्गन\’ से खुद को मुक्त कर लेते हैं, जिसकी वजह से भारत के अधिकांश कॉमरेड समाज से कट गए और विचारधारात्मक जड़ता का शिकार होकर, एक हद तक संदेहास्पद तक हो गए. उन्होंने इंकलाब का रास्ता नहीं छोड़ा. वे कम्युनिस्ट पार्टी के सीमित दायरे के बाहर खड़े होकर भी, उन तमाम रूपांतर कार्य हलचलों के साथ सहज रूप से जुड़ते चले गए, जिन की भारत को बदलने में थोड़ी सी भी भूमिका हो सकती थी. यह तय है कि इस तरह का काम किसी कम्युनिस्ट के बस की बात नहीं. हमारे यहां धर्म संस्कृति के क्षेत्र में कथा वाचन की एक बड़ी परंपरा है. लोगों में उसके लिए बड़ी स्वीकृति भी है. उन्होंने इस तरह का कथा वाचन करते हुए गांधी के एक पौत्र को देखा था. उन से प्रेरित होकर उन्होंने भी भगत सिंह कथा तथा अंबेडकर कथा कहने जैसे अनूठे प्रयोग करके दिखाए थे. इतना ही नहीं वहां पर भगत सिंह और अंबेडकर की आरती तक करवाई थी और पूजा का चंदा इकट्ठा करके किसी स्कूल में दान दे दिया था.
यह तय है कि इस तरह के काम करने के लिए आदमी को क्रांतिकारी ही नहीं, क्रांतिदर्शी भी हो ना पड़ेगा. वे हम सब से ऐसे क्रांति दर्शी होने की उम्मीद लगाए बैठे रहे. अब मेरे सामने एक ही सवाल है उनसे इतनी लंबी अपनी मित्रता के अधूरे रह गए अध्याय को मुकाम तक कैसे पहुंचाया जा सकता है.
पर कुछ अधूरा छूट जाए, इससे उस उन्हें कभी परेशानी नहीं हुई. सच पूछो तो यह एक बात थी जिसमें मैं अपने आप को उनके बेहद करीब पाता था. दूसरी बात जो मुझे अपने और उनमें एक जैसी लगती रही वह यह थी कि हम दोनों में किसी महान विचारक और क्रांतिकारी को कभी पूजा के या श्रद्धा के लायक नहीं माना. हमारी दिलचस्पी इस बात नहीं रही कि हम उनकी मदद से अपने आज के समय को कैसे समझेंगे और उनके अधूरे रह गए काम को आगे जीजा ने के लिए क्या करेंगे. इस संदर्भ में हमने कभी इस बात को लेकर हिचकिचाहट का अनुभव नहीं किया कि हमारी कुछ बातें उन महान लोगों के विचारों की और धारणाओं की कटु आलोचना तक होने की हद तक चली जाती थीं. परंतु हम दोनों किसी के केवल आलोचक ही नहीं थे, हमारी आलोचना का उद्देश्य उनसे प्रेरणा ग्रहण करना मात्र था और उन बातों को समझना था, जिनकी वजह से उनके कार्य अधूरे रह गए.
मुझे कोलकाता से निकलने वाली पत्रिका \’वागर्थ\’ के एक अंक का संपादन करने के लिए कहा गया था. मैंने उस अंक को \’अधूरे इंकलाबों\’ की प्रासंगिक संभावनाओं पर केंद्रित किया था. मेरे इस विषय को लेकर मेरे कुछ करीबी मित्रों ने, खासतौर पर मार्क्सवादी साथियों ने, कटु आलोचना की थी. उन्होंने कहा था कि इंकलाब इंकलाब होता है. वह अधूरा कैसे हो सकता है? जो अधूरा है, उसे इन्कलाब कैसे कह सकते हैं? पर मुझे लगता रहा कि दुनिया का हर इंकलाब एक हद तक अपने कार्यों को पूरा करता है और अनेक दूसरे संदर्भों में अपने अधूरेपन की वजह से गतिरोध का शिकार होता है. भारत की आजादी को भी मैं एक अधूरे इंकलाब की तरह देखता रहा. वहां कुछ करने को छूट गया है, तभी तो हमारे सामने अब यह काम उपस्थित है कि हमें पुनर्जागरण से संबंध रखने वाले स्वतंत्रता संग्राम के अधूरे कामों को पूरा करने की बाबत सोचना होगा. उसके लिए आज के दौर में एक नए पुनर्जागरण के लिए प्रयासरत होना हमारी सबसे बड़ी जिम्मेवारी बन जाती है. इस बात को माओ त्से तुंग भी समझते थे, इसलिए वे चीन के इंकलाब को सांस्कृतिक संदर्भ में एक हज़ार साल तक चलते रहने वाले आंदोलन की तरह देखते थे. यह बात अब किसी से छिपी नहीं है कि वह इंकलाब वहां भी किन अर्थों में अधूरा साबित होकर, अब रूस की तरह प्रति क्रांति की दिशा में आगे बढ़ रहा है.
लालबहादुर वर्मा की इतिहास पर जितनी गहरी पकड़ थी,उसकी वजह से उन्होंने इस बात को पहचाना कि इस अधूरेपन के इतिहास बोध को पहचानने से ही भविष्य के लिए रास्ता निकल सकता है. \’वागर्थ\’ के उस अंक के प्रकाशित होने के तीन चार वर्ष बाद जब मेरी वर्मा जी से एक पुस्तक मेले में मुलाकात हुई तो मैंने पाया कि वहां एक किताब रखी हुई थी, जिसका शीर्षक था – \’अधूरे इंकलाबों का इतिहास बोध\’. इस किताब को देखते ही मैं एकदम रोमांचित हो उठा और मैंने आगे बढ़ कर उनके पांव छू लिए. उन्हें इस बात से संकोच हुआ और उन्होंने कई मित्रों से यह बात कही भी के मुझ में ऐसा क्या दिखाई दिया कि उन्होंने मेरे पैर छू लिए. वर्मा जी उस दिन से मेरे मित्र और गुरु दोनों हो गए. वे चले गए है, पर मुझे उन की गुरु दक्षिणा तो चुकानी ही है.
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(लालबहादुर वर्मा और विनोद शाही) |
विनोद शाही
ए 563 पालम विहार, गुरुग्राम- 122017
मोबाइल: 98 146 58098