राहुल राजेश
हाल में एक हिंदी साप्ताहिक पत्रिका में जब अष्टभुजाशुक्ल की एक कविता पढ़ी तो अरसों बाद \’रसे–रसे\’ शब्द से दुबारा मुलाकात हुई. उनकी कविता \’रस की लाठी\’ इन्हीं शब्दों से शुरू होती है– \’रसे–रसे पककर आँवलों में पक्की हो गई है खटास/ गन्नों में पककर पक्की हो गई है मिठास\’ . \’रसे–रसे\’ शब्द मेरी दादी अक्सर बोला करती थी. \’थी\’ इसलिए कि दादी को रोज सुन पाने का सुख अब समाप्त–प्राय हो चुका है. दादी से हजारों किलोमीटर दूर नौकरी करने की बाध्यता के कारण दादी के खजाने से निकलने वाले बेहद मीठे–अनूठे देशज और ठेठ शब्दों से हम लगभग वंचित ही हो गए हैं और केवल स्मृतियों में संचित शब्द ही कभी–कभार दीप्ति–सा कौंध जाते हैं. जैसे कि यह शब्द-\’रसे–रसे\’!
दादी \’धीरे–धीरे\’ के लिए \’रसे–रसे\’ का प्रयोग करती थी. जैसे– रसे–रसे चढ़ना, रसे–रसे उतरना, रसे–रसे खाना, रसे–रसे पकाना, रसे–रसे काटना आदि–आदि. \’रसे–रसे\’ में धीरे–धीरे के साथ संभलकर काम करने का भी आशय होता था. यहाँ अष्टभुजा शुक्ल की कविता में रसे–रसे का प्रयोग धीरे–धीरे, शनै:-शनै: के अर्थ में हुआ है. यानी आँवले में धीरे–धीरे (रसे–रसे) खटास जमा होती है और गन्ने में धीरे–धीरे (रसे–रसे) मिठास जमा होती है. जब हम कोई काम हड़बड़ करते हुए या जल्दी–जल्दी करने या पूरा करने लगते थे, तब भी दादी लगभग गुस्सा होते हुए टोक देती थी– \’अरे, रसे–रसे, रसे–रसे!\’
अफसोस कि \’रसे–रसे\’ शब्द का प्रयोग अब हम नहीं करते. इसकी जगह \’धीरे–धीरे\’ ज्यादा मानक प्रयोग बन गया है! लेकिन जब अष्टभुजा शुक्ल की कविता में इसका सुंदर प्रयोग देखा, तो मन प्रफुल्लित हो गया. शुक्र है कि ऐसे देशज शब्द कविता, कहानी, उपन्यास आदि में अब भी कमोबेश प्रयोग किए जा रहे हैं और इन्हीं के माध्यम से साहित्य में संरक्षित तो हो रहे हैं! इसी बहाने वे हमारी स्मृतियों में दुबारा ताजा भी हो रहे हैं! ससंदर्भ याद आ रहे हैं! इतना ही नहीं, वे हमारे मन की आँखों में कौंधकर दुबारा जुबान पर चढ़ जाने को आतुर हो रहे हैं! हमें इन्हें फिर से सुनने–बोलने को आतुर कर रहे हैं! \’वागर्थ\’ में किश्त दर किश्त छपी और बाद में पुस्तकाकार प्रकाशित एकांत श्रीवास्तव के उपन्यास \’पानी भीतर फूल\’ को पढ़ते हुए भी ऐसे कई देशज शब्दों से अनायास ही भेंट होती गई और वे स्मृतियों से बाहर आकर जीभ पर कुलबुलाने लगीं!
छत्तीसगढ़ के ग्राम्यजन–जीवन और ग्राम्य लोकजगत की पृष्ठभूमि में लिखे गए इस उपन्यास में बखरी, परछी, खम्हार (खलिहान), खोर, नोनी (झारखंड में नुनु–नुनिया), रँधनी, पोलखा, चाहा, दियाँर, पैरा (झारखंड में नारा/नरुआ), जान–सून, मनजानिक, अत्ती–पत्ती, मनई आदि जैसे अनेक शब्दों का सहज–सुंदर प्रयोग हुआ है. ऐसे शब्द आज के नागर समाज के लिए यकीनन अजनबी ही होंगे, लेकिन गाँवों की बोलचाल में ये आज भी कमोबेश जीवित हैं. हाँ, नागर समाज के साहित्य में इन देशज–जनपदीय शब्दों की छौंक अब न तो देखने को मिलती है और न ही वहाँ इन शब्दों की कद्र है! गाँवों से शहरों में आकर बसती जा रही आबादी भी अब इन शब्दों से कटती जा रही है और उनकी दैनंदिन बोलचाल के शब्दकोश से देशज, जनपदीय और गँवई सुगंध और मिठास वाले ऐसे शब्द विलुप्त होते जा रहे हैं. अब तो टह–टह लाल, टुह–टुह हरियर, कुच–कुच करिया आदि जैसे सुंदर प्रयोग भी सुनने–पढ़ने को नहीं मिलते हैं!
बांग्ला में एक शब्दहै– \’हिंसा\’. हिंदी में हिंसा का सामान्य और प्रचलित अर्थ \’खून–खराबा\’ है. लेकिन बांग्ला में इसका प्रयोग \’ईर्ष्या\’ के अर्थ में किया जाता है! कुछ इस तरह– \’आमार नतून कापड़ देखे हिंसा करिस ना!\’ (हमारे नए कपड़े देखकर इर्ष्या मत करो!), \’इस्स! अतऽऽऽ हिंसा!\’ (उफ्फ! इतनी ईर्ष्या!) आदि–आदि. यह प्रयोगमुझे हिंदी के सामान्य अर्थ से कहीं ज्यादा सुंदर और सटीक लगता है. वस्तुत: ईष्या स्वयं में एक प्रकार की हिंसा ही तो है! गाँधी जी इसी अर्थ में क्रोध और ईर्ष्या को भी हिंसा की श्रेणी में रखते थे. बांग्ला में ही और एक शब्द का बहुत सुंदर प्रयोग देखने को मिलता है, वह है– \’दारुण\’. दारुण का हिंदी में सामान्य अर्थ है– भयंकर. लेकिन बांग्ला में दारुण का प्रयोग कुछ इस तरह होता है– \’सचिनेर दारुण शॉट!\’ (सचिन का बेहतरीन शॉट), \’कतऽऽऽ दारुण धुन!\’ (कितनी मार्मिक धुन), \’कतऽऽऽ दारुण रंऽग!\’ (कितना सुंदर रंग) आदि–आदि. यानी बांग्ला में दारुण का प्रयोग अति सुंदर, बेहतरीन, लाजवाब, मार्मिक के अर्थ में होता है, जो भयंकर से कहीं ज्यादा कर्णप्रिय और सुरुचिपूर्ण लगता है! अंग्रेजी में \’awesome\’ शब्द को इसके पर्याय के रूप में देखा जा सकता है, लेकिन यह भंयकर के ज्यादा निकट लगता है! दारुण तो दारुण ही रहेगा!
मेरे नाना जी चोटलगने या ठोकर लगने को \’घाव लगना\’ कहा करते थे. जैसे– \’अरे, संभल के चलो, घाव लग जाएगा!\’ मुझे यह प्रयोगभी बहुत आत्मीय लगता था. बिहार–झारखंड में एक शब्द का खूब प्रयोग होता है, वह है– \’थेथर\’. यह शब्द भी मुझे बड़ा प्यारा और मजेदार लगता है. वहाँ इसका प्रयोग ठीठ, जिद्दी, हठी, मोटी चमड़ी वाले के अर्थ में होता है. जैसे– \’वह बड़ा थेथर आदमी है, उससे कुछ कहो ही मत.\’ इसी तरह और एकगँवई ढब का शब्द है– \’भोथर\’. इसका प्रयोग कुंद, भोंथरे, बिना धार वाले के अर्थ में किया जाता है. जैसे– भोथर दिमाग, भोथर हसिया आदि. विशेष तौर पर झारखंड में एक शब्द अब भी खूब प्रचलन में है– \’दिक्कू\’. वहाँ गैर–आदिवासी आबादी को \’दिक्कू\’ कहा जाता है. माना जाता है कि आदिवासी लोग इसका प्रयोग गैर–आदिवासी आबादी के लिए करते हैं. दिक्कू से उनका आशय है– दिक्कत करने/देने वाला, दिक–दिक करने वाला यानी परेशान करने वाला. झारखंड में स्मरण, स्मृति, याद अथवा ख्याल के लिए भी एक सुंदर शब्द का प्रयोग किया जाता है, वह है– \’दिशा\’. यथा– \’हमरा ओकर नाम दिशा नाय आवे छे.\’ (मुझे उसका नाम याद नहीं आ रहा.), \’हमरा ई बात के दिशा नाय छे.\’ (मुझे इस बात का स्मरण नहीं है.) आदि.
जब मैंअहमदाबाद आया तो मुझे गुजराती का एक शब्द बहुत प्यारा लगा! वह शब्द है– \’सरस\’! हिंदी में सरस का सामान्य अर्थ \’रसपूर्ण\’ है. लेकिन गुजराती में सरस का अर्थ \’सुंदर\’ है! गुजराती में इसका प्रयोग कुछ इस तरह होता है– \’सरस छे!\’ (सुंदर है! बढ़िया है!). गुजरातीका ही और एक शब्द मुझे भा गया, वह है– \’कदाच्\’. यह शब्द संस्कृत के \’कदाचित्\’ का ही ज्यादा प्रचलित रूप है. गुजराती में कदाच् का प्रयोग \’शायद\’ या \’संभवत:\’ के अर्थमें होता है. कदाच् का प्रयोग गुजराती में कुछ इस तरह किया जाता है– \’कदाच भूली गयो!\’ (शायद भूल गया), \’कदाच् आजे रमेश आवती नथी!\’ (शायद आज रमेश नहीं आया है) आदि–आदि. गुजराती का और एक शब्द कर्णप्रिय लगता है, वह है– \’पूनम\’. यहाँ पूर्णिमा को पूनम कहा जाता है. जैसे– \’आज पूनम की रात है!\’
पंजाबी का भीएक शब्द मुझे बहुत प्यारा लगता है– \’देख–वेख के\’! देख–वेख में वेख/वेखना शब्द \’वीक्षण/वीक्षा\’ से आया है. इस शब्द में सतर्कता के भाव के साथ–साथ बिंदासपन का भाव भी झलकता है! इसका प्रयोग हाल के किसी बालीवुडिया गाने में भी किया गया है. इसी तरह राजस्थानी में भी मुझे दो शब्द बड़े प्यारे लगते हैं. पहला शब्द है– \’घणी खम्मा\’! इसका अर्थ होता है– नमस्कार, प्रणाम. दूसरा शब्द है– \’जोग लिखी\’. इसका अर्थ है– चिठ्ठी–पतरी. इस समय मुझे बांग्ला का \’जोगाजोग\’ शब्द भी याद आ रहा है, जिसका अर्थ होता है– संपर्क. संतोष की बात ये है कि ये शब्द अभी इन क्षेत्रीय भाषाओं में प्रयोग और प्रचलन में बने हुए हैं.
मेरी दादी और मेरीमाँ के शब्दकोश में भी कुछ ऐसे शब्द थे, जो सुनने–बोलने में प्यारे लगते थे. लेकिन वे अब उनकी बोलचाल से भी धीरे–धीरे बाहर होते जा रहे हैं. एक शब्द है– \’तियन\’. ग्रामीण परिवेश में इसका अर्थ होता है– सब्जी. गाँवों में इसका प्रयोग कुछ इस तरह होता है– \’तियन–तरकारी\’. यानी साग–सब्जी. जहाँ तक मेरा अनुमान है, यह \’तियन\’ शब्द संस्कृत के \’तृण\’ शब्द का ही अपभ्रंश रूप है. गाँवों में सब्जी के तौर पर पहले हरे साग और हरी पत्तियों का ही ज्यादा इस्तेमाल होता होगा. इसलिए सब्जी को तृण यानी तियन कहा जाता होगा. वैसे सब्जी भी \’सब्ज\’ से बना है, जिसका अर्थ \’हरा\’ होता है. दादी के बाद यह शब्द माँ की जुबान पर भी बरसों–बरस चढ़ा रहा. लेकिन गाँव से शहर की ओर खिसकते जीवन और \’रसोई\’ की जगह \’किचन\’ के ले लेने के साथ ही \’तियन\’ शब्द माँ की जुबान से भी खिसक गया. अब वहाँ तरकारी भी नहीं, सब्जी ही काबिज है! पहले गाँवों में रसोई (किचन) को \’भंसा\’ कहा जाता था. यह शब्दभी अब हमारी बोलचाल से बाहर हो गया है.
और एकशब्द है– \’निमन\’. यह भोजपुरी का शब्द है. \’निमन\’ संभवत: \’निम्न\’ का भ्रष्ट रूप है. लेकिन हिंदी में \’निम्न\’ के प्रचलित अर्थ से बिल्कुल विपरीत अर्थ है \’निमन\’ का! हिंदी में निम्न जहाँ नीच, ओछी, खराब, नीचे आदि अर्थों में प्रयुक्त होता है, वहीं भोजपुरी में \’निमन\’ का अर्थ होता है– बढ़िया, अच्छा, ठीक. हाँ, यह शब्द मैथिली के \’निक\’ (बढ़िया, अच्छा, ठीक) के निकटजरूर है! मेरी माँ और मेरी दादी की जुबान पर यह \’निमन\’ शब्द हरदम बजता रहता था! लेकिन अब यह शब्द उनकी जुबान से भी फिसल गया है! शायद ऐसे शब्द अब पूरे ग्रामीण परिवेश और लोगों की बोली–चाली से ही फिसलते जा रहे हैं और उनकी जगह खड़ी बोली के शब्द या अंग्रेजी के शब्द सबकी जुबान पर चढ़ते जा रहे हैं. ऐसे अनेक शब्द हैं, जो केवल स्मृतियों में ही बचे रहने को अभिशप्त हो गए हैं.
अब तोमाँ, माई, दादा, दादी, बा, बाबा, बाबूजी, बापू, दद्दू, दद्दा आदि जैसे देशज शब्दों की जगह भी मम्मी, ममा, मॉम, पापा, पॉप, डैडी, डैड, ग्रैनी, ग्रैंडपा, ब्रो आदि जैसे इंगलिस्तानी शब्दों ने ले ली है. पर इनमें वो मिठास कहाँ जो माँ, माई जैसे शब्दों में है! हाँ, मराठी के आई (माँ), आजी (दादी–नानी), उर्दू के अम्मा, अम्मी, अब्बू, अब्बा जैसे देशज शब्दों में यह मिठास आज भी बची हुई है!
दरअसल, ऐसे सैकड़ों–हजारों ठेठ और देशज शब्द हैं, जो हमारे दैनंदिन बोलचाल से ही नहीं, बल्कि पूरे भाषायी परिवेश और भाषायी दायरे से ही लगभग गायब होते जा रहे हैं. घर–दफ्तर में खड़ी बोली हिंदी के शब्दों की भरमार और ऊपर से अंग्रेजी मिश्रित हिंदी यानी \’हिंगलिश\’ या \’हिंग्रेजी\’ की दखल के कारण देशज शब्द लगातार बेदखल होते जा रहे हैं. यहाँ तक कि बांग्ला, गुजराती, मराठी, पंजाबी, मलयालम, तेलगू, उड़िया आदि जैसी क्षेत्रीय भाषाओं में भी अंग्रेजी की दखल होती जा रही है और उनके अपने देशज शब्द बोलचाल के चालू शब्दकोश (active and current vocabulary) सेगायब होते जा रहे हैं. हालाँकि क्षेत्रीय भाषाओं का तो यह भी आरोप है कि ऐसा हिंदी के बढ़ते प्रयोग के कारण भी हो रहा है. इसलिए भी वे हिंदी का विरोध करते नजर आते हैं. लेकिन वास्तव में क्षेत्रीय भाषाओं को असल खतरा तो अंग्रेजी से ही है!
आजकल ऐसे अनेक परिवार मिल जाएँगे, जिनके यहाँ अपनी मातृभाषा का प्रयोग केवल बड़े–बुजुर्ग ही करते हैं. उनके बच्चे या तो अंग्रेजी बोलते–पढ़ते–लिखते नजर आएँगे या फिर \’हिंगलिश\’! दुर्भाग्य यह कि ऐसे बच्चे अपनी मातृभाषा से लगभग घृणा करते हैं और उनके मन–मस्तिष्क में यह धारणा घर कर गई है कि उनकी मातृभाषा कमजोर और बेकार भाषा है, ओछी और कमतर भाषा है! इसलिए उन्हें अपनी मातृभाषा का अक्षर ज्ञान तक नहीं होता. खैर, इसमें दोष बच्चों का नहीं, वरन् उनके माता–पिता, उनके स्कूल और सबसे ऊपर देश की वर्तमान शिक्षा–प्रणाली, शिक्षा–नीति और भाषा–नीति का ही है, जहाँ अपनी मातृभाषा की क्रूर उपेक्षा करके, हर हाल में अंग्रेजी में ही पढ़ने–लिखने–बोलने पर भ्रामक जोर है!
यह देखनासुखद है कि अंग्रेजी के बरअक्स हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में प्रकाशित–प्रसारित होने वाले समाचारपत्रों, समाचार चैनलों और मनोरंजन चैनलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. लेकिन इसके बावजूद, घर–दफ्तर से लेकर अखबारों और टीवी चैनलों तक में लोक–बोलियों और हिंदी समेत अन्य क्षेत्रीय भाषाओं का मूल और देशज स्वरूप धूमिल होता जा रहा है और उनमें अंग्रेजी की छौंक लगातार बढ़ती जा रही है.
देशज और मौलिक लोक–शब्दों के लिए लगातार प्रतिकूल होते जा रहे ऐसे भाषायी परिवेश में भी ये ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले निरक्षर और कम पढ़े–लिखे लोग ही हैं, जो अपनी बोली–बानी में अपनी–अपनी देसी बोली को, ठेठ और देशज शब्दों को बेहिचक और निसंकोच बरतते चले आ रहे हैं. और इस तरह अपनी–अपनी भाषा की देशज मिठास को छीजने से बचा रहे हैं.
शहरी जुबान और शहरी जीवन के अभ्यस्त हो गए हमलोग भी यदि देशज शब्दों की यह मनभावन मिठास अपनी जुबान और अपने जीवन में लौटा लें तो बहुत संभव है, शहरों में छीजता अपनापन और अपनी खोती पहचान भी लौट आए!
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राहुल राजेश
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