अन्तोन चेख़फ़
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चेख़फ़ रूस की आंचलिक दुनिया के कथाकार हैं,उनको पढ़ते रूस के उन गांवों, कस्बों और छोटे शहरों का रूसी जीवन जीवंत हो उठता है. कितनी बार यूँ लगता है कि हम कथा के नायक, नायिकाओं को साक्षात रूप में देख रहे हैं. वो शाम, वो उदासी, खड़े कॉलर वाली कमीज़, वास्कट और संकरी सी पतलून पहने कथा-नायक, गलमूछों वाला उसका दोस्त, कृशकाय किंतु हसीन नायिका, बियर का गिलास, मद्धिम उजास लिये,छोटा सा कमरा जिसमें एक आरामदायक बिस्तर, पढ़ने के लिए छोटी सी मेज़,कुर्सी और टेबल लैंप बारहा नज़र आते हैं.
घूमने के लिए बग्घी रईसों की पहचान है, दो घोड़े वाली, ज़्यादा रईस तो तीन घोड़ों वाली. गाड़ीवान भी तरह-तरह की शक्ल और सजावट के, कोई गोल चेहरे वाला, मोटा, सुनहरे बाल. कोई कृशकाय, चौड़े माथे का,चेहरे से हड्डियां बाहर आती हुईं.
दुर्बल, रुग्ण कृषक, निर्धन पीड़ित स्त्री, जीवन की महत्वाकांक्षा से लिप्त ख़र्चीली युवती, थुलथुल व्यापारी या चिकित्सक, मानसिक यातना झेलते मनोरोगी. चेख़फ़ की दुनिया में सबकी जगह है, सबका विस्तार है.
‘अन्तोन पाव्लविच चेख़फ़’ का जन्म दक्षिण रूस के ‘तगानरोग’ में एक छोटे व्यापारी परिवार में हुआ था. ये 1860 ई. की बात है. पेशे से वह एक चिकित्सक रहे. उनके जीवन में मानवीय संवेदना का बड़ा स्थान था इसी कारण है. वह साहित्य की ओर उन्मुख हुए. उन्होंने साहित्य को सैकड़ों कहानियाँ और चार कालजयी नाटक दिए. इनमें सामाजिक कुरीतियों का व्यंग्यात्मक चित्रण किया गया है. अपने लघु उपन्यासों ‘सुख’, ‘बाँसुरी’, और ‘स्टेप’ में मातृभूमि और जनता के लिए सुख के विषय मुख्य हैं.
‘तीन बहनें’ नाटक में सामाजिक परिवर्तनों की आवश्यकता की झलक मिलती है. ‘किसान’ लघु उपन्यास में ज़ार कालीन रूस के गाँवों की दुखप्रद कहानी प्रस्तुत की गई है. अपने सभी नाटकों में चेख़फ़ ने साधारण लोगों की मामूली ज़िन्दगी का सजीव वर्णन किया है.
चेख़फ़ बात की साफ़गोई और स्पष्टता में विश्वास रखते हैं. हालाँकि इसके लिए उनके शब्द चीखते हुए से नहीं सुनाई देते. अपनी तहरीरों में वो फुसफुसाते या सरगोशी करते से नज़र आते हैं. उनके शब्दों में जितनी बेबाक़ी है उतनी ही इस बात की फ़िक्र भी कि वो पढ़ने वालों को भद्दे और भारी न लगें. कई बार वह रूस के शहरी जीवन में लिप्त शून्यता, संवेदनहीनता, और बनावटी खोखलेपन को दर्शाते हुए एक स्मित व्यंगात्मक मुस्कान छोड़ जाते हैं जो रह-रह कर कचोटती है.
चेख़फ़ की कहानियों को पढ़ते हुए लगता है कि उनके पात्र काल्पनिक नहीं वास्तविक हैं और कहानियाँ उनके स्वयं के जीवन के अच्छे बुरे अनुभवों से उपजी हैं. कई बार तो चेख़फ़ स्वयं एक पात्र लगते हैं जो कथा कह भी रहा है और जी भी रहा है. पात्रों और जगहों के रूसी नाम कुछ पेचीदा,रोचक और बार-बार भूल जाने वाले प्रतीत होते हैं यह एक भारतीय पाठक के लिए स्वाभाविक बात है. उनको समझने के लिए पन्नों को अक्सर पलटना और बीते हिस्सों को स्मृति में लेकर चलना पड़ता है अन्यथा उनकी कही गई बारीक महत्त्वपूर्ण बात फिसल जाती है. उनकी कहानियों को बार-बार पढ़े जाने की ज़रूरत है.
उनके कुछ पात्र खोए हुए से लगते हैं जो कई बार अचानक सामने आते हैं और गुम हो जाते हैं. चेख़फ़ अपनी एक पंक्ति में ही ढेर सारा विवरण उड़ेल देते हैं और सहसा दूसरे छोर से बात को शुरू कर देते हैं. उनका यही अप्रत्याशित गुण उनकी कहानियों को घुमेरदार और कभी-कभी मायावी बनाता है.
निर्मल वर्मा ने अपने संस्मरण ‘चेख़फ़ के पत्र’ में इस बात का ज़िक्र किया है कि चेख़फ़ को अपनी कहानियाँ प्रायः लक्ष्यहीन, रसहीन और निरुद्देश्य लगतीं थीं. उनका कहना था
“ऐसा व्यक्ति जो कुछ नहीं चाहता, किसी चीज़ की आशा नहीं करता, किसी से नहीं डरता कभी रचनाकार नहीं बन सकता”.
चेख़फ़ अपने लेखन के बारे में बात करने से हिचकते थे, साहित्य की कलात्मकता, या यथार्थवादी होने से जुड़े प्रश्नों के उत्तर देने में अपने को असमर्थ पाते थे. ऐसा लगता है कि लिखना उनका शग़ल था, अपने मन में उठती उलझनों को रास्ता देने का- कहानियों के रूप में- जहां वह अपने आस पास घट रहे सामाजिक जीवन और पेशे से जुड़े ताने बाने को मनचाही आकृतियों में उभारते थे.
वह कहा करते थे कि ‘चिकित्सा विज्ञान उनकी धर्मपत्नी है और साहित्य उनकी प्रेमिका’. वह चिकित्सक थे, इस दृष्टि से भी उनकी कहानियों में जो पीडाएं या मनोभाव दिखते हैं वह सहज ही उन्हें नित्यप्रति अपने जीवन से मिल जाते थे, इसके लिए उन्हें बहुत कल्पना करने की आवश्यकता नहीं थी. उन्हें जितनी प्रसिद्धि एक कहानीकार के रूप में प्राप्त हुई उतनी चिकित्सक के तौर पर नहीं. इसका उन्हें कष्ट भी था. अपने डाक्टर होने को वह गंभीरता से लेते थे. रुग्ण होने के बावजूद हज़ारों मील दूर सख़ालिन द्वीप की यात्रा करके वहां के युद्धबंदियों को देखने गए और वहां रहे भी. उन्होंने ‘सख़ालिन द्वीप’ नामक पुस्तक भी लिखी.
चेख़फ़ की कहानियों में उस समय के संकटग्रस्त रूसी जीवन की झलक गाहे-बगाहे मिल जाती है (ख़ासकर उनकी कहानी ‘वार्ड नंबर 6’ में), जब वहां के अस्पताल बदहाल थे, और लोग अनेक शारीरिक और मानसिक बीमारियों से काल कवलित हो रहे थे. उन परिस्थितियों में चिकित्सक (पात्र) के भीतर की मनोव्यथा को वह सतह पर लाने में सफल रहे हैं जो अपने चिकित्सा के ज्ञान को तत्कालीन व्याधियों से जूझने में पूरी तरह से कारगर नहीं पाता था. अपनी मानसिक उथल-पुथल में कुढ़ता, ज़िम्मेदारियों से छुपता रहता है, अपने सवालों के जवाब नहीं ढूँढ़ पाता और अंततः एक मानसिक रोगी बनकर अपने ही अस्पताल में दम तोड़ देता है.
उनके लेखन में उस समय के रूसी गाँवों में ज़मींदारी और उनके शोषण की आहट मिलती है-
“यहां के लोग अतिशय परिश्रम और अपर्याप्त पोषण के कारण रुग्ण हैं और कुछ सोच ही नहीं पाते, स्वयं को जान ही नहीं पाते. लेखन, संगीत, चित्रकला, खेल या कोई और सुरुचि इनके लिए अर्थहीन है. जब तक ये स्वयं की आत्मा और उसके सम्मान को नहीं समझेंगे, इन्हें गुलामों की भांति शिक्षा या स्वास्थ्य के विषय में समझाना निरर्थक है”.
समकालीन लेखकों से उनके दोस्ताना संबंध अवश्य रहे पर उनके द्वारा स्वयं के लिए कही गयी बातों से वो विरत ही रहे. टॉलस्टॉय ने एक बार उनसे कहा था ,”हालांकि मैं शेक्सपियर को सहन कर लेता हूँ, पर तुम्हारे नाटक तो उससे भी गए गुज़रे हैं”. टॉलस्टॉय उनकी कुछ कहानियों को पसंद भी करते थे.
अपनी एक कहानी (A dreary story) में एक पात्र के माध्यम से तत्कालीन रूसी साहित्यकारों के विषय में उन्होंने कहा था कि उन्हें नया रूसी साहित्य व्यर्थ लगता है, और एक या दो पुराने रूसी साहित्यकारों को छोड़कर वह किसी को नहीं पढ़ते. उन्हें उस वक़्त का रूसी साहित्य, साहित्य न होकर घरेलू कारोबार अधिक प्रतीत होता था जिसकी प्रशंसा आप बिना ‘लेकिन’ शब्द के नहीं कर सकते. यहाँ यह कहना ज़रूरी है कि क्या वास्तव में उनकी यह राय रही होगी या महज़ एक कहानी के पात्र की समकालीन अभियक्ति.
प्रेम और संबंधों की आँच प्रायः उनकी प्रत्येक कहानी में किसी न किसी रूप में मिलती है किंतु उसकी परिणति या तो अधूरी है या दुखद है. इसका कारण उनका असंतुष्ट पारिवारिक जीवन हो सकता है. या शायद न भी हो पर पत्नी से उनके संबंध, जीवन में बेहद कम समय के लिए रहे. उन्होंने विलंब से विवाह किया. उनकी पत्नी एक अभिनेत्री थीं, किंतु विवाह के पश्चात वह तपेदिक से पीड़ित रहे और अधिक समय संग ना बिता सके. जर्मनी में एक विला में रहते थे और रोग के कारण बाहर नहीं निकल पाते थे, उनकी पत्नी थिएटर में व्यस्त रहती थीं. ज़्यादातर दोनों में पत्र के जरिए ही बात होती थी. अपने अंतिम दिनों में भी वह जीवन में व्याप्त शून्यता से निवृत्ति नहीं पा सके.
मनुष्य यहाँ जन्म के कुछ बरसों के बाद ही अपनी आकांक्षाओं के जाल बुनने लगता है और जीवनपर्यंत यह कार्य समाप्त नहीं होते. असंतुष्ट ही चला जाता है. उसके लिए वह अपने स्वजनों,मित्रों या अन्य किसी को भी अपनी असफलता का कारण बना लेता है और सबसे शिक़ायत के लहज़े में उसे ज़ाहिर करता रहता है. चेख़फ़ को कभी किसी से कोई शिक़ायत नहीं रही और अगर रही भी हो तो उन्होंने किसी भी रूप में उसे व्यक्त नहीं किया. आख़िरी दिनों में जब वह नितांत अकेले थे तब भी उन्होंने किसी को नहीं बुलाया, पत्नी को भी नहीं, अपनी बीमारी का हिस्सा किसी को नहीं बनने देना चाहते थे.
उनकी मृत्यु तपेदिक रोग से हुई जो न जाने कितने अन्य महान लोगों की मृत्यु का कारण रहा है. चेख़फ़ उपचार के लिए जर्मनी गए, किंतु स्वस्थ न हो सके और अंततः 1904 ,15 जुलाई को ‘बादेनवैलर’ नगर में उन्होंने अंतिम सांस ली, जब वो मात्र 44 वर्ष के थे. उनकी समाधि मास्को में है.
एक बार मुंशी प्रेमचंद से किसी ने पूछा कि विश्व का सर्वोत्तम कथाकार कौन है, मुंशी जी ने चेख़फ़ का नाम लिया. चेख़फ़ की मृत्यु को एक अरसा बीत गया, उनकी कहानियों के तलबगार आज भी हर कहीं मौज़ूद हैं. उनकी कहानियाँ लगभग 72 भाषाओं में अनुदित होकर विश्व के कोने कोने में पढ़ी जाती हैं, और नाटकों का मंचन होता है. उनके पाठक उन्हें पढ़ते वक़्त ख़ुश दिखायी देते हैं तो कुछ ग़मगीन, कुछ विस्मित होकर सोचते रहते हैं कि कहानी का अंत ऐसे अकस्मात क्यों हुआ, अभी तो बहुत कुछ कहना था, बहुत कुछ अधूरा है किंतु चेख़फ़ शायद इसी अधूरेपन में पूरे दिखायी देते हैं. वह बादलों की ओट में मुसकुराते हैं और चश्मे के भीतर से उनकी हँसती उदास आँखें देखती हैं कि कोई उन्हें देख तो नहीं रहा.
डॉ. कौशलेन्द्र प्रताप सिंह हाउस न.99, कमला नगर, कलक्टर गंज |
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अन्तोन चेख़फ़
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धारीदार क़मीज़ और पैबंद लगी पतलून पहने एक बहुत पतला-बला, छोटे क़द का किसान अदालत में न्यायाधीश के सामने खड़ा है. उसके चेहरे पर बहुत बाल और चेचक के दाग़ हैं, और उसकी घनी भँवों में छिपी उसकी मुश्किल से दिखने वाली आँखों में उदास मलिनता भरी हुई है. उसके सिर पर उलझे हुए, गंदे बालों के गुच्छे हैं जिनकी वजह से उसके चेहरे पर छाई मलिनता और प्रगाढ़ हो जाती है. वह वहाँ नंगे पैर खड़ा है.
“डेनिस ग्रेगोरयेव !”न्यायाधीश ने बोलना शुरू किया.”पास आओ और मेरे प्रश्नों के जवाब दो. जुलाई के इस महीने की सात तारीख़ के दिन रेलवे का चौकीदार ईवान सेम्योनोविच ऐकिनफ़ोव सुबह के समय रेल की पटरियों के पास गश्त लगा रहा था. तब उसने तुम्हें एक सौ चौदहवें मील पर स्लीपर को रेल की पटरियों से जोड़ने वाला एक पेंच खोलते हुए रंगे हाथों पकड़ा. यह रहा वह पेंच ! … उसने तुम्हें इस पेंच के साथ गिरफ़्तार कर लिया. क्या यही हुआ था ?”
“क …क्या ?”
“क्या जैसा ऐकिनफ़ोव ने कहा है , वैसा ही हुआ था ?”
“जी , जनाब , यह सच है.”
“ठीक है , तुम वह पेंच क्यों खोल रहे थे ?”
“क…क्या ?”
“क्या मत कहो और सवाल का जवाब दो. तुम वह पेंच क्यों खोल रहे थे ?”
“अगर मैं नहीं चाहता तो मैं वह पेंच नहीं खोलता.”छत की ओर देखते हुए डेनिस ने कर्कश आवाज़ में कहा.
“तुम्हें वह पेंच क्यों चाहिए था ?”
“पेंच ? हम मछलियाँ पकड़ने वाली अपनी डोरी के लिए उससे वज़न बनाते हैं.”
“‘हम‘ कौन है ?”
“हम … यानी सब लोग ; मतलब क्लिमोवो के किसान !”
“सुनो, मेरे सामने मूर्ख बनने का अभिनय मत करो. ढंग से बताओ. वज़न बनाने के बारे में यहाँ झूठ बोलने की ज़रूरत नहीं !”
“मैंने बचपन से ही कभी झूठ नहीं बोला है , और अब आप मुझ पर इल्जाम लगा रहे हैं कि मैं झूठ बोल रहा हूँ … ,”पलकें झपकाते हुए डेनिस ने कहा.”बिना वज़न के आप क्या करेंगे , श्रीमान जी ? अगर हम कीड़ा या अन्य जीवित चारा हुक में फँसाएँगे तो क्या वह बिना वज़न के नदी के तल पर पहुँच पाएगा ? … और आप कह रहे हैं, मैं झूठ बोल रहा हूँ ,”डेनिस खीसें निपोर कर बोला.
“उस कीड़े का फ़ायदा ही क्या है जो पानी की सतह पर ही तैरता रहे? सारी मछलियाँ तो समुद्र के तल के पास चारा ढूँढ़ती हैं. केवल शिलिस्पर नाम की मछली ही पानी की सतह पर तैरती है. और हमारी इस नदी में शिलिस्पर मछलियाँ नहीं पाई जाती हैं … मछलियों को बहुत सारी जगह चाहिए.”
“तुम मुझे शिलिस्पर मछलियों के बारे में क्यों बता रहे हो ?”
“क…क्या ? आपने खुद ही तो मुझसे पूछा है. हमारे इलाक़े में भी आम किसान ऐसे ही मछलियाँ पकड़ते हैं. सबसे बेवक़ूफ़ छोटा बच्चा भी बिना किसी वज़न के मछलियाँ नहीं पकड़ेगा. हाँ , जिसे मछलियाँ पकड़ना आता ही नहीं , वह ज़रूर ऐसा करेगा. बेवक़ूफ़ों के लिए कोई नियम थोड़े ही होता है.”
“यानी तुम कह रहे हो कि तुमने अपनी मछली पकड़ने वाली डोरी में वज़न लगाने के लिए यह पेंच वहाँ से खोल कर निकाला ?”
“और किस लिए ? मैंने उसे कोई खेल खेलने के लिए थोड़े ही वहाँ से निकाला ?”
“पर तुम इसके बदले कोई कील , बंदूक़ की गोली या … सीसे का टुकड़ा भी तो ले सकते थे …”
“सीसे का टुकड़ा सड़क पर गिरा हुआ थोड़े ही मिलता है , उसे ख़रीदना पड़ता है. कील का कोई फ़ायदा नहीं. पेंच से बढ़िया कोई और चीज़ नहीं होती … पेंच भारी होता है और इसमें छेद होता है.”
“यह आदमी लगातार बेवक़ूफ़ बनने का अभिनय कर रहा है ! जैसे यह कल ही पैदा हुआ हो या सीधे स्वर्ग से यहाँ आ गिरा हो ! मूर्ख आदमी , क्या तुम्हें यह पता नहीं कि इन पेंचों को खोलने से क्या होता है ? यदि चौकीदार ने यह नहीं देखा होता तो वहाँ से गुजरने वाली कोई भी रेलगाड़ी पटरी से उतर सकती थी. बहुत सारे लोग इस दुर्घटना में मारे जाते. तुम्हारी वजह से लोगों की जान चली जाती.”
“हे ईश्वर ! यह आप क्या कह रहे हैं , श्रीमान जी ? मैं उन लोगों को क्यों मारूँगा ? क्या मैं विधर्मी या शैतान हूँ ? ईश्वर का शुक्र है कि मैंने अपना सारा जीवन बिना ऐसी कोई बात सोचे हुए गुज़ार दिया … स्वर्ग की मलिका मुझ पर दया करें … यह आप क्या कह रहे हैं ?”
“और तुम्हें क्या लगता है , रेलगाड़ियाँ कैसे दुर्घटना-ग्रस्त होती हैं ? तुम जोड़ों से दो-तीन पेंच निकाल लो और दुर्घटना हो जाती है.”
डेनिस अपनी खीसें निपोरता है और अपनी नज़रें छोटी करके न्यायाधीश की ओर ऐसे देखता है जैसे उसे उनकी बात पर यक़ीन नहीं हो.
“हे ईश्वर ! गाँव में हम सब तो बरसों से पटरियों के जोड़ों से पेंच निकालते रहे हैं. ईश्वर दयालु रहा है. आप दुर्घटनाओं और लोगों को मारने की बात करते हैं. अगर मैं पटरी का एक हिस्सा उखाड़ कर ले जाता या पटरी पर किसी पेड़ का मोटा तना रख देता , तब शायद रेल-गाड़ी दुर्घटना-ग्रस्त हो जाती. लेकिन , उफ़् … केवल एक पेंच से!”
“लेकिन तुम्हें समझना चाहिए कि पेंच ही स्लीपरों को रेल-लाइनों से जोड़े रखता है !”
“हम यह समझते हैं … हम सभी पेंचों को नहीं निकालते हैं … हम कुछ पेंचों को वहीं लगा हुआ छोड़ देते हैं … हम बिना सोचे-समझे यह काम नहीं करते हैं … हम समझते हैं …!”डेनिस जम्हाई लेता है और हाथ से अपने मुँह के सामने हवा में सलीब का चिह्न बनाता है.
“पिछले साल रेलगाड़ी यहीं पर पटरियों से उतर गई थी ,” न्यायाधीश ने कहा.”अब मैं समझ सकता हूँ कि ऐसा क्यों हुआ था.”
“यह आप क्या कह रहे हैं , श्रीमान जी ?”
“मैं तुम्हें यह बता रहा हूँ कि अब मैं जानता हूँ कि वहाँ रेल-गाड़ी के डब्बे पटरियों से कैसे उतरे … अब मैं समझ सकता हूँ !”
“आप पढ़े-लिखे लोग इसी लिए तो हैं कि आप सब कुछ समझ सकें , श्रीमान जी ! ईश्वर जानता है कि समझ किसे देनी चाहिए … अब यहाँ आपने कैसे और क्या के बारे दलील दे दी है , लेकिन यह चौकीदार , या हमारे जैसे किसानों को बिल्कुल समझ नहीं है. हम लोग बिना कुछ समझे दूसरों को कॉलर से पकड़ कर क़ैद कर लेते हैं. आपको पहले अपने पक्ष में दलील देनी चाहिए , मुझे कारण बताना चाहिए. इसके बाद मुझे पकड़ना चाहिए. हमारे यहाँ एक कहावत है कि एक किसान के पास किसान जितनी ही अक़्ल होती है … लिखिए श्रीमान जी , इस चौकीदार ने मुझे दो बार जबड़े और छाती पर मारा.”
“जब तुम्हारी झोंपड़ी की तलाशी ली गई तो वहाँ से पटरियों और स्लीपरों के जोड़ से खोली गई एक और पेंच बरामद की गई….
यह पेंच तुमने रेल की पटरी और स्लीपर के जोड़ से किस जगह से खोली और यह काम तुमने कब किया ?”
“क्या आप उस पेंच की बात कर रहे हैं जो लाल बक्से के नीचे पड़ी हुई थी ?”
“मुझे नहीं पता , यह पेंच कहाँ पड़ी हुई थी पर यह तुम्हारी झोंपड़ी से बरामद हुई. यह पेंच तुमने पटरी और स्लीपर के जोड़ से कब खोली?”
“मैंने यह पेंच नहीं निकाला था. एक आँख वाले सेम्योन के बेटे इग्नाश्का ने मुझे यह पेंच दिया था. मैं उस पेंच की बात कर रहा हूँ जो बक्से के नीचे पड़ा हुआ था. लेकिन बरामदे में हथौड़े के पास पड़े पेंच को तो मित्रोफ़ैन और मैंने मिल कर पटरियों से खोला था.”
“कौन मित्रोफ़ैन ?”
“मित्रोफ़ैन पेत्रोव … आपने उसके बारे में नहीं सुना ? वह हमारे गाँव में जाल बनाता है , और लोगों को बेचता है. उसे ऐसे बहुत सारे पेंचों की ज़रूरत होती है. मुझे लगता है , हर जाल के लिए उसे दस पेंचों की ज़रूरत होती ही होगी.”
“सुनो , दंड संहिता के अनुच्छेद 1081 के अनुसार स्वेच्छा से और जानबूझकर रेल की पटरियों और लोगों के जीवन को नुक़सान पहुँचाने वाले किसी भी कृत्य को करने वाले व्यक्ति को कठोर कारावास की सज़ा दी जाएगी. ऐसे व्यक्ति को पता होता है कि ऐसा करने से रेलगाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हो सकती है … तुम समझ रहे हो न , ‘ पता होता है ‘ !”
“जी , श्रीमान जी , आप बेहतर समझते हैं … हम तो अज्ञानी हैं … हमें भला क्या समझ है ?”
“तुम इसके बारे में सब कुछ समझते हो ! तुम झूठ बोल रहे हो , बेशर्म आदमी !”
“मैं झूठ क्यों बोलूँगा ? अगर आपको मेरी बात पर भरोसा नहीं है तो आप गाँव में किसी से भी पूछ लीजिए. गाँव में तक़रीबन सभी के पास पेंच होती है. कोई भी मछली बिना पेंच के भार के चारा नहीं खाती.”
“अब तुम मुझे शिलिस्पर मछली के बारे में बताओगे.” न्यायाधीश ने मुस्कुराते हुए कहा.
“हमारे इलाक़े में शिलिस्पर मछलियाँ नहीं पाई जाती हैं …
जब हम चारे में तितली पकड़ कर लगाते हैं और बिना भार के उसे पानी की सतह पर डालते हैं तो उससे हम केवल पाँच कोने वाले तारे के आकार का जीव ही पकड़ सकते हैं. वह भी कभी-कभी ही.”
“चुप रहो !”
अदालत में चुप्पी छा जाती है. डेनिस कभी एक पैर पर अपनी देह का भार डालता है , कभी दूसरे पैर पर. वह हरे कपड़े वाली मेज की ओर देखता है और बहुत तेज़ी से अपनी पलकें झपकाता है. ऐसा लगता है कि उसने हरे कपड़े को नहीं , चमकते हुए सूरज को ही देख लिया हो. न्यायाधीश तेज़ी से काग़ज़ पर कुछ लिखता है.
एक लम्बी चुप्पी के बाद डेनिस पूछता है ,”क्या अब मैं जा सकता हूँ ?”
“नहीं. मैं तुम्हें कारावास भेज रहा हूँ.”
डेनिस अपनी पलकें झपकाना बंद करके सवालिया निगाहों से न्यायाधीश को देखता है.
“कारागार से आपका क्या मतलब है ? श्रीमान जी , मेरे पास ख़ाली बैठने का समय नहीं है. मेरा मेले में जाना ज़रूरी है. मुझे येगोर से तीन रूबल लेने हैं ताकि मैं तेल ख़रीद सकूँ ! …”
“चुप रहो. मुझे सज़ा निर्धारित करने दो.”
“कारागार में … अगर मैंने वाक़ई कुछ ग़लत किया होता तो मैं वहाँ ज़रूर चला जाता. बिना किसी ग़लती के वहाँ जाना ! किसलिए ? मुझे पूरा विश्वास है कि मैंने कोई चोरी नहीं की है. मैं किसी से झगड़ा नहीं कर रहा था … अगर आपको बकाया रूबल के बारे में शक है तो , श्रीमान जी , आप उस बुज़ुर्ग की बातों में नहीं आएँ … आप गुमाश्ते से पूछिए … वह बुज़ुर्ग तो पूरा विधर्मी है.”
“चुप रहो”.
“मैं तो चुप ही हूँ ,” डेनिस बुदबुदाया ,”लेकिन उस बुज़ुर्ग ने खाते के बारे में आपसे झूठ बोला है. मैं क़सम खा कर यह कह सकता हूँ … हम तीन भाई हैं — कुज़्मा ग्रिगोरयेव , येगोर ग्रिगोरयेव और मैं , डेनिस ग्रिगोरयेव.”
“तुम मेरे काम में बाधा डाल रहे हो …” न्यायाधीश चिल्ला कर कहता है ,”सेम्योन , इसे कारागार में ले जाओ !”
ss”हम तीन भाई हैं, “डेनिस बुदबुदाता है जबकि दो तगड़े सिपाही उसे पकड़ कर कमरे से बाहर ले जाते हैं. “एक भाई दूसरे भाई की ग़लती के लिए ज़िम्मेदार नहीं हो सकता है. कुज़्मा ने रूबल नहीं दिए तो क्या मैं, डेनिस , इसके लिए कारागार में डाला जाऊँगा … ? वाह, न्यायाधीश ! हमारे मालिक सेनापति जी की मौत हो चुकी है- ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे. वे आज ज़िंदा होते तो आप न्यायाधीशों को बताते … न्याय बहुत सोच-समझ कर करना चाहिए , बेतरतीब ढंग से नहीं … अगर आप कोड़े मारना चाहते हैं तो उसे मारिए जो ग़लती करता है. अंतरात्मा की आवाज़ सुन कर कोड़े मारिए ….”
सुशांत सुप्रिय संप्रति : लोक सभा सचिवालय , नई दिल्ली में अधिकारी. |
सुशांत सुप्रिया द्वारा रूसी रचनाकार अन्तोन चेख़फ़ की कहानी ‘अपराधी’ का हिन्दी भाषा में अनुवाद करने की चर्चा करने से पहले मेरा इल्ज़ाम डॉ कौशलेंद्र प्रताप सिंह पर है । इन्होंने भूमिका लिखी है । इन्हें मेरी कचहरी में पेश किया जाये कि इन्होंने मोतियों से जड़ी भूमिका क्यों लिखी । मैं प्रोफ़ेसर अरुण देव जी से विश्व पुस्तक मेले में मिला था । लेकिन डॉ कौशलेंद्र जी की शक्ल नहीं देखी । कहानी अपराधी के जज की तरह मैं अपराधी डॉ कौशलेंद्र की दलील नहीं सुनना चाहता । इन्हें निश्चित रूप से कारागार में डाल दिया जायेगा । बहरहाल, ये डॉक्टर हैं । मुझे डॉ नरोत्तम पुरी और श्रीराम लागू की याद आ गयी । दोनों कान, नाक और गले के विशेषज्ञ । श्रीराम लागू की मृत्यु हो गयी है । वे थियेटर करते थे और फ़िल्मों में भी काम किया । डॉ नरोत्तम पुरी ने अनेक खेलों की कमेंट्री की थी । He has mellifluous voice.
अंततः डॉ कौशलेंद्र प्रताप सिंह को ख़ूबसूरत भूमिका लिखने के बाद बरी कर रहा हूँ । अन्तोन चेख़फ़ पेशे से डॉक्टर थे । पेशा उनकी पत्नी और रचनाकार होना उनकी प्रेमिका थी । ऐसे ही डॉ नरोत्तम पुरी और डॉ श्रीराम लागू के लिये उक्ति मेल खाती है । शायद प्रोफ़ेसर अरुण देव जी को पसंद न आये । चीन ने 1962 में भारत पर आक्रमण कर दिया था । तब रशिया ने कहा था कि भारत हमारा दोस्त है परंतु चीन हमारा भाई है ।
अपराधी कहानी में जितना कुछ लिखा गया है वह रत्नों से जड़ा हुआ है । एक निरपराध अपराधी (Innocent Criminal) की दलीलों को ख़ारिज करने वाले न्यायाधीश को मछली पकड़ने वाले अपराधी की फुसफुसाहट और सरगोशी समझ में नहीं आ सकती । पैसों के संबंध में भारत के बड़े अपराधी मुकेश अंबानी, कथित बाबा रामदेव (जिनकी कंपनी रुचि सोया का करोड़ों रुपया जो NPA में था उसे भारत सरकार ने write off कर दिया है । ऐसे ही मुकेश अंबानी की कंपनी बिग बाज़ार का NPA write off करने के बाद अंबानी को व्यापारिक मॉल चलाने के लिये वापस सौंप दिया है । रुचि सोया का कभी आधे और कभी पूरे पेज का विज्ञापन इंडियन एक्सप्रेस में छपता है । बाक़ी अख़बारों में भी छपता होगा । चेख़फ़ का संदेश इन बड़ी मछलियों को पकड़ना है जिन्होंने रेल की पटरी पर लगा हुआ एक पेंच नहीं बल्कि रेलवे स्टेशनों पर क़ब्ज़ा कर लिया है । हर्षद मेहता, विजय माल्या, मेहुल मोदी और नीरव मोदी को गिरफ़्तार करके जेल में बंद कर दिया जाना चाहिये ।
चेखव कहानी का प्लॉट कहीं से भी उठा लेते थे।अमूमन ऐसा कि हम सोच भी नहीं सकते।’कमजोर’ कहानी की वह टीचर जिसके पैसे अन्यायपूर्ण तरीके से काटने का अभिनय, एक बेजोड़ कहानी है।इतनी छोटी कहानी कितनी सादगी से अन्याय का विरोध नहीं करने और उसे चुपचाप सहते जाने की मानवीय प्रवृत्ति पर उँगली रख हमें सचेत कर जाती है। कौशलेन्द्र जी ने चेखव की कहानियों पर अपने महत्वपूर्ण विचार रखे हैं। अपराधी कहानी भी दिलचस्प है।
कौशलेंद्र की टिप्पणी और सुशांत का अनुवाद दोनों बेहतरीन हैं। चेखव की हर कहानी एक नया पाठकीय अनुभव देती है।
कहानी नहीं समझ में आई
टिप्पणी और कहानी दोनों बहुत बढ़िया!