विशाखा मुलमुले की कविताएँ |
सं भा ष ण
१)
मैं निकट बैठी तुम्हारे
सुनाए अपने दुःख-सुख
हृदय में उमड़ती भाषा से
देव !
तुम चाहो तो; कह सकते हो
अपने सुख-दुःख
भरोसा रखो
मैं निर्लिप्त, स्थितप्रज्ञ
भावशून्य
बैठी ही नहीं रहूँगी.
२ )
मैं साथ चल रही थी तुम्हारे जन्मों से
सहसा, एक दिन तुम खो गए
मैं ढूँढती फिर रही हूँ तुम्हें
किससे विचारूँ
कैसे पूछूँ
मुझे स्मरण नहीं तुम्हारे परिधान
न ही तुम्हारी आयु
तुम बाल गोपाल हो या
ग्वाला या युगन्धर
तुम्हें पाया था, वृंदावन में या मथुरा में या द्वारिका में
बस ज्ञात है इतना ,
तुम्हें खो दिया कलयुग में
देव !
कुछ करो
बाँसुरी की तान छेड़ो या
फूँको पांचजन्य
मैं गोधूलि में घर लौटना चाहती हूँ.
३ )
मुझमें सखी के सारे गुण है विद्यमान
मैं बन सकती हूँ राधिका, कृष्णा भी
अर्पण कर सकती हूँ सर्वस्व बन मीरा
पर देव !
यह कलयुग है
यह मस्तिष्क का युग है
यहाँ कोई न समझेगा सखी भाव
अब न कबीर है, न सूरदास, न रसखान
न वैसी रही वाणी, न वैसा ताना-बाना
मैं एका बन तुम्हारे सानिध्य में प्रसन्न रहूँगी
चाहूँगी सुभद्रा-सा मिले तुम्हारा ध्यान
तुम पुनः सुनाओ मुझे चक्रव्यूह की रचना,
उसका भेदन
अब आठों प्रहर है युद्ध काल
निद्रा में भी रहती है अब स्त्री चौकन्नी
इस बार न लगेगी मेरी आँख
देव !
अनगिनत है
स्त्री देह के इर्दगिर्द चक्रव्यूह
हर किसी की है बाज की आँख.
४ )
असमंजस में हूँ , देव !
पुनर्जन्म की कामना करूँ
या मोक्ष की
जानती हूँ,
मोक्ष के मिलते ही
छूट जाएंगे जीवन के स्वर्ग-नरक
ऐसा करो देव !
मुझ गांधारी के काम, क्रोध, मद मत्सर, लोभ, मोह …
इन सौ पुत्रों का वध करो
दो मुझे संजय की दृष्टि
कि,
मैं दृष्टा बन, देख सकूँ जीवन संग्राम
उपजे मुझमें साक्षी भाव.
५ )
द्वार के भीतर के
दुग्ध, दही, शहद
धृत, शर्करा सब है अशुद्ध
सब में लिपटा है ;
मनुष्य मन की आसक्ति का अदृश्य लेप
पंचामृत का
भोग लगाना चाहती हूँ , देव !
शुद्धि का सारा भार अब भी
आँगन की तुलसी पर.
६ )
बारह वर्ष की आयु में
बताया था माँ ने,
जब आराधना करो तब
कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने….
करना इस मंत्र का जाप
संकट में हो तब पुकारना कह
हे ! कृष्ण गोविंद हरे मुरारी ….
द्रौपदी ने इसी तरह पुकारा था तुम्हें
और तुमनें बचा ली थी उसकी लाज
देव !
वस्त्रों से लिपटी रहती हूँ
फिर भी ,
कुदृष्टि भेदती चली जाती है
वस्त्रों के आर-पार
निर्वस्त्र हूँ ;
हर घटके होती है यही अनुभूति
संकट का रहता हर समय भान
देवालय में भी
उपासना का अवसर नहीं मिलता
वहाँ भी,
हे ! कृष्ण गोविंद का ही सतत चलता जाप.
७)
म्लान नहीं पड़ती
तुम्हारे वक्ष पर झूलती वैजयंतीमाला
सदा ही रहती प्रफुल्लित
यह प्रकृति का तो गुणधर्म नहीं
यह तुम्हारे हृदय का है परावर्तन
या
तुम्हारी कोई लीला ?
या है यह
राधिका के अक्षुण्ण प्रेम की निशानी ?
देव !
अज्ञानता में खुलता है आश्चर्य का लोक
इस आश्चर्य मिश्रित दृष्टि से
जब-जब निहारती हूँ तुम्हारी छवि अपलक
अम्लान हो जाता है
मेरी देह के भीतर का म्लान पुष्प.
८ )
देव !
उलट चल रहा है काल का चक्र
घर-घर में विराजमान है अब
राम और बजरंग
और बुरा मत मानना
तुम्हारे अवतारी पुरखों को पूजने का
अब आ गया है समय
आर्यावर्त में
भाई-भाई में, अब भी हो रहे हैं युद्ध
इस बात के लिए भी किसका रक्त है अधिक शुद्ध
गीता के उपदेशों को हम पीछे छोड़ चुके
पर देव !
हम लौटे नहीं
न बुद्ध की ओर
न ही धम्म की ओर
रामराज्य में सुरक्षा के लिए
धनिकों ने, वणिकों ने
सप्त तालों में रखे हैं विदेशी धरा पर धन
और यहाँ
औसतन प्रतिदिन हो रहें हैं सतहत्तर चीर हरण
डर बना रहता है
समाज का भी देव !
कि,
मौका मिलते ही
कोई भर न दे कान
और
देर-सबेर लौटने पर
घर से ही लौटा न दे
किसी सीता को कोई राम !
९ )
काँसे, पीतल, चाँदी की देह
दिख रही थी निस्तेज,
आभामंडल की कांति भी क्षीण
भीगी इमली के गुदे से
पीताम्बरी, नींबू के छाल से
रगड़-रगड़ कर
उनका लौटाया तेज
नवीन वस्त्र पहनाए
इत्र, धूप, दीप से गृह महकाया
पूर्व जिसके
आलय को झाड़ा, पोंछा
सजाई सम्मुख रंगोली
चाँदी के कलश में पानी रखा
भोग पास ही रख छोड़ा
जाप किया, माला फेरी
आरती उतारी, गुणगान किया
इतने सत्कर्म उपरांत आत्मा को मिली सन्तुष्टि
मूर्तियों में विराजित परमात्मा को मिला आनन्द मिश्रित त्रास
आवाहन नहीं जानती
न जानती विसर्जन
पूजा पाठ की विधि नहीं जानती
इस बात के लिये फिर-फिर माँगती हूँ क्षमा परमेश्वर !
देव !
अब तुम शयन करो
इस एक पहर के उपवास पश्चात
मैं लौटती हूँ संसार में.
विशाखा मुलमुले पुणे मराठी, पंजाबी, नेपाली व अंग्रेजी भाषा में कुछ कविताओं के अनुवाद प्रकाशित. काव्य संग्रह – पानी का पुल ( बोधि प्रकाशन की दीपक अरोरा स्मृति पांडुलिपि योजना के अंतर्गत )2021 में प्रकाशित. vishakhamulmukey@gmail.com |
मैं गोधूलि में घर लौटना चाहती हूं – वाह! क्या बात है. बेहद सुंदर भावाभिव्यक्ति. सलाम आपको और अरुण जी आपको.🙏
अपने उपास्य को संबोधित इन कविताओं में इस युग की पीड़ा एवं विडंबनाएँ अपनी विसंगतियों के साथ व्यक्त हुई हैं।इनमें मीरा एवं ब्रज की विरह व्यथित बालाओ जैसे भावोद्गार हैं। अच्छी लगीं।समालोचन एवं विशाखा को बधाई !
विशाखा की अनवरत साहित्य-साधना मुझे सुखद आश्चर्य से भरती है।’संभाषण’शीर्षक की ये कविताएं स्त्रीमन के भय,संकोच ,स्वयं के अस्तित्व के प्रति शंकालु दृष्टि के साथ ही विनयशील आकांक्षाओं व दृढ़ विश्वास का पठनीय -कोलाज है।विशाखा को ख़ूब सारी बधाई व शुभकामनाएं!💐समालोचन को इन सुंदर कविताओं को पढ़वाने हेतु आभार!
विशाखा जी मुलमुले ने परमेश्वर की आराधना के लिये तरह तरह के शब्दों का प्रयोग किया । जीवन ही कृष्ण के नाम करना चाहा । कभी सुभद्रा बनकर अपने अभिमन्यु के लिये सभी द्वारों को भेदने की लोरी सुनाने की इच्छा व्यक्त की । मीरा बनकर भक्ति में लीन होना चाहा । कलियुग में कबीर, रसखान की कमी महसूस की ।
आख़िरी कविता में भक्ति करने की विधि न जानने की बात लिखकर अपना समर्पण करना चाहा । अरुण जी और विशाखा जी को धन्यवाद ।
रचनायें पढकर ऐसा महसूस हुआ की सचमुच साक्षात कृष्ण भगवान सामने है! कवयित्री की नही,किन्तु समस्त मानव जाती की प्यार,शिकायत,प्रार्थना और सहसंवेदना विशाखाजी की कलम के माध्यमसे सुन रहे है और मुस्कुरा रहे है सुंदर भावाव्यक्ती अनेक शुभकामनायें !यथोचित समालोचन के लिये अरुणजीका मन:पूर्वक अभिनंदन!👌🙏
विशाखा जी की कविताओं ने ध्यान आकृष्ट किया था पहले भी, ये कविताएं स्त्री की मनस्थिति उसके द्वंद्व भय को प्रगट करती हैं,देव को संबोधित होने से ये कविताएं प्रभावी हो गईं हैं जिनमें काल का प्रवाह चला आता है
मिथक हमारी रचनाओं को व्यक्तिगत से समष्टिगत व्याप्ति देते हैं
ये साफ सुथरी सघन भाषा में लिखी कविताएं हैं
धर्मवीर भारती ने अंधायुग और कनुप्रिया में इस प्रविधि का सफल प्रयोग किया है और दिनकर जी ने भी
विशाखा जी को बधाई कि वे प्रचलित स्त्री विमर्श से हटकर कुछ गंभीर सोच रही हैं लिख रही हैं
ये कविताएं नयी दिशा और नयी दृष्टि का संकेत देती है।
आज समालोचन पर अभी-अभी दोबारा आपकी कविताएं पढ़ी। बेहद तन्मयता के साथ लिखी इन कविताओं में भक्ति की अन्तर्धारा प्रवाहित हो रही है। इन्हें पढ़ते हुए एक तरफ मन पवित्रता की अनुभूति करता है तो दूसरी तरफ युगीन यथार्थ के अंकन से स्वयं को जोड़े बिना नहीं रह सकता है।आपने यथार्थ को अध्यात्म से जिस तरह जोड़ा है,उसे पढ़ते हुए कनुप्रिया की याद आ गई। मैं समझता हूं कि इस दिशा में आप एक पूरी सीरीज रच सकती हैं।
बहुत मंगलकामनाएं!
विशाखा की भाषा में एक साहसिक और सान्द्र भंगिमा है। इन कविताओं का एकालाप पौराणिक नैरेटिव को वर्तमान से मुखामुखम करता स्त्री- दृष्टि से तमाम परिघटनाओं का विखंडन करता है। ऐसे ही रचनात्मक द्वन्द्वों से विशाखा अपनी काव्य- भाषा का मुहावरा रचती हैंं।
अनुभूतियों पर शब्दों का गहरा प्रभाव दिखाई देती कविताएं।