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Home » शचीन्द्र आर्य की कविताएँ

शचीन्द्र आर्य की कविताएँ

शचीन्द्र आर्य अपनी कविताओं में कुछ अलग और उसे अलग ढंग से कहने की मुखर मुद्रा में नहीं रहते पर उनकी कविताओं में ये दोनों विशेषताएं रहतीं हैं. जैसे फीके रंगों से कोई रूपाकार बन रहा हो. नये अध्यापक और उसके छात्र की स्मृति में लिखी गयी कविता ‘कैसे हो असगर अली?’ अलग से ध्यातव्य है. शचीन्द्र आर्य की दस नयी कविताएँ प्रस्तुत हैं.

by arun dev
December 19, 2022
in कविता
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शचीन्द्र आर्य की कविताएँ
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शचीन्द्र आर्य की कविताएँ

1.
बतौर कवि

कभी तो मुझे भी लगा था,
इसे साध जाना बहुत आसान काम होगा.
कुछ नयी, अनकही, असुंदर बातों से अपना भी काम चल जाएगा.

भले मेरे पास कवि की हैसियत से
नए बिम्ब, रूपक, प्रतीक, उपमान और छवियाँ नहीं हैं,
जिनकी मदद से सब अपनी पंक्तियों को उस सीमा तक ले गए,
जहाँ वह अतीत में लिखी कविताओं का भावानुवाद बनकर रह गईं.

मेरी पंक्तियों में किन्हीं अतीत में दोहराई गयी छवियों की
छाया बन जाने की यह इच्छा कभी नहीं रही.

भले मेरे पास कोई नयी बात न हो कहने के लिए,
मैं अपने अंदर पुरानी पड़ चुकी बातों को दोहराना चाहता हूँ.
इस दोहराने में कहीं से भी किसी को कोई दोहराव नहीं दिखेगा,
वह मेरे बाहर बिलकुल नयी लगेंगी.

इस नए पन में कुछ भी पुराना नहीं होगा, यह दावा नहीं है.
फ़िर भी, कभी-कभी अपने ख़यालों में यही समझता हूँ.

 

2.
बुद्ध मुस्कुरा उठे

उन्होंने भी क्या ख़ूब कहा,
‘बुद्ध मुस्कुरा उठे’.

तुम क्या अपना उपहास उड़ाए जाने पर
गालों को
थोड़ा सिकोड़ कर
होंठ हिला रहे थे
और उन्हें लगा, तुम मुसकुरा रहे हो ?

मुझे तो लगता है,
तुम किसी की मूर्खता, अज्ञान और अहंकार पर क्या ही हँसे होगे.

 

3.
धूल

धूल ही है, जो चारों तरफ है.

कभी
किसी कागज़ पर, किसी किताब पर
किसी कपड़े, किसी चेहरे पर
मेज पर,
आईने पर,
कभी बर्तन पर,
कभी किसी सच पर,
कभी किसी झूठ पर.

यह धूल ही है
हमारी आंखों में
पलकों के पास, दिमाग पर.

इधर ‘आंख में धूल झोंकना’,
मुहावरा न होकर जीवन हो गया है.
इसी में सब धुंधला-धुंधला सा गया.
कहीं कुछ साफ-साफ दिखाई नहीं देता.

धूल कितनी भी क्यों न हो,
धूल के बारे में
एक बात,
कभी भूलनी नहीं चाहिए,
धूल हटाने पर हट जाती है,
चाहे जहां भी हो.

 

4.
आई बो

हवा में तैरते हुए
किसी भी तरह कुछ कह पाना,
कितना मुश्किल है
इस बात को अपने भीतर सोचना
बिन हवा
हवा में तैरने के
ख़याल जितना ही मुश्किल
बना हुआ है.

बिन हवा
हवा में तैरना
नींद में बहते सपने जैसा है.

कोई सपना
कभी पूरा हुआ है कभी,
सवाल यह नहीं है !

सवाल है,
जिस भाषा में हम
शब्द, वाक्य, मौन या कोई और भाव भंगिमा बुनते हैं,
वह पतंग उड़ाने जैसी होती
तब पतंग ही कटती
धागा ही कन्नी में बंधा हुआ, पेड़ में जाकर उरझ जाता
कहीं कोई मारा नहीं जाता
कि
उसने पतंग उड़ाई और मर गया

मर गया
कि
उसकी पतंग ने बहुत सारी
पतंगों से पेंच लगाते हुए
उनकी पतंगे काट दी
जो उड़ाने में उस्ताद थे

अगर पतंगे कट गईं
तो भी क्या हो गया
वह चले जाते सुनील पतंग वाले के पास,
ले आते
अपनी मनपसंद पतंग,
मजबूत मांझा.

सद्दी से पतंग उड़ाने के लिए
उन्हें किसने कहा था ?
चरखरी जिसने पकड़ रखी थी,
ढील जिस पतंगबाज ने नहीं दी थी, उस वजह से पतंग कट गयी थी.

पर क्या करें
हवा में
धागे की तरह लहरती,
बल खाती, चने के झाड़ जितनी इस भाषा का

इस मुहावरेदार और तिर्यक भाषा में भी
किसी का पतंग उड़ाना, उनकी पतंग का कट जाना
अखर जाता है, उन कटी पतंग वालों को.

 

5.
चिट्ठियाँ

कभी इस पर भी तो बात होगी,
कितनी चिट्ठियाँ उन सबने भेजी, जिनकी चिट्ठियों को कभी पढ़ा नहीं गया.
वह उनमें बहुत-सी बातें भेजते. कुछ उनमें अपना मन भेजते. कुछ उनमें कोई याद भेजते.
भेजते कि कभी उन बातों को कागज़ की तह को खोलकर उस तह से बाहर निकाला जाएगा.

सब अनपढ़ी चिट्ठियों का क्या हुआ, कोई बता नहीं पाया.

मुझे भी इतनी-सी बात इसलिए पता चल सकी
क्योंकि
मेरी भेजी चिट्ठियों के भी कभी कोई जवाब नहीं आए.

मैंने तब उनकी पहचान शुरू की,
जब लौटती डाक से कभी नहीं लौटी मेरे नाम की कोई डाक.

मेरे लिए
यह कोई आश्चर्य का विषय नहीं था. मेरे लिए यह चिंता की बात थी.

जिन्हें हम सबने चिट्ठियाँ भेजी थी
जिन्हें उन चिट्ठियों के जवाब देने थे,
वह गले तक डूबे हुए थे, चिट्ठियों के अथाह सागर में.

उन चिट्ठियों में शायद पते ही सही रह गए थे.
उन सही पतों पर रहने वाले वह सब गलत आदमी थे.

उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ा, कोई उन्हें चिट्ठी क्यों भेज रहा है.
ऐसा नहीं है, वह पढ़ना नहीं जानते थे या उन्हें वह भाषा नहीं आती थी.

वह सब जान लेने का दंभ भरते हुए हवा में उड़ा देते थे सारी चिट्ठियाँ.
उन्हें चिड़ियों को उड़ाना बहुत पसंद था. आस पास कहीं चिड़िया थी नहीं.

 

6.
सड़क जैसी ज़िंदगियां

दिल्ली के कई जाम झगड़ों की तरह थे

जैसे जाम खुलने पर पता नहीं चल पाता था,
क्यों फंसे हुए थे
ऐसी ही कोई वाजिब वजह नहीं थी
कई सारे झगड़ों की.

जाम और झगड़े बेवजह ही थे
हमारी सड़क जैसी जिंदगियों में.

 

7.
कम जगह

मैंने पाया,
कविताएं कागज पर बहुत कम जगह घेरती हैं
इसलिए भी इन्हें लिखना चाहता हूँ.

यह कम जगह उस कम हो गयी संवेदना को कम होने नहीं देगी.
इसके अलावे कुछ नहीं सोचता.
जो सोचता हूँ, कम से कम उसे कहने के लिए कह देता हूँ.

कहना इसी कम जगह में इतना कम तब भी बचा रहेगा.
उसमें बची रहेगी इतनी जगह, जहां एक दुनिया फिर से बनाई जा सके.

 

8.
माँ जैसे

कोई कितना भी कहे,
वह किसी औरत की तरह होकर
उनके हिस्से की बातें कह पाएगा,
लगता नहीं, ऐसा कभी हो सकेगा.

जैसे अपने बचपन में लौटते हुए,
अम्मा की तरह अकेले, खाली उस कमरे में
खाना बनाकर देर रात तक कभी इंतज़ार नहीं कर सकता.

पिता अभी पहाड़ी धीरज से आए नहीं हैं, यह भाव
उनकी आँखों से अपनी पलकों में नहीं ला सकता.

उनकी एड़ी पानी में घंटों कपड़े धोने के बाद साल भर फटी रह सकती है.
उनके हाथ का स्पर्श
इन हाथों में आकर भी इस कदर खुरदरा नहीं हो सकता,
जितना उनके हाथों में है.

मैं घंटों इस कमरे में बैठे रहकर लिख सकता हूँ,
उनकी तरह शाम की रसोई के ख़याल में ऊँघ नहीं सकता.

बहुत कोशिश करने पर इन असंभव संभावनाओं में कुछ हद तक
एक दो-बिन्दुओं पर खरा भी उतर गया, तब कहाँ से लाऊँगा प्रसव पीड़ा का एहसास?
पुरुष होकर माहवारी का मासिक दर्द मेरे शरीर के किस हिस्से में होगा, कह नहीं सकता.
नहीं जानता, कहाँ उतरेगा नए जन्मे बच्चे के बाद दूध ?

ऐसा करते हुए,
अम्मा को सिर्फ़ शरीर की जैविक बुनावट में नहीं बाँध रहा,
सिर्फ़ देख रहा हूँ, कहाँ से वह अपने स्त्री होने के भाव पाती हैं ?

शायद शादी के बाद
अपने बचपन के घर को छोड़ कर यहाँ आना, उन्हें ऐसा बनाता होगा.
वह स्मृतियों को लेकर बहुत भावुक हैं और
उन घटनाओं के तथ्यों को लेकर बहुत अड़ियल भी.

वहीं से ख़ुद को भी कुछ-कुछ बनता हुआ देखता हूँ.
गर्भ में नहीं देख सका, उसके बाहर कैसे बना, वह देख रहा हूँ.
कभी किसी याद में खोते हुए
उनके चेहरे को देखता हूँ,
कभी किसी याद में डूबते हुए उनकी आंखों को.

उनकी उँगलियों का तिरछापन स्मृतियों में दिखाई नहीं देता है.

वह पीछे लौटते हुए सिर्फ़ पीछे नहीं लौटती, अपने वर्तमान को भी साथ लिए जाती हैं.

मुझसे सिर्फ़ यही नहीं हो पाता.

इसी में बस इतना कह दूँ,
माँ और मुझमें एक बात और मिलती है
उनकी तरह मेरे मसूड़े भी सड़ने लगे हैं, उनमें ख़ून भी आता है

और

उनके हाथों की उँगलियों का टेढ़ापन
मेरी उँगलियों और स्वभाव में किसी को दिख जाता है
तो वह मुझे अखर जाता है.

 

9.
भोपाल

मेरे पैदा होने से लगभग महीने भर पहले भोपाल घट चुका था.

दो दिसंबर की रात से नौ जनवरी के बीच कितने दिन हुए,
अगर उंगली पर गिनने लग जाऊँ,
तब यह फ़ासला कुछ दिनों का रह जाएगा.

इस गैर ज़रूरी गिनती के उलट,
यहाँ ज़रूरी बात है,
वह दुनिया जो उन्होंने नहीं देखी, उसे देख रहा हूँ.
खुरदरी, मटमैली, धूसर सी होती गयी दुनिया.

कभी जानने का मन होता है,
वह कौन थे, जो इस समय से काफ़ी पहले अनुपस्थित हो गए ?
शायद उनमें से किसी को जान पाता. कोई चेहरा पहचान में आ पाता.

वह तस्वीरें मैंने भी देखी हैं, जिनमें जीवन नहीं है.
भुरभुरी मिट्टी में हाथ भर जगह निकालने के बाद मृत शरीर को बीज की तरह रोपना मैंने भी देखा है.
कुछ उनमें अजन्मे भ्रूण, कुछ नवजात शिशु थे. कुछ बहुत छोटी आयु में दम घुटने से मर गए.

वह अगर आज होते, तो मेरी उम्र के होते.
हमउम्र होने के बावजूद हम कभी मिल पाते, इसकी संभावना बहुत कम थी.
इस कम संभावना में भी हममें एक बात समान होती,
वह सब मेरी ही तरह कुछ अधबुने सपनों में खोये-खोये से रहते.

उनमें खोने से ठीक हुआ,
वह सपनों के इस हत्यारे समय में बहुत पहले से गायब हैं.

 

10.
कैसे हो असगर अली?

कितने साल हो गए, क्लास में तुम्हें देखे हुए.

पहली बार तुम मेरी नज़रों में वह कब आए
अब याद भी नहीं
बस आ गए थे नजर.

होता है कोई-कोई, जो भुलाए नहीं भूलता.

सांवला रंग,
चेहरे पर एक तिल वाला
हमेशा मुस्कराता लड़का.

कक्षा में मेरी असहाय स्थिति से तुम वाकिफ थे.
पढ़ाने से ज्यादा,
बाड़े में रोक कर रखने वाली मेरी भूमिका साफ हो रही थी.

तुम पढ़ लेते थे, मेरा चेहरा
उस पर आते जाते, व्याकुल कर जाने वाले भाव.
चाह कर भी चाहने वाला काम न कर पाने की बेचैनी.

मैं नया नया अध्यापक बना था, समझ रहे थे तुम.
ऐसा मन में सोचता.
सोचता, सीख जाऊंगा,
कक्षा में कैसे एक अध्यापक की हैसियत ओढ़ सकता हूं.

अध्यापक होने के लिए सख्त लहजा, कठोर चेहरा, सधी हुई भाषा, यही सब, सबके काम आता.
लगता, इन्हीं से मिलकर एक ठीक-ठाक अध्यापक बना जा सकता है.

सोचता,
अध्यापक वह होना चाहिए,
जिससे कक्षा में सब डरें.

मुझे डराना नहीं था किसी को.
मैं किसी सर्कस का रिंग मास्टर भी नहीं था.
नहीं था, कोई जादूगर जो सम्मोहित कर पाता उन्हें.
कोई हारी हुई बाजी भी नहीं थी, जिसे जीत कर बाजीगर होना था.

बस मैं था, अभी-अभी बना हुआ अध्यापक
पढ़ने की कोशिश कर रहा था, सबके मन.

इन सबके बीच
तुम उन बच्चों में शामिल हो गए थे,
जो इन सारी परिस्थितियों में
मेरी असहजता के साथ
मुझे अध्यापक स्वीकार करने लगे थे.

तुम्हें लगने लगा था,
यह मास्टर करना तो बहुत चाहता है, पर कर नहीं पाता है.

तुम मुझसे छुट्टी के दिन बात करते.
अपनी बात ‘और जनाब..!’ कहकर शुरू करते.
मैं तुम्हारे इस संबोधन पर तुम्हें कुछ नहीं कह पाता. सुनता रहता.

तुम बताते, बिहार से आ गए हैं. कक्षा बारह के बाद एसएससी का इम्तिहान देकर नौकरी पर लगना चाहते हो. पैसा नहीं. पर पढ़ना है. नौकरी से पैसा आएगा. पैसे से पढ़ाई.

पैसा मेरे पास भी ज्यादा नहीं था. मैं बातों के अलावा किसी और चीज से मदद भी नहीं कर पाया. तब भी तुम मुझे सब बताते.

तुम बताते भाई-भाभी के साथ नबी करीम की किसी गली में किराए के मकान में रहता था. उनके दो बच्चे हैं. पढ़ने की जगह नहीं है घर में. घर कभी-कभी छोटा पड़ता है.

तुम्हारे पास हमेशा से बहुत सारी बातें थी. उन्हें बताने के लिए तुम हमेशा बेसबर रहता. मैंने तुमसे बात को सुनना सीखा. सीखा, उम्र में बड़े होने के बावजूद, हमें सुनने की आदत बनानी चाहिए.

तुम्हारी बातें उम्र में पहले बड़े हो गए किसी बच्चे की बातें लगती. लगता, तुम आज ही आने वाले कल को सुलझा लेने की सारी युक्तियां सीख लेना चाहते हो.

तुम आज होते, तो मुझे देखते,
इन बीतते सालों में कैसा अध्यापक बन पाया हूं. तुम बताते, कितना बदल गया हूं मैं.

तुम्हारे जाने के बाद, सुनना कम कर दिया है मैंने या अपनी बातों को कह पाने की सहजता खत्म हो गई है सबमें, कभी तय नहीं कर पाया.

तुम चाहते थे, मेरा लिखा हुआ पढ़ना. तुम आज चाह कर भी पढ़ नहीं सकते. ऐसा नहीं है, तुम पढ़ना भूल गए.

बात दरअसल इतनी है,
इन बीते सालों में तुम किसी दिन
अपने सपनों के साथ कहीं दूर चले गए

आज से पहले मुझे कभी नहीं सूझा
कि किसी से पूछता,
तुम वह सुपुर्दे खाक हुए?

कभी मेरा मन तुम्हारे लिए ऐसा नहीं हुआ. न कभी तुम्हारी कब्र को आज तक देखने की इच्छा हुई.

पर आज शाम,
पता नहीं कहां से खयाल आ गया,
इतने सालों में कभी तो मुझे वहाँ जाना चाहिए था,
एक बार पूछना था- कैसे हो असगर अली?

शचीन्द्र आर्य
09 जनवरी, 1985

कविताएँ आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित.
shachinderkidaak@gmail.com

 

Tags: 20222022 कविताएँनयी सदी की हिंदी कविताशचीन्द्र आर्य
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Comments 2

  1. शंकरानंद says:
    2 years ago

    शचींद्र की कविताओं की यह विशेषता है कि वे अनछुए विषयों पर मार्मिकता से अपनी बात कह देते हैं।छोटी लेकिन असरदार ये कविताएं एक नया वितान रचती हैं। मां पर लिखी कविता को पढ़ कर उन्हीं की पहल में प्रकाशित पिता पर एक कविता याद आ गई। उन्हें बधाई और समालोचन का आभार। खूबसूरत कविताएं पढ़वाने के लिए।

    Reply
  2. डॉ सुमीता says:
    2 years ago

    अपनी बुनावट में सरल दिखती ये कविताएँ बहुत असरदार हैं। इन कविताओं में सघन सम्वेदना के साथ गहरा स्थैर्य भी है। माँ के लिए या अपने छात्र के लिए या बम धमाके से दहले हुए शहर में अपने जन्म-प्रसंग के लिए या सड़कों पर जाम या धूल के लिए लिखी ये कविताएँ जेहन में बनी रहती हैं। कवि को बहुत बधाई और ‘समालोचन’ का बहुत शुक्रिया।

    Reply

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