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समालोचन

Home » रैन भई चहुँ देस: अमीर ख़ुसरो: माधव हाड़ा

रैन भई चहुँ देस: अमीर ख़ुसरो: माधव हाड़ा

अमीर ख़ुसरो साहित्य (हिंदी, उर्दू, फ़ारसी) और इतिहास दोनों के लिए महत्वपूर्ण हैं. उनके व्यक्तित्व और महत्व पर माधव हाड़ा का यह आलेख रुचिकर है, प्रस्तुत है.

by arun dev
January 17, 2023
in आलेख
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रैन भई चहुँ देस: अमीर ख़ुसरो: माधव हाड़ा
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रैन भई चहुँ देस
अमीर ख़ुसरो

 

माधव हाड़ा

हिंदी में अमीर ख़ुसरो (1262-1324 ई.) को एक कवि के रूप विख्यात हैं, लेकिन इसमें उनके असाधारण व्यक्तित्व के संबंध में इसमें जानकारियाँ बहुत सीमित हैं.

‘कोई मृत पूरी तरह ख़ुश हो ही नहीं सकता’, यह पंक्ति उनके जीवन का ध्येय और आदर्श थी. जो मर गया, वह उनका कितना ही प्रिय हो या उन पर उसकी कितनी ही कृपा रही हो, वे उसको पूरी तरह भूल जाते थे.

उनके समय में ग्यारह सुल्तान हुए और उनमें से अधिकांश अपने पूर्ववर्ती की हत्या कर सत्तारूढ़ हुए, लेकिन ख़ुसरो इन सबके प्रिय और कृपापात्र बने रहे. ख़ुसरो के रग-रग में कला थी, लेकिन दुनियावी मामलों में बहुत चतुर व्यक्ति थे. ख़ुसरो का अपने संरक्षक के साथ शुद्ध व्यावहारिक रिश्ता था और वे अपने संरक्षक के राजनीतिक मंसूबों से अपने को पूरी तरह अलग रखते थे. मोहम्मद हबीब ने उसके संबंध में लिखा है कि

“वे उनकी प्रशंसा के गीत गाते थे, क्योंकि इसके लिए उनको बहुत पैसा मिलता था. पूरे पचास साल तक रंग-बिरंगे फूल उसके सामने से गुज़र गए, जिनकी वे प्रशंसा में अत्युक्ति करते थे. लेकिन ज्यों ही बबूला फूटता, वे उसे भूल जाते था. क्षितिज पर कोई नया नक्षत्र उठता तो कवि उसके पास चला जाता. कोई मर्त्य पूरी तरह ख़ुश हो ही नहीं सकता. लेकिन अमीर ख़ुसरो का कैरियर ऐसा था, जिस पर किसी तितली को रश्क होता.”

अमीर ख़ुसरो विद्वान थे, पर दरबारी भी थे और दरबारी अपने वक़्त का ग़ुलाम होता है. ख़ुसरो विद्वान थे, फ़ारसी और हिंदवी के बहुत बड़े कवि थे, बहुत उदार और मिलनसार थे, लेकिन बहुत अधिक व्यावहारिक थे और उनके व्यक्तित्व की यही विशेषता बहुत ध्यानाकर्षक है.
‘तूती-ए-हिन्द’ के नाम से विख्यात अमीर ख़ुसरो (1262-1324 ई.) बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. उनका असल नाम अबुल हसन यमीनुद्दीन था, लेकिन वे अमीर ख़ुसरो के नाम से ही प्रसिद्ध हुए. वे एक साथ कवि, शायर, इतिहासकार, गायक, संगीतकार, सूफ़ी संत, राजनीतिज्ञ, भाषाविद्, कोषकार, पुस्तकाध्यक्ष और दार्शनिक सभी थे.

उनकी यात्रा बहुत लंबी है- उन्होंने अपनी आँखों से गुलाम वंश का पतन, ख़लजी वंश का उत्थान और पतन और तुग़लक वंश आरंभ देखा. उनके समय में दिल्ली के तख्त पर 11 सुल्तान बैठे, जिनमें से वे सात के राज्याश्रय में रहे. ख़ुसरो अरबी, फ़ारसी, तुर्की और हिंदवी के विद्वान् थे और संस्कृत का भी उनको ज्ञान था. वे फ़ारसी के अपने समय के बहुत प्रतिभाशाली और विख्यात कवि थे. प्रसिद्ध इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी ने अपने ऐतिहासिक ग्रंथ ‘तारीख़े-फ़िरोजशाही’ में लिखा है कि

“बादशाह जलालुद्दीन फ़ीरोज़ ख़लजी ने अमीर ख़ुसरो की एक चुलबुली फ़ारसी कविता से प्रसन्न होकर उन्हें ‘अमीर’ का ख़िताब दिया था, जो उन दिनों बहुत ही इज़्ज़त की बात थी. उन दिनों अमीर का ख़िताब पाने वालों का एक अपना ही अलग रुतबा व शान होती थी.”

उनकी मसनवियों और गद्य रचनाओं का ऐतिहासिक महत्त्व भी बहुत है. मध्यकालीन इतिहास में उनकी रचनाओं को ‘प्रत्यक्ष और आनुभविक’ साक्ष्य की तरह उद्धृत किया जाता है.

ख़ुसरो को संगीत की हिंदुस्तानी शैली का जनक माना जाता है- उन्होंने सितार और तबला बनाया. हिंदी में लिखने वाले वे पहले कवि थे और ‘हिंदवी’ शब्द का प्रयोग भी सबसे पहले उन्होंने ही किया. फ़ारसी में महारत और ख्याति के बावजूद उन्हें हिंदवी से लगाव था और इसमें वे अपनी बात कहने में सहज महसूस करते थे. उन्होंने एक जगह लिखा है कि

“मैं हिन्दुस्तान की तूती हूँ. अगर तुम वास्तव में मुझसे जानना चाहते हो, तो हिन्दवी में पूछो. मैं तुम्हें अनुपम बातें बता सकूँगा.”

ख़ुसरो को हिंदुस्तान से लगाव भी था– उन्होंने एक जगह हिंदुस्तान के फूलों, कपड़ों और सौंदर्य को फ़ारस, रूम और रूस आदि से अच्छा बताया और अंत में लिखा कि

“यह देश स्वर्ग है, नहीं तो हज़रत आदम और मोर यहाँ क्यों आते.”

ख़ुसरो को अपने हिंदुस्तानी होने पर गर्व था. ‘नुह सिपहर’ में उन्होंने लिखा कि

“यही मेरा जन्मस्थान है और यही मेरी मातृभूमि है.”

ख़ुसरो की भारतीय लोकजीवन की पकड़ बहुत गहरी और मजबूत थी. उनकी हिंदवी में लिखी पहेलियाँ, मुकरियाँ, दोहे और गीत इस बात के सबूत हैं. सदियाँ बीत जाने के बाद भी ये भारतीय जनसाधारण की ज़बान पर चढ़े हुए हैं. फ़ारसी सहित कई भाषाओं के विद्वान ब्रजरत्नदास के शब्दों में

“इनका हृदय क्या था, एक बीन थी, जो बिना बजाये ही पड़ी-पड़ी बजा करती थी.”

ख़ुसरो निज़ामुद्दीन औलिया के शिष्य होने साथ बहुत विनम्र और मिलनसार मनुष्य भी थे. ख़ुसरो के संबंध में सबसे महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय बात यह है कि उनमें धार्मिक संकीर्णता और कट्टरता बिल्कुल नहीं थी. वे इस मामले में बहुत उदार थे. उन्होंने कहा भी है-

“काफ़िरे- इश्क़म मुसलमानी मरा दरकार नीस्तहर रगे-मन तारे गश्त: हाजते-ज़ुन्नार नीस्त.”
अर्थात्-

“मैं इश्क़ का काफ़िर हूँ, मुसलमानी की मुझे कोई दरकार नहीं है. मेरे शरीर की हर रग तार बन गई है, अत: मुझे जनेऊ की भी हाजत नहीं रह गई है.”

अमीर ख़ुसरो का जन्म 1253 ईस्वी (652 हि.) में एटा उत्तर प्रदेश के पटियाली नामक क़स्बे में हुआ था. गाँव पटियाली उन दिनों मोमिनपुर या मोमिनाबाद के नाम से जाना जाता था. इस गाँव में अमीर ख़ुसरो के जन्म की बात हुमायूँ काल के इतिहासकार हामिद बिन फ़ज़्लुलल्लाह जमाली ने अपने ग्रंथ ‘तज़किरा सियरुल आरिफ़ीन’ में कही है. तेहरवीं शताब्दी के आरंभ में, अमीर सैफ़ुद्दीन नामक एक सरदार बल्ख़ हज़ारा से मुग़लों के अत्याचार के कारण भागकर भारत आया और एटा के पटियाली नामक ग्राम में रहने लगा. सौभाग्य से सुल्तान शम्सुद्दीन अल्तमश के दरबार में उसकी पहुँच जल्दी हो गई. भारत में उसने नवाब एमादुल्मुल्क की पुत्री से विवाह किया, जिससे उसके पहले पुत्र इज़्ज़ुद्दीन अलीशाह, दूसरे पुत्र हिसामुद्दीन अहमद और पटियाली ग्राम में तीसरे पुत्र अमीर ख़ुसरो का जन्म हुआ.

अमीर ख़ुसरो की माँ दौलत नाज़ हिन्दू (राजपूत) थीं. ये दिल्ली के एक रईस अमीर एमादुल्मुल्क की पुत्री थीं. ये बादशाह बलबन के युद्ध मंत्री थे और वे राजनीतिक दबाव के कारण नए-नए मुसलमान बने थे. इस्लाम धर्म ग्रहण करने के बावजूद इनके घर में सारे रीति-रिवाज हिन्दुओं के थे और उसमें गाने-बजाने और संगीत का माहौल भी था. ख़ुसरो के नाना को पान खाने का बेहद शौक था. इस पर बाद में ख़ुसरो ने ‘तम्बोला’ नामक एक मसनवी भी लिखी. इस मिलेजुले घराने एवं दो परम्पराओं के मेल का असर किशोर ख़ुसरो पर पड़ा. अपने ग्रंथ ‘ग़ुर्रतल कमाल’ की भूमिका में अमीर ख़ुसरो ने अपने पिता को ‘उम्मी’ अर्थात् अनपढ़ कहा है, लेकिन अमीर सैफ़ुद्दीन ने अपने पुत्र अमीर ख़ुसरो की शिक्षा-दीक्षा का बहुत ही अच्छा प्रबंध किया था. अमीर ख़ुसरो की प्राथमिक शिक्षा एक मकतब (मदरसा) में हुई. वे छह बरस की उम्र से ही मदरसा जाने लगे थे. स्वयं ख़ुसरो के कथनानुसार जब उन्होंने होश सँभाला, तो उनके पिता ने उन्हें शिक्षा के लिए एक मकतब में बिठाया.

चार वर्ष की अवस्था में वे अपनी माता के साथ दिल्ली गए और आठ वर्ष की अवस्था तक अपने पिता और भाइयों से शिक्षा प्राप्त करते रहे. उनके पिता 85 वर्ष की अवस्था में किसी लड़ाई में मारे गए, तब इनकी शिक्षा का भार इनके नाना नवाब एमादुल्मुल्क ने अपने ऊपर ले लिया. कहते हैं कि ख़ुसरो की उम्र उस समय 13 वर्ष की थी. इनकी माँ न इन्हें बहुत लाड़-प्यार से पाला. वे स्वंय पटियाली या फिर दिल्ली में अमीर रईस पिता की शानदार बड़ी हवेली में रहती थीं. नाना ने थोड़े ही दिनों में अमीर ख़ुसरो को ऐसी शिक्षा-दीक्षा दी कि ये कविता सहित कई अनुशासनों में निष्णात हो गए. युद्ध कला की बारीकियाँ भी ख़ुसरो ने पहले अपने पिता और फिर नाना से सीखीं. इनके नाना योद्धा और बहुत ही साहसी और निडर थे और उन्होंने ख़ुसरो को भी वैसी ही शिक्षा दी. युवावस्था में ख़ुसरो की मित्रता हसन देहलवी थी, जो ख़ुद भी फ़ारसी में कविता करता था. ख़ुसरो ने अपनी पुस्तक ‘तुहफ़तुस्सिग़्र’ की भूमिका में लिखा है कि

“ईश्वर की कृपा से मैं 12 वर्ष की अवस्था में शेर और रुबाई कहने लगा, जिसे सुनकर विद्वान आश्चर्य करते थे और उनके आश्चर्य से मेरा उत्साह बढ़ता था. जब मैं केवल आठ बरस का था मेरी कविता की तीव्र उड़ानें आकाश को छू रहीं थीं तथा जब मेरे दूध के दाँत गिर रहे थे, उस समय मेरे मुँह से दीप्तिमान मोती बिखरते थे.”

यही कारण है कि वे शीघ्र ही ‘तूती-ए-हिन्द’ के नाम से मशहूर हो गए थे. यह नाम ख़ुसरो को ईरान देश के लोगों ने दिया. इसी समय ख़ुसरो सूफ़ी धर्म की आकृष्ट हुए. दिल्ली में उस समय में निज़ामुद्दीन औलिया की बड़ी धूम थी. ख़ुसरो आठ वर्ष की अवस्था में दीक्षा लेकर उनके शिष्य हो गए. उनका आचार-विचार निज़ामुद्दीन औलिया का अच्छा लगता था, वे ख़ुसरो से अत्यंत प्रसन्न रहते थे और वे इन्हें ‘तुर्के-अल्लाह के नाम से पुकारते थे. वे ख़ुसरो के संबंध में अकसर कहा करते थे कि

“प्रलय के पश्चात न्याय के अवसर पर ईश्वर पूछेगा कि तू मर्त्यलोक से क्या लाया, तो मैं ख़ुसरो को आगे कर दूँगा.”

यों तो ख़ुसरो में काव्य प्रतिभा नैसर्गिक थी फिर भी उनकी कविता के सौंदर्य को निज़ामुद्दीन औलिया का अनुग्रह माना जाता है. उन्हीं के प्रभाव से ख़ुसरो के काव्य में प्रेम, भक्ति और व्यंजना की गहराई आई. ख़ुसरो का एक बेटा था, जो बाद में फ़िरोजशाह का दरबारी बन गया. उनकी एक बेटी भी थी. उसको उपदेश देते हुए उन्होंने लिखा कि “खबरदार, चर्खा कातना कभी न छोड़ना. झरोखे में बैठकर इधर-उधर मत झाँकना.”

अमीर ख़ुसरो ने दरबारी कवि के रूप सबसे पहले सुल्तान ग़ियासुद्दीन बल्बन के बड़े पुत्र मुहम्मद सुल्तान का राज्याश्रय ग्रहण किया, जो उस समय मुल्तान का सूबेदार था. मुहम्मद गुणग्राहक, काव्य रसिक और उदार व्यक्ति था. उसने एक संग्रह तैयार किया था, जिसमें बीस हजार शेर थे. ख़ुसरो उसके आश्रय में पाँच वर्ष तक रहे. मुग़लों ने 1248 ई. में पंजाब पर आक्रमण किया, तो मुहम्मद ने उनको दिपालपुर के युद्ध में परास्त कर भगा दिया, पर युद्ध में वह स्वयं मारा गया. ख़ुसरो, जो युद्ध में उसके साथ गए थे, मुग़लों के हाथ पकड़े जाकर हिरात और बल्ख़ ले जाए गए, जहाँ से दो वर्ष बाद ही उन्हें मुक्ति मिली.

ख़ुसरो इस घट्ना के बाद दिल्ली के बजाय अपनी माँ के पास पटियाली ग्राम चले गए. वहाँ कुछ समय उन्होंने आत्मचिंतन में व्यतीत किया. स्वयं ख़ुसरो ने लिखा है कि

“मैं इन्हीं अमीरों की सोहबत से कटकर माँ के साए में रहा. दुनियादारी से आँख मूँदकर गरमा-गरम ग़ज़लें लिखी, दोहे लिखे. अपने भाई के कहने से पहला दीवान ‘तोह्फ़ेतुस्सिग़्र’ तो तैयार किया और दूसरा दीवान ‘वस्तुल हयात’ (1284 ई.) पूरा करने में लगा था. एक तरफ़ किनारे पड़ा हुआ दिलों को गरमाने वाली ग़ज़लें लिखता रहता था. राग-रगिनियाँ बुझाता था.”

कुछ समय बाद ग़यासुद्दीन बल्बन के दरबार में जाकर इन्होंने शेर पढ़े, जो मुहम्मद सुल्तान के शोक पर बनाए गए थे. बल्बन पर इसका ऐसा असर पड़ा कि शोक में रोने से उसे ज्वर चढ़ आया और तीसरे दिन उसका निधन हो गया. अमीर ख़ुसरो इस घटना के बाद अमीर अली मीरजामदार के साथ रहने लगे. उसके लिए उन्होंने ‘अस्पनामा’ लिखा था और जब वह अवध का सूबेदार नियुक्त हुआ, तब वे भी वहाँ दो वर्ष तक रहे. ख़ुसरो 1288 ई. में दिल्ली लौटे और कैकुबाद के दरबार में निमंत्रित हुए. उसके आदेशानुसार इन्होंने 1289 ई. में ‘क़िरानुस्सादैन’ नामक काव्य छह महीने में तैयार किया.

कैक़ुबाद 1290 ई. में मारा गया और उसके साथ ही गुलाम वंश का अंत हो गया. जलालुद्दीन ख़लजी ने दिल्ली के तख्त पर अधिकार कर लिया. उसके शासनकाल में ख़ुसरो की प्रतिष्ठा में ख़ासी वृद्धि हुई. ख़ुसरो से उसका संबंध पहले से ही था. जलालुद्दीन काव्य रसिक और कलाप्रेमी था. वह विद्वानों का सम्मान करता था. ख़ुसरो को वह प्रेम से ‘हुदहुद’ (एक सुरीला पक्षी) कहकर पुकारता था. उसने ख़ुसरो को अमीर की पदवी दी. अब अबुल हसन यमीनुद्दीन ‘अमीर ख़ुसरो’ बन गए, इनका वज़ीफ़ा 12000 तनका सालाना तय हुआ और बादशाह के ये ख़ास मुहासिब हो गए.

अपने चाचा को मारकर अलाउद्दीन 1296 ई. में सुल्तान हुआ. ख़ास बात यह है कि ख़ुसरो का सम्मान उसके दरबार में भी जारी रहा. उसने ख़ुसरो को खुसरुए-शाअरां की पदवी दी और ख़ुसरो के प्रति बड़ा उदार दृष्टिकोण अपनाया. ख़ुसरो ने उस काल की ऐतिहासिक घटनाओं का आँखों देखा हाल अपनी गद्य रचना ‘ख़ज़ाइनुल फ़तूह’ (तारीख़े-अलाई) में लिखा है. अमीर ख़ुसरो ने अलाउद्दीन के आग्रह पर ‘ख़ुदाए सुख़न’ अर्थात ‘काव्य कला के ईश्वर माने जाने वाले कवि निज़ामी गंजवी के ‘ख़म्सा’ का ज़वाब लिखा है, जो ‘ख़म्सा ए ख़ुसरो’ के नाम से मशहूर है.

‘ख़म्सा’ का अर्थ है पाँच की संख्यावाला. ख़ुसरो ने इसमें ‘ख़म्से’ के ही छंदों और विषयों का इस्तेमाल किया है. ख़ुसरो अपनी इस रचना को निज़ामी के ‘ख़म्से’ से अच्छा मानते थे. ख़ुसरो की इस रचना को ‘पंजगंज’ भी कहते हैं. इसमें कुल मिलाकर 18000 पद हैं. क़ुत्बुद्दीन मुबारक शाह 1317 ई. में सुल्तान हुआ और उसने एक क़सीदे पर प्रसन्न होकर ख़ुसरो को सोना और रत्न पुरस्कार में दिए. कुतुबुद्दीन मुबारक शाह को उसके वजीर ख़ुसरो ख़ाँ ने 1320 ई. में मार डाला और इसके साथ ख़लजी वंश का अंत हो गया.

पंजाब से आकर ग़ाज़ी ख़ाँ ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया और ग़िआसुद्दीन तुग़लक के नाम से वह गद्दी पर बैठा और इस तरह दिल्ली में तुग़लक वंश की बुनियाद रखी गई. ख़ुसरो ने इसके नाम पर अपनी अंतिम किताब ‘तुग़लकनामा’ लिखी. इसके बाद ख़ुसरो बंगाल चले गए और लखनौती में रहने लग गए. 1324 ई. में जब उन्हें निज़ामुद्दीन औलिया के निधन की सूचना मिली, तो वे तत्काल वहाँ से चलकर दिल्ली आ गए. ऐसा कहा जाता है कि जब ये उनकी क़ब्र के पास पहुँचे तो –

“गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस.
चल खुसरू घर आपने रैन भई चहुँ देस”-

यह दोहा पढ़कर बेहोश हो गिर पड़े और बाद में वहीं मजार पर बैठ गए. उन्होंने अपने पास जो कुछ धन-संपदा थी, उसको ग़रीबों में बाँट दिया. कुछ ही दिनों बाद उसी वर्ष (18 शव्वाल, बुधवार) को उनका निधन हो गया. उनकी क़ब्र भी निज़ामुद्दीन औलिया की कब्र के नीचे ही बनायी गई और 1605 ई ताहिर बेग नामक अमीर ने वहाँ पर मक़बरा बनवा दिया. ख़ुसरो बड़े प्रसन्न चित्त, मिलनसार और उदार व्यक्ति थे. सुल्तानों और सरदारों से जो कुछ धन आदि उनको मिलता था वे उसे ग़रीबों बाँट देते थे. सल्तनत के अमीर और कविसम्राट् की उपाधि मिलने पर भी ये धनी और दरिद्र, सभी से बराबर का व्यवहार करते थे. ख़ुसरो ने आँख मूँदकर उसको अपना लिया.

ख़ुसरो फ़ारसी के बहुत बड़े कवि थे और वे विदेशों में भारतीय फ़ारसी की शान थे. उनको इसीलिए विदेशी फ़ारसी प्रेमियों ने ‘तूती-ए-हिंद’ कहा. वे एक व्यवहारकुशल अमीर और कवि थे. उन्होंने सल्तनकाल में एक के बाद एक बाद शासक बदलते देखे और वे सभी के प्रिय और कृपापात्र रहे.

जलालुद्दीन ख़लजी और अलाउदीन ख़लजी को उनसे विशेष लगाव था. वे उनका सम्मान भी बहुत करते थे. उन्होंने अपनी काव्य प्रतिभा और कौशल से अपने समय के प्रसिद्ध कवियों की चुनौती दी. उनके समय में कुछ दूसरे शायर, जैसे मसूद साद आदि भी हिंदवी में शेर कहने लगे थे, यह उल्लेख उन्होंने स्वयं किया है. ख़ुसरो यहीं के थे और यहाँ से उन्हें प्रेम था. उनकी रचनाओं में अन्य फ़ारसी शायरों की तरह हिंदुस्तान विदेश नहीं है. वे इसकी जमकर सराहना करते हैं और कई जगह तो वे इसको दूसरे देशों से बेहतर कहते हैं.

ख़ुसरो में धार्मिक संकीर्णता नहीं थी‌- वे इस मामले में उदार थे. उन्होंने भारतीय संस्कृति और लोक जीवन को बिना किसी धार्मिक–सांप्रदायिक पूर्वाग्रह के समझा और उसको अपने काव्य में जगह भी दी. उनका सबसे बड़ा योगदान हिंदुस्तान की बोलचाल की सरल और सहज भाषा में काव्य रचना है. उनके समय कई तरह की शास्त्रबद्ध काव्यभाषाएँ थीं और कवियश प्रार्थी उन्हीं का इस्तेमाल कर सकते थे.

ख़ुसरो ने पहली बार बोलचाल की, अपने आसपास की और अपने समय के जनसाधारण की भाषा को कविता की भाषा का दर्ज़ा दिया. ख़ुसरो के लिए हिंदुस्तान की तूती यों ही इस्तेमाल नहीं होता. वे यहाँ के थे और ख़ास बात यह है कि बाहरवाले उन्हें उनकी कविता के कारण यहाँ का मानते थे. सराहना ख़ुसरो का स्वभाव और मजबूरी, दोनों थे. उसकी व्यावहारिक बुद्धि उसको उस सच को छिपा लेने पर मजबूर कर देती थी, जिससे सुल्तान नाराज़ हो जाएँ. उसके दो संरक्षकों- मलिक छज्जू और हातिम ख़ान का बग़ावत के कारण अलाउद्दीन ने सर क़लम कर दिया, लेकिन ख़ुसरो ने सुल्तान को इसके लिए बधाई दी. अपने चाचा जलालुद्दीन की अलाउद्दीन ने हत्या कर दी, लेकिन उसकी ज़बान से अपने इस संरक्षक और चाहने वाले की हत्या के विरोध में एक भी शब्द नहीं निकला. उनकी कविता के शैली अलंकारों से कृत्रिम बोझिल शैली है, वे अपने को सिर्फ़ युद्धों और विजयों तक सीमित रखते थे, वे उन सभी तथ्यों की सजग अनदेखी कर देते थे, जिनसे सुल्तान की छवि प्रभावित होती हो और वे सुल्तान की जमकर चापलूसी करते थे. मोहम्मद हबीब ने उनके संबंध में लिखा है कि

“यदि अमीर ख़ुसरो पुराणों के युग में लिखते होते, तो वे अल्लाउद्दीन को विष्णु का अवतार बताते और उनके विरोधियों को राक्षस.”

माधव हाड़ा
(जन्म: मई 9, 1958) 

प्रकाशित पुस्तकें:
सीढ़ियाँ चढ़ता मीडिया (2012), मीडिया, साहित्य और संस्कृति (2006), कविता का पूरा दृश्य (1992), तनी हुई रस्सी पर (1987), लय (आधुनिक हिन्दी कविताओं का सम्पादन, 1996). राजस्थान साहित्य अकादमी के लिए नन्द चतुर्वेदी, ऋतुराज, नन्दकिशोर आचार्य, मणि मधुकर आदि कवियों पर विनिबन्ध आदि

मो. 9414325302/ईमेल: madhavhada@gmail.com

Tags: 20232023 आलेखअमीर ख़ुसरोअमीर ख़ुसरो का जीवन परिचयअमीर ख़ुसरो व्यक्तित्व और कृतित्वमाधव हाड़ा
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Comments 6

  1. जय त्रिपाठी says:
    2 years ago

    अभी अभी पढ़ी, शानदार लिखा है, अमीर खुसरो का पूरा चित्रण।

    Reply
  2. Anil Avishraant says:
    2 years ago

    बहुत सुन्दर लेख है। पर मुगल के स्थान पर मंगोल होना चाहिए था। बलवन का बड़ा बेटा प्रिंस मुहम्मद मंगोलों से लड़ते हुए मरा था, मुगल नहीं।

    Reply
  3. डॉ. किरण मिश्रा says:
    2 years ago

    ख़ुसरो पर इस से पहले ऐसा लेख नही पढ़ा, ऐसे लेख लिखे जाने चाहिए। बेहतरीन लिखा माधव हाड़ा जी ने। बेहद जरूरी प्रस्तुति के लिए आप का साधुवाद !

    Reply
  4. Omprakash Sambey says:
    2 years ago

    आलेख अच्छा है. मगर एक महत्वपूर्ण अमीर खुसरो का पक्ष ओझल है. गीता प्रेस की पत्रिका कल्याण के साधना अंक में यह बताया गया है कि अमीर खुसरो रामानंद स्वामी के भी शिष्य थे और उनसे उनकी निकटता की चर्चा है और रामानंद स्वामी के आशीर्वाद से वे आत्मज्ञान के प्रकाश से भर गए थे. -डा. सामबे

    Reply
    • MADHAV HADA says:
      2 years ago

      आभार! अमीर ख़ुसरो से संबंधित आधारभूत स्रोतों में इस तरह कोई उल्लेख या संकेत नहीं मिलता। अमीर ख़ुसरो रामानंद से पहले हो गए थे। रामानंद का जन्म 1338 से 1348 के बीच और निधन और 1445 से 1460 ई. के बीच हुआ माना जाता है, जबकि अमीर ख़ुसरो का समय 1262-1324 ई. के बीच है। फिर भी, शोध में अंतिम कुछ नहीं होता। मैं कल्याण अ‍ंक देखूँगा….

      Reply
  5. विष्णु कुमार शर्मा सहायक आचार्य हिंदी, सिविल लाइन, बारां says:
    10 months ago

    अमीर खुसरो के संबंध में बहुत ही उपयोगी जानकारियां दी गई है तूती- ए -हिंद को लेकर बहुत ही अच्छा लिखा है।

    Reply

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