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Home » अपर्णा मनोज की कविताएँ

अपर्णा मनोज की कविताएँ

साहित्य में ऐसे कुछ रचनाकार हैं, जिन्हें पढ़कर कहना पड़ता है कि उन्हें नियमित लिखते रहना चाहिए. अपर्णा मनोज ने कविताएँ लिखीं हैं, उनके पास कुछ कहानियां हैं और अनुवाद भी. अभी भी उनके पास लेकिन संग्रह नहीं है. प्रस्तुत कविताओं में पेंटिंग की पृष्ठभूमि है. काव्य और पेंटिंग की आवाजाही है. इन कविताओं में ख़ुद अपर्णा की काव्य यात्रा ने एक मुक़ाम हासिल कर लिया है. प्रस्तुत है.

by arun dev
April 17, 2023
in कविता
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अपर्णा मनोज की कविताएँ
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अपर्णा मनोज की कविताएँ

 

1.
रवि वर्मा मुझे मुआफ़ करें

तुम्हारी औरतों से बतियाने की कोशिश कर रही हूँ
विरह में क्या औरत दमयंती हो जाती है ?
लाल रेशमी साड़ी ज़री की चमचम और मख़मल पत्तों पर बैठा हंस. पानी में तैरते कमल !
सोचती हूँ दमयंती से क्या सवाल करूँ ? अजर-अमर प्रेम पर ?
उसकी साड़ी के बारे में पूछूँ ?
उस बुनकर का नाम ? ज़री बनाने वाली कोई औरत होगी !
दमयंती तुम्हें सारी दुनिया जानती है
मेरी गूगल खोज ने बताया
सफ़ेद ज़री की साड़ी में अपनी सखी या दासी या ब्राइड मेड के साथ बैठी दमयंती सूदबी में ग्यारह करोड़ कमा पायी.

रवि वर्मा माज़रत के साथ
तुम्हारे रंगों की प्याली से
माफ़ी तुम्हारी कूची से
और तुम्हारे उस कोमल दिल से
जिसमें औरतें रहती थीं कई कई
गंगा, लक्ष्मी, शकुंतला
और वह अनाम किसान औरत
खुले स्तन
कुछ दूध के दर्द से इस तरह कसे
जैसे आज ही बच्चा जना हो
और चली आयी हो खेत पर.

मैं आज के समय में
इन औरतों से बात करने की अभद्रता कर रही हूँ
अभद्र समय में
जबकि निर्भया के लिए मोमबत्ती लेकर निकला हुजूम
बिल्किस बानो के दर्द पर
खुलकर रो नहीं पाया.

रवि वर्मा
तुम्हारी द्रौपदी लाल साड़ी और सलेटी ब्लाउज़ वाली
अन्यत्र सैरन्ध्री पर्दे की ओट में
नृत्यशाला में कीचक से बचाव ढूँढ़ती.

क़ानून के विद्यार्थियों को
आई पी सी 376 बाद में पढ़ाना.
किताबों में सूखे गुलाब की जगह
इन औरतों को रख लो.

रवि वर्मा लक्ष्मी के कलेण्डर
गाहे-बगाहे
कई कॉपियाँ धड़ल्ले से छपती हैं
मेरा शाक्त हृदय छटपटा रहा है.

हाय, मैं शक्तिरूपा
इन छापेखानों से ख़ुद को मुक्त नहीं कर पा रही.
स्त्री मुक्ति का स्वप्न देखने वाली मैं
भद्र काली
चामुंडा
इण्डियन क़ानून के लिंक पर
कई जजमेंट्स को ब्राउज़ कर आयी हूँ.

बाहर रात बहुत काली है
पुलिस गश्त पर है
बिजली चमकी
टीवी स्क्रीन पर
चौदह साल की लड़की चीख रही है.
विक्षिप्त सी मैं
रवि वर्मा से लड़ रही हूँ.

 

बनी ठनी, किशनगढ़ मिनिएचर,  1750, राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में

२.
बणी-ठणी

क्या वह राजा सावंत का मनोविकार थी या उर्फ़ नागरी दास के इश्क़-चमन में इसी तरह उसके किरदार को बड़ा होना था
या  के रंगों का क़रिश्मा?

क्या वह एक औरत थी ?
क्या कवि रसिकबिहारी ?
सुरीले कंठ वाली
क्या मनुष्य थी कोई ?
इतनी जड़ाऊ, ऐसी कामिनी राधा रूपनगर की ?
इतना दुख का अभाव ?
अमृत पीकर पैदा हुई ?

झीने से घूँघट से झांकते घुंघवारे बाल
ऊँचा भाल
आँखें इस कदर बड़ी पैनी !
नागरी पगला बरबस फूट-फूट रोता
इन आँखों की क़ैद में.

सुंदरता की एक शैली होती है ! परास्त करने की.
परिष्कृत क़ैद !
ऐसे ही मुस्कराओ
ऐसे चलो
इतना बोलो कि होंठ हमेशा गुलाब के नहाये दिखें
मनमोहिनी तेरी ये अदा.

मैं चित्र को दोष नहीं दे रही
कलाकार निर्दोष है
राजा कवि है
कवि तो रवि है
सूरज के मत्थे क्या दोष मढ़ना?
दिक़्क़त काहे में है ?
थोड़ा तो बेअदब होने दो लड़की को.

बनी ठनी उर्फ़ विष्णुप्रिया.
उर्फ़ किशनगढ़ की राधा.
असल नाम किस शिजरे में मिलेगा ?
पुष्कर
हरिद्वार
बनारस
हम मरी औरतों का चिट्ठा वहाँ है क्या ?
या हम हुईं
महज बेटियाँ किसी की
बहन
या शौहरवालियां.

यह मत मान बैठना
कि मैं घोर पुरुष विरोधी हूँ

राँझा राँझा कर दी नी मैं आपे राँझा होई.

 

 

Amrita Sher-Gil, Self-Portrait as a Tahitian

3.
तहिती का वह आत्मिक स्व-चित्र : अमृता शेरगिल

शीशे में झांक रही है
उसकी अर्द्धनग्न देह
धीरे धीरे कैनवास में
दाखिल होता है उसका चेहरा
उसकी आँखें
घनी बरौनियाँ
उसके बंधे बाल
उसकी ग्रीवा
और कुछ नीचे को झुके स्तन
फिर कुछ दूर तक निर्जनता
और अचानक प्रकाश का अजस्र पुंज
उसकी नाभि से उदित हो रहा है सूरज
मैं विस्मय से देखती हूँ
ख़ुशबू की पंखुड़ियाँ मुझमें फूटती हैं धीरे धीरे
झरती हैं
बिखरती हैं.

दृश्य की अवशता में
मुझे एक स्त्री आती दिखायी देती है
घने लंबे बाल
राख में लिपटी
नग्न संत मेरी.

प्रिया मल्लिकार्जुन की
फूलों से ढके शिव के तन से
बारी बारी फूल हटाती.
गाती हुई
जग क्यों बौराया?
उसकी आँखें देख रहीं तुम्हें
मुझे, उसे
फिर क्या आवरण?
काया के फूल?
क्या ढाँपा तुमने ?
मुझे पाने की कामना में वह उच्छृंखल राजा
मेरी इच्छा जाने बिना
खींचता है मेरा आँचल.

लो छोड़ दिया घर बार
तुम्हारी तृष्णा के तवे को
नदी फेंक आयी.

फिर वह देवी गुम हो गई
अनंत सागर उसमें समा गया.

आह अक्का
शेरगिल तुम जैसी ही
दमक रही
निर्भीक शून्यतर मोती देह में.

 

4.
भारत माता

चार हाथों वाली मैं
चीवर में लिपटी
अधो बायाँ हस्त लिए हुए धान और ऊर्ध्व बायाँ शायद वेद थामे
निचला दायाँ जपमाल लिये
और ऊपरी दायाँ श्वेत वस्त्र पकड़े
सिर ढका हुआ
आँखें बहुत उदास
लंबा चेहरा लंबी परछाईं- सा
लेकिन प्रकाश के वलय में
सारे दुख छुप गए.

बैरागन
छुपा ले गयीं सारे दुख.

बंग-भंग.
क़र्ज़न साहब हम वैष्णवियाँ पानी के रंग में घोल घोलकर
नये रूप में ढाल दी गयीं.

कौन हो तुम?
मैं नहीं हूँ.
सखी तुम भी नहीं हो.

कौन हो तुम?
अबनींद्रनाथ
अंदरमहल की माँ भद्रा!
आह भारतमाता!
न न न
चार हाथों का हम क्या करेंगी?
पर कौन सुनता?
फिर नये युग में
शेरगिल शीशे से बाहर आई
फिर भीतर गयीं
टकटकी लगाये देखती रहीं ख़ुद को
कहीं नहीं मिले चार हाथ
शीशे में टटोलती रहीं
तपस्विनी की कथा
कमरा कराह से भर उठा
गीला हो गया शीशा
आँसू की दरारें
वह सत्रह साल की लड़की
चुपचाप अपने खाँचे बनाती रही
धीरे धीरे रंग ख़ुद को टटोलते रहे
गहरी नीली साड़ी
सिर ढका हुआ
वही लंबा चेहरा
माथे पर टिकुली
होंठ कुछ लाल
कहने को आतुर
दो हाथ
दायें पर बायाँ चढ़ा हुआ.
मैं हूँ भारत माता.
बस यही.

 

Painting: Abanindranath : zeb-un-nissa

5.
अवनींद्र की ज़ेब-उन-निस्सा

क्या अपनी ही क़ब्र पर बैठी है मख़्फ़ी? तीस हज़ारा बाग की गौरैया.
421 ग़ज़लों से बना चेहरा
और रुबाइयों से भीगी आँखें.

हाय, अब यहाँ बेगानी रेलवे लाइन है और दिल्ली है. न बाग है न गौरैया.

मक़बरा तो वैसे भी तन्हाई है
कहीं भी ले जाओ
फिर ये ठहरा मख़्फ़ी का मक़बरा.

सलीमगढ़ के काले दिन रात
अंधेरे की एक खिड़की
और लड़की के दिल की धड़कन
अभी अभी एक एक पत्ती खिली बेला की
और ओस की चाहत में झर गई.

औरंगज़ेब जब भी सुनता होगा
क़ुरआन से बाहर आने पर
चिड़ियों की आवाज़
तो भाग जाती होगी उसकी रूह सलीमगढ़ को
और उसकी कट्टर दाढ़ी
रह रह काँपती होगी
लख्ते ज़िगर. रोता होगा बादशाह.

युद्ध के मैदान को हरा देती है
किसी भी झुरमुट की साँझ
जब पक्षी एक साथ लौटते हैं
और हैरानी से ज़मीन पर पड़े खून को देखते हैं.
आत्माएँ आबाद रहना चाहती हैं धरती पर
आत्माएँ प्रेम के चरखे पर धागा चढ़ाती हैं
फिर कौन प्रेत राजा का चोला पहनकर
क़त्ल, जेल और वतन का हिसाब करता है ?

इतने मियाँ हो भी गए तो क्या?
मख़्फ़ी ने खुलकर कह दिया
कि वह अब कैसी रही मुसलमान
कि दिल में तो उसकी मूरत रहती है
उसने तो एलान किया
कि पतंगा नहीं जो जल मरे
अंदर की प्रिया आग है
धीरे धीरे जलती हुई.
उसने बता दिया
प्यार के मेले में जाम उठते हैं
और उसके होठों को भिगोती है शराब
दुनिया दर्द छुड़ाने को रोती है
मख़्फ़ी ने उसे रहने को दिल दिया
दर्द उसका किरायेदार है.

उसने सिर हिलाते हुए कहा
चिड़ियों के बच्चे ही तो गिरते हैं घोंसलों से. अकेले. फड़फड़ाते. तुम भी उड़ो निडर.
नील नदी को याद करते हुए बोली
मेरा दिल फट जाएगा ज्वालामुखी की तरह
प्रेम का ज्वार बेक़ाबू है
और बाढ़ में उन्मत्त नील तुम मुझे पानी की बूँद से अधिक कुछ नहीं लगतीं
मेरी प्यास कौन रोकेगा भला?

अवनींद्र, तुमने जिन आँखों में रंग भरा है
मैं समझ गई हूँ
कि नील हार चुकी है
और कविता कभी पूरी नहीं होती
और चित्र ? ज़ेबुनिस्सा स्पर्श के उस पार रहती है.

 

6.
नदी माँई

सिर पर सूखी घास का गट्ठर
नीला घेरदार बाँधनी का घाघरा
कौनसी नदी माँई उमड़कर चली आ रही है ?

नदी माँई नदी माँई
शिव की जटा से मुक्त हो गई हो क्या ?
निर्बाध बहने की इच्छा में
तुम्हारी नाक की नथ पर खून की बूँदें छलक आयी हैं
गिलट की हँसुली
और ठीक उसके नीचे बना गोदना

नदी माँई नदी माँई तुम्हारी ज़ोरदार हंसी हँसुली की शहतीर में कट कर रह गई है क्या ?

तुम्हारे पीले कत्थई दांतों से
रोशनी झर रही है
मुझे लगा रोशनी झर रही है
नदी माँई नदी माँई
काली सितारों जड़ी ओढ़नी की झिलमिल से झांकता तुम्हारा खूबसूरत काला चेहरा
मुझे लगा काला सूरज
काली सुबह
काली रोशनी
सिर पर सूखी घास का सुलगता गट्ठर.

नंगे पाँव नदी भाग रही है
गोखरू के काँटें जहाँ तहाँ चिपक गये हैं
फिर भी नदी भाग रही है
पैरों के खड़वे आपस में टकरा रहे हैं
उनसे निकलने वाली आवाज़ अभी इस नदी का ग़म निगल जाएगी
बिना आवाज़ की गठरी
मेरी नदी माँई मेरी नदी माँई
मेरी सरस्वती नदी
मेरी गंगा
ओ मेरी रावी
ब्रह्मा की पुत्री
आ तेरे बाजूबंद खोल दूँ.

अफ़ीम चाट कर मत सोना आज की रात
आज की रात बड़ी देर के बाद आयी है.

डॉ. अपर्णा मनोज
कविताएँ, कहानियां, आलेख और अनुवाद प्रकाशित
aparnashrey@gmail.com
Tags: 20232023 कविताAmrita Sher-GilSelf-Portrait as a Tahitianzeb-un-nissaअपर्णा मनोजबनी ठनी
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Comments 23

  1. रूपम मिश्र says:
    2 years ago

    सारी कविताएं खूबसूरत और समय की पीड़ा को भी कह रही हैं। शुभकामनाएं अपर्णा जी को।

    Reply
  2. हीरालाल नागर says:
    2 years ago

    अपर्णा मनोज की कविताएं पेंटिंग को देखकर लिखीं गईं कविताएं हैं। पेंटिंग पर लिखीं कविताएं स्त्री के फ्रेम को तोड़ती कविताएं हैं । एक स्त्री राजा रवि वर्मा, अबनीन्द्रनाथ, अमृता शेरगिल द्वारा चित्र खचित स्त्रियों से सवाल कर रही है। कविता में एक स्त्री की मुक्तावस्था आधुनिकता में कितने सवाल खड़ा कर सकती है एक दूसरी कला का सांचा डगमगाने लगता है। आपने ठीक कहा कि अपर्णा मनोज को कविताएं लिखते रहना चाहिए नया पाठ पैदा करने के लिए।

    Reply
  3. जय त्रिपाठी says:
    2 years ago

    अरे वाह। बहुत गज़ब लिखती हैं। अमृता शेरगिल और राजा रवि वर्मा सहित सभी की कला पर बेहतरीन कविताएं लिखीं हैं। अच्छी पोस्ट के लिए आप को साधुवाद। वैसे समालोचन में पठनीय सामग्री होती है तो पढ़कर अच्छा लगता है।

    Reply
  4. Sushila Puri says:
    2 years ago

    अपर्णा को पढ़ना सुखद है जबकि वे कई कई दिन गायब रहती हैं, उनको लगातार लिखना ही चाहिए। चित्रों पर आधारित इन कविताओं में एक इतिहास सांस ले रहा है, बधाई अपर्णा!❤️🎼

    Reply
  5. डॉ. सुमीता says:
    2 years ago

    बेहतरीन कविताएँ। बहुत दिनों बाद अपर्णा जी की कविताएँ पढ़ने को मिली हैं। मैंने उनकी कुछ कहानियाँ भी पढ़ी है। अपर्णा जी की सुसम्पन्न सम्वेदना दृष्टि बहुत विस्तृत है, बेधक और करुण भी। गंगा, सरस्वती, लक्ष्मी, दमयंती जैसे पौराणिक चरित्रों से लेकर महादेवी अक्का, अमृता शेरगिल, निर्भया और बिल्किस बानो तक यात्रा करती ये कविताएँ बेकल करती हैं। राजा रवि वर्मा, अवनीन्द्र नाथ जैसे ख्यातिलब्ध चित्रकारों के प्रसिद्ध चित्रों और कविता के बीच का यह संवाद यादगार बना रहेगा।

    Reply
  6. अनु शर्मा says:
    2 years ago

    सभी बड़ी अद्भुत कविताएँ। सुखद है इतने समय बाद अपर्णा दी को पढ़ना। ये सुख बार बार मिले यही कामना। लेखनी विराम की ठिठकन से आगे बढ़े। अपर्णा दी इसी को शिकायत भी समझें।🌷

    Reply
  7. Anonymous says:
    2 years ago

    बहुत बहुत बधाई इतनी चित्रात्मक,सुंदर लेखन के लिए एवं सुखद भविष्य के लिए शुभकामनाएं

    Reply
  8. Anonymous says:
    2 years ago

    उबाऊ और ज्यादा लंबी लगी कविताएं ।

    Reply
  9. लीना says:
    2 years ago

    एक लंबे अरसे बाद अपर्णा को पढ़ना सुख से भर गया। उनकी कविताएँ सदैव बड़े वितान रचती थीं। और इन्हें पढ़कर लग रहा है वह अपनी कविता में पहले से अधिक परिपक्व हुई हैं और खुद की कविता को तोड़ कर उन्होंने पीने कविता के फ्रेम का पुनर्निर्माण किया है । यह कविताएँ साहित्य में पेंटिंग्स की आवाजाही को दर्ज करती हैं और बात को दूर तक ले जाती हैं। अपर्णा को स्नेह और बधाई।

    Reply
  10. ललन चतुर्वेदी says:
    2 years ago

    लगता है कि अपर्णा जी की इन कविताओं में कलम के साथ-साथ कूँची का भी प्रयोग हुआ है। यूं कहें कि वर्तमान संदर्भों से जोड़ते हुए महान चित्रकारों के चित्रों की यहाँ मुकम्मल व्याख्या हुई है। सान्द्र अनुभूति की इन कविताओं के लिए बहुत बधाई।

    Reply
  11. Dr Rachna Raj says:
    2 years ago

    entirely diffrent take, amazing thought. Best wishes…. Rachna Raj

    Reply
  12. विनोद पदरज says:
    2 years ago

    शानदार कविताएं ,कलाओं की आपसी आवाजाही और स्त्री और हमारे समय की विडम्बनाओं का मार्मिक आख्यान, बधाई

    Reply
  13. Surendra prajapti says:
    2 years ago

    अद्भुत कविताएँ। अर्पणा मनोज जी को पहली बार पढ़ा हूँ। आपने सही कहा कि उनको लिखते रहना चाहिए। प्रख्यात चित्रकारों के पेंटिग से संवाद करती कविताएँ। अर्पणा जी को शुभकामनाएँ और समालोचन को बहुत बहुत आभार🌷

    Reply

    Reply
  14. Shobha Goyal says:
    2 years ago

    बहुत सुंदर कविताएं, एक अलग नजरिए से लिखी हुई

    Reply
  15. Baabusha Kohli says:
    2 years ago

    आज के इस अलेक्सा-सीरी-युग में उन लोगों को अँगुलियों पर गिना जा सकता है, जो एकांतिकता के धनी हैं। प्रायः ऐसे लोग स्वयं आगे नहीं आते, उन्हें बहला-फुसला कर सामने लाया जाता है ताकि उनके बटुए से हम भी कुछ गिन्नियाँ अपने खर्चे के लिए निकाल लें।
    अपर्णा मनोज समृद्ध एकांत की स्वामिनी हैं। उनकी पढ़ाई-लिखाई की मेज़ जिस चुप्पे कमरे में है, वह मुख्य सड़क की आपाधापी से दूर है। इसी एकांतिकता में उनकी शक्ति निहित है, जहाँ बैठ कर वे कभी इतिहास को पुनर्जीवित कर लेती हैं तो कभी भविष्य में विचरने निकल पड़ती हैं। उनके एकांत में किताबें-डायरियाँ, संगीत-नृत्य, फूल-गिलहरियाँ व समस्त संसार की चिंताएँ समाहित हैं। उनकी रचनात्मक व्याकुलता जब आकार पाती है, तब उसमें चीख़ का तीखा शोर नहीं सुनाई पड़ता, सवाल पूछती चित्त बेधती आँखें दिखाई पड़ती हैं। अक्सर मैंने यह देखा है कि सहिष्णु मनुष्य कभी-कभी अपने धीरज से ही इर्द-गिर्द के लोगों को भयभीत कर देता है। अपर्णा मनोज की लिखाई में वह ठहराव भरी प्रश्नाकुलता जहाँ-तहाँ नज़र आती है, जिससे या तो लोग मुँह चुरा लेना चाहें या अपना रास्ता ही बदल दें।
    अपर्णा मनोज के यहाँ ख़ुद उनका चाहे एक भी प्रकाशित कविता-संग्रह न मिलता हो, मगर एक समय था जब पन्नों पर चुपचाप ग्राफ़िटी करने वाले नटखट-नन्दनों को वे कभी अँगुली पकड़ कर, कभी कान पकड़ कर, कभी पुचकार कर दृश्य में लाया करती थीं। उनके रोपे बिरवों में एक नाम बाबुषा भी है, जिसे अपने नेह से उन्होंने भरपूर सींचा है।अपर्णा मनोज को जो भी व्यक्तिगत तौर पर जानता है, उसे इस बात से राज़ी होने में बहुत कठिनाई नहीं होगी कि वे एक अनमोल मनुष्य हैं। उन जैसा बड़प्पन, उदारता और आत्मीयता तो ऐसे वरिष्ठों के यहाँ भी नदारद है, जो संग्रहों के ढेर पर बैठे हुए हैं।
    आज एक अरसे बाद अपर्णा दीदी की कविताएँ ‘समालोचन’ में देखीं। इतना अच्छा लगा कि यह सब लिखने बैठ गई। कविताएँ तसल्ली से शाम को पढ़ूँगी, तब,
    जब दिन सुस्त चाल से विदा ले रहा होगा, छज्जे पर रात उतर रही होगी, बैशाख की गुनगुनी हवा के ज़ोर से इस बरस का कैलेंडर फड़फड़ा रहा होगा और पार्श्व में गए ज़माने की कोई धुन बजती होगी।

    Reply
    • R.P.singh Mukerian (Punjab) says:
      2 years ago

      Lagta hai Aprna ji Babusha kohli ki “Judwan baihin” hon, Kohli bhi aisa hi mukhtlif sa hi rachti hain. Aprna ki kavitaeyn itni ucchy paey ki hain to kahaniyan aur dairiyan kya gazab hongien !
      Doosrey Hira Lal Nager ji ki tippni bahut umda lgee. Aprna ji ki koi kitaab shaye hui ho, padhney ka talbgaar hoon

      Reply
  16. राकेश कुमार मिश्र says:
    2 years ago

    पिछले एक दशक में मैंने कवियत्री- लेखिका-अनुवादक अपर्णा जी का काम लगातार देखा और पढ़ा है। Samalochan Literary पर छपी उनकी नई कविताओं को पढ़ना ‘देखना’ सीखना है। कुछ देखते हुए अपने देखने को देखना आसान नहीं होता। ये देखते हुए ही आभास होता है की हमें ‘देखना’ नहीं आता। अपर्णा जी के पास ‘देखने’ का गहन रियाज़ है।
    इन कविताओं को पढ़ते हुए प्रतिष्ठित कला समीक्षक John Berger की चर्चित किताब Ways of Seeing (1972) की खूब याद आई।
    जोधपुर (राजस्थान) में लम्बा समय बीताने के कारण बणी-ठणी पेंटिंग पर बार- बार नज़र गया है। पर इस पेंटिंग को इस तरह से भी ‘पढ़ा’ या ‘देखा’ जा सकता है, यह किसी भी कवि/कवियत्री से गहन ठहराव की मांग करता है।
    पर इन कविताओं में अमृता शेरगिल के Self-Portrait पर लिखी कविता ने सबसे ज़्यादा ध्यान खींचा। इस कविता को पढ़ते हुए महत्वपूर्ण लेखक-चित्रकार अशोक भौमिक और चर्चित कलाकार विवान सुंदरम ( हाल ही में जिनका देहांत हुआ) दोनों एक साथ याद आये।
    इन कविताओं में एक सशक्त स्त्री स्वर को सुना जा सकता है। स्त्रीवाद के शोर में ये कविताएँ नई उम्मीद की तरह हैं। यहाँ सिर्फ “seeing like feminist” पर जोड़ नहीं है, बल्कि इन कविताओं में देखने का सहज उत्साह है।
    गांधीनगर (गुजरात) में रहते हुए अपर्णा जी का लिखा हुआ बहुत कुछ पढ़ने को मिला। प्रकृति उनको अथाह ऊर्जा दे। उनके क़लम को रफ्तार मिले। उम्मीद है जल्द ही उनका कविता और कहानी संग्रह पढ़ने को मिलेगा। इस प्रस्तुति के लिए अरुण सर और अपर्णा जी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ

    Reply
  17. हंसा दीप says:
    2 years ago

    बेहतरीन कविताएँ अपर्णा जी, शब्दों की चित्रकारी के साथ रंगों की चित्रकारी का तालमेल अद्भुत है। निश्चित रूप से आपको नियमित लिखते रहना चाहिए। असीम शुभकामनाएँ, हार्दिक बधाइयाँ। अरुण जी का हार्दिक आभार।

    Reply
    • Saloni says:
      2 years ago

      आदरणीया अपर्णा जी की कवितायें नूतन दृष्टि संचार अनुभव देने वाली हैं।

      Reply
  18. Aparna says:
    2 years ago

    आप सभी का शुक्रिया। कविताओं को आपने जो प्रेम दिया वह मेरी स्मृति में सदा रहेगा। अंजू, लीना,बाबुषा और सुशीला जी आज फिर पुराने दिन याद आये।

    Reply
  19. kalu lal says:
    2 years ago

    आपकी कवितायें पढ़ना सुखद लगता है

    Reply
  20. गोविंद मिश्र says:
    2 years ago

    हर लेखिका अपनी तरह से स्त्री विमर्श में हस्तक्षेप करती है ,वैसे भी देरिदा ने बहुत पहले कहा था कि हर कृति या रचना का हर पाठक का अपना एक अलग पाठ होता है। अपर्णा ने हर पेटिंग्स को अपने नज़रिए से देखा और लिखा है ।हर स्त्री अब अपने लिए खुद सब कुछ तय करना चाहती है अपनी सीमाएं भी और अपना विस्तार भी ।इन सीमाओं में वह कैसे रहेगी या विस्तार में कैसे उड़ेगी , यह भी अब वो ही तय करेगी। बहरहाल अच्छी कविताएं पढ़वाने के लिए समालोचन का शुक्रिया।

    Reply
  21. Rajesh Chadha says:
    2 years ago

    कविताओं में एक गुनगुनाहट है.
    एक नाद है.
    जैसे अपरिसीम काव्य.

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समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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