सौम्य मालवीय की कविताएँ |
(1)
या हुसैन!
हमारे ख़ुतूत गर्म रेत में दबा देना
उन्हें पढ़कर जानिब-ए-कर्बला मत जाना हुसैन
हम कूफ़ा के बाशिन्दे हैं
यज़ीदी लश्कर में न भी हुए
तो उसकी बैत में तो हैं
ना बैत में, तो पस्तहिम्मत लब-बस्ता हैं
हमारा यक़ीन मत करना हुसैन
हम ख़ुद ला-यानी हैं, हमारे कहे का कोई भरोसा नहीं
हमारे ख़ुतूत गर्म रेत में दबा देना
उन्हें पढ़कर जानिब-ए-कर्बला मत जाना हुसैन
हम पानी से नहीं प्यास से महरूम हैं हुसैन
प्यासों की पुकारें दूर से आती सदाओं के सिवा कुछ भी नहीं
हम आहो-ज़ारी भी कर लेंगे, मातम भी मना लेंगे
पर हुसैनी चाल हमारा शेवा नहीं, बे-चेहरगी है, सो निभा रहे हैं
हमारे ख़ुतूत गर्म रेत में दबा देना
उन्हें पढ़कर जानिब-ए-कर्बला मत जाना हुसैन
वो तो कैफ़ियत हुई तो ख़त लिख दिए दर्द भरे
जो कूफ़ियत ज़ोर मारेगी तो साफ़ मुकर जाएँगे
हम नहीं उनमें जो इरादों की ख़ामोश यक-जेहती की शब
चराग़ों के जलने पर वहीं खड़े मिलें जहाँ उनके बुझने के पहले थे
आशना-परवर, माएल-ए-वादा, ईमान-बर-सर
निकल लेंगे दबे-पाँव ओ नबी के नवासे!
हमारे ख़ुतूत गर्म रेत में दबा देना
उन्हें पढ़कर जानिब-ए-कर्बला मत जाना हुसैन
हम अमन पसंद लोग हैं हुसैन
जंग हमारी मजबूरी नहीं एक शगल है
तुम सच मत मान लेना इसे कि हम मैदान-तलब हैं
हम ज़माना शनास लोग हैं
उलटे पाँव लौटना हुनर है हमारा
जितनी ज़ोर से छाती पीटेंगे हाय हुसैन! या हुसैन!
उतना ही साफ़ सुनाई देगा तुम्हें हमारे सीनों का झूठ
जाने क्या सोचकर कह रहे हैं तुमसे
क्योंकि ये हमारे ही तो मंसूबे हैं
पर अपनी नस्ल बचा लो हुसैन
जाने क्या आरज़ू है मुस्तक़बिल से कि
दुनिया हम जैसों की है अच्छा है
पर हम जैसों की ही रही आएगी ये मानने को जी नहीं चाहता.
(2)
दर्शन सोलंकी ने आत्महत्या नहीं की
दर्शन सोलंकी हॉस्टल के सातवें माले से नहीं
संविधान के अनुच्छेद 15, 16, 29, या कह लें 17 से कूदा था
सातवां माला हो या ये अनुच्छेद
पायदान तो थे ही दर्शन सोलंकी के लिए
पर पायदानों को जोड़ कर सीढ़ी बना सकें वे कड़ियाँ नहीं थीं!
जातिगत-भेदभाव यदि कोई चाकू होता
कि भोंका और आदमी ठंडा
तो शायद बता देते उसकी मौत के जाँच-नवीस
इसे जान देने की वजह
पर उन्हें कोई चाकू तो दिखा नहीं
सो ख़ुद को मारने का सबब
और कुछ नहीं पढ़ाई में पिछड़ना भर
माना गया!
पर जो सूरत ये हो
कि पढ़ाई में पिछड़ना,
छोड़ दिया जाना उदास-असमर्थित,
पड़ते जाना अलग-थलग,
अपने अधिकारों को भींचे
उन्हीं पर शर्मिंदा होने की दमघोंटू स्थिति में
महदूद कर दिया जाना ही
जातिगत-भेदभाव हो
तो…
भेदभाव का आध्यात्मिकीकरण
सांस्कृतिक भिन्नता है
दर्शन सोलंकी के साथ भेदभाव नहीं हुआ
उसे तो पारम्परिक पार्थक्य का
आध्यात्मिक सुख दिया गया!
जाति उसके लिए दंश थी
दूसरों के लिए तो संस्कारों की निर्मात्री रही है
और जब उसे मुक्त कर दिया गया
अधिकारों का संजीवन देकर
तो दूसरों से शिकायत कैसी?
वे भेदभाव नहीं, बस गौरव धारण करते थे!
दे वर जस्ट बींग देमसेल्व्स!!
जांच-नवीस जो ये भी लिख देते कि
दर्शन सोलंकी ने आत्महत्या भी नहीं की
तो ये भी ठीक ही होता
वह तो दरअसल पायदानों पे चढ़ता-चढ़ता
उनके बीच की ख़ाली जगह से गिर गया था,
जगह जो समाज को भरनी थी
दर्शन सोलंकी ने आत्महत्या नहीं की
वह अधिकारों के अपने पर काट कर उड़ना चाह रहा था,
उड़ गया, जो उसे दिया गया था उसे लौटाकर
उनकी अनिच्छा उन्हें भेंटता हुआ
जो उसे अपने बीच पाकर असहज हो उठे थे!
ऐसा करते हुए दर्शन सोलंकी
अपनी देह से मुक्त नहीं हुआ
उसे अपने साथ लेकर गया
मानो कह रहा हो उसकी देह उसकी देह है
छुआछूत का डेरा नहीं
जिसे कानूनी बाध्यताएं लगाकर ही
सुरक्षित किया जा सके!
दर्शन सोलंकी जब अपनी देह के साथ उड़ रहा था
एक बहुत अभागी किताब के पन्ने
हवा में यूँ फड़फड़ा रहे थे
जैसे फट ही जाएंगे!
झीनी और कटी-फटी हवा में
वो नैतिक शक्ति नहीं बची थी
जो उसकी गिरती हुई देह संभाल सके!
देह गिर रही थी
मेरिट और रैंक के जंगल के ऊपर
बुझती हुई एक अदद चिंगारी की तरह!
(3)
दादा
(दादी, जिन्हें मैं दादा कहता था…)
दादा की याद
दादा की तरह आती है
चुपचाप बैठी देखा करती है
जैसे दादा देखती थीं
जब मैं उनके पास बैठा
पढ़ता रहता था
सुपारी कटे होठों के बीच
हल्की सी मुस्कान उभर आती है
जब मैं देखता हूँ उसकी तरफ
थोड़ा सा बतियाती है फिर
अपनी यादों में डूबती हुई
कोई ज़िक्र ढूंढ लाती है
फिर लेट कर छत ताकने लगती है
होठों पे उंगली फिराती हुई
किसी बिसरे गीत को गाती
खुद को बिसराती हुई
बीच-बीच में खाँसी का बादल
किसी ख़्याल की तरह
बदन से बाहर आ जाता है
कुछ क्षणों के
व्यवधान के बाद
ज़रा ठहर कर
साँसों की चाक पर फिर से
ख़ालीपन के दिये गढ़ने लगती है
दादा की याद
दादा की तरह हल्के-हल्के
परदे हिलाती हुई
घर के जंगल में
किसी पहाड़ की छाया सी
बड़ी होती रहती है
देखने में बड़ी पर इतनी हल्की
कि झील की सतह पर तैर जाए
झील हो जाए…
इतना समूचापन तो
रिक्तता में होता है…
समय से निचोड़ा हुआ सूनापन
देहरियों पर हाँफते
ज़िंदगी के वर्ष
ड्राइंग रूम में झरता
बचपन का पराग
बूढ़ी वेश्या की
हथेलियों जैसी दोपहर
उफ़्फ़! दुख की सादगी
हाय! सुख की लाचारगी
दादा की याद कभी जाती नहीं
बस उस पर कभी-कभी
रात सी ढल जाती है
थरथराते समंदर
की तहज़ीब पर
काले मोम सी जम जाती है
जैसे कुछ शामों को
दादा जम जाया करती थीं
बाबा को किसी अदृश्य
राह से आता देखते हुए
चाचा के नाम की बारीक सी फाँक होठों के खोखल में रखे हुए…
दादा वह शिल्प थीं
जिसने अपना पत्थर
छोड़ दिया था
कभी-कभी वही पत्थर
दोपहर के पानी में
कछुए की पीठ सा
उभर आता है.
(4)
पहाड़ का दुःख
फिर ढह गया
एक पहाड़
नहीं उठा सका अपना बोझ
अपनी लुजलुजी हो चुकी देह को
घाटी में फिसलते
चले गए अनाथ पत्थर
पेड़ों की आँतें ज़मीन से निकल आईं
हवा में झूल गईं
कतार लम्बी होती गई गाड़ियों की
व्यग्र यात्री
उतर कर संकरी सड़क पर
फेंकने लग गए दृष्टियों की स्पर्श रेखाएँ
कब उठेगा मलबा?
कितना समय लेगा बुल्डोज़र?
मलबा जो कुछ ही क्षणों पहले पहाड़ था…
यह पहाड़ का दुःख है
देखो इसे
अवश आसमानी आँखों से
सूँघो वनस्पतियों की गंध में
स्याह पड़ चुकी मिटटी की
मृतप्राय महक में
हो सके तो फिर मत कहना कभी
दुःखों का पहाड़
पहाड़ से बेहतर कोई नहीं जानता कि
जब दुःख टूटते हैं तो
उनसे मलबा बनता है पहाड़ नहीं.
(5)
रफ़ी साहब
बहुत शोर है रफ़ी साहब
शहर में इमारतों का
बड़े सन्नाटे हैं दिलों में रफ़ी साहब
क़स्बे की रूह ऊब के कीचड़ में धँसी है
गाँव का जिस्म तार-तार है वीरानी से
शक़ज़दा हैं लोग परेशानकुन हैं
हाथ तहख़ानों में बंद
पैर सहरा की ख़ाक छान रहे हैं
साँसें बबूल के झाड़ में फँसी हैं
निगाहों में ख़ौफ़ के जाले हैं
बड़ी चुप्पी है रफ़ी साहब
बड़ी दूरियाँ हैं
कोई आवाज़ नहीं जो पुकार ले
कोई साज़ जो उबार ले
कोई नदी नहीं जिसके किनारे रोएँ
किसी टीले पे बैठ उदासियाँ बोएँ
लोग लौटने पर आमादा हैं
ग़म को कमज़ोरी का नाम देते हैं
साथ को मजबूरी का नाम देते हैं
मंदिरों में अजब बेरुख़ी है
मस्जिदों में ग़ज़ब बेबसी है
दफ़्तरों में कारकुन हैं कामगार नहीं
फ़क़त ज़िन्दा हैं हस्ती के तलबगार नहीं
बहुत बोझ है मन पर मश्विरों का
बहुत बोझ है ख़्वाबों पे तज़्किरों का
बस इक अय्याम है जो चल रहा है
लोग कहते हैं कि ज़माना बदल रहा है
हाकिम के चेहरे पर वही क्रूर हँसी है
वह चुनी हुई दुनिया भी बहुत दूर बसी है
बड़ी नारसाई है रफ़ी साहब
ऐसे में कितनी ग़नीमत है कि आप हैं
दुःखों पर अब भी बरस रहा है
आवाज़ का महीन रेशम
सुबहें फूट रही हैं सुरों में संजोई हुई
कभी किसी बिछड़े हुए भजन का साथ है
दिल पर कभी किसी भूली ग़ज़ल का हाथ है
एक सदा है जो दश्त में मरहम लिए घूम रही है
एक बारिश है जो तारीकियों में झूम रही है
आप हैं रफ़ी साहब तो हम हारे हुए लोग
अब भी बराए-फ़रोग़ हैं
आप हैं रफ़ी साहब तो ये बिखरा हुआ मुल्क़
अभी भी हिन्दोस्तान है.
6.
महामारी की अंतर्राष्ट्रीयता
महामारी की अंतर्राष्ट्रीयता में
इस विवेक का प्रचार हुआ कि
सतर्कता दैनंदिन का सबसे ज़रूरी पक्ष है
संदेह सबसे सहज प्रवृत्ति
सुरक्षा सबसे महत्वपूर्ण नीति
और जान बचाना ही सबसे बड़ा मूल्य है
आशंकायें संभावनाओं पर भारी हैं
सभी मनुष्य एक दूसरे के लिए खतरा हैं
और सारे मुल्क़ अपनी मौतों में एक हैं
इस बीच मानवता के न्यायालय में सदियों से
आत्मसम्मान की लड़ाई लड़ रही ज़िन्दगी को
यह फ़ैसला सुनाया गया कि
न्यायाधीश उसे पहला और आख़िरी मूल्य मानने को तैयार हैं बशर्ते,
अबसे ज़िन्दगी को जान की न्यूनता तक सीमित माना जाए
महामारी के बाद के उत्तर-जीवन में
ज़िन्दगी को एक आई-कार्ड दे दिया गया
ताकि उसमें और मौत में भेद किया जा सके
और मनुष्यता की अंततः यह परिभाषा तय हुई,
जो ज़िंदा हैं वे मनुष्य हैं,
जो ज़िंदा रहने के लिए जीते हैं वे मनुष्य हैं,
महज़ ज़िंदा रहने का आदर्श ही मनुष्यता है
और,
‘जान है तो जहान है’
इस उत्तर-जगत का पहला
और आख़िरी सूत्र वाक्य है!
(7)
अब पानी बरसेगा तो
(कोविड-१९ की दूसरी लहर के उपरांत…)
अब पानी बरसेगा तो
सड़कों पर मटियाली नालियों में दुःख भी बहेंगे
घर ही नहीं
भीगेंगे भीतर के सन्नाटे भी
बूँदें ज़मीन पर ही नहीं इस्तेमाल की हुई चीज़ों पर भी पड़ेंगी
धीमे-धीमे धरती की महक ढँक लेगी फॉर्मल्डिहाइड की तीखी गंध
घनघोर ऐसा होगा की मुर्दागाड़ियाँ भी भीगती होंगी चुपचाप अस्पतालों के अहातों में
टप-टप टपकेंगी पीड़ाएँ छतों की दरारों से
जलध्वनियों के बीच ध्वनित होंगी कही-अनकही बातें
किसी कसक का सिरा मिलेगा-छूटेगा
दूर से देखी हुई लपटें रह-रहकर कौंधेंगी पानी के परदे पर
सहेज दी गई दवाइयों से निकलेंगे नयनाभिराम बरसाती कीड़े
सूने बिस्तरों पर उग आएगी असभ्य घास-अनाम फूल
टहकेगी-ख़ामोशी-सीलेगी
जब पानी बरसेगा तुम तैयार रहना दुःख के स्वीकार के लिए
अवसाद को निभाना पूरी शिद्दत के साथ-पीड़ा से परहेज़ मत करना
कच्चे आँगन में हरियाने देना विक्षोभ को
गुस्से के चमकीले-सतरंगी साँपों को निकलने देना-कुचलना मत
इस बारिश अपने दुःखों के लायक़ बनना
सहेज लेना उन्हें, अब यह उम्र भर की लड़ाई है.
(8)
पूर्व-निर्धारित संयोग!
एक दिन अचानक गुज़र गए ककत्तु नेता
जबकि उसके ठीक एक दिन पहले आए थे घर
दधिकांदो का चंदा माँगने
काम से घर लौटते वक़्त रूककर
थर्डमैन पर फ़ील्डिंग करने वाले इदरीस मिस्त्री
जिस नियम के साथ रोज़ाना मैदान पर आते थे
एक दिन वैसे ही किसी नियम के तहत ग़ायब हो गए
फिर कभी दिखे नहीं
सुनने में आया था कि
पंचर बनाते-बनाते नन्हें साइकिल मैकेनिक
के मुँह में निकल आया पंचर
किसी रोज़ उधर से गुज़रते निगाह गई
ना वहाँ नन्हें थे, ना तसले के गंदले पानी में झाँकता आकाश
ना नीम के तने की गोल-गाँठ से झूलते टायर-ट्यूब
ना चारपाई पर सूख रहा उनका लड़का
साथ में पढ़ता था अशोक कुमार
सब चाहते थे अशोक की टीम में होना
टीम रही, पर अशोक कब किस दिशा में बिला गया पता ना चला
यूँ ही राज धोबी, कपड़ों की तहें बनाती आई थी अनंत काल से
ख़ुद किन सलवटों में खोई एक दिन के फिर मिली ही नहीं
सड़क से एक-एक कर खोते गए वे लोग
जैसे थे ही नहीं कभी
यक़ीनन, वो मेरी ज़िन्दगी की सड़क थी
अब एक नया समुच्चय है
मेरे जीवन में अनायास उपस्थिति वाला
उतना ही अनायास जितना उन मित्रों-सहकर्मियों का साथ
जो बेख़्याली में पूछ बैठते हैं
गोत्र, प्रवर, शाखा, वेद, उपवेद, देवता इत्यादि
कभी-कभी बाद में
‘केवल जानकारी के लिए’ का नुक़्ता लगाते हुए
जिस सड़क से खो गए वो लोग
वो उनकी थी ही नहीं कभी
जिसपर चल रहा हूँ मैं
वो भी मुझ अकेले की नहीं है
ना ये जीवन का संयोग है
ना वे जीवन के संयोग थे
जिस क्रमिकता के साथ बढ़ रहे थे
मैं अपनी अध्यापकी की तरफ
और नन्हें अपने कैंसर की तरफ
वह सब कुछ
तक़रीबन पहले से ही तय था.
(9)
दोहराव
मैं दोहराना चाहता हूँ चीज़ों को
देखना चाहता हूँ देखी हुई फ़िल्में
पढ़ना चाहता हूँ पढ़ी हुई किताबें
जाना चाहता हूँ वहाँ जहाँ जा चुका हूँ
मैं तंग आ गया हूँ मौलिकता के आग्रह से
कोफ़्त हो गई है मुझे
नयेपन और ताज़गी की बातों से
एक भीनी सी ख़ुशी होती है मुझे
जब कागज़ पर बार-बार गोंचते हुए
कोई स्केच बन जाता है
एक पारदर्शी सा विस्मय होता है
जब उसी गाने को गाते हुए,
मेरे गले से किशोर कुमार गाने लगता है
और जब किसी विचार के पीछे
महीनों दौड़ने के बाद
वह आत्मा से टपका हुआ
जान पड़ने लगता है
तब एक सूना सा रोमांच
रुला देता है मुझे
जो नया है वह अव्यक्त के
दोहराव में ही अनुस्यूत है
एक उनींदा सा सलोनापन
जो देर तक चलने के बाद
बैठने पर अनुभव होता है
एक चितकबरा सा अचरज
जो हर बार रोटी के फूलने पर
सामने आ जाता है.
(10)
प्रतिदिन
सुबह-सुबह द्वार पर खड़ा है
दूत प्रतिदिन का
प्रतिदिन की दुश्चिंताएं लिए
गल गई है पकड़ दिन पर
वह जो कल रात गहराते वक़्त
किसी चमत्कार सी महसूस हुई थी
दोपहर की चिकनी बर्फ़ पर फिसलते हुए
शाम कहीं जाकर ज़मीन पर रुके थे कदम
पश्चिम में डूबता जगत
जिस्म के पूरब में मिल गया था
मन में भरोसे का भीना फूल भिन गया था!
दिन एक उपलब्धि है
मृत्यु की मरती-जीती-महीन अनुगूँजों में बिलोई हुई
लू के थपेड़ों में किसी बूँद सी सोई हुई
विराट चिंताओं के पोत भी कभी
समाधानों के बंदरगाह लग जाते हैं
पर छोटे-छोटे संदेहों की नौकाएं
खाती रहती हैं थपेड़े
सलवटों से खाली समुद्र में
उन्हें खींच कर लाना होता है उन पानियों तक
जहाँ संशय और विश्वास
आपस में मिलते तो हों
पर एक दूसरे का अतिक्रमण ना करें
समस्यायें जहाँ चुभे नहीं, निभें
जोड़ते-जोड़ते जुड़ें सिरे
किसी अंतिम रूप में नहीं
बस हाथ आ जायें
ऊब के गाढ़े कीचड़ में जैसे
दिख जाए उजले पानी की धार
जहाँ, जब ऐसा होने की संभावना हो,
तो हम वहाँ हों
झाड़ू देते, बर्तन मलते, चाय पीते,
या खेलते बच्चों के साथ
चुन ना लें
यथार्थ की दुरूहता देखकर
बेरुख़ी की बंद खिड़कियाँ
कर ना लें खुद को
ईर्ष्याओं और विश्व-विनाशकारी उलझनों के हवाले
हों उपहार पाने की स्थिति में
चाहे वे फिर महज़ शब्द या पीड़ाएँ ही क्यों ना हों
हमपर अर्थ मिलें,
बिखरे नहीं टकराकर
किसी के इन्तज़ारी के टिकट
हमपर आकर कन्फर्म हों!
क्या हम प्रतिदिन की
नित्यता में इतने खोये हैं कि
इस नित्यता में निहित
अभूतपूर्वता से
निबटने को तैयार नहीं?
चुपचाप
बहती नदी का मौन हाहाकार
कटाव की कराह
अन्तर्धाराओं की अंतर्कथायें
सतह का गर्भत्व
गहराई का उथलापन
और साथ रह रहे साथी का दुःख
सब तो दृष्टि के सामने ही
व्यतीत होता है
अतीतता है धीमे-धीमे यूँ ही
और दिन पर दिन
घुल जाते हैं
समय की अंतहीन बरसात में
हर दिन एक उत्तरकथा है
सुनी हुई कथा का नया प्रदर्शन
एक पुनर्पाठ
एक उपलब्धि, एक निराशा
जूझना और पलायन
पक्षधरता और उदासीनता
नीति और राजनीति
व्यष्टि और समष्टि
वैर और प्यार
उपेक्षा और परवाह
क्या हैं ये सब प्रतिदिन की
निरंतरता से विलग
बस कुछ बेजान शब्द?
दिवस की दिव्यता में
आँखें खुली रखे बग़ैर
क्या मूल्य है भला
हमारी गवाही का भी?
सौम्य मालवीय पता – C-9/F-2, साउथ कैंपस, आईआईटी मंडी |
बढ़िया कविताएँ। भावनाओं की शिद्दत और कहन की ताज़गी ने दिल को छुआ। जज़्बात न हों तो कविता व्याकरण की पोथी हो जाती है।
ख़ासी उर्दू का इस्तेमाल है।
मैं तो उर्दू लफ़्ज़ों के प्रयोग का सदैव हिमायती रहा हूँ क्योंकि ये हिंदुस्तानी ज़बान है और इसका अगर ख़ूबसूरती से इस्तेमाल हो तो एक नफ़ासत और मिठास मिल जाती है रचनाओं को। धार भी।
अफ़सोस मात्र इतना है कि जो साहित्यिक पत्रिकाएँ हैं वो उर्दू के प्रयोग को लेकर कहने लगती हैं कि ये शेरो शायरी है।
मुझे रचनाएँ बेहद पसंद आईं और अपनापन महसूस हुआ।
बहुत बधाई कवि और अरुण सर को🙏🙏
बहुत अच्छी कविताएं। सही मायने में विकलता/उद्विग्नता से सुलगती हुईं। धुंधुआती हुई।
अभी दो तीन ही पढ़ी हैं।
बहुत दिनों बाद ऐसी कविताएं पढ़ीं लगा अपने समय को अपने आप को पढ़ सुन समझ रहा हूँ। कई घाव हरे और कई पर मलहम लगा।खुद तो मलहम लगाता नहीं किसी को इसका हक देता है। ये कविताएं वही हक हैं जो आग और ठंडक दोनों एक साथ मल रही हैं दिल के टूटे रेशों पर
समकालीन यथार्थ की अभिव्यक्ति आज की कविताओ में जिस तरह से हो रही है,वह यथार्थ इतना जटिल,बहुआयामी और विरोधाभासी है कि उसे पहचानना तो कठिन है ही,उल्टे सरलीकरण का भी खतरा है। जैसे बहुत सारे निष्कर्षों को एक नैरेटिव की तरह गढ़ा जाय या एक मिथ की तरह। इन
कविताओ से उम्मीद बँधती है कि नयी पीढ़ी भी कविता में
आलोचनात्मक विवेक से जीवन को देख-परख रही है।कवि और समालोचन को साधुवाद
मैंने सौम्य मालवीय की बहुत अच्छी कविताएं उनके पुरस्कृत संग्रह ‘ घर एक नामुमकिन जगह है ‘ में पढ़ी हैं पर इन ताज़ा कविताओं ने मुझे प्रभावित नहीं किया. यूं तो कविता से प्रभावित होना वाक्य ही अपनी व्यंजना में करेक्ट नहीं है ; तथापि जिसे कहते हैं न — मज़ा आ गया, वह बात नहीं हुई. अज्ञेय जी के एक निबंध ‘ सर्जनात्मक अनवधान ‘ में जो “रसो वै स:” की बात है, वह बात बन नहीं पाई.
देवी प्रसाद मिश्र की एक कविता है भाषा. उसकी शुरुआती पंक्तियों को यहां उद्धृत कर रहा हूं, कृपया अन्यथा न लिया जाय :
यह भाषा को न बरत पाने की निराशा है
या मनुष्य को न बदल पाने की असंभाव्यता .…
कविताएं,जीवन के गहरे अंतःसलिल दुख और कल्पनाशीलता की जिजीविषा से अनुप्राणित है। बिंब गहरी टीस जगाते है। दर्शन सोलंकी की कविता पढ़कर स्तब्ध और निशब्द हूं।बहरहाल,कविता समाज में प्रचलित ‘आत्म हत्या ‘शब्द की तुच्छता को प्रमाणित करती ही है पर उस पर नए सिरे से सोचने पर मजबूर भी करती है। बल्कि कर्ता के आत्म गौरव को को स्थापित करते हुए संस्थाबद्ध कर्मकांडो की व्यर्थतता को भी जाहिर करती है।
ये कविताएँ यदि एक प्रयोग हैं, अंदरूँ की एक लहर में बहते हुए हासिल हुईं हैं, तो प्रत्यावर्तन करना होगा कवि को. अर्थ-भार फिसल कर रास्ते में बह गया है. विकल्पहीनता में भी (ही?) काव्यगत नवोन्मेष मुमकिन है. “कब ये तुझ नातवाँ से उठता है?”
या हुसैन कविता अपने कथ्य और कहिन में लाजवाब है।महामारी की अंतरराष्ट्रीय भी प्रभावी रचना है बाकी कविताएं भी बहुत अच्छी हैं,नयापन है।