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Home » बच्चा लाल ‘उन्मेष’ की कविताओं का सामर्थ्य: अंजली देशपांडे

बच्चा लाल ‘उन्मेष’ की कविताओं का सामर्थ्य: अंजली देशपांडे

‘कौन जात हो भाई’ कविता से चर्चित बच्चा लाल ‘उन्मेष’ के तीन कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. कुछ दिन पहले उनकी दस कविताएँ समालोचन पर प्रकाशित हुईं थीं. इन कविताओं ने गहरे प्रभावित किया. वरिष्ठ लेखिका अंजली देशपांडे की यह आलेख इसका प्रमाण है. ऐसा कम ही होता है कि किसी नए रचनाकार पर कोई वरिष्ठ लेखक तुरंत ही कोई लेख लिख दे. हिंदी साहित्य की दुनिया ऐसी ही है. अंजली देशपांडे ने सवाल भी उठाया है कि 'उन्मेष को दलित कवि कहकर समालोचन उन्हें क्यों मुख्यधारा से अलग कर रहा है?' जैसे मार्क्सवादी कवि, कलावादी कवि या स्त्रीवादी कवि आदि कहने से मुख्यधारा पर उनकी दावेदारी कम नहीं होती, ऐसे ही बच्चा लाल उन्मेष ‘दलित’ कवि कहलाते हुए भी मुख्यधारा में है. इसे ऐसे भी समझा जाए. आलेख प्रस्तुत है.

by arun dev
August 26, 2023
in आलेख
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बच्चा लाल ‘उन्मेष’ की कविताओं का सामर्थ्य: अंजली देशपांडे
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बच्चा लाल ‘उन्मेष’ की कविताओं का सामर्थ्य
अंजली देशपांडे

मुझे यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं कि कविताओं का मुझे शऊर नहीं है. मेरी समझ में कविता की परख यही हुआ करती थी कि जो दिल को छू ले वह अच्छी और बाकी बस यूं ही.

इधर कुछ सालों में बहुत सी पढ़ीं भी, कुछ अच्छी भी लगीं, लेकिन इनमें कोई नई बात हाथ नहीं आई, बाकी तो मैं भूल ही गई. लगने लगा कि आजकल सिर्फ वर्णन ही कविता कहलाती है, शायद इसकी परिभाषा ही बदल गई हो.

अभी ‘समालोचन’ का नया अंक पढ़ना शुरू किया तो बच्चा लाल उन्मेष की कुछ कविताएं आँखों के सामने आ गईं. क्या गजब हुआ कहीं तारा टूटा हालांकि यह तारा न ही टूटे तो बेहतर.

उन्मेष की इन दस कविताओं ने मेरा यह भ्रम तोड़ दिया कि नया कुछ कहा नहीं जा रहा, मुझे समृद्ध किया. कम शब्दों में ऐसा तीखा प्रहार कि निशाना न चूके, किसीको नहीं बख्शने का साहस और असली जनवादी चेतना इन कविताओं को एकदम अलग श्रेणी में रखती हैं. मुझ जैसी कविता की समझ में दुर्बल व्यक्ति की कविता के विश्लेषण की यह अनधिकार चेष्टा है पर उन्मेष खुद ही आमंत्रण दे रहे हैं कि कुछ नया करके देखो तो सही!

उन्मेष ऐसे कवि हैं जो सिर्फ एक विमर्श की कैद में नहीं हैं, किसी विमर्श से इनको परहेज़ भी नहीं, सबका स्थान नियत करते हुए वे पूरी व्यवस्था पर सवालिया निशान लगा रहे हैं, मुक्ति का मार्ग तक प्रशस्त करने की दिशा में कदम उठाए हुए हैं.
‘समर्थ’ कविता में उन्मेष घोषणा कर देते हैं,

मैं जाति नहीं, मैं धर्म नहीं
एक सोच का हाता नहीं हूँ मैं.

एक पंक्ति में वह जातीय और धार्मिक अस्मिताओं की राजनीति की गिरफ्त से ऊपर उठ जाते हैं. आज जब मणिपुर से मेवात तक अस्मिता की इसी राजनीति का बवंडर देखने में आ रहा है, उन्मेष की यह घोषणा समस्या की जड़ पकड़ लेती है. अगली पंक्ति में वह हाते से भी बाहर हो रहे हैं. जाति और धर्म तक की घोषणा तो ठीक, यह एक सोच का हाता नहीं होने की घोषणा क्यों? क्योंकि अब तरह तरह के विमर्शों में सामंजस्य बिठाने का, उनके संश्लेषण का दौर शुरू हो गया है. वह इस अहाते से निकाल आए हैं, पूरा का पूरा विश्व अब उनका आँगन है. वे इसमें खुल खेलेंगे. विमर्शों में बंटे समाज को एक दूसरे के विमर्श को समझते हुए, उसके तर्कों को अपनाते हुए, उनमें शोषण उत्पीड़न के कंकड़ को चुन कर फेंकने और अक्षत अनाज, किसी भगवान के लिये नहीं, किसी कर्मकांडी ब्राह्मण के लिये नहीं, खुद ‘अपने’ लिये छाँटने का वक्त है यह.

परस्पर समानुभूति से समाज में आमूलचूल परिवर्तन की कोशिश का वक्त है यह. पिछली पीढ़ी के विमर्शों के आलोचनात्मक विश्लेषण के बाद उनमें मेल के बिन्दु खोजने और एकीकरण का प्रयास इन कविताओं का केन्द्र बिन्दु है.

क्या यह विभिन्न विमर्श एक दूसरे के पूरक हो सकते हैं? उन्मेष तो विमर्शों में डुबकी लगा कर यही रत्न खोज लाए हैं, कि हाँ सभी उत्पीड़ित जब तक एक दूसरे को न समझें अपने कटे पंख जोड़ नहीं पाएंगे.

उन्मेष का नाम भले ‘बच्चा’ हो लेकिन यह तो बड़ों बड़ों के कान काट ले जाएँ जैसा कि वे कविता में कहते भी हैं कि सच बोल दिया तो तुम्हारे कान फट जाएंगे!

यह दस कविताएं रोशनी का एक पुंज हैं, जो अवसाद के बादल छाँटती हैं. इन्हें एक साथ पढ़ना इसलिए भी ज़रूरी है कि एक के बाद एक यह कविताएं बहुत कुछ स्पष्ट करती हैं, मानो हर कविता अगला पड़ाव हो. उन्मेष किसी भी कविता को बहुत लंबा नहीं खींचते, उबाऊ भाषण में नहीं बदलते, अनावश्यक विवरण नहीं देते. हर कविता व्यवस्था के एक पहलू पर केंद्रित रहती है, लेकिन वृहत परिवेश भी नेपथ्य में रहता है. छोटी कविता, छोटे बंदों/छंदों में कहते हैं बच्चाजी.

वह पूंजीवाद के आश्रय में पल रहे पितृसत्ता, ब्राह्मणवाद और मेहनतकशों के शोषण की सीधी साफ पहचान करते हैं. उनकी कविताओं में नारायण दरिद्र के साथ नहीं उनके उत्पीड़कों के खेमे में खड़े हैं. आज के इस संकटकाल में कवि के साहस के बराबर खड़ी है तो उनकी परिवर्तनकारी सोच. यही सोच शायद उनके साहस का स्रोत भी है. सारे विमर्शों को बटोरते हुए कीचड़ में धँसे लोगों पर भी वे अपनी बहुत पनप चुकी चेतना की फटकार भी बरसाते हैं. इसमें वे किसी भी दुश्मन की पहचान से नहीं चूकते, न हिचकिचाते हैं.

सत्ता के लोभ में जो दलित, आतताइयों के हाथ बिक गए वह भी उतना ही उनके निशाने पर हैं जितना कि ‘कोख से शमशान’ तक सबसे पैसा वसूलने वाले ब्राह्मण और फासीवाद का मूलाधार बनी जनता जिनकी आज़ादी की उड़ान की इच्छा ही मर चुकी है, जिन्होंने बहेलियों को अपने पंख बेच दिए हैं, आडंबरों के पिंजरे में कैद हैं. इसके बावजूद कोई भी कविता किसी भी व्यक्ति या उसकी जाति या धर्म के खिलाफ नहीं जाती, वह एक शोषक व्यवस्था को ही कठघरे में रखती है और उसके पोषकों पर ही चोट करती है.

इन दुश्मनों की कतारों की उन्मेष की पहचान में जितना रोष है उतना ही कवि हृदय की नरमी से उपजा अफसोस भी है, जितना दासता का एहसास है उतना ही इससे मुक्ति का मार्ग खोजने की जद्दोजहद भी है. किसी निबंध में यह सब कहना आसान है लेकिन इसे सरल शब्दों की लड़ियों में पिरो कर कविता का रूप देना दू:साध्य काम है. बहुत संभल कर उन्मेष प्रतीकों का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन उनके सीधे बयान भी काव्यमय हैं. कहीं भी कविता के प्राण नहीं छूटते. न जबरन तुकबंदी, न अत्यधिक लंबी बात, न कहीं कोई क्लिष्ट शब्द. उनको पता है क्या कहना है, कहाँ तक कहना है और कहाँ विचार का सुर्रा छोड़ देना है.

इन कविताओं को पढ़ने से लगता है जैसे उन्मेष की प्रबुद्धता कभी संवेदना का हाथ नहीं छोड़ती. संवेदना उन्हें आशा को ज़िंदा रखने का बल देती है तो प्रबुद्धता उन्हें किसीको भी बरजने से रोक नहीं पाती.

 

दो)

कविता को बहुत खोलने से उसका मर्म भी जाता रहता है और उसका स्वाद भी. उन्मेष मुझे माफ करेंगे कि कुछ उद्धरणों से मैं अपने इस विश्लेषण कहिए, समझ कहिए, जो भी कहिए, को पुष्ट करना चाहती हूँ.

पहली ही कविता, ‘अपच सलाह’, में उन्मेष अपनी बहुचर्चित पहली कविता, ‘कौन जाति हो भाई’ के विमर्श से आगे निकल जाते हैं. मैं नहीं जानती कि वे जन्मना दलित हैं या नहीं लेकिन मलखान सिंह जैसे सुप्रसिद्ध दलित कवियों की परंपरा से संबंध बनाए रखते हुए वे अगली पीढ़ी की बदलती अनुभूतियों और चुनौतियों से रूबरू हो रहे हैं.

दलित विमर्श से नाता वे नहीं तोड़ते लेकिन यह कविता दलितों में आंतरिक अवसरवादियों को बेहिचक पहचान कर अस्मिता मोह से ऊपर उठ जाती है, उनके क्रांतिकारी तेवर को साफ करती है. शीर्षक बता ही देता है कि यह बात लोगों को हज़म नहीं होने वाली पर कटु सत्य कहने में उन्मेष को कोई संकोच नहीं है. इसकी पहली दो पंक्तियाँ हैं

कुछ इस तरह से वो जीतनी बाजी चाहते हैं
‘पर’ बेचकर, बहेलियों से आज़ादी चाहते हैं.

आज़ादी के प्रतीक ‘परों’ का उपयोग ही यहाँ बहुत कुछ बयान कर देता है लेकिन बात इतनी साधारण नहीं कह रहे हैं उन्मेष. कोई परिंदा किसी और के पंखों के सहारे उड़ान नहीं भरता, अकेले ही आकाश में तैरता है भले वह अपने समूह में ही हो. यहीं वे अपने कथित ‘समुदाय’ से अलग लीक पर चल कर अपनी विशिष्ट पहचान उजागर करने की आवश्यकता पर बल देते हुए बता भी देते हैं कि आज़ाद सोच ही आज़ादी हासिल करने का औज़ार है. अपनी अलग, विशेष सोच को ही जिन्होंने काट फेंका ऐसे ‘बे-पर’ लोग कैसे आज़ाद होंगे भला? बहेलियों के हाथ ‘पर’ बेच देना विचारों की उड़ान का सामर्थ्य बेच देना है. यह विचार-शक्ति को सिर्फ गिरवी रखना नहीं, उससे भी गंभीर गुलामी है.

उन्मेष ने बहेलिया नहीं, यहाँ ‘बहेलियों’ शब्द का उपयोग किया है और यह अनेक बहेलिये दमन चक्र की अनेक छड़ें हैं, पितृसत्ता, ब्रह्मणवाद, पूंजीवाद के पूरे मंत्रिमण्डल को ही उन्होंने लपेटे में ले लिया है. कविता आगे इसी विचार को साफ करती है. कोई शक ना रहे कि बात किसकी हो रही है.

अवसरवादी हैं सारे, फ़कत कहने को हमारे
जिनसे लोहा लेना था, उन्हीं से चांदी चाहते हैं.

इस पक्षधरता के लिये सिर्फ जन्म से दलित होना काफी नहीं है, इसके लिये चेतना के विकास और उसके लिये बहुत कुछ दांव पर लगाने का साहस चाहिए. दलितों में इस आंतरिक तनाव की ऐसी सुंदर अभिव्यक्ति क्या जानबूझ कर प्रचलित मुहावरे में की गई है कि हर किसीको समझ में आ जाये? यहाँ बुद्धि का प्रदर्शन नहीं, खरी-खरी बात खोटे लोगों पर कह दी है कवि ने. समझ लें सब कि जिनपर तलवार उठाना चाहिए था उनके हाथ सिक्कों के मोल बिक जाने वाले ‘अपने’ भी अवसरवादी हैं, सत्ता की इस राजनीति में अपने समुदाय को, ‘आबादी’ को सिर्फ ‘वोट’ बनते देखना चाहते हैं जैसा कि वे इसी कविता में कहते भी हैं.

कविता की हर पंक्ति मानीखेज है और पूरी कविता मेहनतकशों उत्पीड़ितों के ‘अपने’ होने का दावा कर रहे लोगों के खोखलेपन पर निरंतर चोट करती जाती है.

यह अस्मिता की राजनीति से आगे की कविता है. दलित साहित्य अब तक अमूमन जाति उत्पीड़न पर ही केंद्रित रहा है. मगर इधर दलित को जन्म से ही दलित मानने के बजाय चेतना को वरीयता देने की दिशा में पहलकदमी हो रही है और उन्मेष इसमें अग्रणी पांत में हैं. वे अपनी कविताओं में खुद अस्मिता की राजनीति को ठुकरा कर अस्मिता विमर्श को वर्ग चेतना का अभिन्न अंग बना रहे हैं.

सिर्फ ऐसा कवि ही इतने गहन विचार को स्वर दे सकता है जो अस्मिता विमर्श की हवाओं में सांस लेता पला हो और अपनी अलग पहचान रखता हो. उन्मेष की उम्र तीस के आसपास है और पटना विश्वविद्यालय में तरह तरह की राजनीतिक विचारधाराओं के बीच विवादों के अखाड़े में उन्होंने वैचारिक कुश्ती के दांवपेंच सीखे होंगे. उनका शिक्षाकाल मण्डल-कमंडल के दो ध्रूवों के बीच छटपटाती वर्ग आधारित राजनीति के छोटे छोटे समूहों की विचारधाराओं के विवादों में बीता होगा. सहज रूप से यह उनकी कविताओं में उतरा है. ग्रासरूट फासीवाद की राजनीति की उनकी समझ और इसे सहजता से कविता में उतार पाने की उनकी प्रतिभा स्तब्ध कर जाती है.
एक मिसाल देखिए, कविता का शीर्षक है, ‘अफसोस’

बेकारी में मरे लोग
फुटपाथ पर पड़े लोग
कमल की बात करते हैं
कीचड़ में खड़े लोग.

यहाँ निशाने पर वे मेहनतकश हैं जिनको मेहनत करके पेट पालने का भी मौका नहीं मिल रहा, बेरोजगार हैं, न सर पर छत है, न चूल्हे में ईंधन, हर तरह के आर्थिक संकट को झेल रहे हैं, अज्ञान, अंधविश्वास, भाग्यवादिता, और जाति धर्म के पूर्वाग्रहों के सामाजिक कीचड़ में धँसे हैं. उगता तो कमल कीचड़ में ही है और यह जनता ही तो यह कीचड़ पैदा कर रही है! कीचड़ को विचारों के ताप से सुखाने का काम तो नहीं कर रही. जैसा कि एक कविता में उन्मेष कहते हैं, सूरज को उगाता कौन है, उगना तो उसका कर्म है (उल्लेखनीय है कि वे कर्म शब्द का इस्तेमाल करते हैं, धर्म का नहीं). कीचड़ की नमी को सुखाने वाला वह ताप भी निकलेगा लेकिन तभी निकलेगा जब कीचड़ या दलदल इतना नीचे खींच लेगा कि अस्तित्व ही मिटने वाला हो.

उन्मेष की ग्रासरूट फासीवाद की गहरी समझ तो इन पंक्तियों में साफ हो ही रही है उनका अदम्य साहस भी प्रकट होता है. कमल किस पार्टी का प्रतीक चिन्ह है बताने की ज़रूरत नहीं. उसकी विचारधारा के पोषण में हर तरह से हारे पिटे लोगों की भूमिका की यह पहचान और इसे कह जाने की हिम्मत कवि को उन फेशनेबल वाद-विवादियों के घेरे से अलग कर देती है जो दिन रात यही राग अलापते रहते हैं कि जनता बिचारी गुमराह हो रही है, मजबूर है, सहमी हुई है. सच कहने का साहस ही नहीं, उसे कम शब्दों में प्रभावकारी रूप से कहने का सलीका भी आता है उन्मेष को.

फ्रांज़ फैनों की ‘ब्लैक स्किन, व्हाइट मास्क्स’ की बरबस याद दिला जाने वाली यह पंक्तियाँ फासीवाद के मूलाधार पर बड़े ‘अफसोस’ के साथ उंगली रखती. यहाँ रोष नहीं है. कवि की अभी उनसे उम्मीद टूटी नहीं है, उनके दुराग्रहों को जानते हुए भी वह उन्हींके पाले में खड़ा है, वह उत्पीड़कों के पाले में जा नहीं सकता.

इसी कविता में आगे वे इस तरह जनता के सात खून माफ करने वाले बौद्धिक अभिजात्य के पाखंड की पहचान भी करते हैं.

गर्दन में गड़े लोग
पैरों में पड़े लोग
दूध की बात करते हैं
छाछ से भी जले लोग.

अंतिम दो पंक्तियाँ एक कहावत को उलट कर जतला देती हैं कि उन्मेष हर विचार की इतनी पड़ताल कर सकते हैं कि चाहें तो उसे उलट ही दें! यह है फासीवाद की छिछली समझ का प्रतिकार. खूब लोहा लिया है इन्होंने विद्वानों से जैसा कि कहते भी हैं इसी कविता में:

विद्वत पर अड़े लोग
रूढ़ियों के सड़े लोग
समंदर की बात करते हैं
कुएं में पड़े लोग.

अपनी कुर्सी के सामने बंद खिड़की के कांच के पार दुनिया का अवलोकन करने वाले बुद्धिजीवियों की संकुचित सोच, संकुचित दृष्टि पर यह कड़ा प्रहार है.

इसी तरह उन्मेष कई चिर परिचित और अब तक तो पावन भी माने जाने वाले नारों को परख कर ठोकर मार देते हैं. जैसे स्त्री विमर्श का यह नारा, कि आधा आकाश हमारा है. वे ‘घुटन’ कविता की शुरुआत में ही कह डालते हैं

हमें ज़मीन चाहिए,
सारा आसमान तुम रख लो.

यह तिरस्कार ही चेतना को नया धरातल देता है, आधा अधूरा कुछ नहीं चाहिए, चाहिए तो पूरा और जो हाथ नहीं आ सकता, मुट्ठी में समा ही नहीं सकता उस आकाश का करना भी क्या है? यूं देखा जाए तो आकाश तो ज़मीन के ऊपर की खाली जगह ही है जिसमें हम सब ठूँसे हुए हैं. उन्मेष तो कहते भी हैं कि साइंस को साथ रखो. इस कविता का हर छंद इसी तरह के असली नकली बौद्धिक संपदाओं के बीच का फर्क जताती जाती है. एक वाक्पटु युवा की ऐसी हाज़िरजवाबी जर्जर हो चुकी बुद्धि को शॉक देकर ज़िंदा कर देती है. बड़ों का जरा भी लिहाज नहीं, यह कवि बड़ा बेशर्म है! इसी कविता में देखिए क्या शान से वे कहते हैं,

हमें विचार चाहिए
ये मूर्ति बेजान तुम रख लो.

 

3)

उन्मेष की कविताओं से हिन्दी साहित्य में मज़दूर वर्ग की वापसी हो गई यह दावा तो मैं कर नहीं सकती लेकिन इसमें शक नहीं कि उनकी रचनाओं में इस वापसी की पदचाप अत्यंत सुदृढ़ है. उसकी धमक सुनाई देती है.

‘मशक्कत’ मज़दूर, दलित, वनवासी और स्त्री विमर्श के मेल और संश्लेषण की अनूठी मिसाल है. यह चेतना उनकी अन्य कविताओं में भी झलकती है लेकिन यहाँ यह साफ साफ बयान किया गया है.

यह कविता अलग से गहन विश्लेषण की मांग करती है जो मेरे जैसे कविता को न समझ पाने वालों के लिये मुश्किल है. पर इतना तो मुझे भी समझ में आ गया कि इसका तेवर अलग है. यह वर्ग चेतना में सूक्ष्म परिवर्तन का आगाज़ है. शायद कवि ने इसमें उनको ही लक्ष्य करके लिखा है जो आर्थिक सामाजिक न्याय के संघर्ष से जुड़े हैं हालांकि इसमें ध्वनि शोषकों को संबोधित करने की ही है. लेकिन जो है वही कहे, जो कहा है वही उसका मतलब भी हो, उसका निहितार्थ और कुछ न हो तो कविता सतही तुकबंदी से ऊपर उठ नहीं पाएगी. ‘मशक्कत’ एक जटिल कविता है हालांकि पढ़ने में बहुत ही आसान है.

कवि शुरू में मज़दूर, फिर किसान, फिर दलित, वनवासी और अंत में औरत का प्रवक्ता बनता उनकी विशिष्टता गिनाता चलता है. और हर प्रवक्ता अपने उत्पीड़क को बताता चलता है कि वह उसकी जगह लेकर तो देखे, कितना कठिन है उनकी तरह जीना. मगर बात उससे भी गहरी कही जा रही है. जैसे वनवासी का यह कहना

कहूंगा बचा कर दिखाओ जंगल
पूंजीवाद की आरी से
शायद समझ पाओ
जंगल उगाना आसान है
एक पेड़ बचाने से कहीं..

जंगल उगाना आसान है! सचमुच आसान है, बस धरती को उसके हाल पर छोड़ दो जंगल तो उग ही आते हैं. उन्मेष उस जंगल की बात नहीं कर रहे जिसे वनीकरण का नाम दिया जाता है, जिसमें बाज़ार में बिक सकने योग्य वृक्षों की सीधी कतारें खड़ी कर दी जाती हैं जिनको कुछ साल बाद काट दिया जाता है. ऐसे दोहन का प्रतिकार कर रहा कवि कहता है कि ‘पेड को पूंजीवाद की आरी’ से बचाना मुश्किल है. यानी क्या? व्यक्ति को, इकाई को बचाना मुश्किल है! उसकी दीगर सोच को पूंजीवाद के असर से बचाना मुश्किल है. वे उपभोक्ताववाद शब्द इस्तेमाल नहीं करते जो पूंजीवाद का सिर्फ एक लक्षण भर है. दुश्मन का नाम लेते हैं, बेलाग लपेट.
‘घुटन’ कविता घुटन से बचाती है, सांस लेने की छूट देती है.

चेतना जगाने का कोई अस्फुट स्वर यहाँ नहीं है. जो भोजन उगाए, उसे भगवान का झांसा देने वालों से मुखातिब होते हुए खेतिहारों की तरफ से ‘हमें मालूम है.’ कविता में वे कहते हैं

तुम भगवान उगाते हो,
हम उगाते है धान
हमें मालूम है.

ऐसे कठोर तेवर के बावजूद ‘रंग’ कविता एक आश्चर्यजनक मुलायमियत लिये हुए है. कवि शायद पुराने और नए विवादों में उलझे लोगों को, नेताओं को संबोधित कर रहा है कि ज़रा विनम्रता से किसी और की सुन भी लिया करो, अड़े मत रहो. इस कविता में पुराने दर्शन की ओर झुकाव का एहसास सा होता है.

अंतर तुझमें और मुझमें क्या
वही गुदा वही चर्म है.

यह बात तो कई बार काही जा चुकी है, यह उद्गार बेअसर से हो चुके हैं लेकिन इनको उनकी आगे की पंक्तियाँ नया मर्म देती हैं.

सख़्त टूट जाता हर बार
बचा वही जो नर्म है.

मुहब्बत पर कितना गहरा यकीन है इसमें. प्यार हमारी संस्कृति में है कहाँ? जहां मनुष्य को अछूत मान लिया वहाँ प्रेम है कहाँ, होगा कैसे? एक नई संस्कृति के स्वप्न जगाती यह कविता साफ कह रही है कि नरमी होगी तो प्यार में ही होगी. और बचेगा वही जो विचारों और संवेदना की धारा के बहने पर कुछ दूर तो बहेगा, कुछ देर तो झुकेगा.

समालोचन में उन्मेष को दलित कविता की श्रेणी में पेश किया गया है. इनको कथित ‘मुख्यधारा’ का कवि क्यों नहीं कहा जा सकता? यही साज़िश अंबेडकर के साथ भी हुई. उनको सिर्फ दलित नेता बना कर रख दिया गया. वे औद्योगिक संबंध कानून के प्रणेता थे, वे अर्थशास्त्र पर भी लिखते थे, राष्ट्रवाद पर भी लेकिन उनको सिर्फ दलित नेता करार कर उनका कद और उनकी पहुँच को घटा दिया गया. अगर दलितों ने लगातार उनको निगाह में नहीं रखा होता तो शायद आज उनकी दुबारा खोज करनी पड़ जाती. संभव है कि दलित चेतना वर्ग चेतना के मेल से ही विकल्प की रचना कर सकती हो. यह भी संभव है कि उन्मेष खुद की यही पहचान रखना चाहते हों.
यह एक उलझ हुआ प्रश्न है. इसपर अलग से चर्चा होनी चाहिए.

अभी तो उनकी कविताओं पर बात हो रही है. उत्पादन कर रहे मेहनतकशों और व्यवस्था ने उनको भरमाने के जो आडंबर खड़े कर दिए हैं उनके रिश्ते को उन्मेष की कविता तेज़ धार चाकू से काटती है. ‘समर्थ’ में कहते हैं,

धूप संग बरसात भी सह लूँ
किसी का छाता नहीं हूँ मैं.
मजदूर हूँ, कर्मवादी हूँ
मंदिर में जाता नहीं हूँ मैं.

कर्म और धर्म के इस अलगाव को पहचान कर ही वे आगे बढ़ते हैं, अतीत के मुहावरों को ठुकराते हुए, परंपरा को नकारते हुए.

गाता हूँ पर क्रांति गीत
किसी का गाता नहीं हूँ मैं.

किसी और का गीत नहीं गाऊँगा, यह एक समर्थ कवि ही कह सकता है. समर्थ को औरों के बोल उधार लेने भी नहीं चाहिए. अब तो इस कवि को गाने का वक्त आ गया है. उन्मेष का सामर्थ्य बना रहे!

बच्चा लाल उन्मेष को मेरा सलाम.

अंजली देशपांडे पत्रकार और एक्टिविस्ट हैं. हिंदी और अँग्रेज़ी दोनों भाषाओं में लिखती हैं. इनके दो उपन्यास और एक कहानी संकलन प्रकाशित हुए हैं. हाल ही में मारुति फैक्ट्री में मज़दूर संघर्ष पर नंदिता हक्सर के साथ इनकी हिंदी और अँग्रेज़ी में पुस्तक, ‘फैक्ट्री जापानी, प्रतिरोध हिंदुस्तानी’, प्रकाशित हुई है.
anjalides@gmail.com
Tags: 20232023 आलेखअंजली देशपांडेबच्चा लाल 'उन्मेष'
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Comments 4

  1. bharat haridas yadav says:
    2 years ago

    पहले तो युवाकवि बच्चालाल ‘उन्मेष’ को बहुत बधाई। वे अब हिन्दी के मुख्यधारा के कवि कहलाये जा सकते है। अंजली जी ने बहुत ही विस्तृत रुप से इस कवि की रचनाओं का परामर्श लिया है और एक तरह से इस होनहार कवि की पिठ थपथपाई है। बेबाक अंदाज में कविताएं लिखनेवाले कवि की कविताओं पर बेबाक अंदाज में ही समीक्षा लिखी गई है। बस मजदूर,दलित के क्रम में वनवासी शब्द आ गया है जहाॅं आदिवासी होना था। क्युॅं की खुद बच्चालाल वनवासी और आदिवासी का फर्क बखुबी समझते है। समालोचन एवं अरुण देव जी की सम्पादकीय नीडरता का परिचय है यह आलेख।

    Reply
  2. मुसाफ़िर बैठा says:
    2 years ago

    ’उन्मेष’ दलित समुदाय से आते भी नहीं।

    हां, उनकी कविताओं में अधिकांश के सरोकार जरूर दलित समस्या से हैं, उनकी सोच भले ही अंबडकरी विचारधारा को भी लेकर चलती है

    Reply
  3. Ajamil vyas says:
    2 years ago

    यह खुशी की बात है कि उन्मेष जी को बड़ा कवि बनाने की मुहिम का शुभारंभ देर से ही सही, शुरू हो गया है। इस तरह किसी कवि को तो न्याय मिलेगा। बधाई समालोचन।

    Reply
  4. Anonymous says:
    2 years ago

    मैंने आपको जब पहली बार पढ़ा तब ही आभास हो गया था कि आपका अपना एक अत्यंत समृद्ध कोष है जिसे कितनी सूझबूझ के साथ कैसे और कँहा प्रयोग करना है ये भी आप बखूबी जानते हैं।आपके प्रयोग किये प्रतीक कोरी नवीनता लिए होते हैं और सच में पाठक को ठिठक कर सोचने को बाध्य करते हैं। प्रत्येक शोषित आपको पढ़कर अपनी भी पीठ थपथपाता है कि इस कलम की पैनी धार से बच पाना मुश्किल है और कंही उसे एक अप्रत्यक्ष साहस मिलता है उसके संघर्ष से जूझने का।यह आलेख आपके गहन लेखन के साथ पूरा-पूरा न्याय करता है।आपकी लेखनी की शक्ति को समेटना आसान नहीं है।हृदय-तल से अनगिनत बधाइयां और आशीर्वाद!!👍👍

    Reply

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समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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