सौमित्र मोहन अशोक अग्रवाल
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कवि की उम्र 86 वर्ष. सम्पूर्ण कविताओं का संग्रह ‘आधा दिखता वह आदमी’. कविताओं की संख्या 149, कुल 211 पृष्ठ; सम्मान, पुरस्कार और विदेश यात्राओं का कॉलम स्थायी रूप से रिक्त.
इन दो पंक्तियों में सौमित्र मोहन को आसानी से समेटा जा सकता है, लेकिन बकौल ज्ञानेन्द्रपति (एक अनौपचारिक संवाद के दरमियान) उनके द्वारा सृजित हिंदी कविता के सबसे मौलिक और एक समय विशेष के प्रतिनिधिक चरित्र लुकमान अली, जिसने कविता के आभिजात्य को ध्वस्त करने का काम किया, को खारिज़ करना इतना आसान नहीं. अपने जन्म के आधी सदी बाद भी लुकमान अली उसी ऊर्जा से हमारे समक्ष उपस्थित है.
ऐसा बहुत कम होता है, जब कोई कविता कवि के कद से बढ़कर अपनी अलग पहचान बना लेती है. राजकमल चौधरी की ‘मुक्ति प्रसंग’, धूमिल की ‘पटकथा’ और लीलाधर जगूड़ी की ‘नाटक जारी है’ को कविताओं की इसी शृंखला में रखा जा सकता है.
अपनी कविताओं की एकमात्र किताब ‘आधा दिखता वह आदमी’ की भूमिका में सौमित्र मोहन लिखते हैं-
इस किताब में मेरी कुल 149 कविताएँ हैं. मैं चाहता हूँ कि लोग मुझे इन्हीं कविताओं से जाने-पहचाने. यही मेरी संपूर्ण कविताएँ हैं, हालांकि इनके श्रेष्ठ होने के बारे में मेरा कोई दावा नहीं है.
ऐसा नहीं है कि मेरी काव्य रचना इतनी भर रही है. हर कवि की तरह मेरे पास भी अभ्यास-कविताओं का एक जखीरा था, जिसे मैंने दिल कड़ा कर नष्ट कर दिया है. ऐसी कविताओं की संख्या 300 रही होगी-1956 से अब तक की अवधि में. इसके लिए मुझे अपने घनिष्ठ मित्रों की मलामत सहनी पड़ी है. उनका कहना है कि इन कविताओं पर फिर से काम किया जा सकता था. पर मुझे इसका रत्ती भर भी संताप नहीं है.
(आरंभिक, आधा दिखता वह आदमी)
अशोक सेकसरिया, प्रबोध कुमार और ज्ञानरंजन जैसे चंद लेखकों को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है. मंगलेश डबराल ने लेखन के प्रारंभिक दौर में कुछ कहानियाँ लिखी थी. कहानियाँ शिल्प, भाषा और कथ्य में अपने समय की कहानियों से कमतर नहीं थी. एक बार उसे इन कहानियों का स्मरण कराया तो लज्जा भरी मुस्कान से सिर्फ़ इतना कहा- ‘‘वे मेरे कच्चे दिनों की लिखी मनुष्यद्रोही कहानियाँ हैं. मैं उन्हें भूल जाना चाहता हूँ.’’ आत्ममुग्ध लेखकों के इस संसार में अपनी रचनाओं को खारिज़ करने का निर्णय लेना या उनके प्रति निस्पृह हो जाना, एक प्रकार से इन लेखकों का स्वरचित वानप्रस्थ ही कहा जाएगा.
अशोक वाजपेयी ने अपने ब्लॉग ‘कभी-कभार’ में इसी तथ्य को रेखांकित करते हुए लिखा था- ‘‘पिछले पचास वर्षों में शायद आलोकधन्वा को छोड़कर वे दूसरे महत्वपूर्ण कवि हैं जो इस कदर अल्पसंख्यक हैं.’’
लुकमान अली से मेरा परिचय वर्ष 1968 में जबलपुर से प्रकाशित होने वाली लघु पत्रिका ‘कृति परिचय’ के माध्यम से हो चुका था, लेकिन सौमित्र मोहन को पहली बार देखा वर्ष 1970 में नंदकिशोर नवल द्वारा आयोजित पटना युवा लेखक सम्मेलन में. यह देखना दूरी से देखने जैसा था. सौमित्र मोहन से अनौपचारिक मित्रता की शुरुआत हुई वर्ष 1978 के किसी दिन. दिल्ली के कनाट प्लेस स्थित लेखकों के अड्डे के रूप में ख्याति प्राप्त टी हाउस में. बाहर से राजधानी आने वाला कोई भी लेखक यहाँ अपने प्रिय लेखकों से बिना किसी झंझट के आसानी से मेल-मिलाप कर सकता था. टी हाउस के बाहर बरामदे में बनी रेलिंग के सहारे घंटों खड़ा रहकर बिना किसी व्यवधान के गपियाया जा सकता था.
लुकमान अली और सौमित्र मोहन. कविता और कवि एक दूसरे के पर्याय बन जाएँ, ऐसा हिंदी कविता में संभवतः यह अकेला उदाहरण है. सौमित्र मोहन पर आने से पहले मुझे लुकमान अली के बारे में कुछ बातें करना जरूरी लग रहा है. ललित कुमार श्रीवास्तव द्वारा संपादित ‘कृति परिचय’ के अक्टूबर-नवंबर 1968 के कविता विशेषांक के अतिथि संपादक थे-जगदीश चतुर्वेदी और सौमित्र मोहन. इस कविता विशेषांक की शुरुआत लुकमान अली कविता से हुई थी. सामाजिक विद्रूप और विसंगतियों के दुस्वप्नों से भरी फंतासी और बेजोड़ काव्य विन्यास के चलते यह लंबी कविता प्रकाशित होते ही कविता के विमर्श के केंद्र-बिंदु में आ गई थी. प्रख्यात प्रगतिशील कवि स्वर्गीय केदारनाथ अग्रवाल का यह दिलचस्प पत्र इस बात का गवाह है कि ‘लुकमान अली’ ने उस समय की कविता को किस कदर प्रभावित किया था-
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बांदा, 3-1-69
प्रियवर,
आप लुकमान अली के बाप हैं. इसलिए, मैं ऐसे होनहार और यशस्वी पुत्र के पिता को हृदय से बधाई देता हूँ कि आप धन्य हैं और आपको आपका बेटा हिंदी में चिरस्मरणीय बनाये.
मैंने रचना पढ़ी. बहुत बढ़िया है. बहुत उम्दा है. दिल्ली आकर पीठ ठोंककर ख़ुद खुश होना चाहता हूँ. तुमने तो इस कविता को लिखकर सबको पछाड़ दिया है. यह हर प्रकार से नई कविता की अनूठी उपलब्धि है. कविता के समस्त प्रतिमान पुराने पड़ गये हैं. इसकी कसौटी युगीन जीवन की विसंगतियाँ हैं.
मैंने कुछ लिखा है, इसी के संबंध में. भेजूंगा. स्वयं परिचित नहीं हूँ, फिर भी बधाई देना मेरा धर्म है.
और लिखो, और और और जियो.
सस्नेह, तुम्हारा
केदारनाथ अग्रवाल, एडवोकेट
केदारनाथ अग्रवाल ने अपनी किताब-‘समय-समय पर’ भी ‘लुकमान अली’ को इन शब्दों में रेखांकित किया-
मुक्तिबोध और राजकमल की मृत्यु के समय तक हिंदी कविता जहाँ तक पहुँची और ले जायी गयी थी, वहाँ से आगे पहुँची और ले जायी गई यह कविता-‘लुकमान अली’-है. इस तरह की यह कविता हिंदी में पहली नई कविता है, जो भरपूर कविता है और अपने कथ्य और शिल्प में अद्वितीय और अभूतपूर्व है.
अशोक वाजपेयी द्वारा संचालित और संपादित ‘पहचान’ की दूसरी शृंखला में प्रकाशित पुस्तिका-‘चाकू से खेलते हुए’ के माध्यम से सौमित्र मोहन की अन्य कविताओं से मेरा परिचय बाद में हुआ. ‘पहचान’ की इस दूसरी शृंखला की अन्य चार पुस्तिकाएँ थीं-‘लगभग जयहिंद’ (विनोद कुमार शुक्ल), ‘जरत्कारु’ (कमलेश), ‘फैसले का दिन’ (श्रीकांत वर्मा द्वारा अनुदित आन्द्रे वोज्नेसेंस्की की कविताएँ) और ‘बहिर्गमन’ (ज्ञानरंजन). विष्णु खरे का कहना था कि अशोक वाजपेयी ने सौमित्र की इस विलक्षण पहली कविता पुस्तिका ‘चाकू से खेलते हुए’ को प्रकाशित कर हिंदी की कवि-आलोचक बिरादरी को चमत्कृत कर दिया था.
वर्ष 1978 के सितंबर माह का कोई एक दिन. कनाट प्लेस के टी हाउस में सौमित्र मोहन और मेरे बीच वार्तालाप कुछ इस तरह प्रारंभ हुआ-
आप संभावना प्रकाशन से परिचित होंगे. मेरा नाम अशोक अग्रवाल है. मैं आपकी कविता लुकमान अली और अन्य कविताएँ प्रकाशित करना चाहता हूँ.
मुझे छापना आपके लिए आसान नहीं होगा. कविता की संरचना में किसी भी तरह की छेड़छाड़ मुझसे सहन नहीं होगी.
सौमित्र मोहन के पहले कविता संग्रह-लुकमान अली तथा अन्य कविताएँ-के प्रकाशन की प्रक्रिया प्रारंभ हुई. उन दिनों किताबों का मुद्रण हैंड कंपोजिंग द्वारा होता था. करीब दो माह सौमित्र मेरे साथ-साथ प्रेस के चक्कर लगाते रहे. उनकी कविताओं की कंपोजिंग सरल कार्य नहीं था. सौमित्र धैर्य के साथ कंपोजिटर के पास खड़े उसे अपनी कविताओं की संरचना के अनुसार कार्य करने के लिए निर्देशित करते रहते. मैं विस्मित हुआ सौमित्र की ओर देखता रहता. इससे पूर्व मैंने कोई दूसरा अन्य कवि ऐसा नहीं देखा था जो अपनी कविताओं के प्रति इतना संवेदनशील रहा हो. पुस्तक के आकार, मुद्रण और उसकी साज-सज्जा के प्रति उनकी सजग दृष्टि ने मुझे भी प्रकाशन के कुछ पाठ सिखाए. इस पुस्तक का आवरण प्रसिद्ध चित्रकार नारायण बड़ोदिया ने बनाया था.
इसी संदर्भ में मुझे दो प्रसंगों का स्मरण आता है. नरेंद्र मोहन लंबी कविताओं की अपनी किताब ‘कहीं भी खत्म कविता नहीं होती’ के लिए सौमित्र की कविता लुकमान अली को सम्मिलित करने के बेहद इच्छुक थे. नरेन्द्र मोहन के बार-बार आग्रह करने के बावजूद उसने इस प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया. किताब में संकलित कुछ नामों से असहमति के अलावा उसका मानना था कि उसके पाठक इस कविता को पढ़ना चाहते हैं. यदि वह इस कविता को उनकी पुस्तक के लिए दे देगा तो उसके कविता संग्रह को पढ़ने में अधिकांश पाठकों की रुचि जाती रहेगी.
दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में जब सौमित्र मेरे साथ भ्रमण कर रहे थे तो अनिल जनविजय पास आए और उनसे अपने द्वारा संचालित हिंदी कविता कोश के लिए उनकी कविताएँ सम्मिलित करने की अनुमति मांगी. सौमित्र ने यह कहते हुए कि उसकी कविताएँ जिस शिल्प और लय में लिखी गई हैं, उसी प्रकार से छापना उसके लिए संभव नहीं हो सकेगा, अनिल जनविजय के प्रस्ताव को खारिज़ कर दिया.
कविताओं के प्रति इतनी सजगता और संलग्नता कवियों में कम ही दिखाई देती है. शमशेर बहादुर सिंह, विनोदकुमार शुक्ल और मलयज को भी मैंने अपनी रचनाओं के प्रति इतना ही संवेदनशील पाया.
उन दिनों सौमित्र अपने जीवन की संभवतः सबसे कठिन लड़ाई से जूझ रहे थे. आज मुझे अचरज होता है कि किस तरह उसने अपने अंतरंग को छिपाये रखा कि मुझे उसकी कोई झलक तक नहीं मिली थी! स्वदेश दीपक की इस बात की पुष्टि भी हुई कि सौमित्र मोहन की कविताओं का संसार अपने और बाहरी दुनिया से निरंतर संघर्षरत कवि की कविताओं से सृजित हुआ हैं.
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अंदरूनी और बाहरी न जाने कितनी लड़ाइयाँ मनुष्य के जीवन को रचती और निर्मित करती हैं. कुछ जीवन के आखिर तक स्मृति का हिस्सा बनी हमारे साथ चलती रहती हैं. सौमित्र अपने जीवन की तीन लड़ाइयों का ज़िक्र कभी-कभी किया करते, जिन्होंने दूर तक उनकी कविताओं और जीवन को प्रभावित किया.
कॉलेज के दिनों में पनपे सघन प्रेम के बाद सौमित्र मोहन और मणिका मोहिनी के दांपत्य जीवन की अवधि मात्र 9 साल रही. यह प्रेम विवाह था इसलिए स्वर्ग की उपस्थिति तो उसमें निश्चित रही होगी, लेकिन पारस्परिक असहमतियों और विवादों का भंवरजाल इतना गहरा था जिसने शायद साथ-साथ रहना कड़वाहट से भरा और दुष्कर बना दिया था. वर्ष 1974 के एक दिन बुजुर्ग पारिवारिक सदस्यों और मित्रों की उपस्थिति में सदा के लिए अलगाव का फैसला सर्वसम्मति से ले लिया गया. यह भी निर्णय हुआ कि सात साल का बेटा मणिका के पास ही रहेगा. इस निर्णय में मणिका मोहिनी की ओर से नरेंद्र मोहन की पत्नी और सौमित्र मोहन की ओर से जगदीशचंद्र बतौर मध्यस्थ मौजूद थे.
मैं एक गिरफ्त से
बाहर आ गया था। अपने लिए जिम्मेदार होना
मुश्किल है-
किसने मुझे बताना था.
।। इत्यादि अनुभवों की एक छोटी कविता ।।
उसी रात सौमित्र मोहन एक बैग में अपने कपड़े, कुछ किताबें और जरूरी कागज समेट जगदीशचंद्र के साथ उनके जनकपुरी के फ्लैट में रहने के लिए आ गए. उस दो कमरे के फ्लैट में जगदीशचंद्र शेयरिंग आधार पर तीन छड़ों के साथ रहा करते थे. उन चार छड़ों के साथ पांचवां नाम सौमित्र मोहन का जुड़ गया. उस दिन सौमित्र ने अपने मन में दो निश्चय किए. पहला वह एल्कोहलिक कभी नहीं बनेगा, दूसरे वह अपना दुख किसी से शेयर नहीं करेगा.
यह समूह का सच नहीं था।
भयानक सपना टूटने
के बाद एक लंबा अंतराल था।
गले में अटके हुए
शब्दों का
अफारा था।
खूंखार हत्याकांड का वहाँ कोई साक्षी नहीं था।
मृत अतीत में क्रौंच चोंच मार रहा था।
।। रोज़मर्रा आकाश, आधा दिखता वह आदमी ।।
सौमित्र मोहन के जीवन के आगामी साढ़े सात साल, जिन्हें आज वे हास्य से ज्योतिष की भाषा में शनि की साढ़े साती कहकर याद करते हैं, बेहद कठिन और जीवन के सर्वाधिक संघर्षपूर्ण साल रहे. पत्नी, पुत्र, घर, नौकरी सभी कुछ एक झटके से जाते रहे थे. जेब पूरी तरह खाली थी. भविष्य अनिश्चित और दु:स्वप्नों से भरा. लगता था जैसे उसके पैर कीचड़ में फंसे हैं और जितनी कोशिश वह बाहर निकलने की करता है, उतना अधिक धंसता जा रहा है.
मैं जब एक दुस्वप्न से मुक्त हुआ तो मैंने
देखा कि बारिश शुरू हो चुकी है और वातावरण
मुझ पर हावी हो गया है।
सड़े हुए पत्तों पर से मैं दौड़ रहा था और
आकाश में
पीछे छूटा हुआ पक्षी तेजी से उड़ता जा रहा था।
।। इत्यादि अनुभवों की एक छोटी कविता ।।
ऐसे कठिन समय में दोस्तों ने ही उसके जीवन को बचाया. विशेषकर कृष्ण अशांत, गौरीशंकर कपूर और जगदीशचंद्र जिन्होंने उसे इन दिनों संभाला संवारा. कुछ महीने सौमित्र मोहन उस मंडली का हिस्सा बनकर रहे. इसके बाद जनकपुरी में ही स्थित अपने छोटे भाई के खाली पड़े अपार्टमेंट में जगदीशचंद्र के साथ रहने चले आए.
1972 में प्रकाशित अपने उपन्यास ‘धरती धन न अपना’ से ख्यात जगदीशचंद्र ने बहुत जल्दी हिंदी साहित्य संसार में प्रेमचंद और फणीश्वरनाथ रेणु की परंपरा के महत्वपूर्ण उपन्यासकारों में अपना स्थान बना लिया था. कई साल जनकपुरी के इसी अपार्टमेंट में दोनों साथ-साथ साथ रहे. उन दिनों का स्मरण करते सौमित्र बताते हैं कि जगदीशचंद्र से मिलने भांति-भांति के प्राणी आया करते थे, जिनसे वह देर तक गुफ्तगू करते हुए अपने नोट्स लेते रहते थे.
जगदीशचंद्र उन दिनों अपने आगामी उपन्यासों ‘नरकुंड में बास’ और ‘कभी न छोड़ें खेत’ लिखने की तैयारी में जुटे हुए थे. उन्होंने ‘नरकुंड में बास’ पुस्तक सौमित्र मोहन को यह लिखकर समर्पित की है-‘लुकमान अली के रचनाकार और प्रिय मित्र सौमित्र मोहन को.’
जगदीशचंद्र पीआईबी में नियुक्त थे और उन दिनों रक्षा मंत्रलय की ओर से सूचनाओं की रिपोर्टिंग के कार्य का निर्वहन करते थे. बाद में उनका स्थानांतरण जालंधर हो गया और वहीं 10 अप्रैल, 1996 के दिन उनका आकस्मिक निधन हुआ.
गौरीशंकर कपूर दूरदर्शन के हिंदी न्यूज़ विभाग में बतौर संपादक कार्यरत थे और उनके सहयोग से सौमित्र को भी कुछ माह अनुबंध आधारित कार्य मिलता रहा, जिसका भुगतान हफ़्ते के आधार पर हुआ करता था. उन कठिन दिनों में गौरीशंकर कपूर उनके वह निकटस्थ मित्र रहे जिनसे आप अपने मन की तमाम उलझनों को बिना किसी भय के साझा कर सकते हैं. गौरीशंकर कपूर ने कुछ कहानियाँ और दो छोटे उपन्यास लिखे थे. उनके उपन्यास ‘नींद से बाहर’ की चर्चा भी उन दिनों हुई थी. दूरदर्शन से मोटर साईकिल द्वारा घर लौटते हुए वह दुर्घटनाग्रस्त होकर इस दुनिया से विदा हो गए. सौमित्र के लिए व्यक्तिगत रूप से यह एक हृदय विदारक हादसा था, जिसे वह आज भी विस्मृत नहीं कर सके हैं.
कृष्ण अशांत पंजाबी में कविताएँ लिखते थे. दर्शनशास्त्र में उच्च अध्ययन किया हुआ था और आजीविका के लिए रिसर्च मार्केटिंग की नौकरी से जुड़े हुए थे. कृष्ण अशांत ने सौमित्र को भी रिसर्च मार्केटिंग के छोटे-मोटे अनुबंध दिलाने प्रारंभ कर दिए. सौमित्र का खर्चा उन दिनों इसी तरह के कार्य से चलता रहा. प्रूफ रीडिंग, अनुवाद कार्य और पत्रकारिता से जुड़े छोटे-छोटे कामों के अलावा विकास पब्लिशिंग हाउस और राधाकृष्ण प्रकाशन में कुछ समय गुजारने के बाद वर्ष 1981 में ललित कला अकादमी में संपादक पद की नियुक्ति के बाद उनका यह कठिन दौर समाप्त हुआ.
कृष्ण अशांत बाद के दिनों में ज्योतिषशास्त्र से जुड़ गए और इसे ही अपना व्यवसाय भी बना लिया. ज्योतिष साहित्य की प्रसिद्ध ‘लाल किताब’ उनके इस नए कारोबार का मुख्य स्रोत बना. इस क्षेत्र में उन्होंने खासी आर्थिक सफलता हासिल की.
स्वदेश दीपक उन दिनों अंबाला में रहा करते थे और बीच-बीच में अक्सर दिल्ली आया जाया करते. स्वदेश दीपक का उनके अंतरंग जीवन से गहरा भावनात्मक जुड़ाव रहा. जिन दिनों स्वदेश दीपक अपनी आत्मकथात्मक कृति ‘मैंने मांडू नहीं देखा’ का लेखन कर रहे थे, उनके पीड़ाजन्य मार्मिक रचनात्मक क्षणों के सहभोक्ता सौमित्र मोहन ही रहे. वर्ष 2003 में उनकी किताब ‘मैंने मांडू नहीं देखा’ राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई जिसकी प्रेस कॉपी सौमित्र ने ही तैयार की और प्रोडेक्शन से जुड़े सभी कार्य भी उसी की देख-रेख में पूरे हुए. किताब के आवरण पर प्रकाशित स्वदेश दीपक का छायाचित्र सौमित्र का ही लिया हुआ है. स्वदेश दीपक ने यह किताब उसे ही समर्पित की है. वर्ष 2006 के किसी दिन स्वदेश दीपक हमेशा के लिए गुमशुदा हो गया. स्वदेश दीपक का इस तरह लापता हो जाना आज भी उसका एक ऐसा रिसता हुआ घाव है जो कभी भी मन को गहरे संताप से भर जाता है.
‘मैंने मांडू नहीं देखा’ का अंग्रेजी अनुवाद इसी वर्ष प्रकाशित होकर आया है. कुछ दिन पहले यह सूचना मुझे फोन पर देते हुए सौमित्र मोहन अपने उस मित्र को याद कर बेहद भावुक हो आया-‘‘एक लंबे समय से एकाकी जीवन जी रहा हूँ. मित्रविहीन जीवन कितना तकलीफदेह होता है, इसे मुझसे अधिक कौन जान सकता है. उन दिनों के मित्रों में संभवतः अकेले तुम ऐसे हो जिससे अभी तक संपर्क बना है.’’
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छठे और सातवें दशक की सुप्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका ‘लहर’, जिसकी गणना ‘कल्पना’ पत्रिका के साथ होती थी, के संपादक प्रकाश जैन ने रमेश गौड़ के परामर्श पर सौमित्र मोहन से एक विशेष कविता विशेषांक संपादित करने का आग्रह किया. प्रकाश जैन की तकलीफ़ यह थी कि ‘लहर’ के अनियमित छपने का कारण मात्र आर्थिक नहीं, बल्कि प्रकाशन के लिए अनुपलब्ध सामग्री भी है. इस विशेषांक के साथ ही उर्दू कहानियों के एक विशेषांक को भी प्रकाशित करने की योजना थी जिसका संपादन बलराज मेनरा कर रहे थे.
‘लहर’ संपादक प्रकाश जैन ने उसे अपने पत्रों से यह भी आश्वासन दिया कि उसे कतई डिस्टर्ब नहीं किया जाएगा. संभव है 2-4 रचनाएँ वह अपनी ओर से भिजवाए, जिसे स्वीकृत या अस्वीकृत करना पूरी तरह से उसी पर निर्भर करेगा. विशेषांक की पृष्ठ संख्या से लेकर तीन माह का समय भी निर्धारित किया गया.
प्रकाश जैन के 19 अगस्त 71 के पत्र के उत्तर में सौमित्र ने जो पत्र लिखा वह उल्लेखनीय है.
दिनांक 25 अगस्त 71
प्रिय प्रकाश,
आपका 19 अगस्त का पत्र मिला, आँखों की खराबी नहीं होती तो तुरंत उत्तर देता. बहरहाल, मैं आपके स्पष्टीकरण से संतुष्ट हूँ कि मुझे पूरे तौर पर स्वतंत्र रहते हुए सामग्री जुटाने का अधिकार होगा और उसे उसी रूप में प्रकाशित करने की जिम्मेदारी आपकी रहेगी. आपने मुझे इस विशेषांक के लिए 3 महीने का समय दिया है. मेरा ख़याल है कि मैं अभीष्ट सामग्री इस बीच में जुटा पाऊँगा और इसलिए अंतिम प्रेस कॉपी नवंबर में भेज दूँगा.
इस कविता विशेषांक पर काम मैं एक थीम के इर्द-गिर्द करना चाहता हूँ. इतने लंबे अरसे से साहित्यिक पत्रिका में खपते रहने के कारण आप भी महसूस करते होंगे कि पिछले तीन-चार सालों में छाई चुप्पी असाधारण है. बहस न तो मुख्य विधा के झगड़े को लेकर है और न ही कविता में नई तकनीक या शिल्प विधि को खोजने की. ऐसा लगता है कि यह चुप्पी या तो कविता के निष्प्रयोजक हो जाने की वजह से है या संकटकालीन कविता लिखे जाने के लिए. यह चुप्पी एक जरूरी मजबूरी बनी हुई है. ऐसे समय में कविता की सार्थक खोज अपने आप में एक उपलब्धि सिद्ध हो सकती है. मेरी पूरी कोशिश रहेगी कि मैं अपनी समकालीन कवियों, लेखकों और नए उभरते कवियों को एक साथ लेकर इसकी कोई तात्कालिक उपादेयता पर उँगली रख सकूँ.
सहृदय आपका,
सौमित्र मोहन
सौमित्र मोहन ने अपने निजी प्रयासों और पत्र व्यवहार के माध्यम से इस विशेषांक के लिए महत्वपूर्ण सामग्री एकत्रित की. प्रकाश जैन ने वह सारी सामग्री यह कहते हुए कि वह विशेषांक के योग्य नहीं है वापस लौटा दी. इस पत्र ने सौमित्र को गहरा मानसिक आघात दिया. इसके उत्तर में सौमित्र ने यह पत्र लिखा.
दिनांक 3 मार्च, 1972
प्रिय भाई,
मुझे तुम्हारा 21 फरवरी का पत्र यथा समय मिल गया था और इतने दिनों तक मैं यही सोचता रहा कि कहीं तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है तुमने मेरे द्वारा संग्रहित विशेषांक को घटिया करार देकर न केवल मेरा बल्कि उन सभी सक्षम युवा लेखकों का अपमान किया है, जिन्होंने सिर्फ़ मेरी खातिर ‘लहर’ के कविता अंक के लिए रचनाएँ देना स्वीकार किया था.
शायद यहाँ इस बात का उल्लेख करना ग़ैरवाजिब नहीं होगा कि अधिकांश लोग ‘लहर’ में छपने के लिए उत्सुक नहीं थे और मेरे व्यक्तिगत आग्रह के कारण उन्होंने अपनी श्रेष्ठ रचनाएँ खास तौर पर कविता अंक के लिए लिखी थीं. ऐसी स्थिति में मुझे तुम्हारे द्वारा लिखी गई इस पंक्ति की कोई संगति समझ में नहीं आई कि ‘लहर’ को पुनर्जीवित करते समय मुझे बहुत सारी दृष्टि से सोचना और चलना पड़ेगा.
लेखन और खास तौर पर युवा लेखन के साथ गहरे तक जुड़े होने के कारण मेरी चिंता तुमसे अलग तरह की नहीं थी. मैं दिल से चाहता था कि ‘लहर’ एक बार फिर सार्थक तथा जीवंत लेखन की पत्रिका बने, क्योंकि इस समय कोई भी नियमित साहित्यिक पत्रिका नहीं है. मैंने ‘लहर’ के कविता अंक को संपादित करने की बात स्वीकार की थी, इस तरह की कई चेतावनियों के बावजूद कि तुम कई लोगों को आमंत्रित करके हद दर्जे की बदतमीजी और कमीनगी दिखा चुके हो.
तुम इस बात को शायद अमहत्वपूर्ण नहीं समझोगे कि इस विशेषांक का संपादन मैं निःशुल्क कर रहा था. मुझे तुमने पांच-छह सौ रुपए नहीं देने थे और न ही इस विशेषांक के लिए प्राप्त रचनाओं पर तुम लेखकों को कोई पारिश्रमिक भी देने वाले थे. मैं कहना चाहता हूँ कि इसके बावजूद मैंने तुम्हें कई वर्षों तक चर्चित रहने वाली सामग्री भिजवाई थी और तुम उसे विशेषांक के योग्य नहीं, कह कर लौटना चाहते हो. मैं चाहूँ तो तुम पर मानहानि का मुकदमा ठोक सकता हूँ.
वैसे भी इस विशेषांक का संपादक होने के नाते इस सामग्री की जिम्मेदारी मुझ पर आती है, तुम पर नहीं. मेरी चिंता तुमसे भिन्न नहीं थी.
वैसे तुम्हारा उपरोक्त खत मैंने बलराज मेनरा को भी दिखाया है और वह तुमसे न केवल नाखुश है, बल्कि अब उर्दू कहानियों के विशेषांक के लिए काम भी नहीं करेगा. यह तुम पर निर्भर करता है कि तुम अपने संबंध कैसे बनाएँ रखना चाहते हो. मैं यह पत्र जोश में नहीं लिख रहा हूँ, क्योंकि तुम्हें जवाब देने में 11 दिन का समय लिया है. मुझे अफ़सोस इसी बात का है कि मैंने जिस किसी से भी तुम्हारे पत्र का जिक्र किया, उसने यही कहा कि प्रकाश जैन से ऐसी ही बात की अपेक्षा की जा सकती थी. पर मैं चाहता हूँ कि तुम अपनी इस इमेज को गलत साबित करो और अपने निर्णय पर एक बार फिर विचार कर लो.
मुझे तुम्हारे पत्र की प्रतीक्षा रहेगी.
तुम्हारा,
सौमित्र मोहन
प्रकाश जैन ने इस पत्र का कोई उत्तर नहीं दिया. सौमित्र मोहन ने 10 दिन बाद उसे फिर पत्र लिखा.
दिनांक 14 मार्च 1972
प्रिय भाई,
मैंने अपना पिछला पत्र तुम्हें करीब 10 दिन पहले लिखा था. इसका उत्तर गोल करने में न तुम्हारा हित है और ना मेरा. तुम कविता विशेषांक के लिए प्राप्त रचनाओं को इस तरह दबा कर नहीं रख सकते. आखिर हमें किसी निर्णय पर पहुँचना ही है, मुझे तुरंत उत्तर दो.
तुम्हारा सौमित्र मोहन
वास्तविकता यह थी कि प्रकाश जैन ने यह सामग्री अच्छी तरह पढ़ी भी नहीं और राजस्थान के किन्हीं गुटपरस्त लेखकों के कहने पर इसे लौटा दिया था. इनमें से एक साहब दिल्ली में आकर शेखी भी बघार गए कि प्रकाश जैन की हनुमान शक्ति को उकसाने में उन्होंने जामवंत की भूमिका निभाई थी.
सौमित्र ने जिन मित्रों से यह सारी सामग्री जुटाई थी, उसे इस तरह छोड़ देना उसे नाइंसाफी लगी. उस सामग्री को प्रकाशित करने के लिए उसने लघु पत्रिका ‘अथवा’ निकालने का निर्णय लिया. ‘अथवा’ के प्रथम अंक का संपादकीय ‘वैयक्तिक बहस से बाहर’ उल्लेखनीय है.
एक लंबे अरसे से छोटी पत्रिकाओं की चुप्पी ने इस बात की पड़ताल के लिए विवश कर दिया है कि हम फिर से सोचें कि एकदम ताजा लेखन को सामने लाने और पत्रिका को हथियार की तरह इस्तेमाल करने की बात को कहीं झुठला तो नहीं दिया है. शायद यह अप्रासंगिक नहीं है कि एक के बाद एक छोटी पत्रिकाओं का बंद होना साहित्यिक परिदृश्य को न केवल धुंधला करना है बल्कि निरंतर चलते संवाद को भी पृष्ठभूमि में फेंक देना है. यही वजह है कि युवा लेखकों की शिथिलता एक खौफनाक निष्क्रियता में तब्दील हो गई है. इसी मजबूरी को तोड़ने की छोटी सी भूमिका के रूप में अनियतकालीन ‘अथवा’ आपके सामने है. इसमें प्रकाशित सभी रचनाएँ ‘लहर’ के प्रस्तावित विशेषांक के लिए मैंने संकलित की थी.
‘अथवा’ के सिर्फ सिर्फ तीन अंक प्रकाशित हो सके. तीन अंकों के कुछ लेखक हैं-वेणु गोपाल, चंद्रकांत देवताले, ज्ञानेंद्रपति, मणिका मोहनी, जगदीश चतुर्वेदी, कुमार विकल, बदीउजम्मा, बलराज पंडित, विजय मोहन सिंह, नंदकिशोर नवल, रमेश गौड़, पंकज सिंह, रामेश्वर प्रेम, सुरेश सेठ आदि.
इन नामों से पता चलता है कि सौमित्र मोहन ने सारी सामग्री एकत्रित करने में कितना श्रम किया था. ‘अथवा’ के इन तीन अंकों के प्रकाशन के बाद बहुत चाहने पर भी वह इसे नियमित नहीं निकाल सके. विकास पब्लिशिंग हाउस के हिन्दी संपादक पद की उसकी नौकरी भी जाती रही थी. विकास पब्लिशिंग हाउस मूलतः अंग्रेजी किताबों का प्रकाशन था. हिंदी प्रकाशन की दुनिया में यह उनका पहला कदम था. यह प्रयास शीघ्र ही निराशा में तब्दील हो गया, जब उनके सेल्स विभाग के कर्मचारियों से जानकारी मिली कि अंग्रेजी पाठकों की तुलना में हिंदी पाठकों की संख्या अल्प है और पुस्तकालयों और सरकारी खरीद में रिश्वतखोरी का चलन जिसका सामना अंग्रेजी प्रकाशकों को नहीं करना होता था. हिंदी पुस्तकों के प्रकाशन में उनकी रुचि जाती रही थी. सिर्फ़ पाठ्य पुस्तकों तक ही उन्हें हिंदी को सीमित रखने का निर्णय लेने को विवश होना पड़ा. आर्थिक संकट के चलते उसे ‘अथवा’ के प्रकाशन को स्थगित करना पड़ा.
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राधाकृष्ण प्रकाशन में सौमित्र मोहन ने संपादक और प्रोडक्शन मैनेजर के रूप में 1 जून 1980 से नियमित रूप से काम करना शुरू किया. संस्थान के मालिक अरविंद कुमार उसकी कार्य क्षमता से सुपरिचित थे, क्योंकि वह उनके लिए पहले से ही फ्रीलांसिंग आधार पर पाण्डुलिपि संपादन का काम करता रहा था.
यहाँ रहते हुए उसने कई महत्वपूर्ण कार्य किये. शमशेर बहादुर सिंह के कविता संग्रह ‘चुका भी हूँ नहीं मैं’ को वर्ष 1977 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका था, लेकिन इसके शीर्षक के गलत छपने (कविता-संग्रह का सही शीर्षक था ‘चुका भी हूँ मैं नहीं’) के अलावा कुछ कविताओं के आधे-अधूरे छप जाने और प्रूफ में रह गई महत्वपूर्ण गलतियों के कारण शमशेर जी न केवल क्षुब्ध थे, बल्कि अरविंद कुमार के बहुत आग्रह और विद्यानिवास मिश्र और अन्य वरिष्ठ लेखकों के अनुरोध के बावजूद दूसरा संस्करण कराने से इनकार कर दिया. सौमित्र ने मध्यस्थ की भूमिका का निर्वाह किया. ‘‘तुम खुद कवि हो, इसलिए मेरे संताप को अच्छी तरह समझ सकते हो…’’- कहते हुए सौमित्र के इस आश्वासन पर कि वह दूसरा संस्करण अपनी देख-रेख में करेगा उसके अनुरोध को स्वीकार कर लिया. साथ ही उन्होंने ‘आश्चर्यलोक में एलिस’ (‘एलिस इन वंडरलैंड’ का अनुवाद) की पांडुलिपि भी प्रकाशन हेतु सौमित्र को सौंप दी. राधाकृष्ण प्रकाशन के लिए यह सौमित्र का महती कार्य था.
अरविंद कुमार के अहंकार और व्यवहार के कारण राधाकृष्ण प्रकाशन की प्रतिष्ठा इतनी गिर चुकी थी कि बहुत कम लेखक प्रकाशन संस्थान में आते थे. इलाहाबाद के लोकभारती प्रकाशन में प्रसिद्ध लेखक दूधनाथ सिंह के साथ हुई अरविंद कुमार की तीखी बहस हाथापाई तक पहुँच गई थी, जिसकी गूंज अभी तक बनी थी. प्रमुख रूप से हिंदी का प्रकाशन संस्थान होने के बावजूद यहाँ से हिंदी की मौलिक कृतियां काफी कम छपती थीं. अधिकतर अनुवाद और संकलन का प्रकाशन ही होता था. इस कठिन चुनौती का सामना करते हुए सौमित्र ने अपने कार्यकाल के दौरान लेखकों से निरंतर संपर्क कर करीब दो दर्जन रचनाएँ विशेष रूप से राधाकृष्ण प्रकाशन के लिए तैयार करने के निमित्त लेखकों की मौखिक स्वीकृति भी जुटा ली थी.
सौमित्र के कार्यकाल के दौरान ही साहित्यिक पत्रिका ‘अभिरुचि’ विद्यानिवास मिश्र के संपादन में शुरू हुई, जिसकी प्रस्तुति की सारी जिम्मेदारी सौमित्र के ऊपर ही थी. इसके अतिरिक्त श्रीओम प्रकाश स्मृति सम्मान के अंतर्गत एक दशक के दौरान श्रेष्ठ युवा लेखक की कृति का सम्मान और सार्थक कृतियों के चुनाव के आयोजन से भी सौमित्र सक्रिय रूप से जुड़ा था. लेखकों को राधाकृष्ण प्रकाशन की ओर आकर्षित करने के लिए ‘आमने-सामने’ कार्यक्रम की रूपरेखा बनाने और उसके कार्यान्वयन से भी. पहले दो कार्यक्रमों को अपने निजी संपर्कों की सहायता से सफल बनाने में भी उसने उपयोगी भूमिका निभाई.
1 जुलाई 1981 को बिना कोई खास ठोस कारण बताए अरविंद कुमार ने सौमित्र को बर्खास्त कर दिया. अपनी इस अनुचित कार्रवाई को उचित सिद्ध करने के लिए अरविंद कुमार सार्वजनिक रूप से उसे बदनाम करने की कोशिश भी करते रहे. ‘आमने-सामने’ कार्यक्रम को रद्द करने से संबंधित जारी कार्ड में उन्होंने सौमित्र के बारे में लिखा-
‘‘काम के प्रति गैर ज़िम्मेदारी, अकर्मण्यता तथा लापरवाही के कारण संपादक को नौकरी से हटाना आवश्यक हो गया था. समय से कई वर्ष पीछे चल रहे इस व्यक्ति में साहित्य के निष्पक्ष मूल्यांकन की क्षमता नहीं थी तथा साहित्यकारों के प्रति ईर्ष्या तथा अहंकार का भाव था. कार्यालय के अन्य कर्मचारियों को तिरस्कार की दृष्टि से देखते थे.’’
इतना ही नहीं 23 जुलाई 1981 को नवभारत टाइम्स में छपे अरविंद कुमार के पत्र ने सौमित्र मोहन पर नये आरोप जड़ते हुए लिखा-
‘‘श्री सौमित्र मोहन को राधाकृष्ण प्रकाशन में कविता लिखने के लिए नहीं रखा गया था. उनका कार्य था संपादन. वह तेरह महीने राधाकृष्ण प्रकाशन में रहे. उनके व्यवहार से तंग आकर राधाकृष्ण प्रकाशन की चारों सहयोगी महिलाओं ने भी श्री सौमित्र मोहन के रहते राधाकृष्ण प्रकाशन में काम न करने का नोटिस दे दिया था.’’
सच तो यह था कि जल्दबाजी में लिए गए अपने निर्णय और सौमित्र की गैरकानूनी बर्खास्तगी के औचित्य को सिद्ध करने के लिए अरविंद कुमार अभद्रता और अशालीनता पर उतर आए थे.
वास्तविकता यही थी कि सौमित्र ने उनका घरेलू नौकर बनने की स्थिति को कभी स्वीकार नहीं किया. एक योग्य कर्मचारी के स्वाभिमान के साथ वह हमेशा काम करता रहा. 1 जुलाई 1981 को एक मामूली सी बात को लेकर अरविंद कुमार ने उससे अपमानजनक व्यवहार किया और सौमित्र कक्ष से उठकर चला आया. अगले दिन उसे तार मिला. इसके शब्द थे-
‘‘योर सर्विस विद राधाकृष्ण प्रकाशन इस टर्मिनेटेड विद इमीडिएट इफ़ेक्ट. डॉन’ट अटेंड ऑफिस आफ्टर टुडे. लेटर फॉलोज.’’
यह अरविंद कुमार का तैश में लिया गया निर्णय था और इसके पीछे किसी तरह का कोई इतिहास नहीं था. अपने अड़ियलपन के कारण ही उन्होंने आरोपी का इतिहास गढ़ा था जो निंदनीय, आपत्तिजनक, ग़लत, ग़ैरक़ानूनी, जरूरी संदर्भ से हटकर और अशिष्ट तो थे ही, सार्वजनिक रूप से एक व्यक्ति के चरित्र पर कीचड़ उछालना भी था.
इस संदर्भ में स्वदेश दीपक की 28 अगस्त 81 को सौमित्र मोहन को पत्र के रूप में लिखी टिप्पणी-‘राधाकृष्ण प्रकाशन : किताब घर या कीचड़ घर’ के कुछ अंश उल्लेखनीय हैं-
लगता है कि अपने ‘घर’ की गंदगी को बाहर चौक पर ले आना राधाकृष्ण प्रकाशन की परंपरा बनती जा रही है. लेखक और प्रकाशक के बीच मनमुटाव होना, छोटे-मोटे झगड़ा होना ना कोई नई बात है न बुरी बात, लेकिन झगड़ों को जब प्रकाशक पैम्फ़लेटबाजी के माध्यम से दूसरे लेखकों के सामने लाता है, अपने गंगा नहाए होने की दुहाई देता है तो सुनने वाला सुनाने का हकदार बन जाता है. जिन दिनों सौमित्र और अरविंद के बीच यह बात हुई, मैं दुःसंयोग से दिल्ली था, जो कुछ हुआ उसका गवाह हूँ और चुप रहने की अनैतिकता नहीं करता, इसलिए अपने 20 साल की लेखक जिंदगी में पहली बार अपने से बाहर आना पड़ा.
अरविंद कुमार ने राधाकृष्ण प्रकाशन के मालिक और अपने पिता ओमप्रकाश की मृत्यु के बाद सौमित्र मोहन को अपने किताबघर में संपादक की नौकरी दी, क्योंकि अरविंद को एक पढ़े लिखे आदमी को अपने यहाँ रखने की मजबूरी थी. जब तक श्री ओमप्रकाश जिन्दा थे तब तक राधाकृष्ण को संपादक की जरूरत नहीं पड़ी, क्योंकि श्री ओमप्रकाश लंबे अरसे से हिंदी से जुड़े हुए थे. उन्हें साहित्य और साहित्यकार दोनों का अंतर करना आता था. उनके मरने के बाद अरविंद कुमार, जो पढ़ाई से इंजीनियर और पुश्तैनी पैसे के बिना पर प्रकाशक है, राधाकृष्ण के मालिक बने. हिंदी साहित्य का क ख ग सीख रहे हैं. हिंदी पढ़ना तो आ गई है. समझने की परेशानी तो है ही, अभी रहेगी.
सौमित्र मोहन बतौर फ्रीलांसर राधाकृष्ण से छपने वाली किताबों का संपादन करता था. अरविंद को लगा आदमी काम का है. अपने यहाँ नौकरी दे दी, फिर एक साल के बाद उसे नौकरी से निकाल दिया. उसे रखने या निकालने में किसी को ऐतराज करने का क्या हक है! आपके किताबघर का निजी मामला है. नौकरियाँ लगती हैं और छूटती भी हैं, कोई अनहोनी बात नहीं, लेकिन नौकरी से निकालने के कुछ तौर- तरीके होते हैं. ‘न’ करने की भी अपनी एक गरिमा होती है. जब साहब बहादुर ने सौमित्र को नौकरी से निकाला तो लोकल तार भी दी, जिसका हिंदी अनुवाद कुछ इस तरह का होगा-कल से राधाकृष्ण में मुँह मत दिखाओ, तुम्हारी जरूरत नहीं.
उन दिनों मैं दिल्ली में ही था. मन्नू भंडारी और राजेंद्र यादव के यहाँ बैठे थे. निकालने के तौर तरीके पर बात हुई तो मन्नू भंडारी की एकदम प्रतिक्रिया थी कि घर के नौकर को भी निकालना हो तो सबसे झूठे बहाने बनाते हैं. उसे दूसरा काम खोजने का वक्त देते हैं. राजेंद्र यादव का कहना था कि निकाला तो जा सकता है, लेकिन तार-बाजी की नौबत नहीं आनी चाहिए थी.
शानी इस तरह के हादसों से दो-चार हो चुका है. उसका कहना था कि छोकरों की नौकरी से सरकार की नौकरी ही अच्छी है. सरकार नाराज़ भी हो तो किसी तरीके से निकालेगी. शानी ने सलाह दी कि इस किस्से पर मिट्टी डाली जाए. सारी कोशिश सौमित्र की रोजी-रोटी की तरफ लगाई जाए. जो कुछ हो गया है उसे भुला दिया जाए. सलाह कड़क लेकिन सच्ची थी.
अरविंद कुमार को बड़ा बनने की जल्दी है. नाम कमाने की भूख. तमाशा करवाता है, महफिलें लगवाता है, गरीब लेखक को पुराने राजाओं की तरह सैंकड़ों रुपए का वजीफा देता है. कविताओं और विचारों को सुनने सुनाने का आमने-सामने कार्यक्रम चलाता है और अखबारों पत्रिकाओं में राधाकृष्ण के प्रचार का फायदा उठाता है.
गज़ब हो गया आमने-सामने प्रोग्राम में कवि कविता पढ़ने नहीं आए और लेखक लोग सुनने नहीं आए. लेखक की यह हिम्मत की इकट्ठे हो जाएँ. बड़े प्रकाशक के खि़लाफ़ खामोश विरोध प्रकट करें. पुराना हथियार निकल आये. पोस्टकार्ड छप गया. सौमित्र मोहन को मुजरिम वाले कटघरे में खड़ा कर दिया गया. मेरे ख़याल में सौमित्र के चरित्र की सबसे बड़ी कमी ही यही है कि उसका व्यवहार जरूरत से ज्यादा ठीक होता है. शालीन और सभ्य. ससुरा दुश्मन बना ही नहीं पाता. पता नहीं ताकतवर कविताएँ कैसे लिख लेता है!
सौमित्र और कुछ दूसरे दोस्त कहते हैं कि पूंजीपति ऐसा ही करते हैं. दोस्तों, पूंजीपति और नवधनाढ्य में जमीन आसमान का फ़र्क होता है. यह फ़र्क है शालीनता का, गरिमा का, इनकार करने के तरीकों का जो पूंजीपति और टटपूंजिये को अलगाता है.
अरविंद कुमार से हाथ जोड़कर प्रार्थना है कि जिसको चाहे नौकर रखें, जब चाहे जैसे चाहे निकाले लेकिन हम लेखकों के पास किसी के चरित्रहीन होने का पैम्फलेट न भेजे. नहीं तो हम भी मुँह में ज़ुबान रखते हैं और अभी ज़ुबान पर तालाबंदी नहीं हुई है.
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राधाकृष्ण प्रकाशन से इस अप्रिय विवाद के लगभग 6 माह बाद सौमित्र मोहन की ललित कला अकादमी में सहायक संपादक पद पर नियुक्ति हो गई. नियुक्ति से पूर्व तक वह संशय से घिरा था कि कहीं राधाकृष्ण प्रकाशन के बहुत अधिक दुष्प्रचार के कारण उसकी नौकरी में कोई व्यवधान न पड़े. कला समीक्षक एवं तत्कालीन ललित कला अकादमी के सचिव रिचर्ड बार्थोलोम्यु, कपिला वात्स्यायन और संस्कृति मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी साक्षात्कारकर्ता थे. सभी की सहमति सौमित्र मोहन के नाम पर हुई. यहीं से उसके जीवन में स्थिरता का दौर प्रारंभ हुआ.
पद उसका सहायक संपादक का था, लेकिन पूर्ण संपादक के बतौर उसने ‘समकालीन कला’ के अनेक अविस्मरणीय अंकों का संपादन किया. मूल हिंदी में कला संबंधित विषयों और कला समीक्षकों की संख्या बहुत कम थी. इस पत्रिका के माध्यम से उसने अनेक प्रसिद्ध चित्रकारों, कला समीक्षकों और कला के मर्मज्ञ लेखकों को विशेष रूप से इस पत्रिका में लिखने के लिए प्रेरित किया. अपने कार्यकाल के दौरान उसने भारतीय चित्रकारों पर अंग्रेजी में पूर्व प्रकाशित मोनोग्राफ सुग्राहय भाषा में अनुवाद करवाने और उनकी कलात्मक प्रस्तुतिकरण का भी कार्य किया. सौमित्र मोहन के आगमन के बाद ही एक प्रकार से हिंदी भाषा की उपस्थिति ललित कला अकादमी में दर्ज हुई.
उन दिनों मंडी हाउस जाने पर उसका कक्ष मेरा स्थायी अड्डा बन गया. विशेषकर मई-जून की तपती दोपहरी में, जब सड़कें आग उगल रही होती और पूरा शरीर पसीने से चिनचिना रहा होता, सौमित्र का वातानुकूलित कक्ष मेरे लिए पनाहगाह होता. कक्ष में पहले से कोई चित्रकार या लेखक मौजूद होता और उनकी उपस्थिति को अनदेखा करता सौमित्र अपने संपादन कार्य में तल्लीनता से लगा होता. चाय पीते हुए गपशप भी चलती रहती. इसी कक्ष में मेरी मुलाकात के. खोसा, रामेश्वर बरूटा, गुलाम रसूल संतोष, अनिल करंजई, जय झरोटिया और मंजीत बाबा जैसे सुप्रसिद्ध कलाकारों से हुई, जिससे मेरी कला की दुनिया थोड़ा समृद्ध हुई. जब कभी उसे काम में अधिक तन्मय पाता तो उसे अवकाश देने के लिए चलने की अनुमति मांगता.
‘‘वापस जाने से पहले मुझे मिले बिना नहीं लौट जाना,’’-वह अपने काम में दत्तचित्त सिर्फ़ इतना कहता. वह जानता था कि यहाँ से उठकर मैं ललित कला अकादमी के पुस्तकालय में कुछ समय व्यतीत करूँगा.
ललित कला अकादमी के पुस्तकालय में कितना समय गुजर जाता, पता ही नहीं चलता. कला और कलाकारों से संबंधित पुस्तकों का वह विशाल भंडार था. उन दिनों पुस्तकालय में बैठकर पढ़ी विश्वप्रसिद्ध कलाकार पाल गोगा के ताहिति टापू में बिताए गए दिनों की रोमांचित करने वाली डायरी और रेखांकनों की अद्भुत किताब का आज भी स्मरण आता है.
प्रसिद्ध चित्रकार जय झरोटिया द्वारा लुकमान अली कविता पर 50-60 पेंटिंग की चित्र शृंखला दिल्ली के आर्ट हेरिटेज गैलरी में वर्ष 1983 में प्रदर्शित हुई. जय झरोटिया द्वारा निर्मित यह शृंखला कवि और कलाकार के बीच चलते रहने वाले निरंतर मित्र-संवाद का परिणाम थी, जो कविता और कला दोनों की स्वायत्तता की रक्षा करता था. यह सौमित्र के जीवन की बड़ी घटना थी.
युवा कवि समर्थ वशिष्ठ द्वारा लुकमान अली का अंग्रेजी में उच्च स्तरीय अनुवाद जो जयंत महापात्र द्वारा संपादित ‘चंद्रभागा’ पत्रिका के न्यू सीरीज नंबर 14 में 2006 में प्रकाशित हुआ. सौमित्र का कहना है बहुत चाहने पर भी इस तरह की एक और लंबी कविता वह दोबारा नहीं लिख सका.
वर्ष 1985 में उसके जीवन में विमलाजी का प्रवेश हुआ. प्रेम का अंकुर एक बार फिर अंकुरित हुआ, जिसकी परिणति कुछ दिन बाद विवाह में तब्दील हो गई. विमलाजी उन दिनों एनसीईआरटी में रीडर के पद पर शैक्षणिक क्षेत्र में कार्य कर रही थी. उत्तर प्रदेश की लोक कलाओं, विशेषकर भित्ति चित्रों पर, उनका गहरा अध्ययन था.
वर्ष 1993 में ललित कला अकादमी के क्षेत्रीय कार्यालय लखनऊ में सचिव के पद पर स्थानांतरित होने तक मुलाकातों का सिलसिला नियमित रूप से चलता रहा.
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सौमित्र मोहन एक संवेदनशील छायाकार भी है, उसके इस पहलू से संभवतः बहुत कम परिचित होंगे. स्वचालित कैमरे से छाया व प्रकाश के कलात्मक संयोजन से वह अपने छायांकनों में ऐसा अदृश्य संसार रचता जो अभी तक अनदेखा होता. वह चाहने पर भी अपनी इस कला को सतत जारी नहीं रख सका. उसका मानना था कि फ़ोटोग्राफी भी एक लेखक और कलाकार की भांति पूर्ण समर्पण चाहता है. एक छायाकार को सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ना होता है. इसके तकनीकी उपकरणों में इतनी तेजी से परिवर्तन होता है कि उसे अद्यतन रखना जरूरी होता है. यह बहुत अधिक आर्थिक संसाधनों की मांग करता है. यह सब उसके अनुकूल नहीं था, इसलिए निजी शौक तक सीमित होकर रह गया. समय-समय पर वह छायंकनों के लिए अनुकूल स्थलों का भ्रमण करता रहा. उसके कलात्मक छायांकनों का उपयोग मैंने संभावना की कुछ किताबों के लिए किया. स्वप्निल श्रीवास्तव और अग्निशेखर के पहले कविता संग्रहों ‘ताख पर दियासलाई’ और ‘किसी भी समय’ का विशेष रूप से स्मरण आता है, जिन्हें आवरण के कलात्मक छायांकनों के लिए भी सराहा गया.
दिवंगत अशोक माहेश्वरी भी पूर्णतया फ़ोटोग्राफी के लिए समर्पित रहने के बावजूद, आर्थिक संकटों से जूझते हुए अपने छायांकनों की एकल प्रदर्शनी की अधूरी इच्छा के साथ काल के गर्भ में समा गए. सूफियाना मिज़ाज और निस्पृह स्वभाव के चलते अस्सी पार के हो चले सुरेंद्र राजन के अविस्मरणीय कलात्मक छायांकनों की भी यही नियति प्रतीत हो रही है.
मेरे नज़दीकी संपर्क में रहे दो कथाकार ऐसे हैं, जिनकी छायांकन के प्रति आसक्ति भी अपने लेखन की तरह रही. सुप्रसिद्ध कथाकार (स्व.) लक्ष्मीधर मालवीय का अधिकांश जीवन जापान में बीता. विश्वविद्यालय द्वारा आवंटित ओसाका में स्थित आवास में उन्होंने अपना फोटो स्टूडियो बना रखा था. 40 दिन के जापान प्रवास में फ़ोटोग्राफी के उनके जूनून को नजदीक से देखा. उनकी फ़ोटोग्राफी का केंद्र न्यूड् और रेतीले समुद्री तट पर नैसर्गिक रूप से बने ढूह रहे. स्त्रा की नग्न देह में प्रकृति का अन्वेषण और प्रकृति में स्त्रा देह के सौंदर्य का अनुसंधान. वर्ष 1980 में वह हापुड़ एक माह तक मेरे अतिथि रहे और अपने छायांकनों की प्रदर्शनी के लिए बड़े-बड़े एनलार्जमेंटस की फ्रेमिंग का काम बारीक कीलें और हथौड़ी लेकर स्वयं किया. दिल्ली स्थित लिटिल थियेटर ग्रुप की आर्ट गैलरी में उनके छायांकनों की प्रदर्शनी हुई. फ़िराक़ गोरखपुरी, शमशेर बहादुर सिंह, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, निर्मल वर्मा जैसे रचनाकारों के पोर्ट्रेट और न्यूड् उस प्रदर्शनी का आकर्षण रहे. दिल्ली के प्रख्यात रचनाकारों के अलावा मक़बूल फ़िदा हुसेन और रामकुमार जैसे कलाकारों की उपस्थिति अविस्मरणीय है.
जितेंद्र भाटिया की फ़ोटोग्राफी का प्रमुख विषय दुर्लभ पशु और पक्षी रहे, जिसके चलते उन्होंने देश भर के अभ्यारण्यों के अलावा अफ्रीकी देशों से लेकर लातिनी अमेरिकी देशों की अनेक लम्बी यात्राएँ की. कुछ यात्रओं में उनका संगी बना. भरतपुर पक्षी विहार मे सरदार रिक्शेवाले के साथ दुर्लभ प्रजाति के उलूक के घोंसले की तलाश में सुबह से शाम तक भटकते रहने की याद आज भी बनी है. हर की दून ग्लेशियर, बिनसर और चकराता के नजदीक देववन की यात्रा में जान जोखि़म में डालकर फ़ोटोग्राफी करते मैंने उन्हें देखा. जितेंद्र में आंतरिक रूप से गहरा अनुशासन है, जिसकी वजह से मुझे आश्वस्ति है कि भविष्य में कभी उनके दुर्लभ पक्षियों के छायांकनों की प्रदर्शनी का आयोजन होगा या मुद्रित रूप में कोई पुस्तक आकार लेगी.
वर्ष 2000 के आसपास शिल्पकार मित्र हिमा कौल के कहने पर मैंने सौमित्र मोहन से हिमा के शिल्पों के छायांकन का आग्रह किया. छायांकन के लिए अनुकूल समय का निर्धारण कर सौमित्र अपनी पुरानी मारूति कार स्वयं ड्राइव कर साकेत से हिमा के आर के पुरम स्थित सरकारी आवास पर आए और तल्लीनता से चार सीटिंग में शिल्पों के छायांकन का काम न सिर्फ पूरा किया, शिल्पों की पारदर्शियाँ भी छोटे से टीन के डिब्बे में संजो कर हिमा को सौंपी. इन पारदर्शियों की संख्या पचास के आसपास रही होगी. मेरी ओर हिमा की भूमिका शिल्पों को ऊपरी छत पर ले जाने और सौमित्र के अनुसार उन्हें रखने भर की रही. छायांकन के काम में हुए भारी व्यय को देखते हिमा ने कुछ राशि लिफाफे में रखकर सौमित्र की ओर बढ़ाया ही था कि उसने यह कहते हुए-‘‘दोस्ती में यह सब कुछ थोड़े ही चलता है, बस अपने हाथ से बनी एक अच्छी सी चाय पिलाओ.’’ उसका हाथ पीछे कर दिया.
चलने से पहले उसने हिमा को सिर्फ़ एक सलाह दी. उसके पास खुद अपना कैमरा होना चाहिए, ताकि कैमरे की आँख से खुद अपने शिल्पों का आकलन करते हुए वह जान सके कि जो भाव वह अपनी शिल्प में उतारना चाहती है, कितनी सफल हुई है और कहाँ उसमें त्रुटि रह गई है?
सौमित्र ने जिस कैमरे का उपयोग शिल्पों के छायांकन के लिए किया, उसी में हिमा की रुचि देखते हुए सौमित्र ने बहुत कम मूल्य पर उसे सौंप दिया. कुछ अतिरिक्त लैंस और कई तरह के फिल्टर उसे भेंट स्वरूप दिए. कैमरे का उपयोग करने की विधियाँ भी उसे सिखाईं.
दुर्योग ऐसा कि वह इस कैमरे का उपयोग कभी न कर सकी. आकस्मिक बीमारी के चलते उसी दौरान उसकी उँगलियों ने काम करने से इनकार कर दिया और वह कैमरे का वजन तक उठाने में लाचार हो गई.
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लुप्त होने की कगार पर खड़े संभावना प्रकाशन को वर्ष 2018 में जब अभिषेक ने नई शुरुआत दी तो मैंने उससे सौमित्र मोहन से संपर्क करने को कहा. सौमित्र ने खुशी जाहिर करते हुए कहा-
“मैं कब से इसकी प्रतीक्षा कर रहा था. मैं जानता हूँ कि संभावना प्रकाशन ही मेरी कविताओं को मेरे अनुकूल प्रकाशित कर सकता है.’’
सौमित्र की संपूर्ण कविताओं के संकलन ‘आधा दिखता वह आदमी’ की पांडुलिपि पर कार्य आरंभ हुआ. इस किताब के लिए आवरण और विभाजन पृष्ठों के लिए रेखांकन जय झरोटिया ने, जो उन दिनों लंदन में रह रहे थे, विशेष रूप से निर्मित किये.
किताब को अंतिम रूप देने के लिए सौमित्र मोहन 4 दिन के लिए हापुड़ आए. कविताओं के फोन्ट साइज से लेकर पहले पृष्ठ से आखिरी पृष्ठ तक कविता की एक-एक पंक्ति की स्पेस सहित लयबद्धता, संरचना और शुद्धता से की गई प्रूफ्ररीडिंग और मुद्रण के लिए विशेष निर्देश देने के साथ किताब की प्रस्तुति के कई पाठ अभिषेक को सिखाए. पुस्तक की प्रस्तुति से सौमित्र मोहन के साथ जय झरोटिया भी बहुत प्रसन्न थे, उनका कहना था कि आवरण और विभाजक पृष्ठों के रेखांकन उनकी पेंटिंग के निकटस्थ पहुँचे हैं. प्रस्तुति की दृष्टि से यह किताब संभावना की अन्य पुस्तकों से अलग से चिह्नित की जा सकती है.
इस पुस्तक के प्रकाशन के साथ लगभग दो दशकों से लगभग विस्मृत किए गए सौमित्र की नये सिरे से चर्चा प्रारंभ हुई. अशोक वाजपेयी ने सौमित्र मोहन पर केंद्रित एक विशेष कार्यक्रम रज़ा फाउंडेशन की ओर से इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित किया. अशोक वाजपेयी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में सौमित्र मोहन की हिंदी कविता में विशिष्ट उपस्थिति को रेखांकित किया. ज्योतिष जोशी के आलेख और कई लेखकों के संवाद के साथ सौमित्र मोहन ने अपनी चुनिंदा कविताओं का पाठ भी किया.
कवि अरुणदेव ने अपनी वेब पत्रिका समालोचन के दो लगातार अंकों में सौमित्र मोहन और ‘आधा दिखता वह आदमी’ पर केंद्रित ‘तुम कहाँ गए थे लुकमान अली’ शीर्षक से प्रकाशन किया. लगभग विस्मृत कर दिये गए सौमित्र मोहन आकस्मिक रूप से चर्चा के केंद्र में आ गए.
अपने संपादकीय में अरुण देव ने लिखा कि साहित्य के केंद्र के लिए कुख्यात दिल्ली के केंद्र में रहते हुए भी सौमित्र को कई दशकों से लगभग विस्मृत कर दिया गया. यदा-कदा ‘अकविता’ की चर्चा के दौरान उनका नाम उभरता. क्या इतने दिनों के एक महत्वपूर्ण कवि की अवांछित उपेक्षा के बाद हिंदी की शैक्षणिक संस्थाएँ और साहित्य अकादमी उसका प्रायश्चित करेंगी!
अनेक महत्वपूर्ण कवियों और लेखकों ने अपनी टिप्पणियाँ लिखीं. उदय प्रकाश का कहना था कि उस समय तक कविता के उन नए प्रतिमानों की स्थापना नहीं हुई थी, जिसके आधार पर सौमित्र मोहन की कविताओं को कसौटी पर परखा जा सके. सबसे महत्वपूर्ण और विचारोत्तेजक टिप्पणी विष्णु खरे की थी.
डॉ. लोठार लुत्से के साथ मैंने हिंदी कविता का एक संचयन ‘der ochsenkarren’ जर्मन अनुवाद में दक्षिणी जर्मनी के फ्राइबुर्ग से अनुदित संपादित किया था. सौमित्र मोहन की कविताओं को पढ़ना-बर्दाश्त करना, समझ पाना आदि आज साठ वर्ष बाद भी आसान नहीं है. कॉलेज और यूनिवर्सिटियों के अधिकांश स्त्री-पुरुष, विद्यार्थी और मुदरिस तो उसकी केंद्रीय कविताओं को पढ़ने के बाद सेमी-कोमा में चले जाएँगे. यही हाल आज के ज्यादातर कवियों-आलोचकों का होगा. लेकिन उसके यहाँ कुछ रचनाएँ बेहद प्रयोगधर्मा, मार्मिक और कामिक भी हैं. ‘न्यू राइटिंग इन इंडिया’ के मित्र संपादक आदिल जस्सावाला 1971 में उसे अंग्रेजी अनुवाद में पढ़ कर देर तक हँसते रहे थे. वह ऐसा देसी कवि है जो एलेन गिन्सबर्ग के पाए का है.
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सौमित्र मोहन का अक्सर अपने बारे में कहना है कि वह सामाजिक प्राणी है. उसे अपने मित्रों से मिलते-जुलते रहना और संवाद करना पसंद है. पिछले वर्ष यतीश कुमार द्वारा संचालित नीलांबर के कार्यक्रम में हिस्सा लेने वह कोलकाता गया. वह यह देख विस्मित था कि इतने अंतराल बाद भी लेखकों और कवियों ने उसे विस्मृत नहीं किया था. श्रोताओं से संवाद करते हुए उसने पाया कि उन्होंने उसकी कविताएँ पहले से पढ़ रखी हैं. अपने साथ ठहरे कवि विनोद पदरज से फोन पर मुझसे बातचीत भी कराई. कार्यक्रम की वह दिनों तक चर्चा करता रहा.
इस संस्मरण को पढ़ते हुए पाठकों को अनेक स्थलों पर क्रमबद्धता और आंतरिक लय टूटती हुई प्रतीत होगी. इसका प्रमुख कारण पिछले दो वर्ष से टुकड़े-टुकड़े में लिखा जाना है. कुछ अपनी आकस्मिक बीमारी और कुछ सौमित्र की अपरिहार्य परिस्थितियों के कारण. विमलाजी का बार-बार अनेक व्याधियों के चलते अस्पताल में भर्ती होना और सारी प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझते हुए उसका भाग-दौड़ करते रहना. बीच-बीच में अवसाद की उस बीमारी की चपेट में भी आ जाना, जिसने पहले संबंध विच्छेद के बाद से उसके मन-मस्तिष्क में स्थायी निवास बना लिया है. मनोबल और होम्योपैथी के सहारे उसे परास्त करने में ही उसका खासा समय खप जाता है.
आज 86 वर्ष की उम्र में भी वह पूरी तरह सक्रिय है. इन दिनों वह अपनी कविताओं, संस्मरण, रात्रि-स्वप्न, चिट्ठियों और साहित्यिक टीपों के मिले-जुले रूप में ‘उर्फ़ की भाषा’ शीर्षक से एक संकलन की तैयारी में मनोयोग से जुटा है.
प्रतिकूल परिस्थितियों में उसे इतना सक्रिय देख अक्सर मुझे लगता है कि उम्र में दस साल बड़ा होने के बावजूद, वह मुझसे दस साल छोटा है.
वरिष्ठ कथाकार अशोक अग्रवाल की सम्पूर्ण कहानियों का संग्रह ‘आधी सदी का कोरस’ तथा ‘किसी वक्त किसी जगह’ शीर्षक से यात्रा वृतांत‘ तथा संस्मरणों की पुस्तक संग साथ’ संभावना प्रकाशन’ हापुड़ से प्रकाशित है. मोब.-८२६५८७४१८6 |
इस अंक के लिए अद्भुत शब्द भी अपर्याप्त है. यह खुद अपने में एक कृति है.
यह बहुआयामी, बहुरूपी संस्मरण एक पुनर्जागरण की तरह भी देखा जा सकता है। तंद्राओं को खोलता हुआ। पठनीय।
बहुत शानदार आलेख. कवि और उनकी कविताओं से बेहतर परिचय कराने में पूर्णतः सक्षम. बहुत श्रम और मन से लिखा गया, साथ ही ईमानदारी भी. एक बार पढ़ लिया, दोबारा तिबारा भी पढ़ूंँगी. उनकी कविताएं अलग से खोजकर पढ़नी हैं. एक बड़े कवि को जैसा मान दिया जाना चाहिये वह इस लेख ने दिया है.
अशोक अग्रवाल जी का हृदय से धन्यवाद! समालोचन को साधुवाद!
बहुत ही जरूरी एक आयोजन। सौमित्र की कविता के प्रति नयी
पीढियों का आकर्षण भी कभी कम न होगा।
सौमित्र जी से एक मुलाक़ात दिल्ली में हुई थी। सहज, मिलनसार व्यक्तित्व ! हम दोनों देर तक स्वदेश दीपक पर बात करते रहे थे। जब मैंने बताया था कि मैंने स्वदेश दीपक पर एक लंबा लेख लिखा है तो उन्होंने अपना ईमेल दिया। दरअसल सौमित्र जी को मैं बरास्ता “मैंने मांडू नहीं देखा ही जान पाया था और उसी के बाद “लुकमान अली” तक पहुँचा था। स्वदेश अपनी किताब में सौमित्र जी की कविताई का ज़िक्र न सिर्फ़ आत्मीयता से बल्कि गहरी अंतर्दृष्टि के के साथ करते हैं।
एक बेहद संजीदा कवि के जीवन और जीवन दृष्टि से परिचित कराता यह लेख बेहद महत्त्वपूर्ण है।
बेहद आत्मीय संसमरण जिसे अशोक भाई ही लिख़ सकते है. उन दिनों के लेखकों में जो ऊष्मा थी, वह याद आती है. दिल्ली लेखकों की राजधानी है, बहुत कम लोग मिलने के बाद याद रहते है. सौमित्र मोहन और उनकी कविताओं को भूला ही नहीं जा सकता है. वे पूरे दिखते आदमी और कवि दोनों हैँ.
मैंने भी ‘लुकमान अली’ उन्नीस सौ अड़सठ में इस के प्रकाशन पर ही पढ़ी थी। तब मैं दि. वि. का छात्र ही था। कविता समझ में नहीं आई थी पर इसे समझने के लिए ताज़िंदगी इसे पढ़ता ही रहा, अब भी यदा कदा इसे पढ़ ही लेता हूं। जब कुछ साल पहले पता चला सौमित्र मोहन का पहला कविता संकलन निकला है मैंने फ़ंरन ही उसे संभावना हापुड़ से मंगवाया। यही नहीं, कई मित्रों से इस की चर्चा भी की, कुछ ने शायद इसे मंगवाया भी। पत्र पत्रिकाओं के समीक्षकों से भी इस की चर्चा की। कुछ ने इस की समीक्षा लिखी, कुछ ने मना कर दिया। ज्ञानरंजन और देश निर्मोही ने ‘पहल’ (जब वह छपती थी) और ‘पल प्रतिपल’ में संग्रह पर कुछ छापने से मना कर दिया। ज्ञानरंजन ने संपादकीय “बोर्ड ” का हवाला देते हुए कहा कि बोर्ड का यही ‘निर्णय ‘ है। मैं इस तरह के पक्षपात पर हैरान था, अचंभित और नाराज़ भी। मुझे पता है कइयों को सौमित्र पसंद नहीं हैं, हाल के बरसों में मुझे भी मेरे प्रति उन का व्यवहार सही नहीं लगा है पर किसी बड़ी रचना या लेखक के साथ इस तरह का prejudices and predilections वाला व्यवहार निहायत ही वाहियात है। मैं कवि को आधी सदी से ज़ाइद जानता हूं। उन्होंने भी ज़िंदगी के नशेब-ओ-फ़राज़ बुरी तरह देखे हैं, झेले हैं। अशोक अग्रवाल जी भी उन से ख़ास-उल-ख़ास सदियों से वाबस्ता रहे हैं। उन का लिखा ज़रूर पढ़ना चाहिए। सौमित्र मामूली लेखक नहीं हैं, कविता में एक नया आयाम लाए हैं। उन्हें पढ़ना चाहिए। जहां तक मेरे व्यक्तिगत ताल्लुक़ का सवाल है, पठान का बच्चा हूं। माफ़ नहीं करता – कम से कम उन लोगों से जिन्हें प्यार किया हैं, मोहब्बतें जतायी हैं, जिन के प्रति बरसों तक मन में श्रद्धा सुमन उगाता रहा हूं।
बड़े बोल बोलने वाले घटिया लोगों की भीड़ में सौमित्र मोहन जैसे प्रतिभाशाली लोग सचमुच अजूबा ही हैं .अशोक अग्रवाल जी ने उन पर लिख कर हिन्दी कविता पर उपकार ही किया है.समालोचन पर विस्तार से लिखा गया आलेख हिन्दी साहित्य की प्राध्यापकीय आलोचना कुछ लिए एक मील का पत्थर है. अगर उनकी आंखें खुल सकें वरना वे तो हमेशा से रतौंधी के शिकार. हैं….
अशोक जी संस्मरण के सूफ़ी साधक हैं. उन्होंने तटस्थता और आत्मीयता को जिस तरह साधा है, उसके चलते संस्मरण एक विरल अनुभव बन जाता है.
मुझे यह बात अलग से ग़ौर करने लायक़ लगी— वे सौमित्र जी का गुणगान नहीं करते— केवल कुछ ब्योरों, प्रसंगों, स्मृति और घटनाओं के सूत्रों को एक-दूसरे में कुछ इस तरह व्यवस्थित कर देते हैं कि फिर कवि के वैशिष्ट्य- विलक्षणता पर अभिधा में कहने की ज़रूरत नहीं रह जाती.
इस संस्मरण में आत्मीयता का निर्वाह भी कुछ इसी तरह हुआ है. अशोक जी इसकी घोषणा या प्रदर्शन नहीं करते— हम छोटे-छोटे प्रसंगों के ज़रिए इसे ख़ुद महसूस करते हैं. शिल्प के स्तर पर यह अशोक जी का एक ख़ास योगदान है.
बहरहाल, सौमित्र जी के एकाकीपन, उनके भीतरी और बाहरी संघर्ष, उनके कृतित्व पर लंबे समय तक बरती गयी चुप्पी का यह स्केच कविता की एक विशिष्ट आवाज़ को अभिलेखित करने जैसा है.
बिना पक्षपातपूर्ण हुए, आलंकारिक भाषा से दूरी रखकर किसी व्यक्ति अथवा वस्तुस्थिति का निरूपण करने में अशोक अग्रवाल जी माहिर हैं। ऐसी पटुता विरल है। बहुत महत्वपूर्ण आलेख।
धन्यवाद कहना चाहती हूं लेखक को कि उन्होंने इस लेख के माध्यम से मेरे पसंदीदा कवि से थोड़ा और मिलवाया। लुकमान अली को बार- बार पढ़ती हूं। जब भी जी अटकता है आधा दिखता वह आदमी में मुझे राहत मिलती है। कविताएं उनके शब्दों और अर्थों से दूर कहीं किसी अवकाश में खुलती हैं और मुझे अपने प्रिय कवि सौमित्र मोहन की इन डेढ़ सौ में एक कम कविताओं से और मोह बढ़ाती जाती हैं। जीवन यदि अनुदार न रहे तो सम्भवतः एक अच्छा कवि कभी जन्मे ही नहीं। बहरहाल बहुत शुक्रिया। मैंने मांडू नहीं देखा पढ़ते हुए ही मैंने पहली बार सौमित्र मोहन का नाम पढ़ा था। उनके बारे में स्वदेश दीपक के लिखे हुए ने मेरे अंदर एक उत्कंठा जगाई थी कि इन्हें पढूं। फिर जब संग्रह आया तो उसी वर्ष खरीदा। मेरी अतिप्रिय किताब है आधा दिखता वह आदमी, लुकमान अली।
अशोक जी के संस्मरण अद्भुत होते हैं । आज सौमित्र जी से मिलवाने का शुक्रिया । समालोचन के पूर्व के अंक उपलब्ध हुए तो पढ़ूँगा । नहीं तो अरुण देव जी से पुनर्प्रकाशन का आग्रह है । अशोक जी स्वस्थ रहें , लिखते रहें यही कामना है । सौमित्र जी की संपूर्ण कविताएँ भी मंगा कर पढ़ता हूँ । आज के अंक के लिए साधुवाद ।
बहुत अच्छी और आत्मीय टिप्पणी।यह अशोक जी ही लिख सकते थे। दिल्ली में रहते हुए भी सौमित्र जी को दूर से ही जान पाया।वह इतने रिजर्व, विनम्र और एकाकी हैं।गौरीशंकर कपूर जब मयूर विहार फेज-1 में रहते थे,तब सौमित्र जी और उनकी आपसी घनिष्ठता की कुछ झलक देखी।
सौमित्र मोहन के व्यक्तिगत को लोग बहुत कम जानते हैं। आपने उनके तमाम जीवन प्रसंगों के साथ सृजन के प्रति गहरी सन्नद्धता को उभारा है। कविता के उस दौर का भी पुनरावलोकन होना चाहिए। आपका और समालोचन का आभार !
अद्भुत! अद्भुत! अद्भुत!! बस, इतना ही कह पाऊंगा। और क्या कहूं, कैसे कहूं, नहीं जानता। वह भाषा शायद अभी तक अर्जित नहीं कर पाया। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में जब शोध कर रहा था, सन् 1975 के आसपास ‘लुकमान अली’ से भेंट हुई थी। तब से लुकमान अली कविता नहीं, एक जिंदा पात्र बन गया था और वह बराबर मेरे साथ रहने लगा। कभी दोस्ताना अंदाज में, कभी बुरी तरह लड़ता झगड़ता हुआ। एक दौर में तो वह इतना हावी था कि मैं जो कुछ लिखता, उसमें उसकी छाया जरूर होती।
लुकमान अली आज भी पीछा करता है और उससे बतियाना मुझे प्रिय है।
अशोक अग्रवाल जी के संस्मरणों का मैं मुरीद हूं। मुझे खुशी है कि उन्होंने आज सौमित्र से मिलवा दिया।
एक आखिरी बात यह भी कि मेरे कथा गुरु सत्यार्थी जी सौमित्र के बेहद प्रशंसक थे और अक्सर उनका जिक्र करते थे। सौमित्र का खींचा हुआ उनका एक अद्भुत छायाचित्र सत्यार्थी जी की आत्मकथा ‘नीलयक्षिणी’ में है।
इस सुंदर और लाजवाब संस्मरण को पढ़वाने के लिए भाई अरुण देव जी का आभार!
स्नेह,
प्रकाश मनु
लाजवाब
एक लम्बे संघर्ष पूर्ण दौर से रूबरू कराता सिलसिला
ऐतिहासिक दस्तावेज
–हरिमोहन शर्मा
यह संस्मरण आज की युवा साहित्यिक पीढी के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण दस्तावेज़ की तरह है। अपने अग्रज कवि की संघर्ष गाथा को जानना उनकी सृजनधर्मिता के बारे में पढ़ना बहुत हृदयस्पर्शी लगा। कविताओं के बाह्य शिल्प के बारे में उनकी सोच बड़ी रोचक है। श्रीकांत वर्मा की कविताओं में भी प्रस्तुतिकरण की एकदम भिन्न लय थी। कवि का वह संकल्प बहुत प्रेरक है कि अल्कोहोलिक नहीं बनूँगा। सौमित्र जी के बारे में यहाँ जितना पढ़ा, उससे यही लगा कि कवि होना सच में बहुत मुश्किल है (कविता लिख लेना अलग बात है, कवि होना एकदम दूसरी बात। बहुत कम वक्तियों में ये दोनों गुण एकसाथ मिल पाते हैं)। उनके सादगी, सौम्यता भरे स्वभाव को सलाम और साहस को भी। जो उनके लेखन और व्यक्तित्व दोनों में दिखता है। वे लौटे हैं, ऐसा कहना ठीक नहीं। साहित्य जगत का और हमारे समाज का यह भी दायित्व है कि अपने लेखकों के प्रति संवेदनशील व चिंतित रहे। कवि ने तो निश्चित ही बिना हल्ले हंगामे के अपना सृजन जारी रखा है। उनके स्वस्थ व दीर्घायु होने की कामना।। सतत सृजनरत रहें।
इस आत्मीय संस्मरण के लेखक अशोक जी के प्रति कृतज्ञता कि उन्होंने सौमित्र मोहन जी का स्मरण कराया।
कितना कुछ सीखने को मिला जीवन साहित्य और कला दुनिया के बारे में
सुन्दर आलेख, बहुत मन से लिखा गया, अशोक के कई संस्मरणों की याद दिलाता हुआ!
अशोक अग्रवाल जी हर बार अपने संस्मरणों के माध्यम से जिस तरह से किसी कवि लेखक या अपने किसी मित्र पर लिखते हैं वह केवल पाठकों के लिए पढ़ना भर नहीं होता है उसके साथ जीना भी होता है। सौमित्र मोहन जैसे कवि पर एक अलग अंदाज से लिखना जिसमें आत्मीयता के साथ साथ उसके चरित्र और व्यक्तित्व पर एक भरपूर रोशनी हो केवल अशोक अग्रवाल जी ही संभव कर सकते हैं ।इधर उनके लिखे गए संस्मरण हिंदी साहित्य की अक्षुण्ण उपलब्धि की तरह है । सौमित्र मोहन को सचमुच हिंदी साहित्य ने विस्मृत कर दिया था अशोक जी ने उन्हें पुनः केंद्र में प्रतिष्ठित कर दिया है । अशोक जी और समालोचन को बधाई।
मेरे सिरहाने एक किताब “आधा दिखता वह आदमी”
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वरिष्ठ कवि सौमित्र मोहन ( ज. १९३८, लाहौर ) की नई किताब, जो उनकी चुनी हुई १४९ छोटी-बड़ी कविताओं का ‘संभावना प्रकाशन’, हापुड़ से छपा सम्पूर्ण कविताओं का संकलन है- “आधा दिखता वह आदमी” मुझे प्रकाशन के ततकाल बाद डाक से और इस बीच उसे लगभग पूरा उलट-पुलट भी गया हूँ – इसलिए कि सिर्फ इस किताब की रस्मी-पहुँच ही कवि को और प्रकाशक को न दूँ , सरसरे ढंग से पहली दफा में मन में जो कुछ बना- उस आधे-अधूरेपन में भी आप को शामिल करूं ये फिर से ज़ाहिर और साबित करते हुए कि मैं समीक्षक नहीं हूँ – महज़ एक पाठक ही हूँ, और यह टिप्पणी किसी भी कोण से एक मुकम्मल ‘समालोचन’ तो खैर है ही नहीं !
प्रसिद्ध चित्रकार जय झरोटिया के सार्थक आवरण-पृष्ठ और भीतर दो एक सर्जनात्मक रेखांकनों से सज्जित इस संचयन से गुज़रते हुए एक पाठक के बतौर मुझे ये सारी रचनाएं ‘प्रचलित’ से अलग पगडंडी और दिशा की तरफ जाती ‘प्रयोगप्रिय’ कवितायेँ लगीं; और मुझे यह भी ज़रा जल्दी से कह देना चाहिए-यह अलग जाना बेशक सौमित्र मोहन के कलाप्रेमी-कवि का का कथ्य और निर्वहन, दोनों निगाहों से, भरा-पूरा मौलिक प्रस्थान है |
सौमित्र मोहन को भले ही ‘अकविता’ के एक ‘कोष्टबद्ध कवि’ की शक्ल में हिंदी-कविता के एक दौर-विशेष में जहाँ अपने साथ के कुछेक कवियों – राजकमल चौधरी, मलयराज चौधुरी, जगदीश चतुर्वेदी, शलभ श्रीराम सिंह, मोना गुलाटी, गंगाप्रसाद विमल आदि २ के साथ जल्दी से पहचान लिया गया हो- भले ही इन सब की कीर्ति और कमोबेश उनकी कविता की ‘प्रासंगिकता’ या मूल्यवत्ता बस एक धूमकेतु की तरह ध्यानाकर्षक, पर क्षणिक रही हो- सहानुभूत आलोचना की गैर-मौजूदगी का खामियाजा सौमित्र मोहन को भी ज़रूर उठाना पड़ा होगा क्यों कि एक काव्यान्दोलन के रूप में ‘अकविता’ का प्रभा-मंडल निष्प्राण और निस्तेज होते ही, उनकी बकाया गैर-आन्दोलनवादी कविता भी समय द्वारा (या कुछ हद तक आलोचना द्वारा ) हाशिये पर धकेल दी गयी | ‘कविता के नए प्रतिमान’ में तो नामवर जी ने शायद ‘अकविता’ पर तो एक वाक्य भी नहीं लिखा, ‘फ़िलहाल’ में आलोचक अशोक वाजपेयी ने ज़रूर सौमित्र मोहन की कविताओं पर कुछेक पैरेग्राफ लिखते इस आन्दोलन के दौरान ही उपजी उनकी ‘लुकमान अली’ कविता की मलामत इन शब्दों में की थी- …….. “पूरी कविता चित्रों, बिम्बों, नामों, चुस्त फिकरेबाजी, सामान्यीकरण का एक बेढब सा गोदाम बन कर रह गयी है | लुकमान अली जैसे सार्वजनिक- चरित्र काव्य-नायक के होते हुए भी कविता में कोई गहरी नाटकीयता नहीं आ पाती और कविता भाषा और बुनियादी तौर पर ‘लिरिकल’ कल्पनाशीलता की, अगर कमलेश के एक सहबद का प्रयोग काटें, ‘फिजूलखर्ची’ बन कर रह जाती है |…” नतीजन सौमित्र जी को खुद इस संकलन “आधा दिखता वह आदमी” के अपने वक्तव्य “आरंभिक” में कहना पड़ा है – ….. “1960 के दशक में हुए लेखन को ज़ोरदार आलोचक नहीं मिले, अन्यथा इस पीढ़ी को ‘अराजक’ कहे जाने की शर्म नहीं उठानी पड़ती ….” हालाँकि ( आलोचक नहीं ) कवि, केदारनाथ अग्रवाल की टिप्पणी को वह ‘अकुंठ, खरी और ‘पौज़िटिव’ प्रतिक्रिया’ के रूप में कृतज्ञता से याद करते हुए स्वीकारते हैं- ‘उस लेख ने इन्हें लिखने का हौसला दिया |’ यहाँ मैं नयी एक सांस्कृतिक बहस के बीज छिपे देखता हूँ – रचना और आलोचना के अंतर-संबंधों पर दुबारा बहस की संभावना |
बहरहाल अभी तो सौमित्र जी पर ही टिकें| अगर इस किताब के बारे में अपने मन में उपजी पहली और टटकी राय देनी पड़े तो मैं कहूँगा- कविता की एकतानता एकरसता और रूढ़ बद्धता को तोड़ने की मुहिम के अंतर्गत लिखी यह किताब उस पहल की तरफ भी इशारा करती है जहाँ एक साहसी कवि अपनी भाषा और कविता-संरचना में बहुत कुछ मौलिक होने की कोशिश कर रहा है- अलोकप्रिय होने, कहीं-कहीं या अक्सर भाषाई स्फीती, और काव्यात्मक-अर्थहीनता के खतरे उठा कर भी कुछ ‘हिम्मतवर’ कुछ मौलिक, कुछ मूर्तिभंजक कविता रचने की बड़ी ‘लाउड’ सी पहल …… और मुझे यहाँ यह भी लिख देना चाहिए कि उनकी इस किताब में चुनी गयी किसी भी रचना में ‘अश्लील’ होने का आक्षेप निराधार है, मुझे उनकी कविता कई जगह भले ‘अर्थ्च्युत’, व्याकरणअसम्मत और ‘सायास’ या प्रयत्नसाध्य कविता लगी हो – उन पर लगाये गए अश्लीलता के आरोप में दम नहीं है ! (‘पुनरावलोकन” नहीं, जैसा सौमित्र जी की एक कविता का शीर्षक है- व्याकरण के लिहाज़ से सही शब्द ‘पुनरवलोकन’ या ‘पुनर्विलोकन’ ही बनता है !)
कवि के एक और स्थाई अफ़सोस का बयान किया जाय ! सौमित्र जी लिखते हैं- ……… “ मुझे अक्सर ‘अकविता’ के खांचे में रख दिया जाता है लेकिन मेरी गति और नियति वही नहीं है | मैंने कविता को अपने ढंग से बरता है – इस में अति यथार्थवादी बिम्बों, फेंटेसी और एरोटिक सन्दर्भों का भरपूर प्रयोग हुआ है | अपनी दुनिया को समझने का यह मेरा तरीका है | जो बाहर है वही भीतर है | मेरे लिए यथार्थ के दो अलग स्तर नहीं हैं |….”
बात में दम है | यहाँ फिर प्रश्न आलोचना की वैधता का खड़ा होता है | क्या एक कवि को आजीवन एक ही कटघरे में कैद खड़ा रखा जा सकता है ? मैंने सौमित्र मोहन की किताब बिना उनकी संक्षिप्त भूमिका पढ़नी शुरू की थी और कवितायेँ पढ़ जाने के बाद, सब से अंत में ‘भूमिका’ पर आया, किन्तु अगर वह अपनी व्यथा न लिखते तब भी मेरा जैसा अनपढ़ पाठक भी यह तो जान ही लेता कि उन्होंने कविता लिखने के एकाधिक रूप अपनाए हैं : ‘अकविता’ वाला जाना-पहचाना ढंग भी उनसे छूटा है और बीच-बीच में विषय और कहन के अनुरूप कविता के फॉर्म की ओर भी उन्होंने अपनी दिलचस्पियों को मंद पड़ने नहीं दिया है |
सौमित्र मोहन की कविता के सम्बन्ध में सब से महत्वपूर्ण तथ्य, जिसका उल्लेख शायद इन पंक्तियों के अलावा और किसी ने आज तक शायद ही किया हो ( ज्योतिष जोशी जैसे हमारे कॉमन-मित्र ने भी नहीं – जिन्होंने पुस्तक का ब्लर्ब लिखा है) कि सौमित्र ऐसे कवि हैं जिनकी रचना पर अगर सब से स्पष्ट और गहरा असर है तो वह अपनी या पश्चिमी साहित्य परम्परा का उतना नहीं, जितना आधुनिक-कला का है ! एक साहित्येतर विधा – चित्रकला के प्रभाव से उन्होंने अगर अपने लिए अपनी कविता के लिए काव्य-विचार और उसकी भाषिक-सरणी का चुनाव किया है तो वह हिंदी के उन अपवाद कवियों में से हैं ( जिन में मैं खुद अपने आप को शामिल करता हूँ ) जो Abstract Expressionism, Neo-Expressionism, Graffiti-Art, Modern Sculpture, Advertizing, Installation आदि से कई चीज़ें अनजाने में अपने अध्ययन या दिलचस्पी की वजह से अचेतन प्रभाव के रूप में सहज ही लेते हैं….साहित्य में आधुनिक-कला से इस तरह लेना- कोई पोर्ट्रेट बनाना नहीं, एक एब्सट्रेक्ट मल्टी-मीडिया कोलाज की रचना करने जैसा है! इस तरह सौ. मो. की कविता में परम्परा से भिन्न होने का संकल्प ही वह ध्वज-दंड है जिसे थाम कर वह हिचकोले देती ऊबड़ खाबड़ सड़क पर कविता का रास्ता तय करते हैं- कभी दौड़ते, कभी हाँफते, कभी ठिठकते हुए !
मुझे अब यह भी शायद लिख देना चाहिए कि भले कविता की प्रकृति का क्षण-केन्द्रित होने के नाते अधिकांशतः फौरी महत्व रहा हो- उनकी पूरी रचनाधर्मिता को एक वृहत्तर आशय में देखा जाना ज़रूरी है और वह यह कि दार्शनिक गहराई, काव्यात्मक-निस्संगता, और तटस्थ-भाव की अनुपस्थिति की अपनी सीमाओं के बाजूद अपने तत्क्षण और तत्काल में ये रचनाएं भाषा-कौतुक, दुस्साहसी खिलंदड़ेपन, विपर्यस्त-मुहावरे और भिन्न करने कहने के उपक्रम में हिंदी की कविता में कुछ बेढब/ अटपटा/ रोचक/ और मौलिक भी जोडती हैं और यही प्रकारांतर से कवि-कर्म की उनकी सार्थकता भी है |
यहाँ एक और बात पर गौर किया जाना ज़रूरी है – और वह है- कविता के कथ्य से उसके शीर्षक का अ-साम्य ! जगह की कमी से ज्यादा उदाहरण दिए जाने संभव नहीं है, पर पृष्ठ १०१ पर एक कविता है- ‘राष्ट्रीयकरण’ जो कवि के मित्र जगदीश चतुर्वेदी को समर्पित या उन्हें संबोधित है…इसकी अंतिम पंक्तियाँ :
एक मेज़ में सुराख़ कर के वह नीचे समुद्र खोज रहा है
उसने अपनी जुराबें हाथ में पहन ली हैं
कल वह अपने पछतावे दूसरों की जेबों में रखता रहा था
उसने देखा था कि घुटनों में मुखौटे बाँधने से लोग डरते नहीं
वह इन सारी स्थितियों का ज़िम्मेदार खुद था
“माफ़ कीजिये ! देखिये आप अज्ञेय पढ़ें या शमशेर,
आप अंडर वियर ज़रूर साफ़ और धुला हुआ पहनें ! खुदा हाफ़िज़!”
ज़ाहिर है अपनी कविता-भाषा में सौमित्र मोहन आधुनिक चित्रकला के रास्ते से आने वाले अतियथार्थवादी बिम्बों के सहारे अनुभव को सान्द्र और कुछ हद तक दुर्बोध/ जटिल बनाने के पक्षधर तो निस्संदेह हैं पर मेरे जैसे साधारण पाठक के निकट ऐसी सनसनीखेज़ पंक्तियों का विसर्जन भी एक खास तरह के भाषाई निरर्थकता-बोध में ही होता है | किन्तु यहाँ मुझे बरबस कृष्ण बलदेव वैद साहब जैसे असाधारण रूप से अच्छे कथा लेखक की स्मृति में लौटना ज़रूरी लगता है जिनके सारे गद्य-सफ़र में भाषा का ऐसा अटपटा/चटपटा बर्ताव बेहद ज़िम्मेदार तरीकों से आया है और बार बार आया है | भाषा को तोडना मरोड़ना भी एक मान्य और स्वीकृत रचना-प्रविधि है- अपने भीतर की उथल पुथल, व्यग्रता, असंतोष , ऊहापोह और बेचैनी के रूपायन की कोशिश, किन्तु भाषिक संरचना में अराजक विपर्यस्तता और अनुत्तरदायी प्रयोगशीलता प्रारंभिक रूप से आप को एक पल के लिए चमत्कृत ज़रूर करती है- सघन काव्यानुभव में बदलने से पहले ही यह फिकरेबाजी एक जल्दी से बुझ गयी फुलझड़ी का असर देती जल्दी ही बुझ भी जाती है | स्मृति में नहीं टिकती ….शायद अकविता के साथ ये समस्या कुछ ज्यादा ही रही थी ! प्रसंगवश मैं यहाँ अपनी लिखी उस अत्यंत कड़ी समीक्षा की याद ज़रूर करूंगा जो मैंने अशोक जी की पत्रिका ‘बहुवचन’ में कवयित्री तेजी ग्रोवर की एक किताब के प्रसंग में लिखी थी | या तो गोविन्द द्विवेदी जी ने ‘पूर्वग्रह’ में मेरी लम्बी कविता ‘जारी इतिहास के विरुद्ध’ (१९७३) की ऐसी कड़ी समीक्षा लिखी होगी या मैंने तेजी ग्रोवर की उस किताब की ! पर हाँ, अगर सौमित्र मोहन की इन कविताओं को सन साठ के मोहभंग-काल के परिप्रेक्ष्य में देखें, तो यह कहा जा सकता है- वह अपनी नकारात्मक शैली में भी, मानवीय-संबंधों और बदलते समय-समाज के अनेक विद्रूप एक ऐसे मल्टीमीडिया कोलाज की सूरत में उपस्थित करना चाहता है जिसके चित्रकार के लिए पहली प्राथमिकता है अभिव्यक्ति, संप्रेषण शायद उतनी नहीं….इसलिए यह आकस्मिक नहीं कि यहाँ बहुत सारा ऐसा हिस्सा है जो लगभग अमूर्त क्षेपक है, जैसे अनुपयोगी खरपतवार !
आधुनिक शहरी मनुष्य के केन्द्रविहीन होने के त्रास की ये रचनाएं एक विसंगत, निरर्थक और टूटे बिखरे जीवन पर कविता के उस आर्तनाद जैसी भी हैं जो लिखे जाने के इतने बरसों बाद करुण आर्तनाद की बजाय अब एक अरण्य-रोदन सा लगता हो- अपने समय के व्यर्थ-बोध विसंगति और पाखण्ड को बहुत कुछ गद्यात्मक ढंग से पहचानने और उसके दंश-विष से अपनी भाषा को साहसिक बनाते हुए एक प्रत्कार में तब्दील करने का प्रयोजन भी इस आर्तनाद या अरण्य रोदन का है ! सौमित्र मोहन को सिर्फ इसलिए नहीं पढ़ा जाना चाहिए कि हमें हिंदी कविता के बदलते हुए मिजाज़ के चित्र मिल सकें और सिर्फ इसलिए भी नहीं कि हापुड़ के संभावना प्रकाशन ने बहुत सुरुचिपूर्वक ये किताब छापी बल्कि इसलिए कि यह एक समय के चर्चित रचनाकार की पहलों और प्राथमिकताओं का ब्यौरा देती किताब भी है – अपने समय से उसकी असहमतियों का घोषणा-पत्र भी तो यह है ही !
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