आमिर हमज़ा की कविताएँ |
नकबा ‘1948’
कभी एक जगह हुआ करती थी…सपनों की जगह…
तितलियों की…होने की…चलने की संग-साथ रोशनी में महताब की.
जहाँ कुछ दरख़्त ज़ैतून के. कुछ परिंदें. आँखभर उम्मीदें. कुछ कम बुझे मुरझाए फूल. एक अटका पत्ता पीले हरे की कश्मकश में. गालभर पानी और दो हाथ एक दूसरे का भरोसा बनते हुए.
उस साल बारिश बहुत बहुत हुई ख़ून की
उस साल परिंदें हवा में गुम गए
उस साल दरख़्तों पर ज़ैतून के हरा न आया
उस साल फूलों को खिलना नसीब न हुआ
उस साल हाथों पर, हाथों में बंदूक़ थामे सरहदें खींची गईं
उस साल एक मलंग के मुँह से बद्दुआ का सोता फूटा
उस साल एक परिंदे ने एक परिंदे को परवाज़ न करने की क़सम दिलाई
उस साल और फिर यों अब हर साल
… फ़लस्तीन
इंसानियत के चुक जाने के दौर का क़िस्सा हुआ एक.
ज़ंग खाई चाबी
(तमाम फ़लस्तीनी अवाम के लिए)
एक चेहरा मुझे पीछे की ओर ले जाना चाहता है ख़ामोशी से घूरते
उसी बेहद कम पीली रोशन जगह में जहाँ कुछ सीढ़ी उतरती और चढ़ती हैं कुछ देह लथपथ ख़ून से
काला लिबास पहने मातमी. यह बुर्क़ा नहीं है. उस जैसा कुछ भी नहीं.
कुछ चाय भरे हाथ हैं मेरे गिर्द घड़ियों की क़ैद से आज़ाद
ख़ाली कुछ लोग हैं मेरे गिर्द इतने भी नहीं लेकिन मुब्तला
क़त्ल का इरादा दिल में लिए.
फिसलन भरा फ़र्श जहाँ खड़ा होना ईमानदारी और बेईमानी के बीच का कोई नाम है जो मैं नहीं जानता.
कुर्सी पर चुपचाप बैठी है एक देह जिसका लिबास काले से कुछ दूर का है.
बंद कमरा.
यही चेहरा हाँ बिलकुल यही.
यह अभी उतरती हुई रात का ख़्वाब है. यह ख़्वाब ज़बानी मैं कह नहीं सकता.
लिख सकता हूँ-
होंठ सिले जा चुके हैं…
दरवाज़ों को खा गईं हैं दीमकें…
ज़मीं सुर्ख रंग से सनी है…
पत्थरों से पहरे की बू आती है…
दरबान चौकस हैं…
लिख सकता हूँ-
यक़ीन एक मर चुका शब्द है
दफ़नाए जाने से बचा हुआ.
उम्मीद एक बैठी हुई क़ब्र का नाम
ना-उम्मीदी से भरा हुआ.
और फ़लस्तीन अब
भागते हुए साथ ली गई ज़ंग खाई चाबी एक
जिस पर लाल गाढ़े गरम ख़ून से लिखा है ‘घर’.
लानत-ए-कविता जहाँ तक पहुँचे…पहुँचे
वे अच्छे कवि नहीं थे…
अच्छे कवि होने की तमाम प्रचलित परिभाषाओं में स्वीकृत
वे समझदार थे…दुनियावी जालसाज़ी से भरपूर
उनकी लगभग कविताएँ बकवास होने की संभावनाओं से भरी हुई थी.
उनका अपना कहन था…मुखौटा लगाए बाँचता हुआ फ़रेबी ज़बान
यह शब्दों को वाक्यों में बेवजह ख़र्च करना था.
वो बारिश पर लिखते बारिश से दीखते थे…
बावजूद इसके वो बारिश नहीं थे.
वो फूल पर लिखते फूल से दीखते थे…
बावजूद इसके वो फूल नहीं थे.
उनकी कविताएँ काँटों की तौहीन थी.
वो सड़क पर चलते लेकिन सड़क का भयावह उनकी कविताओं का विषय नहीं था.
वो अख़बार पढ़ते लेकिन अख़बार की मवाद उनकी कविताओं का विषय नहीं था.
वो रेड लाइट होने पर सड़क के बीचो-बीच करतब दिखाते बच्चों से वाक़िफ़ थे.
बच्चों की आँखों में ग़रीबी का स्याह उनकी कविताओं का विषय नहीं था.
वो फ़लस्तीन पर इस्राइली हैवानियत से वाक़िफ़ थे
मृत पड़े बच्चे के हाथ चूमती माँ के आँसू. अपने नन्हें बच्चे के पैर का विदारुपी बोसा लेते बाप की रुलाई. कफ़न में लिपटे एक पाँच वर्षीय बच्चे मुहम्मद हनी अल-ज़हर का मुँह खोले तकना आसमान को. माँ के गर्भ में बच्चे जो जन्मे असमय मृत. अभी अभी दफ़नाए गए बच्चे की क़ब्र की ताज़ा मिट्टी. बमबारी में ध्वस्त हुए लोगों के चीथड़े अब न जिनके हाथ बचे हैं न पैर. कफ़न से भरा मैदान जिसे फलों-फूलों से भरा बगीचा होना था. ख़ून सने ख़ूब ख़ूब चेहरे जिन पर लिखा है बेकसूर…उनकी कविताओं का विषय नहीं था.
वो यूक्रेन से वाक़िफ़ थे
दर्द विस्थापन का उनकी कविताओं का विषय नहीं था.
वो मुल्क के मुख़्तलिफ़ हिस्सों में बलात्कार करके फेंक दी गई लड़कियों की ख़बर से वाक़िफ़ थे
बलत्कृत लड़कियों की चीख़ उनकी कविताओं का विषय नहीं था.
वो मॉब लिंचिंग से वाक़िफ़ थे
घुटनों के बल सड़क के बीचो-बीच पड़ा एक टोपी पहना लहूलुहान मुसलमान उनकी कविताओं का विषय नहीं था.
वो राजधानी के उत्तर-पूर्वी इलाक़े के रिक्शों पर बैठने से वाक़िफ़ थे
रिक्शा खींचते सूज गए पैर पर पड़े छाले उनकी कविताओं का विषय नहीं था.
वो नई बनती इमारत में काम करती दिहाड़ी मज़दूरिन से वाक़िफ़ थे
ईंट ढोती दिहाड़ी मज़दूरन के सिर का ज़ख़्म उनकी कविताओं का विषय नहीं था.
यों सब्रदार कविता ने
इन मुखौटा कवियों पर कविता लिखी तो
लानत लिखा एक रोज़.
एक कवि का बयान अशीर्षक
(बीते साल इस्राइली हमले में मारे गए फ़लस्तीनी कवि रेफ़ात अल-अरीर के नाम)
वह कविताएँ लिखता था.
वह और और कविताएँ लिखना चाहता था. लेकिन एकाएक उसने एक रोज़ कविताएँ लिखना छोड़ दिया. या कि कविता ने उसे छोड़ दिया.
यह ठीक ठीक न वह जानता था और न कविता जानती थी.
मनुष्यों के इतर अब उसे चाह थी एक पेड़ एक घर की सोहबत की
वह पेड़ से टूटता आता पत्ता देखता तो उसे अपने भीतर कविता टूटती दिखलाई पड़ती. उसे उसकी आँखों के सामने लाल छींटे दिखलाई पड़ते लहू के.
वह गिलहरियों को…
चिड़ियों को…
दीवार पर चलती जाती कतारबद्ध चीटियों को देखता और मन ही मन कविता कहने लगता.
और वह फिर अपने भीतर के मन में लाश की आँख से झाँकता और कविता का क़त्ल कर देता.
वह चार्ली चैपलिन की मानिंद जिसे वह अपना महबूब नज़र वाला कहा करता डर्बी हैट और बड़े बड़े जूतों को पहन दुनिया का चक्कर लगाने का तसव्वुर किया करता.
दरअस्ल वह हर संभव कविता से भागना चाहता था. कहाँ वह नहीं जानता था.
वह अब दर्द में था. वह अब कविता में नहीं था.
अब दर्द उसमें था. अब कविता उसमें नहीं थी.
और यों नवंबर के मातम में चेहरे पर ख़ून के छींटे लिए
जब आसमान से बम-ओ-बारूद की शक्ल में
बच्चों के सिर पर मुसलसल बरस रही थी मौत
अपनी आँखों को बंद कर पढ़ते हुए—
‘इन्ना लिल्लाही व इन्ना इलैही राजिऊन’
उसने कविता से अपने संबंध-विच्छेद की औपचारिक घोषणा की.
फिर कुछ नहीं बहुत कुछ एक रोज़
एक कवि कविता में हरा पत्ता न तोड़ने की गुज़ारिश करता था
यों मैंने कभी हरा पत्ता नहीं तोड़ा.
एक कवि कविता में उदासी के हरा होने के पक्ष में बोलता था शाख़ से टूट जाने की हद तक
यों मैं उदासी के हरे की शाख़ से टूट जाने की हद तक प्रतीक्षा करता था.
हवा की छुअन ऐसी थी उन दिनों कि पत्ते चिनार के
चिनार की देह से छूट छूट शून्य में बिखर ज़मीं का बोसा लेते.
यों फिर आवारगी में लगभग ख़ाक हुआ कवि एक
प्यार में चिनार की पत्तियाँ अपनी प्रेमिका की पीठ पर रख
प्यार बोता था.
वह उन दिनों सिर्फ़ छुअन की भाषा जानता था
जिसे वह होंठों की रोशनाई से गढ़ता था.
पीर पंजाल की पहाड़ियों से लौटते हुए
(उस पहाड़ी लड़की की हँसी के लिए जो कविता लिखती है और भूल गई है मातृभाषा अपनी)
मृत्यु आएगी प्यार ढूँढने हिस्से का अपने ज़मीं पर इसी.
पत्ते पतझड़ के…
ख़त यार के…
यादें साथ की…
ख़ाब गिलहरी के…
और उसका यह कहना-‘हमें याद करके दुखी मत होना’
आग के काम आएँगे एक रोज़ सर्द रातों में
ज़मीं पर इसी.
हाथों पर लकीरें होंगी विदा की क़रीब-तरीन
ठूँठ पर कौआ बैठकी दरख़्तों की
ज़मीं पर इसी.
एक बंजारा…
एक लकड़हारा…
एक चरवाहा…
गीत गुनगुनाएगा मग्मूम आवाज़ में कोई
ज़मीं पर इसी.
मृत्यु ख़ामोशी का ककहरा रचेगी दरमियाँ भाषा के
मृत्यु रोएगी बिलख बिलख हिज्र में महबूब के
माथे पर अपने राख रगड़े जले चिनार की…देखने में ब्यूंस के
एक रोज़…
ज़मीं पर इसी.
मैं लिखूँगा लबों से पेशानी पर नाम तुम्हारा
जानाँ…तुम प्यार समझना.
दिन-दोपहरी सफ़दरजंग के मक़बरे पर
एक क़ब्र की गवाही
लगावट ताख़ की
ख़ामोशी आवाज़ की…कुछ गर्माहट स्पर्श की
निशाँ माज़ी के
रोशनी आफ़ताब की किनाराभर
मिलने के लिए चुराया गया एक टुकड़ा शाम का ज़िंदगी की बज़्म से
फ़ज़ा में ख़ुशबू लोबान की
सोहबत दरीचे के पेड़ की
मैं चाहता हूँ दिल्ली!
कविता जो चरवाहे के लबों का बसेरा है
(रसूल हम्ज़ातोव की किताब ‘मेरा दाग़िस्तान’ को पढ़ते हुए)
आसमां का होना बादल से है. बादल का होना बारिश से.
बारिश का होना समंदर से है. समंदर का होना नदी से.
नदी का होना जंगल से है. जंगल का होना पेड़ से.
और होना पेड़ का चरवाहे के काँधे पर रखी
गठरी में बँधी-
धूप मिट्टी और हवा से.
चाहते हो आसमां! बचाओ बादल को
चाहते हो बादल! बचाओ बारिश को
चाहते हो बारिश! बचाओ समंदर को
चाहते हो समंदर! बचाओ नदी को
चाहते हो नदी! बचाओ जंगल को
चाहते हो जंगल! बचाओ पेड़ को
और चाहते हो पेड़! चरवाहे के काँधे पर रखी गठरी में बँधी-
धूप मिट्टी और हवा को बचाओ.
चरवाहे को बचाओ!
उसकी गठरी को बचाओ!!
गठरी में बँधी धूप मिट्टी और हवा को बचाओ!!!
बचाओ!
बचाओ!!
बचाओ!!
मेरे बुज़ुर्गों का क़ौल है.
शहर में विकास ज़ोरों-शोरों पर है
(उस दिहाड़ी मज़दूरन के नाम जो इस कविता को कभी नहीं पढ़ेगी)
शहर में भवनों-इमारतों का निर्माण और शहर का विकास
ज़ोरों-शोरों पर है
वहाँ काम करती औरत और उसकी पीठ पर बँधा बच्चा
औरत का कराहना बच्चे का रोना-चिल्लाना
ज़ोरों-शोरों पर है
काम से हटकर उस औरत का पीठ पर बँधे रोते-चिल्लाते बच्चे को
अपनी सूखी छाती से दूध पिलाना
बच्चे का सूखी छाती से दूध को चूसना
ज़ोरों-शोरों पर है
रोज़ थक-हारकर वक़्त-ए-मग़रिब
औरत का अपनी टूटी-फूटी झोपड़ी में लौटना
लौटकर कच्चे चूल्हे पर रखी हांड़ी में चावलों को घोटना
चावलों का घुटना
ज़ोरों-शोरों पर है
शहर में एक माँ और बच्चे का विकास
ज़ोरों-शोरों पर है.
आमिर हमज़ा : कविताएँ पढ़ते-लिखते हैं. विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ आदि प्रकाशित. एक किताब ‘क्या फ़र्ज़ है कि सबको मिले एक सा जवाब (समकालीन हिंदी कवियों की लिखत)’ हिन्द युग्म से हाल ही में प्रकाशित हुई है. युद्ध सम्बंधी साहित्य, सिनेमा और फ़ोटोग्राफ़ी में विशेष दिलचस्पी रखते हैं. इन दिनों युद्ध की कविताओं का एक साझा-संकलन तैयार करने में मशगूल हैं. जेएनयू में शोधरत हैं. संपर्क : amirvid4@gmail.com |
कल पाकिस्तानी फ़िल्म जॉयलैंड एक बार फिर देखी और आज ये कविताएँ । क्या तो लिख दिया आपने । दिन भर अल – जज़ीरा लगाकर निरुपाय बैठा रहता हूं। मेरी तकलीफ कुछ बयाँ तो हुई!
ये शानदार कविताएं हैं, और ज़रूरी भी
कवि को साधुवाद
बहुत बधाई आमिर
…ये कवितांए बिलाशक ज़िंदगी का ककहरा ही है ..जिनसे मतवातर ताज़ा और गरम लहू टपकता रहता है…और इन्हें पढ़ने और लिखनेवाले भी इस लहू की रिश्तेदारी मे ही पड़ते हैं…और इनकी रिश्तेदारी दरअसल तमाम कायनात की सरहदों तक फैली हुयी है लेकिन …बहुत दिन नही हूए..उनकी ये सरहदें दरअसल दरकने लगीं हैं..और अब वे अपने सबसे नज़दीक रह रहे रिश्तेदार को …किसी ग़ैर मुल्की मुबालिक के तौर पर अनदेखा किए जा रहे हैं….,
बहुत ही अच्छी कविताएँ हैं। दमदार! ये कविताएँ महज भावनाओं की वैयक्तिक अभिव्यक्ति नहीं बल्कि ज्वलन्त दस्तावेज हैं।
भीतर तक झकझोर देने वाली कविता है. हड्डियों में सिहरन पैदा हो गई है. कल फिर पढ़ूँगा.
सुसुप्त सम्वेदनाओं को झकझोरने वाली धारदार कविताएँ।
आमिर के अंदर कविता का ख़ज़ाना है! और चमकते शब्दों को नकारने का माद्दा । मुखौटा कविता पर लानत भेजने का साहस। कविता को खो चुके, कविता से फरार चाहते फिर भी कविता में पूरी तरह से डूबे हुए कवि का दर्द महसूसने वाले इस कवि को हमें ठीक से पढ़ना चाहिए! आभार इन कविताओं के लिए, समालोचन! ऐसे हिंस्र समय में आप और आमिर दोनों को साधुवाद!
आमिर की 9 कविताएं ‘समालोचन’ पर आई हैं। अधिकांश कविताएं फ़लस्तीन को संदर्भित कर लिखी गई हैं। आमिर की कविताएं अपील करती हैं, झकझोरती हैं, लंबे समय तक उनके शब्दों का प्रभाव या यूं कहें कि उसका खुमार मानस पर बना रहता है। आमिर की कविताओं में सबसे अच्छा यह लगता है कि उनकी कविताएं ‘spontaneous overflow of powerfull feelings’ नहीं लगती, और न ही रिपोर्टर की उस ख़बर जैसी जो किसी घटना के बाद आपाधापी में लिखी जाती हैं।उनकी कविता सब्रदार कविता है, उनकी कविता के भीतर से एक रिसर्च स्कॉलर झांकता हुआ दिखता है। आमिर को अगर हम व्यक्तिगत रूप से नहीं भी जानते होते तब भी, शायद उनकी कविताओं को पढ़ कर यह अंदाज़ा लगा लेते कि यह कवि पुस्तकालय में बैठ कर अपनी कविताएं लिखता है, या फिर उसे अंतिम रूप देता है। नकबा ‘1948’ और ‘जंग खाई चाबी’ जैसी कविता सिर्फ एक कवि नहीं लिख सकता, उसके लिए आपके भीतर एक रिसर्च स्कॉलर भी होना ज़रूरी है।
आमिर की कविताएं पढ़ने में स्वाभाविक जान पड़ती हैं क्योंकि वे कविता की विषय-वस्तु की मांग के अनुसार शैली या फिर शब्द का प्रयोग करते हैं। मसलन, उनकी कविताओं में लम्बा-चौड़ा गद्य भी आता है। सबसे बड़ी बात यह कि इस प्रयोग के पीछे कवि द्वारा कविता की शैली में क्रांतिकारी बदलाव कर, कोई क्रांतिकारी स्थापना करने की, कोई क्रांतिकारी मंशा नहीं दिखाई पड़ती। और न ही ऐसी किसी बड़ी प्लानिंग की झलक दिखती है कि कविता में एक-दो ऐसी पंक्तियां रखी जाए कि वह लोगों को भाव-विभोर या आकर्षित कर दे, उन पंक्तियों को लोग अपने स्टेट्स पर लगाएं।
“लिख सकता हूं-
यकीन एक मर चुका शब्द है
दफनाए जाने से बचा हुआ।”
या फिर
“यों सब्रदार कविता ने
इन मुखौटा कवियों पर कविता लिखी तो
लानत लिखा एक रोज़”
जैसी पंक्तियों को पढ़ने के बाद इस स्वाभाविकता को देखा जा सकता है। इनकी कविता में आए लंबे-चौड़े गद्य को पढ़ने के बाद यह बिम्ब सहज ही सामने आता है कि एक जिमनास्ट जैसे किसी एक ख़ास करतब के साथ जमीन से ऊपर उठता है और हवा में कुछ देर कई तरह के करतब दिखाते हुए फिर वापस अपनी जगह पर सटीक पोजिशन के साथ खड़ा हो जाता है, ठीक आमिर की कविता पद्य की शैली के साथ ऊपर उठती है और फिर गद्य के कई करतब दिखाते हुए वापस अपनी पद्य शैली पर वापस आ जाती है।
आमिर अपनी कविताओं में पाठकों के लिए ‘विश्लेषण का जाल’ बुनते प्रतीत होते हैं। मसलन,
“उनकी कविताएं कांटों की तौहीन थी…।”
कवि की कविताओं में रोजमर्रा के आलंबनों का आना स्वाभाविक है, यह आमिर की कविताओं में भी बरबस देखा जा सकता है। इनकी कविताओं में आए पत्ता, पतझड़, गिलहरी, चाय, भाषा, मां, परिंदे, हवा जैसे शब्द ऐसे ही आलंबन हैं। बौद्ध धर्म में 6 प्रकार के आलंबन बताए गए हैं- रूप, शब्द, गंध, रस, स्पर्श और धर्म – ये सभी आलंबन आमिर की कविताओं में देखे जा सकते हैं।
सूरज राव
पीएचडी, दिल्ली विश्वविद्यालय
ग़ज़ब। सघन अभिव्यक्ति। ये वे कविताएँ हैं, जो कविता की ओट लेकर नहीं लिखी गई हैं। इस कवि को मंच नहीं, मचान मिलेंगे। साधुवाद!
– कमल जीत चौधरी
कितनी सम्वेदित करती हैं ये कविताएँ। एक मुकम्मल इतिहास बोध के साथ बहुत समय लेकर गहराई से लिखी गईं कविताएँ। यह भी एक बहस का विषय है कि तात्कालिकता के सौंदर्यशास्त्र से इतर जब दूर देश में बैठकर कवि उस दर्द के साथ अपनी एकजुटता ज़ाहिर करेगा तो वह अपनी भाषा को कितना मज़बूत बनाता जाएगा।
शानदार कविताएँ
बहुत अच्छी व जीवंत कविताएं हैं। आमिर ने अपनी पिछली प्रकाशित कविताओं के बाद ही एक लंबी दूरी तय कर ली है। उनका उत्साह व उठान बना रहे।