सूरजमुखी अँधेरे के योगेश प्रताप शेखर |
‘सूरजमुखी अँधेरे के’ 1972 ई. में प्रकाशित कृष्णा सोबती का उपन्यास है. हालाँकि ‘सारिका’ पत्रिका के तत्कालीन संपादक कमलेश्वर ने इसे कहानी के रूप में देखने और इस का शीर्षक ‘सूरजमुखी’ कर देने का प्रस्ताव दिया था जिसे कृष्णा जी ने स्वीकार नहीं किया.
यह सर्वविदित है कि कृष्णा जी को जीवन तथा लेखन में अपनी शर्तों के अनुरूप ही आचरण पसंद था और इसे उन्होंने जीवनपर्यन्त निभाया भी. पर यह भी सही है कि कृष्णा जी के कई उपन्यास शुरू में कहानी या लंबी कहानी के रूप में छपे जिन्हें बाद में उपन्यास के रूप में प्रकाशित किया गया. इस का सब से पुष्ट उदाहरण ‘मित्रो मरजानी’ ही है.
‘मित्रो मरजानी’ का पहला हिस्सा ‘सारिका’ पत्रिका में संभवत: 1964 ई. की शुरुआत प्रकाशित हुआ था. इस के संबंध में यह विवाद भी हुआ कि कृष्णा जी की कहानियों को अपनी पत्रिका में प्रकाशित करने वाले भैरव प्रसाद गुप्त ने ‘नयी कहानियाँ’ पत्रिका से अलग हो कर एक दूसरी पत्रिका कहानी की ही निकालनी चाही थी और इस के लिए कृष्णा जी से कहानी की माँग की थी. इस के लिए कृष्णा जी ने ‘मित्रो मरजानी’ भेजी थी. पर भैरव जी पत्रिका नहीं निकाल पाए और अनुमान होता है कि पत्रिका के लिए प्राप्त कहानियों को संकलित कर उन्होंने अपने प्रकाशन ‘धारा प्रकाशन’ से एक संग्रह ‘मित्रो मरजानी तथा अन्य कहानियाँ’ किताब प्रकाशित की. इसके लिए उन्होंने कृष्णा जी से पूर्व अनुमति भी नहीं ली. कृष्णा जी ने इस के लिए वकीलों से परामर्श कर भैरव जी को पत्र भी लिखा था. उस में भी ‘मित्रो मरजानी’ को कहानी के रूप में ही उल्लिखित किया गया है. इन सब से स्पष्ट है कि कृष्णा जी की रचनाओं के संदर्भ में विधाओं के ‘रूप’ को ले कर विचार आवश्यक है.
यहाँ पर उपन्यास की पहचान का प्रश्न उठता है. उपन्यास के विकास की अनेक दिशाएँ प्रकट हो जाने के बाद कोई एक सामान्य तत्त्व चिह्नित करना लगभग असंभव है जिस के आधार पर किसी कृति को उपन्यास की संज्ञा दी जा सके. फिर भी अपने रूप-विधान में उपन्यास एक व्यक्ति के जीवन के इर्दगिर्द रची जानेवाली विधा है. अधिक स्पष्टता से कहा जाए तो उपन्यास में, चाहे ब्योरे की शक्ल में या संकेत में, वर्णन रहता है कि एक व्यक्ति का जीवन अपनी पूरी स्वायत्तता और पहचान से कैसे निर्मित हो रहा है. ज़ाहिर है कि एक व्यक्ति का जीवन निपट उसी का नहीं होता. उस के जीवन में अनेक लोग तथा परिस्थितियाँ शामिल रहती हैं जो उस के जीवन को निर्मित करती हैं. ऐसी स्थिति में भावनाओं, परिस्थितियों, इच्छाओं तथा जटिलताओं से, उस का एक व्यक्ति के रूप में संघर्ष या घात-प्रतिघात पूरे जीवन होता रहता है, उन का अंकन उपन्यास में होता ही है. उपन्यास आकार में बड़ा हो या छोटा, कथा विस्तृत हो या संक्षिप्त, या कथा न ही हो, या एकदम कम कथा हो, हर परिस्थिति में एक व्यक्ति के जीवन के बनने या जिए जाने का अंकन उपन्यास में होना अनिवार्य है. यही वह बिंदु है जिस के कारण उपन्यास कहानी से अलग हो जाता है.
कहानी में जीवन के बनने का नहीं होने का वर्णन रहता है. यह हो सकता है कि प्रसंगों की गिनती की दृष्टि से उपन्यास में कम ही प्रसंग हों और कहानी में अधिक लेकिन उपन्यास के प्रसंग अपने पूरे वजूद में वर्णित व्यक्ति के जीवन को निर्मित करते दिखाई देंगे और कहानी में प्रसंगों की अधिकता भी व्यक्ति के जीवन के होने अर्थात् तात्कालिक जीवन-प्रवाह को ही संकेतित करती नज़र आएगी. इस दृष्टि से विचार करने पर ‘सूरजमुखी अँधेरे के’ निश्चित ही उपन्यास है क्योंकि इस में कोई एक रैखिक कथा नहीं होने के बाद भी यह रत्ती के जीवन के बनने और उस की पेचीदगी को पूरी संजीदगी से प्रस्तुत करता है. यहाँ यह भी ध्यान जाता है कि यह कथा की अभिधा का नहीं बल्कि कथा की व्यंजना का उपन्यास है. मतलब यह कि इस में कथा का विवरणात्मक या वर्णनात्मक रूप नहीं मिलता बल्कि कथा के संकेत ही इस तरह लाए गए हैं कि पाठक के सामने कथा अपने विस्तार में प्रकट हो जाती है.
दरअसल व्यापक तौर पर अभी भी हिन्दी में उपन्यास और कथा को ले कर प्रेमचंद के उपन्यासों के आधार पर बनी समझ ही काम करती रही है. प्रेमचंद एक कथा को उठा कर उस के सम्पूर्ण विवरण को पूरे रस के साथ पाठक के सामने स्पष्ट करते चले जाते थे. प्रेमचंद पाठक की अँगुली कभी भी नहीं छोड़ते, वे उसे अपने रचना-संसार में एक प्यारे-दुलारे अभिभावक की तरह घुमाते चलते हैं. इसीलिए प्रेमचंद के उपन्यासों में वर्णन विस्तृत होता है. पर प्रेमचंद की तरह न लिखने वाले और प्रेमचंद के सब से अधिक प्रिय लेखक जैनेंद्र कुमार उपन्यास का एक अलग रूप सामने रखते हैं.
जैनेन्द्र ने विवरण या वर्णन की जगह संकेत को उपन्यास-लेखन में स्थान दिया. एक उदाहरण से बात शायद स्पष्ट हो सके. जैनेन्द्र का सब से प्रसिद्ध उपन्यास ‘त्यागपत्र’ (1937 ई.) माना जाता है. इस में शुरू में ही उन्होंने लिखा है कि
“पिता प्रतिष्ठावाले थे और माता अत्यंत कुशल गृहिणी थीं. जैसी कुशल थीं वैसी कोमल भी होतीं तो –– ? पर नहीं, उस ‘तो –– ?’ के मुँह में नहीं बढ़ना होगा. बढ़े, कि गये.”
ध्यान से पढ़ने पर यह पता चल जाता है कि जैनेन्द्र कथावाचक प्रमोद के माध्यम से उस की बुआ मृणाल पर उस की माता द्वारा किए जाने वाले कठोर दुर्व्यवहार को बताना चाहते हैं. इस के लिए उन्होंने
“माता अत्यंत कुशल गृहिणी थीं. जैसी कुशल थीं वैसी कोमल भी होतीं तो –– ?” वाक्य लिखा है.
वाक्य में ‘तो’ का प्रयोग और बाद में योजक तथा प्रश्नवाचक चिह्न की उपस्थिति पाठक के सामने संकेत से एक अलक्षित दुनिया खोल देती है. पाठक के मन में मृणाल पर उस की भाभी द्वारा किए जाने वाले कठोर दुर्व्यवहार का चित्र पाठक की कल्पना से बनता है न कि लेखक के वर्णन से. अगर प्रेमचंद होते तो इस बात को बहुत ही विस्तार से लिखते. यही कारण है कि जैनेन्द्र ने अपने लेख
‘प्रेमचन्द का गोदान : यदि मैं लिखता’ में लिखा था कि
“गोदान आस-पास पाँच-सौ पृष्ठों का उपन्यास है. … मैं लिखता ही तो गोदान क़रीब दो सौ पन्नों का हो जाता. गोदान का एक संक्षिप्त संस्करण भी निकला है और मानने की इच्छा होती है कि उसमें मूल का सार सुरक्षित रह गया है. यानी दो सौ-ढाई सौ में भी गोदान आ सकता था. और क्या विस्मय, मोटापा कम होने से उसका प्रभाव कम के बजाय और बढ़ जाता, अब यदि फैला है तो तब तीखा हो जाता.”
कहा जा सकता है कि उपन्यास के बारे में प्रेमचंद की वर्णन और विवरण वाली अवधारणा से अलग संकेत एवं विचारप्रधान उपन्यास जैनेन्द्र के यहाँ ही दिखाई पड़ने लगते हैं. इस दृष्टि से देखने पर कृष्णा सोबती का उपन्यास-लेखन जैनेन्द्र की उपन्यास-कला के अधिक निकट महसूस होता है. पर किसी भी सूरत में यह नहीं कहा जा सकता कि कृष्णा सोबती के उपन्यास जैनेन्द्र के उपन्यासों की परंपरा में हैं. ऐसा इसलिए भी कि कृष्णा जी के यहाँ संकेत अधिक व्यंजक होते चले गए हैं और कथ्य की जटिलता भी बढ़ती चली गई है.
‘सूरजमुखी अँधेरे के’ उपन्यास का शीर्षक पहली बार में हमें चौंकाता है. ऐसा इसलिए कि सूरजमुखी एक फूल होता है जिस के बारे में मान्यता है कि जिधर सूरज होता है उधर ही यह फूल घूम जाता है. यानी सूर्यास्त के समय यह नीचे की तरफ़ झुक जाता है और सूर्योदय होने पर फिर ऊपर की ओर उठने लगता है. ऐसी स्थिति में इस फूल का संबंध सूरज यानी प्रकाश से हुआ. तब उपन्यास के शीर्षक का अर्थ यह हो सकता है कि अँधेरे की ओर घूम जाने वाला सूरजमुखी. यहाँ ‘सूरज’ और ‘अँधेरे’ के प्रयोग से एक अंतर्विरोध या विसंगति का एहसास होता है. उपन्यास से यह स्पष्ट ही है कि अँधेरे की ओर घूम जाने वाला सूरजमुखी कोई और नहीं रत्ती ही है. पर यह अँधेरा रत्ती का न तो अपना चुनाव है और न ही स्वाभाविक है. यह अँधेरा उसे दे दिया गया है. बचपन में किए गए यौन शोषण ने उस के जीवन में अँधेरा कर दिया है.
भारतीय समाज में बलात्कार की शिकार स्त्री को शर्मिंदगी का अनुभव लगातार करना पड़ता है. उस के सामने समाज ऐसे व्यवहार करता है जैसे बलात्कार का कारण वह ख़ुद है. इस के कारण उस के मन पर दोहरा यंत्रणादायक प्रभाव पड़ता है. एक ओर तो वह ख़ुद बलात्कार के प्रभाव में जीती है और दूसरी ओर समाज का हमेशा उस की ओर ही इशारा करते रहना उसे तोड़ता जाता है. एक तो भारतीय समाज पितृसत्ता से गहरे प्रभावित होने के कारण स्त्रियों को जीवन को सहजता से विस्तारित करने में सीमित किए रहता है और यदि स्त्री का बलात्कार हो गया हो तो वह जीवन से जैसे बाहर ही हो जाती है. यहाँ तक कि न्यायालय में भी उचित रूपों में न्याय मिलना मुश्किल हो जाता है. प्रख्यात समाजशास्त्री प्रतीक्षा बख्शी ने अपनी किताब ‘पब्लिक सेकरेट्स ऑफ लॉ’ (2014 ई.) में बलात्कार के मामलों की गहरी पड़ताल करते हुए स्पष्ट किया है कि बलात्कार से जुड़ा मुकदमा एक बड़े सामाजिक रहस्य में तब्दील हो जाता है जिसे हम जानते तो हैं पर उसे सुस्पष्ट नहीं कर पाते.
उपन्यास में तीन खण्ड हैं जिन के शीर्षक क्रमशः ‘पुल’, ‘सुरंगें’ और ‘आकाश’ है. ये तीनों भी व्यंजक हैं. पुल दो किनारों को जोड़ता है. रत्ती के प्रसंग में बचपन की दुर्घटना तथा उस के प्रभाव से उस के भीतर पैठी हुई मनोग्रन्थि और आज का उस का जीवन इस ‘पुल’ खण्ड में जुड़ते हैं. केशी की अन्तर्यामी लगावपूर्ण मित्रता, रीमा की संवेदनशील देखभाल और उन के बेटे कूमू का मीठा स्पर्श उसे वर्तमान में बनाए रखते हैं पर भीतर ही भीतर वह अतीत की आग में धुँधुआती रहती है. रत्ती की बेचैन कड़वाहट उपन्यास के पहले ही वाक्य से सामने आने लगती है. अंग्रेजी के प्रख्यात आलोचक टेरी इगल्टन ने अपनी किताब ‘हाउ टू रीड लिटरेचर’ (2013 ई.) में उपन्यास या किसी रचना की शुरुआत को भी महत्त्वपूर्ण मानते हुए उस में निहित संदर्भों को विश्लेषित किया है. उन्होंने इस पर ध्यान दिलाया है कि किसी भी रचना की शुरुआत में अत्यंत गहरे संकेत पैवस्त होते हैं जिन से रचना के व्यापक दायरे का पता चलता है. ‘सूरजमुखी अँधेरे के’ की शुरुआत इस प्रकार होती है कि
“आसपास चलते लोगों से बेख़बर रत्ती बर्फ को रौंदती आगे बढ़ती चली.”
रत्ती की यह बेख़बरी उस के आत्मविश्वास का द्योतक है और ‘रौंदना’ क्रिया का प्रयोग उस की विद्रोह-भावना को प्रकट करता है. यहीं पर हमें ठहर कर कृष्णा सोबती की दृढ़ वैचारिकता के बारे में विचार करना चाहिए. ऐसा इसलिए भी रत्ती के पूरे व्यवहार को यौन शोषण के दुष्प्रभाव से जोड़ कर देखा जाता रहा है. एक सरलीकृत व्याख्या की जाती है कि चूंकि रत्ती का यौन शोषण हुआ था इस के कारण वह शारीरिक संबंध में सहज नहीं हो पाती है. लगभग उपन्यास के अंत में दिवाकर के साथ उस का पूरा काम-संबंध बनता है. यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि यौन शोषण का अनुभव तो रत्ती के साथ अवश्य ही लगा हुआ है लेकिन उस के जीवन में जो पुरुष आते हैं वे उसे एक व्यक्तित्व के रूप में देख ही नहीं पाते, ग्रहण करने की बात तो दूर है.
कृष्णा सोबती ने इस पूरी प्रक्रिया को समझते हुए रत्ती को गढ़ा है. रत्ती यौन शोषण का शिकार बचपन में होती है. इस बात से स्वाभाविक तौर पर उसे अंतिम सीमा तक गुस्सा है, पीड़ा है, खीज है लेकिन उस के मन में कहीं भी शर्मिंदगी नहीं है. स्कूल में उस के सहपाठी उसे इस बात पर चिढ़ाते हैं या फब्तियाँ कसते हैं तो वह विद्रोह करती है. अपने वैसे सहपाठियों को बेरहमी से पीटती है. उन्हें सबक सिखाती है. आगे ऐसा व्यवहार न करने के लिए चेताती है. रत्ती एक ऐसी सशक्त स्त्री के रूप में हमारे सामने आती है जो परिस्थितियों के सामने झुकती नहीं, भावुकता के क्षणों में भी अपने अस्तित्व को दरकिनार नहीं करती और न ही अपनी स्वतंत्रता को कहीं गिरवी रखती है. उस के जीवन में अनेक पुरुष आते हैं. वे उसे ‘पाना’ भी चाहते हैं. पर रत्ती ऐन वक्त पर उन की नीयत को भाँप जाती है. इसलिए उन्हें वह अपने जीवन से बाहर करती है या स्वयं उन के जीवन से बाहर हो जाती है. इस के लिए उसे ‘ठंडी और मनहूस लड़की’ तक कह दिया जाता है लेकिन वह अपने अस्तित्व से समझौता नहीं करती. उपन्यास के दूसरे भाग का शीर्षक इसी कारण ‘सुरंगें’ रखा गया लगता है.
सुरंग एक रास्ता होता है जिस में अँधेरा होता है. ऐसी उम्मीद की जाती है कि इस रास्ते को पकड़ कर हम उजाले की ओर जा सकते हैं. लेकिन रत्ती संबंधों के इन ‘सुरंगों’ में भटकती रहती है क्योंकि उसे अपने को खो कर उजाला पाने की चाह नहीं है. उपन्यास के इस भाग में रत्ती के जीवन में अनेक पुरुषों यथा, जगतधर, रोहित, रंजन, सुमेर, भानुराव, सुब्रामनियम, जयनाथ, राजन और श्रीपत का आगमन होता है लेकिन ये सब रत्ती को बिना समझे उसे पाना चाहते हैं. यही कारण है कि अंतरंग क्षणों में रत्ती उन्हें कड़ा जवाब देती है. यह जवाब देना उसे ‘घमंडी’ का तमगा देता है. इन में से हर पुरुष स्त्री के बारे में एक मानसिकता को प्रकट करता है. स्त्री को उपलब्धता और वर्चस्व के दायरे में देखना इस मानसिकता की बुनियाद है.
जगतधर मीता से प्यार करता है लेकिन रत्ती के सामने कहता है कि वह उसे चाहता है. रत्ती बहुत ही शांति से उसे समझाती है कि वे दोनों दोस्त हैं. ठीक इसी तरह रोहित उस के कहीं आने-जाने और मिलने-जुलने को नियंत्रित करना चाहता है तो रत्ती उसे जवाब देती है कि
“तुम मेरे गार्जियन नहीं हो. हम एक-दूसरे को नापसंद नहीं करते…बस इतना ही हक़ हमारा एक-दूसरे पर है ! … तुम किसी भी दिन आज की-सी बातें नहीं करोगे. मुझे किसके साथ कहाँ जाना चाहिए, यह मेरे सोचने की बात है, किसी और के नहीं.”
सुमेर को उस के बेटे की सालगिरह पर दिया गया उपहार बिना देखे ही रत्ती को वापस लौटा दिया जाता है. शायद इसलिए कि सुमेर की पत्नी विनिता को वह पसंद नहीं आया कि उस के पति की कोई स्त्री दोस्त उपहार दे ! भानुराव अपने अलावा किसी पर ध्यान नहीं देता. उस के लिए हर व्यक्ति साधन है. इसीलिए रत्ती उसे जवाब देती है कि
“तुम पूरा वक्त अपने से इंगेज हो.”
सुब्रामनियम मिलने के दौरान विनम्र बनने की कोशिश में कहता है कि
“आखिरकार वक्त निकाल लेने के लिए धन्यवाद.”
रत्ती अपने अनुभव से इस वाक्य के खोखलेपन को जान जाती है और हँसती हुई जवाब देती है कि
“दो लोगों की मुलाकात के लिए कभी भी एक जन काफी नहीं होता. किसी एक का शुक्रिया करना मुनासिब नहीं.”
जयनाथ इन सब पुरुषों में एक क़दम और आगे बढ़ जाता है. सीधे कहता है कि “तुम आईं तो तुम्हारे चेहरे पर अपने और तुम्हारे बेटे को देखने लगा. … बहुत कुछ है पर किसके लिए जुटा रहा हूँ, यह नहीं जानता. मुझे तुम्हारी ज़रूरत है और कारोबार को तुम्हारे बेटों की.” रत्ती अपमान को पी कर भी जयनाथ को सहज स्वर में जवाब देती है कि “अपने बच्चों के लिए तुम्हें कोई और माँ ढूँढ़नी पड़ेगी. बेटे बनाने की कला तो इस औरत के पास है ही नहीं.” स्पष्ट है कि जयनाथ रत्ती को उस के अस्तित्व के साथ न देख कर उसे अपने बच्चों की माँ और अपनी दौलत के वारिस को उत्पन्न करने के रूप में देखता है. यहाँ रत्ती के व्यक्तित्व को पूरी तरह दरकिनार कर दिया जाता है. राजन एक साल की मुलाक़ात के बाद रत्ती के साथ आगे बढ़ना चाहता है. वह रत्ती के हाथों को चूमता है और उम्मीद करता है कि रत्ती भी उस का साथ देगी. लेकिन रत्ती अपनी स्थिति और उस की जल्दीबाजी के कारण मना करती है. वह अपनी स्थिति के बारे में राजन से बात करना चाहती है लेकिन राजन आहत पुरुष दर्प से छटपटा जाता है और टिप्पणी करता है कि
“मुझे हमेशा शक था, तुम औरत हो भी कि नहीं !”
आहत पुरुष दर्प का चरम श्रीपत के रूप में हमारे सामने प्रकट होता है. वह विवाहित है. उस की पत्नी बाहर है और लौटने वाली है. श्रीपत को भी हड़बड़ी है. रत्ती एक स्वतंत्र व्यक्तित्व है इसलिए वह संबंध अपने अस्तित्व के साथ चाहती है. न वह किसी के क्षेत्र में अनधिकार प्रवेश करना चाहती है और न ही किसी की स्थानापन्न बनना चाहती है. जब श्रीपत रत्ती को अपने घर और अपने शयनकक्ष (जो दरअसल उस का और उस की पत्नी ऊना से संबद्ध है.) में ले आता है तो रत्ती को यह स्वीकार नहीं होता और वह कहती है कि “तुम्हारी कृतज्ञ हूँ श्रीपत, पर तुम दोनों का यह कमरा हम दोनों के लिए नहीं है. … कैसे तुमने यह सोच लिया कि एक-दूसरे को चाहने के लिए हमें ऊना के कमरे का झूठ जीना है. … जिस श्रीपत को मुझे जानना है उसे इस कमरे से बाहर होना चाहिए था !” इस विवरण से स्पष्ट है कि इन पुरुषों के साथ संबंध बनने की स्थिति में रत्ती का तथाकथित नकारात्मक व्यवहार यौन शोषण के कारण निर्मित मनोग्रन्थि से अधिक इन पुरुषों की लोलुपता, वर्चस्व और अधिकार-भावना एवं अपनी स्वतंत्र-चेतना तथा अपने अस्तित्व को बचाए रखने का कारण है. इस दृष्टि से ‘सूरजमुखी अँधेरे के’ उपन्यास शारीरिक संबंध या सेक्स की जटिलता का नहीं बल्कि नारी देह के प्रति पितृसत्ता की निर्मिति का दस्तावेज़ है.
असद और दिवाकर दो ऐसे पुरुष हैं जिन के साथ से रत्ती को बराबरी महसूस होती है. असद तो असमय ही मर जाते हैं. इसलिए कोमलता का वह तार बिना कोई संगीत उत्पन्न किए ही टूट जाता है. शायद इसीलिए असद का प्रसंग भी ‘सुरंगें’ के अंतर्गत दर्ज़ है. पर दिवाकर के प्रसंग को उपन्यास में बिलकुल अलग रखा गया है जो ‘आकाश’ शीर्षक के अंतर्गत है. दिवाकर शुरू में ही स्पष्ट कहते हैं कि
“अपनी परिधि में आने दो रतिका. ऐसा कुछ नहीं चाहूँगा जो तुम न देना चाहो.”
‘आकाश’ शीर्षक स्वच्छंदता का भी संकेतक है और खुलेपन का भी. इस के साथ वह अनंत सम्भावनाओं को भी अपने भीतर समेटे है. ‘आकाश’ खण्ड कृष्णा जी की रचनात्मकता का और भाषा पर उन की अद्भुत पकड़ की दृढ़ मीनार है. इसी खण्ड में धीरे-धीरे दोनों क़रीब आते हैं और दिवाकर एवं रत्ती का पूर्ण संबंध बनता है. उन के संबंध को कभी ‘सेक्स का जश्न’ कह कर भी संबोधित किया गया था. अव्वल तो यही कि ‘सेक्स’ की पूरी प्रक्रिया ही आह्लाद, उछाह, कोमलता, विश्वास, उद्दाम लगाव से जुड़ी हुई है यदि वह सहमति तथा बराबरी के स्तर पर घटित हो, इसलिए उस का ‘जश्न’ में तब्दील हो जाना कोई बुरी बात नहीं है. पर इस उपन्यास के संदर्भ में विचार करें तो समझा जा सकता है कि बलात्कार स्त्री को एक देह में ही सीमित कर देता है. बलात्कार घटित भले देह के स्तर पर होता है पर उस के घाव और निशान आत्मा पर लगातार फफोले उत्पन्न करते रहते हैं.
बलात्कार को केवल शारीरिक स्तर पर देखने का ही यह परिणाम है कि कई हिंदी फिल्मों में बलात्कारी से पीड़िता का विवाह होता दिखाया गया है और ऊपर से तुर्रा यह कि बलात्कारी को ही ग़लती मान लेने वाले सज्जन पुरुष के रूप में भी प्रदर्शित किया गया है. उपन्यास की शुरुआत में ही रत्ती यह सोचती है कि “इस लड़की को, इस लड़की को एक बार भी समूची औरत बनने क्यों नहीं दिया गया ? क्यों…?” स्पष्ट है कि कृष्णा सोबती इस के माध्यम से यह बता रही हैं कि स्त्री को अपनी देह के साथ और देह के बावजूद जीने का हक़ है और उसे यह हक़ अवश्य मिलना चाहिए. स्त्री को केवल देह ही न समझा जाए और न ही उस की देह को दरकिनार किया जाए. ‘सेक्स’ को यदि दो शरीरों के बीच और उन के साथ होने वाले ‘उत्सव’ के रूप में माना जाए तो बलात्कार इस ‘उत्सव’ की जघन्य ‘हत्या’ है. इस यंत्रणा से निकलने के लिए यह अत्यंत आवश्यक था कि रत्ती और दिवाकर के मिलन का चित्रण कोमलता, अनुराग, रचनात्मकता एवं सधी भाषा के साथ किया जाए क्योंकि मिलन की इस प्रक्रिया में रत्ती और दिवाकर का हर एक स्पर्श रत्ती की आत्मा के घावों और फफोलों के लिए ‘रूई के फाहे’ की तरह है.
उपन्यास के लगभग अंत में यह भी प्रकट होता है कि दिवाकर की भी संभवतः पत्नी है जिस का नाम प्रीति है. दिवाकर रत्ती को यह बताता है कि उस ने उस से अपने संबंध के बारे में प्रीति को बता दिया है. प्रीति की प्रतिक्रिया के बारे में रत्ती के पूछने पर वह कहता है कि
“ओह रतिका, वह इतनी सहल हो उठेगी … सोचा तक नहीं था !”
रत्ती कहीं से नहीं चाहती कि दिवाकर और प्रीति का सम्बन्ध तितर-बितर हो जाए. इसलिए वह साफ़ कहती है कि
“नहीं दिवाकर, कुछ भी हथियाना नहीं है. तुम पुल के नीचे बहते हो और अपने किनारों से बँधे हो. और मैं… पुल पर से गुजर-भर जाने को हूँ. … मैं जुड़े हुए को नहीं तोड़ूँगी. विभाजन नहीं करूँगी.”
दिवाकर सब कुछ स्वीकार करते हुए स्पष्ट स्वरों में कहता है कि
“रतिका, मेरे और प्रीति से अलग कुछ घटित हुआ है. उसे आत्मच्छेदन से तोड़कर न फेंक दो. हम दोनों…तुम और मैं, सहगामी हैं उस सम्मिलित प्राप्ति के…”.
इस के बाद दिवाकर रत्ती के पास आने का निर्णय करता है. रत्ती उस का इंतज़ार करने लगती है. यहीं पर आ कर इस खण्ड का शीर्षक ‘आकाश’ सार्थक हो जाता है क्योंकि आकाश में अनंत संभावनाएँ है. पर उपन्यास में कई अनुत्तरित प्रश्न रह जाते हैं. जैसे, दिवाकर आए या नहीं ? प्रीति का क्या हुआ ? रत्ती और दिवाकर के संबंध का क्या हुआ ?
उपन्यास का खुला अंत इन सवालों को तो उत्पन्न करता है पर संबंधों के लिए एक राह भी सुझाता है. वह यह कि संबंध को अकुंठ भाव से स्वीकार किया जाए, उस की गरिमा को बरता जाए और उसे ले कर किसी प्रकार का अपराधबोध न पाला जाए तथा नैतिकता या अनैतिकता की कसौटी भी संबंध में भागीदार लोग ही तय करें.
रत्ती अपनी भागीदारी भी तय करती है और अपनी जिम्मेदारी भी. वह अपने अस्तित्व के प्रति सजग है और अपनी गरिमा के प्रति जागरूक भी. ‘सूरजुमखी अँधेरे के’ उपन्यास अपने सूक्ष्म और जटिल वितान में स्त्री के अस्तित्व और उस की गरिमा का दस्तावेज़ है.
योगेश प्रताप शेखर दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय, गया(बिहार) में हिंदी के सहायक प्राध्यापक हैं. ‘हिंदी के रचनाकार आलोचक’ पुस्तक प्रकाशित है. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेखन. ypshekhar000@gmail.com |
बहुत अच्छी विवेचना। जिन्होंने यह उपन्यास न भी पढ़ा हो वे भी इसे पढ़कर उपन्यास की मूल चेतना से परिचित हो जायेंगे। मनोवैज्ञानिक, साहित्यिक, सामाजिक व विधिक सभी पक्षों का सुव्यवस्थित मूल्यांकन हुआ है। बाल यौन शौषण की शिकार एक बालिका के सम्पूर्ण स्त्री व मनुष्य कहाये जाने के संघर्ष को भली प्रकार समझा और परखा गया है यह भी एक आश्वस्ति है।
योगेश जी और समालोचन को बधाई.कृष्णा सोबती जी से इस उपन्यास के कथ्य के बारे में मेरी लंबी बातचीत हुई थी.उनका कहना था हिन्दी वाले “रत्ती “को समझ नहीं सके.विभाजन के दौरान ऐसी कई लड़कियों की कहानियाँ कृष्णा जी के पास थीं, जिनका समूचा व्यक्तित्व तार -तार कर दिया गया था , जिनके लिए बहुत सामान्य होकर जी पाना कभी सहज नहीं था.स्त्री स्वाभिमान की कथा को ज़िंदादिली के साथ बयान करना कृष्णा जी की उपन्यास कला और संवेदनशीलता का प्रमाण है.स्त्री -लेखन ऐसे आलोचकों की तलाश में है जो स्त्री दृष्टि को पहचाने और स्त्री रचनाकारों को मुख्यधारा में सम्मान दे सके.योगेश जी ने अपने इस लेख में कृष्णा जी को क्या खूब समझा है.यह कोशिश ही समतामूलक समाज की दिशा में ठोस पहल है.साधुवाद
कृष्णा सोबती का यह उपन्यास जितना सूक्ष्म और व्यंजक है, उतना ही तार्किक और संवेदनशील विश्लेषण किया गया है इस आलेख में। कृष्णा जी को समझने के लिए संकेतों और अनकहे को सघन धैर्य के साथ भीतर उतारना पड़ता है। योगेश बेहद कुशलतापूर्वक ऐसा कर पाये हैं।
दो प्रसंगों की ओर संकेत करना चाहूँगी । एक, लेखिका ने रत्ती के स्वप्न की परिकल्पना कर रत्ती-दिवाकर संबंध के बारे में अपनी स्पष्ट राय दी है। रत्ती स्वप्न में देखती है, एक चील खिड़की से प्रीति के कमरे में घुस आई है। नींद से जागने पर दिवाकर से कहती है, मैं चील बन कर रहना नहीं चाहती। वह कृतज्ञ है कि दिवाकर ने पथरा जाने के उसके “शाप “को धो दिया है। “अब यहां उगेगा गाछ” कह कर वह हरिया जाने के आलोक में नहा गई है।
दूसरा प्रसंग उपन्यास के भीतर कलात्मक बुनावट के साथ मौजूद काम-संबंध का है जहां मांसलता आंतरिकता, आह्लाद और मुक्ति के क्रमिक सोपानों का आरोहण करते हुए स्वयं औदात्य में ढल जाती है। यह उपन्यास की ताकत भी है और एक बड़ी लकीर भी कि स्थूल और अश्लील हुए बिना भी सब कुछ चाक्षुष कर दिया जाए।
अच्छी रचना की तरह अच्छी आलोचना भी वही है जो पाठक के भीतर विचारोत्तेजन भर सके। यह आलेख इस कसौटी पर सफल है। योगेश प्रताप शेखर और समालोचन को बहुत बधाई ।
हिन्दी की महत्वपूर्ण कथाकार कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ पर योगेश प्रताप प्रखर का आलेख ‘स्त्री-अस्तित्व और गरिमा का सवाल’ पहली रीडिंग में अच्छा और महत्वपूर्ण लगा। आलेख के आरंभ में उन्होंने इस कृति के बहाने विधा और कथा लेखन के कुछ इतर पक्षों की चर्चा करते हुए उपन्यास के शीर्षक और उसके भीतर के उप-शीर्षकों की भी दिलचस्प व्ख्याख्या की है, – कृष्णा जी ने यही सोचकर यह शीर्षक या उप-शीर्षक रखे थे या नहीं यह तो वही बता सकती थीं, जो अब संभव नहीं है, लेकिन योोगेश जी की व्याख्या तर्कसंगत है।
इस उपन्यास की केन्द्रीय संवेदना और उसकी अंतर्वस्तु (कथा-संरचना और संयोजन’ को लेकर योगेश जी ने वाकई सूक्ष्म और खूबसूरत विवेचन प्रस्तुेत किया, और लगभग वही विवेचन किया है जो कभी चार साल पहले इसी उपन्यास पर अपना आलेख तैयार करते हुए मैं भी ऐसे ही निष्कषोंं पर पहुचा था, और मेरी विवेचना का केन्द्रीय स्वर भी यही था, इस आलेख से मुझेे भी अपनी पेहनत पर थोड़ी तसल्ली हुई। यद्यपि कृष्णा जी के कुछ समकालीन हिन्दी के आलोचकों और रचनाकारों ने इसी उनके उस दौर के दो-तीन उपन्यासों को लेकर कृष्णा जी के लेखन पर कुछ अटपटे और अपने मनोगत आक्षेप भी लगाए थे, और मैंने लगभग उन्हीं आक्षेपों का उत्तर देने के लिए ही अपना आलेेख लिखा था, लेकिन योगेश ने उन आक्षेपों या वैैसे विवेचनों को दरकिनार करके ही बात की है, जो उनकी सुविधाजनक च्वाइस है, मुझेे अब भी लगता है कि कृृष्णाजी के कथा लेखन पर बात करते हुुुए ऐसे आक्षेपों की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए, बल्कि उनका सटीीक उत्तर दिया जाना चाहिए।
दुर्योग से कृृष्णा जी के कथा लेखन पर केन्द्रित मेरी एक आलोचनात्मक पुस्तक की पांडुलिपि पिछले तीन साल से हिन्दी के एक बड़े प्रकाशक जी के यहां प्रकाशन के लिए स्वीकृत रखी पड़ी है, और वे अपने नये प्रकाशनों में व्यस्त हैं, इसलिए मेरा उन पर गंभीरता से किया हुेआ काम भी दबा पड़ा हैे। अगर वह पुस्तक समय से आ गई होती तो संभव है, कृष्णा जी के कथा-लेखन में रुचि रखने वालों से संवाद करने का बेहतर अवसर मुझेे भी मिल गया होता, संयोग से इस बीीच उस पुस्तक के कई आलेख पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए , एकाध समालोचन को भी भेजा, लेकिन शायद संंपादकको नहीं जमा, जो उनका अधिकार है, लेकिन कृष्णा जी के लेखन में सदा से रही अपनी रुचि के कारण अगर कहीं कुछ नया छपता है तो देख पढ़ जरूर लेता हूं, इस क्रम में योगेश् का यह लेख पढ़कर अच्छा लगा।
बहुत अच्छी समीक्षा भैया, पाठ को आपने बिल्कुल खोल कर रख दिया है। कृष्णा सोबती सूक्ष्म भाव व्यंजना की रचनाकार हैं, लेकिन आपने इसको परत दर परत खोलकर सटीक पाठ विश्लेषण करने का कार्य किया है। वास्तव में कृष्णा सोबती स्त्री स्वत्व की रचनाकार हैं, जिसकी नायिका अपना निर्णय स्वयं लेने में सक्षम है, हालाँकि स्वतंत्र निर्णय लेने के अपने खतरे हैं, और वो उन खतरों को जानते हुए खतरा उठाना चाहती हैं।