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Home » मंगलाचार : सौरभ राय

मंगलाचार : सौरभ राय

सौरभ राय उम्र 25साल, बैंगलोर में इंजिनियर की नौकरी, बंगाली परिवार से हैं, हिंदी में कवितायेँ लिखते हैं.तीन संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, और वागर्थ, वसुधा, हंस, कृति ऒर, सर्वनाम समेत कुछ पत्र पत्रिकाओं में कवितायेँ भी छप चुकी हैं.  सौरभ की कविताओं में  सादगी और जिंदादिली है. समाज और संसार  को समझने की प्रक्रिया में […]

by arun dev
September 24, 2013
in Uncategorized
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सौरभ राय


उम्र 25साल, बैंगलोर में इंजिनियर की नौकरी, बंगाली परिवार से हैं, हिंदी में कवितायेँ लिखते हैं.तीन संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, और वागर्थ, वसुधा, हंस, कृति ऒर, सर्वनाम समेत कुछ पत्र पत्रिकाओं में कवितायेँ भी छप चुकी हैं. 

सौरभ की कविताओं में  सादगी और जिंदादिली है. समाज और संसार  को समझने की प्रक्रिया में एक युवा के सपनों और दुस्वप्नों  की यह दुनिया है. 

photo : American photojournalist Steve McCurry












स्पर्श

अजीब बात है
दुनिया भर से हाथ मिलाकर
मेरे हाथों ने
खो दी है
अपनी ऊष्मा
स्पर्श की अनुभूति
जड़ और चेतन के बीच
फ़र्क कर पाने की क्षमता.
मैं
महसूस करना चाहता हूँ
सामने वाले के
हाथों की
मासूम थरथराहट
उनका स्पंदन.
चाहता हूँ
महज़ स्पर्श कर
बतला सकूं
हाथ और
लोहे के ठंडे छड़ के
बीच का फ़र्क.
नमस्ते और
अलविदा के लिए
हाथ हिलाने
मिलाने के पार
मैं चाहता हूँ
सामने वाले के होने को
समझना.
_____________________________________________________________
  
देशद्रोह
कहने को वो लड़की
ग्रैजुएट है
पढ़ती है अख़बार रोज़ सुबह
सोचती है
समझती है
देश भक्ति
वोट
इलेक्शन
कॉन्सटीट्युशन !
पर लड़की परेशान है
पिता की बीमारी
भाई की बेरोज़गारी से
चूल्हे की ज़िम्मेदारी से.
लड़की समझना चाहती है
गाड़ी के दाम घट रहे हैं
फिर गेंहूँ महँगा क्यूँ ?
लड़की खोज रही है
अर्थशास्त्र की तमाम किताबों में
किसानों की मौत का रहस्य.
मुँह खोल कर जम्हाई लेते हुए
नेता को देख
लड़की सोचती है
ये देश खा सकता है
मैं रोटी क्यूँ नहीं ?
लड़की पेट की शर्तों से
ऊपर उठकर
देश देश
संविधान संविधान
चिल्लाना चाहती है.
लड़की झंडा देख
सलामी ठोकना चाहती है गर्व से
पर रह रह कर
लड़की के दिमाग में
एक ही प्रश्न गूंजता है –
बूढ़ी माँ को
एक साड़ी पहनाने को
ऐसे कितने झंडे लगेंगे ?
लड़की चाहती है
देशभक्त बने रहना
पर पढ़ लिख लेने के बाद
सोचना
तो
देशद्रोह है न ?
_____________________________________________________________
खर्राटे
बाबा के खर्राटे
जब रुकते
तो बच्चे
हड़बड़ाकर
पढ़ने बैठ जाते
औरतें लग जाती करने
अपना अपना काम
माँ बनाकर लाती
स्वादिष्ट गर्म चाय.
मैं सोचता –
बाबा के खर्राटों का रुकना
बाबा का जाग उठाना ही
संसार की व्यवस्था
अनुशाशन है.
बाबा के खर्राटे
जब चलते
तो माँ
उसकी पिछली डोर थामे
चुपचाप साथ चलती
आश्वासित लयबद्ध
घंटों तक.
माँ नींद में
समंदर किनारे स्वेटर बुनती
समंदर खर्राटा.
सम्मलेन में बैठ
मेरी कविताएँ सुनती
तालियाँ खर्राटा.
छुटपन की बारिश में
दौड़ भींगती
बिजली का कड़कना
खर्राटा.
मैं सोचता –
बाबा के खर्राटों का
खर्र खों… खर्र खों…
चलना ही
माँ के
साँसों की रखवाली
उनका कवच है.
_____________________________________________________________
ग्लोब
पांच साल का था
बाबा की ऊँगली पकड़े
स्कूल से लौट रहा था
तो बाबा ने
मज़ाक में पूछा था –
\”ये बताओ
बड़े होकर
क्या बनोगे ?\”
मैंने कहा था –
\”ऐसा अफसर बनूँगा
जिसके दफ्तर में
ग्लोब होता है\”
बाबा हँस पड़े थे.
छठे जन्मदिन पर फिर
\”हैप्पी बर्थडे टू यू\”
गाते हुए
कमरे में घुसे थे बाबा
हाथ में था
एक बड़ा सा
चमकता हुआ ग्लोब !
मैंने दोनों हाथों से
गोद में भर लिया था
वो ग्लोब
मानो बाबा ने मुझे सौंप दी हो
पूरी की पूरी दुनिया ।
– ये मेरे बचपन की
सबसे सुखद घटना थी.
कई सालों तक फिर
पड़ोस के बच्चों को
उनके माँ बाप ने
जन्मदिन पर ग्लोब दिया
पर उनके ग्लोब
लट्टू भर थे.
मेरा ग्लोब
मुझसे बातें करता था !
मेरी ग्लोब की चमक
चिकनाहट के पार
मुझे दिखलाई पड़ते
अथाह सागर
ऊँचे पर्वत
दुर्गम जंगल
तपते रेगिस्तान
मेरे ग्लोब को
उल्टा सीधा घुमा
मैं रात से दिन
दिन से रात
समय यात्रा करता
आल्प्स से कालाहारी भटकता
कभी ऊपर से ग्लोब
कभी ग्लोब के किसी शहर से
ख़ुदको देखता.
मास्टर जी कहते
मैं भूगोल का
मास्टर था.
एक दिन फिर
स्कूल के प्राध्यापक के कमरे में
मैंने पूछे गए तमाम शहरों
देशों को सही सही
उनके ग्लोब पर
दिखाया था
ईनाम में
एटलस मिला था ।
“ये ऐसा ग्लोब
जिसे तुम बस्ते में डाल
स्कूल ला सकते हो !”
“पर सर
दुनिया तो गोल है !”
मुझे एटलस
कुछ ख़ास पसंद नहीं आया.
एक दिन फिर
बॉर्नवीटा क्विज़ कॉन्टेस्ट में
एक मुस्कुराते बुद्धिजीवी ने
पूछा था –
\”वो कौन सा शहर
जो यूरोप एशिया
दोनों में ?\”
मेरे दिमाग का ग्लोब
तेज़ तेज़ घूमा –
इस्तानबुल !
मैंने बज़र दबाया था.
क्विज़ मैं हार गया था
किताब-लेखकों-फूल-जानवरों के नाम
मुझे मालूम नहीं थे
ग्लोब पर सिर टेक घंटों रोया था
ग्लोब ने घूम-घूम कर
पोंछे थे मेरे आँसू.
बीच के कुछ साल
ग्लोब बड़ी तेज़ी से घूमा
मैं कभी ग्लोब के साथ
कभी ग्लोब बन
भाँय भाँय घूमा.
जितना बड़ा हुआ
उतना दूर होता गया
अपने चिरपरिचित ग्लोब से धंसता गया
एक अनजान अपरिचित
विराट ग्लोब की मिट्टी में.
इस ग्लोब को
यथार्थ कहते थे.
अभी कल की बात –
किसी फिल्म में
चार्ली चैपलिन को
हिटलर बन
अपने ग्लोब से खेलता देख
मुझे ख़ुशी हुई –
मैंने अपना ग्लोब
गिरने नहीं दिया.
कभी कभी सोचता हूँ –
मेरी आँखें ग्लोब
मेरा दिमाग
ग्लोब
जो अपनी धुरी पर
संतुलित घूमता है
अजीब समन्वय
जैसे कोई बैले डान्सर
अपने खुर पर खड़ा
घूम रहा हो
ठीक वैसे ही मैं
हाथ में
नीले हरे भूरे पेंट ब्रश पकड़
जैसे फुदक
रंग रहा हूँ
एक नया नवेला
बड़ा ही सुन्दर सा ग्लोब –
रंग दर रंग
परत दर परत
ये ग्लोब मैं सौंप रहा हूँ
बाबा को
और बाबा
दोबारा जन्म ले रहे हैं
दोबारा गा रहे हैं –
हैप्पी बर्थडे टू यू
मेरे छठे जन्मदिन पर ।
कभी कभी सोचता हूँ
मेरा दफ्तर
मेरी नौकरी
ग्लोब है ।
_____________________________________________________________
पागल
वो किसी जात का नहीं है
न ही किसी धर्म का.
लिंग – शर्म – शिष्टता की
परिभाषाओं से परे
सिद्धांतों से दूर
बहुत दूर
उसका भोलापन
हमारे लिए
असाध्य
दुर्गम है.
उसकी भाषा
सपनों की नहीं
एक अलग ही यथार्थ में
जीता है वो !
उसकी वासना
चाँद की दूधिया रोशनी
जो पूर्णिमा को
समस्त आकाश में
रात भर
उमड़ती है ।
आकाश की तरफ
नज़रें उठाकर
वो ताकता रहता है
अनजाने देव पुरुषों की तरफ.
कंधे झटकता हुआ
वो हिलाता है
अपने विराट पंख
उसे दिखलाई देती है
कीट पतंगों की आत्मा
राह चलते वो
नमस्कार करता है
कुत्तों को.
उसे दिखलाई देता है
दरख्तों का ख़ून
बस स्टैंड पर बैठा
वो सुनता है
शेरों की दहाड़
वो बिलौटे की
चमकती आँखों में झाँक
देखता रहता है
स्वर्ग के मनोरम दृश्य.
वो चींटियों की कतार पर
कान टेक
घंटों सुनता रहता है
उनका संगीत.
वो हवा को थपकते हुए
साध लेता है
असंख्य चक्रवात.
वो चलते हुए अचानक
गुस्से से
कुचल देता है
किसी धधकते ज्वालामुखी को
बदल देता है उसे
उर्वरा खेत में.
वो अद्भुत समय यात्री.
उसकी शताब्दी बीतती
एक सेकेंड में !
बीस सेकेंड और
वो क्रूस पर लटका मिलता.
छह सेकेंड और –
वो शांत बैठा होता
बोधगया के
अंजीर के नीचे.
दिन भर में वो
ख़त्म कर देता है
समस्त पृथ्वी की
संरचना.
वो बेचैन
भटकता है
नीचे दहकती है उसकी
नयी नवेली पृथ्वी.
वो पागल
हमारे जैसा
पागल नहीं है.

(मलयाली कवि के सच्चिदानंदन की कविता भ्रन्थनमार का अनुवाद)
___________________________________________________________

097 42 876892
sourav894@facebook.com
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