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Home » अच्युतानंद मिश्र की कविताएँ

अच्युतानंद मिश्र की कविताएँ

कवि-आलोचक अच्युतानंद मिश्र की इन नयी कविताओं में उदासी और निराशा का व्यक्तिगत से अधिक कालगत सन्दर्भ है. यह इस समय का स्थायी भाव है. यह शोक काल है. कवि वर्तमान के शोक को जहां तहां लिख रहें हैं. उदासी और निराशा नयी सदी की हिंदी कविता के बीज शब्द हैं. यह अरुणोदय का नहीं निशीथ का समय है. कविताएँ प्रस्तुत हैं.

by arun dev
May 11, 2022
in कविता
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अच्युतानंद मिश्र की कविताएँ
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अच्युतानंद मिश्र की कविताएँ

अंतिम क्षण

टेबल पर रंग बिरंगी दवा की
शीशियां पड़ी है
मृत और बेजान
बिस्तर पर लेटे
आदमी की तेज सांस
बचे हुए जीवन के प्रमाण की तरह
कपूर की मानिंद हवा में सुलग रही है

कमरे में बंद हवा
चीख-पुकार हल्ला कोहराम मचा है
दो बुझी आंखें
इस धुंधले दृश्य को देख रही हैं

समय शून्य ध्वनि-विहीन
सूखे पत्ते की तरह
पेड़ से गिर चुका है

कोई अतीत नहीं बचा
कोई भविष्य भी नहीं
कोई नदी कोई पहाड़
कोई स्पर्श कोई पुकार
कुछ भी तो नहीं.

सबकुछ कितना निःसार निस्पंद
जीवन का महीन धागा टूट रहा
मृत्यु की गांठ कस रही है
हाथों में अब
इतनी हरकत भी नहीं शेष
कि छू लें अपना ही चेहरा

ओह! क्या यही है अंत
इतना निर्जीव अंत
कुछ और घड़ी बढ़ सकता जीवन
कोई स्वाद, कोई स्पर्श
कोई ध्वनि, कोई पुकार ,कोई स्पंदन

नहीं का स्वर इतना कर्कश
क्या यही है मृत्यु
इच्छाओं का अंत

अब एक सपाट धवल दृश्य है
एक सादा कागज़
एक बच्चा कागज़ पर बनाये सारे दृश्य
रबड़ से मिटा रहा है

दरवाजा खुलता है
हवा का ताजा झोंका कमरे में फैलता है
चेहरे के पत्थर पर कोई हरकत नहीं
जीवन जा चुका है
रेशा रेशा बिखर चुका है

अब किसी भी चीज़ का
कोई अर्थ नहीं रहा
सारे दृश्य
उसी आखिरी बून्द आँसू में डूबे हुए

अब तक जो जीवन था अब स्मृति है
रुंधे कंठों में उमड़ती कथा ही
अब उसका अगला जीवन.

शिरीष का फूल

उसे भूल चुका हूं
उसे नहीं भूल सका जहां उससे मुलाकात हुई थी
ऐसा कई बार मेरे साथ होता है कि कुछ चीज़ें
आसान होते हुए भी कठिन बनी रहती हैं

अक्सर तो कुछ चीजें इसलिए नहीं भूल पाता कि
लगता है इन्हें भूल जाना चाहिए

पुराने दोस्तों के चेहरे अब याद नहीं आते
लेकिन गली के बायीं ओर के मकान की
बारिश में भीगती हरी खिड़की नहीं भूलती

भूलने से याद रखने का सम्बंध विपरीत का नहीं

दुख को भूलना
सुख को याद करना नहीं है

और कभी कभी तो भूले को याद करने से बड़ा सुख कोई नहीं

परीक्षाओं के बाद अप्रैल की गर्मी में
स्कूल का बस्ता टांगे जब गुजरता उस रास्ते से
शिरीष के फूल के एक ऊंचे वृक्ष की छाया में
रुककर इंतज़ार करना बड़ा सुख था
अब वो चेहरा थोड़ा-थोड़ा रोज भूलता जा रहा हूँ
लेकिन शिरीष के फूल की वह गन्ध भूल नहीं सकता

उसकी याद शिरीष का एक फूल है
अप्रैल में फूलता हुआ.

जो गुजर गया

जो गुजर गया
इसी जीवन का हिस्सा था
उस दिन जब पछाड़ खा कर गिरा था
ताकता हुआ आसमान
अब एक धूसर स्मृति बन चमकता है

बीस बरस पुरानी एक गन्ध आती है
खींच लेती है सारी प्राण वायु
सुन्न पड़े देह में
गूंजता है एक पुरातन सन्नाटा

खण्डित हो जाता समय
बंट जाती चेतना
शून्य में ताकता खोजता वही आधार
ध्वनि-विहीन एक कातर पुकार

ठहरे हुए समय में
हलचल होती है कहीं
उमड़ते आसुओं में कहीं चमकता एक
मटमैला चकत्ता

एक खोये हुए बच्चे की करुण उदासी
स्मृति फिर कहीं झल-फलाने लगती
कड़ी धूप में पोछता अपना माथा
और खुद से ही कहता
जो गुजर गया
इसी जीवन का हिस्सा था!

उदास लोग

वे निश्चित गति से उतरते हैं सीढ़ियां
छूते हैं अपना माथा और देखते हैं घड़ी
उनके माथे पर उभर आती हैं
परेशानी की लकीरें
सड़क पार करते हुए
वे खांसते हैं
किसी अप्रत्याशित दुर्घटना की
चेतावनी देते हुए

बस के हैंडल को पकड़े हुए
वे महसूस करते हैं
अपने हाथों का पसीना
अपनी पतलून में पोछते हुए
एक दृश्य पर उनकी निगाह ठहर जाती है
बस की गति से मुक्त
वे चलते हुए रुक जाना चाहते हैं
बोलते हुए चुप हो जाना चाहते हैं

मोबाइल हाथ में लिए
सिलाई मशीन,टाइपराइटर और साइकिल
के बारे में सोचते हैं

वे अपने बारे में
सामने से तेज चले आ रहे
उस आदमी के बारे में
उड़ रही धूल के बारे में
डाल पर बैठ रही चिड़िया के बारे में
गुजर चुके वर्षों के बारे में
आने वाली बारिश के बारे में
घिस चुकी चप्पल के बारे में
टूट चुकी कलम के बारे में सोचते हैं

सोचते हैं और कुछ बुदबुदाते हैं
उनके बुदबुदाने में
एक सभ्यता सांस लेती है
घड़ी की सुई थोड़ा छांव पाती है
बरसात थोड़ी और ठंडी हो जाती है

उनके बुदबुदाने
में मिट्टी के अंदर का जल हिलता है।
वे देर तक याद करते हैं किसी गीत को
याद आने पर वे और उदास हो जाते हैं

स्मृतियों के सबसे हरे पत्ते
उनके उपवन में पनपते हैं
सभ्यता की सबसे धीमी रफ्तार
उनके पैरों में आराम पाती है

हर बार बारिश में उन्हें लगता है
ईश्वर के आंसुओं में डूब जाएगा सब कुछ
बारिश के बाद वे ईश्वर की मृत्यु के बारे में
सोचते हुए गुजारते हैं ठंडी लंबी रातें

वे अक्सर पूछते हैं खुद से
उफ़्फ़ कहां गई वह दुनिया
कहां गए वे लोग
वह चिड़िया कहां गयी
वह स्पर्श
वह थिरक
वह बच्चा

स्वप्न में वे
हिरण की आंखों में डूब जाना चाहते हैं
नदी के दूर किनारों पर चलते-चलते
वे जीवन के हर दृश्य से
ओझल हो जाना चाहते हैं

वे समय से पहले
और समय के बाद
सब कुछ के होने में यकीन रखते हैं
उनका यकीन बारहा उन्हें और उदास करता है
उनकी उदासी उनका यकीन बढ़ाती है

उदास लोगों की आंखों में समुद्र का नमक है
उनके चेहरों पर सूखे पत्तों का पीलापन
उनके हाथों में टूटी टहनियों की लचक
उनकी चाल में पंचर पहिये का अटपटापन

सबसे धीमी आवाज में
मद्धिम लय में गीत गाते हैं

हर चीज के आरंभ से पहले
और हर चीज के अंत के बाद
वे ठंडी सांस लेते हैं
वे धरती के परिधि में टूटे हुए सितारे हैं

किसी शाम दूर तक जब आंखें काले बादलों का पीछा करती हैं
एक पत्ती आहिस्ता से टूटकर चूमती है जमीन का माथा
पहिया घुमाता हुआ बच्चा थक कर बैठ जाता है सड़क पर
वे आहिस्ते से उठते हैं और सूरज की बत्ती धीमी कर देते हैं
ठंडा पानी पीते हैं और दूर से पुकारती हुयी मद्धिम आवाज़ में लेते हैं डकार
शून्य में खोजते हैं किसी विस्मृत का चेहरा

उसी दम पृथ्वी पर रात होती है
सितारे जुगनू बन
चमक उठते हैं उनकी आंखों में
उनकी आँखों की नमी सींचती है धरती को
धरती का माथा फोड़ बाहर आती है एक नन्हीं पत्ती.

अच्युतानंद मिश्र
27 फरवरी 1981 (बोकारो)

प्रकाशन:
आंख में तिनका, चिड़िया की आँख भर रौशनी में. (कविता संग्रह
नक्सलबाड़ी आंदोलन और हिंदी कविता, कोलाहल में कविता की आवाज़ (आलोचना)

देवता का बाण (चिनुआ अचेबे, ARROW OF GOD) (अनुवाद)
प्रेमचंद :समाज संस्कृति और राजनीति (संपादन)

सम्मान:
२०१७ का भारतभूषण अग्रवाल सम्मान तथा २०२१ का देवीशंकर अवस्थी सम्मान प्राप्त.

mail : anmishra27@gmail.com

Tags: अच्युतानंद मिश्रनयी सदी की हिंदी कविता
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Comments 22

  1. प्रयाग शुक्ल says:
    9 months ago

    मुझे बहुत अच्छी लगी हैं ये कविताएँ। ये गहरे बोध की कविताएँ हैँ। भाषा का इतना सुन्दर, सधा इस्तेमाल इतने लगाव से, सौम्य भाव से , करतीं ये कविताएँ निश्चय ही बहुतों को प्रिय हो उठेंगी। इन्हें पढ़ते हुए स्वयं मुझे कितना कुछ याद
    आया। जीवन और प्रकृति का इतना मर्मस्पर्शी ,करुण,प्रेम भरा बखान कविता में पढ़ने को मिला। बधाई।

    Reply
  2. M P Haridev says:
    9 months ago

    अंतिम क्षण
    जीवन के अंत पर यह जीवंत कविता है । मृत देह को तरह तरह के शब्दों और वाक्यों से पिरोया गया है । अभी-अभी जिस देह की साँस चल रही थी वह अचानक मृत्यु के घर में चली गयी । धरती पर बेजान देह के ‘चेहरे के पत्थर’ संज्ञा शून्य हो गया है । रिश्तेदार बेज़ार हैं । रो रहे हैं । पड़ोसी धैर्य जताने आ गये हैं ।
    दवाइयों की शीशियाँ धरी की धरी रह गयी, प्राण चले गये । यह कविता मुझ सहित अनेक पाठकों को उनके परिजनों की मृत्यु के क्षण स्मरण करा रही होगी । इसमें किंतु परंतु नहीं है ।

    Reply
  3. सारंग उपाध्याय says:
    9 months ago

    क्या सुंदर टीप होती है आपकी। डिजिटल टर्म में इसे क्लिक बेट कहा जाता है। इसे करना आसान नहीं वह भी इस तरह के कॉन्टेंट के साथ। यह एक अलग कला है। 😇

    Reply
  4. M P Haridev says:
    9 months ago

    शिरीष का फूल
    कौन ज़ालिम भूलेगा मुलाक़ात की जगह को । शिरीष के पेड़ के नीचे से गुज़रना उसको याद करना है । मैं किसी वस्तु को छूना चाहता हूँ । चाहे वह बुकशेल्फ़ के ऊपरी भाग में रखी गयी पुस्तक को । हाथ नहीं पहुँच पाते । ‘जिन्हें हम भूलना चाहें वो अकसर याद आते हैं’ । शिरीष तुम इसलिये भी सुंदर हो कि वह सुंदर है । ‘भूलने से याद रखने का संबंध विपरीत से नहीं है’ और अच्युतानंद जी मिश्र आप अगली दो पंक्तियों में इसका खंडन करते हुए पाठकों से खेल कर रहे हो । न मैं प्रयाग शुक्ल हूँ और न ही कुमार अंबुज । एक सादा और भावुक इन्सान हूँ । और मुझे अरुण जी याद रख लेते हैं ।

    Reply
  5. रवि रंजन says:
    9 months ago

    अच्युतानंद मिश्र को इन मार्मिक कविताओं के लिए मुबारकबाद।

    Reply
  6. Aparna Bhatnagar says:
    9 months ago

    हमारे मन की परतों को हटाती हैं कविताएं। इनका धीमा और गंभीर स्वर इस तरह जैसे हर शब्द अपने अर्थ खोलने को आतुर है।

    Reply
  7. Shampa Shah says:
    9 months ago

    आह☘️
    यह केवल साहित्य और कला के वश में है कि वह ऐन जिस जगह दुःख रिस रहा हो, मृत्यु टकटकी लगाए आपकी आँखों में झांक रही हो वहाँ, ऐन वहाँ, आपके मुंह से अनायास आह के साथ वाह निकाल लाए☘️
    अच्युतानंद जी, आपका आभार इन कविताओं के लिए।
    बहुत अरसे बाद ‘ वस्तु’ को (हरी खिड़की, शिरिष का फूल) ऐसी ऊष्मा, ऐसा राग मिला है☘️☘️

    Reply
  8. विजय कुमार says:
    9 months ago

    अच्युतानंद जी की बहुत संवेदनशील कविताएँ पढ़ने को मिलीं। बहुत बधाई।रचना का समय के साथ यह नाजुक सा सम्बन्ध और बीतने को वह तमाम इलाकों में इस तरह से पुनर्संयोजित कर सके यही तो उसके होने का अर्थ है।

    Reply
  9. श्रीविलास सिंह says:
    9 months ago

    बहुत अच्छी कविताएं। किसी उदास सांझ स्मृतियों की खिड़की पर बैठे जो गुजर गया है उसे चलचित्र की तरह देखने जैसी। कवि को बधाई और प्रस्तुत करने के लिए समालोचन का आभार।

    Reply
  10. दयाशंकर शरण says:
    9 months ago

    यह एक फासीवादी दौर है-इस बात पर किसी को कोई भ्रम और आपत्ति नहीं होनी चाहिए। इस खतरनाक प्रवृत्ति और उभार से प्रतिवाद करती कविताएँ उससे हार माननेवाली नहीं होतीं। वे आत्मसंघर्ष की आग से तपी- जीवट और उम्मीदों से भरी होती हैं।शमशेर बहादुर सिंह की कविता-काल तुझसे होड़ है मेरी,जैसी तेवरवाली। यह एक पराभव काल है और एक तरह से हम एक हारे हुए समय में जी रहे हैं। जरूरी है इस दौर की कविता हर अंधेरे के बरक्स एक प्रकाश स्तंभ की तरह आलोकित हो। एक बात और कि इस दौर की कविताएँ स्वभावत: अंतर्मुखी होती हैं।पर समय चाहे जितना भी अमानवीय हो, उम्मीद की लौ और संघर्ष की आँच बुझनी नहीं चाहिए। अच्युतानंद मिश्र की कविताएँ जीवनानुभवों के अलग-अलग रंग-रूप की बारीकियों को छूती और महसूस करती हैं।जीवन की गहन अभिव्यक्ति इन कविताओं में देखी जा सकती है।पर इनमें आज के भयावह यथार्थ और उसकी चुनौतियों का सामना उस तरह नहीं दीखता जिस तरह अपेक्षित है।

    Reply
  11. Pramod Jha says:
    9 months ago

    यह शोक काल है, अच्युतानंद मिश्र की कविताएं समयगत सच्चाई को सही तरीके से चित्रित करती हैं। शोक,दुख उदासी और निराशा के स्वर को कत ई अनदेखा नहीं किया जा सकता । इस समय जो हालात हैं , परिस्थितियों का लोगों पर दबाव है, जीवन यापन कठिन है । हमें आजीविका के वांछित साधन चाहिए ,खुशी चाहिए ।इसके लिए संघर्ष करने वालों को काफी दुश्वारियों को झेलना पड़ रहा है और कविताएं भी इस सब असामान्यता को ठीक ठीक यदि अभिव्यक्त कर रही है तो बहुत अच्छी बात है।

    Reply
  12. Jyotish Joshi says:
    9 months ago

    अच्युतानंद दैनन्दिन जीवन के भीतर मनुष्य की छटपटाहट और उसकी जिजीविषा को स्वर देनेवाले कवि हैं। आज के जीवन में पसरी उदासी और उसमें आशा की नई कोंपलों के फूटने की बेधक दृष्टि विन्यास की यह कविताएँ नए आस्वाद के मानिंद हैं। ”अंतिम क्षण- अब तक जो जीवन था/ अब स्मृति है। शिरीष का फूल -उसकी याद शिरीष का एक फूल है/अप्रैल में फूलता हुआ। जो गुजर गया- जो गुजर गया/इसी जीवन का हिस्सा था। और उदास लोग- उनकी आंखों की नमी सींचती है धरती को/ धरती का माथा फोड़कर/बाहर आती है एक नन्हीं पत्ती।”
    बड़ी उम्मीद की सीमाएं लांघते अच्युतानंद की यात्रा कविता को जीवन में देखने की तरफ तीव्रता से बढ़ रही है। बधाई।

    Reply
  13. Dhirendra Asthana says:
    9 months ago

    बेहतरीन कविताएं हैं,गहन उदासी में सांस लेने के बावजूद जीवन से ऊर्जा बटोरती कविताएं। पहली कविता तो मृत्यु के एकदम निकट ले जाकर खड़ा कर देती है। अच्युतानंद मिश्र को हार्दिक शुभकामनाएं।

    Reply
  14. Tewari Shiv Kishore says:
    9 months ago

    आपकी भूमिका में कविताओं का मूड तय कर दिया गया है, जो ठीक नहीं है। “यह शोककाल है” इस वक्तव्य से इन कविताओं को समझने में मदद नहीं मिलती, उल्टा ही होता है।

    Reply
  15. Sapna Bhatt says:
    9 months ago

    वाह ! बहुत सुंदर …
    घनघोर नैराश्य में भी ये जीवन से भरपूर कविताएँ हैं। भाषा और शिल्प की दृष्टि से बेजोड़। इन कविताओं में दुःख अपनी तरह का विशिष्ट सम्मोहन रचता है क्योंकि वह पीड़ा के कलात्मक सौंदर्य और मर्मस्पर्शी भावों का समुच्चय है।

    Reply
  16. शिव किशोर तिवारी says:
    9 months ago

    पहली कविता एक चिरपरिचित विषय पर होते हुए भी एक महीन बुनावट वाली, भावप्रवण और अकुंठ कलात्मकता से भरी कविता है। किंचित् साधारण दो वाक्यों से आरम्भ होकर वह शीघ्र गति पकड़ लेती है। अंतिम पंक्तियां पाठक को विद्ध करती हैं- कोई भूत नहीं, कोई भविष्य नहीं। भूत मुमूर्ष के मनःपटल पर तेजी से गुजर जाने वाले चार क्षण के चित्रों का समवाय है। भविष्य पूर्ण शून्य में लय होने के पहले के क्षणिक ‘हैलूसिनेशन’ । अकृतार्थ, अर्थहीन जीवन का अंत घटता है।

    अंतिम कविता वार्धक्य को असाधारण सम्वेदना के साथ अंकित करती है। तत्त्वतः यह भी अकृतकार्यता की कविता है।शिल्प की दृष्टि से सुगठित और व्यंजक कविता है।

    ये कविताएं प्रकृति से ‘रोमांटिक’ और गीतात्मक हैं। कोई-कोई इनमें मोदी-राज
    के नीचे दबे ‘समाज’ की पीड़ा देख रहे हैं। वे कवि के साथ अन्याय कर रहे हैं।

    Reply
  17. राजेश जोशी says:
    9 months ago

    बहुत अच्छी कविताएं ।शिरीष के फूल विशेष रूप से ।

    Reply
  18. Kishan Kaljayee says:
    9 months ago

    अवसाद,उदासी और स्मृति के आकाश में ले जाने वाली ये कविताऍं दुख का अध्यात्म भी सिरजती हैं। इन कविताओं की बुनावट और कथ्य में गजब की परिपक्वता है। प्रारम्भ में जो टिप्पणी दी गयी है वह इन कविताओं का शानदार प्रवेश द्वार है। कवि और सम्पादक को बहुत बहुत बधाई।

    Reply
  19. Sumit Tripathi says:
    9 months ago

    सुंदर कविताएँ।

    Reply
  20. बजरंगबिहारी says:
    7 months ago

    जो अवसाद फ़िजां में है उसे बड़ी *खूबसूरती* से कविता की रूह में रूपांतरित किया गया है।
    शिरीष के फूल ने पुराने क्लासिक कवियों की याद दिला दी।
    अच्युतानंद को धन्यवाद और समालोचन को बधाई।

    Reply
  21. दिनेश कुमार शुक्ल says:
    6 months ago

    अच्युतानंद मिश्र की कविता स्मृति और विस्मृति के बीच जो एक पतली डोर है ,उस पर चलते हुए संसार को देखती है-जैसे एक उड़ान भरता हुआ पक्षी नीचे छूटती हुई दुनिया को देखता हो।यह देखना बिल्कुल नयी किस्म का देखना है।जैसे कि हमारी आँख देखने लगे उन तमाम रंगों को जो अभी ,सामान्यत आदमी की नजर से परे हैं। यह अवचेतन से भी आगे जा कर किसी और ही संवेदना में भीग कर जीवन देखने और जीने की कविता है।आपका बहुत-बहुत अभिनंदन अच्युतानंदजी।

    Reply
  22. Anonymous says:
    1 month ago

    अब तक जो जीवन था अब स्मृति है
    रुंधे कंठों में उमड़ती कथा ही
    अब उसका अगला जीवन
    अंतिम क्षण और उदास लोग….. शानदार कविताएँ। बहुत बधाई प्रिय कवि।🌹🌹

    Reply

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