अच्छा आदमी था : मायने और महत्व
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औसत या उनसे कुछ ही बेहतर हिन्दी कहानियों के संसार में किंशुक गुप्ता की कहानी ‘अच्छा आदमी था’ उल्कापात की तरह आ टपकी है. कहानी अच्छी लगे या बुरी अनदेखी कतई नहीं की जा सकती.
नई ज़मीन पर खड़ी निस्संकोच और निर्भीक कहानी ‘अच्छा आदमी था’ किंशुक गुप्ता की अब तक की सबसे सशक्त कहानी तो है ही खुद उनके लिये इसी प्रतिमान पर बने रहने या इससे आगे विकसित होने की चुनौती बन सकती है. व्यक्ति और समष्टि का इसमें अद्भुत मेल है और है यथास्थिति का ऐसा सम्पूर्ण नकार जो विद्रोह का विस्फोट बन कर नहीं फटता बल्कि अलग पहचान की निर्मिति में अग्निपुष्प बन कर खिलता है.
यह पितृसत्ता के किले को भेदने की कहानी है. जैसा कि स्त्री विमर्श ने स्पष्ट किया है, इस पितृसत्ता की जड़ है सेक्शुऑलिटी. सेक्स नहीं, सेक्शुऑलिटी जो सेक्स के इर्दगिर्द खड़ी की गई पाप, पुण्य, स्वीकृतियों, वर्जनाओं, परिपाटियों और धार्मिक और सामाजिक व्यवस्थाओं की बाड़ के रूप में हर समय उपस्थित रहती है.
पितृसत्ता इन्हीं स्तंभों पर स्थापित है जिसे राजसत्ता का समर्थन है. पितृसत्ता जितना स्त्री पर अंकुश लगाती है उतना ही वह सेक्शुअल अल्पसंख्यकों की द्वेषी है. कदम-दर-कदम कहानी इसका ब्योरा देती है.
कहानी कई स्तरो पर चलती है. यह अपीयरेन्स और रियलिटी की महीन रेखाओं को चिन्हित करती उसका जाल बुनती है मगर आपको इसमें फँसने नहीं देती, क्योंकि कार्तिक इसमें नहीं फँसता.
मूल रूप से कहानी दो तरह के बलात्कारों की नहीं, लगभग बलात्कारों की है. अपने प्रोफ़ेसर के यौन आक्रमण के बाद विचलित मन:स्थिति में बेचैन नींद में सपना देख रहे मेड़िकल कॉलेज के छात्र कार्तिक को सुबह-सुबह खबर मिलती है कि उसके दादाजी गुज़र गए हैं. वह हड़बड़ी में अपने चाचा चाची के साथ वहाँ पहुंचता है जहां शोक प्रदर्शन करने वालों की भीड़ दादी को घेरे हुए है और बार-बार मृतक को ‘अच्छा आदमी’ घोषित कर रही है जबकि उन्होंने अपनी पत्नी, कार्तिक की दादी, को अक्सर माँ बेटी की गालियों से नवाज़ा था, उनका जीना मुहाल कर रखा था. लेकिन बहुतों के लिये वह अच्छे आदमी थे ही, अपने भाई के लिये संपत्ति तक का मोह त्याग दिया था, खुद कार्तिक पर दुलार बरसाते थे. दादा का लाड़ला होने के बावजूद दादी के प्रति अथाह प्रेम से भरा कार्तिक उनको अब ‘अच्छे आदमी’ या प्रकारांतर से दयालु पितृसत्ता के असर से मुक्त होकर जीवन अपने तरीके से जीने के लिये आवाज़ देता रहता है. दादी हर ऐसे आग्रह को अनसुना करती जाती है. अंत में कार्तिक स्वप्नभंग की स्थिति को पहुंचता है.
कहानी आक्रमण की नहीं, दमन की नहीं, सर्वानुमति की पड़ताल करती है और इस तरह नए धरातल पर खड़ी हो जाती है. आक्रमण का विश्लेषण बनिस्बत आसान होता है, सर्वानुमति को कटघरे में खड़ा करना अत्यंत कठिन. यह कहानी सर्वानुमति या हेजिमनी को प्रश्नांकित करने के लिये बलात्कार का रूपक इस्तेमाल करती है. कहानी में कोई बलात्कार है ही नहीं, होते-होते रह जाता है और यह हर आक्रमण में प्रतिरोध की संभावना को चिन्हित करती उससे मुक्ति के दुरूह मार्ग को प्रशस्त करती चलती है.
कहानी का विषय जटिल मगर पठनीयता कमाल की है. यह दृश्यात्मक कहानी है, हर दृश्य में कार्तिक मौजूद है, उसके उद्गार हैं, मनोभाव हैं, मंथन है और हर दृश्य कहानी के एक पक्ष को संप्रेषित करता है. आगे पीछे चलती कहानी आपको अनेक घुमावदार मोड़ों पर अपने साथ लेती चलती है और कहीं पर भी सांस लेने की फुर्सत नहीं देती. यह उद्वेलित करती है, बेचैन रखती है और व्यवस्था की सफाई देने वालों को झिंझोड़ कर रख देती है. इस युद्ध में वे किस तरफ हैं इसका फैसला उनकी राय करेगी. कहानी जितनी बड़ी बात कह रही है उसके परिप्रेक्ष्य में देखें तो छोटी है.
इतनी छोटी कहानी में यह
सब साधना लेखक की परिपक्वता का ही नहीं उसकी प्रबुद्धता और संवेदना के अनूठे मेल का प्रमाण है जिसे इमोशनल इंटेलिजेंस कहते हैं. यह एकरेखीय नहीं है जैसा कि जीवन भी नहीं होता.
इसमें सामाजिक पाखंड और यौन हिंसा दोनों में सहमति असहमति या ‘कन्सेन्ट’ की बारीक पड़ताल है. कार्तिक अपने भीतर प्रोफ़ेसर के आक्रमण पर और दादा की मौत के बाद दादी की भावनाओं पर जमघट के आक्रमण को देखता, समझता अपनी यौन प्रकृति को स्वीकार ही नहीं करता एक नई राजनीतिक चेतना के उदय को भी अंगीकार करता है.
कहानी इन शब्दों से शुरू होती है,
“कार्तिक के सपने के बुद्ध प्रोफ़ेसर के कमरे वाले झक्क सफेद बुद्ध नहीं थे… आँखों में … ज्ञान की चमत्कारिक आभा नहीं… बल्कि विद्रूपता, काई का हरापन… सफेद खत्म होता जा रहा था.”
यह कहानी मुझे जेम्स जॉयस की कहानियों की याद दिलाती है जिनमें प्रतीकों के गहरे अर्थ होते हैं. प्रतीकों पर ध्यान दिए बिना किंशुक की इस कहानी के मर्म तक नहीं पहुंचा जा सकता. कहानी प्रतीकों के माध्यम से वह कहती है जो आम तौर से लेखकीय हस्तक्षेप के जरिए कहा जाता रहा है. जो दिखता है ज़रूरी नहीं है कि हो, जो दिख रहा है कार्तिक उसे परत दर परत छीलता चलता है. यह पैनी दृष्टि उसे ‘न होने’ से ‘होने’ तक की यात्रा पूरी करवाती है जो दो तरह की त्रासदियों के बीच के फासले की यात्रा है. उस दोहरे ट्रॉमा की घड़ी में अस्तित्व की अपनी पहचान को कहानी प्रसव पीड़ा की तरह पेश करती है.
“कार्तिक किसी पच्चीस पैसे के सिक्के जैसा महसूस करता है… डॉक्टर मां बाप के लिए वह तब ‘होता’ था जब … प्रतियोगिता में ईनाम जीतता था. दोस्तों के लिए ‘होता’ था जब … एग्जाम में चीटिंग करनी होती या हॉलिडे होमवर्क की कॉपियां चाहिए होती. समाज के लिए ‘हुआ’ केवल एक बार—जब उसने एक प्रख्यात मेडिकल कॉलेज में दाखिला पाया.”
यही समाज अब उसके दादा की मौत के बाद मातम मनाने और मनवाने के ढोंग पर आमादा है.
कार्तिक का इस तरह ‘होना’ अपीयरेन्स पर निर्भर है जब समाज में वह विजेता के रूप में मान्यता पाता है. नहीं तो वह सबके लिए, परिवार के लिये भी, ‘न होना’ ही रहता है. इस तरह के दबाव में जी रहा कार्तिक अंततः अपने लिये, एक विकल्प के लिये ‘होने’ तक की जो यात्रा पूरी करता है उसमें दो ट्रॉमा उसके भीतर आपस में न सिर्फ गूँथे बल्कि गुत्थमगुत्था होते रहते हैं. यही कहानी की एकान्विति है.
प्रतीकों के माध्यम से कही गई इस कहानी में सबसे पहले रंगों के चयन को देखें. कार्तिक की शर्ट लाल है. लाल कुछ भी हो सकता है, जीवन की खुशी का रंग, प्रतिरोध और विद्रोह का रंग, ट्रैफिक सिग्नल में रुक जाने का संकेत, क्रोध या बहुत गहरे शोक का गाढ़ा रंग जो आँखों में उतर आए. सबसे ऊपर यह खून का रंग है, जो जीवन धारा भी है. यहाँ यह प्रतिरोध और जीवन के आग्रह के रूप में अपने मायने बदलता रहता है. जब उससे कार में ड्राइवर कहता है कि
“मौत पर लाल नहीं पहनते, बेटाजी”, तब यह जीवन के चटख रंग का प्रतीक होता है जिसे मौत के सामने अभद्र, अश्लील समझा जाए. घर में जब वह दादी के सामने खड़ा होता है, और उनको भीड़ से अलग करना चाहता है, तब यह प्रतिरोध का रंग बन जाता है.
घर में लाल सोफ़े पर सफेद चादर डाली गई है, नीचे बिछे गद्दों पर भी सफेद चादर है जिसे लेखक सफेद का ‘फूहड़पन’ कहता है. यहाँ यह ‘सफेद’ पवित्र, बेदाग, निष्कलंक नहीं है, फूहड़ता का प्रतीक है जो शोक मनाने आए लोगों के आचरण पर और शोक प्रकट करने की उनकी शैली पर तीखा कटाक्ष है. प्रोफ़ेसर के कमरे में जिस मेज़ पर उसे औंधा गिरा दिया गया था उसी मेज़ पर स्थित मार्बल के बुद्ध भी सफेद हैं. इस बुद्ध को उसने गिरा दिया था. बुद्ध को गिराना अपने स्वाभाविक अपेक्षा पर किसी की वासना के आक्रमण का प्रतिकार तो है ही, ध्यान आकर्षित करने की युक्ति भी है ही, उस घड़ी में उसकी अनावश्यकता का संकेत है जब चीख की जरूरत होती है जिसे बुद्ध की प्रतिमा का विस्थापन ही प्रदान कर सकता है.
यही बुद्ध सपने में चितकबरा हो जाता है. वह अब मोटे काले चकत्तों से भरा हुआ है. सफेद खत्म हो रहा है. उसपर काई का रंग आ जाता है, जो ठहरे पानी में उगती है. हरा रंग सड़न का, क्षय का रंग भी है. यह क्षय सपने से ही शुरू हो चुका है जो आगे मूर्त होता जायेगा. इसी ठहरे पानी में जब कार्तिक की चेतना पत्थर फेंकेगी तब इसकी हलचल से नए जीवन का अंकुर फूटेगा. यह प्रतिहिंसा की आग से निकलेगी जब सड़न को होम कर दिया जायेगा.
उधर दादी ने पहना है ‘बेबी पिंक’ सूट. यह पिंक, खास तौर से लड़कियों के मामलों में, बचपन का रंग है. दादी ने हल्का गुलाबी सूट भी पहना हो सकता था लेकिन वह बेबी पिंक क्यों है? यह उस समय का रंग है जब उनके मन मस्तिष्क में, स्त्री जीवन के कथित अर्थ और लक्ष्य भरे जा रहे थे, जब वे संस्कारित की जा रहीं थीं. वे वहीं खड़ी हैं. अटकी हैं कहना अधिक उचित होगा. सभ्यता ने उनको यही अपीयरेन्स दी है. यह संकेत है कि वे अब बाहर नहीं आ सकतीं जबकि लाल रंग पहने उनका पोता, एक नई सेंसिबिलिटी की ओर उनको बुला रहा है. यहाँ ‘लाल’ रंग जीवन की ललकार है, जो दादी को पुकार रहा है लेकिन उनको घेरे बैठी स्त्रियाँ उनको यह पुकार सुन कर भी सुनने नहीं दे रहीं, अपने रुदन से उनको रोक रही हैं और दादी उसे चले जाने को कहती हैं. यह रुदन, यह क्रंदन ही तो पितृसत्ता को सींचता है. यहाँ ‘बेबी पिंक’ हेजिमनी का रंग है. दादी अपने पति से अधिक पढ़ी लिखी हैं लेकिन इसी बेबी पिंक ने उनके आत्मविश्वास का हरण किए रखा है, वे पति का और खुद पर थोपे गए कर्तव्यबोध कभी विरोध नहीं कर सकतीं, पति की मौत के बाद भी नहीं.
यह ‘बेबी पिंक’ कार्तिक को अपने बचपन की उस मुलायमियत की याद दिलाता है जो उसने कभी महसूस की होगी, जिसकी उसे आज ज़रूरत भी है और जो प्रोफ़ेसर के कमरे के ‘बेबी’स टियर्स’ के नरम पत्तों से जाकर मिलता है जिसे वह छूना चाहता था पर छू नहीं पाया! अब दादी का वह जीवन स्पर्श भी उसे नहीं मिल रहा, नहीं मिलेगा यह उसे अंत में समझ में आता है. इन जीवानदायी पत्तों को स्पर्श भी न कर पाना उस समय की उसकी स्थिति का प्रतीक है. कार्तिक की पहचान मौत के कगार पर खड़ी है जिसे लेखक आगे ‘हार’ शब्द देता है. आगे चलकर भयावह आग से ही वह मुक्त हो पाएगा, जब लपटें उस हार को निगल लेगी और काई पत्तों में बदलने की संभावना उत्पन्न करेगी.
पिता ने ‘मटमैले रंग’ का ट्रैक सूट पहना हुआ है. वह भूरा या ब्राउन भी हो सकता था. लेकिन वह मटमैला है, और कुर्ता पाजामा नहीं है ट्रैक सूट है. जिसमें वे पगे हैं उस सभ्यता की रूढ हो चुकी परंपराओं की ट्रैक पर दौड़ते हुए उनके इस सूट ने इतनी मैल, इतनी धूल जमा कर ली है कि अब यही उनका आवरण है. यह भी नहीं उतरेगा.
पिता उद्वेलित हैं कि पत्नी अलग बैठी है जबकि चाची ‘मेहमानों’ से बात कर रही हैं. यह प्रचलित अर्थ में मेहमान तो नहीं हैं कि उनका स्वागत किया जाए, यह तो शोक मनाने आए हुए लोग हैं लेकिन वे अभी भी उसी भाषा में बोल रहे हैं जो उन्होंने सीखी है, उनकी कोई नई भाषा भी नहीं है. इस ‘मेहमान’ शब्द का चयन ही वह कह देता है जिसके लिये लंबे भाषण चाहिए होते हैं. पिता खीझ रहे हैं कि आज इस मौके पर पत्नी कन्फॉर्म नहीं कर रही जबकि वे अपनी तरह से कन्फॉर्म ही कर रही है. दो विपरीत लिंगों के बीच संवाद के अभाव की यह अभिव्यक्ति उनकी मूल विभक्ति का संकेत है. यही सूक्ष्मता स्त्री विमर्श की भी गहरी समझ की परिचायक है.
माँ ‘हीटिंग पैड’ पर बैठी हैं. यहाँ रंग अचानक महत्वपूर्ण नहीं रहता. हीटिंग पैड पर बैठी माँ बहुत शांत हैं, ठंडी. वे नीचे की हीटिंग से, पूरी सामाजिक संरचना के तल से, हीट हासिल कर रही हैं, सबसे दूरी बनाए रख कर अपने काम को बदस्तूर करती हुई भी उसी ऊष्मा के सहारे रटी रटाई बात कह रही हैं कि मरे हुए को दोष देने से क्या फायदा?

व्यवस्था के भीतर अपना कोना बना कर समझौते के सहारे कुछ स्पेस हासिल करने की यह पुरानी तरकीब है, जिसकी बहुत तारीफ भी की जाती है और जिसे पितृसत्ता के भीतर रहते हुए भी अपनी तरह से जीने के हक को हासिल करने के उदाहरण के रूप में पेश भी किया जाता है, जो बहुत समझदार स्त्रियाँ अपनाती हैं. यह व्यवस्था को चुनौती नहीं, उसके साथ समझौता है. क्या गजब का प्रतीक है, वर्चस्व को स्वीकारते हुए उसी में अपने लिये जगह ढूँढने की और क्या मिसाल चाहिए?
यहाँ दादी के प्रतिरोध का कुछ संकेत मिलता है कि उन्होंने दादा के लिये पूरियाँ कचौरियाँ नहीं बनाईं! जो आजीवन उनका ज़ुल्म सहती रहीं, माँ उनके इस प्रतिकार को उनका बदला नहीं उनका दोष के रूप में प्रस्तुत कर रही हैं. माँ के मन में सास के लिये कोई सहानुभूति नहीं है.
इसी तरह कार्तिक जब दादाजी की मुड़ी तुड़ी तस्वीर निकालता है तो वहाँ भी मटमैली जैकेट है, नेहरू जैकेट. तुड़ी मुड़ी. तस्वीर का पूरा वर्णन दादाजी के पुरानेपान का परिचायक बन जाता है. तुड़ी मुड़ी फ़ोटो, उनकी मटमैली जैकेट और आँखों का मोतियाबिंद. यह कोई साफ शफ्फाक फ़ोटो नहीं है, जिसे मरने के बाद फ्रेम करवा कर दीवार पर टांग दिया जाता है. यह दादाजी की छवि की ही तरह तुड़ी मुड़ी है पर है बेशकीमती जिसे वह अपने सफेद कुर्ते की जेब में रख लेता है. इस बार सफेद एक कफन नहीं है, एक नई क्लीन स्लेट जैसा है जिसकी जेब में अतीत को बेशकीमती नगीने की तरह संजोना भी ज़रूरी है.
इसी के बीच शोक का असर होता ही है. रुलाई फूटती ही है. कार्तिक भी रोता ही है. उसे कितनी भी शिकायत हो वह उस परिवार का अंग है, वह भी शोक ग्रस्त है, आखिर वह अपने दादा का लाड़ला था. वह अपने जीवन के एकाकीपन की संभावना से पीड़ित भी है. यह प्रतिरोध की कठिनाई का प्रकटीकरण है. व्यवस्था के खिलाफ क्रांति तो की जा सकती है मगर संस्कारों का विरोध बहुत कठिन होता है. जब भावनाओं पर अंतरंग संबंधों की पकड़ हो तो प्रतिकार लगभग असंभव सा प्रतीत होता है. स्त्री विमर्श का यह एक अहम पहलू रहा है.
दो) |
अब यौन क्रियाओं पर आयें. यही इस कहानी को वह तीक्ष्णता देती हैं जो अन्यथा बस एक शोकाकुल परिवार में शोक का प्रदर्शन कर रहे लोगों की और जीवन मृत्यु पर विचारों की कहानी बन कर रह जाती जैसा कि पहले कई बार लिखा भी जा चुका है.
ताज़ा यौन हिंसा और दादी पर हुई लगातार हिंसा के वर्णन में लेखक की कलम दादी के दर्द के प्रति संवेदना रखते हुए भी उनपर हुई हिंसा को, पूरी तरह कोमल नहीं तो मद्धिम स्वर में बयान करती है, दाम्पत्य जीवन में उनके समझौते का कुछ हद तक ही सही, सम्मान करती है. यह ऐतिहासिक संदर्भ का सम्मान है. यह पोते का दादी की भावनाओं का सम्मान है. यही कलम कार्तिक पर हुई यौन हिंसा के वर्णन में पूरी तरह मुखर, लगभग निर्मम है, किसी भी तरह से कहीं कुछ अप्रत्यक्ष नहीं रखती. बहुत ग्राफिक है यह चित्रण. यौन हिंसा के वर्णन इतने सजीव हैं कि उबकाई आ जाए.
इसे हिन्दी में ‘बोल्ड’ कहा जाता है. असल में यह बोल्डनेस कहानी की विचारधारा में है जो परंपरा के हर अंग को अंत में ठुकरा देती है जो पंडित के प्रति यौन आकर्षण के बावजूद उससे दूरी बनाने में परिलक्षित होता है. यह नकार सम्पूर्ण है, इसमें किसी भावना, कामुक आकर्षण सहित किसी कमज़ोरी, के लिये कोई स्थान नहीं है.
कार्तिक को पिछली ही शाम के अनुभव के बाद इसी दादी से आशा थी कि वे उसके द्वन्द्व को समझेंगी, सांत्वना के दो बोल बोलेंगी. अपने पिता से भी उसे आशा थी. लेकिन धीरे-धीरे वह समझने लगता है कि उसके ही प्रोफ़ेसर के कमरे में जाने के फैसले को प्रश्नांकित किया जायेगा. आखिर वह सब जानते हुए ही गया था, वह पाने गया था जो उसे नहीं मिला लेकिन कौन समझेगा कि उसे वह नहीं मिला जो उसने चाहा था, वैसा नहीं मिला जैसी उसने कल्पना की थी? यही तो शोषण और दमन का मूल है, बुनियाद है, जो अंतरंग क्षणों में ही महसूस होता है जब वे अंतरंग नहीं रहते.
यह कहानी कह रही है कि यह सामाजिक संरचना व्यक्ति का, व्यक्तित्व का, उसकी अस्मिता का, निरंतर बलात्कार कर रही है. फिर भी पीड़ित और उत्पीड़ित के बीच एक मूल सहमति है. इस सर्वानुमति के बिना व्यवस्था इतने लंबे समय तक टिक नहीं सकती थी. स्त्रियाँ अगर इस पितृसत्ता को आत्मसात न करें तो उसका वर्चस्व बना नहीं रह सकता. उसी तरह सेकशूअल अल्पसंख्यक पितृसत्ता की रीत को मानने का ढोंग करने को मजबूर हैं. रघु के साथ संक्षिप्त संवाद में यह प्रकट होता है, जिसमें रघु स्टेबल लोगों से घिरे हो कर भी ग्राइंडर से निजात नहीं पा सकता क्योंकि वही उसका एक निजी कोना है, ठीक वैसा जैसा कि कार्तिक की माँ ने बना रखा है अपने लिए.
यह सर्वानुमति सबसे अंतरंग पलों, संभोग के दौरान ही टूटती है जिसमें सम-भोग नहीं होता. इसी कारण नितांत निजी को राजनीतिक कहा जाता है. इसे चिन्हित करने का साहस होना चाहिए. उसके विरोध का भी जोखिम उठाना पड़ेगा. दादी भी सामाजिक रीत में सम-भोग के अभाव का विरोध बड़े अस्फुट शब्दों में करतीं हैं, जैसे उनका पति की मौत पर लोगों के उद्गारों से सहमति जताते हुए भी जोड़ देना कि ‘अपने भाइयों, बच्चों और पोतों के लिये’ वे अच्छे आदमी थे. ऐसा ही वे जीवन भर करती आई हैं. यह प्रतिरोध कभी विद्रोह नहीं बन पाता.
उनकी इस मनःस्थिति से वाकिफ कार्तिक अपने ही साथ हुई यौन हिंसा में अपनी ही भूमिका के विश्लेषण को विवश उनसे उस विरोध की आज ऐसी आकांक्षा कर रहा है जो उसे भी झूठ को जीने से मुक्त कर दे. वह दो पीढ़ी दूर के अग्रज से दिशा निर्देश चाह रहा है. आज तो दादाजी मर चुके हैं, दादी को अब किसका डर है? वे मुक्त होंगी तो उसे भी अपनी दुविधाओं से मुक्ति में मदद मिलेगी.
वह एकदम निजी अनुभव के ताज़ा ज़ख्मों के आलोक में दादी की जीवन की समीक्षा करता हुआ उनको अपने प्रतिरोध में शामिल करना चाह रहा है. वह खुद सहमति असहमति के द्वन्द्व से उबर कर खुद के अनुभव को वैधता प्रदान करने के लिये कटिबद्ध लगता है. इस द्वन्द्व का रेसॉल्यूशन ही उसे उसके अस्तित्व की पहचान देगा. मौत पर मातम के प्रदर्शन से ही उसे वह रोशनी मिल रही है जिसमें वह अपने अनुभव को आंक सकता है.
इन प्रसंगों के प्रतीक तो मारक हैं. जो स्थान उस संभोग के लिये चुना गया है वह है एनिस्थीसिया ब्लॉक! जिसके पास गया है वह है एनिस्थीसिया का प्रोफ़ेसर जो लोगों को संज्ञा शून्य करने में महारत रखता है. वह गया है क्योंकि उसकी उम्र में सेक्स की उद्दाम लालसा है. लेकिन वह सिलिकॉन का पुतला नहीं बनना चाहता. वह एनिस्थिटाईज़ नहीं होना चाहता. यहीं कँसेन्ट टूट रहा है. इसका विस्तृत वर्णन ही कहानी में सर्वानुमति का सूक्ष्म परीक्षण है जो कहानी को समृद्ध करता है.
जिन औरतों के साथ बलात्कार होता है उनके साथ इसमें गहन सहानुभूति नहीं, समानुभूति है, एम्पेथी है. उनसे भी अक्सर पूछा जाता है कि तुम गई क्यों थी? तुम चीखी क्यों नहीं? विरोध क्यों नहीं किया? यह इस कहानी का प्रबल पक्ष है.
वह गया ही क्यों था? यह सवाल कार्तिक भी खुद से पूछ रहा है. ‘शावक’ को फँसाने में माहिर अधेड़ उम्र का शादी शुदा प्रोफ़ेसर उसे बार बार जल्दी से आने के लिये मेसेज कर रहा है. कार्तिक शुरू में फोन उलटा भी रख देता है, उसे डर है कि केम्पस में ही संसर्ग के लिये यह न्योता कोई स्कैम भी हो सकता है, पर यकीन भी है कि एचआईवी का खतरा नहीं है. वह इस निमंत्रण को अनदेखा नहीं कर पाता और प्रोफ़ेसर के कमरे में कई दुविधाओं के बावजूद चला जाता है. वहाँ जो होता है उसकी पूरी प्रक्रिया को देखते हैं.
शुरुआती चुंबन उसे अच्छा भी लगता है. इसमें दोनों की भागीदारी है.
“प्रोफ़ेसर ने उसे अपने बारे में सच बताया था. और इस मिलने का मंतव्य भी. फिर जब उसे चूमा था तो उन लिसलिसे होठों के स्पर्श से उसका शरीर कुछ झंकृत, कुछ वाइब्रेट हुआ था. ‘एकदम शांत बैठे रहो, मैं करूंगा जो भी करूंगा. तुम बस मज़े लो’. प्रोफ़ेसर ने उसके कान में कहा था तो उसके कानों तक में झुरझुरी दौड़ गई थी’.”
यहाँ तक रूमानी अपेक्षा का आदर है. फिर अचानक ही यह आक्रमण में बदल जाता है. कोई फोरप्ले नहीं है. कार्तिक को आगे आने वाली क्रियाओं के लिये तैयार नहीं किया जा रहा. उसे रूमानी प्रेम तो नहीं मिलेगा, वह भी जानता है, वह संभोग के लिये ही आया था लेकिन यहाँ न नरम गरम स्पर्श हैं, न धीरे धीरे अनावरण का संगीत. यह अब सम-भोग नहीं रहा, आखेट बन गया है.
यहाँ अगर कहानी एक भी बात खोल कर बताने से चूक जाती तो सत्य का उद्घाटन होता कैसे?
यहाँ ओरल सेक्स का जैसा वर्णन है वह बलात्कार की वीभत्सता को महसूस कराता है. प्रोफ़ेसर का लिंग, उसका बकबका स्वाद, उसका लिजलिजापन, गंध, सब कुछ है. जो नहीं है वह है सुख की अनुभूति और सहभागिता. यह पूरी तरह से एकतरफा है. एक स्वार्थी प्रोफ़ेसर उसे सिर्फ अपनी वासना पूर्ति के लिये इस्तेमाल कर रहा है. वह आया अपनी इच्छा से था लेकिन जो हो रहा है उसकी अनिच्छा के बावजूद हो रहा है. कार्तिक विरोध भी करना चाहता है लेकिन एक अनुभवी प्रोफ़ेसर ने उसके बाल पकड़ रखे हैं, उसके मुँह में लिंग ठूँसे हुए है, उसे हिलने भी नहीं दे रहा.
यही एनिस्थिसिया है. यहाँ आक्रमणकारी के लिये उसकी सहमति निरर्थक हो गई है. पहले उसने जो सहमति दी थी यहाँ आने के बाद वही मान्य रहेगा. वह कुछ भी नहीं कर सकता. कन्सेन्शूअल सेक्स होता क्या है? परस्पर सहमति कब बदलती है? कब वह सहमति टूटती है? इसका बहुत बारीक वर्णन इसमें है. फिर भी जब भी बलात्कार का ज़िक्र होता है इस मूल सहमति की ही बात होती है.
यह मूल सहमति धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था है, सर्वव्यापी है, कण कण में भगवान की उपस्थिति की तरह है, मतलब हर घर, हर परिवार, हर रिश्ते में प्रतिबिंबित है. यह व्यवस्था अंतरंग पलों तक में सत्ता का खेल बन जाती है इसलिए उन अंतरंग पलों की कुरूपता को समझना होगा. जब व्यवस्था ऐसी हो कि फरियादी ही कठघरे में खड़े कर दिए जाएँ तो शिकायत करने में उनका भय, उनकी हिचकिचाहट स्वाभाविक है. इनको होम करना ही होगा. कहानी कई प्रतीकों और बिंबों से यह उजागर करती है.
यहाँ का एक बिम्ब तो स्तब्धकारी है. प्रोफ़ेसर उसके होंठों को कागज़ की तरह खींचे रखता है, फटने की हद तक. सब कुछ लिखा हुआ, पढ़ा हुआ, सारे शास्त्र, सारा साहित्य, तमाम थ्योरिज़ यहाँ फटने की कगार पर हैं. फटे नहीं हैं मगर. उनकी चिन्दियाँ आसानी से नहीं उड़ेंगी. जब होंठ ही खींच दिए गए तो स्वर निकलेगा कहाँ से?
कार्तिक अभी खुद उन चर्चाओं और उनके असर से मुक्त नहीं है. वह बलत्कृत महसूस कर रहा है मगर अपने ही अनुभव, अपनी ही भावना पर उसे यकीन नहीं हो रहा, बार-बार उसे लगता रहेगा कि जो हुआ उसके लिये वही ज़िम्मेदार है. किससे कहे? वह तो खुद से भी कहने से हिचकिचा रहा है. वह गया ही क्यों? उसे बाद में लगता भी है कि पिता भी यही पूछेंगे.
कानून और समाज की नज़र में वह बच गया है, अपनी नज़र में वह ‘हार’ गया है. कानून की नज़र में वह बच गया? असल में आक्रमणकारी बरी हो गया. क्यों? व्यवस्था तो मूल कँसेन्ट को ही मान्यता देगी. उसका ‘होना’ अब अपनी ही नज़र में ‘न होना’ बन गया है. यहाँ से शुरू होती है उसके अपनी ही शर्तों और मानकों पर ‘होने’ के खोज की.
इसीलिए उसके आधे सर में, बाईं ओर, दर्द है. यह बायाँ ब्रेन ही तर्कशक्ति का केंद्र कहा जाता है. दायाँ हिस्सा, जो अंतरज्ञान या इंटयूशन का हिस्सा है, अभी जागृत है. कहानी इसमें यह अनकहा छोड़ देती है कि इन दोनों हिस्सों के बीच क्या बहस हुई? महसूसने और सोचने के बीच का अंतर वह घटनाक्रम में स्पष्ट करती चलती है जब वह कानून, समाज और उसकी रूढ परंपरा को झेलता, सहता, अपने एकाकीपन की संभावना से पीड़ित रहते हुए भी जो दिखता है उसकी असलियत को पहचानता हुआ अपने ‘न होने’ से ‘होने’ की यात्रा पर निकलता है.
यह सफर लंबे समय से चल रहा है लेकिन असहनीय तनाव की घड़ी में चरमोत्कर्ष पर आ गया है. अब चयन का समय आ गया है. जब मौत भी इस अपीयरेन्स को खत्म नहीं कर सकती तो कैसे और क्यों वह इसे स्वीकार करे?
उसे इस मार्ग में दादी का भी साथ नहीं मिल रहा और अकेलेपन की संभावना उसे त्रस्त रखती है. संभावित एकाकीपन का यह डर दरअसल इस तरह के स्टेबल लोगों से घिरे होने से ही पैदा हुआ है जबकि उनके संग साथ के प्रति उसमें विकर्षण ही है.

तीन |
कहानी की इस द्रुत गति को तोड़ता है लंबे कर्मकांड का विवरण. उसकी अपनी कल्पना में शोक वायलिन की सिम्फनी है, लोग चाहें तो हंस लें, चाहें तो रो लें, सबको अपने शोक को अपनी तरह से अभिव्यक्ति का अवसर मिले. मगर हो क्या रहा है? ‘जिनका पेट मृत्यु की नीरस कहानी से नहीं भरा था’ उनसे घिरा कार्तिक मौत के बाद की अंतिम क्रिया निर्लिप्त भाव से देख रहा है, अब उसे खीझ भी नहीं हो रही.
यह अंश इसलिए मायने रखता है कि इसमें शोकाकुल या मृत्यु से प्रभावित लोगों की भागीदारी शून्य या न्यूनतम है. एक धार्मिक व्यक्ति उनका प्रतिनिधि बन गया है. कमान उसीके हाथ में है, वही सब कुछ कर रहा है. टीका लगाना, कपूर की टिकियाँ रखना, लकड़ियों को हौदी में सजाना, कुछ भी ऐसा नहीं है जिसमें उन धार्मिक प्रतिनिधियों के अलावा किसीकी कोई भी शिरकत हो. यह सहभागिता नहीं है, किसी और के हाथ में नियंत्रण देना है, जिसमें सबकी सहमति है. ऐसा ही तो उसके साथ कल रात हो चुका है, ‘मैं करूंगा जो भी करूंगा’. हाँ, उनको अग्नि देनी है. उतना अधिकार उनका है. लेकिन पानी का घड़ा पकड़ाने, और चक्कर काटने के बाद उस मटके को अलग रखने का काम भी पंडित ही कर रहा है. यह विवरण उबाऊ लग सकता है. दो मिनट नहीं लगते इसे पढ़ने में लेकिन यह एक उम्र के उबाऊपन को महसूस करा देता है. यह भी कहानी को दृश्यों के माध्यम से कहने की सिद्धहस्तता की झलक है.
इस दृश्य में या इस अंश में जो है मुझे उससे ज़्यादा महत्व उसका लगता है जो नहीं है. जैसे कार्तिक का अपने परिवार से कटकर सिर्फ ओब्ज़र्वर रह जाना. अभी, अभी वह रोया था, शोकाकुल था, परिवार के साथ जुड़ा था और अब वह सिर्फ दर्शक रह गया है. यहीं हेजिमनी टूटती है. इतने बारीक ढंग से यह बात कही गई है कि इसे समझने के लिये कहानी की पूरी प्रक्रिया को देखने के मानसिक कसरत की ज़रूरत है.
इसी तरह यहाँ फूलों की अनुपस्थिति भी महत्वपूर्ण है. न गेंदे के पीले नारंगी फूलों की छटा है, न है गुलाब की लाल पंखुड़ियाँ. सब बेरंग है. अब तो कार्तिक भी सफेद कुर्ते में है. सामाजिक दबाव में उसने भी रंग त्यागना स्वीकार कर लिया है, दादाजी के पैर भी छूए हैं.
अब रंगों का महत्व नहीं बचा है, अब मनोभावों के, एक नए व्यक्तित्व के निर्माण का समय आ गया है.
जब अग्नि प्रज्वलित हो जाती है तब लेखक ने आग की तपिश की नहीं उसकी हिंसा की बात की है. एक मृत देह पर उस हिंसा का कोई असर तो नहीं होता, उसका कोई अर्थ भी नहीं है, लेकिन यह लपटें ज़िंदगी की नई परिभाषा के लिये महत्वपूर्ण है, यह प्रतिहिंसा ही संस्थागत हिंसा का जवाब है. यही प्रतिहिंसा दादी को उस आक्रांता से मुक्त कर सकती है. यह महसूस करता हुआ कार्तिक अपने साथ हुई हिंसा से जूझ भी रहा है और परोक्ष हिंसा से उसे खाक होते देखना भी चाह रहा है. वह चाहता है कि दादी के भीतर जो अप्रकट प्रतिहिंसा की भावना रही होगी, उसका मूर्त रूप देख कर वे केथार्सीस हासिल करें, मुक्त हो जाएँ. अब तक ‘अच्छा बच्चा’ और ‘राजा बेटा’ बनने का जो आकर्षण उसकी चेतना को कुछ हद तक जकड़े था उसे झटकने का वक्त आ गया है. वह दादी से यह बात साफ-साफ कहता भी है. “चलो दादी….. उस धधकती आग को देख कर आपको सुकून मिलेगा.”
यहीं, इसी पल में, कार्तिक ने समाज की रूढ़ियों को, उसकी अपेक्षाओं को, उसकी मांग के औचित्य को नकार दिया है. उसे परवाह नहीं है कि सब सुन रहे हैं, क्या सोचेंगे, क्या कहेंगे. अब कोई इशारा नहीं है, कोई अस्फुट अनुरोध नहीं है, सीधा सीधा, सबके सामने, उसकी घोषणा है कि दादी उस ‘अच्छे आदमी’ के असर से अब आज़ाद हो सकती हैं. दादी उठती भी है, लेकिन बैठ जाती है. भेड़ों के रेवड़ के रिरियाने की आवाज ही वे सुनती हैं, सामने खड़े पोते का इतना सीधा सीधा मुक्ति का निमंत्रण वे सुन कर भी अनसुना कर देती हैं. यहीं कार्तिक का मोहभंग है. वह जान गया है कि दादी कभी मुक्त नहीं हो पायेंगी. वे रेवड़ में ही रहेंगी. चयन का जो भी दबा हुआ साहस उनमें गाहे बगाहे सर उठाता रहा होगा वह सर इस रेवड़ ने काट दिया है. उनका बेबी पिंक सूट उतरा ही नहीं है, वे मुक्त होंगीं कैसे?
यही मोड़ है जहां वह अपनी सहमति असहमति के द्वन्द्व से उबरने लगता है. मृत्यु के इस क्षण में ही जीवन का अंकुर फूटना है.
चार) |
कहानी का अंत इससे भी ज़्यादा अर्थपूर्ण है.
कहानी में एक युवा पुजारी भी आता है. उसके गठीले बदन, उसकी मांसपेशियों, उसके आटा गूंधने का, उनके गोले बनाने का वर्णन इतना मांसल है कि मृत्यु के बाद के माहौल में कुछ लोगों को यह अश्लील भी लग सकता है.
यहाँ लेखकीय साहस अवनत करा जाती है. उसके प्रति कार्तिक के आकर्षण का विवरण मृत्यु से सामना होने पर जीवन का अभिकथन है. कार्तिक लगातार उस युवा पुजारी के नज़दीक जाने की कोशिश करता रहता है. पुजारी की कोहनी का उसके पेट को अनायास छू जाना, स्पर्श की आकस्मिकता से उत्पन्न स्फुरण, ऐसी सामान्य सी बात में भी विस्मयजनक कामुकता है.
अंत तक आते आते वह इस दैहिक आकर्षण से ऊपर उठ जाता है. कार्तिक इसी पुजारी की गरम सांसें अपनी गर्दन पर महसूस करता है मानो प्राण प्रतिष्ठा हो रही हो एक सिलिकॉन के पुतले में. वह पीछे हटता जाता है. यह पुजारी उस पूरे धार्मिक प्रतिष्ठान का प्रतिनिधि है जिसे उसने अभी अभी देखा, सहा है, फिर भी उसे उसकी देह मात्र अपनी ओर खींच रही थी जिससे वह अब कोई रिश्ता नहीं रखेगा. यथास्थिति की मांसलता से दूरी बनाना जरूरी है, उसके ठोस दबाव से कदम पीछे हटाना ज़रूरी है.
उसे सिर्फ देह नहीं चाहिए. वह खुद सिर्फ देह नहीं है और वह दूसरे को भी सिर्फ देह नहीं बनाना चाहता. वह एक सजग संवेदनशील व्यक्ति है, उसके लिये अन्य भी समान व्यक्ति रहेंगे. न वह शोषक बनेगा न वह शोषित रहेगा. अब वह उस आत्मविश्वास से आप्लावित होना चाहता है जो दादी में नहीं था.
एक सारगर्भित अंत.
हिन्दी कहानी ने लंबा इंतजार किया है इस प्रतिभा का. किंशुक की प्रतिभा से ईर्ष्या होती है.
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अंजली देशपांडे पत्रकार और एक्टिविस्ट हैं. हिंदी और अँग्रेज़ी दोनों भाषाओं में लिखती हैं. इनके दो उपन्यास और एक कहानी संकलन प्रकाशित हुए हैं. हाल ही में मारुति फैक्ट्री में मज़दूर संघर्ष पर नंदिता हक्सर के साथ इनकी हिंदी और अँग्रेज़ी में पुस्तक, ‘फैक्ट्री जापानी, प्रतिरोध हिंदुस्तानी’, प्रकाशित हुई है. |
समीक्षा का स्तर बेहद उच्च है। अंजली देशपांडे जी ने जिस तरह से इस कहानी को टटोलते हुए इसका मूल्यांकन किया है वो समीक्षा के तमाम पैरामीटर्स पर खरी उतरती हैं और कहानी उतनी ही पाठक के मस्तिष्क में हलचल उत्पन्न करती जाती है। एक आकर्षण तो प्रोफेसर है ही इस कहानी का। कहानी की बुनावट श्रेष्ठ है।
समीक्षाकार और कहानीकार दोनों को स्टार।।।।
सेक्शुऑलिटी. सेक्स नहीं, सेक्शुऑलिटी जो सेक्स के इर्दगिर्द खड़ी की गई पाप, पुण्य, स्वीकृतियों, वर्जनाओं, परिपाटियों और धार्मिक और सामाजिक व्यवस्थाओं की बाड़ के रूप में हर समय उपस्थित रहती है.
कई अन्य हिस्से भी उपयोगी सूत्र देते हैं। Anjali Deshpande प्रबुद्ध दृष्टि संपन्न हैं। उनके कमेंट सोचने के लिए प्रेरित करते हैं।
किंशुक की कहानी पढी थी| तब भी बहुत अच्छी लगी थी, लेकिन यह आलेख पढने के बाद कहानी के कई दृश्य, रंग संयोजन, संवाद और अधिक स्पष्ट हुए| एक बेहद समृद्ध कहानीकार और एक साफ़ दृष्टि वाली आलोचक को पढ़ना, समृद्ध होने जैसा लगता है|