अरुण कोलटकर-3 कवि का तलघर अरुण खोपकर मराठी से हिंदी अनुवाद: गोरख थोरात |
चिरीमिरी
‘चिरमिरी’ संग्रह का सबसे महत्वपूर्ण पात्र है बलवन्त बोवा. पहले उसका परिचय देता हूँ. इसके लिए थोड़ा-सा विषयान्तर करता हूँ. सन 1965-66 से अरुण को संगीत में दिलचस्पी लगने लगी थी. अपनी अंग्रेज़ी कविताओं का स्वयं ही गायन कर सन 1967 में उसने कुछ रेकॉर्ड भी बनाए थे. बीटल्स, बॉब डिलन इत्यादि उस दौर में चर्चित रॉक स्टार के साथ ब्लूज़ गायकों के लाँग प्लेइंग रेकॉर्ड जमा किए थे. ब्लूज़ गाने वाले अधिकांश अफ़्रीकी-अमेरिकी थे और अत्यन्त दरिद्रता में जी रहे थे; कुछ तो जेल में थे. कुछ प्रत्यक्ष ग़ुलाम नहीं थे, लेकिन बहुत हाड़-तोड़ मेहनत कर रहे थे. ऐलन लोमाक्स नामक अमेरिकी संगीतविद् ने ब्लूज़ और लोकसंगीत के रेकॉर्ड बनाए. विल्यम डिक्सन ने मार्टिन स्कोर्सीसी द्वारा प्रस्तुत The Blues पुस्तक में इस संगीत का, एक वाक्य में सुन्दर वर्णन किया है. ‘the blues is the roots… everything else in the fruits.’[1]
यहाँ प्रयुक्त ‘roots’ शब्द का सन्दर्भ एलेक्स हेली के ‘रूट्स’ नामक विख्यात पुस्तक का सूचकता से उल्लेख करता है. इस पुस्तक में नायक का सात पीढ़ियों पहला पूर्वज अफ़्रीका में पकड़ा जाता है. पुस्तक में उसका ग़ुलाम रूप में अमेरिका में आने से पहले के जीवन का वर्णन है. यह पूर्वज जंगल में ‘मानवीय शिकार’ बनता है. सभी मानवीय सम्बन्धों से उखड़ जाता है. ग़ुलामों के जहाज़ द्वारा घृणित परिस्थितियों में वह अमेरिका आता है और ग़ुलामी में कठिन ज़िन्दगी जीता हुआ सात पीढ़ियों तक जैसे-तैसे टिका रहता है.[2]
कोअन ब्रदर्स की सन 2000 में निर्मित ‘ओ ब्रदर, व्हेयर आर्ट दाउ’ फ़िल्म में दिखाया गया है कि ब्लूज़ की निर्मिति कितनी वेदनामयी परिस्थितियों में हुई. जंजीर से एकत्र बाँधे कैदियों के जीवन में संगीत का अजीब लगने वाला यह चित्रण यथार्थ पर आधारित है.
अरुण का झुकाव था सन्त काव्य की ओर. सन्तकाव्य और ब्लूज़ में अनेक साम्यस्थल थे. अधिकांश सन्तकवि समाज के सबसे दबे-कुचले वर्ग से आए थे. जिस तरह ब्लूज़ की रचना निरक्षर लोगों ने की थी, उसी प्रकार अक्षर ज्ञान से अपरिचित कवियों और बेचारी स्त्रियों ने ओवी और अभंग जैसे ख़ास मराठी छन्द में अपनी भावनाएँ अभिव्यक्त की थीं. सन्तों का काव्य गेय था और वह जीवन के मनोरंजन के खेलों में भी उतर आया था. किकली, हमामा इत्यादि खेल तुकाराम में भी हैं. अरुण को तुकाराम से इतना प्यार था कि उसने उनके काव्य के अध्ययन और प्रतिभा से उन पर अधिकार ही स्थापित किया था! एकनाथ ने तो अपनी जीवनदृष्टि का प्रचार करने के लिए भारूड़ और अन्य प्रकारों का उपयोग किया.
ये दोनों प्रवाह अरुण की ज़िन्दगी में और मराठी तथा अंग्रेज़ी काव्य में अलग-अलग बहते रहे. तभी संयोग से ऐसी घटना घटित हुई, जिसने अरुण की ज़िन्दगी को एक अलग मोड़ दिया. कविता से वह गद्य की तरफ़ भी मुड़ा और उसने दो उपन्यास लिखे. उनमें से एक का चरित्रनायक था ‘चिरमिरी’ कविता संग्रह के बलवन्त बोवा.
अरुण के इस संगीत सफ़र के दौर में मेरा संगीत और नृत्य के साथ फ़्लर्टिंग चल रहा था. नीला भागवत के साथ मैं महान कथक गुरु लच्छू महाराज के पास नियमित रूप से जाता था. वहाँ अर्जुन शेजवल नामक विख्यात पखावज वादक आते थे. वे महाराज जी की एक छात्रा को नृत्य के लिए पखावज का साथ देते थे. अरुण द्वारा संगीत सीखने की इच्छा प्रदर्शित करने के बाद, मैंने उसे पं. आरोलकर और काका पटवर्धन आदि ग्वालियर घराने के दो संगीतकारों के नाम सुझाए.
अरुण को भारतीय ख्याल संगीत सीखने में दिलचस्पी नहीं थी. उसे कोई तालवाद्य सीखने की इच्छा थी. लेकिन वह तबला नहीं सीखना चाहता था. मैंने पखावज का नाम लेते ही वह ख़ुश हो गया. एक दिन शेजवल को लेकर मैं अरुण के कुलाबा स्थित घर गया. शेजवल भजनिया मण्डल के साथ पखावज बजाते थे. उनका स्वभाव अत्यन्त स्नेहिल था और वे भजन परम्परा में बिल्कुल रचेबसे थे. फिर क्या पूछना! पहली मुलाक़ात में ही उनकी बात बन गई और तुरन्त अरुण की पखावज शिक्षा शुरू भी हो गई. कुछ समय खण्डन-मण्डन चलता रहा. लेकिन भीतर से अरुण को पखावज बजाना आने के बजाय कुछ और ही घटित हो गया. उसका बलवन्त बोवा से परिचय हुआ.
शेजवल और अरुण के परिचय के लिए मैं बस बहाना बना हूँ. उस समय मुझे ही क्या, शायद अरुण को भी अनुमान नहीं था कि इस घटना का अरुण पर और परोक्ष रूप में मराठी कविता और साहित्य पर ऐसा असर होगा. जैसे, हम टीले के माथे पर खड़े हैं. हमारे पैर से अनजाने में एक छोटा-सा पत्थर खिसकता है. वह पत्थर दूसरे पत्थर से टकराकर तीसरा पत्थर फ़िसलता है और आख़िरकार उसका रूपान्तरण एक बहुत बड़े टीले के दरकने में या भीषण अश्म-प्रपात में होता है. कुछ ऐसी ही यह घटना थी.
शेजवल भजन गाने वाले बलवन्त बोवा के लिए पखावज से साथ संगत करता था. इस कारण अरुण और बलवन्त बोवा का परिचय हुआ. अरुण को अपने दौर का सन्त परम्परा वाला और अपने जैसी ही विनोद बुद्धि वाला बेफ़िक्र और मस्तमौला आदमी मिल गया. अरुण ने उनसे नियमित रूप से मिलना शुरू किया और इन मुलाक़ातों और वार्तालापों को वह दर्ज भी करने लगा. पहले उस पर तुकाराम सवार था, अब बलवन्त बोवा भी सवार हो गए. फिर ज़िन्दगी के तीस साल बलवन्त बोवा के अनुभव को, अपनी प्रतिभा से मोड़ देते हुए उसने ‘बलवन्त बोवा’ उपन्यास और ‘चिरमिरी’ की कविताएँ लिखीं.
मैं शिवाजी पार्क में जहाँ रहता था, वहाँ अरुण ने ‘बलवन्त बोवा’ उपन्यास के महत्वपूर्ण अंशों का छह घंटे तक पठन किया था. लगभग छह सौ पृष्ठों का यह उपन्यास अभी अप्रकाशित है. उसका एक छोटा-सा अंश चंद्रकान्त पाटील ने मराठवाड़ा साहित्य परिषद की ‘प्रतिष्ठान’ पत्रिका में अरुण कोलटकर पर केन्द्रित विशेषांक में प्रकाशित किया था. इसमें बलवन्त बोवा की देखी और अनुभव की वेश्याबस्ती और आर्थिक निम्न स्तर के जीवन का इतना खुल्लम-खुल्ला चित्रण है कि उसके प्रकाशित होने पर लेखक और प्रकाशक, दोनों को बहुत ज़्यादा प्रताड़ना सहनी पड़ेगी. शायद इसीलिए अरुण ने अपनी ज़िन्दगी में उसे प्रकाशित करने का प्रयास नहीं किया. अब इस सम्बन्ध में सारे दस्तावेज़ अशोक शहाणे के पास हैं. अरुण का रायन नामक एक फ़ोटोग़्राफ़़र मित्र था. उसकी ज़िन्दगी पर अरुण ने अंग्रेज़ी में लिखा उपन्यास भी अभी अप्रकाशित है. यह भी अशोक के पास वाले दस्तावेज़ों में समाविष्ट है. रायन से मैं कई बार मिला हूँ, लेकिन इस उपन्यास की एक भी पंक्ति मैंने नहीं पढ़ी है.
यह सारी रामायण ‘चिरीमिरी’ की कविताओं के जन्म का रहस्य उद्घाटित करने के लिए और ‘बलवन्त बोवा’ उपन्यास के चरित्रनायक बलवन्त बोवा की एंट्री की तैयारी के लिए….
‘चिरीमिरी’ की प्रारंभिक कविताओं में बलवन्त बोवा द्वारा एक सौ सात वेश्याओं को साथ लेकर पंढरपुर की वारी में किए गए प्रयाण के अनुभव हैं. बाद की कुछ कविताएँ, बोवा द्वारा अरुण को सुनाई अपनी ज़िन्दगी की घटनाओं पर आधारित है. एक-दो कविताओं में बोवा और अरुण की मुलाक़ातों के भी प्रसंग हैं.
जिन्होंने अरुण की सारी कविताएँ पढ़ी हैं, उन्हें यह महसूस होगा कि ‘चिरीमिरी’ केवल अरुण की कविता की ही नहीं बल्कि कुल मराठी कविता की एक बहुत बड़ी छलाँग है. अरुण की कविताओं का अतिसूक्ष्म निरीक्षण, दृक्-बिम्ब, नाद-बिम्ब, प्रतिभा की उत्तुंगता, विनोद का अनपेक्षित व्यंग्य इत्यादि गुण तो यहाँ हैं ही, लेकिन उसकी भाषा और बिम्बों के स्वरूप में भी सादगी और ठेठपन है. सन्तकाव्य की तरह मनुष्य और प्राणीमात्र के प्रति करुणा और दया इन कविताओं में फूटती है. बलवन्त बोवा के रूप में अरुण को सन्त का बीसवीं शती का एक अवतार मिला था. सन्त का कारुण्य, विनोद और ख़ालिसपन का सहज-सुन्दर संयोग अरुण ने अपने गद्य और पद्य में कुशलता से किया है. अरुण की इसके पहले की कविताओं की बिम्बों की कठिन गुत्थियाँ ख़त्म होकर ‘चिरीमिरी’ में अम्बु-बम्बू की वेणियाँ, गजरे और सादे जूड़े आने लगे.
‘चिरीमिरी’ की प्रारंभिक कविताओं में बलवन्त बोवा के साथ पंढरपुर जाने वाली वेश्याओं की वारी या यात्रा की खुले विनोद की चंट कथाएँ हैं, जैसी तमाशा के सोंगाड्या (विदूषक) में होती हैं. चंटपन के साथ-साथ हमेशा लोककला के उत्तम उदाहरणों में पाए जाने वाला उदार जीवन का भाष्य भी है. यह दो बार वक्रीभूत हुए तिरछे तेज वाले किरणपुंज से फेंका गया रंगपट है. इसका पहला वक्रीभवन बोवा के जीवन दृष्टिकोण के कारण होता है. दूसरा वक्रीभवन बोवा की ओर अरुण जिस दृष्टिकोण से देखता है, उसके कारण होता है. उससे क्षेपित रंगपट में जीवन के सारे दृश्यमान रंग तो आते ही हैं, साथ-साथ अतिनील और अवरक्त रंगपटल भी आए हैं.
मुझे लगता है, बलवन्त बोवा और अरुण के बीच का नाता कुछ-कुछ मौलाना या रुमी आदि नामों से विख्यात फ़ारसी कवि जलालुद्दीन महम्मद बाल्खी (1207 से 1273) और शम्स ए ताब्रीझ नामक सूफ़ी अवलिया के बीच के आध्यात्मिक एकात्मता के नाते जैसा होगा. ‘चिरीमिरी’ एक दृष्टि से मराठी का ‘दीवान ए शम्स ए ताब्रीज़’ है.
रूमी अपने शम्स ताब्रीज़ के साथ रिश्ते के बारे में लिखता है,
Why should I seek… I am the same as
He. His essence speaks through me
I have been looking for myself.[3]
अरुण की कविता के सम्बन्ध में रूमी का उल्लेख खींच-तानकर नहीं लाया गया है. अरुण को फ़ारसी काव्य से, विशेषतः रूमी की कविताओं से इतना लगाव था कि उसमें से कुछ के मराठी अनुवाद करने की उसकी इच्छा थी. अरुण के सन्दर्भ में, अनुवाद की क्रिया अनूदित कवि को अंशतः आत्मसात करने जैसी थी. अरुण ने मुझे बताया था कि उसने गिरीश दामनिया नामक फ़ारसी के जानकार मित्र से रूमी की कुछ चुनिन्दा कविताओं का पठन करवाया था. उसके पीछे अनुवाद से पहले मूल कविता की ध्वनि और लय समझने का उद्देश्य था.
‘चिरीमिरी’ के पहले भाग की कुछ कविताओं का विश्लेषण मैं आपके सामने प्रस्तुत करना चाहता हूँ. बलवन्त बोवा के कबीले का सफ़र जिस तरह एक जीवन यात्रा है, उसी तरह जीवन मेला (जत्रा) भी है. उसमें मेले के अलग-अलग ‘आकर्षण’ दृष्टिगत होते हैं. मेले का प्रत्येक आकर्षण, एक स्वतन्त्र कथन को साथ लेकर आता है. वैसे कुल मेले का ऐसा कोई ‘कथन’ नहीं होता, यही मेले की विशेषता है. जैविक एकता, यह बात मेले के ध्यान में भी नहीं होती. लेकिन प्रत्येक ‘आकर्षण’ में दर्शकों को उलझाए रखने की शक्ति होती है.
यद्यपि मेला महाराष्ट्र का हो, लेकिन मेले की परम्परा अनेक संस्कृतियों में पाई जाती है. जिससे चैप्लिन, बस्टर कीटन इत्यादि महान मूकाभिनेता उत्पन्न हुए, उस व्होदव्हिल और म्यूज़िक हॉल आदि दोनों यूरोपियन परम्पराओं का उगम इसी उपसंस्कृति में हुआ है. चलते-चलते यह भी याद दिला दूँ कि प्रस्तुत पुस्तक की प्रस्तावना में सुनील कर्णिक द्वारा किए अरुण के साक्षात्कार में, अरुण पर प्रभाव डालने वाले लेखक-कवियों में लॉरेल और हार्डी का उल्लेख है. वे भी इसी परम्परा के बहुत बड़े कलाकार थे.
इटली में सोलहवीं से अठारहवीं सदियों में लोकप्रिय कॉमेदिया देलार्ते नामक अधिकांशतः संहिताविहीन नाट्य परम्परा से भी मेला का नाता है. उन्नीसवीं सदी में इसी तरह मनोरंजन करने वाले पेरिस के इलाके का ‘बुलेव्हार द्यू क्रीम’ या ‘अपराधी चौक’ आदि ‘खूनी मुरलीधर’ जैसा नाम लोकप्रिय हुआ था. बीसवीं शती के रूसी रंगमंच के पहले मोर्चे के नेता और आईझेन्श्टाईन के गुरु व्ह्स्यव्होलद मेयरहोल्ड ने, अपने ‘फ़ेयर ग्राउण्ड बूथ’ शीर्षक निबन्ध में इस उपसंस्कृति या अधोसंस्कृति के रंगमंच के इतिहास का महत्व रेखांकित किया है.[4] इस सांस्कृतिक माहौल पर मिख़ाईल बाख़्तिन ने carnivalesque अथवा उत्सव संस्कृति या जल्लोश संस्कृति पर महान भाष्य किया है.[5]
यह विस्तृत विवेचन इसलिए है कि अरुण एक ऐसा कवि है, जिसकी कविताएँ फिर चाहे मराठी में हों या अंग्रेज़ी में; उनमें वैश्विक सन्दर्भ का परिपार्श्व होता है. उसे समझ लेने पर उसकी व्याप्ति और सन्दर्भ ध्यान में आते हैं. जिस ‘भिजकी वही’ संग्रह का हम बाद में विचार करने वाले हैं. उसके मामले में तो यह बात बहुत बड़े पैमाने पर लागू होती है.
‘चिरीमिरी’ पर ग़ौर करते समय एक और मुद्दा अहम हो जाता है- अरुण की कविता के सम्वादात्मक रूप का. कई बार निवेदक चाहे एक हो, पर निवेदन में पात्रों के परस्पर सम्वाद तो होते ही हैं. लेकिन अरुण कुछ विशिष्ट काव्य परम्पराओं के साथ या कवियों के साथ सम्वाद स्थापित करना चाहता है. उन्हें बीसवीं सदी में लाकर उन्हें नए अवतार में बात करने के लिए बाध्य करता है.
अरुण के तुकाराम के अंग्रेज़ी अनुवाद कई बार अमेरिकी स्लैंग भाषा में किए गए हैं. इसके लिए कभी वह अपराधी जगत की क़रीबी उपसंस्कृति की बोली का भी इस्तेमाल करता है. संपूर्ण ‘न्यू येर डे’ कविता तीन सम्वादों के टुकड़ों को एकत्र लाकर बनाया कवि मोन्ताज है. ‘चिरीमिरी’ में भी यह सम्वादात्मक स्वरूप दिखाई देता है. उसके काव्य में अन्य कवियों के साथ प्रत्यक्षाप्रत्यक्ष सम्वाद भी पाए जाते हैं. ‘द्रोण’ शीर्षक दीर्घ कविता में वाल्मीकि के साथ सम्वाद है, तो ‘सर्पमित्र’ में व्यास के साथ सम्वाद है. उसकी कल्पना शक्ति में प्रत्यक्ष सम्वादों का और कवि सम्वादों का महत्व है.
प्राचीन काव्य परम्पराओं से सम्वाद कर उन्हें बीसवीं सदी में लाने की काव्य नीति (poetic strategy) के लिए अरुण ने सिनेमा और स्थिर फ़ोटोग़्राफ़़ी, इन दोनों आधुनिक तकनीकों का खूब प्रयोग किया है. उसका दृक्-कला का ज्ञान और उस पर अधिकार के कारण जब ये दोनों कलाएँ कविताओं में आती हैं, तब उनमें सहजता और प्राकृतिक काव्य सौन्दर्य महसूस होता है. दृक्-बिम्ब, शब्दार्थ और शब्दों की ध्वनियाँ आदि तीन पत्तियों के खेल में अरुण ग़ज़ब का चालक और उस्ताद खिलाड़ी है.
बानगी के तौर पर मेले के एक महत्वपूर्ण आकर्षण ‘मौत का कुआँ’ कविता पर ग़ौर करेंगे.
मौत का कुआँ
पहले के घुमन्तू सर्कसों में और गाँव के मेलों में मोटरसाइकिल का यह खेल एक रोमांचक खेल के रूप में विख्यात था. इस खेल के लिए लगभग पन्द्रह-बीस फीट गहरा अस्थाई कुआँ बनाया जाता था. मोटर साइकिल सवार उसके तल में उतरता था. पहले वह तल में फटफटी से गोल चक्कर लगाता था. फटफटी के रफ़्तार पकड़ने के बाद उसे तिरछा कर कुएँ की खड़ी दीवार पर उसके चक्कर शुरू होते. बढ़ती गति के साथ चक्कर लगाते-लगाते वह लगभग कुएँ की दीवार से काटकोण बनाकर चक्कर लगाता. फिर ऊपर-ऊपर आता हुआ बावड़ी के मुहाने तक आ जाता. तमाशबीन कुएँ के जंगले से तमाशा देखा करते. रफ़्तार या गति अनियन्त्रित हो जाने पर अनेक मोटरसाइकिल सवार हाथ-पैर तुड़वा बैठते या अपने प्राण गँवा बैठते. यह नियति का खेल था. कुएँ में गया आदमी जिंदा बाहर आ ही जाएगा, इसका कोई भरोसा नहीं होता था.
‘मौत का कुआँ’ कविता का फटफटी वाला ज़िन्दगी के मृत्युगोल में गोल-गोल फटफटी चलाता है. उसका भला न चाहने वाले देवता कुएँ के जंगले से यह दृश्य देख रहे हैं. कब वह दुर्घटनाग्रस्त होगा और कब मरेगा, इसी की वे प्रतीक्षा करते हैं. इस कविता में कैमरा एंगल और चलन का जैसा प्रयोग किया गया है, वैसा प्रभावशाली प्रयोग शायद ही पाया जाता है.[6]
कुएँ के जंगले पर देवता मचाते हैं भीड़
तुम छिन्न-भिन्न कब होगे, यही देखने के लिए
इस कविता का पहला कैमरा एंगल कुएँ के केंद्र से जाने वाले अक्ष के ऊपर है. नीचे कुएँ का पूरा वृत्त और फटफटी वाला दिखाई दे रहा है. यह शॉट वस्तुनिष्ठ दृष्टि (objective shot) से लिया गया है. किसी प्रसंग की जगह और समय दर्शकों की समझ में आने के लिए ऐसे शॉट से प्रारम्भ करना, एक सिने-संकेत है.
ऊपर से दृश्य दिखाई देता है – वह मरेगा या बचेगा, मरेगा तो कैसे मरेगा, यह देखने के लिए देवताओं की जंगले पर भीड़. देवता जैसे-जैसे कुएँ में झाँकते हैं, वैसे-वैसे कैमरा नीचे आता है और पर्दे पर कुएँ के बढ़ते वृत्त के साथ सवार ऊपर-ऊपर आता है.
गुर्राती हुई ऊपर ऊपर आई भूतिया फटफटी
फिर सहमकर डरपोक ज़रा हट जाते हैं पीछे
फटफटी वाला ऊपर आते समय ठीक 180 अंश का कोण बनाकर अपने दृष्टिकोण से, जंगले पर झुके देवताओं की तरफ़ देखता हुआ ऊपर आता है. जैसे-जैसे वह ऊपर आता है, वैसे-वैसे कैमरा भी ऊपर आता है. यहाँ कैमरा स्थिर नहीं है, बल्कि फटफटी वाले दृष्टिकोण से सन्तुलन बनाकर गतिमान हो रहा है. यह व्यक्तिनिष्ठ शॉट है.
फटफटी सवार के घमण्ड के दृष्टिकोण के चलन के साथ कैमरा एंगल बदलता है. फटफटी जैसे ही ऊपर आती है, वैसे ही देवता दूर होते नज़र आते हैं. कुएँ के मुहाने के आकार का आकाश फटफटी वाले के धैर्य से चकित मुँह खोले देखता रहता है. पहला शॉट ऊपर से नीचे देखता है और दूसरा शॉट नीचे से ऊपर देखता है.
वस्तुनिष्ठ शॉट से व्यक्तिनिष्ठ शॉट में, और वह भी चलित कैमरे के प्रयोग से बदलाव करने में हिचकॉक का हाथ कोई नहीं पकड़ सकता. ऐसे शॉट से दर्शक अचानक पात्र के दृष्टिकोण से देखने लगता है. पात्र के मन की भावनाओं की प्रतिक्रियाएँ उसके मन में भी अंकित होती हैं. यह हुआ मानसिक झटका. इसमें मानसिक धक्के के साथ-साथ दृष्टि को भी एक झटका लगता है.
कैमरे की दिशा अचानक बदलने से, पहले शॉट में ऊपर से नीचे आने वाला कैमरा ठीक उल्टी दिशा में जाने लगता है. अगर पहले शॉट में दिखाई देने वाला फटफटी वाला घड़ी के कांटों की तरह गोल घूमता होगा, तो दूसरे शॉट में उसकी दिशा ठीक उल्टी होकर वह घड़ी के काटों की विपरीत दिशा में भ्रमण करने लगेगा. इन दोनों कारणों से, कविता का पाठक अगर सारे चित्र आँखों के सामने लाएगा, तो उसे भी यह झटका महसूस होगा. अब अरुण का चक्राकार उपयोग देखिए.
लेकिन तुम्हारी फटफटी ही उठाएगी तुम्हें सींगों पर
सबको है इसका यक़ीन
लेकिन तुम हो चक्रवाती तूफ़ान के पुत्तर
फटफटी वाले के गोल घूमने के आकार को अरुण एकदम झूम कर तूफान में रूपान्तरित करता है. एक ही आकार की जंजीर पकड़कर उसका आकारमान अचानक बढ़ाना, यह ठहरा सिनेमा वालों का पसन्दीदा खेल. डेविड लीन द्वारा निर्देशित ‘लॉरेंस ऑफ़ अरेबिया’ फ़िल्म में बुझती तिली का सूर्योदय में विलीन हो जाने के शॉट से फेड आउट और फेड जैसा उपयोग होता है और समय आगे बढ़ता है.
और फिर ज़रा नीचे गया तुम्हारा चक्कर
फिर झट् से सारे आते हैं आगे
चलन से तैयार हुआ अनुभव चक्राकार और दिशाओं को भुलाने वाला होता है. वह विभिन्न धर्मों की प्रदक्षिणाओं जैसी विधियों में है. अनेक नृत्य-शैलियों और मेले के मेरी-गो-राऊण्ड में या इधर फेरिस व्हील में भी चलित चक्राकार आते हैं. ‘चिरीमिरी’ में उसके किकली, लोटन किकली और ईंट की किकली आदि तीन प्रकार अलग-अलग कविताओं में आते हैं. ये सारी कविताएँ ‘मौत का कुआँ’ से पहले आती हैं. जीवन-मृत्यु के चक्र की बराबरी करने वाला ‘मौत का कुआँ’ उसकी अन्तिम और उच्चतम अवस्था है.
यह वृत्ताकार चलन सिनेमा वालों को इतना प्रिय है कि उसके उदाहरणों की बहुत बड़ी सूची तैयार हो जाएगी. लेकिन उसके रोमांच के अनुभव के लिए एक प्रसंग की याद दिलाता हूँ. हिचकॉक के ‘स्ट्रेंजर्स ऑन अ ट्रेन’ फ़िल्म का अन्तिम प्रसंग. उसमें मेले के यान्त्रिक नियन्त्रण खो बैठे मेरी-गो-राऊण्ड में बैठे छोटे बच्चे डर के मारे चीख रहे हैं. उनकी माँएँ मूच्छित हो रही हैं. बाप हतबुद्ध हो गए हैं. ऐसे प्रसंग में, जो प्रयोग अरुण ने मौत का कुआँ में किया है, उसी तरह हिचकॉक भी कैमरे के वस्तुनिष्ठ और व्यक्तिनिष्ठ दृष्टिकोण का प्रयोग करता है. इन दोनों दृष्टिकोणों से लिए गए शॉट की श्रृंखला की, समान्तर सम्पादन से जैसे-जैसे लय बढ़ती है, वैसे-वैसे दृश्य का रोमांच बढ़ता है. चक्कर आने लगता है. इसलिए कवि कहता है,
देखकर तुम्हें इस तरह गोल घूमते हुए गरगर
चकराई अम्बाबाई और आई रखमा को घुमरी…
अरुण इस फटफटी सवार को ‘आकाश’वाणी से उपदेश देता है या बलवन्त बोवा के मुँह से व्हेंट्रिलोक्विज़्म कहलवाता है,
मृत्यु के कुएँ में तुमसे ही फूटा है झरना
अपने ही भँवर में मत फँसना यारा
‘मौत का कुआँ’ कविता के ठीक बीच में फटफटी वाले को यह उत्तेजक उपदेश मिलता है और उससे नवचैतन्य ग्रहण कर वह कविता के शेष आधे अंश में चक्कर मारने के लिए तैयार होता है. उसकी इस निष्ठा से और भक्ति से ख़ुश होकर पाण्डुरंग-विट्ठल उसकी मुक्ति पर पैसे लगाने का साहस करता है.
फ़ोटोग़्राफ़़
आज प्रत्येक के हाथ में सेलफ़ोन है. उसने फ़ोटो के मामले में इतनी बढ़ोतरी कर दी है कि उसकी क़ीमत शून्यवत् हो गई है. जब कैमरा बहुत थोड़े लोगों के हाथ में होता था, तब ‘फ़ोटो स्टूडियो’ का बड़ा महत्व होता था. शहर में गली-गली में ये स्टूडियो होते थे. ब्याह के बाद के फ़ोटो, पहले बच्चे की फ़ोटो, डिग्री लेते समय गाउन पहनकर खींची गई फ़ोटो आदि सामान्य सुशिक्षित मध्यवर्गीय घरों में फ्रेम बनाकर रखे होते थे. इस मूल श्वेत-श्याम या सेपिया रंग के फाटों पर बाद में हल्का-सा रंग का हाथ देकर रंगीन फ़ोटोग़्राफ़़ का आभास भी उत्पन्न किया जाता था.
देहातों में फ़ोटो स्टूडियो शायद ही होते थे. होते भी तो तहसील के गाँव में. इसलिए मेले में फ़ोटो खिंचवाना, कनिष्ठ मध्यवर्गीय और मेहनतकश लोगों का प्रिय शौक़ था. मेरे परिवार के फ़ोटोग़्राफ़़ के अल्बम में, मेले के अन्तर्गोल और बहिर्गोल आइनों की पुरानी कत्थई बनती जा रही कई तस्वीरें थीं. सभी परिवारों के लम्बे या आड़े चेहरे देखने के लिए मैं अपनी बड़ी बहन के पास उस अल्बम के लिए जिद करता था. ताजमहल या मशहूर इमारतें, हवाई जहाज़, पानी के जहाज़ के चित्रों के परिपार्श्व में परिवारजनों की, विशेषतः छोटे बच्चों की तस्वीरें बनाना, मेले का एक ‘आकर्षण’ होता था. फिर जैसे-जैसे साल बीतते जाते, तस्वीरें धुँधली पड़ती जातीं, वैसे-वैसे उनकी स्मृतियाँ अधिकाधिक घनी और तीव्र हो जातीं.
‘चिरीमिरी’ में ‘फ़ोटो’ शीर्षक एक नटखट तस्वीर की कविता है. कम से कम उसकी नक्काशीदार लकड़ी से बनी चौखट नटखट है. भीतर दुख है, स्वाभिमान है या भक्ति, आप ही देखिए.[7]
बोवा के जत्थे में एक स्त्री को लगता है, स्मृति के रूप में अपनी एक तस्वीर होनी चाहिए. वह कहती है,
अजी फ़ोटोग़्राफ़़र, अजी फ़ोटोग़्राफ़़र
मेरी तस्वीर खींचिए विट्ठल-रुखमाई के साथ
अरी रखुमाई, ज़रा उधर हट जा
तुम दोनों के बीच में मुझे जगह दे दे.
और फिर वह विट्ठल से कहती है,
ऐसा कैसा रे तू बिल्कुल प्लाईवुड का भगवान
ठसक से रख न अपना हाथ मेरे कन्धे पर.
एक वेश्या का यह प्रेम केवल विठ्ठल से प्रेम नहीं है, बल्कि दूसरी की जगह लेकर एक दम्पति में ‘पहली’ बनने की उसकी चाह है. क्योंकि उसकी भक्ति ही ऐसी है. उस पर उसे कितना अभिमान है!
लेकिन वह जानती है कि यह जगह वह केवल पल भर के लिए ही ले सकती है. इसलिए रखुमाई से कहती है,
क्यों री रखुमाई, तुम क्यों हो गई नाराज़
मुम्बई लौटते वक़्त सौंप दूँगी विट्ठल तुम्हारा तुम्हें री
इस अन्तिम द्विपद में ज़िन्दगी भर विवाहित दम्पति के सुखी गृहस्थी की अतृप्त इच्छा रखने वाली एक वेश्या के जज़्बातों का दर्द और कारुण्य, उसकी प्रतिष्ठा बनाए रखकर, कितने सहज और नाजुक हाथों से दृश्य रंगाया है.
अरुण की कविता में, साथ ही विज्ञापन क्षेत्र के काम में भी स्थिर फ़ोटोग़्राफ़़ का असाधारण महत्व है, जो केवल क्षणचित्र के रूप में नहीं है, बल्कि उसके पीछे समय को जमाने वाले चित्रों का भी इतिहास है.
आदिम दौर के गुफाचित्रों में, जहाँ पहुँचना अत्यन्त कठिन होता था, चितारे गए गतिमान, द्विश्रृँगी प्राणियों के चित्रों में, गति का एक क्षण पकड़ा जाता था. मानववंश विज्ञानियों को लगता है कि प्राणियों का शिकार करते समय सहायता के लिए की जाने वाली जादू विधियों में ये चित्र इस्तेमाल किए जाते होंगे. उन विधियों के साथ गाए जाने वाले मन्त्रों से कविता और नाटक इन दोनों कलाओं का जन्म हुआ होगा.
उन्नीसवीं शती और बीसवीं शती के प्रारम्भ में आदिम समाजों की जीवन शैलियों, मिथकों और विश्वपरिकल्पनाओं के जिन अवशेषों का अध्ययन किया गया, उससे जेम्स जी. फ्रेज़र ने जादुई विचारों की परिकल्पना सुझाई और उसके कुछ नियम प्रस्तुत किए. उन्हें लगता था कि ये समाज प्रतिमा और प्राणी में कुछ ऐक्य मानते होंगे. आधुनिक मनुष्य के मन में भी गहराई में भी ये जादुई विचार बसे हैं. इसलिए आज वैज्ञानिक विचारों को मानने वाला मनुष्य भी सामान्यतः अपनी माँ, प्रियतमा या प्रिय व्यक्ति की प्रतिमा पर थूकेगा नहीं या उस पर पैर नहीं रखेगा.
‘चिरीमिरी’ संग्रह की ‘बबू’ कविता देखिए.[8] इन्द्रायणी नदी में ‘बबू’ नामक वेश्या की हड्डियाँ प्रवाहित करने के बजाय निवेदक बलवन्त बोवा उसकी तस्वीर को नदी में डालते हैं और उस पर फूल चढ़ाते हैं. बबू को बलवन्त बोवा से लगाव था. इस कारण वह तस्वीर कैसा आचरण करती है, देखिए-
धकेली हुई तस्वीर फिर से आई लौटकर
इंद्रायणी के किनारे मेरे पास
पल भर फूल थमे वहीं
फिर अकेले ही आगे बढ़ गए
बबू मर गई, मगर नहीं गई उसकी आदत
खींचते हैं प्राण मेरी तरफ़
मुझे लगता है, बबु का बोवा से प्रेम इतना चिरन्तन होगा कि इस तैरती तस्वीर ने तुकाराम की तैरती गाथा से प्रेरणा ली होगी. मराठी कविता में, समाज द्वारा ठुकराए बबू के इस प्रेमगीत जितना प्रभावशाली प्रेमगीत मुझे तो याद नहीं आता. बबू के प्रेम के प्रति बोवा की प्रतिक्रिया भी उतनी ही प्रभावशाली है. इसमें आए ‘हड्डियाँ’ इस साधारण हिन्दी शब्द ने उस प्रेम को जाँगलूपन की रीढ़ दी है. इस प्रतिक्रिया में भी बबू की तस्वीर जगह उसकी लेती है.
समा ले री इंद्रायणी बबू को अपनी गोद में
दे री अपना आशीर्वाद उसे
भींच ले अपनी निर्मल पलकें
बन्द कर इन्द्रायणी इसकी आँख
कहाँ से लाऊँ अब मैं उसकी हड्डियाँ
कर लो स्वीकार यह तस्वीर अब.
इन पंक्तियों की रचना हवन के मन्त्रों जैसी है. ‘ले री’ और ‘दे री’ की रचना भी उसी ढर्रे की है. साथ ही, इस धारणा के कारण कि जब तक हड्डियाँ इन्द्रायणी में प्रवाहित नहीं होतीं, तब तक मृतक को मुक्ति नहीं, इन्द्रायणी को अपनी निर्मल पलकें भींचकर ‘बबू’ की आँख ढँकने की यानी यह विधिपूर्वक घोषित करने की कि व्यक्ति मृत है; बिनती भी की गई है.
अरुण की प्रारंभिक दो दशकों की कविताओं में और विशेषतः अंग्रेज़ी कविता में ठेठ प्रेम-कविता का अभाव है. लेकिन उसकी अन्तिम दौर की कविताओं में एक वैश्विक अनुकम्पा ने प्रेम को भी अपने आलिंगन में भर लिया है. यह प्रेम अब स्त्री-पुरुष प्रेम की प्रचलित लीक से निकलकर चराचर में समा चुका है. ‘सर्पसत्र’ में वह आग में ज़िन्दा जलने वाले सभी पशु-पक्षी-वनस्पति-कीटों को प्रेमालिंगन देता है. हत्याकाण्ड करने वालों के विरुद्ध कवि का मन में बद्दुआ है.
‘भिजकी वही’ तो प्रेम कविताओं के आँसुओं में पूरी तरह से भीगी हुई है और उसकी लुगदी बन गई है. उन कविताओं में एक विशिष्ट स्त्री के प्रति विशिष्ट प्रेम की जगह ईसा से प्रेम करने वाली स्त्रियों से लेकर सभी प्रकार की प्रेमिकाओं ने हथियायी है. उसमें बचपन के वात्सल्य की दहलीज़ भी न लाँघी ‘किम’ जैसी मासूम बालिका के लिए भी जगह है. इन अनेक सदियों के मिथकों में और अन्यों के काव्यों में, चिरवास्तव्य करने वाली नायिकाओं के साथ-साथ अरुण की प्रेम कथाएँ भी हैं.
‘भिजकी वही’ सम्पूर्ण संग्रह अनेक नायिकाओं और एक प्रेमी कवि की शोकान्त प्रेमगाथा है. यह वह अश्रुमौक्तिक हार है, जो अरुण की इजिप्शियन स्फिंक्स आँखों से बहने वाले आँसुओं से लिखा गया और उसकी लम्बी और शंकाकृति उंगलियों से, प्यार से गूँथा और सहलाया गया. बीसवीं और इक्कीसवीं सदी के सन्तों की वत्सलता से कविता लिखने वाला कवि मेरी ज्ञात भाषाओं में मुझे आज तक नहीं मिला.
‘भिजकी वही’ बनते-बनते रह गई सचित्र पुष्टि की बात
अरुण की ‘भिजकी वही’ लिखने के प्रदीर्घ समय के दौरान और बाद के अल्प समय में भी हमारी कई मुलाक़ातें हुईं. जैसे-जैसे कविताएँ पक्की बनती गईं वैसे-वैसे अलग-अलग मुलाक़ातों में वह उन्हें पढ़कर सुनाता था. अरुण एक-एक कविता पर इतना काम करता था कि उसके संग्रह निकलने में अनेक वर्षों का अन्तराल आ जाता था.
अरुण की कविताओं की निर्मिति प्रक्रिया का एक बिम्ब हमेशा मेरे मन में आता है. आदिम गुफाओं के ऊपरी भाग से अति सूक्ष्म बूँदों के रूप में टपकने वाले पानी के कैल्शियम के अंश एक-दूसरे से चिपककर, उनके ऊर्ध्वगामी और अधोगामी निक्षेप से हज़ारों सालों से बढ़ते रहते हैं. कुछ गुफाएँ अतिविशाल होती हैं. बढ़ते-बढ़ते स्तम्भों के प्रकृति निर्मित आकार, मानव शिल्पित आकारों के स्तम्भों जैसे बनते हैं. मैंने स्पेन में देखी ऐसी गुफा में प्रवेश करने के बाद ऐसा लगा कि हम पाताल लोक की एक अनोखी अपरिचित संस्कृति के महानगर में आए हैं.
अरुण की कविता निर्मिति की प्रक्रिया इन प्राचीन गुफाओं के आरोही और अवरोही निक्षेपों जैसी है. सेंद्रिय प्रतिमाओं की वृद्धि, स्टैलेक्टाईट जैसी जमीन से ऊपर की दिशा में होती है, लेकिन हमेशा जमीन को पकड़े रहती है. कल्पित बिम्ब, आकाश से अत्यन्त धीमी गति से आने वाले स्टलॅग्माईट जैसे उतरने वाले होते हैं. अरुण जैसे-जैसे कविताएँ लिखता गया, वैसे-वैसे मुझे लगने लगा कि ‘भिजकी वही’ आदिम काल से चली आई अन्याय और दुखों के आँसुओं से उत्पन्न एक अन्तरभौमिक वेदना संस्कृति है.
‘भिजकी वही’ के दरमियान हमारी अनेक मुलाक़ातों में, अरुण कई बार कुछ यूरोपीय भाषाओं के नामों के उच्चारण को लेकर सवाल पूछता था. मुझे याद है, मैंने उसे उसकी एक नायिका ‘नाद्येझ्दा मान्देलश्ताम’ के नाम की कथा सुनाई थी. नाद्येझ्दा के आत्मचरित्र के दो हिस्से अरुण ने पहले ही पढ़े थे. उनके नाम Hope Against Hope और Hope Abondoned थे. रूसी लेखिका के ‘नाद्येझ्दा’ नाम का अर्थ होता है ‘आशा’. इस सम्बन्ध में बात करते समय मेरी आँखों के सामने उसकी पुस्तक के उजाड़ और क्रूर जीवन के क्षण आते थे. यद्यपि उसके आत्मचरित्र के दूसरे भाग का नाम ‘त्यक्त आशा’ हो, फिर भी उसने आशा त्यागी नहीं थी. उसे अपने पति की हर पंक्ति जबानी याद थी. बीसवीं कांग्रेस में क्रुशेव्ह ने स्तालिनवाद को पलट दिया, तब उसने पति की सारी उसे जबानी याद कविता लिखी और कवि मित्रों की मदद से दो दशकों के बाद उसे प्रकाशित किया.
इन चर्चित नामों से और अरुण द्वारा पढ़कर सुनाई गई कविताओं से ‘भिजकी वही’ का प्रचण्ड विस्तार महसूस होने लगा. इस संग्रह के लिए अरुण ने सैकड़ों कथाकाव्य पढ़े. इतिहास के दस्तावेज़ पलटे. वेदना के क्षणों को ठहरा देने वाले चित्रों और फ़ोटोग़्राफ़़ का जायज़ा लिया. दान्ते के ‘डिवाइन कॉमेडी’ जैसा त्रिलोक उसे काव्य में लाना था. स्वर्ग पर उसका विश्वास नहीं था. लेकिन ‘इन्फर्नो’ की वेदना उसे पृथ्वी पर सौ सदियों से दिखाई दे रही थी. बाबरी मस्जिद के ध्वंस में, जातीय दंगों में, भोपाल गैस चैम्बर में, और आसपास भी दिखाई देती थी. इस वेदना को अभिव्यक्त करने वाले कवि और चित्रकार और फ़ोटोग़्राफ़़र ‘पर्गेटरी’ में थे. उन्होंने प्रताड़ना का इतिहास कलम से, चित्रों से, दन्तकथाओं से, फ़ोटोग़्राफ़़ से और चलत् चित्रों से लिखा था. यह सब अरुण को आत्मसात करना था और उनके द्वारा आविष्कृत की गई वेदना को साक्ष्य-प्रमाणों के साथ मराठी में पुनर्सृजित करना था.
चाहे जितनी जानकारी प्राप्त कीजिए और चाहे जितना अध्ययन कीजिए, लेकिन जब तक कवि उसे आत्मसात नहीं करता, अपने रक्त में प्रवाही नहीं बनाता, तब तक उससे कविता बनना असम्भव है. अध्ययन की अगली सीढ़ी यानी नई नायिकाओं का चयन और उनके अन्तरंग को पहचानना. ‘चिरीमिरी’ का अरुण बलवन्त बोवा से समरस हुआ और इसीलिए उसकी कविताओं की निर्मिति हुई. लेकिन तुकाराम के कारण बलवन्त बोवा के अन्तरंग में प्रविष्ट होने के दरवाज़े में पहले से ही दरार पड़ गई थी. ‘भिजकी वही’ के परकाया प्रवेश का समय, स्थल और संस्कृति में इतना वैविध्य था कि उसकी अलग भावनिक तपस्या ज़रूरी थी.
महान कलाकार अनेक रूपों से परमहंस बनता है. अरुण मराठी सन्तों के, विशेषतः तुकाराम और बाद में प्रत्यक्ष मिले बलवन्त बोवा के उपदेश के कारण स्त्री-पुरुष अन्तर के परे जाकर स्त्री-दुख से एकाकार हुआ. ‘सर्पसत्र’ में वह सभी प्राणीमात्रों का समदुःखी बना. उसने हिरोशिमा देखा. वियतनाम देखा. बीसवीं शती का गर्निका देखा. पाब्लो बार्थलोम्यू के कैमरे पर और जान के दुश्मन बने और बाबरी मस्जिद का ध्वंस करने वालों के उन्मादी त्रिशूल देखे. मुम्बई के दंगों के होशी जाल के फ़ोटोग़्राफ़़ देखे.
‘भिजकी वही’ प्रकाशित होने और उसे पढ़ने के बाद अनेक विख्यात फ़ोटोग़्राफ़़ और चित्रों के अलग-अलग समझ में आए सन्दर्भ एकत्र आने लगे. बार-बार महसूस हुआ कि अरुण की कविताओं के बीज कितने बड़े पैमाने पर दृक्-प्रतिमाओं में छिपे हैं. मैंने अरुण को सुझाया कि मैं उसके साथ बैठकर, उसकी सलाह से इन सन्दर्भों की सूची बनाऊँ, बाद में वो चित्र और फ़ोटोग़्राफ़़ प्राप्त कर, ‘भिजकी वही’ में इन चित्रों और उनके सन्दर्भ की पुष्टि जोड़ दूँ. अरूण को भी यह परिकल्पना पसन्द आई.
जब तक हम इस काम की शुरुआत करते, अरुण की तबीयत बहुत ज़्यादा ख़राब हो गई थी. फिर भी उसने इस काम के लिए मुझे समय देने का प्रयास किया. मैं उसके प्रभादेवी स्थित घर पहुँचता. वह यथाशक्ति मुझसे बात करता. बहुत ज़्यादा थक जाने पर कुछ समय सो जाता. उसे यकृत का कैंसर हुआ था. असहनीय दर्द होता था. उठने के बाद, पाँच-दस मिनट बात करने के बाद वह फिर सो जाता था. उठता, कुछ मिनट बाद फिर लेटा रहता. उसने जो समय दिया, उससे मुझे कुछ सन्दर्भ मिल गए, लेकिन बहुत कुछ अनकहा रह गया. कुछ सन्दर्भ ऐसे थे कि उन पर काफ़ी चित्र उपलब्ध थे. लेकिन उनमें से ठीक-ठीक कौन से चुनें, यह निश्चित नहीं हो रहा था. कुछ बिल्कुल भी नहीं मिल रहे थे. यह सब होते-होते कुछ ही दिनों में अरुण चला गया.
अरुण द्वारा बताई बातें मैंने अपने डेस्कटॉप कम्प्यूटर में सँभालकर रखी थीं. अरुण चला गया, उसके लगभग पन्द्रह दिन बाद मेरे डेस्कटॉप की हार्ड डिस्क क्रैश हो गई. उसका डाटा दोबारा प्राप्त करने के सारे प्रयास व्यर्थ हो गए. ‘भिजकी वही’ पर हुआ काम जितना स्मृतियों में है, बस उतना ही. सचित्र पुष्टि वास्तव में कभी आई ही नहीं.
जब-जब मैं ‘भिजकी वही’ पढ़ता हूँ, तब मेरी आँखों के सामने अरुण का कमरा खड़ा हो जाता है. मुलाक़ातें याद आती हैं. अरुण की पहले से गहरी और बीमारी में और ज़्यादा गहरी धँसी आँखें याद आती हैं. उनमें अन्त तक दिखाई देनेवाली एक चमक याद आती है. उसकी कन्धे हिलाती और जंघा पर धौल जमाती हँसी याद आती है. ऐसा आदमी था, इस पर भरोसा करना आज भी कठिन है. बार-बार यही महसूस होता है कि वह कितना सच था . मित्रता के लिए सीना कृतज्ञता से भर आता है.
विश्वनाभि: कवि का अपना घर
अरुण के प्रभादेवी स्थित घर में हमारी मुलाक़ातें होती थीं. दस बाई बारह के कमरे में उसकी और उसकी द्वितीय पत्नी सूनू की गृहस्थी थी. उसी में टॉयलेट, उसी में रसोई, उसी में एक बेड. सन 1970 में अरुण ने अपनी ज़िन्दगी पूरी तरह से कविता के लिए समर्पित करने का निर्णय लिया था. उस समय वह विज्ञापन क्षेत्र में शिखर पर था. उसने अपनी ज़रूरतें एकदम कम कर दी थीं. जीने के लिए पर्याप्त काम करते हुए आर्थिक स्वातन्त्र्य प्राप्त किया और शेष पूरा समय केवल लेखन और मित्रों को दे दिया.
अरुण ज़िन्दगी भर ख्याति से दूर रहा. अत्यन्त सादग़ी से जिया. हमेशा कवि बना रहा, कवि महाशय कभी नहीं बना. किसी कमेटी पर उसने कभी कोई जगह नहीं हथियायी. किसी भी पुरस्कार का पीछा नहीं किया. सामने आए अनेक प्रलोभनों से बचता रहा. जब दिलीप पाड़गाँवकर ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ का प्रमुख सम्पादक बना, उसकी इच्छा थी कि अरुण उसके अख़बार के लिए कुछ लिखे. तब मैं शिवाजी पार्क में रहता था. वहीं मैंने उन दोनों की मुलाक़ात करवाई थी. दिलीप ने उसे हर प्रकार से लिखने की आज़ादी देने का आश्वासन दिया, लेकिन अरुण ने शालीनता से मना कर दिया.
बौद्ध विहारों में भिक्खुओं को रहने के लिए जितनी जगह दी जाती थी, उतनी ही जगह अरुण ने अपने अन्तिम कुछ दशकों के लिए प्राप्त कर रखी थी. तोलस्ताय की ‘एक आदमी को कितनी जमीन चाहिए’ शीर्षक अत्यन्त सुन्दर विश्वविख्यात कहानी है. अरुण का कमरा ‘कवि को कितनी जगह लगती है?’ प्रश्न का जवाब था. अरुण का विशाल ग्रंथसंग्रह मित्रों के घर बिखरा हुआ था. कमरे में लेखन के लिए ज़रूरी सामान था. भीगने के लिए तैयार एक बही थी. फोल्डिंग कुर्सियाँ थीं. अनेक किताबें वह दिमाग़ में लेकर ही सोता था और जब उठता, तब मनचाहा सन्दर्भ उसकी स्मृतियों में उपस्थित हो जाता था. उसके घर में टेलीफ़ोन कभी नहीं था.
अरुण को जब ‘हॉल ऑफ़ फेम’ का सम्मान प्राप्त हुआ, तब CAG (कमर्शियल एण्ड एडव्हर्टाइजर्स गिल्ड) की प्रतिनिधि उससे मिलने के लिए आई. उसका छोटा कमरा देखकर उसने सोचा, यह उसका दफ़्तर या अध्ययन कक्ष होगा. यह सम्मान पाने वाले अरुण के पूर्ववर्ती विज्ञापनकार बड़े-बड़े घरों में रहते थे. उनकी गाड़ियाँ थीं. शोफर भी थे. अरुण का कमरा देखकर उसे लगा, शायद ये सज्जन यहाँ केवल काम के लिए आते होंगे. उसने उसका पता, टेलिफ़ोन नम्बर पूछा. उसके यह बताने पर कि यही मेरा पता है, वह चकित हो गई. फिर उसने पूछा कि आपकी ओर से कितने निमन्त्रण भेजूँ, और कार पार्किंग के कितने पास चाहिए, वग़ैरह. लेकिन अरुण ने कहा, ‘मैं टैक्सी से आ जाऊँगा.’ अरुण की बातें सुनकर उसे लगा, विनोद बुद्धि के लिए विख्यात ये सज्जन सचमुच मुझसे मज़ाक रहे हैं.
लेकिन यह कमरा हमेशा लोगों से भरा रहता था. अशोक शहाणे, अविनाश गुप्ते, रत्नाकर सोहनी, वृन्दावन दण्डवते आदि अरुण के मित्र नियमित रूप से आते थे. इनके अलावा बाक़ी मित्रों को बैठने के लिए जगह की ज़रूरत ही नहीं होती थी. उनमें व्यास, वाल्मीकि, होमर, दान्ते, व्हर्जिल, तुकाराम, निजामी, गंजवी, फ़िरदौसी, मान्देलश्ताम, रूमी, ज्ञानेश्वर तो थे ही, और साथ ही अनेक भाषाओं के नामचीन और अनाम कवि थे, वैज्ञानिक थे, इतिहास अनुसन्धाता थे, वनस्पति शास्त्री थे और अनेक कलाकार और विद्वान भी थे. वे अरुण की जगह की किल्लत समझकर उसके दिमाग़ में ही रहते थे. उनकी किताबें भी अरुण ने दिमाग़ में ही रखी थीं, इसलिए वहाँ ज़रा-सी भीड़ थी. लेकिन कुल मिलाकर मण्डली समझदार थी. सूनू घर का सारा काम निबटकर सो जाती. फिर उसकी नींद ख़राब ना हो इसलिए ये लोग धीमी आवाज़ में अरुण से बातें करते. कभी वे अरुण को कविता पढ़ने का आग्रह करते. वे उसके लेखन के लिए हर प्रकार से मदद करते थे. अरुण जब अभंग पर अनुसन्धान कर रहा था, तब उसे छन्दशास्त्र पर कुछ किताबें मिल नहीं रही थीं. यह ख़बर मिलते ही, एक रात माधवराव पटवर्धन श्री. ना. ग. जोशी को साथ लेकर वहाँ स्वयं आए और दोनों ने हस्ताक्षर कर उसे वे किताबें दीं.
कभी कभी कोई ऐसी बातें भी अरुण को आकर बताता, जिनकी अरुण को तलाश होती और जो छपी हुई नहीं होतीं. इंगलहल्लीकर नामक सज्जन फूलों के, वनस्पतियों के और पेड़ों के नाम बताकर अरुण की कविताओं में रिक्त स्थानों की पूर्ति करते थे. कोई आकर उसे क्वाण्टम मैकेनिक्स का सिद्धान्त समझाता और कविता में उसका इस्तेमाल करने के लिए प्यार से अनुमति भी दे देता.
ये मत समझिए कि केवल गपशप ही होता था. तुकाराम बोवा के आते ही इकतारा और करताल का कोलाहल. बोवा की आवाज़ ‘सन्त तुकाराम’ फ़िल्म के विष्णुपन्त पागनीस जैसी मुलायम नहीं थी, बल्कि खुरदरी थी. प्रारंभिक दौर में, जब वे रात-बेरात में जोर से भजन गाया करते, अरुण को डर लगता कि कहीं पड़ोसी शिकायत न कर दें. लेकिन पड़ोसी भी ठहरे पड़ोस के विट्ठल मंदिर में ‘कहे तुका’ सुनने के आदी. करताल-मृदंग की ध्वनियाँ सुनने में पूरी ज़िन्दगी गुज़री. तुकोबा के आते ही वे अपने घर में जो भी मीठा-नमकीन बना है, उनके सामने रखते और दबे पाँव लौट जाते.
कुछ लोगों को अरुण का पता झट से नहीं मिलता था. विशेषतः ब्लूज़ गाने वाले, बीटल्स, बॉब डिलन, एलेन गिंझबर्ग इत्यादि मित्र मराठी तख्तियाँ पढ़कर हड़बड़ा जाते. सौभाग्य से, सीमेण्ट-कंक्रीट का एक उबड़खाबड़ लेकिन अरुण की कविता जैसा ही पूरा नग्न पुतला, उसकी गली के मुहाने पर दिन-रात खड़ा होता था. वह इतना दर्शनीय था कि हड़बड़ाए लोगों का यक़ीनन उसकी तरफ़ ध्यान जाता और वे बिना भूले उसी से अरुण का पता पूछते. फिर वह सीमेण्ट से बनी उंगली से उनका मार्गदर्शन करता हुआ बताता कि अरुण के घर कैसे पहुँचना है. कालान्तर में, उसके प्रखर और तेजस्वी नंगेपन के कारण अरुण की कविता का वह मॅस्कॉट ही बन गया.
दोबारा कविता की तरफ़
‘भिजकी वही’ के लिए अरुण सालोंसाल सन्दर्भ इकट्ठा कर रहा था. कविता निर्मिति के लिए अरुण को इन सारे सन्दर्भों की क्यों ज़रूरत पड़ती थी? मुझे लगता है, उसकी कविता को हमेशा प्रत्यक्ष अनुभव के कुछ कणों की चाहत हुआ करती थी. जिस प्रकार बालू के कण चुभने लगते ही सीपी के भीतर का जीव उस कण के इर्द-गिर्द अपने शरीर से रिसने वाला द्रव फैलाकर मोती तैयार करता है, अरुण की कविता भी इसी तरह तैयार होती थी. ये वाङ्मयीन सन्दर्भ, दस्तावेज़, चित्र और फ़ोटोग़्राफ़़, सब उसे लिखित और सोपपत्तिक इतिहास से ज़्यादा मूल्यवान लगते थे. उसका ‘अब और यहाँ’पन अरुण को उस दौर में प्रवेश कराकर घटनाओं का ‘आँखों देखा हाल’ दिखाता था. वह उस समय पर वक्तव्य नहीं चाहता था. जीने का फर्स्ट हैण्ड अनुभव चाहता था. यह खज़ाना देखते-देखते उसकी तीसरी आँख को कविता के लिए, प्रतिमा-अंश मिल जाते थे. उन्हें इकट्ठा करते, जोड़ते-तोड़ते सालोंसाल उसकी एक-एक कविता का निर्माण होता था.
मैं इसे मराठी का सौभाग्य समझता हूँ कि ‘भिजकी वही’ संग्रह मराठी में लिखा गया. इस तरह कान फूँका हुआ, तीनों आँखें खोलकर देखने वाला, ऐसा सियाह और शिरीन कलम का कवि कुछ सदियों में एकाध बार ही होता है. उसे भाषा में पचाने के लिए, उसके प्रति श्रद्धा रखने वाले और अपार प्रेम करने वाले पाठकों का बनना ज़रूरी होता है. अरुण ने मुझे अपना मित्र समझकर अपने कवित्व का मुझे जो अमूल्य अनुभव दिया है, वह मेरी निजी सम्पत्ति नहीं है. यह समृद्ध काव्य परम्परा की सभी में बाँटी गई विरासत है. बीसवीं और इक्कीसवीं शती की सबसे बड़ी धरोहर है.
कविता का सोना आसानी से हाथ नहीं आता. इसके लिए मिट्टी के कई बोरे तलाशने पड़ते हैं. उसकी रेती छनकर अलग करने के बाद, जो चमकीले कण शेष रहते हैं, उनमें विशुद्ध और प्रकृतिप्रदत्त सुवर्णकणिकाएँ होती हैं. मेरा लेख अरुण की स्वर्ण-कविताओं के अर्थ पर कोई अधिकार नहीं जताता. उस भण्डार तक पहुँचने के लिए अनाड़ी हाथों द्वारा बनाया गया मात्र वह एक टेढ़ा-मेढ़ा मानचित्र है.
‘भिजकी वही’ : नायिका भेद
‘भिजकी वही’ कविता संग्रह की ‘कैमरा’ कविता, ‘सर्पमित्र’ लम्बी कविता और ‘शेवटचा अश्रू’ (अन्तिम आँसू) आदि चुनिन्दा कविताएँ छोड़कर शेष सभी कविताएँ विभिन्न कालखण्डों और भूमिखण्डों की स्त्रियों से सम्बद्ध है. इन कविताओं में कभी उनसे सम्वाद है, तो कभी निवेदन. इनमें से प्रत्येक चरित्र नायिका का इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान है. उसने इस स्थान के लिए अतीव पीड़ा की क़ीमत चुकाई है. कविता संग्रह खोलने से पहले ही उस पर अश्रु के इजिप्शियन संकेत चिह्न या हियरोग्लिफ़ दृष्टिगत होता है. यह ‘भिजकी वही’ आँसुओं से भीगी हुई है.
भरत के नाट्यशास्त्र की ‘अष्टनायिकाएँ’ यानी वासकसज्जा, विरहोत्कंठिता, स्वाधीनभर्तृका, कलहान्तरिता, खंडिता, विप्रलब्धा, प्रोषितभर्तृका और अभिसारिका आदि. उसके बाद ‘दशरूपक’, ‘साहित्यदर्पण’ आदि ग्रंथों में, तथा कामशास्त्र पर आधारित ‘अनंगरंग’, ‘पंचसायक’ आदि ग्रंथों में और केशवदास की सोलहवीं शती के ‘रसिकप्रिया’ ग्रंथ में नायिकाभेद के इन्हीं आठ प्रकारों प्रयोग किया गया है. इन सब में स्त्री का या नायिका का व्यक्तित्व केवल उसके और नायक के सम्बन्धों के आधार पर निश्चित हुआ है. स्त्री का अपना क्या स्थान है और उसके आधार पर कितने भेद हमें नज़र आते हैं, इस प्रश्न उत्तर नहीं है. ‘भिजकी वही’ में कवि इन प्रश्नों के उत्तर, नायिकाओं के संग शृंगार रचाकर नहीं, बल्कि उनके द्वारा सहे गए अन्याय, पीड़ा से बहे और अदृश्य रह गए आँसुओं से लिखना तय करता है.
छोटे बच्चों को रंग-संगती समझ में आए इसलिए बाज़ार में केवल रंग भरने की किताबें आती हैं. उनमें चित्रों की केवल रेखाएँ छपी होती हैं. गीली कूँची लगते ही, कोरी जगहों से अलग-अलग रंग अंकित होने लगते हैं. ‘भिजकी वही’ की सारी नायिकाएँ ऐसी ही हैं. कुछ चरित्र-चित्रों की रेखाएँ भी अदृश्य हैं. जब तक उनके चरित्रों और यातनाओं के कागज़, महान कवि की अनुकम्पा से भरे गर्म आँसुओं में भीग नहीं जाते, तब तक उनकी वेदनाओं के रक्तकृष्ण रंग प्रकट नहीं होते. ‘भिजकी वही’ आँसुओं से लिखी गई कविताओं की यन्त्रणा-गाथा है.
अपनी नायिकाओं के लिए आँसू बहाने वाले कवि की आँखें यानी शीशे पर नमी जमने न देने वाला कर्तव्य कठोर कैमरा है. इसलिए वह यातना-चित्रों की अतिक्रूर और कठोर तेज रेखाएँ भी साफ़-साफ़ दिखा देता है. घिनौने से घिनौना तफ़सील दिखाता है. कैमरे से जुड़ा ध्वनिग्राहक, इस समाज द्वारा स्त्रियों के प्रत्येक अपमान को और उनके लिए प्रयुक्त हर गन्दे अपशब्द को दर्ज करता है और कविता में बारूद जैसा बोता है. ये स्त्री-चित्र उतने ही नग्न हैं, जितनी नापाम बम से कपड़े जल जाने के कारण, जान बचाने के लिए सड़क के बीच पूरी नंगी दौड़ती छोटी किम. वे जली हुई चमड़ी समेत कुछ भी छिपाना नहीं चाहते.
इस संग्रह के पहली कविता ‘त्रिमेरी’ बाइबल के ‘नए करार’ से सम्बन्धित है. ये करार ईसा के पट्टशिष्यों ने लिखे हैं. उनके लिए ईसा और उसका ‘आसमान का बाप’ ही सब कुछ थे. ईसा को जन्म देने वाली कुआँरी माता का स्थान महत्वपूर्ण नहीं है; वह केवल ईसा को इस दुनिया तक पहुँचने वाली एक जरिया मात्र थी. उसकी ज़िन्दगी का आशय, खाली बर्तन जैसा ही खाली था. उसमें क्या उँड़ेला गया है, इसी पर उसकी क़ीमत निर्भर है. ल्यूक के करार में उसके पाँच उल्लेख हैं. मैथ्यू में पाँच, मार्क में एक और ‘बुक ऑफ़ एक्ट्स’ में एक. सारी परम्परा और कथा यह मानती है कि ईसा को जब सूली पर चढ़ाया गया, उस वक़्त वह उपस्थित थी. ईसा को अपनी कोख से जन्म देने वाली, कुमारी माता के रूप में अवहेलित, ज़िन्दगी भर अपने बच्चे को दूर से देखने वाली और उसकी त्रासदी में भी उससे दूर रहने के लिए अभिशप्त माता यानी पहली मेरी.
मेरी माग्दालेना के भी बारह उल्लेख हैं. किम्वदन्ति है कि वह ईसा के सफ़र में उसके साथ थी. इसी प्रकार यह भी माना जाता है कि ईसा को सूली पर चढ़ाने के समय भी वह उपस्थित थी. तीसरी मेरी का बस एक उल्लेख था. ‘नया करार’ लिखने वाले ईसा के पट्टशिष्यों ने अपने-अपने ईसा चरित्र में इन तीनों मेरियों को हाशिए पर डाल दिया या लगभग उन्हें मिटा दिया. उनकी यातनाओं का संज्ञान भी नहीं लिया. इन तीनों के आँसुओं के चित्र ‘त्रिमेरी’ में हैं.
‘लैला-मजनूँ’ की कथा सातवीं सदी की एक अरेबिक कथा है. उसके अनेक रूप हैं. उसका पर्शियन कवि निज़ामी गंज़वी द्वारा किया ‘हफ़्त अवरंग’ काव्य-रूपान्तरण सबसे प्रसिद्ध है. उसकी कथा में पागल हुआ कैस (मजनूँ का असली नाम) और उसके प्रेम का पागलपन, बस यही केंद्र में है, लैला बस एक छाया. अरुण ने इस छाया को त्रिमिति अस्तित्व प्रदान किया है.
कोढ़ वाली ‘अपाला’, इजिप्शियन देवता ‘आयसिस’, असिप मान्देलश्ताम की पत्नी ‘नाद्येझ्दा’, भविष्य में देखने वाली ‘कसान्द्रा’, बारहवीं शती में कर्नाटक के कन्नड़ काव्य की नींव रखने वाली कवयित्री ‘मुक्तायक्का’, अल्लाह से निरपेक्ष प्यार करने वाली ‘रबिया’; चौथी सदी की महान गणिती-खगोल विज्ञानी ग्रीक ‘हायपेशिया’; उन्नीसवीं शती में श्लीमन द्वारा उत्खनन किए जाने तक, ट्रॉय शहर वास्तव में था या यह होमर की कविकल्पना थी, इस पर सन्देह करने वाली ‘हेलन’, जिसके पति को अन्याय से मारा गया और जिसने अपना स्तन फेंककर मदुरा शहर को जला दिया, ऐसी सातवीं शती के तमिल महाकाव्य ‘सिरपअधिकारम्’ की नायिका ‘कन्नगी’; अभी परसों जिस पर बर्बर अत्याचार हुए, वह ‘मैमून’ आदि सारी स्त्रियों की वेदनों पर, यातनाओं पर और यन्त्रणा पर उन सत्ताधीश लोगों ने असत्य के पहाड़ रचे हैं. उन्हें इतिहास में दफ़्न कर उनकी वेदना का ज़िन्दापन नष्ट किया है.
‘भिजकी वही’ की कविताओं में उपरोल्लिखित और अन्य कविताओं में मिलने वाली हडलम्मा इत्यादि स्त्रियों को कवि प्रत्यक्ष देखता है, उनसे सम्वाद करता है. कभी उनके ख़िलाफ़ कितनी बदतमीज़ी से बात की जाती है, इसका भी हमें प्रमाण देता है. स्त्रियों पर थोपी ये गन्दगी की पर्तें आँसुओं से धोकर उन्हें वर्तमान देखने और उसे अभिव्यक्त होने के लिए प्रेरित करने का काम कवि ने अपने कन्धे पर लिया है. ‘भिजकी वही’ संग्रह इसी से निकला है. उसी की यह पृष्ठभूमि है.
लेख की स्वलिखित सीमाओं के अनुसार, मुझे अरुण की उन कविताओं की चर्चा करनी है, जिनमें दृक्-कला को कविताओं के मूलद्रव्य के रूप में प्रयुक्त किया गया है. उससे कवि ‘आँखों देखा हाल’ के वास्तव का निर्माण कैसे करता है, इसके बारे में बात करनी है. ‘भिजकी वही’ संग्रह में दृक-सन्दर्भ सुस्पष्ट दिखाई देने वाली कविताएँ – ‘डोरा’, ‘किम’ और ‘किंकाळी’ (चीख) का मैं आपके सामने विश्लेषण प्रस्तुत करने वाला हूँ.
डोरा: व्यक्ति[9]
‘डोरा’ कविता की नायिका डोरा मार (1907 से 1997) एक फ़्रेंच फ़ोटोग़्राफ़़र, चित्रकार और कवयित्री थी. उसका असली नाम आरीएंट मार्कोविच था. ‘डोर मार’ नाम उसने स्वयं चुना था. उसका प्रशिक्षण पेरिस के एकोल दे बोझार और अकादमी जूलियां में हुआ. अपने प्रशिक्षण दौरान उसका आंरी कार्तिए ब्रेसाँ नामक विख्यात फ़ोटोग़्राफ़़र से परिचय हुआ.
डोरा ने सन 1920 में फ़ोटोग़्राफ़़ी का प्रारम्भ किया और पिएर केफ़र नामक फ़ोटोग़्राफ़़र के साथ स्टूडियो शुरू किया. उनका काम अधिकांशतः व्यावसायिक फ़ोटोग़्राफ़़ी का था. उसके बाद डोरा ने ब्राशाई फ़ोटोग़्राफ़़ी में क्रान्ति करने वाले फ़ोटोग़्राफ़़र के साथ भी काम किया और वह सुर्रियलिस्ट कला से प्रभावित हुई.
सन 1935 में डोरा की पिकासो से मुलाक़ात हुई और पिकासो को उसके प्रति आकर्षण महसूस हुआ. उनके स्नेह-सम्बन्ध शुरू हुए और वे लगभग नौ साल तक बरक़रार रहे. उसी दौर में पिकासो ने उसे मॉडल बनाकर अनेक चित्र बनाए. पिकासो को स्पेनिश गृहयुद्ध में जो त्रासदी दिखाई दी, उसका भावचित्र यानी डोरा का चेहरा है, ऐसा उसे लगा. उस चित्र से उसे ‘द विपिंग वुमन’ नाम मिला.
डोरा का पिकासो के सहवास का दौर उसके लिए दुखदायी साबित हुआ. उसी दौर में पिकासो के मारी-तेरॅस के साथ भी दैहिक सम्बन्ध थे. पिकासो डोरा से बुरी तरह से पेश आया. उसके बाद उसने अनेकों से सम्बन्ध जोड़े, लेकिन उसका मानसिक सन्तुलन ख़राब हो गया था. सुविख्यात मनोविश्लेषक झ्याक लाकां ने बिजली के झटके दे देकर उसकी चिकित्सा की. पिकासो ने उसके लिए ख़रीदे घर में उसने अपने अन्तिम दिन बताए.
‘डोरा’: कविता
‘डोरा’ कविता दो चित्रों पर आधारित है.
पहला चित्र: ‘गर्निका’
सन 1937 में पिकासो ने स्पेनिश गृहयुद्ध पर आधारित ‘गर्निका’ महाचित्र बनाना शुरू किया. हेंकेल और मैस्सरश्मिट आदि दो प्रकार के इवाई जहाजों ने साढे तीन घंटों में गर्निका गाँव नष्ट कर दिया था. उस क्रूरता के प्रति पिकासो की प्रतिक्रिया ‘गर्निका’ चित्र में अभिव्यक्त हुई है. यह चित्र बिना रंग का यानी केवल काले, सफ़ेद और भूरे रंग से बनाया गया है. ‘गर्निका’ के चित्रण की विभिन्न अवस्थाओं की डोरा ने फ़ोटोग़्राफ़़ी की है. यह फ़ोटोग़्राफ़़ी करने की अनुमति पाने वाली वह एकमात्र फ़ोटोग़्राफ़़र थी.
कविता में विख्यात चित्रनिर्मिति की अवस्थाओं का चित्रण है. पिकासो जब चित्र बना रहा होता है, तब डोरा उसकी विभिन्न अवस्थाओं की तस्वीरें भी खींचती है और पिकासो की हर तरह से सहायता भी करती है. पिकासो का उल्लेख ‘बैलमुँहा’ के रूप में किया गया है. यह वर्णन मिनोतॉर नामक राक्षस का भी है और पिकासो कई बार मिनोतॉर की प्रतिमा में आत्मचित्र देखता है, इसलिए भी यह उल्लेख आया है.
‘गर्निका’ का चित्रण करते समय पिकासो सबसे पहले आँख के चित्र में पुतली के बजाय बल्ब लगाता है. कवि उसका वर्णन करता है.[10]
सूर्य की आँख फूटती है
उस गड्ढे में बैलमुँहा
एक नया बल्ब बिठाता है
और एक शोकचित्र बनाता है.
यद्यपि वह केवल दृश्यानुभव है, लेकिन चित्रण इतना प्रभावशाली है कि दर्शक को उससे ध्वनियाँ सुनाई देती हैं. कवि कहता है,
वह हिनहिनाना अंकित करता है
सीना फटने से मरे घोड़े का
आक्रोश अंकित करता है”
बच्चे के कलेवर को सीने से लगाने वाली
ध्वस्त माँओं का…
उस समय डोरा बन रहे चित्र की तस्वीर लेती है. कवि लिखता है,
अपने कैमरे से तुम फ़ोटो खींच रही हो
बैलमुँहे के
और साकार हो रहे चित्र के
बैलमुँहे को भूख लगती है
पॅलेट नाइफ़ से तुम रंग पोतती हो
टोस्ट में
कविता का दूसरा अंश: लॅबरिंथ [11]
लॅबरिंथ या भूलभुलैया इसी आधे बैल और आधे आदमी मिनोतॉर का निवास है. अब गर्निका का चित्रण ख़त्म हुआ है और डोरा के चित्र की शुरुआत है. लॅबरिंथ में आया व्यक्ति आसानी से बाहर निकल नहीं सकता. पिकासो उसे अपने प्यार में फँसाकर दूर चला जाता है.
बैलमुँहे तुम्हें
एक स्टूल पर बिठाता हूँ
और हिलना नहीं बिल्कुल
यह कहता हूँ
कवि बताता है कि अब लॅबरिंथ वशीकरण विधि का वर्णन आएगा.
फिर वह एक कोयला लेता है
और तुम्हारे स्टूल को
केंद्र में रखकर
विस्तृत फैलता जाता वृत्त बनाता है
तुमसे दूर-दूर जाते हुए
बिल्कुल ओझल होने तक
और उसके ओझल होने पर
कि तुम्हारी आँखों से
एक इंडियन इंक की धार लुढ़कती है.
कविता का तीसरा अंश: ‘द वीपिंग वुमन-1’ [12]
इस कविता में पिकासो द्वारा बनाए डोरा के ‘वीपिंग वुमन’ चित्र का वर्णन है. इसके बाद चित्र का डोरा की ज़िन्दगी पर असर यानी,
तुम्हारी खुली-खुली
बन्द न हो सकने वाली आँखों से
चूती है लगातार
कँटीली तार की तरह है
च्याटों की आँसुओं की धारा
उसे कट नहीं कर सकते
जंग लगे वायर कटर के
फल की तरह जाम हुई
तुम्हारी पलक.
कविता का चौथा अंश: ‘द वीपिंग वुमन-2’ [13]
इसमें कवि ठेठ डोरा से बात करता है और उसे आँसू पोंछने के लिए रुमाल न मिलता देख कहता है,
जाने दो
उसके बजाय यह कागज़ ही लो अब
इस कविता से ही पोंछो आँखें
और नाक छिनको
क्योंकि यह कविता आख़िरकार ‘भिजकी वही’ का एक पन्ना है. डोरा के आँसू पोंछकर वे धन्य होंगे. वह नाक छिनकती है तो भी कविता को आनन्द ही होगा. भैंस के दूध का एक अंश बनना हो या डोरा की आँसुओं में और यातना में सम्मिलित होना हो, दोनों समान महत्वपूर्ण हैं.
पाँचवा अंश: ‘द वीपिंग वुमन-3’
इसमें कवि दोबारा डोरा के चित्र की तरफ़ जाता है. एक चित्र के रूप में उसकी तरफ़ देखता है. अब वह चित्र डोरा से परे जा चुका है. क्योंकि
रूमाल की बेढंगी तितली
…
दुख के परागों से
सने पंख
उठा भी कैसे सकेगी वह अब
अब यह वेदना, यातना समय में जमी हुई है. डोरा के व्यक्तिगत अनुभव के परे चली गई है. ‘गर्निका’ की स्थिति में पहुँचकर एक चित्र बन गई है.
छठा अंश: ‘द वीपिंग वुमन- 4’ [14]
यह महान चित्र केवल चित्र नहीं रह गया है बल्कि एक क्रय वस्तु बन गया है. ‘गर्निका’ नामक छोटे से गाँव का ध्वंस, डोरा की त्रासदी, कवि का उद्वेलित हृदय, आदि के परे जाकर, अब यह चित्र केवल पैसे में गिनी जाने वाली एक राशि बना है. कवि कहता है,
परसों ही छासठ लाख
बयालीस हज़ार
सात सौ उन्नीस डॉलर में बेचा गया तू
नीलामी में
अब तो
मुस्कुराओ न!
इन छह सीढ़ियों या छह चरणों में कहिए, कवि हमें एक वैश्विक महत्वपूर्ण त्रासदी की चित्रनिर्मिति से चित्रकार के प्रभावशाली आविष्कार की तरफ़ ले जाता है. यह कलाकार अपनी मोहिनी विद्या से स्वयं ही डोरा को लॅबरिंथ में उलझा देता है. प्रतिमा को समय में जमाने की शक्ति से उसका प्रभावशाली चित्र बनाता है. डोरा की ज़िन्दगी ध्वस्त ही बनी रहती है. चित्र के प्रभाव की आख़िरकार एक राशि बनती है.
दृक्-कला, उसके स्रोत, उसका आदिम भित्तिचित्रों का जादू जैसा प्रभाव, उसकी निर्मिति की व्यक्तिगत गुत्थियाँ, त्रासदी और कला का व्यापारीकरण आदि सारी सीढ़ियाँ अत्यन्त समर्थ और आहिस्ता से दिखाने वाली और आख़िरकार हास्य का डंक मारने वाली, त्रासद कविता शायद ही पाई जाती है.
अरुण की कविता में चित्र, फ़ोटोग़्राफ़़ और सिने-तत्व केवल उल्लेख या सन्दर्भ के लिए नहीं आते, बल्कि वे उसकी कविता के सजीव और बुनियादी स्तरों का हिस्सा हैं. उनकी निर्मिति, उनकी जादुई विचारों से आने वाली भावुक और रहस्यमयी कर्षणशक्ति, उनका चेतनाकरण, उनका तर्कातीत सर्जन और उनका व्यापारीकरण आदि अनेक स्तरों पर उसने ये माध्यम अनुभव कर आत्मसात किए हैं.
किम [15]
8 जून, 1972 को वियतनाम में अमेरिका द्वारा नापाम बम हमला हुआ. इस हमले में जिस नौ साल की लड़की के सारे कपड़े जल जाने से वह नग्नवस्था में ही चीखती हुई सड़क पर दौड़ रही थी और जिसकी निक यूट नामक फ़ोटोग़्राफ़़र ने तस्वीर खींची थी, वह लड़की यानी किम. यह कविता तीन भागों में है.
पहला भाग: महामार्ग पर नग्निका
इसमें किम की तस्वीर जिस पल खींची गई, उस क्षण के दृश्य को शब्दों में प्रकट किया गया है.
आग में कमल खिलने की तरह
भक् से खिल उठा पगोड़ा
लेकिन चीख कौन रहा था
एयर रेड साइरन या जल रहा बुद्ध?
इस तरह आरम्भ कर कवि अन्तिम चरण में हमें क्षमासूक्त की तरफ़ जाने की राह भी दिखाता है और कारण भी दिखाता है.
और प्राणों की बाजी लगाकर
बस दौड़ती जा रही थी तुम
महामार्ग से
एक कैमरे का भक्ष्य बनने के लिए
दूसरा भाग: क्षमासूक्त
अरुण के कानों द्वारा सुनी कविताओं में वैदिक काल से लेकर वर्तमान तक की कविता के अनेक आविष्कार हैं. रहस्यमयी मन्त्रविद्या, काला जादू के पुनरावृति शब्द, प्रभावशाली कथन, नाट्यमय सम्वाद, वैणिक नाद यह सब उसमें गूँजते हैं और कविता के विभिन्न रूपों की अनुभूति कराते हैं.
‘क्षमासूक्त’ में किम की ज़िन्दगी के इस भयानक क्षण के लिए उत्तरदायी युद्धसेनानी, पाइलट, तस्वीर खींचने वाले फ़ोटोग़्राफ़़र से लेकर उस पर कविता करने वाले अरुण कोलटकर तक, इन सभी की ओर से कवि किम से क्षमा माँगता है.
किम की असहनीय वेदना से जलती नग्न देह की तस्वीर खींचने वाले निक यूट को पुलित्ज़र पुरस्कार मिला. सम्मान और धन मिला. अरुण कोलटकर को एक प्रभावशाली कविता का बीज मिला. इसलिए कवि इन दोनों की ओर से किम से क्षमा याचना करता है. क्योंकि उनकी कलाकृति की सफलता का अधिकांश हिस्सा किम की जलती देह की यातना में था.
इसमें जो काव्य है, उसमें नवीनता लाने के बजाय प्रार्थना या माँग में बार-बार आने वाली याचना का नुस्खा अपनाया गया है. ‘चिरीमिरी’ की ‘बबू’ के विश्लेषण में,
ले री इंद्रायणी बबू को अपनी गोद में
दे री उसे अपना आशीर्वाद
इन पंक्तियों में जिस तरह हवन क्रिया की प्रतिध्वनियाँ अंकित होती हैं, उसी तरह क्षमासूक्त में भी वैदिक सूक्त की प्रतिध्वनियाँ हैं और बौद्ध प्रार्थना का सफ़र भी है.
तीसरा भाग: कपचा
किम की निक यूट द्वारा खींची गई तस्वीर दुनिया भर में फैल गई. वियतनाम युद्ध के विरुद्ध दुनिया भर में जो आक्रोश फैला, उसमें इस चित्र की बहुत बड़ी भूमिका थी.
सन 1996 में किम ने वियतनाम युद्ध में प्राण गँवाने वाले अमेरिकी सैनिकों के स्मारक के उद्घाटन के समय अपने भाषण में कहा, ‘हम भूतकाल को नहीं बदल सकते, लेकिन परस्पर सहयोग से वर्तमान और भविष्य भी बदल सकते हैं’, और उसने उस पर अत्याचार करने वालों को घोषित रूप से माफ़ किया. किम ने विस्फोट के समय जिस बुद्ध मंदिर में आश्रय ग्रहण किया था, उसका उल्लेख कर कवि कहता है,
तुम्हारे कलेजे के
करण्डक में
उस बुद्धांश की रक्षा करने वाली
तुम स्वयं एक
क्या बुद्ध मंदिर बन गई हो?
किंकाळी (चीख) [16]
अरुण की दृक्-कलाओं से प्रत्यक्ष सम्बन्धित कविताओं में ‘किंकाळी’ कविता का एक अलग स्थान है. क्योंकि यह कविता एक ‘न खींची गई तस्वीर’ के बारे में है.
कविता का ‘न होनापन’ निश्चित करते-करते अरुण कविता का ‘होनापन’ किस तरह दृश्य रूप में प्रस्तुत करता है, इसके बारे में ‘ईरानी’ कविता के विश्लेषण में चर्चा हुई है. ‘किंकाळी’ कविता इस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण है. पहले मुझे इस कविता की पृष्ठभूमि आपके सामने रखनी है.
6 अगस्त, 1945 को जब हिरोशिमा पर परमाणु बम गिराया गया, तब योशिटो मात्सुशिगे (1913-2005) नामक फ़ोटोग़्राफ़़र अपने घर पर था. विस्फोट के केंद्र बिन्दु से उसका घर 2.7 किलोमीटर फ़ासले पर था. वह अपना सुबह का नाश्ता कर रहा था. विस्फोट के बाद जब अन्धा कर देने वाला महाभीषण सफ़ेद उजाला हुआ, तब उसे लगा, मानो भगवान ने फ़्लैशबल्ब से पृथ्वी की तस्वीर खींची है.
वह कमरे के दूसरे कोने में फेंका गया. दीवारें ढह गईं. छत गिर गई. कुछ मिनट बाद धुआँ और धूल का गुबार धीरे-धीरे नीचे बैठ गया. फिर उसके भीतर का फ़ोटोग़्राफ़़र जागृत होने लगा. घर ध्वस्त हुआ था. उसने मलबे से अपना कैमरा खोज निकाला और अपनी ‘चोगोकु शिम्बुन’ पत्रिका की कचहरी जाने के लिए चल पड़ा.
कचहरी पहुँचने के लिए योशिटा ने ‘मियुकी पुल’ पार किया. यह पुल विस्फोट केंद्र से 2.4 किलोमीटर फ़ासले पर था. उसकी अगली सड़क पर, अनेक जगहों पर साक्षात रौरव नरक की आग जैसी आग धधक रही थी. आगे जाना असम्भव होने की वजह से वह लौटने लगा. लेकिन तब तक पुल लोगों से भर चुका था. उनमें से कुछ मर चुके थे. एक स्त्री अपने छोटे बच्चे की लकड़ी जैसी जली हुई काली देह हाथों में लिए उसके नाम से चीखती हुई पुल लाँघ रही थी.
मात्सुशिगे ने अपना कैमरा उस माँ के सामने पकड़ा, लेकिन वह कैमरे का बटन दबाने की दशा में नहीं था. मात्सुशिगे कहता है, ‘मेरे ज़ख़्म बहुत गम्भीर नहीं थे. अनेक लोग जलकर मर चुके थे. मैं अगर फ़ोटो खींचने का प्रयास करूँगा, तो बाक़ी लोग मुझ पर आगबबूला होंगे, इस डर से मैंने फ़ोटो नहीं खींचा. लगभग बीस मिनट बाद, साहस बटोरकर मैंने तस्वीर खींची. यह उस दिन की ध्वस्त हिरोशिमा की पहली तस्वीर थी.’
‘उस तस्वीर में सीने से पैर चिपकाए ज़ख़्मी लोगों की कतार है. वे इतने सन्न हो गए थे कि न कोई रो रहा है था न कोई चिल्ला रहा था. उनके जले हुए कपड़े और माँस शरीर से नीचे लटक रहा था. दो लोगों के सिर के बाल जल गए थे. उनका सिर गंजा हो गया था. वे सभी अवाक् हिरोशिमा शहर के मध्य की तरफ़ देख रहे थे. वहाँ आग की भीषण लपटें थीं और वे केंद्र से उपनगरों की तरफ़ आ रही थीं.’
‘मेरी आँखें पानी से भर गई थीं. कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था. कैमरे में देखने का प्रयास किया, लेकिन कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. मैं सोच में पड़ गया. माना कि अमेरिका को युद्ध जीतना है, लेकिन इसके लिए क्या इतना भयानक घृणित कृत्य करने की ज़रूरत थी?’ मात्सुशिगे ने कुल पाँच तस्वीरें खींचीं थीं. उसमें एक भी तस्वीर में कोई भी कैमरे की तरफ़ नहीं देख रहा है. किसी को अपना वजूद ही महसूस नहीं हो रहा था. इस तस्वीर को देखकर ऐसा आभास होता है कि बम एक विशालकाय खूँखार जानवर है और वह सर्वनाश करने के लिए आगे चला आ रहा है.
कविता और चित्र
बिल्कुल अभी अभी तक जहाँ
हिरोशिमा था
उस दिशा से आने वाले
और मियुकी पुल से बहने वाले
छायाओं के रेले में
देखा है किसी ने
एक स्कूली लड़की
खून से सना किमोनो पहनी
दग्धकेशा
‘किंकाळी’ कविता मात्सुशिगे द्वारा न खींचे गए विस्फोट की तस्वीर की कहानी है. इसके अलावा ‘किंकाळी’ एडव्हार्ड मुन्क नामक नॉर्वे के चित्रकार का विश्वविख्यात चित्र है. उस चित्र के व्यक्ति के चेहरे पर डर के अलावा और कोई भाव न होने के कारण, वह स्त्री है या पुरुष, यह भी समझ में नहीं आता. यह व्यक्ति कानों पर हाथ रखकर एक छोटे पुल के किनारे खड़ा चीख रहा है. उसकी चीख इतनी प्रभावशाली है कि चित्र की रेखाएँ भी डर से टेढ़ी हो गई हैं. मियुकी पुल की लड़की के बारे में कवि पूछता है,
गाल पर लटक रही है नीचे
उसकी दाहिनी आँख
गड्ढे से बाहर फेंकी गई
उसके मुँह से उगा है एक पेड़
चीखों का
किसी को भी सुनाई न देने वाली
उसकी पाठशाला डूब चुकी है हमेशा के लिए
आग के समन्दर में
उसके घरबार समेत गाँव समेत
क्या वह दिखाई दी किसी को
या कैमरे को किसी के
और बाद में क्या हुआ उसका?
कैमरा [17]
पहली नज़र में यह लग सकता है कि ‘कैमरा’ कविता इस संग्रह की अन्य कविताओं के साथ नहीं जाती. क्योंकि बाक़ी कविताएँ चरित्रचित्र हैं, और ‘कैमरा’ एक आत्मचित्र है. अरुण की पहले वाली कविताओं में, ‘चिखल ठरलो, भिक्षापात्र बनलो’ (कीचड़ साबित हुआ, भिक्षापात्र बना) और ‘मुम्बईने भिकेस लावले’ (मुम्बई ने भिकारी बना दिया) आदि दो कविताएँ आत्मचरित्रात्मक हैं. ‘चरित्र’ कुछ-कुछ राम गणेश गड़करी के ‘संगीत मूकनायक’ की याद दिलाने वाली कविता है. ‘कैमरा’ कविता में ‘कैमरे’ के जन्म से लेकर उसका चरित्र है.
नौ हिस्सों में बँटी इस कविता का मूड बिल्कुल पहले भाग में ही उजागर होता है. कवि कहता है, कैमरे का गोत्र स्पिनोझा, प्रवर, लियोनार्दो और देवक सूर्यफूल आदि हैं.
इसकी प्रत्येक प्रतिमा का विचार करेंगे.
गोत्र स्पिनोझा
कवि ने स्पिनोझा को कैमरे का गोत्र माना है. बारूख स्पिनोझा (सन 1632 से 1677) का व्यवसाय एक विशिष्ट प्रकार के काँच को घिसकर उससे लेन्स बनाना था. वह चिन्तक था और उसकी पश्चिम के महान चिन्तकों में गणना होती है. नीतिशास्त्र में उसके विचार क्रान्तिकारी माने जाते हैं. लेन्स की खोज में उसने योगदान दिया है. वह केवल में चवालिस साल की उम्र में चल बसा. लेन्स का शीशा बनाते समय, सिलिका की सूक्ष्म धूल से उसे फेफड़ों की बीमारी हो गई थी.
फ़ोटोग़्राफ़़ी में शुरू से ही चित्रित और चित्रकार के सम्बन्धों को लेकर अनेक विचारधाराएँ रही हैं. चित्रण करने वाला व्यक्ति यदि कोई भयंकर घटना देख रहा होगा, तो वह उसकी फ़ोटोग़्राफ़़ी करे या उस घटना में प्रत्यक्ष हिस्सा ले, यह विवादित सवाल है. स्पिनोझा को गोत्र कहते समय कवि उसकी तरफ़ लेन्स बनाने की कला का शिकार, फ़ोटोग़्राफ़़ी का नीतिशास्त्रज्ञ और हस्तोद्योग उद्यमी आदि तीन रूपों में देखता है.
प्रवर लियोनार्दो
प्रवर में विशिष्ट गोत्र के महान ऋषि का नाम दिया जाता है. लियोनार्दो को कैमरा का प्रवर कहते समय उसकी कलाकार और वैज्ञानिक इन दोनों भूमिकाओं के महत्व पर ग़ौर किया गया है. कैमरे से चित्र की प्रतिमा धातु, काँच या कागज़ पर स्थिर करने से पहले, लेन्स से प्रतिमा कैसे तैयार करें इसके शास्त्र का निर्माण हुआ. साथ ही, इन प्रतिमाओं का सौन्दर्यशास्त्र भी बन रहा था. लियोनार्दो के विश्वविख्यात नोटबुक्स में इन दोनों अंगों से कैमरे का विचार आया है.[18]
कैमरे में आत्मचरित्र देखने वाले कवि के व्यक्तित्व में भी प्रतिभाशाली वैज्ञानिक और कवि, दोनों आमुख विद्यमान हैं. कवि मानव संस्कृति की स्मृतियों का उत्खनन विशेषज्ञ और उसके महाकाव्यों का कर्ता होता है.
देवक सूर्यफूल
गोत्र, प्रवर इत्यादि के साथ-साथ तीसरी महत्वपूर्ण परिकल्पना यानी देवक. देवक को, फिर चाहे वह वस्तु हो, प्राणी हो या वनस्पति, पवित्र माना जाता है. मानववंशशास्त्र में देवक के लिए ‘टोटेम’ संज्ञा का प्रयोग किया जाता है. अलग-अलग मानव समूह अलग-अलग देवक मानते हैं और उनका पूजन करते हैं. कैमरा प्रकाश के बिना निष्प्रभ होता है, उसी तरह सूर्यफूल भी. कैमरे का ‘देवक’ सूर्यफूल, कितना सुन्दर बिम्ब है!
न्यूटन दादा
न्यूटन का प्रकाश सम्बन्धी अनुसन्धान, विशेषतः लोलक के सहारे सूर्य प्रकाश का पृथक्करण, सप्तरंगों को एक करने वाली उसकी तश्तरी समेत उसके महत्वपूर्ण आविष्कार कैमरा में अन्तरभूत होते हैं. अरुण कवि बिम्बों के लिए शास्त्रीय परिभाषा का अनेकों बार उपयोग करता है.
उदाहरणार्थ, ‘विटेवरची फुगडी’ (ईंट पर किकली) कविता में वह न्यूटन की तश्तरी पर आधारित बिम्ब का निर्माण करता है.
वाह रे बहादुर, चल हाथ पकड़, आज निकालूँगी तुम्हारा झाग
सतरंगी गिरगिरी बनी ईंट पर सफ़ेद.[19]
कैमरे के कवर में पट्टा बाँधकर उसे कन्धे पर लटकाया जाता है. वह बगल के आसपास रहता है. इसलिए कवि उस कैमरे को श्रेष्ठ कैमरामन का ‘बगलबच्चा’ कहता है. लेकिन वहीं न रुककर उसके प्रत्येक कर्तृत्व के गुणविशेष पर आधारित एक-एक गाली की योजना बनाता है. नोंदिया, झाँटागिनू, जो दिखाई दे उसे टीपने वाला टीपू सुल्तान, नेत्रनिंज्या इत्यादि ख़ालिस और नवनिर्मित गालियाँ देने के बाद वह अगले भाग में कैमरे की पसन्द-नापसन्द की तरफ़ मुड़ता है.
कैमरा मानवीय उत्सवों में हिस्सा लेता है, उसी तरह प्रकृति का रहस्यभेद भी करता है. वह सुन्दर स्त्रियों का दीवाना है. उन्हें आगे-पीछे से नग्न, अर्धनग्न देखते समय वह निर्विकार होता है. स्त्री देह का प्रदर्शन करने वाली पत्रिकाओं के लिए वह तस्वीरें खींचता है, उसी तरह ‘बूढ़ी के उल्टे हाथ के नीचे की झुर्रियाँ’ भी गिनता है. कवि कहता है, उस पर भूल से मर्लिन मन्रो बैठी तो भी उसका ‘स्खलन नहीं हुआ.’
इससे, कैमरे में क्या देखा, इसके साथ-साथ कवि ने उसमें क्या देखा, यह भी दर्ज किया जाता है. कैमरे के लेन्स पर प्रतिबिंबित हुआ कवि भी नज़र आने लगता है.
हैरल्ड एजर्टन नामक एक वैज्ञानिक/चित्रकार ने अतिद्रुत तस्वीर खींचने वाला कैमरा बनाकर दूध में गिरने वाली एक बूँद के स्पर्श-क्षण पर वह राजमुकुट की तरह कैसे विस्फारित होता है, इसका चित्र बनाया था. कवि उसका उल्लेख करता है. वह चित्रकार का नाम नहीं लेता. कवि यह भी संज्ञान लेता है कि जी.पी.एस. को पृथ्वी का अचूक स्थल-निदान करने के लिए कैमरा मदद करता है.
कैमरा दुनिया भर की यात्राओं और दुर्घटनाओं का साक्षी है. इसका उदाहरण देते समय कवि भारतीयों पर हुए अमानवीय अत्याचारों के रघु राय, पाब्लो बार्थेलोम्यू और होशी जाल द्वारा खींचे गए कुछ चित्रों का वर्णन करता है. उसमें भोपाल गैस दुर्घटना और साम्प्रदायिक में दंगों की भी कुछ प्रतिमाएँ हैं.
इन सभी प्रतिमाएँ में कवि कभी भाववाचक संज्ञाओं का प्रयोग नहीं करता, जो मैं यहाँ संक्षेप के लिए कर रहा हूँ. क्योंकि कैमरा केवल एक फ्रेम के लिए जीता है. पिछली चौखट भूल जाता है और अगली उसे पता ही नहीं होती. उसके शीशे से कभी आँसू नहीं झरते.
प्राकृत आँखों से
प्रत्येक बात की तरफ़ देखने का
व्रत ही कैमरे द्वारा लिया होता है. यहाँ तक सब ठीक-ठाक है.
प्राकृत आँख यानी कैमरे की निर्मिति प्रक्रिया में उसे दी गई लेन्स और उसके गुणविशेष. अब कैमरे के दर्शन का भाग आता है. क्योंकि स्पिनोझा जिस तरह लेन्स बनाता था, उसी तरह वह चिन्तक भी था. कैमरा उसका गोत्र बताता है. यहाँ कवि के भीतर के और कैमरे के सबसे महत्वपूर्ण साम्यस्थल आते हैं. अरुण ने कभी ‘दलितों’ को लेकर कविता नहीं लिखी. क्योंकि उसकी कविता की जाति ही कुछ ऐसी है कि जब तक मिट्टी की विशिष्ट प्रतिमा उसे नहीं मिलती, तब तक उसकी कविता नहीं बन सकती. उसे एक विशिष्ट व्यक्ति की ज़रूरत होती है, फिर वह दलित हो तो भी कोई हर्ज़ नहीं या वह यही चाहता होगा. लेकिन वह भाववाचक संज्ञाओं से या universal के द्वारा specific या वैश्विक परिकल्पना के विशिष्ट अस्तित्व मिटा नहीं देता. वह व्यष्टि से समष्टि का निर्माण करेगा और ग़ज़ब के जीवट से काम करेगा. लेकिन वह समष्टि में एकदम से हाथ नहीं डालेगा. वह कैमरे के शीशे में स्व-प्रतिमा भी देखता है. इसीलिए तो कहता है,
अनेक गायों से मिलकर एक
कुलजोड़ गाय बनाने का पाप
तुम कभी नहीं करते
और कवि कोलटकर भी यह पाप नहीं करता. इसलिए स्थूल विषय के लाँग में हाथ डालकर अरुण की कविता का नग्न सौन्दर्य नहीं देखा जा सकता. इसके लिए एक-एक अंग धीरे-धीरे खोलना पड़ता है. एक-एक पल्लू हौले से खोलकर, तभी वस्त्र जमीन पर पड़ने देना होता है.
यह ‘विशिष्ट’ देखते समय कैमरा जिस तरह नीतिमत्ता के छुपे परदे हटा देता है, और हैड्रोजन बम के विस्फोट की तरफ़ भी बिना पलक झपकाए देख सकता है, उसी तरह अरुण कोलटकर, कैमरे का परम सखा, आसपास की दुनिया की तरफ़ देख सकता है.
आदिम प्रतिमाकारों को प्रतिमा और चित्रित जीव में ऐक्य प्रतीत होता था. उनकी जादुई विचार शक्ति में अंश और पूर्ण जैसे एक थे, उसी प्रकार प्रतिमा और प्रतिमा विषय एक होते थे. कवि यह शंका उपस्थित करता है कि इस जादुई संसार में जाकर कैमरे का बदचश्म या Evil Eye लौट तो नहीं आएगा . एक बार प्रतिमा चुनने के बाद, उस वस्तु के भीतर का, वनस्पति का, व्यक्ति का भी चैतन्य छीना जाता है. जनमानस के मन की नज़रों/आँखों/कैमरे से इस दुष्ट शक्तिरूपी लॉरियों के पीछे दिखने वाले स्लोगन के शब्दाविष्कार से कवि अपनी कविता समाप्त करता है.
बुरी नज़र वाले
तेरा मुँह काला
शेवटचा अश्रू (अन्तिम आँसू) [20]
अरुण की कविताओं के दृक्-कला सम्बन्धी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष उदाहरणों से उसके काव्य के सामान्यतः अचर्चित पक्षों को सामने लाना, यही अब तक के मेरे विश्लेषण का प्रमुख उद्देश्य था. साथ ही, उसके मराठी और अंग्रेज़ी, दोनों भाषाओं के उदाहरण लेकर, और ‘प्रतिमाओं का मेरूदण्ड’ परिकल्पना की मदद से उसकी निर्मिति प्रक्रिया का अद्भुत साम्य प्रस्तुत करने का प्रयास किया है. ‘अन्तिम आँसू’ कविता उसकी जीवन दृष्टि से सम्बन्धित है. उसके साथ-साथ, मेरे अपने कुछ निरीक्षणों से मैं इस लेख का समापन कर रहा हूँ.
अरुण की शुरुआती कविताओं के बारे में अनेकों ने यही लिखा है कि वे ‘सुर्रियलिस्ट’ हैं. लेकिन इस विवाद में पड़े बिना कुछ अलग विचार प्रस्तुत करने हैं. आदिम काल की कला के जो उदाहरण मिलते हैं, वे मुख्यतः मृदाकला और गुफा चित्र हैं. इनमें से गुफाचित्रों के आधार पर मानववंश विज्ञानी इस नतीजे तक पहुँचते हैं कि कला और जीवन का अटूट नाता था. इसमें कला के इस्तेमाल से शिकार साध्य होना, शत्रु को हानि पहुँचाना, नृत्य में शिकार की गतिविधियों की नकल कर उनके आत्मसंरक्षण और आक्रमण के दाँवपेच जानना और उनपर काबू पाना, आदि जीवन-मृत्यु से बँधे उद्देश्य हुआ करते थे.
उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में आदिम दौर के जिन मानव समूहों के अवशेषों पर अनुसन्धान हुआ, उसमें यह साबित हुआ कि उन पर जादुई विचारों का प्रभाव था. अंश में पूर्णत्व देखने की इस जादुई विचार की परिकल्पना से ही उनमें यह विश्वास पनपा था कि किसी मनुष्य का दाँत, उसकी कोई वस्तु, बाल इत्यादी हाथ आने पर ऐसी क्रिया की जा सकती है, जिसका उस व्यक्ति पर असर होगा. इसी प्रकार यह भी माना जाता है कि जिन दो वस्तुओं में एक ही गुण होता है, उनमें कुछ न कुछ नाता या एकत्व होता है. पीलिया के इलाज में यह विश्वास होता है कि पीले रंग की वनस्पति से बीमार को नहलाने से, उस बहते पीले पानी के साथ पीलिया भी चला जाएगा.
इस जादूटोने के साथ जिन मन्त्रों का उपयोग किया जाता था, उनमें विविध नाद और छन्द का उद्घोष होता था. उसके बाद धार्मिक विधियों के काव्य में, चाहे वह हवन हो या स्तुति, इसी प्रकार के छन्द प्रयुक्त किए जाते थे. शब्दों का महत्व केवल अर्थ वाहक के रूप में नहीं था, बल्कि यह माना जाता था कि वह एक ज़िन्दा और समर्थ अस्तित्व वाली शक्ति है. भारतीय संस्कृति में यह धारणा है कि दुनिया के प्रारम्भ में शब्द था या अनाहत नाद से विश्व की उत्पत्ति हुई है. ऐसी धारणाएँ अन्य संस्कृतियों में भी थीं.
प्रत्येक भाषा का इतिहास और मन्त्रशक्ति से उसका नाता विभिन्न छन्दों में छिपा होता है. यह सर्वविदित है कि मुक्तछन्द का प्रसार करने वाले आधुनिक कवियों में टी. एस. इलियट ने अपनी ‘वेस्ट लैण्ड’ कविता में शब्दों का इस वरदायी और अभिशाप की शक्तियों से नाता जोड़ने का प्रयास किया था. उसने अपनी कविता का समापन ‘शान्तिसूक्त’ से किया है. उसमें जेम्स फ्रेज़र के अनेक भागों में विभाजित ग्रंथ श्रृंखला ‘गोल्डन बाव’ (The Golden Bough) का सम्मानपूर्वक उल्लेख किया है, जो जादुई विचारों पर आधारित है.[21]
अरुण एक सर्वभक्षी और सर्वसमावेशी कवि था. उसने ‘गिलगामेश’ जैसे बिल्कुल शुरूआती वैश्विक काव्यों के जरिए विभिन्न संस्कृतियों के मिथकों और काव्यों का अध्ययन किया था. इन आदिम काव्यों में शब्दों की विशेष शक्ति पर कवियों का विश्वास होता था. वैदिक ऋचाएँ तो इस विश्वास पर ही आधारित हैं. अरुण को प्रत्यक्ष विश्वास हो या न हो, यह अलग मसला है, लेकिन शब्दशक्ति पर जबरदस्त श्रद्धा वाले काव्य से उसका क़रीबी नाता है. इसलिए उसके काव्य में आने वाले शब्दों में हवन से लेकर मृत्युगीतों तक विभिन्न मन्त्रों की प्रतिध्वनियाँ अंकित होती हैं.
अरुण की कविता में कई बार गालियों के उदाहरण दिखाई देते हैं. शब्दशक्ति जिस प्रकार सृजनात्मक शक्ति होती है, उसी प्रकार संहारात्मक भी होती है. प्रत्येक संस्कृति की गालियों-अभिशापों में शब्दों की यह संहारक शक्ति छिपी हुई होती है. समाज में वर्ग उत्पन्न होने के बाद उसकी श्रेणियाँ उत्पन्न होती हैं. उनमें ऊपरी तबकों के लोगों को इस संहारक शक्ति से डर लगता है. उससे उत्पन्न होने वाली लोककला से डर लगता है. गालियों से डर लगता है. गालियों में शरीर के सभी अंगों की सारी क्रियाएँ आती हैं. श्लील और अश्लील का फ़र्क इसी डर से उत्पन्न होता है. आधुनिक मराठी कवियों में अरुण के अलावा एक और कवि, नामदेव ढसाल, शब्दों की इस संहारक गालीशक्ति को भली-भाँति समझता था. दादू इन्दुरीकर की ‘सारे देवता साले रण्डीबाज’ लावनी में इसी शक्ति की तेज़ धार से देवताओं के सभ्यपन का नकाब फाड़ने का प्रयास हुआ है. अरुण की कविता के शब्द समझने हो, तो शब्दशक्ति, यानी गालियों की शक्ति के संहारक मूलस्रोत की तरफ़ जाना चाहिए, और उसका त्यागात्मक और आह्वानात्मक अंश समझना चाहिए.
‘भिजकी वही’ की अधिकांश स्त्रीकेन्द्रित कविताओं में से ‘पो-चु-इ’ शीर्षक कविता एक चीनी कवि के बारे में हो, फिर भी वह एक स्त्री-कविता है. यह पो-चु-इ कौन था? (पो-चु-इ का उल्लेख इसके आगे ‘पो’ इस संक्षेप से किया गया है.)
पो (सन 772 से 846) तैंग दौर का अत्यन्त महत्वपूर्ण कवि था. उसका चीनी और जापानी दोनों काव्य परम्पराओं पर दीर्घजीवी और गहरा असर हुआ है. सन 803 में वह चांग आन राजधानी में सरकारी नौकरी में आया था. उसकी युआन चेन और लिऊ यू हसी नामक दो कवियों के साथ मित्रता हुई, जो उसकी ज़िन्दगी के अन्त तक बनी रही. अपनी माँ और बहन की मृत्यु से उसके मन पर अत्यन्त प्रतिकूल असर हुआ. इस दौर में उसने लोकगीतों का आधार लेकर, सत्ताधीशों की तीखी आलोचना करने वाली कविताएँ लिखीं. परिणामतः सन 818 में उसका सत्ताकेंद्र से दूर और दोयम अधिकार के पद पर तबादला किया गया. सन 829 के बाद वह अधिकांशतः सार्वजनिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त हो गया.
पो ने अपनी कविताओं में कन्फ़्यूशियस दर्शन के नैतिक मूल्यों सहारा लिया और दैनंदिन जीवन सम्बन्धी उपयोगितावादी दृष्टिकोण अपनाया. उसकी Songs of Everlasting Sorrow कविता का सन्दर्भ लेकर अरुण ने उसे अपनी कविता का विषय बनाया. यह कविता यांग गुफेई नामक तँग दौर की विख्यात सुन्दरी पर आधारित है. झुआँगझाँग सम्राट की वह सहचारिणी थी. उसने अपना स्थान बरकरार रखने के लिए अपने विरोधकों को गला दबाकर उसका कत्ल करने की अनुमति दी थी.
पो अपनी कविता में उसकी और सम्राट के प्रेम की असफल कहानी सुनाता है. उसका निवेदन कौशल्य, सहजसाध्य छन्द और गेयता के कारण यह कविता अत्यन्त लोकप्रिय हो गई थी और उसका कुछ हिस्सा स्कूली बच्चों को भी बिल्कुल ज़बानी याद था. जापान के साहित्य का प्रारम्भ करने वाला ‘द टेल ऑफ़़ गेंजी’ शीर्षक अभिजात उपन्यास पो की कविता के प्रभाव में आकर लिखा गया है. उसमें भी एक असफल प्रेम की कहानी है.
‘त्रिमेरी’ से लेकर प्रारंभिक कविताएँ स्त्रीकेन्द्रित हैं. ‘दृष्टमध’, ‘कैमरा’, ‘सर्पसत्र’ और ‘शेवटचा अश्रू’ आदि कविताएँ यद्यपि स्त्रीकेन्द्रित नहीं हैं, लेकिन इनमें से ‘कैमरा’ और ‘शेवटचा अश्रू’ कविताओं की प्रतिमाओं के केंद्र में प्रमुख रूप से छल का शिकार या इस्तेमाल की गई स्त्रियाँ ही हैं.
‘शेवटचा अश्रू’ कविता में शुरू में ही अरुण दुनिया की अनेक संस्कृतियों के अन्यायकारियों के ख़िलाफ़ होम करने वाला अभिशाप सत्र शुरू करता है. प्रत्येक का नाम लेता है. मानो वह होम में एक-एक को जला डालने का आवाहन/आह्वान करता है. उसमें महाभारत का युद्ध है, क्रुसेड्स है, तैमूरलंग है, गैस चेम्बर हैं, यातनाघर हैं, ‘यहाँ का गुण्डाराज, झुण्डराज, लाठीराज, दमनराज’ भी है. और कविता के अन्त में, इन सबका विनाश होने पर,
ये सारी गन्दगी बह गई
तुम्हारी आँखों की
या विशुद्ध आँसू
बस एक
शेष रहेगा आख़िरकार
बस उसे सँभाले रखना आँखों में.
यह माँग करता है. लेकिन यह माँग किससे करता है? कवि कहता है,
अरी,
विश्वात्मके
यह शब्द मराठी के आदि महाकवि ज्ञानेश्वर ने अपने ‘भावार्थ दीपिका’ के समापन में ‘पसायदान’ के प्रारम्भ में प्रयुक्त किया है. उसकी झनकार मराठी कविता से प्रेम करने वाले प्रत्येक पाठक के कानों में होती है. उसे आहिस्ता से जागृत करते हुए, अरुण किसी पुरुष देवता को बुलाने के बजाय स्त्री-शक्ति को नई सृष्टि निर्माण करने का आह्वान करता है.
अरुण की पुस्तक और उसकी कविताओं के बारे में मेरी टिप्पणी फ़िलहाल यहाँ समाप्त हुई है. लेकिन अरुण की त्रिनेत्री सर्जनशीलता को एक अंजुरी नैवेद्य दिए बिना, उसकी तीसरी आँख के साथ न्याय नहीं किया जा सकता.
पुस्तक बन्द करते-करते, रूप देखते-देखते…
‘सर्पसत्र’ का रूप
‘Sarpsatra’ का ग्रंथरूप स्वयं अरुण ने ही बनाया है. इस जबरदस्त पुस्तक के कवर पृष्ठ की S आकार की सर्पाकृती वक्ररेखा, दो खड़े भाग करती है और हमें सीधे कथावस्तु तक ले जाती है. पुस्तक के कवर पृष्ठ पर केवल काला और सफ़ेद, दो ही रंग हैं. इसी रेखा का दूसरा रूप है दाहक आग की ज्वाला या जिह्वा. वह लाल रंग में अन्तिम कवर पृष्ठ पर है. पुस्तक उठाने पर, उसे आगे-पीछे से देखते ही, अनजाने में पाठक का मन पुस्तक के शीर्षक की कथावस्तु के इर्दगिर्द ठिठकने लगता है.
पुस्तक के शब्द समाप्त होने के बाद चार काले पृष्ठों के निचले हिस्से में, कवर पृष्ठ के S आकारों का इस्तेमाल अग्निशिखाओं का धधकना और बुझना अभिव्यक्त करता है. बाक़ी पूरा पृष्ठ काला. रक्तिम लाल और धुँधला काला यह रंग-युगल ध्वंस की भावना को हवा देता है. यह आँखों से देखना चाहिए कि तीन काले पृष्ठ और कम ज़्यादा होने वाले ये अग्निजिह्वाकार कितना आक्रोश कर सकते हैं. रंगों और आकारों के अत्यल्प तत्वों को लेकर रचना वैविध्य से अर्थगर्भ ग्रंथरचना कैसे की जा सकती है, ‘Sarpsatra’ इसका एक अविस्मरणीय उदाहरण है. यह ऐसी कलाकृति है, जिसकी गणना मराठी के बीते शतक की सर्वश्रेष्ठ कवि और दृक्-कलाकार की प्रतिभा में होनी चाहिए.
‘भिजकी वही’ का ग्रंथ रूप: तीसरा संस्करण
कवर पृष्ठ की पृष्ठभूमि पूरी काली. केन्द्र के ज़रा नीचे भिजकी वही/अरुण कोलटकर शीर्षक. शीर्षक के बीच का तिरछा छेद सफ़ेद रंग में, काले परिपार्श्व में मुखरता से दिखाई देता है. बाक़ी शब्द बिल्कुल फ़ीके-भूरे रंग में, दिखे न दिखे ऐसे. स्पाईन से छोटी बच्ची का दाहिना नंगा हाथ झाँक रहा है.
अन्तिम कवर पृष्ठ का परिपार्श्व भी काला. दाएँ कोने में मिस्र की चित्रलिपि में रोने वाली आँख. स्पाइन की दाईं ओर से, कवर पृष्ठ की तरह ही झाँकने वाला, छोटी लड़की का हाथ.
अन्तिम एक-तिहाई हिस्से में कवि की पुस्तक को लेकर इच्छा :
इस बही को शुष्क मत रखना
मेरी बही भीग जाएँ
स्याही फट जाएँ
ये अक्षर पिघल जाएँ
मेरी कविताओं की लुगदी बने
इस नदी तट की घास चरती भैंस के दूध में
मिल जाएँ मेरी कविताओं का अंश.[22]
इसके बाद प्रास प्रकाशन का लोगो मुखर सफ़ेद रंग में, और बगल में भूरे रंग के अक्षर ‘प्रास प्रकाशन’.
‘स्पाइन’ पर निक यूट के विख्यात चित्र, जिसमें नापाम बम से जलती देह लिए नन्ही-सी विवस्त्र किम फुक. उसका एक हाथ मुख्य कवर पृष्ठ पर और दूसरा हाथ अन्तिम कवर पृष्ठ पर चले जाने से वह हाथ विहीन, वस्त्र विहीन, पंख जल चुके मासूम फ़रिश्ते-सी ज़िन्दा जलती मशाल बन गई है. संसार में स्त्री-सौन्दर्य का प्रतीक मानी गई व्हीनस दे मिलो भी हाथ विहीन. असह्य वेदना की प्रतीक बनी किम भी हाथ विहीन.
मुख्य कवर पृष्ठ और अन्तिम कवर पृष्ठ पर मरघट का काला रंग.
पुस्तक पढ़ते-पढ़ते पाठक रुककर, उसे सीधा रखकर ज़रा-सा दूर हो जाए, मगर नज़र पड़ते ही दोबारा उसे उठाकर पढ़ने लगेगा. पठन समाप्त होने के बाद, जब वह उसे अपने संग्रह की अलमारी में रखेगा, तब रीढ़ पर हाथ विहीन किम उसे अपने हाथों से इशारा करेगी. वह यदि पुस्तक उठाता है, और पूरा खोलता है, तो पाठक के प्रेम की संजीवनी से किम को हाथ मिल जाएँगे.
पाठक ‘भिजकी वही’ नहीं पढ़ रहा हो, तो भी बन्द पुस्तक की रीढ़ में सिमटी किम की प्रतिमा की कर्षणशक्ति पाठक की स्मृतियों में हमेशा के लिए बस जाएगी.
स मा प्त
टिप्पणी
अरुण कोलटकर की कविताओं से सम्बन्धित मेरे पूर्ववर्ती लेखन का इस लेख में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से समावेश है. फिर भी किसी को उसके बारे में जिज्ञासा है, तो उसके लिए सन्दर्भ इस प्रकार हैं:
कविता/शूटिंग स्क्रिप्ट, ऋचा, अरुण कोलटकर विशेषांक, सम्पादक: सुनील कर्णिक, रमेश पानसे
अरुण कोलटकर की कविता और दृश्य-माध्यम, अभिधा के बाद की कविताएँ, अरुण कोलटकर विशेषांक, जनवरी-जून, 2004
(मूल रूप से मराठी में लिखे निबन्ध ‘त्रिनेत्री और चतुष्कर्णी’ का यह हिंदी अनुवाद गोरख थोरात द्वारा किया गया है.)
सन्दर्भ
[1] Martin Scorsese presents The Blues : A Musical Journey, Ed. P. Guiralink et al, the companion book to the PBS series, 2003. पीबीएस टेलीविजन के लिए किए गए कार्यक्रमों से संलग्न यह पुस्तक प्रेम के परिश्रम से जन्मी है. जिस किसी को इस संगीत प्रकार के बारे में जिज्ञासा होगी, उन्हें मैं सलाह दूँगा कि वे उसे पढ़े और साथ-साथ वीडियो भी देखें. इसमें अनुसन्धान का दर्जा जितना ऊँचा है, उसका सम्वेदन मूल्य भी उतना ही ऊँचा है.
[2] Roots : the Saga of an American family, Alex Hailey, 1976. इस पुस्तक में लेखक ने अपनी सात पीढ़ियों का इतिहास लिखा है. उसका प्रारम्भ कुण्टा किण्टे नामक अपने पूर्वज के, अफ़्रीका से अमेरिका में बतौर कैदी आने से शुरू होता है. इसमें लेखक के परिवार का गुलामी के दौर का पूरा इतिहास भी आता है. यह पुस्तक अमेरिका की दस महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित पुस्तकों में से एक मानी जाती है. इस पुस्तक की सच्चाई के बारे में बाद में अनेक विवाद और कोर्ट-कचहरी हुई. उससे यह साबित भी हुआ कि इसका कुछ हिस्सा संदेहास्पद है. लेकिन उसका अमेरिकी जनता के मन पर हुआ असर विवाद से परे है.
[3] The essential Rumi, Translations by Coleman Barks with John Moyne, A. J. Arberry, Reynold Nicholson, San Francisco : Harper Collins, 1996, P. xx
[4] P.145, Meyehold on Theatre, Ed. Edward Braun, Bloomsbury Methuen Drama, 2nd Ed., 2016.
[5] Rabelais and His World, Mikhil Bhakin, Tr. Helene Iswolsky, Indiana University Press, 1984.
[6] मौत का कुआँ, पृ. 29, चिरीमिरी, प्रास प्रकाशन, 2008
[7] पृ. 26, फ़ोटो, चिरीमिरी, प्रास प्रकाशन, 2008
[8] बबू, पृ. 78, चिरीमिरी, प्रास प्रकाशन, 2008
[9] डोरा, पृ. 269, भिजकी वही, प्रास प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 2016. इस कविता कि अगले सारे अवतरण प्रस्तुत संस्करण से लिए गए हैं.
[10] पृ. 269, भिजकी वही, प्रास प्रकाशन, 2016.
[11] पृ. 283, भिजकी वही, प्रास प्रकाशन, 2016.
[12] पृ. 285, भिजकी वही, प्रास प्रकाशन, 2016
[13] पृ. 286, भिजकी वही, प्रास प्रकाशन, 2016.
[14] पृ. 287, भिजकी वही, प्रास प्रकाशन, 2016.
[15] पृ. 291, भिजकी वही, प्रास प्रकाशन, 2016.
[16] किंकाळी, पृ. 307, भिजकी वही, प्रास प्रकाशन, 2016.
[17] कैमरा, पृ. 313, भिजकी वही, प्रास प्रकाशन, 2016.
[18] ‘Leonardo was deeply observed absorbed by the study of light as it affected all things and how we see them. The studies of rays of light from concave mirrors were part of a series of experiments with optics, lenses, and then the camera obscura.’ P. 93. Leonardo Da Vinci, Notebooks, Oxford world’s Classics, Selected by Irma A. Richter, 2008.
[19] पृ. 25, चिरीमिरी, प्रास प्रकाशन.
[20] शेवटचा अश्रू, पृ. 389, भिजकी वही, प्रास प्रकाशन, 2016.
[21] To another work of anthropology, I am indebted in general, one which has influenced our generation profoundly; I mean The Golden Baugh; I have used especially the volumes Adonis, Attis, Osiris. Anyone who is acquainted with these works, will immediately recognise in the poem certain references to vegetation ceremonies.’ T. S. Eliot, Collected Poems, 1909-9062, Harcourt Brace and World Inc. 1963.
[22] अन्तिम कवर पृष्ठ, भिजकी वही, प्रास प्रकाशन, 2016.
अरुण खोपकर 1945मणि कौल निर्देशित ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास की प्रमुख भूमिका. सिने निर्देशक, सिने विद् और सिने अध्यापक. फिल्म निर्माण और निर्देशन के लिए तीन बार सर्वोच्च राष्ट्रीय पुरस्कारों के सहित पंद्रह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित. होमी भाभा फेलोशिप से सन्मानित.‘गुरू दत्त : तीन अंकी शोकांतिका’ को सिनेमा पर सर्वोत्कृष्ट पुस्तक का राष्ट्रीय ॲवॉर्ड और किताब अंग्रेजी, फ्रेंच, इटालिअन, बांगला, कन्नड और हिंदी मे भाषांतरित. ‘चलत् चित्रव्यूह’ के लिए साहित्य अकादेमी ॲवार्ड व महाराष्ट्र फाउंडेशन (यू. एस. ए.) ॲवार्ड, ‘अनुनाद’ और ‘प्राक् सिनेमा’ के लिए लिए महाराष्ट्र राज्य पुरस्कार. अंतरराष्ट्रीय चर्चा सत्रों में सहभाग और प्रबंधों का अंग्रेजी, रशियन और इटालियन में प्रकाशन. सत्यजित राय जीवनगौरव पुरस्कार व पद्मपाणी जीवनगौरव पुरस्कार. चार भारतीय और छह यूरोपीय भाषाओं का अध्ययन. महाराष्ट्र सरकार द्वारा सम्मानित प्राक्-सिनेमा का सेतु द्वारा शीघ्र प्रकाशन. |
गोरख थोरात 1969समकालीन मराठी से हिंदी अनुवादकों में एक चर्चित नाम. हिंदी में अनेक आलोचनात्मक पुस्तकें प्रकाशित लेकिन पहचान बतौर अनुवादक. ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकार भालचंद्र नेमाड़े के ‘हिंदू-जीने का समृद्ध कबाड़’ से अनुवाद कार्य प्रारंभ. भालचंद्र नेमाड़े के साथ-साथ अशोक केळकर, चंद्रकांत पाटील, महेश एलकुंचवार, अरुण खोपकर, दत्तात्रेय गणेश गोडसे, रंगनाथ पठारे, राजन गवस, जयंत पवार, अनिल अवचट, मकरंद साठे, अभिराम भड़कमकर, नरेंद्र चपळगाँवकर, मनोज बोरगाँवकर समेत अनेक साहित्यकारों की करीब चालिस रचनाओं का अनुवाद. रजा फौंडेशन के लिए साहित्य-कला आलोचना संबंधी अनेक पुस्तकों का अनुवाद.महाराष्ट्र राज्य हिंदी अकादमी मामा वरेरकर अनुवाद पुरस्कार, अमर उजाला ‘भाषा बंधु’ पुरस्कार, Valley of Words International Literature and Arts Festival, 2019 Dehradun का श्रेष्ठ अनुवाद पुरस्कार, बैंक ऑफ बड़ोदा का राष्ट्रभाषा सम्मान श्रेणी (लेखक तथा अनुवादक को पाँच लाख रुपए का पुरस्कार) समेत अनेक पुरस्कारों से सम्मानित. gnthorat65@gmail.com |
इसमें एक अरुण का नाम छूट गया है I अरुण कोलटकर पर अरुण खोपकर का लिखा और अरुण देव द्वारा प्रकाशित I यह इतना शानदार, अद्भुत और महत्वपूर्ण है कि सिर्फ इसी के लिए आप अरुण द्वय को पुरस्कृत करना चाहिए I समालोचन भारतीय भाषाओं की श्रेष्ठतम पत्रिका है इसमें कोई संदेह नहीं I यह संतोष का विषय है कि हिंदी का भविष्य आप जैसे वैरागी के हाथों में है जो जितना सह्रदय है उतना ही सख्त भी I
यह असंदिग्ध महत्व का लेख है। ऐसी डिकोडिंग अनन्य है। (तीन अरुण के प्रयास यहाँ समवेत हो गए।
हो यह रहा है कि इन आलेखों की सघनता पाठक को एक ही बार में पढ़ जाने से रोकती है। रोकना भी चाहिए। एक तो कवि अरुण, ऊपर से भावक और संपादक भी अरुण। धारासार वर्षा और प्रचण्ड तूफ़ान से घिरा पाठक थोड़ा अवकाश मांगता है। यह सामग्री इतनी समृद्ध है कि इसे आंशिक रूप से आत्मसात करने के लिए जिस प्रतिबध्दता की ज़रूरत है वह दुर्लभ है।
अरुण खोपकर ने कवि के अन्तिम समय का चित्रण किया है और इतनी मेहनत का अंततः हार्ड डिस्क द्वारा नष्ट कर दिया जाना…फिर वही जो याद रह गया, उसी से संदर्भ बुने गए।
संतों की बानी सरीखी है सम्बन्धों की ऐसी रूहानी व्याख्या।