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Home » अपराह्न पाँच बजे: कुमार अम्‍बुज

अपराह्न पाँच बजे: कुमार अम्‍बुज

‘विश्व सिनेमा से कुमार अम्बुज’ श्रृंखला कालजयी फ़िल्मों को समझने और अपने समय को बूझने की गहरी अंतर्दृष्टि देती है, भाषा की अपनी संभव ऊंचाई के साथ. यह फ़िल्म की समीक्षा या आलोचना नहीं है. यह उसके समानांतर लेखक की अपनी यात्रा है. कलम से लिखी गयी फ़िल्म है. दृश्य का विस्तार, इंगित की व्याख्या और रुचि का परिष्कार है. इस अर्थ में यह अप्रतिम और अद्वितीय है. इसकी तेरहवीं कड़ी में ईरानी फ़िल्म निर्देशक समीरा मख़मलबाफ़ की अफ़ग़ानिस्तान की पृष्ठभूमि पर आधारित फ़िल्म- ‘At five in the afternoon’ की यहाँ चर्चा है जो 2003 में प्रदर्शित हुई थी और जिसे कई अंतर-राष्ट्रीय सम्मान मिले. आलेख प्रस्तुत है.

by arun dev
September 15, 2022
in फ़िल्म
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अपराह्न पाँच बजे: कुमार अम्‍बुज
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अपराह्न पाँच बजे
संसार की सारी घड़‍ियों में

कुमार अम्‍बुज

ख़्यात स्‍पेनिश कवि फ़ेद्रिको गार्सिया लोर्का ने एक कविता अपने मित्र की बुलफ़ाईटिंग में मृत्‍यु से संवेदित होकर लिखी. चार कविताओं के इस समुच्चय में, पहली कविता ने अधिक लोकप्रियता हासिल की. जिसकी लगभग हर दूसरी पंक्ति में दर्ज था: ‘एट फ़ाइव इन द ऑफ़्टरनून’. यह दुशासन में समाहित अकाल मृत्‍यु का शोक और उसकी मर्मांतक तकलीफ़ है. मृत्‍यु जो इस तरह आशंकित थी मानो अनिवार्य थी. ‘अपराह्न पाँच बजे’ की आवृत्ति कविता को संत्रासपूर्ण ढ़ग से लिरिकल बनाती है. वेदना को अनवरत गहरा करती चली जाती है. उसे विस्मृत नहीं होने देती.

इसका मायना तब कहीं अधिक दुखद और व्यंजक हो जाता है जब चार बरस बाद लोर्का की हत्या दक्षिणपंथी तानाशाह फ्रैंको द्वारा करा दी जाती है. लोर्का अनवरत अपनी कविताओं में ‘असमय मृत्‍युबोध’ को दर्ज करते रहे. वे ‘निरंकुश और अमानवीय सत्‍ता’ रूपी साँड़ के साथ ‘बुलफ़ाईटिंग’ कर रहे थे और उनका मारा जाना उसी तरह प्रत्याशित था जैसे उनके मित्र का ‘अरीना’ में लड़ते हुए, एक असमान द्वंद्व में मारा जाना. मगर लोर्का किसी खेल में नहीं, अपनी प्रतिरोधमयी कविताओं और विचारों के लिए क़त्‍ल किए गए. फिर उनकी कविताओं का दूसरा, अमर जीवन शुरू हुआ. वह आज भी जारी है.

‘एट फ़ाइव इन द ऑफ़्टरनून’ की टेक के साथ जो यातना और टीस संलग्न है, उसने कलाओं के अन्य अनुशासनों को आकर्षित किया. वह एक विडंबना की तरह प्रसारित हो गई. इस कविता पर कई कलाकारों ने पेंटिंग्‍स बनाई हैं. नाटक लिखे गए हैं. अनेक पाठों में उद्धृत की गई है. इसने कई दूसरी कलाभिव्‍यक्तियों को प्रस्थान बिंदु दिया. इस कविता को संगीत में ढाला गया, तानाशाही के ख़‍िलाफ़ पढ़ा जाता रहा है. इसकी काव्‍यात्‍मक टेक, ध्वनि और रेटॅरिक को जीवन की मुश्किलों में, संघर्ष और प्रतिवाद के बहुवचनीय प्रत्यय की तरह ग्रहण किया गया.

इसलिए समीरा मख़मलबाफ़ जब अफ़गानिस्‍तान में काली छाया तले बीत रहे आमजन की हृदय विदारक परिस्थितियों को रेखांकित करते हुए फ़‍िल्म बनाती हैं तो उसका नाम ‘एट फ़ाइव इन द ऑफ़्टरनून’ रखती हैं. जैसे इस नामकरण से वे आसन्न मृत्यु की आहट, अत्याचारी शासन में सहज मानवीय आकांक्षाओं की दुर्गति और जिजीविषा को एक साथ प्रकाशित कर देना चाहती हैं. जहाँ हर कोशिश असफल होने के लिए अभिशप्त है. फिर भी कोशिश जारी है. यहाँ केवल लोर्का की कविता नहीं है, इसमें चेखव की कहानी भी शामिल है. महायुद्ध उपरांत पांडवों की गति भी. केंद्रीय अवयव तालिबानी सत्‍ता है. यह इशारों, दृश्य और कहन में, निर्धनतम की न्‍यूनतम अभिलाषाओं की अभिव्यक्ति है.
और उसके अधिकतम संकटों की.

 

‘At five in the afternoon’ फ़िल्म से एक दृश्य

(दो)

अपराह्न पाँच बजे की यह बुदबुदाहट कोई मंत्र है. बेकली है. धुकधुकी है. खटका है. और कविता है. सारे समय सूचक यंत्र जब पाँच बजना बता रहे हों और दुनिया की सारी घड़ि‍यों में सूइयाँ पाँच बजे पर आकर ठहर गईं हों तो नृशंस अपराह्न की इस जकड़ से बाहर आना तय करेगा कि क्रूर सभ्यता में हमारा आख़‍िर क्‍या होना है. यह प्रश्न विकल यथार्थ है, उद्वेग है, चेतावनी है. पृष्ठभूमि में महज़ वीरानी है. विध्वंस की अमिट निशानियाँ हैं. उन्हीं परछाइयों में भटकते लोग. एक जनारण्‍य है. वे ख़ुद नष्‍ट हैं और बरबाद होने के ज़‍िंदा सबूत हैं. उजड़ने के मामले में जीवित-अजीवित के बीच कोई भेद नहीं रह गया है. किसी के पास घर नहीं. निराश्रितों को निराश्रितों से संबल है.
जीवन खंडहर है.

मानो अब यहाँ केवल बुरक़े और ताबूत बनाए जाएंगे.
जीवितों के रोज़मर्रा में उड़ती हुई रेत बची है. वही नींद में भरती है. वही साँसों में. हर स्वप्न विदीर्ण है. यहाँ स्त्रियों की ज़‍िंदगी पर निगाह डाली जा सकती है. वे किसी समर्थ मनुष्‍य की तरह सब कुछ करना चाहती हैं मगर कुछ न कर सकने के लिए विवश हैं. ऐसा ही समाज है और ऐसा ही देश हो गया है. आसपास क्रूरता का दक़‍ियानूसी संसार है. यही रेगिस्‍तान की तरह फैल रहा है. हर तरफ़. यह रेगिस्‍तान में आबादी है. या बस्तियों में ही मरुस्थल आकर पसर गया है. कुछ भी साबुत नहीं. मनुष्य का हृदय भी. सबसे अलभ्य है- पानी. वह पाताल में है. करुणा रसातल में. दोहराया जाता हुआ संवाद है- ‘मैं पानी की आवाज़ सुन रही हूँ मगर पानी कहीं नहीं है.’ जीवन की आहट है, जीवन नहीं है. यही गूँज है, यही अनुगूँज. दुख दुख की भाषा में अंकित है. और आबनूसी रंग में चित्रित है.
एक दुख को दूसरा दुख पुकारता है.

अंधविश्‍वासियों के साम्राज्य से बड़ा कोई साम्राज्य आज तक संसार में कहीं स्थापित नहीं हुआ. कभी नहीं. न माया सभ्यता, न रोमन, न मंगोल, न ब्रिटिश और न ही मुग़ल साम्राज्य. यह शिकारी साम्राज्य सतत पीछा कर रहा है. धर्म हाँका लगाता है. इसलिए हमारा बूढ़ा नायक भी उन पापों की लिए, जो उसने किए ही नहीं, हमेशा क्षमा माँगता रहता है. सुबह से रात तक. आजीविका के लिए ताँगा है. इस तरह घर में एक जीव और जुड़ता है- घोड़ा. जिसका पालन साथ में करना है. गलियों में ताँगा चलने की आवाज़ और प्रार्थनाओं के स्‍वर एक दूसरे में घुलते चले जाते हैं. उड़ती हुई धूल, गिरती हुई धूल के साथ फिर गिरती है. पुरुष से आशा है कि वह स्‍त्री को देखकर अपनी वासना को नियंत्रित करे. स्त्री पर गुरु भार है कि वह अपना कुछ भी ऐसा ज़ाहिर न करे जो पुरुष की वासना को अनियंत्रित कर दे. उसका नाखून भी नहीं दिखना चाहिए.

लेकिन स्‍त्री मनुष्य का दर्जा पाना चाहती है. कुछ स्वतंत्रता. वह पूरी कारा नहीं तोड़ पाती लेकिन मौक़ा पाकर उसकी दो-चार सलाख़ें तोड़ ही देती है. बुरक़ा उतार दिया जाता है. मन की कुछ चीज़ें पहन ली जाती हैं. मुसकराहट के साथ सिर पर नीली छतरी तान ली जाती है. इच्छाओं से भरे नीले आसमान का टुकड़ा, अब कुछ देर के लिए ही सही, उसका सरपरस्त है. वह बरबाद गलियों, टूटे-फूटे मकानों के बीच से गुज़र रही है. उसे देखकर बुज़ुर्ग भी अचानक पलट जाते हैं. परदा विहीन स्‍त्री देखकर सिहर जाते हैं. अपने अज्ञात, संभव-असंभव गुनाहों के लिए परवरदिगार से माफ़ी माँगने लगते हैं. जैसे किसी दीवार से. एक स्‍त्री की छाया उन्हें पापकर्म की तरफ़ धकेल सकती है.
और यह तो साक्षात है.

हास्य बोध का सीमांत है कि भेड़-बकरियों-गायों के सामने राजनीतिक भाषण देने का पूर्व अभ्यास किया जा सकता है. इस तरह अभ्यास होने पर, अधिक आत्मविश्वास से जनता के बीच वही तेजस्वी भाषण द‍िया जा सकेगा. जनसमूह को भेड़-बकरियाँ-गायें मानकर. सारी दिशाओं से घेरने के बाद राजनीति मारक विडंबना है. एक बेपरवाह अनीति है. शायद चुनाव जीतकर, देश की हालत सुधारी जा सके: यह आशा, यह महत्वाकांक्षा मनुष्य की अनिवार्य स्‍वप्‍नशीलता को बचाने का जतन कर रही है. राख में दबी लालिमा की तरह.
अपराह्न पाँच बजे.

 

‘At five in the afternoon’ फ़िल्म से एक दृश्य

(तीन)

शिक्षा मुक्तिकामी बना सकती है. इसी का तो विरोध है.
और उन गुंजाइशों का, कोनों-किनारों का, उन तमाम जगहों का, जहाँ लड़कियाँ, स्त्रियाँ स्वप्न देख सकती हैं. बराबरी का, अपने अधिकारों का स्वप्न. इसलिए उन दरारों को भी बंद करना है जहाँ से ज़रा भी रोशनी आती हो. यह सरकार इस तरह धार्मिक है कि अधार्मिक है. यहाँ स्त्रियों को सपने देखने की मनाही हो जाती है. हवा में एक मुनादी गूँजती रहती है. एक फ़़तवा. आपकी तरफ़ से सपने पुरुष देखेगा. शासन देखेगा. तानाशाह देखेगा. लेकिन ये लड़कियाँ तो सोच रही हैं अगर उन्हें मौक़ा मिला तो वे यह समाज बदल देंगी. ऐसा सोचना उनके लिए असंभव सरीखा है लेकिन वे सोच रही हैं. बातें कर रही हैं. वे बम के धमाके में उड़ जाने का ख़तरा मोल ले रही हैं. लेकिन वे सोच रही हैं. वे जिरह कर रही हैं. विचित्र है कि अंधी सुरंग की नागरिक एक स्त्री राजप्रमुख होने के दिवास्‍वप्‍न में रहने लगी है.

लेकिन अभी तो अपने ही रहने का ठिकाना नहीं है.
फिर भी वे दूसरी जगहों से, देशों, शहरों, गाँवों और सीमांतों से उजड़कर आ रहे निराश्रितों को आमंत्रित करती हैं कि आओ, हम जिस भग्‍न आश्रय में रह रहे हैं, तुम सब भी वहाँ रहो. एक ग़रीब, एक बेघर दूसरों को जगह दे रहा है, जैसे आवास दे रहा है. उनके पास देने के लिए यही प्रेम है, यही उदारता. जगह इतनी कम है कि सब कुछ ठसाठस है. रोटी नहीं. पानी नहीं. कल इन्हीं सबसे झगड़ा होगा. लेकिन आओ, अभी यहाँ रहो. और कहाँ जाओगे? प्रत्येक जन दो गठरी लिए चला आता है. एक सामान की, दूसरी ख़ुद उसकी. अब यह खंडहर गठरियों से भर गया है. मानो ज़िंदा ठठरियों से. जिन्होंने जगह दी, अब उन्हें ही रहने की जगह नहीं बची. उन्होंने फिर ताँगा जोत लिया है. चलो, कोई नया खंडहर, कोई बंबा, पुल की छाया, कोई टूटा वाहन या इमारत, कोई नया उजाड़ देखते हैं. आत्‍मसंलाप करते हुए वे चलते जाते हैं कि हम पहले से ही मुर्दा थे, फिर भी हमें मारा गया. हम भिखारी थे, भूखे-प्‍यासे थे फिर भी हमें लूटा गया. हम बेदख़लों को हर जगह से हर बार बेदख़ल किया गया. क्योंकि हम हर तरह से वंचित थे.

हर तरफ़ से आसान शिकार थे.
इस युग में अपराह्न पाँच बजे.

धर्मशील बूढ़ा खीझ रहा है: तुमसे कितनी बार कहूँ ऐ लडकियों, अपना चेहरा ढँक लो. मेरे ताँगे में बैठना चाहती हो तो परदा करो. उघड़ापन पाप है. यह मुझे भी लग जाएगा. पवित्रतम किताब कहती है यह पाप दूर तक फैल जाएगा. समेटे नहीं सिमटेगा. लड़कियाँ हाँ कहकर अनसुना कर रही हैं. वे अपने चेहरे और दूसरे चेहरों को एक साथ बेनक़ाब कर रही हैं. मुसकरा रही हैं. अपने आसपास की दुनिया देख रही हैं. जो खार है, ऊसर है लेकिन अभी तो वही उनकी दुनिया है. वे उसे ही देख सकती हैं. उसे ही देख रही हैं. मुसीबत में खिलखिला रही हैं. उन्हें अदेखी जन्नत की राह पर नहीं चलना. इसी देखी-भाली पृथ्वी के वैकुंठ में रहना है. मगर वे बंदी नहीं रहना चाहतीं. वे खुले के सच्‍चे स्‍वर्ग की आकांक्षी हैं. उनकी बेपर्दगी के कारण, उनकी बेअदबी और खिल-खिल खिलखिलाहट के कारण, उन्हें ताँगे से उतार दिया गया है. वे अब विस्तृत मैदान में, पठार पर, धरती पर भाग रही हैं. इस दौड़ में, इस भागने में, इस पदगति में शास्‍त्रीयता नहीं है लेकिन उछाह है. इस में लोक संगीत है. कामना का सुर है. और सुख है.

इक्‍का-दुक्‍का रोशनियों से टिमटिमाती रात की ये गलियाँ, जैसे अवसादी अंधकार को उजागर करने के धूसर चित्र हैं. उनका रंग इस कथा के पात्रों की पुतलियों में, आँखों में, कनपटियों और चेहरे पर स्थायी हो गया है. इसी रात में से गुज़रकर उन्हें अपना नया ठिकाना खोजना है. लेकिन उनका गुमशुदा बेटा अभी वापस नहीं आया है. फ़‍िक्र है कि वह वापस आया तो अपने परिवार को किस तरह खोजेगा. उसकी जानकारी में जहाँ हम हो सकते हैं, वहाँ से तो हम जा रहे हैं. उसे कैसे पता चलेगा कि हम कहाँ जा रहे हैं. यह तो हम जानेवालों को भी नहीं मालूम. यही इस वक़्त का हासिल है कि किसी को कुछ ख़बर नहीं. ख़ुद की ख़बर भी नहीं. परंतु गुमशुदाओं की वापसी की पथरीली आशा बनी रहती है. उस आशा को मृत्यु की ख़बर ही तोड़ सकती है. सबसे सन्निकट वही है.
इस अपराह्न पाँच बजे की श्यामवर्णी छाया में.

 

‘At five in the afternoon’ फ़िल्म से एक दृश्य

(चार)

दुर्बलतम नन्‍ही जान भूखी है. माँ भूखी है. आँचल में अमृत नहीं. वह सबला न बन सके, इस हेतु सारे उपाय हैं. आँखों में पानी नहीं. पहिया विपरीत दिशा में घूम रहा है, घड़ी के काँटे सही दिशा में हैं लेकिन वे अपराह्न पाँच बजे पर अटक जानेवाले हैं. पाँच बजे की शाम के रूपक में हत्‍या होना है. प्राकृतिक हत्या की तरह. आत्‍मघात की तरह. दुर्घटना की तरह. निर्बल की नियति की तरह. प्रतिरोधी विचार के वध की तरह. हत्या ही विजय घोष है.
उतनी रात नहीं, जितना अँधेरा गहरा रहा है.

इस बदहाली में भी एक बदहाल प्रेम पीछा कर रहा है. साइकिल है. प्रेमी है. प्रेमकथा है. अपने पहले क्षण से ही ध्वस्त. नायिका भी बात करना चाहती है. प्रेम में पड़ना चाहती है. लेकिन धर्मग्रंथों का क्‍या होगा. उपदेशकों का क्‍या होगा. पिता का क्‍या होगा. चौपाइयों, सुभाषितों का क्‍या होगा? कहीं कोई ईश्वर होता तो इस क़दर नियमित प्रार्थनाओं से यह जीवन कुछ सरल हो चुका होता. मगर यहाँ प्रेम की इच्छा के सामने मशीनगन है. मैं राजप्रमुख बन गई तो सब ठीक हो जाएगा. सोचो, सोचने में क्‍या हर्ज है. शायर प्रेमी कह रहा है कि मैं भी भेड़-बकरियों के सामने कविता सुनाता हूँ, पूर्व अभ्यास करता हूँ ताकि फिर उन्हें जनता के सामने सुना सकूँ. भेड़-बकरियाँ कविता नहीं समझतीं. जनता भी नहीं समझती. लेकिन अभ्यास काम आता है.

सब तरफ़ यही हास्य है, यही दुर्दशा है.

और तुम!
तुम एकदम घोड़े हो, तुम्हें तो बस भूसा चाहिए.
तुम बिल्कुल नहीं समझते कि दुनिया कितनी भयानक होती चली जा रही है. मेरा बेटा मर गया और यह बात मैं अपनी बहू को, अपनी बेटी को नहीं बता सकता. तब आशा और चिराग़ दोनों बुझ जाएंगे. तुम निरे पशु हो, तुम नहीं समझ पा रहे हो कि इंसान मारे जा रहे हैं. देश उजड़ चुका है. यह वीरानी भी कोई वीरानी सी वीरानी है. तुम सुन रहे हो, तुम घोड़े हो कि खच्‍चर. या गधे. तुम कुछ नहीं समझते, तुम्हें तो बस खाने को भूसा चाहिए. मैं अभी हूँ तो तुम समझ नहीं पा रहे कि अनाथ होना क्‍या होता है. दुखजन्‍य जवाबदारी इतनी है कि मैं आह भी नहीं भर सकता. तुम किस तरह आह भरते हो, प्यारे! तुम्हारी यह उसांस क्‍या कोई आह है. यह आह न भर पाना, आह भरने से कितना ज़्यादा तकलीफ़देह है? यह दुधारी तलवार है, उसी पर चलना है. पाँवों का ख़ून मिट्टी में मिलता है और वही मिट्टी उड़कर मुँह में भरती है. ठंड से काँपता बच्‍चा अलाव के सामने ही मर जाता है, जैसे अग्नि का काम केवल मृत्‍यु का साक्षी होना रह गया है. आँसू निकले भी तो वेदना कम नहीं करेंगे, जीवि‍त प्रियजन का संताप दस गुना कर देंगे. कोई तकलीफ़ अब आँसुओं को उकसा नहीं पाती. नदियों की तरह आँसू भी सूख चुके हैं. यह जीवन कैसा है जिसमें सिसकी तक नहीं ली जा सकती? यह मनस्‍ताप है.
असमाप्‍य बड़बड़ाहट है.

न अन्‍न. न दाना. न भूसा.
इस तरह कोई अकाल क्यों मरता है. भूख से जवाब लो. प्यास से पूछो. शीत से पूछो. बच्चे को मिट्टी दे दी गई है. जो गहरी लंबी नींद में चला गया है, जरूरी नहीं कि वह मर ही गया हो: सांत्वना का यह वाक्य सांत्वना देने का सामर्थ्य खो चुका है. मनुष्य मरते हैं, समुद्र, पेड़, खच्‍चर, बैल, पक्षी और घोड़ा सब मरते हैं. ईश्वर अमर है. बाक़ी सब मरते चले जाते हैं. समय असमय. सच्चा ईश्वर वही है जो किसी की नहीं सुनता. तब यह बार-बार होता है कि आदमी को अपना दुख घोड़े से कहना पड़ता है. मेरे शारंग, तुम कम से कम चुपचाप सुनते तो हो, कभी सिर ह‍िला देते हो, कभी पूँछ. इस असीम व्यर्थता में भी तुमसे कुछ कह देने से संतोष मिल जाता है. मगर तुम कुछ नहीं जानते यह जीवन कैसा है. तुम कुछ नहीं समझोगे. तुम्हें तो भूसा चाहिए, दाना चाहिए. अब तुम्हें ठंड लग रही होगी. तुम्हें कुछ ओढ़ा दूँ. मेरे तो तुम ही हो. तुम्हें शीत व्याप गया तो समझो मुझे व्याप गया. तुम मरे तो मैं मर जाऊँगा.
न जाने हम दोनों का क्‍या होगा.
पाँच बजे के अपराह्न काल में.

 

‘At five in the afternoon’ फ़िल्म से एक दृश्य

(पाँच)

अब फिर विस्थापन है. हम अनिकेतन. हमारा क्‍या घर, क्‍या दर, कैसा वतन? शरणागत होने के लिए कोई जगह नहीं. एक पेड़ की छाया भी नहीं. जिनकी दशा पर दया आती है, अगले ही क्षण उनसे अधिक दयनीय लोगों का रेला आता दिखता है. एक गठरी पर रखी हुई दूसरी गठरी. गठरियों का दारुण संसार. पीछे छूटा शहर प्रतीक्षा का शहर था. प्रतीक्षा खत्‍म हुई, शहर का काम खत्‍म हुआ. अब कोई नया शहर. लेकिन वह शहर कहाँ है? घोड़ा ताँगे में जुता हुआ एक परिवार के दुखों का बोझ उठाए चल रहा है. बेचारा भूखा अश्व कुछ समझे या न समझे मगर चल रहा है. लेकिन एक कमज़ोर गृहस्थी का असबाब भी ठीक तरह नहीं खींच पा रहा है. गाड़ी उलार हो गई है. अभाव का भार सर्वाधिक भारी है.

ताँगा टूटने की राह पर है. कब तक चलेगा, कुछ पता नहीं. जर्जर चीज़ों की कोई उम्र तय नहीं होती. वे बस अचानक टूटते हुए सूचना देती हैं कि हम तो पहले से ही नष्ट थीं. आख़‍िर एक शाम मालिक अपने हाथों से टूटे ताँगे को जला देता है. आग में इसे जलते देखना किसी अभिव्यक्ति में संभव नहीं. इसका अनुवाद नामुमकिन है. सब जीवन का हिमालय चढ़ते हुए, एक-एक करके मर रहे हैं. निराशा की हदें पार करती हुई यात्रा जारी है. जैसे यह ऐसी जवाबदेही है जिसे फेंका नहीं जा सकता. एक द‍िन घोड़ा भी साथ छोड़ देता है. विपन्न जीवन के ताँगे में मालिक को जुतना पड़ता है. ऊपर आधा चंद्रमा आया है लेकिन आसमान पूरा काला है. चीलगाड़‍ियाँ मँडरा रही हैं.
क्‍या इस मरते हुए परिवार पर भी बम गिरेगा?

दूर देखो. इस मरु भूमि में कोई आदमी आता दिख रहा है. यह आश्चर्य है. लेकिन इसमें कोई अचरज नहीं कि पानी कहीं नहीं है. कंधे पर लटकी डोलचियाँ ख़ाली हैं. अब तो कहीं से पानी की आवाज़ भी नहीं आती. तुम वहाँ आ गए हो जहाँ से वापस जा नहीं सकते. उधर से आता इकलौता राहगीर बता रहा है कि आगे भी कुछ नहीं है. तुम जिधर से आ रहे हो, सुनते हैं उधर कंधार है? हाँ, उसका नाम कंधार है लेकिन वह कंधार नहीं है.
यह कैसा जवाब है? यह सच्‍चा जवाब है.

काबुल और कंधार…..कंधहार और काबुल…..काबुल और गंधार. प्रतिध्‍वनियाँ पीछा करती है. नाम बदलकर कुछ भी रख दो, ये नगर दुनिया के हर देश में खोजे जा सकते हैं. जहाँ नहीं थे, अब निर्मित किए जा रहे हैं. यही परियोजनाएँ प्रगति हैं. जो सुंदर, जो बेहतर प्राप्त किया गया, वही नष्ट किया जाना है. और वही है जो अब फिर हासिल नहीं हो सकेगा. यही अभीष्ट, यही प्राप्य और यही अप्राप्य. केवल सफ़र रह गया है. चलते रहना है. कोई नहीं बता सकता कि जिधर जा रहे हैं, वह जगह आख़‍िर किधर है. कितनी दूर है. वहाँ कब तक पहुँचेंगे. या कभी नहीं पहुँचेंगे. दिशा किधर है, वि-दिशा किधर. जो मिलता है वह बेज़ार ढंग से अपने निकट एक मृत्यु देख रहा है. और ख़ुद अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है. असहाय. इसलिए निर्विकार.

आगे कोई आबादी नहीं. पीछे कोई शहर नहीं. दश्त को देख के घर याद आया. तुम किस जगह का रास्ता पूछते हो? इस रास्ते पर आगे सिर्फ़ रास्ता ही है. दूर तक. फिर कोई रास्ता नहीं. सभ्यताओं की मृत्यु हो गई है. रूखे रास्ते साक्षी हैं. सूखी नदियों के बाक़ी निशान, यह मरुस्थल, यह पठार साक्षी है. अब यह ढलती दुपहर है, जिसकी बढ़ती हुई सांवली छाया है. और संसार की सारी घडि़यों में पाँच बजनेवाले हैं.

अपराह्न के पाँच बजे.

 

 

 At five in the afternoon, 2003/  Director- Samira Makhmalbaf.

आभार-
‘हम अनिकेतन’ से बालकृष्‍ण शर्मा ‘नवीन’ की काव्‍य पंक्ति और ग़ालिब के एक शेर के लिए.

 

कुमार अंबुज
(जन्म : 13 अप्रैल, 1957, ग्राम मँगवार, गुना, मध्य प्रदेश)
कविता-संग्रह-‘किवाड़’, ‘क्रूरता’, ‘अनन्तिम’, ‘अतिक्रमण’, ‘अमीरी रेखा’, ‘उपशीर्षक’ और कहानी-संग्रह- ‘इच्छाएँ’ और वैचारिक लेखों की दो पुस्तिकाएँ-‘मनुष्य का अवकाश’ तथा ‘क्षीण सम्भावना की कौंध’ आदि प्रकाशित.कविताओं के लिए मध्य प्रदेश साहित्य अकादेमी का माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार, भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार, गिरिजाकुमार माथुर सम्मान, केदार सम्मान और वागीश्वरी पुरस्कार आदि प्राप्त.kumarambujbpl@gmail.com
Tags: 20222022 फ़िल्मAt five in the afternoonकुमार अम्बुजविश्व सिनेमा से कुमार अम्बुज
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Comments 11

  1. आशुतोष दुबे says:
    3 years ago

    हर बार इस स्तम्भ को पढ़ना समृध्द होना है। यह फ़िल्म के बहाने संवेदना की नई यात्रा पर निकल जाना है, जिसमें भाषा अपने आवेग और अवसाद में अदेखे अजाने इलाकों में ले जाती है।

    Reply
  2. Prabhat Singh says:
    3 years ago

    आपने जब इस आलेख की पूर्व सूचना दी थी, फ़िल्म उसी रोज़ फिर से देखी थी. इसके आने का इंतज़ार था..अभी पढ़ लेने के बाद अद्भुत कहना चाहता हूं..मगर यह कहना सचमुच काफ़ी नहीं. फ़िल्म को पढ़ना, इंगित को इतनी गहरी संवेदना के साथ महसूस करना और उसे ज़बान देना, अद्भुत से बहुत आगे का जतन है. बहुत शुक्रिया.

    Reply
  3. श्रीविलास सिंह says:
    3 years ago

    बहुत सुंदर आलेख। लोर्का की कविता ‘एक बुलफाइटर की मौत’ और फ़िल्म ‘ एट फ़ाइव इन द आफ़्टरनून’ दोनों की त्रासदी, संत्रास और आतंक आलेख में जीवंत हो उठे हैं। आलेख फ़िल्म को देखने और कविता को समझने के लिए एक अंतर्दृष्टि देता है। कुमार अम्बुज जी और समालोचन दोनों का हार्दिक आभार।

    Reply
  4. दया शंकर शरण says:
    3 years ago

    मेरी समझ से इस आलेख के अभिधार्थ से अधिक कहीं गहरे निहितार्थ हैं।यह सिर्फ एक देश-काल की भयानक त्रासदी नहीं है। इसमें पूरी दुनिया में एक क्रूर वीभत्स बर्बर अनागत की आहट है।यह संकट सर्वव्यापी सर्वग्रासी है। अम्बुज जी को साधुवाद!

    Reply
  5. हरि मृदुल says:
    3 years ago

    अंबुज जी की सिनेमा की समझ और अनुपम गद्य मुझे कतई हैरान नहीं करता। वजह यह कि उन्होंने जैसी कहानियां लिखी हैं, उनसे विशिष्ट गद्य की सदा ही उम्मीद रहती है। सोचता हूं कि जब उनकी इन आलेखों की कृति आएगी, वह कितनी मूल्यवान होगी। एक ही कृति में सारे उम्दा आलेख होंगे…। बहरहाल, अंबुज जी और आपको धन्यवाद बहुत।

    Reply
  6. अरुण आदित्य says:
    3 years ago

    कुमार अंबुज इतनी रचनात्मक समीक्षा लिखते हैं कि फिल्म की पूरी भावभूमि साकार हो उठती है। माध्यम की गहरी समझ और कवि-दृष्टि जब एकाकार हो जाएं तभी ऐसा सहज धड़कता हुअ गद्य रचा जाता है।

    Reply
  7. Raja Holkunde says:
    3 years ago

    कुमार अंबुज जी आपने कालजयी फिल्मों को लेकर जो लिखा हैं वो एक सिनेमा समझने का अभ्यास है।
    मैं समजता हूं वह एक तरह का पुनर्सजन है। आपकी कविताओमें जितना यथार्थ है उतनाही यथार्थ आपकी
    इस भाषामें भी है। जो भीतर तक धंसती है।और सोचने
    के लिये विवश करती है। यह एक बडा अनूठा संसार है।

    Reply
  8. Anonymous says:
    3 years ago

    ये अम्बुज जी का सिनेमा के साथ सहयात्री होने का अनुभव देता है जो हमें भी लगभग उसी गहरे भावाबोधक में समेट साथ ले चलता.नासूर अंदर सिसकते हैं पर उन्हें फूटने की मनाही है.हम ऐसे ही समय के वासी हैं.

    Reply
  9. प्रकाश मनु says:
    3 years ago

    भाई कुमार अंबुज के पास सिनेमा के हृदय में झांकने वाली बड़ी अद्भुत आंख है, और आतंक की सिहरन को व्यक्त करने वाली ऐसी भाषा, जो अपनी चुप्पी में भी मर्माहत करती है। विष्णु खरे के बाद सिनेमा पर इतने संवेदन भरे लेख कुमार अंबुज ने ही लिखे हैं।

    ‘समालोचन’ के जरिए उन्हें पढ़ सका। इसलिए भाई अरुण जी को साधुवाद!

    स्नेह,
    प्रकाश मनु

    Reply
  10. Madhukar Dharmapurikar says:
    3 years ago

    कुमार अंबुज…
    At five – कुमार जी का, चौथे और पांचवे भाग में निवेदन गजब का है. फिल्म में बैक ग्राउंड में दादरा (?) जो काम करता है ऐसी ही लय कुमार जी के चिंतन को आ गयी है. चेखोव की कहानी और गालिब के शेर की याद करना, ये तो इस एपिसोड को कितनी उंचाई पे ले जाते है!
    फिल्म देख कर बहोत बेचैन हो गया हूँ.
    फिराक साहब का शेर अब समझ में आ रहा है –
    नौहा ए दर्द में एक जिंदगी तो होती है
    नौहा ए दर्द सुनाओ, बडी उदासी है
    ऐसी फिल्म देखने के बाद खुद को हम अपराधी समझ लेते है…

    Reply
  11. बालकृति says:
    3 years ago

    अपराह्न 5:00 बजे संसार की सारी घड़ियों में -: इस फिल्म को कुमार अंबुज जी ने कुछ इस तरह मुझे दिखा दिया की यह संसार विविध काव्यमई रंगों और पैटर्न के एक चंदोवे की तरह मुझ पर तन गया लेकिन मैं उन पसलियों या लचीली तारों को भी देख पाई जो उस चंदोवे के नीचे की तरफ चलती हैं जिन पर टिकी ‘आधी सी विस्मृत’ ;उसी से उगती उसी में विलीन होती कितनी अर्धचंद्राकार चापे होती हैं.. हमारी दृष्टि की shaft पर एक ऐसा रनर होना चाहिए जिसमें ऊपर से नीचे नीचे से ऊपर की ओर स्लाइड करते हुए हम इस संसार के खुलने सिकुड़ने के रेशे रेशे को महसूस कर पाए .. इसी छतरी में फिर मुझे एक बुर्का नजर आया : इच्छाओं से भरे नीले आसमान को एक मकड़ी की तरह अपनी पतली लंबी टांगों से अपने में खींच लेने वाला.. उन्हीं उन्हीं परछाइयों में भटकते लोग इतनी खूबसूरत पंक्ति के जैसे साथ चलती छाया भी हाथ में एक अभिशप्त छतरी लिए जहां जहां जाती हूं साथ ही साथ घिसटती है, थकान की हद तक पीछा करती हुई..दृश्यों को बहुत खूबसूरत तरह से अंबुज जी ने शामिल कर वह कर दिखाया है जिसे लफ्जों में बयां नहीं कर सकती तांगे वाले दृश्य में तांगे वाले का कहना है मेरे तांगे में बैठना है तो पर्दा करो.. लड़कियां धीरे-धीरे बेनकाब होते हुए मानो अदृश्य स्ट्रेचर को ऊपर को फैला बल बनाते हुए अपनी अपनी मुस्कान की छतरियां खोलते हुए आगे को बढ़ रही हैं खुशियों के एक वृहद चंदोवे की तरह उसे तानती हुई.. उनके तांगे से उतरकर भागने से पहले ही दृश्य निर्माण हो चुका है ऐसे में तांगे वाले को अपनी ‘जिल्लत वाली निगाह’ के छाते को पीछे की ओर रोल करना ही होगा… लड़कियां अपने खिले हुए चेहरे पर किसी निगाह की बेधती छाया का दिखावटी पर्दा नहीं पहनेंगी इस क्षण उनके चेहरे पर राख में दबी लालिमा धीरे-धीरे छतरी के खुलने सी उभरती है: मनुष्य की अनिवार्य स्वप्न शीलता .. मैं इसे इसी तरह देख पाती हूं तब. मैं जब कुमार से प्रकाश संयोजन पर बात करने को कहती हूं वे मुझे पात्रों की पुतलियों आंखों कनपटीयो चेहरे पर टिमटिमाती इक्का-दुक्का रोशनीयों की लौ देखने को उस निर्बल दीपशिखा के पैराबोला में धकेल देते हैं… “चीख के बाद के एक स्त्री के मौन में जाकर रहो”.. “नींद में रह रही उसकी सिसकी में ठहरो “..”सुनो एक तारा टूटने से भी वीरान होता है आकाश “वहां जहां एक गठरी पर रखी हुई है दूसरी गठरी” फिर मुझे भी लगता है मैं पानी की आवाज सुन रही हूं मगर पानी कहीं नहीं है.. अंबुज एक संवाद की काव्यात्मक टेक ध्वनि रेटोरिक को एक असमाप्य बड़बड़ से खींच निकाल इन सारे पैनल्स को एक साथ ले आते हैं छतरी की तरह: एक विशाल किंतु समग्र पहेली ..इतने में दिव्या सक्सेना की नाजुक सी उंगलियां मेरी आंखों पर कोमलता की छतरी सी फिरती हैं : मैडम कहां खो गई? “कुमार अंबुज जी की किताब अतिक्रमण चाहिए… कार्ड नहीं है “तो क्या बाला तुम आज इसे मेरे कार्ड पर issue कराओ.. हम दोनों जैसे सुख की एक ही छतरी के नीचे आ जाते हैं: इच्छाओं से भरी पूरी नीली ..कार्ड बना कहां है तुम्हारा !..तो अभी लो अभी बनवाते हैं ..घड़ी में ठीक 5:00 ना भी बजे हो ..समय रुक गया है ..गुलाबी आतिशो की छतरियां यहां से वहां खुल सिमट रही हैं ..

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