चर्यापद
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18
मनुष्य को
प्राण चले जाने का भय होता है
भन्ते
इस भय को
स्थविर होकर नहीं
सहजिया होकर
अधिक गहराई से
समझा मैंने
प्राण व्याघ्र हर लेगा
इस भय से
मृग हर पल चौकन्ना रहता है
पर इस कारण
रोगी नहीं हो जाता
मनुष्य भय से रोगी हो जाता है
और रोग से भयभीत
भद्रक इन प्रहेलिकाओं से
ऊब चुका है भन्ते
उसे मृगदाव याद आता है
उसे अकस्मात निर्वाण नहीं
आपसे यह आश्वस्ति चाहिए
कि करुणा
सदा उसके हृदय में रहे
पर वह स्वयं
अपना जीवन
करुण न जिए
निर्वाण और ज्ञान नहीं
उसके मुख पर
मनुष्यवत स्वाभिमान
अधिक सोहता है
भन्ते!
19
देवानाम पिये पियदस्सि
लाजा हेवम अहा
भन्ते वह सम्राट
बिला गया
जाने कहाँ
वह क्रूर शासक
जीवन भर
जीवों का जीवन ही
हरता रहा
प्रसंगोचित करुणा उपजी
उसके हृदय में
जब अंतिम बच गया राज्य भी
उसने विजय किया
वह संघ की शरण में आया
वह धम्म की शरण में आया
वह आपकी शरण में आया
मनुष्य जाति के इतिहास में
महान कहाया
उसे स्वयं को
प्रियदर्शी नहीं
दूरदर्शी कहना चाहिए था
भन्ते
संघानाम पिये दूरदस्सि
लाजा हेवम अहा
20
इक्कीसवीं शताब्दी में
रहते हुए
भद्रक प्रकाश की खोज में
रहने लगा है
जबकि कथित संसार में
दिन रात्रि
चहुँओर
प्रकाश ही प्रकाश है
कई कई स्रोत प्रकाश के
कई कई साधन
इतना प्रकाश है
कि भद्रक प्रकाश की खोज से
थकने लगा है
उसके भीतर जो जल रही है
वह अग्नि
संसार को प्रकाशित नहीं करती
बाहर जो प्रकाश है ठंडा
अस्थियों तक को
ठिठुराता है
भीतर की हर अग्नि को
बुझाता है
जिज्ञासा नहीं
इस तथ्य का प्रकाशन भर
करना है
आपके सम्मुख
कि प्राचीन ज्ञान की
अग्नि
ताप तो बहुत पैदा करती है
लेकिन
समकालीन इस हृदय में
उससे
उतना प्रकाश
अब होता नहीं है
भन्ते !
21
ढाई सहस्त्र वर्ष
भद्रक ने किया ही क्या है
इस संसार में
सिवा प्रतीक्षा के ?
प्रतीक्षा में जाना
कि दुःख
ज्ञान से अधिक पीड़ा का अनुभव
कराता है
थिर से थिर मनुष्य भी
कलप-कलप जाता है
ब्याजस्तुतियों के बीच
सामान्य
और कोलाहल के बीच
प्रविविक्त रहे आना
आपको ही
शोभा देता है भन्ते
भद्रक से ऐसी आशा
अस्वाभाविक है
और
आप ही की कही गाथा है
भगवन
कि जो कुछ भी
अस्वाभाविक है
वह धम्म नहीं हमारा
22
मैं
गौतम बुद्ध का समकालीन रहा
और मैत्रैय का भी समकालीन
रहूँगा
हे अवलोकितेश्वर !
संसार
आपके सत्संग में
सुधर नहीं गया था
उसने
धम्म के ध्वज तले भी
एक समकालीन
साम्राज्यवादी अभियान
सदा जारी रखा
इस तरह
समकालीनता एक गाथा है
अनाचार की
मैं समकालीन हो
सहता हूँ जिसे
और विकट प्रसन्न समकालीन
इस राज्य में
रह-रहकर स्मरण हो आता है आप ही का स्वर
को नु हासो?
किमानंदो? *
जब सभी सुखी प्रतीत होते हों
भन्ते
तम दिखाई ही न दे
किसी को
तब कहाँ से आए प्रेरणा?
कौन करे
और क्यों करे प्रदीप की
गवेषणा?
* को नु हासो किमानन्दो निच्चं पज्जलित
अंधकारेन ओनद्धा पदीपं न गवेस्सथ
(146, जरावग्गो,धम्मपद, खुद्दकनिकाय, सुत्तपिटक)
23
वेरिनेसु अवेरिनो
आतुरेसु अनातुरा
आपके सिवा ऐसा कौन हो सका भन्ते?
मैं तो नहीं
घिरा बैरियों में
मैं और किसी का नहीं
स्वयं का तो
बैरी ही रहा सदा
आतुरों के बीच
मेरी अपनी भी आतुरता
कम नहीं थी
मुझ जैसों के लिए ही था
धम्म का प्रकाश
हर ले गए
कुलीन प्रचारक
कहलाए जनहित साधक
भद्रक
सदा याचक ही रहा
इधर बहुत नहीं
ज्ञान के थोड़े से मनुष्यवत
प्रकाश में
उसके नेत्र
अर्द्धनिमीलित क्यों रहते हैं ?
भन्ते
क्या वह शनैः शनैः प्रकाशित हो रहा है
कि थकान का मारा
सो रहना चाहता है
संसार के
हर ज्ञान अज्ञान का बोझा
अपने सिर से उतार
24
पेमतो जायती सोको*
वह शोक भी
मनुष्यों को प्रिय रहा
जो उपजा प्रेम में
हृदय जिससे बोझिल रहे आए
जो ले गया हमें
अज्ञात स्थानों, समाजों और
स्वप्नों तक
एक सीमा तक
प्रेम ने भी धम्म का ही कार्य किया
पेमतो जायती भयं
बहुत साहसी वीर भी विचलित हुए
खोया अधिक प्रेम में
हर किसी ने
पाया बहुत कम
भन्ते!
संसार में से प्रेम घटा दूँ
तो क्या जोड़ दूँ कि मनुष्य बना रह सकूँ ?
प्रेम से विहीन कोई सुख
जीवन में
कैसे सम्भव हो ?
मैंने करुणा से काम चलाना चाहा
पर वह प्रेम का विकल्प
नहीं हो सकी
मेरी मनुष्यता का मुख
जिस अभिमान से प्रकाशित है
उसे प्रेम ही कहना होगा
भगवन!
अब शोक उपजे या भय
मुझे बचना है
तो निरन्तर प्रेम में ही
रहना होगा
*पेमतो जायती सोको, पेमतो जायती भयं
पेमतो विप्पमुत्तस्स, नत्थि सोको, कुतो भयं
213, पियवग्गो, धम्मपद, खुद्दकनिकाय, सुत्तपिटक
25
माँगने भर से
कोई भिक्षु नहीं हो जाता
न होता है
किसी विषम कठिन धर्म को
धारण करने से*
प्रजातंत्र की प्रजा
भिक्षु होना चाहती भी नहीं है
भन्ते
वह प्रकृति-प्रदत्त जीवन को
जीना भर चाहती है
प्रजातंत्र जो विषम धर्म होना चाहिए था
सत्ताओं के लिए
वह दिनों दिन कठिन होता गया
प्रजा के लिए
प्रजा माँगते माँगते मर रही है
प्रजा के बाल पक गए हैं
हारते हारते प्रजा
पिछले कई वर्षों से
सत्ता के
असत्य और प्रमाद को भी
उसका
राजधर्म मानने लगी है
भन्ते!
ऐसी प्रजा को थिर करने का
कोई मार्ग है क्या ?
कोई ऐसा प्रकाश
जो कथित प्रकाशों की फैलायी
कालिख मिटा सके
समकालीन इस प्रजातंत्र में ?
*न तेन भिक्खु सो होति, यावता भिक्खते परे
विस्सं धम्मं समादाय, भिक्खु न होति तावता
266, धम्मट्ठवग्गो, धम्मपद, खुद्दकनिकाय, सुत्तपिटक
26
नत्थि रागसमो अग्गि*
माना
माना कि राग समान कोई
अग्नि नहीं भन्ते
पर जो जीवन है हमारा समूचा
रागमय
उसको विरागी करें तो
कैसे बचाएँ मनुष्यता
इस पृथिवी पर
हम तो राग के ही सहारे
पशुओं तक का
मानवीकरण करते हैं
प्रकाश के साथ साथ
थोड़ी अग्नि भी आवश्यक है
मनुष्य के जीवन में
आँखों के आगे अंधकार ही नहीं
हृदय में शीत भी होता है
जिसके गले बिना कैसा निर्वाण?
हाँ!
नत्थि रागसमो अग्गि
पर थोड़ा और विचार कर कहें
भगवन!
थोड़ा राग
बना रहने दें हम जीवन में?
विराग के लिए
एक दिन ठीक उसी की
आवश्यकता होगी
हमें
*नत्थि रागसमो अग्गि, नत्थि दोससमो गहो
नत्थि मोहसमं जालं, नत्थि तण्हासमा नदी
251, मलवग्गो, धम्मपद,खुद्दक निकाय, सुत्तपिटक
27
आपका
निर्देश था कि पविवेक रसः पित्वा*
मुझसे
वह रस पिया ही नहीं गया
निपट एकाकी मैं
कहाँ रहता?
कैसे रहता?
क्या सचमुच
वह रस ही था भन्ते?
प्रविविक्त हो
वैराग्य प्राप्त करने में
ज्ञान भले हो
रस कैसे हो?
रस तो राग में है
रस उस आग में है
हृदय की देहरी पर जो जलाई जाती है
प्रिय के निमित्त
आँच और प्रकाश के लिए
मैं स्वयं
जल रहा हूँ उसी आग की तरह
ढाई सहस्त्र वर्ष से
निर्वाण ही
इस प्रज्वलन का
ठीक ठीक
उद्देश्य है यह मैं
कह नहीं सकता
मैं किसके हृदय की देहरी पर
जल रही आग हूँ ?
कुछ आप ही कहें
भन्ते
*पविवेक रसं पित्वा, रसं उपसमस्स च
निद्दरो होति निप्पापो, धम्मपीतिरसं पिवं
205, सुखवग्गो, धम्मपद,खुद्दक निकाय, सुत्तपिटक
28
तस्मा पियं न कयिराथ
पियापायो ही पापको*
प्रिय से वियोग का दुःख न हो
इस कारण किसी को
प्रिय ही न करूँ
इतना प्रकाश कभी नहीं पाया भन्ते
प्रकृति ने ही
मनुष्य को प्रज्ञा दी
प्रकृति ने ही
उर में प्रेम बसाया
प्रकृति के विरुद्ध जाए
ऐसा तो
धम्म नहीं हमारा
अध्यात्म के ही रहवासी हो रहें
तो क्या करें
अपने जीवधर्म का?
प्रकाश से भी
पहले जीवन पाया है हमने
पृथिवी पर
हर प्रकार की निर्जनता को
नष्ट करता
यह राग संजीवनी
थाट विश्व कल्याण
सृष्टि पर छाए हर अंधकार में
जीवन
क्या कम बड़ा प्रकाश था?
अत्याचारी
हर हाल में
हर लेना चाहते हैं जिसे
वह जीवन
अब भी क्या कम बड़ा प्रकाश है
भन्ते?
*तस्मा पियं न क यिराथ, पियापायो हि पापको
गन्था तेस न विज्जन्ति, येसं नत्थि पियाप्पियं
211, पियवग्गो, धम्मपद,खुद्दक निकाय, सुत्तपिटक
29
कितने ही श्वेतकेशी मिले
दीर्घजीविता उनकी
व्यर्थ ही रही ऐसा कैसे कह दूँ *
भन्ते?
उनकी आयु के
ढल जाने के पीछे एक विरासत थी
समूचे जीवन की
जर्जर वृद्ध
दुःख के बने वे शरीर
उन्हीं राजाओं के सम्मुख
आजीवन झुके रहे
जो आपके विकट अनुयायी
और
प्रचारक बने
हमारे धम्म में
सम्राटों को तो निर्वाण मिला
लेकिन प्रजा को
सम्राटों द्वारा निर्दिष्ट मृत्यु
या आपके द्वारा
मोघजीर्णता का उलाहना ?
मैं भद्रक
बौराया सा धम्मपद टटोल रहा हूँ
और टटोलने की
मेरी यह भाषा
कोई संध्या-भाषा नहीं है
भगवन!
*न तेन थेरो सो होति येनस्स पलितं सिरो
परिपक्को वयो तस्स मोघजिण्णो ति वुच्चति
260, धम्मट्ठवग्गो, धम्मपद,खुद्दक निकाय, सुत्तपिटक
30
नवरात्रि हैं चैत्र की
भगवन
साधना के लिए सर्वोपयुक्त समय
जीवन के अलोप में
ढाढ़स बँधाता एक स्वर शनैः शनैः
चढ़ता जाता है
मनुष्यता के संरक्षण में
सहायक हों
नवशक्तियाँ
स्मरण हो आती हैं
माया माँ
महानिर्वाण के
नौ सौ वर्ष बाद देवियों का पूजन
हमने और सनातनी कर्मकांडी समुदाय ने
साथ ही
आरम्भ किया
भन्ते
वृहदत्तर भारतीय समाज ने
दोनों को ही अपनाया
बढ़ाया
यह
समान भावभूमि का प्रसंग है
इसे धर्मकीर्ति, वज्रबोधि
और अमोघवज्र ने
तिब्बत और चीन तक
पहुँचाया
तांत्रिकों ने ढूँढा
वज्रवाराही,
वज्रयोगिनी, नैरात्मा को
इक्कीस रंगों वाली
तारा भी
सदा सहाय रहीं
यह भूमि ऐसी ही
विचित्र और समर्पित है
आज भी
बौखलायी सी रहती है
यह जो द्वाभा है
भन्ते
धम्म की
इसे भी प्रकाश ही
कहेंगे न?
31
भद्रक ने
प्रतीक्षाओं के कई कारण देखे
समाज में
देखा कुछ प्रतीक्षाएँ व्यर्थ
हुई जाती थीं
जैसे राजाओं में
मनुष्यता की प्रतीक्षा
वे क्रूरता से सीधे करुणा पर
आ जाते थे
अधिकार से वैराग्य पर
संलिप्तता से निर्लिप्तता की
उनकी यात्रा का
यह शस्त्र
सदा अमोघ साबित हुआ
हर गौतम
बुद्ध नहीं हो जाता भन्ते
संरक्षक
साधारण परिवारों के सदा
वैसे ही रहे
संसार में खटकर
अपमानित होकर भी
अन्न वस्त्र लाते रहे
उनके वास्ते
जो उनके सहारे थे
ज्ञान के लिए
अपनों का सहारा नहीं छीना
उन्होंने
उनका मुख भी प्रदीप्त था
हिलता
काँपता
थरथराता
सृष्टि में उनके होने का
उजाला
यह कोई प्रतीक्षा ही थी
कि जल नहीं
जनमन के हृदय में अब भी
गाढ़े धुएँ से भरी
एक आग है
रह रहकर
किनारे पर पछाड़ें खाता है जो
हमारे क्रोध और पश्चात्ताप का
झाग है
सहस्त्रों वर्ष की प्रतीक्षाओं में
जाना है हमने
कि आस हो न हो
प्रतीक्षाओं का अपना ही
एक प्रकाश
अवश्य होता है
भन्ते
32
न तावता धम्मधरो
यावता बहु भासति*
उपदेश करने भर
धर्म धारण किए रहे थेरों से
आपका सामना
अवश्य हुआ होगा
तभी यावता तावता की यह टेक
धम्मट्ठवग्गो की
आत्मा का स्वर बन गई
आपने बहुत बरजा
बहुत बोलने के विरुद्ध
स्वयं आपको
बहुत बोलना पड़ा
पर जो स्थिर हो गए मार्ग पर
मार्ग सदा
उन पर पछताया
मेरे भी चारों ओर
बहुत बोलते हैं
लोग
विकटज्ञान
निपटमूर्ख
जड़ मूढ़ कथित स्थविरों ने
मेरा संसार डुबो दिया है
भगवन
सुनिये
कि इस अतल ज्ञानकुंभ में
जल की
निर्जन शीतलता के भीतर
कहीं
कछुए की डुबकी सरीखी
मेरी भी
एक आवाज़ आती है
* 259, धम्मट्ठवग्गो, धम्मपद,खुद्दक निकाय, सुत्तपिटक
33
मैं स्वयं को दोहराता रहा हूं
भगवन
अपनी इस
अमोघ आयु भर
मैंने
शासकों की धर्मनिष्ठता से
बहस की
सम्राटों की करुणा पर
सन्देह किए
यद्यपि
बड़े जतन से ओढ़ा उन्होंने
मगर श्रेष्ठियों का चीवर
सदा रक्तरंजित ही लगा मुझे
इस चक्रपरिवर्तन में
यही मेरा धम्म था भन्ते
यही मेरा धम्म है
आप जब जब मैत्रेय बन आएँगे
मुझे अपने दिखाए
धम्म के इसी मार्ग पर पाएँगे
34
दृषद्वती और सरस्वती
मुझे लुप्त हो चुकी नदियों के कछार
याद आते हैं
वो मीठे खरबूजे
जिनका उल्लेख किसी भी पिटक में आने से
रह गया
लेकिन लोक में उनका स्वाद
निर्वाण सुख से भी ऊपर
रहा सदा
शास्त्रों में नहीं
लुप्त नदियों के प्रसंग
दुःख की तरह बने रहे
लोकमन की दरारों में
वे
आज भी
फाँस की तरह चुभते हैं
कोई सम्राट
कोई धर्माधिकारी
याद नहीं करता दृषद्वती को
सरस्वती को याद करते हैं
वैदिक महिमा के
पुजारी
मैं याद करता हूँ
खरबूजों को
जो ऋतु आने पर आज भी
बहुतायत में
मिल जाते हैं
ग्रीष्म के घायल कंठों में
झरता
वह मीठा ठंडा रस
नदियों से उनके कछारों के
रंग-राग का
धम्म की तरह
आत्मसात किया लोक ने उसे
भगवन
आपकी गाथाओं की तरह सहेजा
खरबूजे के बीजों को
प्रसन्नमुख मैं देखता हूँ
लोक में
उसका श्रेष्ठतम धम्म बचा है
और बचा है खरबूजा
रेती पर कोमल पतली लतरों में
पत्तों के बीच
चमकता गमकता
वह हमारे धम्म की करुणा है
भन्ते
जो लुप्त नहीं हो गई है
दृषद्वती की तरह.
चर्यापद की क्रमाकं 1 से 17 तक की कविताएँ यहाँ पढ़े.
शिरीष कुमार मौर्य प्रोफेसर, हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषा विभाग डी.एस.बी. परिसर, नैनीताल 263 001 |
शृंखलागत कविताएँ लिखना कठिन है।
शृंखला में अच्छी कविताएँ और अधिक चुनौतीपूर्ण।
शिरीष ने यह संभव किया है। लगातार।
अद्भुत कविताएँ हैं। अपने मार्गदाता से विनम्र प्रतिवाद करतीं यह कविताएँ, निश्चय ही चिंतन की सर्वोच्च पीठ पर रची गई हैं। हिंदी के लिए एक श्रेष्ठ उपलब्धि से कम नहीं। इन पर त्वरित कुछ भी कहना कविताओं का अपमान समझता हूँ। बधाई कवि और प्रस्तोता को।
रिल्के ने इस से एक कविता अधिक ही लिखी थी सॉनेट्स टू ऑर्फ़ियस में. उन कविताओं से एक भी पंक्ति काटना मुश्किल है. चर्यापद की कविताओं के बारे में भी मेरा यही सवाल है, जिस पर मैं चुप रहना चाहता हूँ.
शिरीष मौर्य सर की कविताएँ मुझे बेहद पसंद हैं , इतनी सुंदर भाषा और शिल्प कम देखने को मिलता है। उनको पढ़कर बहुत कुछ सीखता हूँ। रितुरैण की कविताएँ जबसे पढ़ी हैं कुछ वर्षों पहले तबसे आजतक उसके प्रभाव से उबर नहीं पाया। मन में एक सूची है हमसे एक पीढ़ी आगे के कवियों की, उनमें शिरीष जी का स्थान विशेष है। कविताओं के विषय में क्या कहूँ ,कुछ भी कहना बहुत छोटी बात हो जाएगी। पाठक के तौर पर सदा विस्मित रहता हूँ उनकी रचनाओं से। बहुत बधाई।
हिंदी कविता में जब ट्वेन्टी ट्वेन्टी दौर चल रहा हो ऐसे वक्त में धैर्य के उच्चतम क्षण में रची गयी शृंखलात्मक लंबी कविता का आना सुखद है। गहन और गम्भीर अध्ययन की मांग वाली कविता पर पाठक का श्रम बताता है कि कवि ने कितने संघर्ष और श्रम से कविताएं रची हैं। हिंदी कविता समृद्ध हुई है।
अद्भुत हैं ये कविताएँ। ह्रदय को स्पर्श करने वाली।
शिरीष मौर्य जी की कविताएं साक्षी है उसकी जिसने मनुष्य के लिए जीवन की तलाश की।यह कविता नही अनश्वर कर्म है…गम्भीर कविता पर यूँ रास्ते चलते नही लिखा जा सकता, आराम से पढ़कर लिखूंगी। शिरीष जी को बधाई और समालोचन को धन्यवाद ।
भगवन से बहस की विनयशीलता निःशब्द करती है। इन कविताओं को बार-बार पढ़ना होगा लेकिन यह सुनिश्चित है कि ‘चर्यापद’ शृंखला की ये कविताएँ हमारी भाषा की अनमोल थाती के रूप में अविस्मरणीय रहेंगी। शिरीष जी को साधुवाद। ”समालोचन’ को बहुत धन्यवाद।
करूणा और प्रेम के द्वंद्व को आज के संदर्भों में अनेक बौद्ध सुक्तियों और मिथकीय आख्यानों के माध्यम से देखती परखती ये कविताएँ प्रेम को समकालीन जीवन की जटिलता और विषमता में मूल्यगत दृष्टि से कुछ अधिक श्रेष्ठ और प्रासंगिक मानती हैं। युग के साथ मूल्य भी बदलते हैं,यह सांसारिक जीवन की स्वाभाविक गति है। शिरीष जी को साधुवाद!
पहले भी इस श्रृंखला की कविताएं पढ़ी थीं जिन्होंने मन जीत लिया था इन नई कविताओं को एक बार पढ़ा पर ठहरकर कई बार पढ़ना होगा
शिरीष भाई और आपको इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई
बौद्धकालीन लेखन/परिवेश को आधार बनाकर लिखी गईं ये कविताएं एक प्रतिष्ठित कवि को कई कदम पीछे ले जाती है। साथ ही समकालीन जीवन पर लिखी जाने वाली कविताओं की चुनौतियों से भी बचाते हुए लेखन का सुरक्षित स्पेस देती हैं। इस प्रकार की श्रृंखला का चुनाव ‘कवि’ को चंद पाठकों की नज़र में विशिष्ट भले ही बना सकता है लेकिन ‘कविताएं’, विधा को व्यापक अर्थ में अति सीमित और कमजोर ही कर रही हैं।
Arun Dev ji, आपके संपादकत्व को सादर प्रणाम करती हूं🙏 आज सुबह से जाने कितनी बार इन कविताओं को पढ़ चुकी ।
हिन्दी वांग्मय के लिए यह अनमोल धरोहर है, दोनों एपिसोड की यह कविताएं अद्भुत हैं।
आज के इस हिंसक समय में बुद्ध से संवाद कोई आत्मसजग अनभिज्ञ ही कर सकता है। शिरीष मौर्य जी की कलम को हार्दिक साधुवाद 🎼🌹 भारतीय परिवेश में नैतिक, आध्यात्मिक मूल्यों और मनुष्य जीवन की प्रांजल उपलब्धि को गहन आतुरता से समेटे इन कविताओं के भीतर उतरना जैसे चिंतन की महान परंपरा का हिस्सा हो जाने जैसा है। बुद्ध से संवाद की सुदीर्घ, सहज, सघन परंपरा रही है पर इस तरह हिन्दी में हो पाना अतुल्य है। करुणा, प्रेम, अहिंसा और निर्वाण की अत्यंत जरूरी अनुभूतियों के बीच दुःख की अनिवार्यता को जिस मार्मिकता से रचते हुए चित्त की उदात्त व्याकुलता का वर्णन है वह अप्रतिम है। बुद्ध से संवाद की यह श्रृंखला आज के समय की दीक्षा है, बुद्धत्व की इस पृथ्वी को अधिकाधिक जरूरत है। इन कविताओं को पढ़ते हुए पाठक भी राग से भर जीवन की अनुपमता को स्वीकार्य पाता है। आभार इस प्रस्तुति के लिए 🌹
इस जीवन और समय व समाज की बेचैनियों का कितना विनम्र वर्णन है यहाँ। भाषा कितनी आद्र है! कितनी नरम! जैसे कोई कविता न कर रहा हो बल्कि बार-बार बुद्ध को पुकार रहा हो।
मन संतृप्त हुआ।
अभी कई बार पढ़ना है।
शिरीष कुमार मौर्य विचार के कवि हैं। पहले भी पसंद आते थे और चर्यआपद पर कविताओं को पढ़कर लगा उनमें विचार शक्ति का नया प्रस्फुटन हुआ है। धम्मपदों को कविता में परिवर्तित करना आसान बिलकुल भी नहीं हैं, मगर जब बौद्ध की चर्या गहरे जाकर ठहर जाये काम आसान हो सकता है। शिरीष कुमार मौर्य जी पुष्पित कवि हैं। वे महक रहे हैं।
बधाई और शुभकामनाएं।
हीरालाल नागर
मुझे अक्सर कविताएं समझ नहीं आतीं। मगर कई बात इतनी सरलता से बात मस्तिष्क में उतर जाती है कि पता नहीं चलता।
शिरीष कुमार मौर्य की चर्यापद श्रृंखला की पूर्व प्रकाशित और नव प्रकाशित कविताएं पढ़ी, और सीधे मन में उतरती चलीं गई। ससमय व्यंग, कटाक्ष, दर्शन, आदि समझ आए।
महत्वपूर्ण बात यह कि प्रेम और करुणा को समझने की दृष्टि में परिष्कार हुआ। यह कविताएं पुस्तक के रूप में मेरे साथ होनी चाहिए।
मेरे लिए निजी रूप से इस कठिन सप्ताह का सहारा और हासिल रहीं है यह कविताएं पढ़ना|
मन में गहरे उतरती कविताएँ
कविता पढ़ने का भी लगता है मुहूर्त होता है। हमेशा साथ रहने वाले शिरीष इन कविताओं में और आत्मीय हो गए हैं। प्रेम, करुणा, सत्ता और सनातन जिग्यासु मानव मन। बहुत कम पढ़ा है इस भाव को।
बहुत सुन्दर और प्रभावी पद हैं.
बेहद महत्वपूर्ण कविता हेतु कविवर को हार्दिक बधाई