लोकगीतों के लिए मैं फकीर बना, पर इस फकीरी में बहुत-कुछ दिया!
देवेंद्र सत्यार्थी से प्रकाश मनु की बातचीत
लोक यायावर देवेंद्र सत्यार्थी जी को गुजरे कोई इक्कीस बरस हो गए. पर हर क्षण अपनी मौज में जीने और बातों-बातों में अपने अनोखे किस्से-कहानियों के साथ न जाने कितनी रहस्यपूर्ण और रोमांचक दुनियाओं की सैर करा देने वाले सत्यार्थी जी अब भी किसी बूढ़े दरवेश की तरह निरंतर मेरी स्मृतियों में दस्तक देते हैं, और द्वार पर द्वार खुल जाते हैं. देखते ही देखते एक नई दुनिया में आप पहुँच जाते हैं, जो दुनियावी नुकसान और फायदे की दुनिया से परे उन खयालों और तसव्वुरात की दुनिया है, जो हमें भीतर-बाहर से सुंदर बनाते हैं. उस दुनिया में कोई छोटा-बड़ा नहीं. अपना-पराया भी नहीं. सब धरती की संतानें हैं, और उस धरती से उपजते संगीत और खेत-खेत में हुमचती फसलों की तरह वहाँ एक से एक निराले लोकगीत और लोकगाथाएँ जन्म लेती हैं, जिऩके जरिए मनुष्य के सुख-दुख, आनंद-उल्लास, उन्मुक्त सपनों और आकांक्षाओं की ऐसी वेगवती निर्मल धाराएँ बह निकलती हैं, जो इस धरती को सींचती हैं, उर्वर और अर्थवती बनाती हैं, और सारी तपन मिटाकर उसे किसी सपने जैसी, खूबसूरत हरियाली की चादर ओढ़ा देती हैं. तब सचमुच जीने का आनंद बहुत बढ़ जाता है. लोक और लोक राग से जुड़ा जीवन अर्थपूर्ण हो जाता है.
लोकगीत तो पुराने हैं. हजारों बरस पुराने, जिनमें समय के साथ नित नया संगीत, लय-माधुर्य और आख्यान जुड़ते चले जाते हैं. बहुत कुछ पुराना छूटता है, बहुत कुछ नया जुड़ता है. नित नए-नए विषय और वस्तु भी, और वे समय की धारा में बहते हुए, फिर-फिर पुनर्नवा होते रहते हैं. इसलिए उनकी सुंदरता और आकर्षण कभी कम नहीं होता. हर बार वे भीतर मर्म को छूते हैं और आपको अपने साथ बहा ले जाते हैं.
यों लोकगीत तो सदाबहार थे. सदाबहार हैं. हमारी अकूत प्राकृतिक संपदा की तरह. पर भला सत्यार्थी जी से पहले उन्हें इतना सम्मान देने, इतनी ललक के साथ देखने, प्यार करने, अपनी झोली में भरकर इकट्ठा करने और उनके जरिए इस महादेश की लोक संस्कृति की आत्मा तक जाने वाले का जतन करने वाले कितने लोग थे? सत्यार्थी जी ने लोक साहित्य का एक आंदोलन ही खड़ा कर दिया. और फिर तो इस राह पर चलने वाले दर्जनों उत्साही लोग नजर आने लगे. पर इस क्षेत्र में पहलकदमी करने वाले तो सत्यार्थी जी ही थे, जिन्होंने बताया कि लोकगीत कोई छोटी चीज नहीं, ये धरती की सबसे अनमोल संपदा हैं.
बाद में सत्यार्थी जी सृजन के क्षेत्र में उतरे, तो लोकगीत, लोकराग और लोक संस्कृति उनकी कहानी और उपन्यासों में एक नए आख्यान की तरह उपस्थित हुई, और देश भर में फैले उनके पाठकों ने उनमें धरती की अनोखी गंध महसूस की, जो सबको आकर्षित करती. इसी लोकराग ने, जिसे सत्यार्थी जी फोकलोर की तर्ज पर ‘लोकयान’ कहा करते थे, सत्यार्थी जी को सच्चा धरतीपुर ही नहीं, अद्भुत किस्सागो भी बनाया, और इसी ने उन्हें सिर्फ कथाकार ही नहीं, बल्कि सही मानी में ‘किस्सा बादशाह’ बनाया.
सच पूछिए तो कथासरित्सागर के महान रचनाकार गुणाढ्य पंडित की तरह सत्यार्थी जी भी अपने समय के किस्सागोई के बादशाह ही थे- एक और गुणाढ्य पंडित, जिनके भीतर अपनी लंबी, धूल भरी लोकयात्राओं के दौरान मिले बहुत साधारण और मामूली लोगों के साथ-साथ, उस जमाने की महान हस्तियों और उनके साथ जिए गए क्षणों की कहानियों पर कहानियाँ घुमड़ती थीं, और वे कहने पर आते तो कथा-कहानियों का एक पूरा समंदर उनकी बातों में छलछला रहा होता.
संयोग से मैं उनके निकट ही नहीं रहा, उनके इस महाराग का साक्षी भी बना. मैं तो उनका एक अदना शिष्य ही होना चाहता था, पर उन्होंने एक साथ बेटे और दोस्त की तरह मुझे अपना लिया. उनके साथ हुए लोक विमर्श और बातों का एक लंबा सिलसिला है. अनंत. इससे बडी अकूत धन-संपदा भला मुझ अकिंचन के पास भला और क्या हो सकती है? मन हर पल, हर क्षण उसे सहेजता रहता है. इसीलिए न उनकी बातें भूलती हैं पर न उनसे हुई अद्भुत मुलाकातें….
उनकी बातों से रस का एक सोता सा फूटता था, और आप उसमें भीगते थे, भीगते थे, और बस भीगना ही चाहते थे. किसी लोकगीत की चर्चा या फिर किसी शख्सियत से जुड़ी पुरानी स्मृति से शुरू होती थी उनकी बात, और फिर इतिहास के न जाने कितने भूले-बिसरे कथानक, पुराकथा और लोककथा की न जाने कितनी जानी-अनजानी शख्सियतों और उनसे जुड़े रोमांचक प्रसंगों से गुजरती हुई, देखते ही देखते अथाह समंदर हो जाती थी, और मैं अचरज से देखता था कि यह शख्स कैसे वर्तमान और इतिहास की हजारों हजार दुनियाओं को रंग-बिरंगी तितलियों की तरह अपने जेहन में बसाए रखता है, और फिर उसके एक इशारे से वे उड़ती हैं, जमीन रँगारंग हो जाती है, आसमान रँगारंग हो जाता है और हवाएँ भी रँगारंग हो जाती हैं.
इस सबके बीच कैसे लोकगीतों, पुराकथाओं और मिथकों के गूढ-गूढ़तर अर्थ खुलते हैं और इतिहास से निकलकर साहित्य, कला और जगत की न जाने कितनी शख्सियतें हमारी आँखों के आगे आ खड़ी होती हैं, देख-देखकर मैं हैरान. कैसा है यह शख्स, जिसके बीन बजाते ही दुनिया बदलने लगती है, और मन में कब से सोई स्मृतियाँ भी संग-संग नाच उठती हैं.
पर ऐसे ही थे सत्यार्थी जी. सचमुच ऐसे ही. हजारों से अलग. विलक्षण. कुछ-कुछ बीहड़ भी, घने जंगल की तरह. जमाना उनके सामने ही बहुत बदला. साहित्य ने भी उनके सामने बहुत रंग बदले. करवटें लीं. युग बदले, नए युग आए. पर सत्यार्थी जी ने उन जैसा होना नहीं चाहा. बल्कि अपने जैसा होना ही पसंद किया. किसी पुरातन ऋषि की तरह वे इस धरती और लोकराग के साथ बहे. और बहे तो बस बहते ही चले गए. पैरों में चक्कर और अनंत आवारगी. इसी घुमक्कड़ी से उन्हें ताकत मिलती थी. यही उनकी जिजीविषा भी थी, जिसके कारण वे इतना काम कर गए. रात हो या दिन, लिखना-लिखना और बस लिखना. इस लिखने में वे अपने आप को पिरोते थे, अपना मन और निर्मम सच्चाई से बिंधा अपना फटा-पुराना जीवन भी. इसीलिए आज वे याद आते हैं, बहुत याद आते हैं.
(दो)
अलबत्ता, अभी-अभी एक बार फिर से आँखों के आगे कौंध जाती है, उनसे हुई वह जीवंत बातचीत, जिसे भूल पाना मेरे बस की बात नहीं. उस दिन सत्यार्थी जी अपनी पूरी रौ में थे, और एक बार बहना शुरू किया तो बस बहते ही चले गए. देश-काल के कितने ही प्रसंग और सत्यार्थी जी की आत्मकथा के न जाने कितने मार्मिक अध्याय उस बातचीत से खुले और मैं हैरान सा देख रहा था, इस महासिंधु के भीतर कितने रंग-रूप, आकृतियाँ और कैसे-कैसे विचित्र रहस्य भरे पडे हैं, जिनकी थाह पा लेना आसान नहीं.
अभी-अभी हिसाब लगाया तो पता चला कि यह बातचीत कोई पचीस बरस पुरानी है. पर इसकी महक आज भी इतनी ताजी है, जैसे यह कल की ही बात हो.
सन् 1999 का एक दिन था वह. तब नब्बे बरस पूरे किए थे सत्यार्थी जी ने. और मैं कुछ उदास होकर देख रहा था, कि अब नब्बे बरस की उम्र में उनमें वह जोश-खरोश, वह तेजी नहीं रही. थोड़ा रुक-रुककर बोल रहे थे देवेंद्र सत्यार्थी. कभी-कभी आवाज़ काँप भी जाती थी. बीच-बीच में लंबी ‘हाँ…!’ खासकर तब, जब उन्हें कोई चीज याद नहीं आ रही होती. खासकर नाम याद रखने में उन्हें अब दिक्कत होती है. कभी बहुत निकट रहे लोगों के नाम भी अब भूलने लगे हैं.
बार-बार उन्हें मटमैले जाले साफ करने पड़ते हैं, जिनमें उनकी स्मृति अकसर अटकती है. इस काम में वह कभी-कभी आपकी मदद भी चाहते हैं. मसलन कोई नाम याद न आ पाने पर वह हलका सा कोई संकेत देते हैं….खासकर उस शख्स का जन्म स्थान, उसकी किसी रचना का जिक्र, उसकी कोई खास आदत या अदा! उसी से अगर आप समझ गए और जो नाम वे ‘शून्य’ में डुबकी लगाकर भी नहीं ढूँढ़ पा रहे, उसे तलाशकर उनकी हथेली पर रख देते हैं, तो उनके चेहरे पर ऐसी तृप्ति और छल-छल उल्लास दिखाई पड़ता हैं कि क्या कहने!
फिर उसी विलंबित लय में किस्सा आगे चल पड़ता है! और आप खुद को प्रार्थना करते पाते हैं कि वह चलता रहे. इसलिए कि सत्यार्थी जी को सुनना एक अनुभव है! और अब भी, जब वे बीच-बीच में कुछ चीजें भूलने और आपस में गड़बड़ाने लगे हैं, उन्हें सुनना एक अनुभव है….उनकी आवाज़ आपके इर्द-गिर्द एक जादू सा बुन देती है और आप तात्कालिकता के ताने-बाने से छूटकर एक मुक्त समय…मुक्त काल-प्रवाह में बह जाना चाहते हैं.
सत्यार्थी जी के किस्सों में कुछ ऐसा ‘निर्मल आनंद’ है कि आप कुछ समय के लिए ही सही, ईर्ष्या-मोह, राग-द्वेष सबसे मुक्त हो जाते हैं! और सत्यार्थी जी तब ‘इतिहास-रस’ और किस्सागोई के रस की साकार मूर्ति लगते है. सही मायने में, इतिहास-पुरुष!
मैं सोच रहा था, यह जादू सत्यार्थी जी में अब भी है, जब कि पिछले कुछ बरसों में, उनकी तमाम मस्ती के बावजूद उम्र ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है!…और शायद टाँगों में बहुत हलका कंपन भी है. तो थोड़ा चलते ही थक जाते हैं. ब्लड प्रेशर कभी-कभी बहुत बढ़ जाता है तो हँफनी छूटने लगती है, और वह अकसर सिरदर्द की शक्ल भी ले लेता है!
फिर एक और आफत यह है कि पिछले बीस-पचीस दिनों से डबल निमोनिया से ग्रस्त हैं देवेंद्र सत्यार्थी. तो दवाएँ तो चल ही रही हैं, पर खाना-पीना एकदम बंद! बहुत आग्रह करने पर कभी अनिच्छा से चाय के दो घूँट भर लेते हैं. मगर दो घूँट चाय या दूध ‘निगलने’ में भी छाती में बुरी तरह कष्ट होता है. बार-बार छाती को दाईं हथेली से दबाते हैं और फिर पस्त होकर तकिए के सहारे उठंग हो जाते हैं. कुछ और आग्रह करने पर वे चाय का कप हथेली से परे सरका देते हैं. माता जी का बस नहीं चलता तो मँझली बेटी अलका और छोटी बेटी पारुल आगे आ जाती हैं और एकाध बिसकुट लेने का आग्रह करती हैं.
सत्यार्थी जी बेमन से बिसकुट उठाते हैं और चिड़ियों की तरह थोड़ा सा कुतरकर वापस प्लेट में रख देते हैं. इशारे से बताते हैं, नहीं खाया जाता! और फिर उसी तरह रुखाई से प्लेट आगे सरका देते हैं. यहाँ तक कि अलका की हलकी सी अधिकार मिली डाँट भी कुछ असर नहीं दिखा पाती. “बिल्कुल इच्छा नहीं होती.” वे धीरे से कहते हैं. असल में दो घूँट पानी भी पीएँ, तो उसे छाती से नीचे उतारने में कष्ट होता है. भीतर शायद कुछ सूजन सी है, इसलिए खाने-पीने की कोई चीज देखते ही उनका मूड उखड़ जाता है.
“पर क्या करें…! साठ-साठ रुपए की एक-एक गोली है. बिना कुछ खाए-पिए दवा लेंगे, तो उलटा असर न होगा?” माता जी की चिंता अपनी जगह.
पारुल और अलका को मैंने इतना उदास पहले कभी नहीं देखा. बताती हैं, “दो एक्स-रे हो चुके हैं. रोग भीतर जड़ जमा चुका है. छाती में इंफेक्शन…!”
“पूरी रात खाँसते बीतती है…. थोड़ी देर के लिए भी नींद नहीं….” लोकमाता चिंतित.
“अच्छा, पिता जी, दो घूँट चाय ही ले लीजिए. आपको थोड़ा आराम मिलेगा.” अलका फिर आग्रह करती है, तो सत्यार्थी जी धीरे से लोकमाता की ओर इशारा कर देते हैं, “अच्छा, यह पिलाएँ तो कहिए इनसे!”
आखिर लोकमाता रसोई में जाकर चम्मच उठा लाती हैं. चम्मच में थोड़ा-थोड़ा चाय लेकर पिलाती हैं. सत्यार्थी जी के हाथ में तौलिया है. जो चाय नीचे छलक जाती है, उसे वे पोंछते जाते हैं….एक अद्भुत तृप्तिदायक दृश्य! आँखें जुड़ा जाती हैं! जैसे जीवन का अक्षय पुण्य उन्हें मिल रहा हो!
(तीन)
सत्यार्थी जी और लोकमाता के सत्तर वर्षों के दांपत्य जीवन की एक लंबी यात्रा आँखों के आगे घूम जाती है जिसमें प्रेम रंच मात्र कम नहीं हुआ. यह प्रेम जितना इस जीवन का है, उतना ही लोकोत्तर भी लगता है. इसलिए कि बीस वर्षों तक देश के चप्पे-चप्पे की जो यात्राएँ सत्यार्थी जी ने कीं, उनमें लोकमाता बराबर की भागीदार रहीं. और विवाह के फौरन बाद वे अपने अलबेले पति के साथ इसी खानाबदोशी के रास्ते पर आ गई थीं, जिसमें कुछ भी निश्चित नहीं था, रात कहाँ कटेगी? कल का इंतजार कैसे होगा? जेब में चार पैसे नहीं और सामने अनंत यात्राएँ…अनंत राहें, जो पुकार-पुकारकर सत्यार्थी जी को बुला रही थीं.
माता जी बताती हैं, विवाह के बाद जब सत्यार्थी जी घर से चलने लगे तो उन्होंने भी साथ चलने की इच्छा प्रकट की थी. और सत्यार्थी जी ने ना-नुच किया तो बोलीं,
“तुम राजा, तो मैं रानी…तुम भिखारी तो मैं भिखारिन, चलूँगी तुम्हारे साथ!”
इस पर सत्यार्थी जी ने जवाब दिया,
“राजा-रानी वाला छोड़ो, भिखारी-भिखारिन वाला ठीक है…चलो मेरे साथ!”
तब से लोकमाता ने सत्यार्थी जी जैसे औघड़ आदमी के साथ क्या-कुछ झेला, कितने सुख-दुख सहे, कैसे बेटियों को पाला, पढ़ाया-लिखाया—यह विपद-कथा विश्व के किसी भी महाकाव्य से छोटी हो सकती है क्या?
“बस-बस, अब…बस्स!” सत्यार्थी जो इशारे से चाय का कप परे सरकाने के लिए कहते हैं और रूमाल से दाढ़ी पोंछकर उत्सुकता से मेरी और देखने लगते हैं. जैसे मैं कोई बात छेड़ दूँगा, और इसी से उन्हें राहत मिल जाएगी.
“असली डक्टर तो अब आया है…अब देखना, ठीक हो जाएँगे.” अलका मेरी और इशारा करके लोकमाता से कहती है और उन दोनों की हँसी छूट जाती है, साथ ही सत्यार्थी जी की भी!
“बात…? कौन-सी बात…कौन-सा प्रसंग…? सत्यार्थी जी की प्रश्नसूचक आँखें मुझ पर जमी हैं. इसलिए कि ऐसा कोई प्रसंग ऐसा कोई किस्सा चल निकले, तो सत्यार्थी जी को वर्तमान के कष्टों से हाथ छुड़ाकर इतिहास के घने जंगलों, बियाबानों में दाखिल होने का मौका मिल जाता हैं, जहाँ कोई कष्ट उन्हें नहीं सता सकता…कोई दुख उनका पीछा नहीं कर सकता!
इसलिए कि जब सत्यार्थी की वर्तमान से बाँह छुड़ाकर इतिहास में दाखिल होते हैं तो वे अकेले नहीं होते. वहाँ उनके साथ अनिवार्यतः महात्मा गाँधी, गुरुदेव टैगोर, सुनीतिकुमार चटर्जी, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजगोपालाचार्य, वल्लातोल, अज्ञेय, बलराज साहनी, मंटो, बेदी, कृश्न चंदर, दिनकर, बनारसीदास चतुर्वेदी, मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, अमृता प्रीतम, भापा प्रीतमसिंह आदि-आदि की बेपनाह स्मृतियाँ होती हैं…और वहाँ देवेंद्र सत्यार्थी नाम के इस खुद्दार दाढ़ीदार फकीर को आप किसी फकीर बादशाह की तरह विचरण करते देख सकते हैं!
और यहाँ सत्यार्थी एक के बाद एक इतने किस्सों से घिरे नजर आएँगे कि आप उनके उपन्यास ‘घोड़ा बादशाह’ की तर्ज पर उन्हें ‘किस्सा बादशाह’ कहें तो किसी को अचरज न होगा!
हालाँकि सत्यार्थी जी जितना अपने बारे में कहते हैं, उसमे ज्यादा दूसरों के बारे में! वे कब एक किस्सा सुनाते-सुनाते दूसरे में ओर दूसरे से तीसरे में फिसल जाते हैं, इसे पकड़ पाना मुश्किल है और तमाम होशियारी के बावजूद आप यहाँ गच्चा खा सकते हैं.
हाँ, जब वे पूरी रौ में कोई किस्सा सुनाने के मूड में हों (यानी स्मृतियों में किसी से मिल रहे हों!) तो उन्हें बीच में टोकने पर कभी-कभी वे नाराज़ भी हो जाते हैं और आपके ‘उतावलेपन’ पर कोई कठोर टिप्पणी भी कर सकते हैं. उन्हें किस्सा सुनाते हुए स्मृतियों की लहरों में बहना पसंद हैं और बहुत रोक-टोक से उनका रस-भंग होता हैं. इसलिए उन्हें चुपचाप सुनते रहने में ही सुख है….हाँ, कभी-कभी मूड में हो, तो वे प्यार से यह कहकर भी आपको अपना मनपसंद किस्सा सुनने को बाध्य कर सकते हैं कि
”देखिए गुणाढ्य पंडित के ‘कथासरित्सागर’ में कहानियों में से कहानियाँ निकलती हैं….आप मुझे भी गुणाढ्य पंडित समझ लीजिए. एक नए जमाने का गुणाढ्य पंडित!”
जो भी हो, इस बातचीत में सत्यार्थी जी के जीवन-महाकाव्य के कुछ तकलीफ भरे करुण दृश्य पहली बार आँखों के आगे आए. वे हालात भी जिनमें उन्होंने ‘आजकल’ की संपादकी छोड़ने का फैसला किया था और सत्यार्थी जी के जीवन के कुछ एकदम अछूते प्रसंग, जिनकी मुझे दूर-दूर तक जानकारी न थी, एकदम चकित करते हुए पहली बार इस बातचीत में निकलकर सामने आए.
बहरहाल, पेश हैं इस अनौपचारिक बातचीत के कुछ चुने हुए अंश :
बा त ची त |
सत्यार्थी जी, आपकी लोकगीतों की खोज की लंबी और बीहड़ यात्रा को आज अधिक उत्सुकता से देखा जा रहा है. कृपया बताएँ, आपकी यह यात्रा कब से शुरू हुई और कब तक जारी रही? कैसे-कैसे पड़ाव उसमें आए ?…यह एक अबाध यात्रा थी या बीच-बीच में व्यवधान भी आते थे….?
(हँसकर) सच कहूँ तो मनु जी, यह यात्रा तो मेरे बचपन से ही शुरू हो गई थी, जब मैं मुश्किल से पाँच-छह बरस का रहा होऊँगा और इक्यानबे साल की उम्र में भी, अब तक जारी है….याद पड़ता है, बचपन में जिन लोकगीतों का सुना करता था, उन्हें याद करने और अपनी कापी में उतारने का शौक था. खोज-खोजकर तथा लोगों से सुनकर लोकगीत जमा करने की धुन थी. इस पर घर के लोग मज़ाक़ भी उड़ाते थे. खासकर भाभी धनदेवी और मौसी भगवंती सब मुझे ‘कुड़ियाँ वरगा मुंडा’ कहते थे. शायद इसलिए कि कहीं न कहीं उनकी यह समझ थी कि लोकगीत गाना तो सिर्फ औरतों का काम हैं. उससे लड़कों का क्या वास्ता? जो भी हो, मुझे लोकगीत अच्छे लगते थे तो लगते थे. लोगों की बातों का मुझ पर कोई खास असर नहीं पड़ता था. आस-पड़ोस से कोई भी अच्छा लोकगीत मिलता, तो उसे झट कापी पर उतारकर याद कर लेता….बड़ा हुआ तो देश भर में घूमकर गाँव-गाँव की धूलभरी पगडंडियों पर भटककर यही सिलसिला शुरू कर दिया. कहीं ज्यादा बड़े पैमाने पर!…लेकिन बात तो एक ही थी और इसके साथ जुड़ी प्यास भी वही थी. वह प्यास अब तक नहीं बुझी, तो कैसे कहूँ कि वह यात्रा अब थम गई है.
आज भी जब आप चर्चा छेड़ देते हैं या इस समय जो यह चर्चा चल रही है, तो मेरा मन तो उन्हीं खेतों, पगडंडियों में पहुँच गया है…गाँवों की उन्हीं चौपालों में जहाँ बैठकर लोकगीत सुनते हुए न जाने जीवन का कितना हिस्सा गुजार दिया. तब भी ऐसा नहीं कि लोग हँसते न हों मेरी दीवानगी पर, लेकिन मैंने कभी परवाह नहीं की. एक नशा-सा ही था कि यह काम हाथ में लिया है तो पूरा करके दिखाना है….और आगे तो महात्मा गाँधी का, गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर के आशीर्वाद का बल जुड़ता गया मेरे साथ, तो दीवानगी और बढ़ गई…नशा और गहरा होता गया!
मेरे सामने तो वही कलकत्ता, वही शांतिनिकेतन अब भी घूमता है. मैं तो उसे अपनी लोकयात्राओं की गंगोत्री ही मानता हूँ. और फिर काशी, मथुरा, कलकत्ता, त्रिवेंद्रम, मद्रास, बरहमपुरगंजम…बंबई, अहमदाबाद, कश्मीर, दार्जिलिंग, क्या कुछ नहीं. इस यात्रा के इतने अनंत पड़ाव थे कि उस सबका जिक्र हो ही नहीं सकता. और फिर राह में जो-जो लोग मिले और जिन्होंने अपनी इस अकूत संपदा को मुझ फकीर की झोली में डाल दिया, उन सबकी सूरतें …हर सूरत एक पड़ाव है!…मैं किस-किस के बारे में बताऊँ. वे धूलभरी पगडंडियाँ जैसे अब भी हाथ बढ़ा-बढ़ाकर पास बुला रही हों. तो फिर यह यात्रा खत्म कैसे हो गई? तन थक गया है, लेकिन मन तो मेरा अब भी यात्रा में ही है. आपको देहरादून वाला किस्सा सुनाया था न, जब पंजाबी के प्रसिद्ध कवि भाई वीरसिंह से मेरी भेंट हुई थी. उन्होंने पूछा, “आजकल क्या कर रहे हो?” मैंने कहा, “जगह-जगह के लोकगीत जमा करता हूँ और उन पर लेख लिखता हूँ.” उन्होंने जिज्ञासावश पूछा, “आपके हाथ का यह काम कब खत्म होगा?” इस पर मैंने उनके आगे सिर झुकाते हुए कहा, “आप आशीर्वाद दीजिए कि मेरा यह काम कभी खत्म न हो और मेरी यात्रा अनंत यात्रा हो जाए.” इस पर वे मुसकरा दिए थे.
अगले दिन मैं चलने लगा तो उनके भाई बलबीर सिंह ने मुझे एक लिफाफा पकड़ाया कि यह आपके लिए है, लेकिन आप इसे रास्ते में न खोलिएगा. मैंने जिज्ञासावश रास्ते में ही उसे खोल लिया. उसमें एक सौ एक रुपए के नोट थे. मैंने वापस जाकर लिफाफा बलबीरसिंह को देते हुए कहा, “यह लिफाफा मेरा नहीं हो सकता. इसमें तो चिट्ठी नहीं, एक सौ एक रुपए है.” बलबीरसिंह ने कहा, “इसे भाई वीरसिंह का आशीर्वाद समझकर आप अपने पास रख लें.”
(एक पल रुककर साँस लेते हुए) तो ऐसी कड़की के समय में भी जब खाने-पीने, ओढ़ने-बिछाने का कोई साधन नहीं था, बस मन की मौज का सहारा था, तब भी किसी न किसी तरह से काम चल ही जाता था….तब भी लोकगीतों से मैं दूर नहीं हुआ. फिर आज तो उनसे दूर जाने का कोई सवाल ही नहीं. मुझे तो लगता है मनु जी, भाई वीरसिंह का आशीर्वाद अकारथ नहीं गया. मेरी यात्रा जारी है ओर मुझे तो लगता है, मेरी मृत्यु के बाद भी वह जारी रहेगी.
अच्छा सत्यार्थी जी, जरा बताइए तो…इस काम में किस तरह की मुश्किलें आती थीं– भीतरी ओर बाहरी दोनों तरह की? क्या कभी-कभी झुंझलाहट भी पैदा होती थी कि यह कैसा झंझट मोल ले दिया आपने?…फिर अपने काम का मजाक उड़ाने वाले, उसे शक की नजरों से देखने वाले लोग भी होंगे?
(थोड़ी व्यंग्यात्मक मुद्रा में) भई, काम तो कुछ भी करो, मुश्किलें तो आएँगी. और जो काम नहीं करते, उनके आगे क्या मुश्किलें नहीं आती?…तो मुश्किलों से क्या घबराना! जो ठान लिया सो ठान लिया….और जो आपने भीतरी संशय और झुँझलाहट की बात पूछी, तो ऐसा तो कभी नहीं हुआ. यह होता तो इधर आता ही क्यों, और इतनी दूर तक कैसे चलता चला जाता?…भई, किसी का दबाव तो था नहीं, बस मन मानने की बात थी. और मैंने तो एक बात देखी है, मन किसी चीज में रमा…पूरी तरह रमा तो मुश्किलें गायब. (थोड़ा रुककर सोचते हुए) पता नहीं मनु जी, लोकगीतों को आप क्या समझे, क्या नहीं! लेकिन अगर मुझे एक शब्द में उनके बारे में कहना हो, तो मैं कहूँगा—‘मुहब्बत’. लोकगीत का मतलब ही है, एक इनसान से दूसरे इनसान की मुहब्बत होना. इसी से हर काल में लोकगीतों ने जन्म लिया. और मुहब्बत में कहीं यह चलता है कि यह झंझट है, या इसमें फलाँ-फलाँ परेशानियाँ हैं. भई, ये परेशानियाँ न हों, तो मुहब्बत का आनंद ही क्या रहा. ठीक यही बात आप मेरी यात्रा के बारे में समझ सकते हैं.
जी, मैं समझता हूँ, बहुत अच्छी है यह बात…!
(अपनी रौ में बहते हुए) फिर एक बात और है मनु जी. इसे शायद मैं पहली बार साफ लफ्जों में आपके आगे रख पा रहा हूँ. वो ये कि लोकगीतों ने मुझे सिखाया कि प्यार से, मुहब्बत से किसी भी घर के दरवाजे पर दस्तक दो, तो वो तुम्हारे लिए खुल जाएगा….किसी भी आदमी के दिल पर दस्तक दो, तो वो हमेशा के लिए तुम्हारा हो जाएगा! इसीलिए आप देखिए, मेरी इस लोकयात्रा में इतने अजनबी लोगों का हाथ है, इतने लोगों ने मुझे मदद दी कि मैं उनसे कभी उऋण हो ही नहीं सकता. और इनमें से ज्यादातर लोग ऐसे थे, जो मुझसे या मेरे काम से ज्यादा परिचित न थे. न जाने किन-किन अजनबी लोगों के घर रुककर मैंने आतिथ्य-सुख पाया. वे खुद चाहे रूखा-सूखा खाते हों, पर मेरे लिए उन्होंने रोटी, सब्जी, गुड़ यानी अच्छे खाने का इंतजाम किया….हालाँकि मैं तो बार-बार यही कहता था कि जो आप खाते हैं, वही मुझे दें, मुझे इसमें मजा आएगा. पर उनकी भावना को क्या कहूँ! आज मैं चाहूँ भी तो, उन्हें क्या दे सकता हूँ!
तो इसे आप मेरे अकेले की यात्रा मत कहिए. इसमें हजारों हजार लोग, उनके दिल ओर जज्बात भी शामिल थे. इनमें मामूली से मामूली लोग थे तो बलराज साहनी, ए. आर. चुगताई, राजेंद्रसिंह बेदी, बी.पी. बेदी और फ्रीडा बेदी, राय कृष्णदास सुधाकर पांडेय, शेख अब्दुल्ला और के.एम. मुंशी भी शामिल थे. महात्मा गाँधी और गुरुदेव टैगोर का आशीर्वाद तो था ही….अपनी काशी-यात्रा में मैं एक बार रायकृष्ण दास के यहाँ रुका था और वहाँ जयशंकर प्रसाद और हरिऔध जी से मुलाकात हुई थी. दूसरी काशी-यात्रा में मैं महीनों सुधाकर पांडेय का मेहमान रहा था….इसी तरह शेख अब्दुल्ला के पास कश्मीर में मैं महीनों तक सपरिवार रुका था. शेख साहब की राजनीति से मेरा कोई वास्ता नहीं. पर किस प्यार से उन्होंने हमें रखा था, बताऊँ तो आप यकीन नहीं करेंगे!…फिर के. एम. मुंशी के मालाबार स्थित निवास पर मैंने चार महीने बिताए थे. इस तरह के लोग न मिलते और आगे हाथ बढ़कर मुझे अपना न लेते, तो आज मैं भला कहाँ होता और अकेला कर क्या सकता था!
और फिर मेरे सामने तो जीवन के रास्ते भी ऐसे ही खुलते चले गए. कोई पहले से सोचा हुआ, प्लान किया हुआ और बना-बनाया तरीका तो था नहीं. चलते-चलते जो रास्ता समझ में आया, उस पर बढ़ता चला गया….आज इस उम्र में समझदार हो जाना आसान है कि ऐसा करना चाहिए था, ऐसा नहीं. पर सचमुच जब तपती धूप में आप सड़क पर खड़े हों और प्यास से कंठ सूखा जा रहा हो, तो रास्ता तो खुद ही खोजना पड़ता है और परिस्थितियों को देखकर निकालना पड़ता हैं….
मैंने एक रास्ता यह निकाला कि भाषण देना सीख लिया. मैं लोकगीतों के बारे में जगह-जगह व्याख्यान देता और लोगों को बताता कि ये हमारी अनमोल संपदा है….या कि इनमें कितना जीवन, कितना रस है और कैसे ये हमें एक अच्छा, भला और उदार इनसान बनाते हैं. बीच-बीच में इन यात्राओं में जो भी अच्छे लोकगीत मिलते, वे भी सुना देता. कभी-कभी तो पूरी लय में गाकर भी सुनाता. गला मेरा अच्छा था, इसलिए गाने में मुझे कोई मुश्किल नहीं थी और इससे सुनने वालों के मन में एक अलग आकर्षण पैदा हो जाता. वे मुझसे दो-एक दिन और रुकने का आग्रह करने लगते थे….तो इन व्याख्यानों से कुछ पैसे मुझे मिल जाते. उनसे आगे का टिकट खरीदकर आगे बढ़ जाता…कभी-कभी टिकट के पैसे भी पूरे न पड़ते, तो सहयात्रियों में से कोई मदद कर देता. कभी-कभी मैं परेशानियों में भी फँस जाता था. मेरी ‘इकन्नी’ कहानी आप पढ़ें तो समझ जाएँगे, इसमें मेरे कुंडेश्वर जाने की बिल्कुल सच्ची घटना है. ऐसे ही दुख-संकट में शांतिनिकेतन मेरी आश्रयस्थली थी और उससे जुड़ी अनंत कथाएँ हैं.
(घड़ी भर के लिए सत्यार्थी जी रुकते हैं. फिर एक छोटे से अंतराल के बाद पूछ लेते हैं) मैंने आपको बताया था न कि अंग्रेजी में मेरे लिखने की शुरूआत कैसे हुई?
बताइए?…आप की शिक्षा तो शायद उर्दू माध्यम से हुई थी न?
हाँ, उर्दू माध्यम से….पूरे पंजाब में तब ज्यादातर उर्दू माध्यम से ही पढ़ाई होती थी या फिर कभी-कभी अंग्रेजी. पंजाबी को तो तब काई पूछता ही नहीं था. और उर्दू की तुलना में पंजाबी का शब्दकोश और अभिव्यक्ति तब इतनी सीमित थी कि तब जयादातर लेखक पंजाबी के बजाय उर्दू को ही माध्यम बनाना पसंद करते थे.हाँ, हिंदी भी तब हमें पढ़ाई जाती थी. पर तब मुझे वह उर्दू की तुलना में कहीं मुश्किल लगती थी.
तो मेरे लेखन की शुरूआत भी पहले उर्दू में ही हुई और बाद में मैं हिंदी में आया और ‘हंस’, ‘विशाल भारत’ जैसे पत्रों में लेख छपने के बाद मेरा हौसला बढ़ा और मैं हिंदी में नियमित लिखने लगा….हालाँकि हिंदी में लिखने में मेरा संकोच बहुत दिनों तक बना रहा. ‘विशाल भारत’ में लेख नियमित छपने शुरू हो गए थे. पर मैं समझता था बनारसीदास चतुर्वेदी जी (चौबे जी) मेरी मदद के लिए ही उन्हें छापते हैं, ताकि मरी झोली में भी थोड़ी भीख पड़ती रहे. मैंने उनसे यह कहा भी. लेकिन कुछ समय बाद चौबे जी ने मेरे लेख के साथ यह टिप्पणी लगाई थी कि हम सत्यार्थी जी के आभारी हैं कि उनके दुर्लभ लेख छापने का सम्मान ‘विशाल भारत’ को प्राप्त हो रहा है….
बाद में अज्ञेय ‘विशाल भारत’ के संपादक हुए तो उनका पत्र आया कि “मैं चाहता हूँ मेरे द्वारा संपादित ‘विशाल भारत’ के पहले अंक में आपका लेख अवश्य जाए.” तब मैंने हरियाणवी लोकगीतों पर एक लेख भेजा था, जिसे उन्होंने बहुत अच्छी तरह छापा था.
तो मनु जी, हिंदी मैं जानता तो था, पर शुरू में हिंदी में लिखने का अभ्यास नहीं था. यह अभ्यास निरंतर बनता चला गया. इसके लिए मैं अपनी यात्राओं को और यात्रा में मिलने वाले मामूली लोगों से लेकर अदीबों तक सबका आभारी हूँ. आप कह सकते हैं कि मेरी यूनिवर्सिटी तो यह दूर-दूर तक फैला हुआ खुला जीवन ही था, जिसका कोई ओर-छोर नहीं था. आप जानते हैं, गोर्की की आत्मकथा का एक हिस्सा हैं मेरे ‘विश्वविद्यालय’…और उसके ये विश्वविद्यालय कौन से थे, आप जानते ही होंगे….तो इसी तरह मेरे विश्वविद्यालय भी मेरे लोग ही थे. उन्हीं से मैंने भाषा सीखी. नए-नए शब्द और अभिव्यक्ति की बारीकियाँ सीखीं…और उसी से मुझे एक जिंदा भाषा की पहचान मिली, जो लोगों के दिलों पर दस्तक दे, तो उनके द्वार तुरंत खुल जाएँ.
तो मनु जी, अब आप समझे, जब मैंने कहा था कि लोकगीतों का मतलब तो प्यार है, मुहब्बत है, तो मेरा आशय यही था…कि वे आते हैं तो हमारे दिलों पर छा जाते हैं. उनके लिए किसी तरह की दिमागी कवायद नहीं करनी पड़ती. इसीलिए जनता से, जनता की भावनाओं और सुख-दुख से उनका सीधा वास्ता है….और इसीलिए मुझे लोकगीत खोजने का रास्ता कहीं न कहीं देश की आजादी का रास्ता भी लगता था, जिससे देश की छिपी हुई ताकत, देश की नैतिक शक्ति और उसकी आत्मा की ताकत का पता चलता था. इसीलिए लोक साहित्य के किसी विद्वान ने यह कहा है कि मुझे किसी देश के लोकगीत दे दो, मैं उनके आधार पर झट उसका संविधान तैयार कर दूँगा.
(बीच में टोकते हुए) ठीक है सत्यार्थी जी, लेकिन पीछे आप शायद बताने जा रहे थे कि अंग्रेजी में आपके लिखने की शुरुआत कैसे हुई….वह प्रसंग तो छूट ही गया!
(चौंककर) हाँ, भई, मैं भूल ही गया और बात कहाँ से कहाँ चली गई!…पर ऐसा शायद सब बुड्ढों के साथ होता हैं…(हँसते हैं) और मेरे साथ इसलिए शायद ज्यादा होता है कि मैंने देश की परिक्रमा करते हुए चक्कर ज्यादा खाए हैं, कई-कई चक्कर…इसलिए किस्सों में से किस्से निकल आते हैं….मगर कोई आदमी लेना चाहे, तो इनका भी एक आनंद है. आखिर दुनिया इतनी सपाट और इकहरी तो नहीं है न, जितनी वह ऊपर से नजर आती है. आप चाहें तो मुझे नए जमाने का गुणढ्य पंडित मान लिजिए, जिसके ‘कथा सरित्सागर’ में से कथाओं में से कथाएँ निकलती हैं. मगर यह जो आदत पड़ चुकी है, इसका तो अब बदलना मुश्किल…!
हाँ, आपका वह अंग्रेजी वाला सवाल. उसका जिक्र मैं इसलिए कर रहा हूँ कि उसके साथ कहीं-न- कहीं गुरूदेव टैगोर का आशीर्वाद भी जुड़ा है. हुआ यह कि हिंदी में लोकगीतों पर मेरा एक लेख छपा तो मैंने अपने कुछ मित्रों की मदद से अंग्रेजी में उसका उल्था किया और कलकत्ता चला आया….रास्ते में मिले एक भद्र बंगाली सज्जन से मैंने अनुरोध किया कि वे इसमें नजर का एक धागा पिरो दे. उन्होंने सामने एक मकान की ओर इशारा किया, “वहाँ चले जाइए, आप की समस्या दूर हो जाएगी.” मैं वहाँ गया और उस घर में जिस व्यक्ति से भेंट हुई, उससे आग्रह किया कि वह इसमें नजर का एक धागा डाल दे, ताकि अंग्रेजी भाषा या वर्तनी की कोई गलती हो, तो उसे दूर किया जा सके.
उस व्यक्ति ने लेख को पढ़ते ही आवाज़ लगाई, “सीता, ओ सीता!” भीतर से उसकी पत्नी आई, तो लेख उसके हाथ में चला गया. लेख पढ़ते ही उसने उल्लसित होकर कहा, “बाबार मते…बाबार मते!” यानी यह तो बिल्कुल बाबा जैसी शैली में लिखा गया है. उन सज्जन ने तुरंत ‘अमृतबाजार पत्रिका’ के संपादक के नाम एक चिट्ठी लिखी और मुझे फोटो खिंचवाने के लिए पैसे दिए कि फोटो साथ में ले जाना. अगले ही इतवार को ‘अमृतबाजार पत्रिका’ के परिशिष्ट में मेरा लेख धूमधाम से छपा. साथ में मेरा फोटो भी था और उन सज्जन के हाथ का लिखा नोट भी….बाद में मालूम पडा़, वह सज्जन बाबू रामानंद चटर्जी के दामाद डा. कालीचरण नाग हैं और जिन्हें सीता कहकर बुलाया जा रहा था, वे डा. कालीचरण नाग की पत्नी तथा रामानंद बाबू की बेटी थीं….यह उन लोगों की सज्जनता थी कि कलकत्ते जैसे अनजान शहर में मैं रातोंरात चर्चित हो गया. यहाँ तक कि सड़क पर चलते हुए एकदम अपरिचित लोग भी राह रोककर पूछते कि “वह लेख आपका लिखा हुआ था न!…बहुत उम्दा था.”
बाद में वह छपा हुआ लेख लेकर मैं गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर से मिला, तो उन्होंने कहा, “इतना अच्छा लेख अपने अखबार में देकर बेकार कर दिया. इसे तो ‘माडर्न रिव्यू’ में छपना चाहिए था. मैं रामानंद बाबू से मिता तो उन्होंने मुझे जल्दी से ‘माडर्न रिव्यू’ के लिए भारतीय लोकगीतों पर लेख लिखकर देने को कहा. उन्हीं के आग्रह पर ‘ग्लिंपसेज ऑफ इंडियन फोकसौंग्स’ लेख लिखा था, जे ‘माडर्न रिव्यू’ में छपा मेरा पहला लेख था. इसके बाद तो सिलसिला ही चल पड़ा….यहीं इस बात का जिक्र कर दूँ कि रामानंद बाबू ने अपने संपादकीय विभाग को आदेश दिया था कि जो भी लेख मैं लिखकर लाऊँ, उसमें लोकगीतों के अनुवाद में एक शब्द भी न बदला जाए….
कुछ अरसे बाद रामानंद बाबू ने मुझे एक टाइपराइटर और एक रौलीफ्लेक्स कैमरा भी भेंट किया, ताकि मुझे अपने काम मैं सुभीता हो. मैंने एक दिन बातों-बातों में उनसे पूछा, “आपके कितने बेटे हैं?” उन्होंने कहा, “दो.” मैंने कहा, “आगे से आप मुझे भी शामिल करके तीन बताया कीजिए.” इस पर उनकी आँखें छलछला आईं. मालूम पड़ा कि उनके तीसरे बेटे का निधन हो चुका है. तब से रामानंद बाबू ने मुझे अपना बेटा ही मान लिया था.
क्या पंजाबी में आपका लेखन बाद में शुरू हुआ?…उर्दू, हिंदी ओर अंग्रेजी के बाद.?
हाँ, ऐसा ही समझ लीजिए. इसलिए कि मैं पंजाबी बोलता तो था ही, गुरुमुखी लिपि को थोड़ा-बहुत पढ़ भी लेता था, पर उसे लिखना मुझे नहीं आता था. यह एक बड़ी कठिनाई थी….लेकिन आपको हैरानी होगी कि मेरी पहली किताब पंजाबी में ही छपी थी,‘गिद्धा’, जिसका पंजाबी में काफी स्वागत हुआ था.
लेकिन जब आपको लिपि नहीं आती थी, तो भला पंजाबी में लिखने की शुरूआत कैसे हुई?
इसके पीछे मनु जी, आपको हैरानी होगी, गुरुदेव टैगोर की ही प्रेरणा थी. उन्होंने ही पहले-पहल यह बात बीज रूप में मेरे भीतर डाली कि तुम दुनिया की सब भाषाओं में लिखो, लेकिन अगर अपनी मातृभाषा में नहीं लिखते हो, तो सब बेकार है. तो उन्ही के आग्रह से पंजाबी में मेरा लिखना शुरू हुआ….कलकत्ता से पंजाबी की एक पत्रिका ‘देशदर्पण’ निकलती थी. उसके संपादक ने मुझसे लेख माँगा, तो मैंने शर्त यह लगाई कि मैं अपने लेख को पंजाबी में अनुवाद करके बोलता जाऊँगा, तो गुरुमुखी लिपि में लिखवाने की व्यवस्था वे कर दें. वे इसके लिए तैयार हो गए.
उस पत्रिका के दफ्तर में जाकर मैं अपना लेख पंजाबी में बोलता जा रहा था…और बीच-बीच में यह भी कह देता कि अगर मेरी भाषा में कोई कमी हो, तो उसे आप सुधार लीजिए. लेकिन जब-जब मैं ऐसा कहता, उस दफ्तर में रखे हुए बोरों के पीछे से आवाज़ आती “नईं ओए, जो वी ऐ बोल रिया ए, ठीक बोल रिया ए. इसनूँ बदलने दी लोड़ नईं ए…!” मैं चौंक गया, यह आवाज़ कहाँ से आ रही है? आखिर वह मेरा लेख लिपिबद्ध हुआ. बाद में वह व्यक्ति बोरों की आड़ में से निकलकर आया और मुझसे गले मिला. मालूम पड़ा कि वह कोई भूमिगत क्रांतिकारी है और यहाँ आकर छिपा हुआ है.
खैर, तो मेरा यहाँ पंजाबी में छपा पहला लेख था, जो छपते ही पहले ‘प्रीतलड़ी’ में और फिर वहाँ से कई अन्य पत्रिकाओं में फिर से छपा. इसके बाद तो ‘प्रीतलड़ी’ से मेरे लेखों की निरंतर माँग आने लगी और यों पंजाबी में लिखने की बड़े अजीब ढंग से शुरुआत हुई.
अच्छा सत्यार्थी जी, जो असंख्य लोकगीत आपको मिलते थे, उन्हें देखकर आप कैसे अनुमान लगाते थे कि यह महत्त्वपूर्ण है या नहीं…? उनमें से किन गीतों को आप कागजों पर उतार लेते थे, किन्हें छोड़ देते थे? क्या कोई खास तरकीब थी इसकी? और फिर उनका वर्गीकरण…!
(हँसते हुए) देखिए मनु जी, जब मिठाई सामने पड़ी हो, तो उसके पूरे स्वाद और गुण-दोष का हिसाब लगाकर मिठाई खाना तो किसी हिसाबी-किताबी या कारोबारी आदमी का ही काम हो सकता है….कमजकम मैं ऐसा हिसाबी-किताबी नहीं था. इसलिए जो भी नया और मन को लुभा लेने वाला लोकगीत मिलता, पहले कोशिश करता कि वह मेरी कापी में आ जाए. मैं उसका ठीक-ठीक अर्थ और उसकी तर्ज भी सीख लूँ. फिर साथ चलते-चलते ही पता चलता कि यह गीत अधिक मार्मिक हैं…या इसमें ज्यादा कशिश है या हृदय की सच्चाई है! कल्पना की बड़ी उड़ान है, या जीवन का कोई विराट चित्रपट उसमें नजर आ रहा है!…लेकिन ये चीजें उन लोकगीतों के बीच रहते-रहते अनायास खुलती थीं. क्योंकि ऐसा है मनु जी, कि किसी कविता के अच्छे-बुरे होने की हम लाख कसौटियाँ बनाएँ, लेकिन आखिर में तो उसकी एक ही कसौटी रह जाती है कि वह अगर लोगों के दिलों में घर बना ले तो अच्छी है, वरना नहीं...! जो कविता दिल को नहीं छूती, उसके पक्ष में लाख दलीलें दीजिए, तो भी बात नहीं बनती.
हाँ, इस बारे में एक बात मैं और कहना चाहता हूँ और इसे मैंने एकदम शुरू में ही समझ लिया था कि लोकगीतों का एक उद्देश्य मनोरंजन तो है, लेकिन लोकगीत सिर्फ मनोरंजन के लिए ही नहीं हैं. इनके पीछे विराट जनता के सुख-दुख, सपनों ओर आकांक्षाओं की एक बड़ी ताकत है. यह ताकत अगर निकल जाए तो लोकगीत भी एक सजावटी चीज बनकर रह जाएंगे, जैसे शहराती ड्राइंगरूमों में रखे हुए कागज के फूल.
सत्यार्थी जी, अभी पीछे अपने कहा कि लोकगीतों की खोज में आपको कहीं न कहीं देश की आजादी का स्वप्न भी नजर आता था. आखिर लोकगीतों को आप देश की आजादी से कैसे जोड़ते थे…? क्या राष्ट्रीय और राजनीतिक घटना-क्रमों का प्रभाव इन लोकगीतों पर भी पड़ा?
बिल्कुल! …क्यों नहीं? आपने यह पूर्वी लोकगीत तो सुना ही होगा, “एक रुपैया चाँदी का, राज महात्मा गाँधी का!” उन गुलामी के दिनों में भी महात्मा गाँधी की कैसी बड़ी तस्वीर इससे आँखों के सामने आ जाती है. और यह उन लोकगीतों में से है जो तब बच्चे-बच्चे की जबान पर चढे़ हुए थे. बताइए, क्या यह गीत आपको स्वाधीनता संग्राम के गर्भ से पैदा हुआ नहीं लगता? और क्या आजादी पाने का गहरा संकल्प आपको इसमें नजर नहीं आता! और फिर अंग्रेजी राज की हकीकत और तकलीफों को लेकर एक पंजाबी लोकगीत भी है, “रब्ब मोया, देवते भज्ज गए, राजा फिरंगी दा…!” अर्थात ईश्वर मर गया, देवता भाग गए, हाय-हाय, ऐसा फिरंगी का राज्य आ गया है….यह गीत कांग्रेस के फैजपुर अधिवेशन में मैंने गाँधी जी को सुनाया, तो वे चमत्कृत हो उठे थे. उनका कहना था कि एक पलड़े में मेरे और जवाहरलाल के सारे भाषण रख दिए जाएँ और दूसरे में अकेला यह लोकगीत, तो लोकगीत वाला पलड़ा भारी रहेगा….
और ऐसे तो तमाम लोकगीत हैं. ऐसा लगता है कि जैसे हमारे लोकगीतों ने भी क्रांतिकारियों और कांग्रेस के सत्याग्रहियों के साथ खड़े होकर आजादी की लड़ाई लड़ी है. मध्य प्रदेश का एक गोंड लोकगीत है कि
”अद्दल गरजे, बद्दल गरजे, गरजे मालगुजारा हो
फिरंगी राज के हो गरजे सिपाईरा माँया
गाँधी का राज होने वाला हाय रे…!”
यह गीत जो जन-जन में गूँजता हुआ महात्मा गाँधी का राज होने की भविष्यवाणी कर रहा है, इसका महत्त्व आप कम मत समझिए….और फिर मैंने तो कांग्रेस के फैजपुर अधिवेशन में किसानों से कुछ ऐसे लोकगीत भी सुने थे जिनमें बैलगाड़ी पर जवाहरलाल नेहरू की सवारी की प्रशंसा की गई थी. कुछ गीतों में सरदार पटेल का भी नाम था ओर उनमें इतनी बारीक बात का भी जिक्र था कि पहले सरदार पटेल के बड़ी-बड़ी मूँछें थी, जो अब गायब हो गई हैं…यानी यह बात लोगों को याद हो या न याद हो, पर लोकगीतों की नजर से नहीं छिप पाई….तो लोकगीत भी बदलते हैं भई. लोकगीत तो जीवन की छाया है. वे समय के साथ क्यों नहीं बदलेंगे?
अच्छा सत्यार्थी जी, आपकी लोकगीत यात्रा की कोई ऐसी रोमांचक और स्मरणीय घटना, जिसका आप पर गहरा प्रभाव पड़ा हो और जो आज भी आपको याद आती हो?
(कुछ सोचते हुए) बहुत सी घटनाएँ हैं और वे एक से एक बढ़कर हैं. मैं तय नहीं कर पाता कौन सी सुनाऊँ, कौन सी नहीं!…(एक हलका अंतराल) एक विचित्र घटना कुंडेश्वर की है, पता नहीं मैंने आप को सुनाई है या नहीं?…असल में मैं चौबे जी (बनारसीदास चतुर्वेदी) के आग्रह पर कुंडेश्वर गया था और वहाँ कुछ दिन रुका था. टीकमगढ़ के राजा ने मुझे आग्रहपूर्वक मिलने के लिए बुलाया. वहाँ गया तो बड़े प्यार और आदर से मेरा स्वागत हुआ. बातों-बातों में टीकमगढ़ के राजा ने कहा कि अच्छा सत्यार्थी जी, आपने इतने लोकगीत खोजे हैं, इनमें आपको जो सबसे अच्छा लोकगीत लगा हो, वह आप मुझे सुनाइए.
इस पर मैंने उन्हें बुंदेलखंड का ही एक लोकगीत सुनाया. सुनकर वे प्रभावित हुए, फिर पूछ लिया, “आपको यह लोकगीत मिला कहाँ से?” इस पर मैं चुप. मैं उन्हें कैसे बताता कि अपनी पसंद का लोकगीत खोजने के लिए तो मैं कहीं भी जा सकता था, और यह लोकगीत मुझे उन्हीं के कारागार में बंदी एक स्त्री हलकी से प्राप्त हुआ था. मेरा रास्ता तो जेल के फाटक भी नहीं रोक सकते थे. पर यह बात राजा से कैसे कहूँ? आखिर उनके बहुत आग्रह पर मैंने कहा, “अगर आप उस स्त्री को जेल से मुक्त करने का वादा करें, तो मैं उसका नाम बता सकता हूँ.” राजा ने कहा, “अगर उसका अपराध बहुत गुरुतर न हुआ, तो छोड़ा जा सकता है.” इस पर मैंने उनको जेल में बंद स्त्री हलकी का नाम बता दिया.
(एक पल रुककर) आपको यकीन नहीं आएगा मनु जी, जब मैं टीकमगढ़ से लौटकर अपनी यात्रा के अगले पड़ाव पर था, तो रास्ते में ही मुझे महाराज का पत्र मिला कि उस स्त्री को छोड़ दिया गया है. और यह सूचना मिलते ही मेरी आँखें छलछला आईं. वे आँसू बेशक खुशी के थे. जैसे एक क्षण के लिए मेरे सारे कष्ट हवा हो गए ओर मुझे लगा कि मेरी ये यात्राएँ अकारथ नहीं गईं. इस पर मैंने एक कहानी भी लिखी थी, ‘लोकगीत की विजय’.
सुना है, इसी सिलसिले में आपको रेलगाड़ी में बहुत बार बेटिकट यात्राएँ भी करनी पड़ीं….क्या इससे आपको अजीबोगरीब हालात का सामना नहीं करना पड़ता था, या मन में कहीं एक भय या गिल्ट…?
(हँसकर) बेटिकट यात्राएँ ही नहीं,….मुझे तो जब-तब काम चलाने के लिए हर तरह की जुगत भी भिड़ानी पड़ती थी. जमशेदपुर में मैंने लोहे की चद्दरें उठाने का भी काम किया. अमृतसर में पत्थर की सिलें पीसीं….बीच-बीच में प्रूफरीडरी की, ट्यूशन किए, दुकान-दुकान पर जाकर अखबार बाँटने का काम किया….और भी बहुत-से छोटे-मोटे काम. मगर इनमें मुझे शर्म कभी नहीं आई, इसलिए कि मैं यह बात कभी नहीं भूल पाया कि ये सब मेरे उस बड़े काम की तैयारी के लिए माध्यम हैं. बड़े से बड़े दुख-कष्ट में भी मैं खुद को तसल्ली देता था कि कुछ पाने के लिए आखिर तपस्या तो करनी पड़ती है. ये सब मेरी तपस्या का ही एक हिस्सा हैं!…
ऐसे ही बेटिकट यात्राएँ भी कीं. एक बार तो पकड़ा भी गया. मैं जमशेदपुर से अपने एक साथी कर्मचारी के साथ भाग रहा था. वह भी मेरे साथ लोहे की चद्दरें उठाने का काम करता था. टिकट चेकर आया और उसने हमें पकड़कर रेलवे के एक क्वार्टर में बंद कर दिया. रात में ही मेरे उस मित्र ने सलाह दी कि खैरियत चाहते हो, तो भाग लो. पहले वह खुद दीवार फाँदकर बाहर निकला और फिर उसने मुझे भी खींच लिया. हम देर तक भागते रहे, और फिर अपनी-अपनी मंजिल की ओर बढ़ गए. इस पर मैंने अपने उस मित्र और जमशेदपुर के सहकर्मियों को याद करते हुए एक कहानी लिखी थी, ‘क्षमा करो, ओ लोहे के लोगों’!’
(कुछ देर रुककर साँस लेते हैं, फिर उसी रौ में आकर बताने लगते हैं) पर मनु जी, इस तरह के हालात शुरू में ही ज्यादा थे. बाद में मेरे लेख अच्छे पत्रों में छपने लगे और उनका थोड़ा-बहुत पारिश्रमिक मिलने लगा, तो हालात कुछ बदल भी गए. ‘एશિया’ जैसी पत्रिकाएँ तो एडवांस पारिश्रमिक दे दिया करती थीं और वह काफी अच्छा होता था. यानी उससे साल-छह महीने की गुजर हो जाती थी. फिर ‘विशाल भारत’ जैसे पत्र भी थे, ‘माडर्न रिव्यू’ था. इनके पारिश्रमिक से मेरा काम चल जाता था….
(फिर अचानक उत्साह में आकर) अच्छा, आपको एक किस्सा सुनाऊँ! सन 1940 में लंका-यात्रा के समय मैं मद्रास में…आजकल तो चेन्नई बोलते हैं, कुछ दिन के लिए रुका था. और मुझे वहाँ दक्षिण हिंदी प्रचार-सभा की उसी बाँस की कुटिया में ठहराया गया था, जिसमें पहले गाँधी जी रुके थे. कुछ समय बाद वहाँ के एक बड़े पत्र के संपादक मेरे पास आए और मुझे एक चेक पकड़ाया. मैंने अचंभे से पूछा, “यह किसलिए?” इस पर उन्होंने बताया कि तमिल में मेरे बहुत से लेखों के अनुवाद उन्होंने प्रकाशित किए थे, यह उसी का पारिश्रमिक है.
मुझे संकोच में पड़ा देखकर उन्होंने कहा कि “आप इसे स्वीकार कीजिए. इससे आपकी लंका-यात्रा का खर्च भी निकल जाएगा.” लेकिन मैंने उन्हें बताया कि “मेरी लंका-यात्रा के खर्च का जिम्मा तो एक व्यक्ति ले चुके हैं, और आधी राशि उन्होंने मुझे पहले ही दे दी है. तो फिर मैं यह राशि कैसे लूँ?” मैंने सुना था कि अनुवादक ने मेरे लेखों का तमिल अनुवाद बहुत ही मेहनत और सूझ-बूझ के साथ किया है. इसलिए मैंने अनुरोध किया किया यह राशि भी मेरी ओर से अनुवादक के खाते में डाल दी जाए….और अंत में उसका फिर यही हल निकाला गया कि वह राशि अनुवादक को दे दी गई.
यानी हालात कभी एक जैसे नहीं रहे. वे अदलते-बदलते रहे….?
हाँ, बिल्कुल….इसी चीज ने तो मुझे जिलाए रखा, वरना आदमी जी ही कैसे सकता है!…कभी बहुत अकेला और लाचार महसूस करता तो अगले ही पल कोई बड़ा संबल सामने आ जाता था और लगता था, मुझसे ज्यादा सुखी और समृद्ध भला कौन होगा!…1937 में मैं रायपुर में था, जब महात्मा गाँधी को एक रेलगाड़ी से वहाँ से होकर गुजरना था. उनसे मिलने आए लोगों की बेशुमार भीड़ थी.
मुझे पत्नी और बेटी कविता के साथ देखकर उन्होंने कहा, “अच्छा, अब मैं समझा तुम्हारी सफलता का रहस्य! तुम अपने घर को अपने साथ लिए रहते हो.” कविता ने उन्हें फल भेंट किए, तो बापू ने ढेर सारे फूल अपने दो हाथों में भरकर उसे यह कहते हुए दे डाले कि “बच्चों की चीज मैं मुफ्त नहीं लेता.” मुझे याद है, कई दिनों तक लोग कविता से एक-एक फूल माँगने आते रहे, इसलिए कि वे फूल बापू की निशानी थे….तो बताइए भला, इस उपहार को आप मामूली चीज मानते हैं!
(अचानक याद आने पर…) और पता नहीं, महामना मदनमोहन मालवीय वाला प्रसंग मैंने अपको सुनाया है कि नहीं….देहरादून में जहाँ वे रुके हुए थे, मैं उनसे मिलने गया था. मेरे धूल भरे पैर देखकर वे द्रवित हो गए. उन्होंने भीतर आवाज़ लगाई और मोजे मँगवाए और खुद अपने हाथों से मुझे पहनाने लगे. यह देख, मैं एकदम पसीने-पसीने हो गया. बोला, “अरे, आप यह क्या कर रहे है?…मैं खुद पहन लूँगा.” इस पर महामना बोले, “तो क्या हुआ, तुम तो मेरे बेटे के समान हो.”…आज भी यह प्रसंग याद आता है मनु जी, तो मेरी आँखें सजल हो उठती हैं. मैंने अपनी फकीरी और घुमक्कड़ी में बहुत-कुछ खोया, लेकिन जो कमाया, वह भी कोई मामूली चीज न थी.
लेकिन सत्यार्थी जी, बाद में चलकर अपने कहानियाँ-कविताएँ लिखी, उपन्यास लिखे, तो लोकगीतों वाला पक्ष कुछ कम नहीं हो गया? क्या ऐसा नहीं लगता कि आपने खुद ही अपना रास्ता बदल लिया, जबकि शायद सुनीतिकुमार चटर्जी ने ही कहा था कि आप कहानियाँ, उपन्यास, कविताएँ–चाहे कुछ भी लिखें, लेकिन ख़ुदा की अदालत में आपको ‘लोकगीत वाला’ कहकर ही याद किया जाएगा.
(इनकार में सिर हलाते हुए) नहीं-नहीं, लोकगीत खत्म कहाँ हुए हैं…लोकगीत कहीं खत्म होते हैं! मैं तो आज भी उन्हीं में भीगता हूँ, जीता हूँ. इसी से मुझे शक्ति मिलती है. सोचने-विचारने की ताकत भी उसी से पाता हूँ….लेकिन यह मानकर बैठ जाना कि किसी काम का एक ही तरीका हो सकता है, कोई और नहीं, गलत है. मैं लोक संस्कृति का पक्षधर हूँ, लेकिन इस नाते आप मुझसे कूपमंडूकता का पक्षधर होने की उम्मीद तो नहीं कर सकते. आखिर हर लेखक को अपना फॉर्म और माध्यम चुनने की आजादी तो मिलनी ही चाहिए.
मेरी कहानियाँ आपने पढ़ी होंगी. उनमें ‘टिकुली खो गई’ की आपको याद है? यह पूरी कहानी क्या एक लोकगीत की ताकत का अपने ढंग से बयान नहीं करती! और ‘कुंगपोश’!…उसमें क्या कश्मीर नहीं है? कश्मीर के लोकगीतों का उल्लास नहीं है?…और खोजें तो मेरी ऐसी बहुत-सी कहानियाँ हैं जिनमें लोकगीतों और लोक संस्कृति का मर्म छिपा हुआ है. ‘अन्न देवता’ कहानी आप पढ़िए. उसकी बुनियाद में एक आदिवासी लोकगीत ही है जिसका भाव यह है कि अब अन्नदेवता अपने लोगों को छोड़कर, रेल में सवार होकर शहर भाग गया है! तो ऐसी बहुत सी चीजें हैं…कविताएँ भी हैं. ‘ब्याह के ढोल’ कविता आपने पढ़ी है? उसमें क्या आपको लोकगीतों का उल्लास नहीं मिला?…मगर कोई पढ़ना चाहे तब न! ऊपर-ऊपर की बातों से काम नहीं चलता. जबकि हिंदी में इधर हालत यह दिखाई पड़ती है कि काम कोई नहीं करना चाहता. सब ऊपर-ऊपर की बातों से काम चलाते हैं. इधर-उधर से कुछ सुन लिया और ऊपर अपना ठप्पा लगा दिया! ऐसा है भाई, तो अंदर तक…मर्म तक कैसे पहुँचेंगे आप?
(फिर एक छोटे से अंतराल के बाद) मेरा उपन्यास ‘रथ के पहिए’ पूरी तरह मध्य प्रदेश के आदिवासियों पर लिखा गया है. यह मैं दावा तो नहीं करता कि उसमें आदिवासियों का पूरा जीवन है, पर मैं यह जरूर कह सकता हूँ कि आप उसे पढ़ें तो आपकी आँखों के आगे आदिवासियों के भोले और सरल, अभिमानी चेहरे जरूर आ जाएंगे!…पर मुझे नहीं पता, कितनों ने उसे सच में, गहराई से पढ़ा है! उस तरह से नहीं, जैसे हिंदी में बहुत से पी-एच.डी. करने वाले पढ़ लेते हैं और फिर यह बेवकूफी भरा ठप्पा लगा देते हैं कि ‘रथ के पहिए’ एक आंचलिक उपन्यास है….माफ कीजिए, इस तरह पढ़ने को तो मैं पढ़ना नहीं मान सकता! ऐसे ही ‘दूध गाछ’, ‘ब्रह्मपुत्र’, ‘कथा कहो उर्वशी’...मेरा कोई ऐसा उपन्यास बताइए, जो लोकजीवन को साथ लेकर न चलता हो!
(कुछ रुककर गंभीर स्वर में) असल में मनु जी, मेरी यह समस्या शुरू से है. मैं कथ्य तो लोकजीवन और लोक संस्कृति के बीच से ही उठाना चाहता हूँ, लेकिन उन्हें आधुनिक शिल्प में ही लिखना मुझे अच्छा लगता है….और फिर अगर मुझे सिर्फ लेख लिखकर ही तसल्ली नहीं मिली और मैंने लोकगीतों और लोककथाओं को नए वक्त और नए जमाने के हिसाब से पढ़ने या नई व्याख्या देने की कोशिश की, तो यह कोई अपराध तो नहीं!
कहा जाता है सत्यार्थी जी कि आपने देश की तमाम भाषाओं के कोई तीन-चार लाख लोकगीत इकट्ठे किए. क्या आप उनकी मूल प्रतिलिपियाँ सुरक्षित रख सके. उनमें से कितने बचे, कितने नष्ट हो गए?
अब कोई ठीक-ठीक गिनती करके तो मैं चला नहीं था कि इतने लोकगीत मेरे पास हैं…या उनकी संख्या अब यहाँ से यहाँ तक पहुँच गई! लेकिन मैं अपनी कापियों में उन्हें लिखता जाता था और मूल प्रतिलिपियाँ सुरक्षित रखता जाता था. इनमें से बहुत से लोकगीत मेरे लेखों और व्याख्यानों में भी बार-बार आए….गाँधी जी ने एक बार पूछा था कि अब तक कितने लोकगीत हो गए तुम्हारे पास? तो मैंने कहा, “कोई तीन-चार लाख!” तभी से कहीं तीन लाख प्रचलित हो गया, कहीं चार लाख. लेकिन मेरा आशय किसी निश्चित संख्या से नहीं था. मैं सिर्फ यह जताना चाहता था कि वे असंख्य हैं….
अफसोस, मेरी यह जो दुर्लभ पूँजी थी, एक दफा नई रोड पर आई बाढ़ में चौपट हो गई. वे संदूक जिनमें लोकगीतों की मूल प्रतिलिपियाँ और मेरे लेखों की पांडुलिपियाँ भी रखी थीं, उनमें बाढ़ का मटमैला पानी भर गया….बाद में बाढ़ के उतर जाने पर उन पन्नों को बाहर निकाला धूप दिखाने के लिए, तो उनमें से बहुत कम पांडुलिपियाँ पढ़ने लायक रह गई थीं….जो थोड़े-बहुत पन्ने बचाए जा सके, वे भी बाद में दीमकों का भोजन बने. यों एक दुर्लभ खोज मिट्टी में मिल गई. इसलिए कि उस सबको सुरक्षित रखने के पर्याप्त साधन मेरे पास नहीं थे. उन दिनों लोक साहित्य का संग्रहालय बनाने की बात भी बड़े जोर-शोर से चल रही थी. अगर यह हो जाता, तो शायद ये दुर्लभ पांडुलिपियाँ बच जातीं.
खैर, जो लोकगीत मेरी जुबान पर हैं, उन्हें तो कोई नहीं ले जा सकता था! और फिर लोकगीतों को लेकर मेरी किताबें हैं, ‘धरती गाती है,‘ ‘बेला फूले आधी रात’, ‘बाजत आवे ढोल’, ‘धीरे बहो गंगा’...उर्दू में ‘मैं हूँ खानाबदोश’, ‘गाए जो हिंदुस्तान’, अंग्रेजी में ‘मीट माई पीपल’, पंजाबी में ‘गिद्धा’ तथा ‘दीवा बले सारी रात’. इन सबमें असंख्य लोकगीत हैं और उनकी व्याख्या है….कम से कम इतना खजाना तो बच ही रहा है. और वह मुझसे ज्यादा लोगों का है. जो जनता से लिया है, उसी को एक तरतीब देकर जनता को ही लौटा दिया. मुझे तसल्ली है, अपनी सीमाओं में जो काम मैं कर सकता था, करने से मैंने कभी जी नहीं चुराया.
अपने पीछे साहित्य में आधुनिक शिल्प की बात की थी, यह तो अच्छी चीज है, लेकिन क्या आप नहीं मानते कि लेखकों का शिल्प-व्यामोह कभी-कभी इस सीमा तक भी पहुँच जाता है कि लेखक और पाठक के बीच खाई खुद जाती है. इधर तो खासकर ऐसे साहित्य की बाढ़ आ गई है, जो लगता है कि अति विशिष्ट पाठकों या आलोचकों के लिए ही लिखा जा रहा हो?
(हँसते हुए) चलिए, मैं आपको दो यूनानी नाटककारों की कहानी सुनाता हूँ. शायद आपको अपनी बात का जवाब मिल जाए. हुआ यह कि दो यूनानी नाटककार मरने के बाद स्वर्ग में पहुँचे. स्वर्ग में दोनों लगातार झगड़ते रहते थे. एक कहता था ‘मैं महान हूँ’, दूसरा कहता था, ‘मैं महान हूँ’. आखिर एक दिन ईश्वर ने उनके झगड़े का फैसला करने का निर्णय कर लिया. उन्होंने दोनों नाटककारों से कहा, “तुम लोग अपने-अपने नाटक पढ़कर सुनाओ. मैं निर्णय कर दूँगा.”
इस पर एक ने अपनी पांडुलिपियों से भरी गठरी खोली, लेकिन दूसरा खाली हाथ था. ईश्वर के पूछने पर उसने बताया कि “मेरी पांडुलिपियाँ तो धरती के लोगों ने ही रख लीं. मैं कुछ भी साथ नहीं ला सका.” इस पर ईश्वर ने कहा, “फैसला तो हो गया. जिसकी पांडुलिपियाँ लोगों के दिलों तक पहुँच गईं, वही महान है.” हिंदी में प्रेमचंद की महानता का यही रहस्य है. उनकी तुलना में महानता के जो बड़े-बड़े नकली स्तूप खड़े किए गए, समय ने उन्हें ढहा दिया. असल में किसी लेखक को महान बनाना किसी आलोचक के बूते की बात नहीं है. लेखक को महान उसके पाठक ही बनाते हैं.
पर सत्यार्थी जी, अगर आपकी रचनाओं को ही लें, तो आपकी आत्मकथा के दूसरे और तीसरे खंडों ‘नीलयक्षिणी’ और ‘हैलो गुडमैन दि लालटेन’ में वह सहजता तो नहीं है जो ‘चाँद-सूरज के बीरन’ में थी और जिसे आम पाठकों ने बेहद पसंद किया था. ऐसे ही आपके बाद के उपन्यास ‘तेरी कसम सतलुज’ और ‘घोड़ा बादशाह’…तो कहीं न कहीं आप भी भटके तो हैं!
देखिए, अगर ‘नीलयक्षिणी’ आपने पूरी तरह पढ़ी है, तो उसकी भूमिका में ही मैंने एक वाक्य लिखा है कि ‘नीलयक्षिणी’ शास्त्रीय संगीत के आलाप की तरह है. उसे जितनी बार पढ़ो, उसमें से नए-नए अर्थ निकलेंगे. यही बात ‘हैलो गुडमैन द लालटेन’ के लिए भी है. ‘तेरी कसम सतलुज’ और ‘घोड़ा बादशाह’ में भी है….जैसे संगीत में सुगम संगीत और शास्त्रीय संगीत दोनों ही होते हैं और दोनों की अपनी-अपनी जगह है, ऐसे ही साहित्य में भी. साहित्य में सरलता और सुबोधता का तो मैं हामी हो सकता हूँ, लेकिन सपाटता का हरगिज नहीं. वह साहित्य ही क्या, जिसे बार-बार पढ़ने को मन न चाहे. और यह तभी हो सकता है, जब उसे हर बार पढ़ने पर नया अर्थ निकले.
आपने ‘घोड़ा बादशाह’ की बात कही. क्या आपको मालूम है कि पहले मैंने इसे एक कहानी के रूप में लिखा था? ‘घोड़े की तस्वीर’ तब इसका नाम था और हुसैन की घोड़े की पेंटिग वाली एक नुमाइश का मुझ पर प्रभाव था. यह कहानी ‘नई कहानियाँ’ में प्रकाशन के लिए स्वीकृत थी और उसके छपने की घोषणा भी हो गई थी, पर अचानक मुझे लगा कि बात नहीं बनी और मुझे इसे एक बड़े उपन्यास का रूप देना चाहिए. तो ‘नई कहानियाँ’ में छपने से पहले ही मैं इसे वहाँ से उठा लाया था. और फिर इसे पंजाबी में लिखना शुरू किया ‘घोड़ा बादशाह’ नाम से, जिसे भापा प्रीतमसिंह ‘आरसी‘ में साथ ही साथ छापते भी रहे. उन दिनों इतनी चिट्ठियाँ इस पर आई थीं कि मैं हैरान था. उस पर भी आप यह कहें कि यह चीज समझ में नहीं आई, तो बड़ी मुश्किल है.
फिर इस उपन्यास को लिखते समय दिमाग की जो हालत थी, वह कैसे बताऊँ? मेरी बड़ी बेटी कविता की मृत्यु का सारा दु:ख इसमें उफन-उफनकर आ रहा है. अगर मैं यह उपन्यास न लिखता, तो शायद पागल ही हो जाता. (कहते-कहते स्वर संजीदा हो जाता है. फिर एक अफाट चुप्पी.)
(कुछ देर बाद, थोड़ा विषय बदलकर…) आपके समय में ‘आजकल’ को जो ऊँचाई और गरिमा मिली, उसे आज भी बहुत से लोग सम्मान से याद करते हैं. क्या एक सरकारी पत्रिका के संपादक होने के नाते आपको बहुत सारे दबावों में काम करना पड़ता था या आप अपनी इच्छा से काम कर पाते थे? एक संपादक के रूप में तब आपकी प्राथमिकताएँ क्या थीं?
(गंभीर होकर) देखिए, सरकारी पत्रिका थी तो उसके बहुत सारे दबाव भी थे. इस बात को छिपाने की मैं कोई खास जरूरत नहीं समझता. बल्कि कई बार तो हालत यह होती थी कि मैं इस्तीफा देकर भागने की सोचने लगता था….तो भी इन दबावों में रहते हुए कुछ काम हो सका और लोगों ने इसे पसंद किया, तो इसका श्रेय मैं खुद से ज्यादा अपने लेखकों और संपादकीय सहकर्मियों को देना चाहूँगा. इस तरह के दबाव में रहते हुए भी तब ‘आजकल’ के ‘बापू अंक’, ‘कला अंक’, ‘कविता अंक’, ‘लोककथा अंक’ ‘प्रेमचंद अंक’ तथा ‘आदिवासी अंक’ निकले थे और उन्हें पर्याप्त सराहना भी मिली थी….
मेरी कोशिश भी होती थी कि ‘आजकल’ में प्रतिष्ठित लेखकों की रचनाएँ छपें और मैं व्यक्तिगत पत्र लिखकर तथा बार-बार आग्रह करके उनसे रचनाएँ मँगवाता था. लेकिन यह बात मैं एक क्षण के लिए भी नहीं भूला कि ‘आजकल’ के संपादक के रूप में मेरा पहला कर्तव्य नई पीढ़ी की रचनाएँ छापना और उसे प्रतिष्ठित करना है. अकसर मैं साहित्यिक गोष्ठियों में जाता था और किसी नए से नए लेखक की भी अगर कोई रचना अच्छी लगती, तो उसे ‘आजकल’ के लिए माँग लेता था.
आज हिंदी साहित्य में आलोचना की जो हालत है, जिसमें आलोचक केवल अपनी निजी पसंद और परिचय के लेखकों की रचनाएँ ही पढ़ते हैं या फिर दलबंदी, गुटबाजी का जोर है, इस पर आपकी टिप्पणी? क्या यह खेमों में बँटी हुई आलोचना साहित्य का कुछ हित कर सकती है?
(हँसते हैं) मनु जी, आपकी बात पर मुझे यूनानी मिथक का एक पात्र याद आ रहा है जिसके बारे में कहा जाता है कि वह अपना बिस्तर साथ लेकर चलता था और राह चलते किसी आदमी से उस पर लेटकर आराम करने का आग्रह करता था. जब वह राहगीर उस पर लेट जाता, तो जितने पैर उसके बिस्तर से बाहर निकले होते थे, उन्हें वह काट डालता था….तो बुरा न मानिए, आज का आलोचक तो मुझे कुछ ऐसा ही जीव लगता है, जिसके पास बहुत पुराने पैमाने और बटखरे हैं और जो उसके फ्रेम में फिट नहीं होता, उसके वह हाथ-पैर काट लेता चाहता है.
हालत यह है कि लोग किसी की रचना पर सरसरी निगाह डालते हैं और एकाएक ‘राय साहब’ ही नहीं, ‘राय बहादुर’ भी बन जाते हैं. वे भूल जाते हैं, इसके पीछे लेखक ने कितना खून-पसीना बहाया होगा. हालाँकि तमाम आलोचक इन चीजों से परे भी निकले हैं. इनमें आचार्य शुक्ल, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी तो हैं ही. आज के वक्त में रामविलास शर्मा हमारे सामने हैं, जिन्होंने बड़ा काम किया और बड़ा जीवन जिया है. फिर नामवर सिंह भी हैं, जिनका योगदान भुलाया नहीं जा सकता….पर इसके बावजूद यह तय मानिए, कि आलोचना की धारा अब बहुत सँकरी होती जा रही है और आलोचक की तुलना में लेखक को अपने पाठकों का विश्वास अर्जित करना पड़ेगा.
पाठकों के पास इस तरह के कोई दुराग्रह और कठघरे नहीं हैं. हाँ, पाठकों से यह आग्रह तो किया ही जा सकता है कि याद वे किसी लेखक की अच्छी रचना पढ़ें तो उसकी प्रशंसा में कंजूसी न करें. संस्कृत का एक सुभाषित है, जिसका अर्थ है कि
“अगर कोई सूझ-बूझ वाला, सहृदय व्यक्ति किसी अच्छी रचना को पढ़ने के बाद भी सराहना नहीं करता तथा चुप रहता है, तो अगले जन्म में वह गूँगा बनता है.” (हँसी)…
मैं इस बात को जस का तस तो नहीं मानता, पर इसके प्रतीकार्थ को समझने में हमें दिक्कत नहीं पड़नी चाहिए.
अब आखिरी सवाल सत्यार्थी जी. आपने इतना समृद्ध और हलचल भरा जीवन जिया है. पूरे देश भर में घूमे हैं, किताबें लिखीं हैं. तो उम्र के इस पड़ाव पर आकर क्या आपको तसल्ली है कि अपने जो पाना था, वह पा लिया? आपको क्या लगता है, आपके काम का सही-सही मूल्यांकन हो पाया कि नहीं…?
(एक अजब-सी भंगिमा के साथ हाथ हिलाते हुए) भई, जो काम किया था, वह इस बात के लिए तो किया नहीं था कि लोग आगे चलकर इसकी प्रशंसा करेंगे और न आलोचकों के खाते में दर्ज होने के लिए किया था….यों भी अब मैं उस मुकाम पर हूँ, जहाँ निंदा और प्रशंसा दोनों बेमानी हैं. या यों कहिए कि मैं दोनों का रस ले सकता हूँ और मुझे दोनों में कोई ज्यादा फर्क भी नहीं लगता. अगर कोई ज्यादा प्रशंसा करता है, तो वह भी मुझे बोझ ही लगती है और उससे मैं ऊबने लगता हूँ….वैसे ही जैसे आदमी को मीठा भी चाहिए और नमकीन भी. खाली मीठे से जी ऊबता है.
मुझे सोच-सोचकर हँसी आती है उन लोगों पर, जो इन चीजों के आधार पर स्थायी शत्रुताएँ ओर मित्रताएँ बना लेते हैं, बल्कि जिंदगी भर यही करते रहते हैं. हाँ, मुझे यह तसल्ली जरूर है कि मैंने जो भी काम किया, अपने पूरे मन और ताकत से किया….मैं भी मनुष्य हूँ और कई बार यह चीज मेरे भी मन में आती है कि जो काम मैंने किया, उसे समझने वाले कितने हैं. फिर यही सोचकर तसल्ली करनी होती है कि हम अपना-अपना काम करें और बाकी सब समय पर छोड़ दें. मूल्यांकन वगैरह क्या है…और मूल्यांकन कभी करना भी हुआ, तो आने वाले समय या इतिहास करेगा.
यों कभी-कभी यह भी लगाता है कि मैं एक सिसिफस हूँ जिसका काम सिर्फ चट्टानें ढोना है! आप जानते ही हैं, व्यर्थ के परिश्रम का पर्याय है यह….तो क्या यह सब निष्फल गया? इसका जवाब तो यही है कि एक आदमी के बस का सब कुछ नहीं होता. जो काम मुझ से छूटा, आगे आने वाले समय में कोई तो उसे आगे बढ़ाएगा. मैं तो नहीं मानता कि आगे आने वाला समय एकदम बंजर ही होगा. कोई न कोई तो आगे भी इस काम का महत्त्व समझेगा.
हाँ, इतना यकीन मानिए कि लोक साहित्य से जुड़े बगैर हमारी गति नहीं है. जिसे आप ‘नागर’ या ‘सभ्य’ साहित्य कहते हैं, वह भी तभी तक जीवित है, जब तक वह लोक साहित्य के स्रोत से शक्ति पाता रहे, वरना वह बहुत जल्दी मुरझा जाएगा. साहित्य में करोड़ों लोगों की आवाज़ को अनसुना करना अब संभव नहीं है. इसकी उपेक्षा करके जो साहित्य लिखा जाएगा, उसके ड्राइंगरूमों तक ही महदूद रह जाने की संभावना ज्यादा है….
कहते-कहते सत्यार्थी जी रुके. उनके चेहरे पर थकान साफ नजर आ रही थी. पर आँखों में एक गहरी-गहरी सी चमक…! बिन कहे बहुत कुछ कहती हुई.
हर बार जब कोई मोहनजोदड़ो उनकी बातों में खुलता है, तो यही होता है. हालाँकि इस बीमारी की हालत में भी मैंने उनसे इतना बुलवा लिया. सोचकर अब थोड़ा अपराध-बोध सा भी लग रहा था.
फिर दफ्तर भी बेसब्री से बुला रहा था. उसकी पुकार को अनसुना कैसे करता?
मैं धीरे से उठता हूँ, सत्यार्थी जी और लोकमाता से इजाजत लेकर घर से निकलता हूँ. तब भी सत्यार्थी जी के शब्द कानों में गूँज रहे थे, “भई, आप मुझे नए जमाने का गुणाढ्य पंडित समझ लीजिए…!”
मैं नए जमाने के कथासरित्सागर के इस धुनी और विलक्षण गुणाढ्य पंडित को मन ही मन प्रणाम करता हूँ, और तेजी से बस स्टॉप की ओर कदम बढ़ा देता हूँ.
प्रकाश मनु 545 सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008, prakashmanu333@gmail.com मो. 09810602327 |
बहुत लंबा और बहुत सारी जानकारी देता साक्षात्कार। साधुवाद।
आपने इतने धैर्य से पढ़ा। आभार नीलम जी!
मेरा स्नेह और साधुवाद।
प्रकाश मनु
वा भाई प्रकाश जी , एक बढिया इंटरव्ह्यू और बढ़िया परिचय देवेंद्र जी का। आपने अदभुत काम किया है। साझा करने के लिए धन्यवाद।
वैसे मेरे दोस्त और उर्दू के लेखक प्रो. सादिक (दिल्ली) ने मुझ से कई बार देवेंद्र जी का जिक्र किया था। सादिक की देवेंद्र जी से, लगता है, काफी घनिष्ठता रही होगी।
Any way, फिर एक बार आप को बधाई, और समालोचन के अरुण भाई को भी बधाई🌸
प्रकाश मनु जी ने बेहतरीन काम किया है। देवेंद्र जी का जीवन-संघर्ष, उनकी अदम्य जिजीविषा और लोकगीतों के लिए समूचे देश में घूम-घूम कर किया गया उनका अनथक परिश्रम पूरी जीवंतता और मार्मिकता के साथ इस साक्षात्कार में अभिव्यक्त हुआ है। इस बेहतरीन साक्षात्कार के लिए सभी सहृदय पाठक प्रकाश जी के प्रति ऋणी रहेंगे। प्रकाश जी को खूब साधुवाद, खूब बधाई और साथ ही अरुण जी को भी खूब धन्यवाद, जो यह अनमोल साक्षात्कार उन्होंने हम जैसे पाठकों के लिए उपलब्ध कराया। 💐
प्रिय भाई हिमांश जी,
सत्यार्थी जी सरीखे अपनी मस्ती, अपनी मौज में जीने और चुपचाप बड़े से बड़े काम कर जाने वाले धुनी शख्स के अनोखे जीवट, शख्सियत और विलक्षण जीवनगाथा को इतनी रुचि और तन्मयता से पढ़ने के लिए आपका आभार!
बरसों पहले सत्यार्थी जी से यह अंतरंग बातचीत करते हुए, याद है कि मैं किस तरह आनंद की धारा में बह रहा था। तब न जानता था कि एक दिन यह इंटरव्यू की शक्ल में सामने आएगी, और आप सरीखे बहुत सारे साहित्यिकों को इतनी अच्छी और प्रिय लगेगी।
अलबत्ता, आपने इतने मन से यह खुली, अनौपचारिक बतकही पढ़ी, इसके लिए मेरा बहुत-बहुत आभार!
स्नेह,
प्रकाश मनु
प्रिय भाई पाटिल जी, सत्यार्थी जी सरीखे औघड़ फकीर के काम और शख्सियत में इस कदर रुचि लेने के लिए आभार! लोक साहित्य में उनका काम सचमुच निराला है, और लोकगीतों की तलाश में गांव-गांव घूमने की उनकी जिद का जवाब नहीं।
आपको सत्यार्थी जी से लिया गया यह अलहदा ढंग का अनौपचारिक इंटरव्यू भा गया। मेरा सौभाग्य! आपकी यह सुंदर टिप्पणी मेरे लिए दुर्लभ सुख की तरह है।
सादिक जी की सत्यार्थी जी बहुत बार चर्चा करते थे। बताते थे कि वे बड़े सीधे-सरल व्यक्ति हैं और उनका बड़ा काम है। हालांकि उनसे मिलने का सौभाग्य मुझे नहीं मिला।
मेरा स्नेह और साधुवाद,
प्रकाश मनु
आज बारह फरवरी 2024 को आज से छब्बीस साल पुराना प्रकाश मनु जी का मेरे पिता देवेन्द्र सत्यार्थी जी से लिया गया इंटरव्यू एक साँस में पढ़कर धन्य हो गयी। लम्बा तो था, पर न मैं थकी न रुकी।
सत्यार्थी जी के जीवन के वो पहलू जो आज तक छिपे रहे, पता चले। जब वह शेख अब्दुल्ला के घर कश्मीर में मेहमान बनकर रहे, कुछ महीने। आश्चर्य हुआ।
जब भाई वीरसिंह जी ने आशीर्वाद के तौर पर लिफाफे में एक सौ एक रुपये दिए, तो लौटाने चले आए। हमारे भोले बादशाह! भाई वीरसिंह जी का आशीर्वाद कि तुम्हारी तपस्या जीवन भर चलती रहे, सार्थक हुआ।
एक बार बिना टिकट पकड़े गए तो जेल की लोहे की दीवार फाँदकर भाग निकले। फिर कहानी लिखी, क्षमा, लोहे के लोगो! सब कुछ नया-नया।
प्रकाश मनु भी कुरेद-कुरेदकर उगलवाना जानते हैं। ईश्वर उन्हें लम्बी आयु दे। वह तो सत्यार्थी जी के मानस पुत्र हैं।
श्रद्धेय मनुजी,
देवेंद्र सत्यार्थी को तो एम.ए. आदि के पाठ्यक्रम. में रखना चाहिए।
उन्होंने कालजयी काम किया है।
आपके साक्षात्कार की शैली का मैं फैन हूँ। गद्य का ओज और प्रवाह वंदनीय है।
इतने महान रचनाकार को मैं सादर नमन करता हूँ।
आपको हार्दिक बधाई, श्रद्धेय।
श्यामपलट पांडेय
13/02/2024