स्त्रीवादी आलोचना का श्वेत-पत्र
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विडंबना है कि पुरुष के संवेदनात्मक सरोकारों की दुनिया में आज भी स्त्री के लिए कोई जगह नहीं, ठीक उसी तरह जैसे कृषि-संस्कृति में मनुष्येतर प्राणियों की जान, आराम और सम्मान की कोई क़ीमत नहीं. कृषिपालकों के लिए पशु ज़रूरी हैं, क्योंकि उपयोगी हैं. उपयोगिता उन्हें मालिकों की नज़र में सह्य बनाती है, लेकिन अपने नैसर्गिक इन्द्रिय-बोध के सहारे वे असहाय मूक प्राणी जान जाते हैं कि उस सहनशीलता में मामूली भूल-चूक पर तिरस्कार और रिप्लेस कर दिये जाने की असहिष्णु हिंसा भी है. चूंकि मनुष्य की सभ्यता के विकास का इतिहास हिंसा और दमन के पायों पर टिका हुआ है, इसलिए कायदे से मुझे पुरुष की दुनिया में स्त्री की सहज स्वीकार्य ‘मानवीय अनुपस्थिति’ के वस्तु-सत्य से थर्रा जाना चाहिए, लेकिन मेरे सीने में पिछली दो शताब्दियों की लोकतांत्रिक चेतना के क्रमशः विकसित होते चलने का गुलाबी इतिहास दबा हुआ है. वह इतिहास मुझे किसी भी क्रांतिकारी/रचनात्मक छलांग के लिए आशान्वित करता रहता है. मैं अपनी चेतना को पूरी तरह से 21वीं सदी के तीसरे दशक की नोक पर केंद्रित करती हूँ और उछाह के साथ देखती हूँ स्त्री विमर्श की धमाचौकड़ी, स्त्री सशक्तिकरण की अलमस्ती और स्त्री-अधिकारों के लिए रणभेरी फूंकने वाली जाँबाज़ स्त्री-योद्धाओं की कतार.
मैं हुलस कर अपनी जमीन के पुख्ता होने के अहसास से भर उठती हूं, और असमंजस में भारी हो गई अपनी ही सांसों को विश्वास दिलाना चाहती हूं कि यह समय पिछली शताब्दियों की तरह किसी सामंती समाज की अंधेरी सीलन भरी तंग गलियों में जाकर खत्म नहीं होगा, जहां स्त्री की सुरक्षा और अधिकारों के नाम पर ऊँची-ऊँची हवेलियां हैं और हवेलियों के चप्पे-चप्पे पर जेल सरीखी कड़ी पहरेदारियां. मैंने सामंतवादियों, साम्राज्यवादियों, अधिनायकों को लोकतंत्र के उमड़ते सैलाब में डूबते हुए देखा है; मानवाधिकारों की सुनहरी आभा में हाशिए और मुख्यधारा के फर्क को मिटाने वाली तमाम विचारधाराओं और सांगठनिक सक्रियताओं को अपने-अपने मुकाम तक पहुंचते देखा है; पशुसरीखी हाशियाग्रस्त अस्मिताओं को अपने न्यूनतम मानुष-वजूद और अधिकतम नागरिक दायित्व से स्पंदित होते देखा है. इसलिए मैं अपनी आशंकाओं से सिहरती थर्राहट को परे सरका कर पुरुष की दुनिया में स्त्री की अनुपस्थिति के वस्तु-सत्य को अनिवार्य त्रासदी न मान कर विडंबनात्मक स्थिति के रूप में ही देखना चाहती हूं.
विडंबना त्रासदी की तरह अपनी ही अंतर्निहित दुर्बलताओं के कारण आकार लेती परिणतियों का परिणाम भोगने के लिए निस्सहाय छोड़ दी गई क्रूर निर्णयात्मक स्थिति नहीं होती. वह हताशा और प्रत्याशा के धूपछांही रंग से बुनी द्वंद्वात्मक स्थिति है जो विचार का पल्लू छोड़ते ही त्रासदी की निष्क्रियता और जड़ता में विघटित हो सकती है, तो विचार को चिंतन की तर्कपूर्ण प्रक्रिया बना लेने पर स्थिति की वर्तमान शोचनीय स्थिति से घबराती नहीं, उसका सजग संज्ञान लेकर व्यवस्था के भीतर-बाहर से समाधान के कारगर विकल्प भी जुटाती है. विडंबना की अंदरूनी परतों में पुनर्विचार और परिष्कार की विकसनशील संभावनाएं छिपी हैं. इसलिए इस तथ्य के बावजूद कि देश ही नहीं, ग्लोब के अधिकांश हिस्सों में लोकतंत्र का चेहरा उग्र राष्ट्रवाद की हिंसक खरोंचों से क्षत-विक्षत होता जा रहा है, मैं इस प्रश्न पर विचार कर लेना चाहती हूं कि क्यों पुरुष, घर और शैया से परे, विचार और संवाद की दुनिया में एक स्वायत्त्त, बौद्धिक, चेतन मनुष्य-स्त्री (वैचारिक-मानसिक दृष्टि से जेंडर डिस्क्रिमिनेशन से उपरत मनुष्य होने की आभा से दीप्त स्त्री) की उपस्थिति सहल भाव से स्वीकार नहीं कर पाता? क्या पौराणिक कथाएं प्रेत-बाधा बनकर उसके भीतर की किसी ग्रंथि को याज्ञवल्क्य की शक्ल दे देती हैं? और वह शिकस्त के किसी अनाम भय से घिरकर शिकस्त दे सकने वाली संभावना को मिलजुल कर निर्मूल कर देना चाहता है? या फिर यशपाल, पुरुष होने के नाते, उसके अंतर्मन की टोह बेहतर ढंग से ले पाए हैं, जब वह प्रश्न की भंगिमा में समूची पुरुष-जाति पर तंज कसते हैं कि “क्या नारी के शरीर की रचना पुरुष के संतोष और सेवा के लिए हुई है? उसके अपने अस्तित्व और व्यक्तित्व का कुछ महत्व नहीं?”
1.
भय की ग्रंथि में हिंसा के बीज पलते हैं
बनाम
उपेक्षा का मर्दवादी चक्रव्यूह
स्त्री विमर्श लैंगिक असमानता की सांस्कृतिक संरचना के विरोध में पितृसत्ता का पुनरीक्षण है. स्त्री की नजर में यह अपने मानवीय अधिकारों को पाने के लिए छेड़ी गई वैध एवं तर्कसम्मत वैचारिक लड़ाई है, तो पुरुष (सत्ता) की दृष्टि में यह सारा आयोजन पुश्तों से कब्जे में ली गई उस जमीन पर बवाल मचाने की व्यर्थता है जिस पर कंक्रीट की पक्की इमारतें बनाकर उसने मूलभूत मालिकों समेत तमाम कागजी दस्तावेजों को नष्ट कर दिया है. कब्जा जमाने की मानसिकता से भी ज्यादा खतरनाक है अ-वैधानिक कब्जा छोड़ने की दुश्चिंता. इसलिए स्त्रीविमर्शकारों के वैचारिक अभियान को विफल बनाने के लिए छेड़ी गई प्रतिक्रियात्मक लड़ाई पुरुष की एकल लड़ाई न रहकर समूचे तंत्र, व्यवस्था, सत्ता की सांगठनिक प्रतिरोधी ताकत का रूप ले लेती है. इस लड़ाई की जो स्पष्ट रणनीतियां बनती हुई दिखाई देती हैं, वे ‘फूट डालो और राज्य करो’ के राजनीतिक मुहावरे से भिन्न नहीं. इन्हें चाहे तो बिंदुवार यों गिना सकते हैं :
(एक)
प्रचार से ज्यादा खतरनाक है दुष्प्रचार जहां वर्चस्वशाली वर्ग को सुभीता रहता है कि अपनी मीडियाधर्मी केंद्रीय स्थिति के कारण वह अपनी उदार एवं लोकतांत्रिक छवि को अधिकाधिक दृश्यमान बनाते हुए विमर्शपरक अस्मिता आंदोलनों को मुट्ठी भर असंतुष्ट लोगों / आंदोलनकारियों के निहित स्वार्थों की गुटबंदी का रूप दे सके. इसलिए स्त्री के अस्मिता आंदोलन/ लेखन पर पहला प्रहार तो यही किया जाता है कि यह उच्च मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी खाई-अघाई स्त्रियों का मनोविलास है जिन्हें न गरीब, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक स्त्री की भिन्न स्थिति-संस्कृति का ज्ञान है, न उनके सरोकारों को लेकर लड़ने की चेतना. यानी यह हाशियाग्रस्त समाज का जैनुइन वैचारिक संघर्ष नहीं, कुछ अराजक तत्वों की मिलीभगत है.
(दो)
दूसरे, मौजूदा सामाजिक व्यवस्था में तोड़फोड़ के उदाहरणों को रेखांकित करते हुए यह प्रश्न उठाया जाता है कि जो ‘चेतना’ घर और समाज की नींव हिला दे, क्या उसे ‘सही’ माना जाना चाहिए? तलाक के बढ़ते आंकड़े, दहेज कानून एवं महिला कानूनों के दुरुपयोग के किस्से, कामकाजी सिंगल मां की संतान में पनपने वाली मनोवैज्ञानिक समस्याएं, अंतरजातीय एवं अंतर्धार्मिक प्रेम विवाह, स्त्रियों की स्वेच्छाचारिता से टूटते परंपरावादी परिवार- ये कुछ ऐसी तल्ख सच्चाइयाँ है जिन्हें आरोप की तरह स्त्री के मत्थे मढ़कर उसकी चेतना को जिबह कर दिया जाता है., लेकिन वस्तुत: जरूरत इस बात की है कि तर्कसंगत संवेदनशील संवाद स्थापित कर उन कारकों को खोजा जाए जो परिवार और अंतर्वैयक्तिक संबंध को पुष्ट करने में स्त्री-पुरुष दोनों की नकारात्मक-सकारात्मक भूमिकाओं को रेखांकित करें. विवाह एवं परिवार संस्था के टूटने के मुद्दे को बौद्धिक बहस का हिस्सा बनाने की बजाए भावुकता की सीलन भरी कोठरी में ले जाना बेहद घातक है क्योंकि भावुकता विचार के बिना संवेदना में नहीं ढलती, लिजलिजी तर्कहीनता, मिथ्याचरण और अंध आस्था में विघटित हो जाती है. वह रुंधी हुई निष्क्रियता में दी गई विरुदावलियों का कीर्तन करने में ही गतिशीलता और गौरव का आनंद पाती है. जाहिर है भावुकता के दोहन की कूटनीति ने स्त्री आंदोलन को न केवल गाली का रूप देकर यथास्थितिवाद को बनाए रखा है, बल्कि प्रतिगामी ताकतों को संगठित होने का आह्वान भी किया है.
(तीन)
स्त्री के मनोबल को तोड़ने के लिए यौन हिंसा का न केवल हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है, बल्कि अपराधी पुरुष को उस अपराध से बरी कर हिंसा/अतिचार की तमाम हरकतों के लिए ‘स्वेच्छाचारिणी’ स्त्री को ही दोषी माना जाता है. खासतौर पर बलात्कार की बढ़ती घटनाओं को पुरुष की काम-विकृति और संगठित राजनीतिक हिंसा के रूप में न देख कर स्त्री की तथाकथित कामुकता और स्वछंदता का दुष्परिणाम माना जाता है; और इस प्रकार प्रकारांतर से यौन हिंसा को दुधारी तलवार की तरह इस्तेमाल करना स्त्री-विरोधी रणनीति की खास पहचान हो जाता है. इससे पितृसत्ता के दो लक्ष्य अनायास सिद्ध हो जाते हैं. एक, स्त्री की देह पर पुरुष की उदग्र कामना की सामाजिक-वैधानिक स्वीकृति. दूसरे, भय का प्रसार कर स्त्री को मिशनबद्ध होने के लिए हतोत्साहित करना.
(चार)
धर्म और संस्कृति की दुहाई देकर किसी भी नई तर्कशील वैचारिक पहलकदमी को कुचलना बेहद आसान है. इसके लिए संस्कृति के यशोगान की अनिवार्यता के साथ रूढ़ छवियों, मिथकों, आचार-संहिताओं के निस्पंद रूप को महिमामंडन की आलंकारिक के साथ प्रस्तुत करने का कौशल अनिवार्य है, जहां न बदली परिस्थितियां मानीखेज रहती हैं, न मनुष्य के रूप में स्त्री को देखने की संवेदनशीलता. दरअसल तमाम सांस्कृतिक महिमामंडन स्त्री को ‘कामधेनु’ के खूंटे में बांध देने का जतन है जो यथास्थितिवाद और पितृसत्ता का पोषण करते हुए निर्लज्जजतापूर्वक स्त्री को वस्तु से परे कुछ और मानने से इनकार करता है. जाहिर है तब धर्म द्वारा स्त्री के शोषण (देवदासी प्रथा, महंत के पद के लिए स्त्री की उम्मीदवारी का विरोध, रजस्वला स्त्री का मंदिर में प्रवेश-निषेध, संतान हेतु ‘प्रसाद’ के नाम पर मठों-आश्रमों में स्त्रियों का यौन-शोषण) के अनेकविध उदाहरणों को नजरअंदाज कर मंदिरों (सबरीमाला- शनि शिंगनापुर) में प्रवेश के मानवीय अधिकार की लड़ाई लड़ती स्त्रियों को व्यापक जन सहमति के बीच गरियाना आसान हो जाता है.
(पांच)
स्त्री-पुरुष की शारीरिक संरचना और हारमोंस के प्रभाव की तथाकथित वैज्ञानिक व्याख्या कर परंपरा से चले आ रहे स्त्रियोचित गुणों (कोमलता, सहिष्णुता, त्याग, दया, क्षमा आदि आदि) को प्रासंगिक एवं वैध मानना. प्रायः तर्क दिया जाता है कि स्त्री मूलतः मां है और प्रकृत्या कोमल है. इसलिए संरक्षण और सतीत्व स्त्री के विकास के लिए जरूरी है. सतीत्व की अवधारणा चूंकि पूरी तरह से स्त्री की पुरुषसापेक्ष स्थिति का प्रपंच भरा आख्यान है, इसलिए पितृसत्ता द्वारा संरक्षित तर्कहीन इयत्ताएं इसकी अलौकिक महत्ता में अखंड विश्वास रखती हैं. इसलिए जाहिर है आज भी सती बनाम कुलटा की बायनरी आंदोलनकारी प्रगतिशील स्त्रियों की राह में रोड़ा अटकाने आ खड़ी होती हैं.
(छह)
ठीक यहीं अस्मिता विमर्श के विरोधियों को ‘उदारवादी’ मुखौटा पहनकर स्त्री-संवेदी मानस से परिपूर्ण ‘आदर्श’ पुरुष बन जाने का अवसर भी मिल जाता है. वह स्त्री की मुक्ति, गत्यात्मकता, आर्थिक आत्मनिर्भरता, स्वायत्तता और स्वतंत्र व्यक्तित्व में विश्वास करने का दिखावा करने लगता है. साथ ही निरंतर गायन-वादन करते हुए स्त्रियोचित गुणों के अनुकूल स्त्रियोचित कार्यक्षेत्र (टीचिंग, नर्सिंग, टेबल वर्क) निर्धारित करता चलता है जहां स्त्री की ‘सेवाओं’ (अधीनस्थ स्थिति) को लेना समूची व्यवस्था के लिए लाभकारी होता है.
यही मनोवृत्ति कला एवं साहित्य में उसकी ‘आदर्श’ भूमिका का भी निर्धारण करती है जहां रंग, तूलिका, वाद्य यंत्र, सुर-ताल, शब्द के सहारे वह स्वयं को अभिव्यक्त करने को स्वतंत्र है, लेकिन बुद्धि एवं बल से जुड़े इन्हीं संवेदनात्मक क्षेत्रों के उपांगों (साहित्य के संदर्भ में आलोचना, कला के संदर्भ में स्कल्पचर) में उसके प्रवेश को तत्पर स्वीकृति नहीं दी जाती.
उदाहरण के लिए फ्रांसीसी शिल्पकार कैमिली क्लॉडल (1864-1947) का जिक्र करना चाहूंगी जो तीन स्तरों पर अनेक तरह के मानसिक-शारीरिक-भावनात्मक शोषण का शिकार हुई. सबसे पहले अपनी ही कट्टरपंथी मर्दवादी मां द्वारा कि क्यों वह बेटा बनकर उसकी कोख में नहीं आई और अब जन्म ले ही लिया है तो क्यों लड़कों की तरह पत्थर-मिट्टी में चौबीसों घंटे हाथ लिथेड़ स्त्रियोचित कमनीयता और आचरण की धज्जियां उड़ा रही है. दूसरे स्तर पर अपने गुरु ऑगस्ट रोडिन द्वारा जो इस प्रतिभाशाली शिल्पकार को प्रेयसी एवं प्रेरणा के रूप में तो स्वीकारना चाहता है, उसकी कलाकृतियों को अपने नाम से कला-जगत के समक्ष प्रस्तुत करने में भी गुरेज नहीं करता है, लेकिन पत्नी एवं स्वतंत्र कलाकार का दर्जा नहीं देना चाहता. इसलिए जब कैमिली क्लॉडल उससे संबंध तोड़ने का निर्णय लेती है तो वह न केवल स्टूडियो जैसी बुनियादी जरूरतों से महरूम कर दी जाती है, बल्कि देश की सरकारी फंडिंग एजेंसियों द्वारा कलाकृतियों हेतु आर्थिक सहायता भी नहीं जुटा पाती क्योंकि प्रतिद्वंद्वी पुरुष समुदाय ने (दु:) प्रचारित कर दिया है कि वह पारंपरिक चित्रण शैली और वर्जनाओं को दरकिनार कर स्त्री-पुरुष यौन-संबंधों को प्रेम का नाम देकर अश्लीलता को मूल्य बनाने की जुगत में संवेदनात्मक अभिव्यक्ति दे रही है.
रोडिन के पास लौट जाने की विकल्पहीन विवशता के अतिरिक्त कैमिली के सामने सृजनात्मक अभिव्यक्ति का कोई द्वार खुला नहीं रखा जाता ताकि कलाकृतियों में स्त्री की विद्रोही भंगिमा – स्वप्नशीलता और लयात्मकता – को रचते हुए वह याद रखे कि निजी जिंदगी में स्त्री बद्ध और विवश है. अर्थाभाव और अकेलेपन के साथ उतनी ही मजबूती से उगा आत्मसम्मान, दृढ़ इच्छाशक्ति और कला को जिंदगी बना डालने की धुन ने कैमिली की प्रतिभा को बादलों की ओट से झांकती सूर्य-किरणों का रूप दिया. यही प्रतिभा तीसरे स्तर पर भाई पॉल क्लॉडल द्वारा अमानुषिक शोषण का कारण बनी. पिता (उल्लेखनीय है कि पूरे परिवार में पिता ही कैमिली की कला के समर्थक और आर्थिक संरक्षक भी) की मृत्यु के बाद कैमिली पूरी तरह से भाई के अधीन हो गई. पॉल क्लॉडल ऊंचे दर्जे का राजनयिक अधिकारी और साहित्यकार था. वह नहीं चाहता था, उसकी बहन की कीर्ति उससे अधिक हो. इसलिए मां के साथ मशविरा कर वह 1913 में पहले दिमागी इलाज के बहाने कैमिली को अस्पताल में दाखिल कराता है, फिर विश्व-युद्ध में सुरक्षा की आड़ में अन्य मरीजों की तरह उसे पागलखाने भिजवाया जाता है, (बावजूद इसके कि डॉक्टर कैमिली को पूरी तरह से दिमागी तौर पर स्वस्थ बताते रहे) जहां वह मृत्युपर्यंत तीस वर्ष की गुमनाम जिंदगी काटती है.
सोचती हूं, यदि कैमिली क्लॉडल ने अपनी शर्तों पर जिंदगी जीने की बजाय व्यवस्था के सामने आत्मसमर्पण कर दिया होता तो उसकी जीवन-यात्रा का क्या रूप होता? बेशक एक चौहद्दी के बीच निर्धारित कर दी गई पगडंडियों पर अनवरत दौड़-धूप करते हुए वह अपनी ही रोजमर्रा की नित्यक्रमिकता की जुगाली करती रहती; गति के भ्रम में एक ही बिंदु पर खड़े रहने की यंत्रणा को अपना आहार बनाए रखती; मां की सीख और कोरसेट (corset) के कड़े अनुशासन में अपनी स्वत:स्फूर्तता को रिक्त करते-करते ठीक वैसी ही चिड़चिड़ी, अवसादग्रस्त रोगिणी स्त्री बन जाती जिसे सीमोन द बउवा ने ‘द सैकिंड सैक्स‘ में न केवल देखा और हमदर्दी से महसूसा है, बल्कि परंपराओं और व्यापक सामाजिक स्वीकृतियों की चौंधियाती रोशनियों तले बिसूरते अंधेरों का विश्लेषण करने की समझ पाई. सत्ताएं प्रतिपक्ष की किस्मत में अंधेरे लिखती हैं ताकि उनकी हुकूमत की रौशनियां चमचमाती रहें. दूसरों की रोशनी उधार लेकर अपने अंधेरों की गाढ़ी लकीरों को धोया नहीं जा सकता. उधार की रोशनी छाया बनकर वजूद और चेतना, तर्क और संवेदना को ढांप लेती हैं क्योंकि वहां से अनुकरण की जो संकरी गलियां निकलती हैं, वे हुकूमत के गढ़ को ही मजबूत करती हैं.
बेशक अलग रास्तों के चयन की नैतिक मजबूरी कैमिली क्लॉडल की तरह किसी भी हाशियाग्रस्त अस्मिता को यातना के दुष्चक्र से मुक्त नहीं करती, लेकिन अपने हक की लड़ाई में योद्धाओं की लंबी दास्तान का एक हिस्सा जरूर बन जाती है. यही कारण है कि जहां कैमिली की यातना उसकी अंतर्निहित मानसिक दृढ़ता, इच्छाशक्ति और आत्मसम्मान से जुड़कर उसे प्रेरक शक्ति का कालजयी रूप देती है, वहीं उसकी मां-सरीखी पितृसत्ता से दीक्षित स्त्रियां अपनी गूंगी आज्ञाकारिता के साथ तंत्र की शिकार और संरक्षक बनी रह जाती हैं और इस प्रकार निष्क्रियता के प्रसार का खोखलपन बन जाती हैं.
स्त्री-विमर्श कैमिली को रचते हुए अपोजिट बायनरी के रूप में पुरुष को नहीं, उसकी मां-सरीखी पुरुष-मानसिकता से ग्रस्त स्त्रियों को भी दृश्यमान करता है ताकि स्त्री-मुक्ति (चेतना) आंदोलन इसे स्त्री बनाम पुरुष की लैंगिक लड़ाई न बनाकर जेंडर डिस्क्रिमिनेशन (सोशल कंस्ट्रक्ट) की बारीक पेचीदगियों को समझने का विवेक स्त्री एवं पुरुष – ह्यूमन आईडेंटिटी – को साझा भाव से दे सके. स्त्रीवादी-लेखन सृजन एवं विश्लेषण के स्तर पर इसी दायित्व को संपन्न करने की व्यग्रता है.
कैमिली क्लॉडल का भारतीय संदर्भ है मीराबाई. दोनों स्त्रियां समय और भूगोल के आर-पार सत्ता के स्त्री-विरोधी चेहरे को शिद्दत से बेनकाब करती हैं. स्त्री के प्रति घृणा और दमन के लंबे इतिहास के पीछे पितृसत्ता के अपने भय और दुर्बलताओं का आत्मस्वीकार है जिसे गहन मौन की अनंत परतों में लपेट कर स्त्री समझती रही है. लेकिन पिछली सदी के दौरान जब अपने अंतर्मन के अंधेरों में उतर कर उसने वर्जना, कुंठा, ग्रंथियों और अवसादों की धूसर बदरंग पोटलियों के बीच सपनों की फुदकती गिलहरियां देखीं; और धूपछांही रंग से बुनी अपने वजूद की चादर को हू-ब-हू कागज पर उतारा तो पाया, एकांत कारावास में सिसकती स्त्रियां मिलकर कोरस बन गई हैं. अब वे समुद्र के वक्षस्थल में बंधी लहर का आयोजन भर नहीं कि कैद से निकल भागने के अवसर ही न मिलें; अपनी ही गति और दिशा में बंधी नदी की धार-सरीखी तरंगायित लहरें हैं जो अपनी ही अंत:स्फूर्ति से वेगवान रहती है. स्त्री द्वारा ‘आविष्कृत‘ यह उद्दाम जिजीविषा और प्रतिकूलताओं के बीच पीपल के बिरवे की तरह कहीं भी उग कर अपने वजूद को फैला लेने की क्षमता पुरुष के भय को बढ़ाती है; और भय अंध प्रतिशोध से उपजी प्रतिहिंसा को. साहित्य के क्षेत्र में यह हिंसा स्त्रीवादी-लेखन की अवहेलना कर इसे स्त्री की भांति गौण और मामूली सिद्ध करने की कुटिलता में झांक पड़ती है.
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उपेक्षा अस्मिता-मर्दन का हिंसक हथियार है
बनाम
अंधी गली तयशुदा रास्तों के बंद हो जाने की अंतिम चेतावनी नहीं, अनंत में खुलती पगडंडियों के संजाल की सूचना भी है
धर्म और संस्कृति की तरह साहित्य का मूल स्वर भी मर्दवादी (फैलोसेंट्रिक) है. वह भावानुभूति और आत्मविस्मृति के सघन क्षणों में आत्माभिव्यक्ति की अप्रतिरोध्य पुकार का भ्रम देते हुए भी बेहद आत्मसजग भाव से अपनी निजी सत्ता, जातीय अस्मिता और केंद्रीयता को बनाए रखने का कलात्मक कौशल है.
अनादिकाल से साहित्य का रचयिता पुरुष (ब्रह्म) है, अतः अपने ही जातीय मंतव्यों को राजनीतिक रणकौशल के साथ संवेदना, बोध और दर्शन का रूप देकर समस्त जड़ एवं चेतन, मनुष्य एवं मनुष्येतर प्राणियों को परिभाषित करता आया है. इसलिए जब सृष्टि की उत्पत्ति की पहली आदिम कथा रचते हुए ईडन गार्डन (बहिश्त), बोधि वृक्ष (ट्री ऑफ नॉलेज), एडम-ईव (स्त्री-पुरुष) के मिथक की परिकल्पना करता है, तब एडम बलिष्ठ शरीरधारी कर्त्ता के रूप में चित्रित किया जाता है जिसके पास सब्र है, भावनाओं के रपटीले ज्वार पर अंकुश लगाने का विवेक है, ईश्वर के प्रति अगाध आस्था का दुर्लभ गुण है जो प्रसाद (दया) पाकर अपनी स्थिति मजबूत करता है, और जाहिर है इस तरह ज्ञान के चमकते फल को सामने लटका देख कर भी न पेट में भूख की तरंगें महसूस करता है, न दिमाग में जिज्ञासा की खलबलियां. मुझे वह मध्ययुगीन साहित्य द्वारा निर्मित अवधारणा ’भक्त’ का प्रतिरूप लगता है जो जिज्ञासा (जीवंतता) को माया कहकर किसी अमूर्त्त सत्ता की तलाश में वर्चस्ववादियों के इशारे पर दौड़ती जड़ निरर्थकता में रिड्यूस होकर रह जाता है. या आज के संदर्भ में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से बने बॉट (Bot) का स्मरण कराता है जो फीड किए हुए डाटा को घटा-फैलाकर स्मरण-शक्ति पर आधारित मनुष्य के दिमाग को हरा सकता है. पुरुष के ठीक विपरीत है चंचल, अधीर, कान की कच्ची, अविवेकी, ज़िद्दी और कामना का पुंजीभूत रूप ईव जो ईश्वर की अलौकिक सत्ता के लौकिक प्रतिनिधि एडम को पद-स्खलित करती है.
शेष कहानी इन दो परस्पर विरोधी छवियों को संपुष्ट करने और ईव की हठधर्मिता के कुफल भोगते एडम के संघर्ष और विस्थापन की कहानी है. (अलबत्ता बहिश्त से निष्कासन के लिए ईव को जिम्मेदार मान कर उसे नर्क का द्वार कहे जाने का नैसर्गिक तार्किक आधार भी यहीं से उठाया गया है जिसकी अर्थव्यंजनाएं इस निष्कर्ष में दूर तक जाती हैं कि जब भी पुरुष अपने विवेक को परे रखकर स्त्री की बात सुनता है, वह अपने कपाल में आत्मसंहार की इबारत लिख लेता है.) इन छवियों को प्रत्येक देश-काल-संस्कृति में इतनी बार अलग-अलग संदर्भों, चरित्रों, घटनाओं के जरिए गाया-काता गया है कि ठीक सामने खड़ी जीवंत अस्मिताओं और हकीकतों से दो-चार होने की बजाय हम परंपरा द्वारा हस्तांतरित होती संरचनाओं के जरिए बोध और संवेदना की अंगुल भर जमीन को ही अपार संपदा का नाम देने लगते हैं.
स्त्रीवादी-लेखन बोध और चेतना के हस्तांतरण की प्रवंचनापूर्ण परंपरा पर अंकुश लगाकर इसका पुनर्पाठ करना चाहता है. वह पूर्वाग्रहों की वैधता को यथार्थ की पारदर्शी तर्कशीलता से जांचने का आग्रह करता है. वह अपनी अस्मिता को सत्ता, और सत्ता को निरंकुश वर्चस्व बना डालने वाली ताकतों से एक ही सवाल के इर्द-गिर्द तमाम बहस-संवाद को केंद्रित करने की अपील है कि सृष्टि में तमाम तरह की विविधता और बहुलता को उसकी स्वायत्तता और अपरिहार्यता में स्वीकार करने की बजाय उस पर आधिपत्य जमाने और फिर उसे श्रेणीबद्ध (क्लासिफाइड) और पदानुक्रमबद्ध (हाईरार्किकल) करने की चेष्टाएँ क्या स्वयं उसके ‘मनुष्यत्व’ से हीन हो जाने की सूचक नहीं? कि मनुष्य होने का अर्थ ब्रह्मांड पर कब्जा जमाना नहीं है, समूचे ब्रह्मांड के साथ संतुलित सामंजस्यपूर्ण संबंध स्थापित करते हुए विकास की संभावनाओं के साथ गतिशील होना है.
पितृसत्ता को चुनौती दिए बिना चूंकि स्त्री लैंगिक संरचनाओं के घटाटोप को छिन्न-भिन्न कर मनुष्य-अस्मिता नहीं पा सकती, इसलिए एक अकादमिक एवं संवेदनशील स्त्री-हस्तक्षेप के रूप में मैं इस कथा का पुनर्सृजन करना चाहती हूं. मेरी इस मिथक-डिकोड कथा में एडम सुविधाभोगी, आत्मरतिग्रस्त मानव है जिसकी पहली प्रतिक्रिया संघर्ष की संभावनाओं को टालते हुए यथास्थिति को मजबूत करने की है. ईव चंचल, अधीर और हठी है क्योंकि सीमाओं का अतिक्रमण कर वृहत्तर परिधि को मुट्ठी में बांध लेना चाहती है. वह जानती है, ज्ञान का फल चखने के लिए घेरे बनाती हदबंदियों को तोड़ना पड़ता है; सुविधाओं के बदले संघर्ष को गले लगाना पड़ता है. ज्ञान का अर्जन जितना कठिन है उससे अधिक दारुण है ज्ञानार्जित निष्पत्तियों के सहारे अज्ञात (वृहत्तर दुनिया) को नए आलोक में देखना. वह ज्ञान का फल खिलाकर पुरुष को उसकी आत्म-संकुचित इयत्ता और ईश-भीरूता से मुक्त करना चाहती है. वह जानती है, ज्ञान को संभाले रखने के लिए संवेदना की आधारभूमि बेहद जरूरी है. नहीं तो ज्ञान दंभ और क्रूरता में विघटित होकर विध्वंस का प्रतिरूप बन सकता है. वह अपने भीतर संवेदना के अथाह स्रोत पाती है. और स्त्री-पुरुष की युति यानी एक मुकम्मल इंसान की परिकल्पना के सहारे ईश्वर की केंद्रीय सत्ता को चुनौती देती है.
ईव मूर्ख हठ की नहीं, विद्रोह एवं क्रांति की प्रतीक है. चंचलता को दिशाबद्ध गतिशीलता में ढाल लेने की मिसाल! ज्ञान के प्रति ईव की ललक एडम को चकित करती है, और भयभीत भी. तिस पर वन्या प्रकृति की तरह स्त्री के पल-पल बदलते रूप जो उसे सम्मोहित भी करते हैं और अपनी अकिंचनता के प्रति क्षुब्ध भी. कभी प्रसव के दौरान दर्द से कातर… कभी शिशु की देखभाल के लिए स्वयं शिशुवत् हो उससे सुरक्षा मांगती … कभी शिकार की व्यूह रचना करती बुद्धि … कभी कूटनीति के शास्त्र से बिना लड़े प्रतिस्पर्धी को शिकस्त देती मायाविनी…तो कभी रतिक्रिया के दौरान मोम, पुष्प और वायु सरीखी अतींद्रियता में ढलती! वह प्रकृति की तरह स्त्री को भी रौंद डालना चाहता है. उसके समूचे वजूद को भुरभुरी मिट्टी में तब्दील कर अपने हाथों से गढ़ना चाहता है ताकि जब-जब अपनी तकदीर और देह को पढ़ने का जतन करे वह, उसे बस पुरुष ही दिखाई दे – उसकी ताकत, अधिसत्ता और ऐंद्रिक लालसाएं!
स्त्रीवादी-लेखन साहित्य के पुरुष-रचित भ्रांत पाठ का निराकरण है. वह सत्ता का कठोर अनुशासन नहीं, अस्मिता की संवादपरक ललक है. अस्मिता शब्द में अहंकार की टंकार नहीं, अपनी निजता को व्यक्ति और समाज के संदर्भ में जानने की ललक है. चिंतन एकांत के गहन मौन में अर्जित एकाकी वैचारिक प्रक्रिया भले हो, यह समाज से कटकर अकेलेपन का जश्न मनाती आत्ममुग्धता नहीं है. चिंतन की आत्यंतिक सार्थकता समाज और सृष्टि के संदर्भ में अपनी निष्पत्तियों को ठोस रूप देना है. इसलिए अस्मिता-विमर्श एक साथ तीन स्तरों पर विचार कर लेना चाहता है कि (१) एक इकाई के रूप में स्त्री की स्वायत्तता और अस्मिता क्या है? कि (२) पुरुष/ समाज के संदर्भ में उसे किस रूप में देखा जाता है? कि (३) समाज/पुरुष को वह स्वयं किस रूप में देखती है?
ये तीनों स्तर उसे क्रमशः मनुष्य के रूप में चेतन करते हैं; आत्मालोचन की निर्भीकता से भर कर परंपरा एवं समाज को ऐतिहासिकता में विश्लेषित करने की तलस्पर्शी दृष्टि देते हैं; और फिर कर्त्ता (भाष्यकार) के रूप में दृष्टिओझल कर दी गई सच्चाइयों-आयामों-कोणों को उभारने का विवेक देते है जिन्हें एक ही खास कोण/स्थान/आग्रह पर खड़ी दृष्टि अपनी एकांगिकता के कारण नहीं देख पाती. अस्मिता विमर्श ‘स्व’ की प्रतिष्ठा के लिए किया गया राजसूय यज्ञ नहीं है कि ताकतवर सम्राटों की अधीनता या संहार के बाद ही अपना साम्राज्य स्थापित किया जा सके. यह अपनी-अपनी विशिष्ट अस्मिता से दीप्त होकर साझा भाव से समय के सृजन की दायित्वपूर्ण संलग्नता है, ठीक वैसे ही जैसे घर की मुंडेर पर अगल-बगल प्रज्वलित दीए अपने में दूसरे की लौ मिलाकर गली में पसरे अंधेरे को दूर कर डालते हैं.
स्त्रीवादी-लेखन दबा दिए गए स्वरों और अदृश्य कर दी गई वस्तुस्थितियों को सामने लाने की छटपटाहट है.
इस छटपटाहट का चरित्र मासूम और मननशील है, लेकिन पुरुष की दृष्टि से देखें तो उसे कठघरे में खड़ा कर देने की शातिर कोशिश. दरअसल जब कोई समाज सदियों के क्रमिक भावनात्मक दोहन के बाद मनुष्य को जाति, वर्ग, धर्म, लिंग, विचारधारा में बांटकर सत्य की समग्रता को खंडित एवं विकृत कर डालने में सफल हो जाता है, तब तमाम सदिच्छाओं और वैचारिक सक्रियताओं के बावजूद उसे पुनः एकीकृत एवं समन्वित करना बेहद कठिन हो जाता है. पुरुष समाज (पाठक, लेखक एवं आलोचक) में स्त्री विमर्श (आंदोलन एवं लेखन) की अग्राह्यता को देखती हूं तो अनायास बेबल की मीनार का प्रसंग याद आ जाता है. आत्मरक्षा की सहजात मानवीय वृत्ति के कारण उमड़ता भय, भय को जीतने के लिए हिंसा, हिंसा की वैधता के लिए संगठन, संगठन के जरिए सत्ता के स्वाद का उन्माद- अपने को निरंतर विभाजित और संगठित करता यह क्षरणशील दुष्चक्र निजी स्तर पर मनुष्य को अकेला बनाता है, और समाज के स्तर पर सौहार्द को नष्ट करता है. सवाल यह है कि आत्मरक्षा के लिए अनिवार्यत: अपने भय को हिंसा से ही क्यों जीता जाए? हिंसा को संवाद और प्रेम से, विश्वास और सद्भाव की साझा संस्कृति के सहारे क्यों नहीं नेस्तनाबूद किया जाए? यहां स्त्री-लेखन के प्रति पुरुष की चुप्पी के कारणों को मैं इन सवालों के आलोक में विश्लेषित करना चाहूंगी – एक, स्त्री-लेखन के जिन सरोकारों से पुरुष संवेदनात्मक स्तर पर स्वयं को आहत महसूस करता है, वे क्या हैं? लैंगिक संरचना के निर्मित बोध से परे जाकर क्या उन सरोकारों की नि:संग जांच अनिवार्य नहीं? दूसरे, यदि वे सरोकार मनुष्य-अस्मिता की गरिमा को नष्ट करते हैं, तो क्या उन्हें समयानुकूल उपचार की सुविधा मुहैया कराकर स्वस्थ समाज की पुनर्रचना नहीं की जा सकती? तीसरे, स्वयं को कर्त्ता के रूप में अपराधी पाने की ग्लानि या वैचारिक निष्क्रियता के कारण विक्टिम होने की लाचारी ही क्या पुरुष और स्त्री दोनों को अपने-अपने स्तर पर स्वस्थ सौहार्दपूर्ण अंतर्वैयक्तिक संबंध विकसित न कर पाने के लिए दोषी सिद्ध करती है? तब क्यों नहीं पारस्परिकता सृजन की नव पीठिका बने?
साहित्य, मनुष्यता की तरह, अपनी आदर्श (यूटोपियन) स्थिति में आत्मालोचन के आलाप से शुरू की गई सुर-साधना है जो सृष्टि की तमाम अंतर्भूत शक्तियों, सिद्धियों, संपदाओं को अपनी विशिष्ट धड़कन के साथ जोड़कर सद्भाव और कल्याण की बंदिश को नया रूप देती है. लेकिन यूटोपिया किन्हीं सिरफिरे दार्शनिकों की अनसुनी कर दी गई पुकारें बेशक रह जाएं, अनसुना करने की सजग प्रक्रिया में विचलनों और स्खलनों को महसूसने की ईमानदारी अवश्य जगाता है. स्त्री-लेखन चूंकि पुरुष सत्ता द्वारा निर्मित रूढ़ छवियों से मुक्त होकर अपने को अपनी ही अंतः प्रज्ञा के आलोक में देखता है, इसलिए वह अनिवार्य रूप से परंपरानुमोदित स्त्रियोचित आचरणों- संहिताओं, निर्देशों-अनुदेशों से भिन्न हो जाता है. चरित्र/शील की परिभाषा से लेकर भूख के अनुपात तक (‘स्त्री की नाक न हो तो वह गू खाए‘ या ‘स्त्री की भूख पुरुष से दो गुना और वासना आठ गुना अधिक होती है‘), बुद्धि से लेकर (‘चूंकि वह पुरुष की पसली से बनाई गई है, इसलिए उसकी बुद्धि घुटनों में होती है‘) दायित्व तक (‘स्त्रियाँ पुरुष के हरे-भरे चरागाह हैं. पुरुष जब चाहे उन्हें चर सकता है‘) – स्त्री-सुबोधिनी और पुरुष-तंत्र के विस्तार को प्रश्नांकित कर स्त्री-लेखन पितृसत्ता की वैधता पर कुठाराघात करता है. परिवार एवं विवाह संस्था की अमानुषिक संरचना में धर्म, न्याय एवं मीडिया संस्थाओं की संगठित आपराधिक भागीदारी के सवाल उठाकर आधुनिक युग में भारतीय स्त्री-लेखन अपने मानवीय अधिकारों की पैरवी करता रहा है.
सावित्रीबाई फुले हों या पंडिता रमाबाई, रखमाबाई, ताराबाई शिंदे, अज्ञात हिंदू महिला हों या शिवरानी देवी- अपनी तीखी हुंकारों के कारण आलोचकों को असमंजस में डालती रही हैं. हिंदी साहित्य को आधार और दिशा देने वाले आचार्य रामचंद्र शुक्ल के साहित्य-इतिहास पर दृष्टि डालें तो बंग महिला के अतिरिक्त किसी अन्य स्त्री रचनाकार को उन्होंने महत्व नहीं दिया, जबकि शिवरानी देवी, सुभद्रा कुमारी चौहान और महादेवी वर्मा उनकी समकालीन प्रमुख रचनाकार थीं; मल्लिका देवी और अज्ञात हिंदू महिला बस जरा सी देर पहले अपना अप्रतिम योगदान देकर साहित्य के एकालाप और एकरसता को तोड़ चुकी थीं. ऐसे में इन रचनाकारों की तुलना में बंग महिला को ‘विद्रोही तेवरों से युक्त स्त्री रचनाशीलता‘ के विशेषण के साथ महिमामंडित करना पुरुष-आलोचना की नीयत के अलावा ग्रंथियों को भी उजागर करता है. बंग महिला का लेखन प्राय: सपाट है. वे कहानियों और निबंधों में जिन स्थितियों को उठाती हैं, वे या तो नुकीले सरोकारों से किनारा कर विवरणात्मकता की सपाटबयानी में सिमट जाती हैं, या फिर परंपरा, सतीत्व और स्त्री-आचार-संहिता का प्रच्छन्न अनुमोदन कर यथास्थिति को बनाए रखती हैं. हिंदी की ही बात करें तो बंग महिला से पहले अज्ञात हिंदू महिला ‘मनुस्मृति’ के वर्चस्व को, और मल्लिका देवी प्रचलित सामाजिक कुरीतियों को प्रश्नांकित कर एक वैकल्पिक समाज व्यवस्था का प्रारूप रचती नजर आती हैं. ‘अन्यों’ को उपेक्षित कर ‘एक’ की प्रतिष्ठा करना चयनधर्मी पूर्वाग्रहों के बहाने पुरुष-आलोचकों को अपने मध्यवर्गीय समाज के औसत यथास्थितिवादी पुरुष का प्रतिरूप बनाता है जो स्त्री की जीवंतता को पुरुष-सापेक्षता की खूंटी पर टांग देना चाहता है. यही वजह है कि सुभद्रा कुमारी चौहान की तमाम कहानियां उपेक्षित कर दी जाती हैं क्योंकि वे स्त्री की दृष्टि से न केवल प्रेम को पुनर्परिभाषित करती हैं, बल्कि दांपत्येतर प्रेम को घृणित एवं पाप बताती विवाह संस्था की अनैतिकता को भी उजागर करती हैं.
विवाह संस्था स्त्री को देह (उपनिवेश) बना लिए जाने की विडंबना का क्रूर सांस्कृतिक षड्यंत्र है. पति, परिवार, समाज से प्रेम एवं विश्वास की एक बूंद के लिए तरसती उनकी स्वतंत्रचेता नायिकाएं कहानी दर कहानी अपनी व्यथा को ही नहीं उकेरतीं, समूची पितृसत्ता पर सवाल लगाकर समकालीन बुद्धिजीवी समाज से पुनर्विचार का आह्वान भी करती हैं. नैतिकता के दोहरे मानदंड सजग स्त्री क़े भीतर प्रतिरोध का भाव पैदा करते हैं कि यदि पुरुष को प्रेम करने का अधिकार है तो स्त्री को क्यों नहीं? राधा-कृष्ण का प्रेम यदि दांपत्य संबंध की शुचिता, पारिवारिक टूटन के सामाजिक मुद्दे, और नैतिक वर्जनाओं के बंधनकारी अवरोध को नजरअंदाज कर दाम्पत्येतर प्रेम को स्त्री-पुरुष दोनों के अंतर्वैयक्तिक संबंध की खूबसूरती का रूप देता है तो क्यों अहल्या-इंद्र के प्रेम की परिणति स्त्री पर कहर बनकर टूटती है? और गौतम ऋषि न्यायाधीश की केंद्रीय भूमिका अधिग्रहीत कर अहल्या को निजी उपनिवेश से अधिक कुछ नहीं समझता? उल्लेखनीय है कि राधा के संदर्भ में उसके पति की सत्ता को बिल्कुल अदृश्य कर दिया गया है. क्या इसलिए कि राधा के पति की तुलना में प्रेमी कृष्ण की सामाजिक-राजनीतिक स्थिति सुदृढ़ (दबंग) है, और अहिल्या के संदर्भ में उसके पति गौतम ऋषि की?
फिर भी कह सकते हैं कि पुरुष/आलोचना ने सुभद्रा कुमारी चौहान को गुमनामी के अंधेरे में नहीं धकेला, बल्कि ‘ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी’ कविता लिखने के लिए ढेरों शाबासियाँ भी दी हैं, और साहित्यिक इलाकों में एक खास स्थान भी. लेकिन यह तय है कि असुविधाजनक सच्चाइयों पर चुप्पी के तीखे दंश को नगाड़ों के शोर और फूलमालाओं के बोझ तले देर तक छुपाया नहीं जा सकता. आलोचना पुरस्कार वितरण की राजनीति नहीं कि किसी कमजोर कृति को केंद्र में लाकर लेखक विशेष के प्रति पूर्व में की गई अनीतियों का प्रायश्चित किया जा सके. आलोचक का दायित्व कृति को पूरी परंपरा से जोड़कर परिप्रेक्ष्य देना भी है और उसकी मौलिक उद्भावनाओं के प्रभाव को सुदूर भविष्य तक संप्रेषित करना भी है. गदगद भाव से किसी रचना को सराह देना और जो भी हो आलोचना कतई नहीं. यदि सुभद्राकुमारी चौहान को प्रतिष्ठित करने के पीछे हड़बड़ी भरा यह प्रायश्चित भाव न होता तो पुरुष-आलोचना रुक कर इस तथ्य पर जरूर विचार करती कि जिस समय लोकमान्य तिलक जैसे राजनेता गणेश और शिवाजी की पुनर्प्रतिष्ठा कर हिंदू समाज के सांस्कृतिक पुनर्गठन की तैयारी कर रहे थे और द्विवेदीयुगीन कवि यशोधरा -उर्मिला-
राधा के व्यक्तित्व/व्यथा की पुनर्रचना कर चेतना के नाम पर सतीत्व की अवधारणा (निष्क्रियता, प्रतीक्षा और समर्पण) को ही पुष्ट कर रहे थे, उस समय नए युग की स्त्री की छवि गढ़ते हुए सुभद्राकुमारी चौहान रानी लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगना को क्यों दृश्यपटल पर उपस्थित करती हैं? यदि ‘मर्दानी’ शब्द के मोहपाश से मुक्त हो वे लक्ष्मीबाई के ज़रिए साहित्य एवं लोक-स्मृति में दर्ज की जा रही छवियों को सही परिप्रेक्ष्य देने का हौसला जुटाते तो विश्वासपूर्वक कह सकते थे कि लक्ष्मीबाई निर्णयसंपन्नता, गतिशीलता, सक्रियता, निर्भीकता और नेतृत्व क्षमता के सहारे अपने लक्ष्य और स्वप्न का संधान भी करती हैं, और परिवार-विवाह संस्था के प्रति ‘कर्त्ता स्त्री’ के नए संबंधों का अध्याय भी रचती हैं. तब वे सहजता से इस तथ्य तक भी पहुंच सकते थे कि ‘मर्दानी’ शब्द कवयित्री की भाषायी विपन्नता का खूबसूरत नमूना है. भाषायी विपन्नता इसलिए कि वे अनायास जान जाते, भाषा के विकास के लंबे इतिहास में सिर्फ और सिर्फ पुरुष-भाषा ही विकसित हुई है. तब जाहिर है आज से अस्सी साल पहले स्त्री-भाषा के विकास की अनिवार्यता और संस्कृति को लेकर बहस शुरू कर सकते थे.
स्त्री-लेखन साहित्य में नई दुनिया के द्वार खोलता है – ऐसी दुनिया जहां गहरी रागात्मकता के साथ छोटे-छोटे दुख-सुख की बड़ी-बड़ी तफसीलें हैं. वहां दृश्य हैं, बिंब हैं, संवेग हैं, खंडित सपनों की किरचें हैं, ख्वाहिशों के अधूरे कालीन हैं, हौसलों की धवल चोटियां हैं, द्वंद्व की अतल खाइयां हैं. घरेलू हिंसा की विवश स्वीकृतियां हैं तो यौन-शोषण की दरिंदगियां भी हैं. बलात्कार, इंसेस्ट और यौन हिंसा के रिसते नासूर हैं तो वेश्यावृत्ति और पॉर्न इंडस्ट्री के अपमानजनक क्रूर व्यावसायिक प्रसार भी हैं. मंदिरों-मठों-आश्रमों में पलती अमानुषिकताएं हैं तो स्त्री-श्रम को अदृश्य कर दी जाने वाली तमाम साजिशें भी. गेहूं की बालियों जैसी संघर्ष की सुनहरी दास्तानें है तो अपनी ही राख से जन्म लेते फीनिक्स पंछी के पंखों की मीठी सरसराहट भी है. अंधेरे की रहस्यमयी सुरंगों से बुनी यह दुनिया जानी-पहचानी भी है, और घनघोर अपरिचित भी. स्त्री की अंतर्यात्रा की ये पगडंडियां अंततः एक ही सवाल की ओर जाती है कि समाज की स्त्री से इतनी अ-पहचान क्यों? पुरुष-आलोचना को क्यों स्त्री की इस दुनिया में कुछ नया नहीं दिखता? घर की स्मृतियां संभवत: उसमें घुटन पैदा करती हैं जिसे ‘स्त्री का साम्राज्य’ कह कर वह जब-तब वहाँ से भाग खड़ा होता है. बेशक घर दिशाहीन उच्छृंखल उड़ान का अवकाश और स्पेस नहीं देता. घर संयुक्त जिम्मेदारियों की कर्मस्थली है. घर व्यक्ति ही नहीं, समाज, राष्ट्र और समय की बुनियाद भी है. वह आत्मानुशासन भी सिखाता है और सह-अस्तित्व की जरूरत भी. वहां पलायन और आत्मरतिग्रस्तता दोनों के लिए कोई स्थान नहीं. न ही विकृतियों, नकारात्मकताओं और निष्क्रियताओं के लिए. उपभोग का महत्व है लेकिन अर्जन के सापेक्ष.
घर हर पल अपने को पखारता-पसारता है. पुरुष की आकाशवृत्ति घर के भीतर जहान को देख पाने का विराटत्व अर्जित नहीं कर पाती जिसे भले ही उपदेश के तौर पर कृष्ण-अर्जुन प्रकरण में वह कह देता है. रूढ़ छवियों ने स्त्री-पुरुष के व्यक्तित्व-विकास को नैसर्गिक दिशा नहीं दी है, बोनसाई की तरह उनके स्वरूप की निर्मम छांट-तराश की है. इसलिए स्वभावत: दोनों भिन्न हैं- दृष्टि, रुचि, प्राथमिकता और लक्ष्य भी भिन्न. स्त्री रम कर अपने को अभिव्यक्त करती है, पुरुष अपने से विलग होकर समाज को आक्रांत करने वाली समस्याओं से मुकाबिल होता है. उसके बड़े सरोकारों में हैं देश-समाज, धर्म-संस्कृति, इतिहास-भूगोल- राजनीति की बड़ी-बड़ी समस्याएं. युद्ध, हिंसा, दमन, विद्रोह, क्रांति, आंदोलन उसे ऊर्जस्वित करते हैं. सांप्रदायिक तनाव और आतंकवाद, मॉब लिंचिंग और उग्र सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, दलितों-अल्पसंख्यकों पर अत्याचार और देशद्रोह के नए-नए क़ानून, किसानों की आत्महत्या और किसान आंदोलन – इन सबके बीच वह सुकून पाता है क्योंकि यहां अभियोग की मुद्रा में उठती उंगलियां उसे घेरे में नहीं लेतीं, उस सरीखी तमाम निजी ठोस वैयक्तिक इयत्ताओं को दरकिनार कर उनके समूह से बनी ‘अदृश्य’ संस्थाओं – समाज, धर्म, राजनीति, माफिया, विचारधारा, पूंजी – को दोषी ठहराती हैं. युद्ध, सांप्रदायिक हिंसा, आतंकवाद की पाशविक लहर के दौरान सैनिकों और आतंकवादियों, देशभक्तों और देशद्रोहियों द्वारा समान भाव से रौंदी जाती स्त्री-देह को देखता है; कुछ क्षण क्षुब्ध खड़े रह कर आगे बढ़ जाता है क्योंकि जानता है हिंसा का ताण्डव स्त्री देह से होकर ही चरम पर पहुँचता है.
स्त्री, उसकी नज़र में, बिन्दु है. यहाँ रुकने का अर्थ है परिधि के विस्तार में फैले व्यापक सरोकारों की अवहेलना. स्त्री के लिए वह बिन्दु उसकी अस्मिता को दी गई जघन्य गाली है. स्त्री-लेखन हिंसा, अन्याय, दमन, उपेक्षा के प्रत्येक पारिवारिक/सामाजिक प्रकरण का अंतरंग चित्रण कर उसे कठघरे में खड़ा कर देता है. तब घर की तरह स्त्री-लेखन की चौहद्दियों से भी वह दूर भागना चाहता है. हो सकता है, ईमानदारी के दुर्लभ एकांतिक पलों में विचार भी करता हो कि घर की परिधि में स्त्री की निजता और गरिमा का आखेट करते हुए वह हिंसा-दमन का जो शास्त्र रचता है, उसी को ‘पाठशाला’ मानकर उसका पुत्र भविष्य के सबक सीखता है; और लिंग से लेकर धर्म, जाति, वर्ण, वर्ग के तमाम भेदापभेदों से जुड़े सामंती संस्कारों को ग्रहण कर उसी खाई को चौड़ा करता चलता है जिसे विरासत में उसके पुरखे सौंप गए हैं. खाइयों पर पुल बनाने की आकांक्षा से रचा गया स्त्री-लेखन जिस अनुपात में उसके अपराध-बोध को उत्तरोत्तर गहनतर करते चलता है, उसी अनुपात में वह उसे महत्वहीन, नगण्य, संकुचित और अनावश्यक लगने लगता है. तब पलायन की अनिवार्यता उसके अंतरंग की बुनियादी बुनाइयां बुनने लगती है और यूलिसिस की तरह समुद्र के सीने को चाक कर ‘विश्व विजय’ का सपना उसकी ‘मर्दानगी’ के मिथक को सहलाने लगता है.
महाविपत्तियां और दुर्दांत हादसे अचानक नहीं आते, छोटी-छोटी नगण्य और महत्वहीन समझी जाने वाली घटनाएं ही जुड़कर त्रासदी का रूप लेती हैं. सामाजिक विभीषिकाएं सामान्यतया संवादहीनता का विस्फोटक रूप हुआ करती हैं. इसलिए संवाद को मानव समाज की रीढ़ कहा जाए तो गलत नहीं. यहीं से विचार की दोहरी प्रक्रिया शुरू होती है जो अपने को ‘अन्य‘ की नजर से देखने और अन्य को ममत्वपूर्ण ढंग से समझने की उदारता देती है. संवाद वर्चस्व की जड़ता और आतंक को तोड़ता है; समस्या को सरोकार का रूप देकर साझा लड़ाई का मुद्दा बनाता है. इसके विपरीत उपेक्षा अपनी सत्ता को आतंक का पर्याय बना डालने की हिंसात्मक राजनीति है. स्त्री, स्त्री-लेखन और स्त्री-सरोकारों को कमतर मानने की प्रवृत्ति पितृसत्ता का गढ़ भले ही पुष्ट करे, मनुष्यता की चूलें हिला देती है.
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स्त्रीवादी आलोचना समय को परखने की तीसरी आँख है
यहां यह सवाल भी विचारणीय है कि क्यों नामचीन स्त्री-रचनाकार स्त्रीवादी लेखिका न होने का ऐलान कर स्वयं को स्त्री-सरोकारों की सामाजिक प्रतिबद्धता से मुक्त कर लेना चाहती हैं. अक्सर उनका तर्क होता है कि लेखक जेंडरविहीन बौद्धिक प्रक्रिया है. सृजन के क्षणों में उदात्तीकरण की जिस जमीन पर वह जा पहुंचता है, वहां विभाजनकारी मानसिकताएं और भेदापभेदों की श्रृंखलाएं बेमानी हो जाती हैं. लेकिन शताब्दियों की निरंतरता में फैले पुरुष-लेखन का पाठ क्या इस तर्क को निरस्त कर यह साबित नहीं करता कि परंपरागत साहित्य पुरुष की जातीय श्रेष्ठता का भाष्यकार है? नई कहानी आंदोलन की तीनों लेखिकाओं – मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा के साथ-साथ निर्मला जैन, मृदुला गर्ग का स्त्री-विमर्श से दूरी बरतने का प्रयास चौंकाता है. खासतौर पर मृदुला गर्ग का, जिनका लगभग सारा साहित्य स्त्री की मानवीय अस्मिता की सामाजिक-पारिवारिक स्वीकृति का आंदोलनधर्मी प्रयास रहा है. वे हिंदी की पहली रचनाकार हैं जो विवाह-संस्था की रुग्णता को मैरिटल रेप के संदर्भ में उकेर सकीं (चितकोबरा); प्रेम को स्त्री के नैसर्गिक अधिकार की तरह जी कर महसूस कर सकीं कि समर्पण और अपेक्षा के मानदंडों से बंधा प्रेम स्त्री की पराधीनता का रोमान भरा पृष्ठ ही लिखता है, उसे अंतर्दृष्टिसंपन्न बनाकर भास्वर अस्मिता नहीं देता (उसके हिस्से की धूप). मृदुला गर्ग का यह विश्लेषण प्रेम में फुलफिलमेंट पाकर जिंदगी की संपूर्णता का फलसफा बयान करती रेखा (नदी के द्वीप) के समानांतर स्त्री की भिन्न दृष्टि, जरूरत, पहचान और संघर्ष का नया आयाम खोलता है.
स्त्री-लेखन की खासियत अतिरेकपूर्ण ढंग से स्त्री-सरोकारों का बयान करने में नहीं है, स्त्री के मनोजगत की निर्माता सामाजिक ताकतों का मनोविज्ञान उद्घाटित करने में है. स्त्री-लेखन की सार्थकता पुरुष के उत्पीड़न का चित्रण कर उसे ‘खलनायक’ बना डालने और आंसुओं में भीगी स्त्री पर दोनों हाथों से सहानुभूति का समंदर लुटाने में नहीं है. ऐसा करने पर वह चेतन स्त्री को क्रमशः उलाहना देती दुर्बलता, और फिर बिसूर कर पुन: जिंदगी में रम जाने वाली निस्सहायता का रूप देने लगता है जो अनजाने ही पितृसत्ता द्वारा पोषित रूढ़ छवियों को मजबूत करता है. यह तय है कि स्त्री सर्वाधिक हिंसा स्वयं अपने पर करती है.
आत्मानादर, आत्म-दमन, आत्म-घृणा – ये अपने पर की जाने वाली हिंसा के कुछ हथियार हैं. इसलिए इनसाइडर होने की हैसियत से स्वयं स्त्री ही जानती है कि पहले एक सामाजिक इकाई के तौर पर उसे इन नकारात्मकताओं से जूझने में कितना संघर्ष करना पड़ता है, और फिर रचनाकार (बौद्धिक चेतना) के रूप में आत्मदया, आत्ममुग्धता एवं अपराध-बोध से मुक्त स्त्री की नई छवि को निरूपित करने में. ऐसे में स्वयं को ‘स्त्री रचनाकार’ होने की पहचान से अलगाने का आग्रह दरअसल अनायास ‘स्त्री लेखन’ पदबंध में जबरन ठूंस दिए गए ‘अर्थ’ की वैधता के प्रति असहमति जाहिर करना है जो बताता है कि स्त्री-लेखन की परिधि संकीर्ण है; स्त्री वृहत्तर दुनिया के वृहत्तर सरोकारों से उदासीन आत्म में जकड़ी हुई है; और स्त्री लेखन में सघन भावना का सौन्दर्य भले मिल जाए, क्षण को कालजयी बना डालने की विवेकशील अंतर्दृष्टि नहीं मिलती.
स्त्री-लेखन के प्रति पुरुष आलोचकों की चुप्पी स्त्री-आलोचना के दायित्व और जरूरत को दूने वेग से रेखांकित करती है. सावित्री सिन्हा, निर्मला जैन, गिरीश रस्तोगी के रूप में हिंदी साहित्य को उस समय स्त्री-आलोचक मिलीं जिस समय डॉ नगेंद्र, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह अपने-अपने ढंग से साहित्य, संस्कृति, सौंदर्यशास्त्र और समीक्षा सिद्धांतों पर बहस कर रहे थे. लेकिन दुर्भाग्यवश ये तीनों स्त्री आलोचक न आलोचना के जरिए स्त्री-पुरुष लेखन के भिन्न चरित्र को सामने रख सकीं, न रचनाकार के दृष्टिगत वैशिष्ट्य को बनाने में लैंगिक पूर्वाग्रह/प्रशिक्षण की भूमिका को विश्लेषित कर सकीं.
गिरीश रस्तोगी शेष दोनों आलोचकों की तुलना में कृति केंद्रित व्यावहारिक आलोचना के जरिए अपने क्षेत्र का प्रसार करती दिखती हैं, लेकिन विभिन्न नाट्य-कृतियों का मूल्यांकन करते हुए वे उन स्थितियों से टकराने से साफ बच निकलती है जहां स्त्री चरित्रों के स्वाभाविक विकास को अवरुद्ध करते हुए नाटककार उन्हें ‘पुरुष’ की एकांगी दृष्टि से चित्रित करने लगता है. मोहन राकेश के नाटक ‘आधे अधूरे’ की सावित्री इसका सबल उदाहरण है.
कृति केंद्रित होते हुए भी आलोचना कृति का उपग्रह नहीं होती. आलोचक पाठक और लेखक के बीच सुविधा के लिए खड़ा कर दिया गया कामचलाऊ पुल नहीं है. साहित्य की स्वच्छंद प्रकृति वैयक्तिकता को एक विशिष्ट गुण के रूप में प्रतिष्ठित करती है. आलोचक की वैयक्तिकता उसकी दृष्टि एवं व्यक्तित्व को पारदर्शी छलनी का रूप देती है जिसके भीतर से छन कर कृति उस तक पहुंचती है और फिर समाजशास्त्रीय व्यवस्थाओं, इतिहास, मनोविज्ञान, परंपरा और स्मृति से उपजे बोध के साथ जुड़ कर उसमें आवश्यक हस्तक्षेप करती है. यह हस्तक्षेप कृति की अनुशंसा या व्याख्या नहीं है; उस पर दिया गया विवेकसम्मत अभिमत है जो रचनाकार के रूप में आलोचक की अपनी निष्पत्तियों, विचार की अंतर्यात्रा, द्वंद्वात्मकता के बीच अपने को मनुष्य के रूप में ‘इन्वेंट’ करने की व्यग्रता और कृति के साथ-साथ समय को भी परिप्रेक्ष्य एवं रचनात्मक कोण देने की दायित्वशीलता में झलकता है. स्त्री-आलोचना स्त्री विमर्श का पायेदार स्तंभ है. उपेक्षा की मार झेलते स्त्री-लेखन की स्थिति एवं नियति को देखते हुए उसे दो स्तरों पर जूझना है : एक, स्त्री-लेखन को परिभाषित करना; दूसरे, स्त्री-आलोचना के प्रतिमान निर्धारित करना.
स्त्री-लेखन गायनी वार्ड नहीं है जहां पुरुषों का प्रवेश प्रतिबंधित है. न ही यह समय के बृहत्तर सरोकारों से कटी किशोरी की भावुक डायरी है या गृहिणी का सपाट रोज़नामचा. सबसे पहले ज़रूरी है ‘स्त्री लेखन’ पदबंध को परिभाषित करना. यदि यह रचनाकार की लैंगिक स्थिति को ज्ञापित करने के लिए निर्मित की गई संरचना है तो क्या इसका अर्थ हुआ कि हमें अब पुरुष-लेखन जैसी एक और कोटि बनानी होगी? बेशक़! पुरुष जिस तरह पुरुष-विमर्श की बात कहकर अपने को ‘समझे’ जाने की ज़रूरत पर बल देने लगा है, उससे तो लगता है पुरुष-लेखन भी जल्द ही प्रकाश में आने लगेगा. लेकिन दुर्भाग्यवश पुरुष तो अपने अंतर्मन की गुत्थियां-ग्रंथियाँ कभी खोलता नहीं. संवेदना के सूक्ष्म-सघन धरातल पर पहुंच कर जब-जब सम्बन्ध और मनुष्य के चहुं ओर लिपटी संश्लिष्ट डोरियों को सुलझाना चाहता है, हर बार अपने मन की हवेली पर बड़ा सा ताला जड़ वह मर्द होने के भाग्य विधाता तेवरों के साथ स्त्री की कोठरी में जा घुसता है.
अपवादस्वरूप ‘गोरा’ या अन्ना केरेनिना को छोड़ दें तो प्रेमचंद, जैनेंद्रकुमार, शरतचंद्र चटर्जी या फ़्लाबेयर गुस्ताव आत्मनिर्भर सशक्त स्त्री का आख्यान रचते हुए उसे सामाजिक, मानसिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक रूप से पुरुषनिर्भर इकाई का ही रूप देते हैं. स्त्री लेखन को यदि स्त्री की विशिष्ट जैविक संरचना, सरोकार, दृष्टि और लक्ष्यपरकता का माउथपीस कहा जाए तो क्या यह माना जाए कि पुरुष लेखन (जिसे अब भी प्रचलित मुहावरे में मुख्यधारा का साहित्य कहा जाता है) का चरित्र सार्वभौमिक, समग्र एवं सर्वसमावेशी है? लेकिन वास्तविकता यह है कि वह अपनी जैविक संरचना के कारण भिन्न बनी जातीय अस्मिता को भी अखंड भाव से साहित्य-समाज में निरूपित नहीं कर पाता. वर्ग-वर्ण (दलित), धर्म (अल्पसंख्यक) और क्षेत्र (आदिवासी) के भेद उसकी संवेदना के स्तर को झीना करते चलते हैं.
यह स्वीकार करना होगा जिसे पुरुष-वर्चस्व मुख्यधारा का साहित्य कह कर इतराता फिर रहा है, वह पूर्ण में से स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक को निकाल कर अंश भर रह गया है. दूसरे, स्व से आँख न मिला सकने की नैतिक दुर्बलता के कारण पुरुष-साहित्य में नीति, दर्शन, प्रवचन, एक्सप्लोरेशन की बौद्धिक बहसें भले ही मिल जाएं, आत्मपरकता की एक भी झिलमिलाती रंगीन तार नहीं मिलती. इसी कारण उसका साहित्य सामाजिक मुद्दों पर बात करते-करते यकसां और प्रिडिक्टेबल होने की ठीक उसी दुर्बलता का शिकार हो जाता है, जिसे वह स्त्री-लेखन के घनत्व और अपील के क्षरण का सबसे बड़ा कारण मानता है. यह तय है कि सत्यम् शिवम् सुंदरम् की बात करने वाले समाज में जब तक पूंजी, धर्म और राजसत्ता कूटनीतिक औज़ारों की तरह केंद्रीय स्थान पाते रहेंगे, समग्रता और सार्वभौमिकता कमज़ोर वर्ग को बरगलाने वाली मोहक प्रवंचनाएँ बनी रहेंगी.
साथ ही, स्त्री-लेखन को परिभाषित करने के क्रम में बेहद ईमानदारी से इस तथ्य को भी जाँचना है कि स्त्री की नज़र में पुरुष का मूल्य क्या है? स्वामी? ईश्वर? सहायक? रक्षक? घृणास्पद? या सखा-सहचर? कि संगिनी और माँ के रूप में नई पीढ़ी को गढ़ने ने में उसे किन ग्रंथियों से लड़ना पड़ा और उसके प्रशिक्षण से क्या बेहतर परिणाम उभर कर सामने आए?
‘स्त्री लेखन’ पदबंध का प्रयोग उसी लेखन के लिए किया जाना चाहिए जो :
(१) सचेत भाव और नि:संग दृष्टि से पितृसत्तात्मक व्यवस्था की संरचना और दुष्प्रभावों का आलोचनात्मक विश्लेषण करे.
(२) देह में रिड्यूस कर दी गई स्त्री की जीवंत मानवीय अस्मिता को समानता और सम्मान दे.
(३) स्त्री-संवेदी समाज की पुनर्रचना के लिए मिशनबद्ध हो. स्त्री-संवेदी समाज का अर्थ पुरुष को स्त्री के प्रति संवेदनशील बनाना भर नहीं है, स्त्री को भी स्त्री के प्रति संवेदनशील बनाना है. सखी-भाव विस्तार की बात कितनी ही क्यों न की जाए, यह आज भी देखने में आता है कि कमतरी क़े एहसास से आहत स्त्री पुरुष की अनुकंपा पाने के लिए अपने ही वर्ग से विश्वासघात कर बैठती है.
(४) लैंगिक विभाजन को मजबूत करने वाली संरचनाओं, परंपराओं, लोक-विश्वासों पर प्रश्नचिन्ह लगाए.
(५) समग्रता में स्त्री-पुरुष और मनुष्य-समाज को समझने का प्रयास करे. लेखन-प्रक्रिया के दौरान विषय (स्त्री) के मोह में पड़कर प्रतिपक्ष (पुरुष) को खलनायक बनाने की प्रवृत्ति स्टीरियोटाइप को तोड़ने की धुन में नए स्टीरियोटाइप गढ़ने का बाल-उत्साह है जो हिंसा और घृणा को बढ़ावा देकर अलगाव और विघटन को सतह पर ले आता है.
(६) स्त्री-लेखन चूंकि पितृसत्ता का पुनरीक्षण है, अतः पितृसत्ता के दूसरे विक्टिम के तौर पर उसे पुरुष की स्थिति पर भी सहानुभूतिपूर्वक विचार करना है जिसने इस शाइस्तगी से पुरुष से ‘मनुष्य’ होने की चेतना छीन ली है कि वह न उस अमूल्य निधि के छिन जाने की त्रासदी को महसूस कर पाता है, न लौटा लाने का उत्साह.
स्त्री-आलोचना चूंकि स्त्री-लेखन का ही एक अभिन्न अंग है, जहां सृजन की भावनात्मकता की बजाय विश्लेषण की तटस्थ तार्किकता में उसे अपने समय को पुनर्रचित करना है, अतः स्त्री-लेखन के सरोकार अनायास स्त्री-आलोचना के मानदंड बन जाते हैं. स्त्री-आलोचक को लेखन के दौरान एक साथ विश्लेषक एवं सर्जक दोनों स्तरों पर अपनी अंतर्दृष्टि और विजन को सतह पर लाना पड़ता है. अतः उसके पास साहित्य और स्त्री ही नहीं, इन दोनों के स्वरूप, चरित्र और मनोविज्ञान को निर्मित करने वाली विभिन्न व्यवस्थाओं का ज्ञान होना भी अनिवार्य है. व्यवस्था कभी एकल भाव से अपनी कार्यशैली संपन्न नहीं करती. वह अगल-बगल अलग-अलग जमीन पर फैली व्यवस्थाओं की श्रृंखला में जुड़कर अपनी सत्ता को अधिसत्ता में तब्दील करती है. जैसे पितृसत्ता की ताकत का मूल आधार सांस्कृतिक संरचनाओं में निहित है जो अपने आप में धर्म-व्यवस्था के कड़े अनुदेशकों का व्यवहारिक एवं सुगम रूप हैं. व्यक्ति की स्वायत्तता का आखेट कर पराधीनता के शास्त्र की रचना करना सरल कार्य नहीं. लेकिन देवियों को सृष्टि की आद्या शक्ति के रूप में महिमामंडित करने के बाद धर्म जिस क्रमिक, मंथर एवं विश्वसनीय भाव से उन्हें देवताओं (पति) की अर्धांगिनी (सहचरी नहीं) के रूप में परिकल्पित करता है, वह उनसे अनायास आधी जमीन आधी शख्सियत छीन लेना है. उसके बाद उसकी जगह लक्ष्मी की तरह विष्णु के पैरों में निर्धारित कर देना कठिन काम नहीं रहता. यह स्त्री की जगह के सिकुड़ने की सांस्कृतिक प्रवंचना मात्र नहीं है; पुरुष की प्रतिद्वंदी ताकत को राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं बौद्धिक-मानसिक दृष्टि से निहत्था कर देने की कूटनीति भी है.
धर्म एवं राजनीति के गठजोड़ से पनपी सांस्कृतिक संरचनाओं की कार्यशैली सती-दाह की घटना में भी परिलक्षित की जा सकती है. सती-आत्मदाह को पहले पारिवारिक मर्यादा और दांपत्य प्रेम की मिसाल के रूप में रचा जाता है. फिर इस ‘रचाव’ की केंचुली (ऊपरी परत) उतारकर भीतर स्थित अर्थ को उजागर किया जाता है, जिसमें सती पति की आज्ञा का उल्लंघन कर मनमाना निर्णय करने की अपराधिनी है, और पति अपमानिता पत्नी की मर्यादा का रक्षक एवं सघन प्रेमी. सती की मृत देह को कंधे पर लादकर घूमता यह बावरा प्रेमी स्त्री की मूर्खता, हठ, बाल-बुद्धि के ‘वस्तु-सत्य’ को रेखांकित कर प्रेम और विवाह के प्रति पुरुष की अनन्य निष्ठा को रचता है. यहीं से अर्थ की तीसरी परत खुलती है. मृत देह की सड़न, दुर्गंध और महामारी की विकरालता के बीच स्थितियों पर काबू पाने के लिए सती की देह को नौ टुकड़ों में विभाजित कर छितरा दिया जाता है. परंपरागत आस्थाजीवियों की दृष्टि में वे नौ शक्तिपीठ हैं लेकिन स्त्री-आलोचक के लिए यह रूपक आद्या शक्ति स्त्री की ताकत, केंद्रीयता और जीवंतता को कतर कर निर्मूल कर देने की संगठित अपराध-कथा है.
धार्मिक अनुदेशों को कथा और चरित्रों में गूंथ कर लोकमानस, परंपरा और स्मृति में बैठा देना सत्ता के लिये बायें हाथ का खेल है क्योंकि वह जानती है, परंपरा-पालन में तर्क के लिए कोई जगह नहीं. तर्कातीत आस्था का अंधत्व जीवंतता को छवि की जड़ता में बांध देता है. स्त्री-आलोचना का सबसे बड़ा प्रतिमान (तीसरी आंख) यही है कि वह वर्तमान को प्रभावित करने वाली सांस्कृतिक संरचनाओं को समझने की तलस्पर्शी दृष्टि को अपने समय की चेतना बनाए क्योंकि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का मौजूदा दौर स्त्री की चेतना को महिमामंडन से प्रतिस्थापित कर उसे पुनः मंदिरों में बैठा देना चाहता है.
स्त्री-आलोचना को ताकत देने वाला दूसरा बड़ा प्रतिमान ज्ञान के विविधवर्णी स्रोतों एवं प्रशाखाओं के साथ अंतरंग संवाद स्थापित करना है. स्त्री-आलोचना विद्रोह एवं पुनर्सृजन का बिगुल है. हठधर्मिता और उन्मुक्त विचरण से परहेज की प्रवृत्ति बेड़ियां बनकर उसे नष्ट कर डालती है. बेशक साहित्य उसकी कर्मभूमि है, लेकिन पौधा जमीन पर आने से पहले जमीन के नीचे फैले तमाम पोषक तत्वों को ग्रहण कर अपनी जड़ें मजबूत करता है; फिर फूट कर विकसित होने का आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता अर्जित करता है. साहित्यिक कृतियों की जमीन से बाहर फैली है बहुरंगी दुनिया. इस दुनिया में समय कालों/खंडों में विभक्त भी है और अनवरतता में दरिया के पानी की तरह बहता चलता है. इस दुनिया में नए-नए समाजशास्त्रीय अनुसंधान हैं; कला आंदोलन हैं; राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हलचल मचाने वाली राजनीतिक-आर्थिक गतिविधियां है; ‘मी टू’ जैसे यौन-शोषण विरोधी वैश्विक अभियान हैं; स्थानीय-राष्ट्रीय आंदोलनों में चीन की दीवार जैसी प्रतिरोधी मानव श्रृंखला बनाती शाहीन बाग और किसान आंदोलन की स्त्रियां हैं तो अघाए पेट की दुर्दांत भूख में सत्ता की डुगडुगी पर नाचती विकृतियां भी हैं.
हिंसा और सम्मान (ऑनर किलिंग) की रक्तरंजित लड़ाइयों के साथ न्यायपालिका-विधानपालिका के अजीबोगरीब आदेश/कानून है जो यौन हिंसा, प्रेम और विवाह का नया अध्याय लिखकर स्त्री के आधिपत्य में चप्पा भर जमीन भी नहीं रहने देना चाहते. स्त्री जैविक प्राणी से ज्यादा सभ्यता की सामाजिक-सांस्कृतिक निर्मिति है. अतः यथार्थ जिंदगी में हर रोज कितने ही विष के प्याले पी कर वह अपने को जिलाए रखने का जतन करती है. स्त्री के वर्तमान को विश्लेषणात्मक नजर से पढ़ना समूचे देश-काल की नब्ज पर पकड़ बनाए रखना है. स्त्री-आलोचना समय की चौकसी में नियुक्त सतर्क आंख है.
इतिहास दृष्टि स्त्री-आलोचना का एक अन्य महत्वपूर्ण प्रतिमान है. इतिहास दृष्टि का अर्थ स्थितियों को उनके विकास की निरंतरता में देखना है. यहां स्थूलता में बंधी घटनाओं से ज्यादा मूक कर दी गई हूकें, क्रंदन. हुंकारें और मसल दिए गए सपने महत्वपूर्ण हैं जो पूर्वाग्रहों की निर्बाध परंपरा को चुनौती देकर नई संवेदना के अंकुरण की संभावना को रेखांकित करते हैं. द्वंद्वात्मकता संघर्ष का मार्ग प्रशस्त करने वाली पहली निश्चयात्मक हुंकार है जिसकी स्मृति में द्वंद्वग्रस्तता की अनेक वैचारिक-मानसिक दुर्बलताएं दबी हुई हैं.
सती प्रथा निषेध कानून (1829) से लेकर रूपकुंवर सती कांड (1987) तक फैले डेढ़ सौ वर्ष से अधिक की समाज-यात्रा का ग्राफ उत्थान और विघटन के दो शार्प प्वाइंटर्स से बना हुआ दिखता है, लेकिन दरअसल उनकी क्रमिक परिस्थितियों के बीज भी वहीं उसी जमीन पर हैं. सती प्रथा निषेध अधिनियम के साथ-साथ सती प्रथा समर्थन में चलाए गए सामाजिक आंदोलन प्रतिगामी ताकतों की उपस्थिति, लामबंदी और भविष्य की रणनीतियों का संदेशवाहक ही हैं जो रूपकुंवर सती कांड के साथ ही उग्र वैचारिक टंकार के साथ जमीन पर खूंटे गाड़ लेता है. इसके बाद का सारा समय टीवी जैसे घरेलू प्रचार माध्यम के जरिए स्त्री का अवमूल्यन करने और सामाजिक कुरीतियों को पुनर्प्रतिष्ठित करने का रपटीला समय है. किसी एक दुर्घटना की परिणति महज एक व्यक्ति या समय तक सीमित नहीं होती.
स्त्री-आलोचना घटना को निरपेक्ष आंख से देखने की सपाटबयानी की बजाय उसके राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक अंतर्संबंधों को पकड़ने की प्रखर चेतना है. वह इस मान्यता को बार-बार पुष्ट करती हैं कि जीवन के केंद्र में मनुष्य है और मनुष्य की केंद्रीयता में लिंग. अत: जीवन की हर घटना/ विचार के केंद्र में लिंग की राजनीति के सांघातिक दबाव को समझने और पलटने में चूक नहीं की जानी चाहिए.
इतिहास-दृष्टि का प्रसार ऐतिहासिक घटनाओं के अनुशीलन-विश्लेषण तक सीमित करना स्त्री-आलोचना के स्कोप को सीमित करना है. साहित्यिक कृतियों की आलोचना में इतिहास-दृष्टि तीन तरह से महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है. एक, पुरुष-रचित साहित्य का पुनर्पाठ; दूसरे, पुरुष आलोचकों द्वारा स्त्री-रचनाकारों के मूल्यांकन की प्रवृत्ति का विश्लेषण; तीसरे, स्त्री-लेखन की पड़ताल. इतिहास-दृष्टि समय की अखंडता के भीतर निबद्ध समस्या को एक संघटित (इंटीग्रेटेड) इकाई मानती है. इतिहास का चरित्र चूंकि वस्तुपरकता के तमाम दावों के बावजूद साहित्य की तरह आत्मपरक है, इसलिए स्त्री-आलोचक की इतिहास-दृष्टि उन सच्चाइयों का उत्खनन करने लगती है जिन्हें जबरन दबाकर नई छद्म सच्चाइयां गढ़ी गई हैं. सत्य का चेहरा निरपेक्ष नहीं होता. स्त्री आलोचना सांस्कृतिक उत्पाद के रूप में गढ़ी गई स्त्री की पुरुष-सापेक्ष स्थिति को समझने के प्रयास में पुरुष-रचनाकार, तद्युगीन समाज और परंपरा के चरित्र को जानने का प्रयास करती है. पुरुष-साहित्य का स्त्री-पाठ टेक्स्ट के भीतर से झांकती उन रिक्तियों और रंध्रों पर फोकस करता है जहां स्थितियों, घटनाओं और चरित्रों को गढ़ने के क्रम में पुरुष-दृष्टि के निहित मंतव्य, सीमाएं, प्रयोजन और पूर्वाग्रह ‘स्पष्ट’ होने लगते हैं. जैसे ‘ध्रुवस्वामिनी’ ( प्रसाद) नाटक स्वतंत्र भारत में गतिशील सबल स्त्री की परिकल्पना को प्रत्यक्ष करने की प्रक्रिया में भारतीय इतिहास के स्वर्ण युग कहे जाने वाले गुप्त वंश से पात्रों का चयन करता है और तमाम बौद्धिक बहस एवं राजनीतिक सरगर्मियों के बीच धर्म, राजनीति एवं संस्कारग्रस्तता की बेड़ियों से स्त्री को मुक्त कराता है. लेकिन स्त्री-सरोकार को केंद्र में रखने के बावजूद नाटक जिस कौशल से रामगुप्त एवं चंद्रगुप्त की बायनरी बनाकर स्त्री के दुर्भाग्य और सौभाग्य को उसके कस्टोडियन पुरुष के चारित्रिक विन्यास में गूंथता है, वह स्त्री को केंद्र से गिरा कर हाशिये पर ले आने की यथास्थितिवादी मानसिकता ही है.
स्त्री के रूप में ध्रुवस्वामिनी यहां महज समस्या है, उदार संवेदनशील पुरुष की निर्माणाधीन छवि को ज्यादा चमकीला, ज्यादा दृश्यमान और ज्यादा असरदार बनाने के लिए उपयोग में लाया गया एक मोहरा! वह एक साथ बौद्धिक चेतना भी है; स्वतंत्र निर्णय न ले सकने की अकर्मण्यता भी; और मुक्ति के लिए मसीहा की तलाश करती परनिर्भर कातरता भी. साहित्यिक चरित्र की गढ़न दरअसल लेखक की अपनी दृष्टि और दुर्बलता, द्वंद्व और लक्ष्यपरकता का परिणाम होती है. इसलिए प्रसाद श्रद्धा और इड़ा की स्वायत्तता के बावजूद उन्हें जिस रूप में रचते हैं, वहां स्त्री पुरुष को पूर्ण बनाकर उसकी अधीनस्थ इयत्ता के रूप में अपनी सार्थकता मानने लगती है.
महानता के आवरण में लपेट दी गई कृतियों/कृतिकारों से टकराए बिना स्त्री-आलोचना स्त्री (एवं पुरुष) की सांस्कृतिक छवि की संरचना के साहित्यिक कारोबार को पाठक-समाज तक संप्रेषित नहीं कर सकती. महानता के आवरण के नीचे दुरभिसंधियां एवं क्रूरताएं भले न हों, संवेदनशीलता का अभाव और संकुचित दृष्टि का प्रसार अवश्य है. हिंदी जगत् महान नायकों की शान के खिलाफ एक भी शब्द नहीं सुनना चाहता. फौरेन ब्लैसफेमी के फतवे जारी हो जाते हैं. ‘Fraility thy name is woman’ कहकर स्त्री को परिभाषित करने वालों का जमाना अब लद गया है. स्त्री अब छाती तान कर, सिर ऊंचा कर, पैरों में चीते की फुर्ती भरकर, ऊँचे स्वर में दसों दिशाओं तक अपनी आवाज की गूंज फैलाने का दमदार विश्वास रखती है. इन ‘पुरुषोंचित‘ गुणों के कारण उसे कुलटा कहने वाले कथा-सम्राटों पर भले ही परंपरागत पुरुष-मानसिकता गर्व करती फिरे, वह ठसके से सिद्ध करना चाहती है की वेश्या समस्या उतनी भर नहीं जितनी ‘सेवासदन‘ में क्रांतिकारी दंभ और बौद्धिक भंगिमा के साथ कह दी गई है. वह समस्या को सतह पर देखने की भावुक कोशिश ही नहीं, समाज से घोर अपरिचय की एकांतिक मिसाल भी है जिसे अमृतलाल नागर (‘ये कोठेवालियां‘), कमलेश्वर (‘मांस का दरिया‘), जगदंबा प्रसाद दीक्षित (‘मुर्दाघर‘) और अनिल यादव (‘नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़तीं) अधिक विश्वसनीय एवं समाजशास्त्रीय आयाम देने की कोशिश करते हैं. हालांकि इससे पहले कुप्रिन (‘यामा द पिट‘) वेश्या समस्या को उसकी समग्रता में देखकर एमिली ज़ोला (‘नाना‘) को अप्रासंगिक कर चुके थे.
साहित्य को पूर्वापर क्रम में पढ़ने की प्रवृत्ति समय के भीतर छिपी विकास की क्रमिक चेतना को उजागर करती है जो बेहद अलक्षित भाव से स्त्री की नई छवि के बरक्स पुरुष के परिवर्तनशील स्वरूप पर भी प्रकाश डालती है. पुरुष-रचित साहित्य का स्त्री-पाठ समाज में लैंगिक पूर्वाग्रहों की जकड़बंदी को समझने का मार्ग प्रशस्त करता है. जिस तेजी से आज समकालीन पुरुष-लेखन में स्त्री-सरोकार और दमदार स्त्री-चरित्र नेपथ्य में जा रहे हैं, उसे साहित्य की नई प्रवृत्ति न कह कर समाज में स्त्री के प्रति बढ़ती असंवेदनशीलता का संकेतक मानना चाहिए जिसकी जमीनी हकीकतें यथार्थ जगत् में स्त्री के प्रति दिनोंदिन बढ़ते आपराधिक आंकड़ों में प्रतिबिंबित होती हैं. साहित्य की इतिहास-दृष्टि दरअसल समस्या को एक तार्किक प्रक्रिया के तहत समाजशास्त्रीय कोण से देखकर निष्कर्ष निकालने की समाजवैज्ञानिक प्रक्रिया है जो बेहतर भविष्य के लिए नई रणनीतियां बनाने की पीठिका बनती है.
आलोचना में सृजनात्मकता का तत्व सर्जक कलाकार की तरह मौलिक कथावस्तु एवं चरित्रों को गढ़ने में नहीं है; गढ़ी गई कथा एवं चरित्रों की विश्लेषणपरक मौलिक उद्भावना में है. अपनी मूल्य-दृष्टि द्वारा आलोचक टेक्स्ट और चरित्रों को जिस परिप्रेक्ष्य में देखता-गढ़ता है, वही एक समय के बाद मूल लेखक के स्वर और दिशा को निरस्त कर कृति को विशिष्ट पहचान देने लगता है. जैसे ‘उसने कहा था’ को आचार्य रामचंद्र शुक्ल की आलेचना के नक्शे-कदम पर चलते हुए अद्भुत प्रेम-कहानी का गौरव दिया जाता है, लेकिन इस प्रक्रिया में सूबेदारनी और लहना सिंह की मानवीय स्वायत्तता को प्रेम के जड़ प्रतीक में भी निबद्ध कर दिया जाता है. तब स्त्री-आलोचक के लिए यह देखना दिलचस्प हो जाता है कि पुरुष-आलोचक स्त्री-लेखन का मूल्यांकन करते समय टेक्स्ट के किन हिस्सों को एनलार्ज कर रहा है और किन्हें नजरअंदाज करके बेहद ‘संतुलित ढंग‘ से असंतुलन को साध रहा है. मीराबाई को भक्त कवयित्री कहने की प्रक्रिया में जब वह प्रताड़ित कुलवधू के क्रंदन को सुनने/दर्ज करने से इनकार करता है तो उसकी अपनी भूमिका विवाह संस्था की बदौलत अर्जित पुरुष-स्वामित्व को बनाए रखने वाले मेल शॉवनिस्ट से कुछ भिन्न नहीं रहती. आलोचना कृति को ही परिप्रेक्ष्य नहीं देती, आलोचक के व्यक्तित्व को भी पारदर्शी बना देती है.
समग्र एवं संवेदनशील दृष्टि से मनुष्य, संबंध और समाज को देखने की परिपक्वता स्त्री-आलोचना के स्वरूप को लोचशील और सुदृढ़ बनाने अन्य महत्वपूर्ण प्रतिमान है. अलबत्ता यहां स्वयं के प्रति असहमत हो प्रतिप्रश्न किया जा सकता है कि ‘समग्र’ जैसी निरपेक्ष एवं सर्वसमावेशी अवधारणा को ग्रहण कर पाना क्या मनुष्य की अपनी सीमाओं के चलते संभव है? फिर भी समग्र का अर्थ है ‘मैं’ की क्षुद्रता के घेरे तोड़ने की जद्दोजहद में उपजी संवेदनशील दृष्टि का विस्तार है जो ‘दूसरे’ को उसकी विशिष्टता में जानने का धीरज भी देती है और उस जानकारी के जरिए विविधता और बहुलता के प्रति न्यूनतम स्पेस की अपरिहार्य दायित्वशीलता भी विकसित करती है. समग्र दृष्टि के लिए सहिष्णुता और वैचारिक उदारता की जितनी जरूरत है, उससे कहीं अधिक जरूरी है आत्मालोचन करते रहने की व्यग्रता. प्रायः मनुष्य अपने आप को ही सबसे कम जानता है. इसलिए मोह और अहंकार के घालमेल से बनी भ्रांत धारणाओं के आधार पर वह अपना चरित्र ‘गढ़ता’ है. समग्रता में न एकांगी दृष्टि का अस्तित्व रहता है, न सुविधा से जुटाए गए अंश-समूहों के जरिए निर्णय पर पहुंचने की बेसब्री. स्त्री-आलोचना सबसे पहले स्त्री-लेखन को गहरी जिम्मेदारी एवं आलोचनात्मक दृष्टि से जांचने की वैचारिक प्रखरता है.
पुरुष रचित साहित्य का विश्लेषण करते समय जहां लेखक की समाजनिर्मित छवियों, संबंधों, अवधारणाओं से टकराने की प्रक्रिया उसे एक जैविक इकाई (पितृसत्ता की सीमाओं में आबद्ध न्यूनतम प्राणी), चेतना (वैचारिक उद्वेलन एवं आत्मसाक्षात्कार की जरूरत से ग्रस्त द्वंद्वात्मकता) या सृजन की दार्शनिक पीठिका (संबंधों का नया प्रारूप रचने की दायित्वशीलता) के संदर्भ में देखने का विवेक देती है, वहीं स्त्री-लेखन का विश्लेषण करते हुए अस्मिता की तलाश की प्रक्रिया में स्त्री-रचनाकार की ग्रंथियां, अंतर्दृष्टि, संघर्ष का घनत्व और समाज की पुनर्रचना का स्वप्न महत्वपूर्ण हो जाता है. दोनों ही स्थितियों में रचनाकार की ईमानदारी का निर्धारक तत्व एक ही है- आत्मालोचन. विजय के मादक उन्माद की तरह चूंकि रोने-गरियाने (निष्क्रियता) का सुख भी एक खास तरह के आनंद की सृष्टि करता है, इसलिए स्त्री-लेखन की शिनाख्त एक बड़ा बिंदु यह भी है कि स्त्री के विघटनशील सामाजिक अस्तित्व को वह कैसे एक मनुष्य-चिंतन में बदल रहा है. स्त्री-सरोकारों पर गहरी पकड़ स्त्री-लेखन के वजूद को स्थापित करती है, लेकिन पुरुष को जिस तरह ‘नर सूअर‘ या ‘हरामी‘ कहकर नकारात्मक ढंग से चित्रित करने का ‘उन्माद’ बढ़ा है, वह स्त्री-लेखन को (पुरुष) पाठक की नजर में वैसा ही अग्राह्य एवं अप्रमाणिक बनाता है, जैसा स्त्री-पाठक पुरुष-लेखन को पाती है. स्त्री-आलोचना स्त्री-लेखन का विश्लेषण मात्र नहीं है. वह अंतःप्रज्ञा से प्रदीप्त प्रगाढ़ आलोक है. वहां स्त्री के मुक्ति-संघर्ष के फलस्वरुप एक नया समाज धीरे-धीरे आकार लेता दिखाई देता है.
स्त्री की भाषा में आने वाले क्रमिक परिवर्तनों का समाजशास्त्रीय विश्लेषण स्त्री-आलोचना का एक अन्य प्रतिमान है जो निर्माणशील स्त्री-भाषा के संघर्ष और विकास का मानचित्र तैयार करता है. स्त्री-भाषा का विकास एक नई संवेदनशील समाज-चेतना के विकास का अक्स है. सौंदर्य की पुरुष-परिभाषा को ध्वस्त कर स्त्री-लेखन जिस सौंदर्यशास्त्र को गढ़ रहा है, वह देह की बजाय बुद्धि को, प्रतीक्षा की बजाए गतिशीलता को, शृंगार के बजाय श्रम को, कमनीयता की बजाए कर्मठता को वरीयता देकर ‘मनुष्य-स्त्री‘ को केंद्र में ला रहा है. यह स्त्री निस्संदेह ईव की पुत्री है जो बनायी गई पगडंडियों, अभिव्यक्ति के चिन्हों-माध्यमों और महानताओं के प्रति असंतोष ज़ाहिर करना जानती है.
प्रतिमान दरअसल आलोचक की दृष्टि का ही दूसरा नाम हैं. इन्हें तराजू के बाट की तरह ऊपर से आरोपित नहीं किया जा सकता, संवेदना एवं विचार की संघटनात्मक स्थिति में भीतर ही भीतर अर्जित किया जाता है. इसलिए बुनियादी बोहेमियन चरित्र, ईमानदारी और सिर पर कफन बांधने की निर्भीकता स्त्री-आलोचना के मज़बूत टूल्स के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं.
रोहिणी अग्रवाल rohini1959@gamil.com |
बहुत समृद्ध लेख,जो बार बार गंभीर पठन की मांग करता है।बधाई रोहिणी जी।
पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री की हैसियत सदा से दोयम दर्जे की रही है।इसकी जड़ें मजबूत और बहुत गहरी हैं। स्त्री की आर्थिक आत्मनिर्भरता से ये जड़ें कमजोर पड़ेंगी। गाँव-देहातों में यह अब भी नगण्य है।महानगरों में इनकी स्थिति अपेक्षाकृत कुछ बेहतर है।हमें इस दिशा में ध्यान देना है कि उनकी आर्थिक,सामाजिक और राजनीतिक भागीदारी और बढ़े।आधी आबादी के हिसाब से कम से कम पचास फीसदी तक। यह आलेख स्त्रीवाद पर एक गंभीर विवेचना है जो उतनी ही गंभीरता से पढ़ा जाना चाहिए।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत करता प्रबोधक लेख। भारतीय सांस्कृतिक इतिवृत्तों के विखंडन और हिन्दी आलोचना में स्त्री- लेखन के अलक्षक्षित पहलुओं पर रोहिणी जी की अन्तर्दृष्टियां आलोकित करती हैं। इस लेख के निहितार्थ बहुत आगे तक जायेंगे। समालोचन की एक और उल्लेखनीय उपलब्धि !
आपको पढ़ते हुए मैंने हिंदी साहित्य की परंपरा, अवधारणाएं और आलोचनात्मक पद्धति और लेखकों के लेखन के बारे में जाना समझा और खोजकर पढ़ा है।आपके लिखे से गुजरते हुए चिंतनशीलता की संपूर्ण खुराक प्राप्त हो जाती है। आप शतायु हों
आज कल स्त्री सभी क्षेत्रों में आगे है।
ऐसा आलेख जिसने समृद्ध किया चेतना को भी और प्रज्ञा को भी!
प्रणाम