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Home » एक प्रदीप्त अँधेरा: यून फ़ुस्से : तेजी ग्रोवर

एक प्रदीप्त अँधेरा: यून फ़ुस्से : तेजी ग्रोवर

इक्कीसवीं सदी के बेकेट के रूप में विख्यात यून फ़ुस्से (1959) को 2023 के साहित्य का नोबेल पुरस्कार देते हुए उनके नाटकों की नवोन्मेषी प्रकृति और उसके माध्यम से अनकहे को आवाज़ देने के उनके सृजनात्मक उद्यम को रेखांकित किया गया है. यून फ़ुस्से ने प्रचुर मात्रा में लेखन किया है, उनके नाटक 50 से अधिक भाषाओं में हजार से अधिक बार मंचित हुए हैं. प्रख्यात कवि और लेखिका तेजी ग्रोवर ने 2016 में यून फ़ुस्से के उपन्यास ‘DET ER ALES’ का अनुवाद हिंदी में ‘आग के पास आलिस है यह’ शीर्षक से किया था. इसके साथ ही 1998 में प्रकाशित उनकी एक कहानी ‘I Could Not Tell You’ का हिंदी अनुवाद भी किया था, जिसका अंग्रेजी अनुवाद 2005 में प्रकाशित हुआ. यह अनुवाद इसी पर आधारित है. इस कहानी में पैराग्राफ़ नहीं हैं. वाक्य जटिल और बड़े हैं. तेजी ने अनुवाद में मूल के शिल्प को सुरक्षित रखा है. इस ख़ास अवसर पर यह अंक प्रस्तुत है.

by arun dev
October 7, 2023
in अनुवाद
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एक प्रदीप्त अँधेरा: यून फ़ुस्से : तेजी ग्रोवर
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यून फ़ुस्से
एक प्रदीप्त अँधेरा
टिप्पणी और अनुवाद: तेजी ग्रोवर

मुझे वर्षों से लगता आया है कि नॉर्वे पिछले कई दशकों से उपन्यासों और कहानियों में वैसा ही समृद्ध रहा आया है जैसे कुछ दशक पहले लातिन अमेरिका. कनूत हाम्सुन को, जो नॉर्वे के दूसरे नोबेल पुरस्कार विजेता थे, 1920 में इस पुरस्कार से नवाज़ा गया था. उनकी तीन महत्वपूर्ण कृतियों का अनुवाद करने के बाद रुस्तम और मैंने हेनरिक इब्सन के दो नाटकों का अनुवाद हिन्दी में किया और इसके बाद समकालीन नॉरवीजी साहित्य को पढ़ते-पढ़ते हम उन लेखकों का चुनाव करने लगे जिन्हें हिन्दी के पाठकों के सम्मुख लाना हमें निहायत ज़रूरी लगने लगा. इसी सिलसिले में कई वर्षों के अध्ययन के दौरान हम दोनों ने अपने-अपने लेखकों का और उनकी विशिष्ट कृतियों का चयन और अनुवाद का काम बड़े मनोयोग से शुरू कर दिया.

यून फ़ुस्से  के लगभग 25 नाटक मैं पढ़ चुकी थी. इन नाटकों को शेक्सपियर और इब्सन के बाद विश्व भर में सबसे अधिक मंचित नाटकों में माना जाता है. फ़ुस्से  की कृतियों में मृतकों या बिछुड़े हुए अज़ीज़ों की स्मृतियों का ऑब्सेसिव फंतासी में मंत्रोच्चार सरीखा रूपायित हो जाना मेरे लिए एकदम नवीन पठन अनुभव था. कहीं-कहीं तो पाँच पीढ़ियों के जीवित और मृत लोग एक ही खूंटी पर अपने कपड़े टाँगते हुए दहलीज़ को पार कर घर में दाख़िल होते दीख पड़ते हैं.

मैं तुम्हें बता नहीं सकता था मैंने अंग्रेज़ी अनुवाद के जिस संकलन में पढ़ी उसमें बहुत से नॉरवीजी कहानीकार शरीक़ थे. फ़ुस्से  की यह कहानी उस अकथ को वाणी प्रदान करने की बेहतरीन मिसाल है जिसने मुझे घोर विस्मय में डाल दिया. मैंने पहले कभी ऐसा कोई पाठ नहीं पढ़ा था जो इतने कम वाक्यों के अथक दोहराव से अर्थों की अन्तहीन अनुगूँज उत्पन्न करते करते अज्ञात से ज्ञात से पुनः अज्ञात के प्रान्त में लरज़ता रहे. मेरे द्वारा सम्पादित और अनूदित संकलन दस समकालीन नॉरवीजी कहानियाँ में नॉरवीजी कहानीकारों की एक से एक उत्कृष्ट और बेजोड़ कृति को स्थान देने की प्रक्रिया में फ़ुस्से  की इस कहानी को भी शरीक़ किया गया.

वर्ष 2016 में फ़ुस्से  का एक उपन्यास DET ER ALES मेरे अनुवाद में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ. शीर्षक है ‘आग के पास आलिस है यह’.

उन्होंने अपने अंग्रेज़ी अनुवादक डेमियन सर्ल्ज़ को ईमेल में बड़े उत्साह और बाल-सुलभ हर्षातिरेक से यह जानकारी दी: सोचो अब हिन्दी में भी मुझे पढ़ा जाएगा.

मुझे बहुत पहले से मालूम था उन्हें नोबेल पुरस्कार मिलकर रहेगा. कई वर्षों से वे अटकलों की सूची में बने रहे हैं. हालाँकि एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि अगर यह पुरस्कार उन्हें मिल जाता है तो वे कह नहीं सकते उनके लेखन पर इसका दुष्प्रभाव होगा या नहीं. वे जब तक हो सके इसके आतंक से बचना चाहते थे.

उनके लेखन के अंधकार को आलोचक Luminous Darkness मानते हैं. इस शीर्षक से एक आलोचनात्मक पुस्तक उनके लेखन पर लिखी भी गयी है

तेजी ग्रोवर

2008 के विश्व पुस्तक मेले में ‘दस समकालीन नॉरवीजी कहानियाँ’ के लोकार्पण के अवसर पर तेजी ग्रोवर, अशोक वाजपेयी और नार्वे के प्रधानमंत्री यून स्टूलटेनबेरी ( सफेद शर्ट और टाई में) आदि.

 

यून फ़ुस्से
मैं तुम्हें बता नहीं सकता था
अनुवाद तेजी ग्रोवर

 

जीवन में ऐसी कई चीज़ें होती हैं जिन्हें आप छोड़ नहीं सकते, कम से कम मेरे जीवन पर तो यह बात लागू होती है, मुझ बूढ़े होते आदमी के जीवन पर, मैंने जीवन में ऐसी कई चीज़ें देखी हैं जो हमेशा देखता रहूँगा, उन चीज़ों की क्षणिक दीप्ति जो घट चुकी है, दीप्तिमान आभास जैसा कि मैं उन क्षणों के बारे में कहना चाहूँगा, ऐसा दीप्तिमान आभास जो मुझमें जड़ पकड़ बैठा है, इतना गहरा इसलिए उतर गया है क्योंकि उसमें कुछ अर्थ भरा हुआ है जिसे मैं समझ नहीं सकता, ऐसा अर्थ जोकि शायद अर्थ भी नहीं है, शायद चीज़ों की उस क्षणिक दीप्ति का कोई अर्थ नहीं होता, याकि और लोगों के लिए तो नहीं ही. और अब जबकि कुछ ही समय में मैं मर जाने वाला हूँ, वे आभास भी मेरे साथ मर जायेंगे, आभास चले जायेंगे, लेकिन इससे शायद इतना फ़र्क नहीं पड़ता, क्योंकि वे आभास ग़ायब हो भी चुके हैं, ये बहुत समय पहले की बात है कि उन घटनाओं के आभास समय में स्थित थे, स्पेस में, एक बिन्दु पर जहाँ समय और स्पेस मिलते हैं, उन आभासों के अस्तित्व में रहे आये होने को बहुत समय हो चुका है, वे आभास जा चुके हैं, बहुत समय हो गया है उन आभासों को गये हुए. जैसे तुम भी बहुत समय से जा चुकी हो. तुम, जो मेरे भीतर इतनी मज़बूती से जड़ जमा चुकी हो, क्षणिक दीप्तियों के माध्यम से जिनमें मैं तुम्हें देख सकता हूँ, जिनमें मैं तुम्हें कुछ करते हुए देख सकता हूँ, वे आभास भी कब के जा चुके हैं. सभी कुछ चला गया है, तुम चली गयी हो. वह समय जब यह घटना घटी, वह भी. मैं भी ज़्यादा देर ज़िन्दा नहीं रहूँगा. ऐसा ही है यह सब. लेकिन मैं तुम्हें पहली बार देखता हूँ, तुम्हें स्कूल के अहाते को पार करते हुए देखता हूँ, और तब से मैं तुम्हें स्कूल के अहाते को पार करते हुए देख रहा हूँ, तुम्हारे चलने में कुछ ऐसा था, जैसे तुम चलकर जा रही थीं, जैसे तुम हल्की-सी आगे को झुकी हुई थीं, जैसे किसी बात पर नाज़ होने जा रहा था तुम्हें, लेकिन इसके साथ ही तुम शर्मसार भी थीं और छिप जाना चाहती थीं, मैंने तुम्हें स्कूल के अहाते को पार करते हुए देखा, तुम्हारी चाल में कुछ ऐसा था, तुम्हारे काले बालों के साथ, एक जैकेट जो बहुत ढीली-सी तुमपर झूल रही थी. जब मैंने तुम्हें स्कूल का अहाता पार करते हुए देखा मुझे कुछ हो गया. मुझे नहीं मालूम वह क्या था, मुझे नहीं मालूम वह क्या है. ख़ैर, इसका कुछ भी अर्थ नहीं है, कोई फ़र्क नहीं पड़ता इससे, लेकिन ऐसे ही दीप्तिमान आभास, जैसे उस समय तुम्हारे चलने के ढंग में जब तुम स्कूल का अहाता पार कर रही थीं, उसी स्कूल में, उसी साल, ठीक उसी सुबह, नये स्कूल में तुम्हारा पहला दिन, पतझड़ के मौसम के बीचों-बीच किसी समय, तुम्हारे चलने के ढंग में वह क्या चीज़ थी जो ऐन उसी वक्त मेरे भीतर जड़ पकड़ बैठी, इतना गहरे में उतर गयी, केवल मेरी स्मृति में ही नहीं, लेकिन मेरे ख़ुद के चलने के ढंग में. मैंने तुम्हें स्कूल के अहाते को पार करते हुए देखा, पतझड़ की एक अलस्सुबह और तुम्हारी चाल में कुछ ऐसी चीज़ को देख लिया मैंने कि मुझमें एक बदलाव आ गया, जब तुम आधे-से अँधेरे में स्कूल के अहाते को पार कर रही थीं. ख़ैर, तुम्हें तो हँसना ही है. हँसना ही है तुम्हें. इसका कोई अर्थ नहीं है, लेकिन मैं इसके साथ-साथ उस चीज़ के अन्त की ओर चल रहा हूँ जो मैं देखने जा रहा हूँ, और वह तुम हो, पतझड़ की एक अलस्सुबह स्कूल के अहाते को पार करती हुई, यही मैं सबसे साफ़-साफ़ देखता हूँ अपने मन की आँख में, यही वो चीज़ है जो मेरे लिए सबसे ज़्यादा अर्थ से भरी है, यह, और एक और एक अन्य क्षणिक दीप्ति, वह दीप्तिमान आभास जब तुम स्कूल की कैण्टीन में बैठी हो,  कुछ अन्य लोगों के साथ, लेकिन तुम उनके साथ नहीं हो, तुम दूसरों के साथ बैठी हो और अपने आप में भी, अकेली, तुम अकेली दूसरों के साथ बैठी हो, और अपने आप में भी, अकेली, तुम अकेली दूसरों के साथ बैठी हो अपने काले बाल लिये, मेज़ के एक-एक छोर पर, जहाँ तुम अक़्सर बैठती हो, मैंने कितनी बार देखा है तुम्हें वहाँ बैठे हुए, लेकिन इस एक बार मुझे याद है कि तुम वहाँ बैठी हुई थीं, और तुम्हारी आँखों में कुछ था, तुम्हारे नज़र उठाकर देखने के ढंग में कुछ ऐसा था, तुम्हारी निगाह में कुछ ऐसा जो मैं कभी नहीं समझ सकता,  वहाँ कुछ था, तुम्हारी आँखों में, जो मुझमें गहरा उतर गया था, मैं नहीं समझ सकता वह क्या था,या है, लेकिन तुम वहाँ बैठी थीं, तुम बैठी थी वहाँ, और तुमने ऊपर देखा, बस तुम बैठी थीं, तुमने ऊपर देखा, और उस निगाह के बारे में मैं जो कुछ भी कहता हूँ वह ठीक नहीं लगता, उस निगाह का वर्णन करना सम्भव ही नहीं है, तुम्हारी निगाह में बहुत कुछ था, उस सुबह, स्कूल की एक कैण्टीन में, जहाँ तुम मेज़ के एक छोर पर बैठी थीं, अकेली बैठी थीं, क्षण भर के लिए, सिर्फ़ वहीं, और सिर्फ़ उसी समय. मैं भूल नहीं सकता उस समय जो मैंने तुम्हारी निगाह में देख लिया था. वह मुझमें जड़ पकड़ चुका है. मैं जो कुछ भी रहा हूँ उसमें वह है. मैं समझ नहीं सकता मैं उस चीज़ को क्यों नहीं भूल सकता जो मैंने उस वक्त तुम्हारी आँखों में देखी थी. मैं उसे अपने भीतर सँजोकर रखता हूँ, कहीं गहरे में, भीतर, मेरी अपनी निगाह का हिस्सा बन चुका है वह, क्योंकि जब मैं देखता हूँ, मैं भी उसी निगाह से देखता हूँ जो मैंने तुम्हारी निगाह में देखी थी. यह एक ऐसी चीज़ है जिसे समझ पाना सम्भव नहीं है, ऐसी चीज़ जो दरअसल कुछ नहीं कहती, जिसका कोई अर्थ नहीं है, लेकिन अब, जब कि मेरा जीवन भी समाप्त होने को आ रहा है, क्योंकि ऐसा है, जो मैंने उस घड़ी तुम्हारी निगाह में देखा था वह मेरी देखी हुई चीज़ों में सबसे साफ़-साफ़ चमक रहा है. सुनने में यह ठीक नहीं लगता, मूर्खतापूर्ण लगता है, क्योंकि जितने भी लोगों से मैंने प्रेम किया है, जो कुछ मैंने देख रखा है, जो कुछ भी घटा है मेरे जीवन में, तुम्हारी हरक़त में, जैसे तुम्हारा शरीर हरक़त में आता है, एक अलस्सुबह, पतझड़ के बीचों-बीच, जब तुम नयी छात्रा के रूप में मेरे स्कूल में आयी थीं, वह मेरी देखी हुई चीज़ों में सबसे साफ़-साफ़ उभरता है. यह भयावह है, एक तरह से असम्भव है यह. यह भी असम्भव है कि तुम्हारी निगाह में, देर सुबह, स्कूल की एक कैण्टीन में, जहाँ तुम मेज़ के एक छोर पर बैठी थीं, अकेली दूसरों के साथ, जहाँ तुम अपनी वे आँखें लिये बैठी थीं, और तुमने नज़र उठाकर देखा था, यह असम्भव है कि उस समय जो मैंने तुम्हारी आँखों में देखा वह मेरे जीवन की सबसे अर्थपूर्ण चीज़ों में से है, एकदम अर्थ से शून्य जोकि वह दरअसल है, जो मैंने अपने जीवन में देखा. मुझे यकीन है कि अगर तुम्हें पता होता, तुम झेंप जातीं और तब तुम मुझसे कभी बात न करतीं, बहुत विचित्र होता, बड़ा मुश्किल, क्योंकि मैं तुम्हारी मामूली-सी किसी हरक़त में, बिलकुल मामूली सी किसी निगाह में क्या-क्या न ढूँढ़ लेता, तो मेरी उपस्थिति में तब तुम कैसा महसूस करतीं, कुछ सख़्त-सी पड़ गयी चीज़ की तरह, किसी ऐसी चीज़ की तरह जिसे ग़ायब हो जाना था, मुझे यकीन है तुम ऐसा ही महसूस करतीं, अगर मैं तुम्हें बता देता कि तुम्हारे जिस्म की हरक़त में वह क्या चीज़ थी, उस सुबह, मेरे स्कूल में तुम्हारी पहली सुबह, पतझड़ की वह सुबह, एक ठण्डी आधी-सी रोशनी में, हल्की-सी बारिश में, वह हल्की-सी हवा, और कि इस सबका मेरे लिए क्या अर्थ निकल आया था. तुम इसे बिलकुल न समझ पातीं, मेरे साथ रह ही न पातीं. और अगर मैं तुम्हें बता देता कि तुम्हारी निगाह में ऐसा क्या था, उस देर सुबह, स्कूल की एक कैण्टीन में, जब तुम दूसरों के साथ अकेली बैठी थीं, जब तुमने नज़र उठाकर देखा था, यदि मैं बता देता तुम्हें कि उसका मेरे लिए क्या अर्थ था, तुम उन सालों पर इतनी खुली दृष्टि न दौड़ा पातीं जो हमने साथ-साथ बिताये थे, मुझे पक्का पता है. इसीलिए मैंने तुम्हें बताया नहीं था. या शायद मैंने सिर्फ़ ख़ुद को यकीन दिला लिया था कि तुम बँध जातीं. शायद मुझे बता ही देना चाहिए था तुम्हें. जब तुम मर रही थीं मैंने हाथ थाम लिया था तुम्हारा, तब भी मैंने तुम्हें नहीं बताया. मैंने तुम्हारी साँस को मन्द पड़ते हुए सुना, साँस को बन्द होते हुए सुना, साँस को ख़त्म हो जाते हुए सुना, बहुत समय तक ग़ायब रहे हुए सुना, फिर तुम्हारी आँखों में जीवन को देखा, देखा कि लौट आ रही है तुम्हारी साँस, फिर ग़ायब हो जा रही है, फिर तुम्हारी साँस चली गयी थी और तब, बिलकुल तभी, मैंने देखा जो तुम्हारी निगाह में था कमरे में चल फिर रहा था, जो तुम्हारे जिस्म की हरक़त में था, उसके साथ, मैंने देखा कि जो तुम्हारी निगाह और जिस्म की हरक़त में था वह बदल रहा था, एक दीप्तिमान आभास में, किसी ऐसी चीज़ में जो ज़रा धुँधली होकर अस्पष्ट हुई और फिर ग़ायब हो गयी. मैंने तुम्हारी निगाह को ख़ाली होते हुए देखा. मैंने तुम्हारी आँखों को अन्तिम बार देखा. मैंने तुम्हारी पलकों को बन्द किया. और मैंने तुम्हारी आवाज़ को सुना, एक ऐसी आवाज़ जिसे मैंने कई बार सुना था, तुम्हारी आवाज़ को कुछ यूँ सुना था जैसे मैं हमेशा के लिए, जब तक मैं ज़िन्दा हूँ, इससे पहले कि मैं भी ग़ायब हो जाऊँ और तुम्हारी आवाज़, ठीक वहीं, ठीक उसी वक्त ग़ायब हो जायेगी, मेरे साथ, मैंने तुम्हारी आवाज़ को सुना था, दोपहर थी वह, सभागार में कोई मीटिंग चल रही थी उस स्कूल में जहाँ हम जाते थे, किसी ने तुमसे कुछ पूछा था, तुम खड़ी हो गयी थीं, तुमने कुछ कहा था, तुम फिर बैठ गयी थीं, मुझे याद नहीं मीटिंग किस चीज़ के बारे में थी, मुझे याद नहीं तुमने क्या कहा था, लेकिन तुम्हारी आवाज़ में कुछ ऐसा था, जैसे तुम्हारी आवाज़ और तुम्हारा शरीर परस्पर सम्बद्ध हों, जब तुम उठ खड़ी हुई थीं, तुम्हारी आवाज़ में कुछ ऐसा था, कुछ ऐसा जिसे मैं तभी से सुन रहा हूँ, मुझे नहीं मालूम तुमने कहा क्या था, मुझे याद नहीं, इसका कोई अर्थ नहीं, इसका, लेकिन इससे ज़रा भी फ़र्क नहीं पड़ता, लेकिन तुम्हारी आवाज़ में कुछ ऐसा था उस दोपहर, वहाँ, सभागार में, स्कूल में, तुम्हारी आवाज़ में कुछ ऐसा था, जब तुम खड़ी हो गयी थीं, अपने काले बाल लिये, कुछ ऐसा था तुम्हारी आवाज़ में, कुछ ऐसा था तुम्हारी आवाज़ में जिसे मैं तब से सुनता चला आ रहा हूँ. मैंने कभी तुम्हें बताया नहीं. ऐसी चीज़ें मैं तुम्हें नहीं बता सकता. मैं नहीं बता सकता तुम्हें कि तब से लेकर अब तक जो कुछ भी तुमने कहा है उसका मेरे लिए उतना अर्थ नहीं है जितना उस दोपहर में तुम्हारी आवाज़ का, वह आवाज़ जिसमें कुछ ऐसा था, सभागार में, उस स्कूल में जहाँ हम जाते थे, जहाँ तुम कुछ तो भी कह रही थीं जो मुझे याद नहीं है. मैंने तुम्हें स्कूल के अहाते को पतझड़ की एक अलस्सुबह पार करते हुए देखा था, ठण्डी आधी-सी रोशनी में तुम्हारी चाल में कुछ ऐसा देखा था जो मुझे हमेशा याद रहा है. और मेंने तुम्हें मेज़ के एक छोर पर बैठे हुए देखा था, स्कूल की एक कैण्टीन में, तुमने नज़र उठाकर देखा तो मैंने तुम्हारी निगाह में कुछ ऐसा देखा जो मुझे हमेशा के लिए याद रहा आया. और मैंने तुम्हें खड़े हुए देखा, एक दोपहर, सभागार में, उस स्कूल में जिसमें हम जाते थे, और मैंने तुम्हारी आवाज़ में कुछ ऐसा सुना जिसने मुझे कभी नहीं छोड़ा. अब तुम चली गयी हो. जब तुम मर रही थीं तुम्हारी हरक़त में कुछ ऐसा था, तुम्हारी निगाह में, तुम्हारी आवाज़ में, जो मेरे भीतर से गुज़र गया और कमरे में भर खिड़की के बाहर अँधेरे होते आसमान में फैल गया, उस अस्पताल के कमरे के बाहर जहाँ हम थे. मुझे नहीं मालूम वह क्या था, मुझे नहीं मालूम वह क्या है. मैंने तुम्हें यह कभी न बताया होता अगर तुम ज़िन्दा होतीं, इससे तुम्हारे लिए सब कुछ बड़ा कठिन हो जाता, क्योंकि मैं बस इतना ही चाहता था कि तुम्हारा शरीर ठीक वैसी ही हरक़त करे, जब तुम जाग गयी थीं, थकी हुईं और टट्टी करना चाहती थीं, जब तुम बहुत गुस्सा थीं, जब तुम ख़ुश थीं; जब तुम गुस्से से फट पड़ी थीं और मुझे टट्टी का सुड्डा कहकर पुकार रही थीं, मैं चाहता था तुम्हारा शरीर वैसी ही हरक़त करे जैसी वह चाहता था, मैं तुम्हें बताना नहीं चाहता था, नहीं बताना चाहता था कि मैं उस दीप्तिमान आभास के साथ चलता फिरता रहा, जैसा कि मैं उस क्षणिक दीप्ति के बारे में कहना चाहता हूँ, मेरे भीतर, उस चीज़ के साथ चलता फिरता रहा जो तुम्हारे शरीर में हरक़त कर रहा था, या तुम्हारे शरीर में हरक़त पैदा कर रहा था, जब तुम स्कूल के अहाते को पार कर रही थीं, उस सुबह, मेरे भीतर. मैं तुम्हें उसके बारे में कुछ भी बताना नहीं चाहता था जो मैंने तुम्हारी निगाह में देखा था. तुम्हें वैसे ही देखना था जैसे तुम देखना चाहती थीं, इस बात की परवाह किये बिना कि मैं अपने भीतर तुम्हारी निगाह को लिये चल फिर रहा था, तुम्हारी निगाह को अपनी निगाह में लिये चल फिर रहा था. और मैं तुम्हें बता नहीं सकता था कैसे तुम्हारी आवाज़ मेरे भीतर घर कर गयी है, तब तुम्हारी आवाज़ ठीक से गुस्सा नहीं सकती थी, एक मायने में, जैसे वह अब हो सकती थी, उन सभी घड़ियों में जब तुम मुझे खरी-खोटी सुनाती थीं, पूरा दिन, हर रोज़ कहती थीं कि मैं टट्टी हूँ, कि भाड़ में जाये सब. तुम्हें इजाज़त होनी चाहिए थी कि तुम अपनी आवाज़ को अपने तक रख सको. मैंने कभी तुम्हें बताया नहीं कि तुम्हारी आवाज़ में कुछ ऐसा था जो कहीं गहरे धँस गया था मेरे भीतर. अब तुम मर चुकी हो. अब तुम वुजूद में नहीं हो. अब तुम्हारी हरक़त वुजूद में नहीं है, तुम्हारी निगाह, तुम्हारी आवाज़. उनका वुजूद मेरे भीतर है, फ़िलहाल. और मैं मरने से डरता नहीं हूँ.


‘दस समकालीन नॉरवीजी कहानियाँ ‘यहाँ से प्राप्त कर सकते हैं.
‘आग के पास आलिस है यह’ यह उपन्यास आप यहाँ से प्राप्त कर सकते हैं.

तेजी ग्रोवर, जन्म १९५५. कवि, कथाकार, चित्रकार, अनुवादक. छह कविता संग्रह, एक कहानी संग्रह, एक उपन्यास, एक निबंध संग्रह और लोक कथाओं के घरेलू और बाह्य संसार पर एक विवेचनात्मक पुस्तक. आधुनिक नोर्वीजी, स्वीडी, फ़्रांसीसी, लात्वी साहित्य से तेजी के तेरह पुस्तकाकार अनुवाद मुख्यतः वाणी प्रकाशन, दिल्ली, द्वारा प्रकाशित हैं.  इसके अलावा स्वीडी भाषा में 2019 में उनकी कविताओं का संचयन।

भारत भूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार, रज़ा अवार्ड,  और वरिष्ठ कलाकारों हेतु राष्ट्रीय सांस्कृतिक फ़ेलोशिप. १९९५-९७ के दौरान प्रेमचंद सृजनपीठ, उज्जैन, की अध्यक्षता. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में वाणी फाउंडेशन का विशिष्ट अनुवादक सम्मान (२०१९), स्वीडी शाही दम्पति द्वारा दी गयी Knight की उपाधि, रॉयल आर्डर ऑफ पोलर स्टार.

तेजी की कविताएँ देश-विदेश की तेरह भाषाओँ में, और नीला शीर्षक से एक उपन्यास और कई कहानियाँ पोलिश और अंग्रेजी में अनूदित हैं. उनकी अधिकांश किताबें वाणी प्रकाशन से छपी हैं.

2016-17 के दौरान Institute of Advanced Study, Nantes, France, में फ़ेलोशिप पे रहीं जिसके तहत कविता और चित्रकला के अंतर्संबंध पर अध्ययन और लेखन. प्राकृतिक पदार्थों से चित्र बनाने में विशेष काम, और वानस्पतिक रंग बनाने की विभिन्न विधियों का दस्तावेजीकरण. अभी तक चित्रों की सात एकल और तीन समूह प्रदर्शनियां देश-विदेश में हो चुकी हैं.
tejigrover@yahoo.co.in

Tags: 20232023 अनुवाद2023 के साहित्य के नोबेल पुरस्कार विजेता यून फ़ुस्से की एक कहानी का हिंदी अनुवादJon Fosseतेजी ग्रोवरयून फ़ुस्से
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Comments 12

  1. आलोक धन्वा says:
    2 years ago

    मेरी हार्दिक बधाई प्रिय तेजी ग्रोवर को भी।

    Reply
  2. प्रेम शशांक says:
    2 years ago

    तेजी जी का अनुवाद बहुत सुंदर है। अनुवाद की कसौटी ही यह होती है कि पढ़ते समय यह आभास न हो कि हम कोई अनुवादित रचना पढ़ रहे हैं। कथाकार की खूबी भी उभर कर आती है। आप सभी को बधाई।

    Reply
  3. आनंद प्रवीण says:
    2 years ago

    “आग के पास आलिस है यह” किताब को जब भी देखता हूँ, मुझे खुद पर गर्व होता है कि मैंने उस रचनाकार को पढ़ा जिन्हें बाद में साहित्य का सबसे बड़ा पुरस्कार मिला।

    Reply
    • Sushil Sharma says:
      2 years ago

      पहली बार पढ़कर मुझे बहुत अच्छा लगा। तेजी जी का अनुवाद बहत ही महत्वपूर्ण है। दोनों को मेरा सलाम।

      Reply
  4. Leeladhar Mandloi says:
    2 years ago

    यह एक अनुवाद आभासीय नहीं है।इसमें शब्द,वाक्य,अल्प विराम ,वाक्य अर्थ की भीतरी दीप्ति में जीवन के लिए रोशन
    हैं।एक उदास रोशनी है और प्रेम की प्रवहमानता है।साधुवाद।

    Reply
  5. चंद्रकांत पाटील says:
    2 years ago

    संश्लिष्ट अनुभवों की अद्भुत रचना जो मूल रचनाकार के साथ साथ अनुवादक के भाषा सामर्थ्य को भी उजागर करता है। तेजी जी की कविताओं की भाषा से कितना करीब है अनुवाद!

    तेजी जी को तथा समालोचन को मन:पूर्वक बधाई !

    Reply
  6. पृथ्वीराज तौर says:
    2 years ago

    बहुत सुंदर अनुवाद. जल्द ही आग के पास आलिस है यह भी पढूंगा.

    Reply
  7. Vijay Sharma says:
    2 years ago

    तेजी ग्रोवर की किताब ‘भूख’ मेरे पास है और पढ़ी है, इस लेखक को भी नोबेल मिला था। यह कहानी भी बहुत सुंदर तरीके से अनुवादित है। कल ही कह रही थी कि हिन्दी में बहुत कम अच्छे अनुवाद मिलते हैं। इस कहानी को पढ़ते हुए अनुवाद के स्थान पर मूल का आस्वाद प्राप्त होता है। समालोचन बेहतरीन कार्य कर रहा है। समालोचन, तेजी ग्रोवर एवं अरुण देव आपको साधुवाद। तेजी ग्रोवर के विषय में मित्र जयशंकर ने बताया। मेरी संवेदनाएँ उनके साथ हैं।

    Reply
  8. Ashok Agarwal says:
    2 years ago

    इस कहानी के बारे में तत्काल कुछ नहीं कहा जा सकता, न ही इसके प्रभाव से मुक्त हुआ जा सकता। अभी अभी सिर्फ इतना ही विलक्षण कहानी और उतना ही विलक्षण अनुवाद। तेजी का विषाद और अवसाद इसमें घुल मिल गया है.

    Reply
  9. बजरंगबिहारी says:
    2 years ago

    वाचाल होते हुए भी बड़बोली कहानी नहीं है यह।
    प्रेम का प्रवाह ऐसा कि भाषा ही द्रवीभूत हो बहने लगी।
    मुझे तो जेम्स जॉयस की याद आई।
    जैसे पश्यंती ही प्रकट हो गई हो। मध्यमा और बैखरी तक पहुँचने की प्रक्रिया ही थम जाए।

    तेजी ग्रोवर को मेरा सलाम।

    Reply
  10. Pragya pandey says:
    2 years ago

    बहुत सुंदर कहानी अनुवाद की शक्ल में पढ़ी। धन्य हुई। तेजी जी के प्रति कृतज्ञ हूं।

    Reply
  11. Hiralal Nagar says:
    2 years ago

    वर्ष 2022 के नोबल पुरस्कार विजेता यून फुस्से के लेखन को लेकर कथाकार तरुण भटनागर तथा सुपरिचित लेखिका और कवयित्री के लेख तथा अनुवाद ठीक लगे।
    नार्वे के इस महान लेखक के लेखन को समझने में इन्होंने बड़ी मदद की।
    धन्यवाद व आभार के साथ।
    हीरालाल नागर

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समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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