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Home » बांग्ला स्त्री-आत्मकथाएं: गरिमा श्रीवास्तव » Page 2

बांग्ला स्त्री-आत्मकथाएं: गरिमा श्रीवास्तव

ब्रिटिश काल में बंगाल राष्ट्रवाद के उदय और सामाजिक-धार्मिक सुधारों का महत्वपूर्ण स्रोत था, उसका गहरा असर हिंदी प्रदेशों पर भी पड़ा. ऐसे में उस समय की बांग्ला स्त्रियाँ किस तरह से इनमें अपनी सक्रियता दिखा रहीं थीं, हो रहे बदलावों से किस तरह अपने को जोड़ रहीं थीं और स्त्री मुद्दों पर उनकी क्या राय थी तथा उनके अंतर्मन में क्या चल रहा था आदि की विवेचना स्त्री-अध्ययन के लिए आवश्यक है. आलोचक प्रो. गरिमा श्रीवास्तव ने ज्योतिर्मयी देवी(आमार लेखार गोड़ार था), सरलादेवी चौधरानी (जीबनेर झरापाता), शांतिसुधा घोष(जिबोनेर रंगमंचे) तथा मणिकुंतला सेन(शे दिनेर कथा) की आत्मकथाओं की गहरी विवेचना की है और औपनिवेशिक काल के स्त्री प्रश्नों को यहाँ विवेचित किया है.

by arun dev
August 4, 2021
in आलेख
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Jyotirmoyee Devi

ज्योतिर्मयी देवी अपने संस्मरण में स्त्री-अधीनता पर बहुत गंभीरता से विचार करती हैं. वैसे तो स्त्री अधीनता को विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से व्याख्यायित किया है. वास्तविक अधीनता और अधीनता के भ्रम में स्वभावतः ही अंतर होता है. दरअसल अधीनता की स्थिति हमें अपने बारे में जानकारी की ओर ले जाती है , जिसे हम जानते हैं या जानने की कोशिश करते हैं. यह आत्मचेतस होने की प्रक्रिया है जो हमें हमारी सीमाओं और संभावनाओं की जानकारी देती है. पुस्तक में ज्योतिर्मयी देवी स्त्री की अधीन स्थिति को बताने के लिए एक पुत्री, एक माता एक पत्नी, एक विधवा, एक सामाजिक कार्यकर्ता, एक लेखिका के रूप में स्वयं को  अभिव्यक्त करती हैं. ज्योतिर्मयी देवी

“स्मृति विस्मृति तरंग’ में विधवा होते ही स्वयं को ‘न कुछ ‘यानी अस्तित्वहीन जैसा हुआ पाती हैं, तब वह न पुत्री रह पाती है न किसी की संतान. रह जाती है मात्र एक विधवा-उसका पूरा अस्तित्व एक विधवा में रिड्यूस हो जाता दीखता है, बंगाली समाज में विधवाओं की हीनतर स्थिति की ओर  यह आत्मकथा संकेत करती है साथ ही पाठक और आलोचक के समक्ष ऐसे अनेक ‘टेक्स्टस’ के होने की संभावनाओं को खोल देती है जिनकी आवाज़ों को, प्रतिरोध को दबाने का प्रयास किया गया, ऐसी अनेक स्त्रियाँ जिनकी निजी अस्मिता का संघर्ष किसी मुकाम पर नहीं पहुँच सका. ऐसी स्त्रियाँ जिन्होंने अपने होने की वजह ढूंढनी चाही, पितृसत्ता के खिलाफ लड़ीं भी लेकिन आधुनिकता की राह के दरवाज़े उनके लिए आधे में ही बंद हो गए. परिवार, समाज, परिस्थितयों ने उन्हें वह ‘स्पेस’ दिया ही नहीं जहाँ वे अपनी आशा–आकांक्षाओं को परवाज़ दे सकें.

सरलादेवी, मणिकुंतला और शांतिसुधा वे रचनाकार थीं जिनके लिए पिछली पीढ़ी की तुलना में  साक्षरता चुनौती नहीं थी, उनके परिवार विशेषकर माताओं ने उनको पढ़ने  के लिए न सिर्फ प्रेरित किया बल्कि ‘आत्म’ की खोज में भी उनका साथ दिया, उनकी तरक्की के लिए अनुकूल परिस्थितियां पैदा कीं. लेकिन प्रश्न यह है कि क्या ये ‘आत्म’ का प्रकाशन और  ‘निज’ की परिधि का अतिक्रमण कर अगली पीढ़ी के लिए कुछ कर पायीं या कोई राह प्रशस्त कर पायीं. अथवा इन आत्म कथानकों का पाठ इस रूप में किया जाना चाहिए जिसमें रचनाकार अपने ही दायरे में सिकुड़ी–सिमटी रहीं, जिनके आख्यानों को पाठकों की ओर से कोई विशेष सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिली,अथवा इन्हें इस दृष्टि से देखा जाना चाहिए कि ये स्त्रियाँ समाज में प्रचलित पितृ सत्ता के ढाँचे को तोड़कर माता–पुत्री के सम्बन्ध का एक नया समीकरण तैयार कर रही थीं. यह समीकरण उनकी बौद्धिक और भौतिक उन्नति के लिए ज़रूरी था, जिसमें माता के अपने अनुभवों की आंच थी और बेटी के भविष्य के लिए उज्ज्वल स्वप्न थे. इन तीनों स्त्रियों के आख्यान बीसवीं  सदी के मध्य से उत्तरार्ध में लिखे गए जिनमें बंगाली समाज विशेषकर हिन्दू और ब्राह्मो समाज में मध्यवर्गीय स्त्री की स्थिति का पता चलता है. इनमें से सबसे पहले ‘सरलादेवी चौधरानी के आत्मकथ्य ‘जीबनेर झरापाता‘ को देखा जा सकता है. इसका अंग्रेजी अनुवाद सुखेंदु राय ने किया[v]  जिसकी भूमिका में भारती राय ने लिखा  कि

यदि आत्मकथाओं को इतिहास की श्रेणी में रखा जाये तो सरलादेवी की आत्मकथा उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और बीसवीं शती के बंगाल के समाजेतिहास का ज़रूरी हिस्सा होने का दावा कर सकती है.

सरलादेवी चौधरानी को साहित्यिकता विरासत में मिली थी. उनकी माँ स्वर्णकुमारी रवीन्द्रनाथ टैगोर की बहन थीं. यही वह समय था जब बंगाल में स्त्री-शिक्षा के प्रचार कार्यक्रम ज़ोरों पर थे, अपनी पिछली पीढ़ी से कई क़दम आगे बढ़कर उन्होंने बेथून कालेज से 17 वर्ष की उम्र  में स्नातक की उपाधि ली थी. स्त्री शिक्षा का जोर ,सती प्रथा के उन्मूलन, स्वदेशी आन्दोलन के प्रचार और बंग–भंग के विरोध के माहौल में ही वे पली– बढ़ी थीं. टैगोर परिवार की सांस्कृतिक चेतना उन्हें विरासत में मिली थी और 1895 से ‘भारती’ नामक मासिक पत्रिका की संपादक भी बन गयी थीं. पत्रिका के माध्यम से उन्होंने भौतिक-सांस्कृतिक अभियान चलाया जिसमें युवा पुरुषों से अन्तरंग दल की स्थापना करने का आग्रह किया गया जिससे वे अँग्रेज़ सैनिकों द्वारा भारतीय औरत- मर्दों की बेइज्जती से रक्षा कर सकें. वे बंगाल के पुनरुत्थान वादी आन्दोलन से गहरे तक जुड़ी हुई थीं. सन 1902 में उन्होंने नौजवानों को प्रतापादित्य व्रत रखने,आत्म रक्षा के लिए हथियारों, मुक्केबाजी और कुश्ती के प्रशिक्षण की प्रेरणा दी. उनका व्यक्तित्व युवाओं के लिए प्रेरणास्पद था. सन 1904 में सरलादेवी ने वीराष्टमी के अवसर पर एक रैली आयोजित की और उसी वर्ष उन्होंने कलकत्ता कांग्रेस में ‘वन्देमातरम’ गवाकर इतिहास रचा’[vi] इतिहासकार सुमित सरकार के अनुसार

सन 1905 में सरलादेवी की मैमनसिंह सुहृद समिति ने ‘वन्देमातरम’ को राष्ट्रीय आह्वान के रूप में प्रयोग करने का पहला प्रयास किया[vii]. आत्मकथा में उन्होंने यह दावा किया है कि बंकिमचंद्र के वन्देमातरम की पहली दो पंक्तियों को रवीन्द्रनाथ टैगोर ने संगीतबद्ध किया शेष गीत को लय और धुन सरलादेवी ने दी. वे संगीत की पारखी भी थीं, आत्मकथा में अपने संगीत-प्रेम और टैगोर द्वारा मिली प्रशंसा का उल्लेख वे बार-बार करती हैं .

आत्मकथा का प्रारंभ वे अपने बचपन के जोड़ासांको वाले घर की स्मृतियों से करती हैं –

”जोड़ासांको के घर में ढेर सारे लोग थे, विविध प्रकार के क्रियाकलापों से घर का कोना -कोना तरंगायित होता रहता था …घर में एक दर्जन से अधिक ब्राह्मण रसोइये दिन भर संयुक्त रसोईघर में समूचे परिवार के लिए भोजन बनाने में व्यस्त रहते थे, पके भात का ढेर इतना ऊँचा होता था जो रसोई की छत लगभग छूता था “[viii]

बड़े संयुक्त परिवार में छोटे बच्चे नौकर–नौकरानियों द्वारा पाले–पोसे जाते थे जिसके बारे  में लिखती हैं- “माँ का वात्सल्य क्या होता है हमें मालूम ही नहीं था, माँ की  गोद, उसका चुम्बन ,उसका  स्नेह  क्या होता  है ? मेरी माँ, मौसियाँ सब एक ढर्रे की थीं – वे सब संतानों के प्रति वात्सल्य -प्रदर्शन से कतराती थीं. दरअसल यह पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अंतर्गत सभी संपन्न आभिजात्य परिवारों का चलन था. जिसकी अगली पीढ़ी में स्त्रियाँ अपने बच्चों के लिए अपेक्षाकृत ज्यादा प्रेम दिखाने लगीं. लेकिन हमारी पीढ़ी के बच्चों के साथ ऐसा नहीं था. [ix]”

वे ये भी लिखती हैं कि उन्हें आश्चर्य होता था कि नौकर हम बच्चों के साथ बहुत बुरे ढंग से पेश क्यों आते थे …अब समझ पायी कि वे अतिरिक्त कार्यभार से दबे रहते थे“[x]

वे परिवार के भीतर के लैंगिक- विभेद को बचपन में ही पहचान जाती हैं –

“मेरी बड़ी बहन ने खेल–खेल में मेरे बाल काट दिए जिसके लिए सात दिनों तक घर के भीतर ही रहने की सजा पिता ने सुनाई. बहन ने भाई के भी बाल काटे थे लेकिन भाई को घर के भीतर ही रहने की सजा नहीं सुनाई गयी क्योंकि लड़का होने के कारण उसकी सुन्दरता को कोई खतरा नहीं था. इस अन्याय ने मुझे बहुत आहत किया.”[xi]

तत्कालीन बंगला समाज ने सरला देवी चौधरानी में एक आधुनिक विवेकशील स्त्री का रूप देखा, उमा चक्रवर्ती के अनुसार जब सरला देवी से उनके नौकरी करने के लिए अपने परिवार से संघर्ष करने का विवरण पूछा गया तो उन्होंने जवाब दिया कि “वह अपने घर रूपी जेल की कैद से मुक्त होकर पुरुषों की भाँति अपने जीवनयापन का अधिकार स्थापित करना चाहती थीं .”[xii]

सरलादेवी के आत्मनिर्भर जीवन के प्रयास का अंत बड़ा त्रासद था जिसके बारे में  उमा चक्रवर्ती ने लिखा है कि एक रात सरलादेवी के कमरे में एक नौजवान घुस आया परिणामस्वरूप उन्होंने स्वतंत्र जीवनयापन का इरादा छोड़ दिया. ’जीबनेर झरापाता’ में वे इस प्रसंग पर मौन हैं. मैसूर से घर लौटकर सखी समिति तथा शिल्प मेलों में अपनी माँ स्वर्णकुमारी देवी की सहायता करने लगीं. बाद में उन्होंने ‘भारती’ का जिम्मा ले लिया. सरलादेवी की आत्मकथा तत्कालीन समाज में स्त्रियों की शिक्षा के बारे में बताती है. वे लिखती हैं- “उन्नीसवीं शती से लेकर अब तक  दकियानूसी सोच से बाहर आकर बीसवीं शती में स्त्री शिक्षा ने अपना सतत विकास किया.”

1910 में सरलादेवी ने इलाहाबाद में भारत स्त्री महामंडल की स्थापना की, वे 29 वर्ष की अवस्था में गांधीजी के संपर्क में आयीं. रामचंद्र गुहा ने ‘गांधी- द इयर दैट चेंज्ड द वर्ल्ड’ में गांधी और सरलादेवी के घनिष्ठ  संबंधों की ओर  संकेत किया है. वे लिखते हैं कि लेखिका सरलादेवी की पैदाईश 1872 की थी वे सुन्दर थीं तथा मोती के आभूषण पहनती थीं. वे गांधीजी के साथ यात्राएं और सभाएं किया करती थीं, पंजाब के सरगोधा जिले में किसानों ने उन्हें ‘माता जी‘ का संबोधन दिया [xiii] सरला देवी उन अनेक राष्ट्रवादियों में से एक थीं जिन्होंने सन 1899 में रेल कर्मचारियों की हड़ताल  को समर्थन देने के लिए ज़बरदस्त अभियान चलाया.

”नवयुवकों ने सरला देवी को ज़बरदस्त समर्थन दिया. व्यक्तिगत आज़ादी के लिए किये गए प्रयास कैसे राष्ट्रीय आजादी के प्रयासों में बदल गए इसे देखने के लिए सरलादेवी के कार्यों को देखा जा सकता है. पारिवारिक दबाव के कारण उनका विवाह एक विधुर आर्यसमाजी रामभज चौधरी से हुआ, जिसके बाद वे लोग लाहौर जाकर बस गए. विवाह के बाद सरला देवी को अक्सर ‘देवी चौधरानी ‘कहकर संबोधित किया जाता था. एक विधुर के साथ सरलादेवी का विवाह पारिवारिक दबाव में हुआ यहाँ प्रश्न यह है कि क्या यह स्वर्ण कुमारी देवी के लिए उचित था कि उन्होंने अपनी सुन्दर, सुसंस्कृत, शिक्षित पुत्री का विवाह ज़बरदस्ती करवा दिया. यह एक संभावनापूर्ण कैरियर का अंत था. पाठक को यह आश्चर्य होता है कि सरलादेवी इस निर्णय के आगे झुकी क्यों? उन्होंने समझौते क्यों किये. आत्मकथा में भी वे इसके बारे में विस्तार से कुछ नहीं बतातीं ,सिवाय इसके कि लिखती हैं कि “मेरे हाथ–पैर बंधे हुए थे[xiv]

इस जीवन में आन्दोलन की कोई गुन्जायश नहीं थी. हो सकता है तब तक स्त्रियों ने अपने विवाह सम्बन्धी निर्णय लेने शुरू न किये हों. सरला देवी नवयुवकों में राष्ट्रीय चेतना भरने का प्रयास करती रहीं वे राष्ट्रोन्नति, देशोद्धार के लिए वे कृत संकल्प थीं. वे गांधीजी के साथ लम्बे समय तक जुड़ी रहीं,उन्होंने गांधीजी के साथ कई  यात्रायें कीं, हैदराबाद नागरिक संघ में आयोजित एक कार्यक्रम में गांधीजी ने कहा था- मैं भारत के अपने भ्रमण में सरलादेवी को साथ रखता हूं क्योंकि उन्होंने स्वदेशी के मेरे सिद्धांतों को कस्तूरबा से भी अधिक अच्छी तरह समझ लिया है.[xv]

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Tags: गरिमा श्रीवास्तवनारीवादबांग्ला स्त्री आत्मकथाएंराष्ट्रवाद
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Comments 7

  1. Garima Srivastava says:
    4 years ago

    धन्यवाद अरुण जी ,लेख को समालोचन पर स्थान देने के लिए .इतनी कलात्मकता के साथ बहुत कम ही पटल, लेखों का प्रस्तुतीकरण करते हैं .बहुत बहुत आभार

    Reply
  2. Madhav Hada says:
    4 years ago

    बहुत महत्त्वपूर्ण लेख और उसकी सुरुचिपूर्ण प्रस्तुति ! गरिमा जी और आप को बधाई !

    Reply
  3. अशोक अग्रवाल says:
    4 years ago

    हमेशा की तरह गरिमाजी का यह आलेख भी उतना ही महत्वपूर्ण और संवेदनशील भी। उनका लेखन हमारे लिए नए क्षितिज खोलता है।

    Reply
  4. Daya Shanker Sharan says:
    4 years ago

    हर आत्मकथा अपने समय का एक जीवित इतिहास होती है। खासकर कोई जीवन अगर घटनाओं से भरा हो, तो उसे पढ़ते हुए मन पर फ्लैश बैक में दिखाई जा रही एक इतिवृत्तात्मक फिल्म जैसा प्रभाव महसूस होता है। भारतीय पुनर्जागरण में बंगाल के तत्कालीन समाज सुधार आंदोलन की ऐतिहासिक भूमिका रही है।इसका प्रभाव पूरे भारतीय समाज पर पड़ा।सदियों से दबी हुई स्त्री-चेतना में विद्रोह की सुगबुगाहट भी इसके बाद जगह-जगह से फूटती दिखायी पड़ी। बंगाल के सामंती समाज की स्त्रियों में तमाम रूढ़ मान्यताओं से मुक्ति की छटपटाहट इन आत्मकथाओं में देखी जा सकती है। सरला चौधरी की आत्मकथा में गाँधी जी के संस्मरण काफी रोचक हैं और अंतरंग भी।गरिमा जी एव समालोचन को बधाई !

    Reply
  5. Dr.Chaitali sinha says:
    4 years ago

    स्त्रियों का अपना निज और अपना संघर्ष , जिसका लेखा जोखा प्रस्तुत करती है उक्त आलेख। जो दबी और ढंकी रही उसका दायित्व कुछ स्वयं इन स्त्री आत्मकथाकारों के कंधों पर रहा और कुछ पितृसत्तात्मक समाज की सोच के कारण। परंतु निज की अभिव्यक्ति के लिए जो मार्ग सरलादेवी एवं मणिकुंतला सेन जैसी राजनीतिक , सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपनाया वह आगे की पीढ़ी के लिए आज भी कारगर है, प्रासंगिक है। उन्होंने आनेवाली पीढ़ी के लिए सारी बाधाओं से भरे रास्ते से कांटें को चुनकर सरल और सुगम बनाया। यही क्या कम है कि इतिहास में उनके नाम हमें आज भी दर्ज मिलते हैं। यदि वे अपने निज को कहने में कहीं मौन हैं तो हम सब जानते हैं कि उस समय का समाज कैसा था , जहां स्त्री का बोलना ही किसी अपराध से कम नहीं। इस बात का खण्डन भी किया है आपने अपने इस लेख में। इस लेख से यह भी स्पष्ट है कि चाहे तब का समय हो या अब का, स्त्रियां कितनी ही शिक्षित और सशक्त हो जाएं आज भी उन्हें और उनके कामों को देखने के लिए पुरुषवादी चश्में का ही अधिक प्रयोग किया जाता है। बहुत ही महत्वपूर्ण और संवेदनशील विषय पर आधारित है उक्त लेख मैम। आपको बहुत– बहुत बधाई। आप ऐसे ही अपनी सक्रियता बनाएं रखें मैम।

    Reply
  6. Dinesh Shrinet says:
    4 years ago

    मैंने इसे न सिर्फ पढ़ा बल्कि बहुत से मित्रों से भी पढ़ने को कहा। गरिमा श्रीवास्तव का यह एक शानदार काम है। यह पुस्तिका के रूप में भी आनी चाहिए। नई पीढ़ी के हिंदी आलोचकों में इतना परिश्रम, अध्ययन और दृष्टि अब कम ही दिखाई देता है।

    Reply
  7. Neelima says:
    4 years ago

    गरिमा जी का बेहतरीन लेख पढ़ा । शोधपरक लंबे लेख की इतनी सुव्यवस्थित प्रस्तुति के समालोचना पत्रिका को साधुवाद ।

    Reply

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