• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » मैनेजर पाण्डेय की इतिहास-दृष्टि: हितेन्द्र पटेल

मैनेजर पाण्डेय की इतिहास-दृष्टि: हितेन्द्र पटेल

समाज-विज्ञान, इतिहास, अर्थशास्त्र पर मूल रूप से हिंदी में लिखने वाले स्तरीय लेखक कम हैं. हिंदी के विषयों पर लिखने वाले समाज-विज्ञानी तो और भी कम हैं, हितेंद्र पटेल इतिहास के अध्येता हैं और हिंदी साहित्य में गम्भीर रुचि रखते हैं, वह हिंदी के उपन्यासकार भी हैं. प्रो. हितेंद्र पटेल का यह आलेख साहित्य के अंतर-सम्बन्धों की पड़ताल करते हुए प्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक मैनेजर पाण्डेय के इतिहास-बोध में सामाजिक दृष्टि की भूमिका को गंभीरता से रेखांकित करता है. प्रस्तुत है.

by arun dev
January 16, 2022
in आलोचना
A A
मैनेजर पाण्डेय की इतिहास-दृष्टि:  हितेन्द्र पटेल
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

मैनेजर पाण्डेय की इतिहास-दृष्टि
हितेन्द्र पटेल

मैनेजर पाण्डेय हिन्दी जगत के एक प्रसिद्ध मार्क्सवादी बुद्धिजीवी हैं. कई दशकों से वे एक शिक्षक, आलोचक और प्रखर वक्ता के रूप में पूरे हिन्दी जगत में सबसे अधिक सम्मान के साथ सुने जाने वालों में रहे हैं. आज भी उनको सुनने और उनसे सीखने वालों की संख्या में कोई कमी आई हो, ऐसा नहीं लगता. इस लघु आलेख में उनकी इतिहास संबंधी कुछ मान्यताओं पर एक संक्षिप्त चर्चा की गई है. निश्चित रूप से इस विषय की व्यापकता और मैनेजर पाण्डेय के विपुल लेखन के संदर्भ में बहुत विस्तार से चर्चा की जरूरत है और यह कोशिश इस काम के लिए अपर्याप्त है, फिर भी यह एक कोशिश की गई है.

जिन दो भिन्न किस्म के बौद्धिक माहौल में मैनेजर पाण्डेय ने लेखन-चिंतन किया उनके बीच तादात्म्य रख पाना और अपने “पुराने” स्टैण्ड पर कायम रहना एक मुश्किल काम था. सत्तर और अस्सी के दशक में मैनेजर पाण्डेय ने परिपक्व मार्क्सवादी  बुद्धिजीवी के रूप में अपने को प्रतिष्ठित किया. इस दौरान वे बरेली से उठकर पहले जोधपुर (1971-77) और फिर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में आए. यह एक मार्क्सवादी के लिए सुविधाजनक पथ था. बौद्धिक जगत में मार्क्सवादी होना इस दौर में सुविधाजनक था, कम से कम जनेवि कैंपस में.

इस तरह के बौद्धिकों के लिए कठिन दौर 1989-91 के उथल-पुथल के बाद शुरू हुआ. मैनेजर पाण्डेय का महत्व उनके कुशल शैक्षणिक योग्यताओं एवं अन्य कामों के लिए तो है ही वे उन कुछ लोगों में हैं जिन्होंने मार्क्सवाद के पतन के बाद वैश्वीकरण के उन्मादी दौर में मार्क्सवाद में अपनी निष्ठा को बनाए रखा. और यह काम वे कट्टर, पार्टीबद्ध, आबद्ध या सम्बद्ध व्यक्ति के रूप में नहीं करते बल्कि एक चिंतक की तरह करते हैं जिसे इस बात की जानकारी है कि ‘क्रिटिकल इन्क्वायरी’, ‘हिस्ट्री एंड थियरी’, ‘पोलिटिकल थियरी’ और तमाम पत्रिकाओं  में क्या-क्या कहा जा रहा है. इस मामले में मैनेजर पाण्डेय हिन्दी के उन बहुत कम लोगों में हैं जो बहुत पढ़कर, उनपर विचार कर उनसे सीखने की कोशिश करते हैं.

उनको सुनने वाले कई बार चकित होते हैं कि हिन्दी के अध्यापक के पास समाज विज्ञान के विविध पक्षों के बारे में नवीनतम जानकारियाँ कैसे है?  वे एक इतिहासकार या समाज विज्ञान की किसी भी विधा में सक्रिय व्यक्ति के साथ जब संवाद करते हैं तो यह कभी भी नहीं लगता कि वे हिन्दी के विद्वान हैं और अपने धरातल से ही देखने समझने की कोशिश कर रहे हैं. आप उनसे 1857, उत्तर-आधुनिक संकट और समाज विज्ञान, ग्राम्शी, लोक इतिहास, प्राचीन युग में नारी, बज्रसूची, भिखारी ठाकुर, ज्योतिराव फूले, अंबेडकर, गांधी और “चेथरिया पीर”, लोक इतिहास, दाराशिकोह आदि नाना विषयों पर बात करते हुए यह भूल जाएंगे कि वे साहित्य के आदमी हैं, समाज विज्ञान के नहीं.

मार्क्सवादी आलोचना में भी वे लगातार अपने तरीके से नयी-नयी चीजों को लेकर सोचने विचारने वाले रहे हैं. अपनी एक पुस्तक ‘साहित्य के  समाजशास्त्र की भूमिका’ (1989) में वे जिस सहजता से साहित्य और इतिहास के बीच आवाजाही करते हैं वह उनके अध्ययन के प्रति हमारे मन में सम्मान जगाता है.

मैनेजर पाण्डेय की इतिहास दृष्टि को समझने के लिए पाँच  बातों पर गौर करना ज़रूरी है.

पहली बात: वे उन लोगों में हैं जो यह मानते हैं की भविष्य समाजवाद का है या फिर नहीं है.

दूसरी बात: अगर मनुष्य को बेहतर भविष्य बनाना है तो उसे समाज को बदलना होगा अन्यथा अंधकार ही सामने होगा.

तीसरी बात: पूंजीवाद का पिछली तीन चार सदियों का इतिहास मनुष्य और प्रकृति के शोषण और गुलामी का विराट वृत्तान्त है.

चौथी बात: पूंजीवाद उस राक्षस के समान है जिसे हर समय आंतरिक और वाह्य दोनों रूपों में विस्तार चाहिए और इसके लिए वह खूंखार हो सकता है. इसका यही मूल स्वभाव है. यह उदार और मानवीय तभी तक दिखता है जब तक बर्बर हुए बिना उसका शोषण चल सकता हो. पूंजीवाद एक बेलगाम और उत्तरदायित्व-विहीन व्यवस्था है, इसे किसी से कुछ लेना देना नहीं है बस इसे अपनी रक्षा से मतलब है.

पाँचवीं बात: मानव मुक्ति की आशा के स्रोत कभी पूरी तरह सूख नहीं सकते. रूस और अन्य समाजवादी देशों में जो समाजवाद की पराजय हुई है वह समाजवाद के स्वप्न का अंत नहीं है, क्योंकि वह स्वप्न ही एकमात्र विकल्प है जिसके साथ मानवता की मुक्ति का स्वप्न जुड़ा है. पूंजीवाद की बर्बर व्यवस्था के साथ लड़कर उससे उबर कर ही मानव एक बेहतर समाज की कल्पना कर सकता है.

ज़ाहिर है, मैनेजर पाण्डेय की इतिहास दृष्टि  का हाब्सबाम, रणधीर सिंह और अन्य मार्क्सवादी  विद्वानों के साथ एक मेल है जो रूस में समाजवाद की पराजय को मानव-मुक्ति के स्वप्न के रूप में स्वीकार नहीं मानते. वे 1871 में पहला समाजवादी समाज बनाने के  प्रयास की विफलता और उसके बाद 1917 की सफलता से एक सबक लेते हैं और मानते हैं कि यह एक तात्कालिक विफलता है, समाजवाद का पूंजीवाद से लड़ाई जारी है.

मैनेजर पाण्डेय के लिए बुद्धिजीवी वर्ग का वह हिस्सा खतरनाक है जो मार्क्सवाद पर हमला करता है, इतिहास के अंत की घोषणा करता है और मानव-मुक्ति के स्वप्न के अंत की बात करता है. वे इस तरह के चिंतकों और उनके “उत्तरवाद” के खिलाफ हैं और उनसे जुड़े लोगों को ऐसा दोस्त मानते हैं जो दुश्मन से भी अधिक खतरनाक हैं. ऐसे विद्वानों के लिए  वे एक जुमला दुहराते है-  “हुए तुम दोस्त जिसके, दुश्मन उसका आसमां क्यों हो”.

इन दिनों हमारे देश में जब हर ओर समाजवादी दलों, उनसे जुड़े विद्वानों के बीच संकट का माहौल है इस तरह के विचार को लेकर चलने वालों के लिए दो तरह की कठिनाइयाँ हैं. प्रथम, यह कहना ही पड़ता है कि समाजवादी व्यवस्था के आंतरिक संकट पर यदा कदा आलोचना करने के अलावा हमारे पास यह उदाहरण नहीं है कि वामपंथ के भीतर समाजवाद के संकट पर हमारे विचारकों ने बहुत ध्यान दिया. यह सही है कि बिन्यामिन  (बेंजामिन) जैसे लोगों से लेकर एडवर्ड पामर थामसन तक एक लंबी परम्परा रही है जो समाजवादी स्वप्न के झंडेबरदार– रूस में चल रही व्यवस्था के प्रति आलोचनात्मक रुख अपनाने पर ज़ोर दे रहे थे,  लेकिन उनकी चेतावनियों पर कम ध्यान दिया गया. क्यों नहीं दिया गया, यह एक बड़ा सवाल है.

दूसरा बड़ा सवाल है, जो इससे भी ज़्यादा गंभीर है: जो इस तरह के द्वैत–पूंजीवाद बनाम समाजवाद से अलग होकर सोचने वाले थे उनके साथ कैसा बौद्धिक सलूक किया गया?  कार्ल पौपर से लेकर, सी राइट विल्सन, प्रगमाइटिक चिंतकों जैसे रिचर्ड रोर्टी , हेडेन व्हाइट जैसे चिंतकों ने बार-बार इतिहास और  विचारधारा के सहारे इतिहास को और इसको लिखने-समझने की समस्याओं पर लिखा है. पापर ने यह कहा था कि दुनिया किसी व्यवस्था (सिस्टम) से नहीं चलती जैसा कि मार्क्स और नीत्से ने सोचा था, इसलिए इसके लिए उस तरह सोचा जाना संभव नहीं है जैसे ये सुझाते हैं. दुनिया को एक सिस्टम से चलता हुआ मानकर जो सैद्धांतिकी बनाई गई वह सब जगह चल ही नहीं सकती.

भारत में भी ‘स्थान–काल पात्र पर बहुत कुछ निर्भर करता है’ धारणा  पर बहुत बल दिया गया है. यह जो सार्वभौम ज्ञान है इससे सारी दुनिया को समझा ही नहीं जा सकता बदलना तो खैर और भी दूर की बात है. विको से लेकर फूको तक तमाम लोगों ने इस बात को समझने की कोशिश की. इस तरह के तमाम प्रयासों को मार्क्सवाद के अधिकारी लोगों ने सही माना उस दृष्टि ने हमेशा गलत  माना और संदेह किया. इस कारण से सिर्फ वे लोग जो मार्क्स के अनुगामी थे वे ही चर्चा योग्य लगे बाकी सब निंदा योग्य. इस कारण से भारत के मार्क्सवादी भी कभी भी हाइडेगर की चर्चा भी नहीं करना चाहते. एक सूक्ष्म किस्म की बात यह है कि जिसे वैश्विक कहकर अकादमिक जगत में चलाया गया वह तत्वतः यूरोपीय था. आज भी जिसको वैश्विक कहा जाता है उसके सारे संकेत यूरोप की ओर ही जाते हैं. कुछ दिनों पहले अमिताभ घोष ने इस वैश्विकता पर, “जिए हुए इतिहास” और स्मृति पर चर्चा करते हुए हाइडेगर को याद किया और कहा कि कैसे हाइडेगर ने यह अनुमान कर लिया था कि कल के राजनीतिज्ञ प्रबंधक होंगे और सब ओर इसी व्यवस्था और उसके साथ “विकास” का नारा होगा.

मार्क्सवादियों के बीच  जिन लोगों ने इस संकट को सबसे पहले पहचाना उसमें हाब्सबाम थे जिन्होने लेनिनवादी पार्टी-केंद्रित रेजीमेंटेंसन की आलोचना भी की और “मार्केट फंडामेंटलिज्म’ की भी बात की. वे लेबर एरिस्टोक्रेसी पर भी विचार करते थे और लेबर के संकट पर भी. कैसे ब्रिटेन में 1970 की लेबर आक्रामकता से सबक लेकर 1990 तक आते आते नए लेबर पार्टी का जन्म हुआ इस प्रसंग पर भी कम ही विचार किया जाता है. दुनिया 1970 के दशक से ही बदलने लगी थी लेकिन 1990 के समय जब समाजवादी कही जाने वाली व्यवस्था जब टूट गई तब जाकर लोगों का ध्यान टूटा. हिन्दी में वैचारिक चिंतन के क्षेत्र में इस बात पर कम ही सोचा गया.

मैनेजर पाण्डेय ने इस दौर में जो चिंतन किया उसमें मार्क्सवाद की सीमाओं को समझने के बहुत सारे संकेत और संभावनाएँ हैं लेकिन अंततः वे वापस उसी मार्क्सवाद के सुरक्षित घेरे में ही चले जाते हैं, ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा. यह सही है या गलत इसपर अलग से चर्चा की जा सकती है. संरचनावाद पर दिए गए एक इंटरव्यू को याद करें जो उन्होंने ‘पल प्रतिपल’ के अंक (देवेन्द्र चौबे और हेमंत जोशी द्वारा संपादित) के लिए दिया था. या फिर ‘साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका’ के कई हिस्सों में जहाँ वे संस्कृति के प्रश्न पर लखनऊ स्कूल पर विचार करते हैं और भारतीय नवजागरण, जादुई यथार्थवाद जैसे विषयों पर विचार करते हैं,  ऐसा प्रतीत होता है कि वे पारंपरिक मार्क्सवादी चिंतन की सीमा का अतिक्रमण कर रहे हैं पर  अन्ततः वे फिर वापस मार्क्सवाद के घेरे में वापिस आ जाते हैं. आपसी बातचीत में, अपने बहु प्रशंसित व्याख्यानों में प्रायः मैनेजर पाण्डेय में अपने अध्ययन के विस्तार के कारण कई दिशाओं में जाने की संभावना और अंततः वापस मार्क्सवादी फ्रेम में लौट आने के संकल्प के बीच के  तनाव को महसूस किया जा सकता है.

ऐसे कई प्रसंग हैं जिसके सहारे यह अनुमान किया जा सकता है कि मैनेजर पाण्डेय ने 1990 तक कई ऐसे विचारों के प्रति सहानुभूति थी जिसे आम तौर पर कट्टर मार्क्सवादी नकार देते थे. ‘साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका’ में कम से कम एक अध्याय ऐसा है जिसे पढ़कर ऐसा कहा जा सकता है. वे औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा “पराई स्मृति” के थोपने की बहुत ही सुंदर व्याख्या दक्षिण अमेरिका के प्रसंग में करते हैं. वे आकटोवियों पाज के इस कथन को सहमति के साथ उद्धृत करते हैं:

“इतिहास रोज़-ब-रोज़ का आविष्कार है, एक स्थायी सृजन है… एक क्रीडा है, मायावी भविष्य के साथ एक होड़ है…”.

मार्क्वेस के आने के पहले से ही इस तरह के लेखन को उस संस्कृति के भीतर से उभरे मानकर मैनेजर पाण्डेय ने यह संकेत दिया था कि संस्कृति और कला के प्रसंग में वे  वैश्विक और स्थानीय के प्रश्न पर एडवर्ड सईद जैसे लोगों की बातों को सहानुभूति पूर्वक लेंगे पर ऐसा नहीं हुआ. एक तरह का अनुशासन और सावधानी मैनेजर पाण्डेय के लेखन में हमेशा प्रभावी रहा है. वे भूल कर भी शायद ही ऐसे लोगों को अपने लेख में सहानुभूतिपूर्वक स्थान देते हैं जिनकी विचारधारा मार्क्सवादी के विरूद्ध हो. ऐसे प्रसंगों में वे जाना नहीं चाहते जिससे उनके मार्क्सवादी फ्रेमवर्क के लिए बहुत दिक्कतें पेश हों. पूरी तैयारी के बावजूद वे मार्क्सवाद के फ्रेमवर्क के बाहर नहीं जाते.

साथ ही वे वाद के बाद विवाद में नहीं उलझते और अपने संवाद को यथासंभव विवाद से मुक्त ही रखते हैं. कई जगहों पर ऐसा लगता है कि वे एक जगह जाकर रुक जाते हैं और उन लोगों की आलोचना नहीं करते जिन्हें मार्क्सवादी सर्किल में अधिकारी माना जाता है. वे किसी बड़े इतिहासकार की धारणा की आलोचना करने से अपने को बचाते हैं. राहुल के साहित्य से भली भांति परिचित होते हुए भी वे इस ओर नहीं जाते कि राहुल की इतिहास दृष्टि और मार्क्सवादी इतिहासकारों की दृष्टि में क्या अंतर है, और क्यों है ? हो सकता है कि हिन्दी के एक विद्वान के लिए इस तरह के जोखिम लेना कठिन होता हो. कई लोगों को यह लगता है कि मैनेजर पाण्डेय एक संतुलन और अनुशासन को कभी नहीं छोड पाए. यही वह कारण है जिसके कारण वे उन इलाकों की ओर नहीं जाते जहां से वे भारतीय मार्क्सवादी इतिहास दृष्टि की सीमाओं को रेखांकित कर पाते. 1857 और लोकप्रिय साहित्य पर उनके अध्ययनों के जो संकेत उनके आलेखों में हैं उसपर संभव है भविष्य में कोई इतिहासकार काम करे तो इस दिशा में कुछ प्रगति हो. वर्णन, विश्लेषण  के साथ मैनेजर पाण्डेय के निष्कर्ष हमेशा मेल नहीं खाते. एक तनाव बना रहता है जिसे लोग एक रचनात्मक तनाव के रूप में देख सकते हैं.

इस तनाव से मुक्त होने के लिए मैनेजर पाण्डेय ने दो तरह से काम किया है. वे लगातार स्टालिन के समय में रूस में जिस तरह से प्रश्न करने वालों के प्रति असहिष्णुता रही उसके प्रति विरोध प्रकट करते हैं. वे वाल्टर बिन्यामिन द्वारा 1927 में रूस में पार्टी के नियंत्रण के कारण वर्ग राज्य नहीं जाति (कास्ट ) राज्य के बनने की बात का उल्लेख करते हैं. वे स्टालिन के समय किस तरह इतिहासकारों पर ज़ुल्म हुए इसके उदाहरण भी देते हैं. दूसरी ओर वे अपने अवांगार्द के विरोध और अपने उत्तर आधुनिकतावादी विमर्श के विरोध के बीच एक अंतर भी रखते हैं. वे मानते हैं कि आवांगार्द ने आधुनिकतावाद के विरुद्ध कला के क्षेत्र में विद्रोह किया ताकि अभिव्यक्ति के नए रूपों की खोज हो सके और समकालीन यथार्थ के बदला जा सके.

वे मानते हैं कि उत्तर आधुनिकतावादी समकालीन यथार्थ को बदलने के बजाए उसे स्वीकार कर लेते हैं. वे इतिहास को गप्प से नहीं अलगाते और लगातार कोशिश करते रहते हैं कि यह स्वीकार कर लिया जाए कि भौतिक यथार्थ भी सामाजिक यथार्थ के समान ही सामाजिक और भाषिक निर्मिति है. उनके अनुसार आधुनिक विज्ञान भी एक मिथक, आख्यान और सामाजिक निर्मिति है. इस दृष्टि का मैनेजर पाण्डेय विरोध करते हैं. वे पियरे बोर्दिये के उस कथन से सहमत हैं कि उत्तरआधुनिकतावादी विमर्श वितंडावादी पन्डिताऊ ज्ञान चर्चा है. अन्य मार्क्सवादी चिंतकों की तरह मैनेजर पाण्डेय भी यह मानते हैं कि उपनिवेशवाद के साथ आधुनिकतावाद आया और भूमंडलीकरण के दौर में उपनिवेशवाद और उत्तर आधुनिकतावाद आया.

वे तमाम उत्तर औपनिवेशिक चिंतकों- सईद, होमी भाभा, पार्थ चटर्जी और दीपेश चक्रवर्ती आदि के लेखन  पर खूब ध्यान रखते हैं लेकिन अपने निष्कर्षों को उनसे प्रभावित नहीं होते. जहाँ-जहाँ जरूरी होता है वे सावधानी से उनके लिखे से मार्क्सवादी समझ को समर्थन देने वाले तथ्य चुनते हैं और आगे बढ़ जाते हैं. यह कहना अनुचित नहीं होगा कि वे थियरी के “अमेज़ोंन जंगल” में घुसते हैं, दूर तक जाते हैं लेकिन जाते हुई लौटने के लिए जरूरी चिन्ह छोड़ते जाते हैं और जहाँ से उन्हें लगता है वे इस जंगल से बाहर आ जाते हैं और अपनी मार्क्सवादी जगह से ही अपना दृष्टिकोण पेश करते हैं. उनके ये प्रयास कई लोगों को उनकी प्रतिबद्धता लगती है तो कई लोगों को मार्क्सवादी कठमुल्लापन. कई अर्थों में उनको पढ़ते हुए कोशांबी की याद आती है. कोशाम्बी की तरह वे भी अपने विषय से बहुत दूर-दूर तक की यात्राएं करते हैं लेकिन अपने निष्कर्षों में वे एक कठोर मार्क्सवादी ही होते हैं. ‘साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका’ में एक जगह व्यक्त इन विचारों को देखें:

“एक महान लेखक अपनी रचना में स्वयं को सीधे-सीधे प्रकट नहीं करता. वह अपने अनुभवों के साथ दूसरों के अनुभवों को भी व्यक्त करता है. लेकिन इस अभिव्यक्ति की प्रक्रिया में वह जिन बिंबों और मुहावरों का प्रयोग करता है उससे उसके वर्ग और सामाजिक संरचना की छाप मौजूद रहती है.”

यह कोशांबी का कथन है लेकिन इसे मैनेजर पाण्डेय का कथन भी माना जा सकता है. इस पुस्तक में अन्यत्र यह कहा गया है:

“लेखक की आर्थिक सामाजिक स्थिति से उसकी मानसिकता के स्वरूप का गहरा संबंध होता है… लेखक की सामाजिक स्थिति को समझने के लिए उसके सामाजिक मूल और पेशा की जानकारी जरूरी है.”

मैनेजर पाण्डेय ने अपने उपन्यास संबंधी आलेखों में राष्ट्रीयता के विकास, इतिहास और मध्य वर्ग के उदय पर बहुत गंभीर अध्ययन किया है. उनका निष्कर्ष उस तनाव को भी स्पष्ट रूप में पेश करता है जिसकी चर्चा पहले की गई है. वे लिखते हैं–

“जिस देश की सभ्यता और संस्कृति जितनी अधिक प्राचीन होती है, वहाँ कथा कहने की परंपरा भी उतनी ही अधिक पुरानी, समृद्ध और विविधतापूर्ण होती है… तीसरी दुनिया के देशों के उपन्यास जब यूरोप के अनुकरण से मुक्त हुए तब उनके रूप और शिल्प में स्वदेशीपन आया और कथा कहने का स्वदेशी ढंग अधिक उन्नत और कलात्मक बना. बंगला के बंकिम  और विभूतिभूषण बनर्जी, उड़ीसा के फकीर मोहन सेनापति और हिन्दी के प्रेमचंद की कथा शैली का सौंदर्य उसके देशज रूप में है…गोदान जैसे उपन्यास पश्चिम में वैसे ही नहीं लिखे जा सकते जैसे जेम्स ज्वायस के उपन्यासों की तरह के उपन्यास तीसरी दुनिया में नहीं लिखे जा सकते.”

इस तरह के विचार प्रकट करते हुए मैनेजर पाण्डेय बहुत सारे नए प्रश्नों और संभावनाओं को जन्म देते हैं पर वे खुद बाद में उसपर गहराई से विचार नहीं करते. कई जगहों पर यह प्रतीत होता है कि वे एडवर्ड सईद के विचारों को सहानुभूति पूर्वक ग्रहण कर रहे होते हैं, खासकर ‘साहित्य के समाज शास्त्र की भूमिका’ में, लेकिन बाद में वे कठोरता पूर्वक उत्तर वाद के विरुद्ध हो जाते हैं.

जिस जगह आकर मैनेजर पाण्डेय ने पाया कि उनके लिए उत्तर-आधुनिकतावादियों के तर्कों और विचारों को स्वीकारना मुश्किल है वह यह था कि उनके अनुसार ये लोग मानते हैं कि अतीत के बारे में हर दृष्टिकोण सही है चाहे फासिस्ट हो, जातीयतावादी हो, सांप्रदायिक हो, सच न सार्वजनिक होता है और न सार्वभौम, प्रत्येक समूह, समुदाय और वर्ग का अपना सच होता है, सत्य के पीछे तथ्य नहीं होता, तथ्य का आग्रह “यथार्थवादी भ्रम “में जीना है. देरीदा जैसे लोग जो इतिहास को एक “टेक्स्ट” के रूप में देखते थे मैनेजर पाण्डेय को स्वीकार्य नहीं.

मैनेजर पाण्डेय के लिए यह एक सच है कि “मानव मुक्ति का कोई विषद आख्यान प्रभावी नहीं है लेकिन मुक्ति के छोटे-छोटे वृत्तान्त सक्रिय हैं.” वे मानते हैं कि आज के महत्त्वपूर्ण रचनाकार वर्तमान समय और संसार को देख रहे हैं. मूलगामी कवियों, कथाकारों, नाटककारों और फिल्मकारों के बारे में, जनांदोलनों के प्रति वे आशान्वित हैं.

टोनी जूड्ट ने हाब्सबाम की पुस्तक की समीक्षा करते हुए एक जगह उनको उद्धृत किया है कि सबकुछ खत्म होने के बावजूद उनको अपने भीतर से की क्रांति के प्रति आशा दिखलाई देती है. एक विचारधारा से मन-प्राण से जुड़े इन प्रतिबद्ध व्यक्तियों के लिए शायद यह संभव न हो कि वे मान लें कि अब यह नहीं होने वाला. बोद्रीया के शब्दों में कहें तो इतिहास अब अपनी धुरी से छिटक गया है. जब इतिहास की यह स्थिति है तो अब कैसे इतिहास के बारे में सोचते हुए कोई ये कहे कि क्रांति का कोई विकल्प नहीं है यह हमें इतिहास ही बतलाता है ? पर मैनेजर पाण्डेय जैसे अनुशासित मार्क्सवादी के लिए इस सच को स्वीकार करना मुश्किल है. वे आज भी अटल हैं कि दुनिया बदलेगी, और अधिक मानवीय समाज के निर्माण के लिए जैसा समाज है उसे बदलना ही होगा और पूंजीवाद के बर्बर रूप को बेनकाब करना और इतिहास के आईने में उसके असली रूप को दिखाना ही बुद्धिजीवी का दायित्व है. वे आज भी निष्ठा पूर्वक इसी विश्वास के साथ अध्ययनरत हैं. वे आज भी ‘सोसलिस्ट रजिस्टर’ के वार्षिक अंक और ‘मंथली रिव्यू’ के नवीनतम अंक में उस लेख को पढ़ रहे होंगे जिसमें यह संकेत हो कि दरअसल यह एक संकट का दौर है जिसके उस पार समाजवादी विश्व का स्वप्न हमारी प्रतीक्षा में है. किसी रणधीर सिंह या मैनेजर पाण्डेय के लिए यह शायद सम्भव ही न हो कि वे इस स्वप्न को छोड दें. हम सहमत हों या असहमत उनके इस स्वप्न में चिर-विश्वास के प्रति हमारे मन में सम्मान है, और रहेगा.

हितेंद्र पटेल इतिहास और साहित्य के गंभीर अध्येता हैं. उन्होंने अंग्रेजी, हिंदी और बांग्ला में कुछ पुस्तकें और पचास से अधिक शोध आलेख लिखे हैं.
उनकी चर्चित पुस्तकें हैं : Communalism and the Intelligentsia in Bihar (Orient BlackSwan), Khudiram Bose: A Revolutionary Extraordinaire (Publication Division), १८५७: भारत का प्रथम मुक्ति संघर्ष (संपादन देवेंद्र चौबे और बद्रीनारायण के साथ) (प्रकाशन संस्थान), और आधुनिक भारत का ऐतिहासिक यथार्थ (राजकमल प्रकाशन, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला दे),
दो उपन्यास : हारिल (अंतिका) और चिरकुट (नई किताबें) भी प्रकाशित. शब्द कर्म विमर्श का संपादन.
२०१९ से २०२१ तक उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में फेलो रहे.

संप्रति:

कोलकाता के रवींद्र भारती विश्वविद्यालय, कोलकाता में इतिहास विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष के रूप में कार्यरत.
पता:
चेतना अपार्टमेंट, 493/B पर्णश्री पल्ली, कोलकाता 700060.
ईमेल : hitenjee@gmail.com

Tags: 2022२०२२ आलोचनाइतिहास लेखनइतिहास-दृष्टिमैनेजर पाण्डेय
ShareTweetSend
Previous Post

अशोक वाजपेयी: विष्णु नागर

Next Post

कमाल ख़ान: प्रीति चौधरी

Related Posts

हमारा इतिहास, उनका इतिहास, किसका इतिहास? : फ़रीद ख़ाँ
इतिहास

हमारा इतिहास, उनका इतिहास, किसका इतिहास? : फ़रीद ख़ाँ

दारा शुकोह : रविभूषण
आलोचना

दारा शुकोह : रविभूषण

विशेष प्रस्तुति: 2022 में किताबें जो पढ़ी गईं.
विशेष

विशेष प्रस्तुति: 2022 में किताबें जो पढ़ी गईं.

Comments 10

  1. मनोज मोहन says:
    3 years ago

    बढ़िया आलेख…

    Reply
  2. रमा शंकर सिंह says:
    3 years ago

    यह बहुत आवश्यक लेख है। एक सीनियर विद्वान अपनी विद्वत्ता और प्रतिबद्धता के कारण यह डिज़र्व करता है। हम उन्हें एक पल के लिए व्यक्तिगत रूप से न भी जानते हों तो भी उनका लिखा हुआ विपुल और सारवान है। ऐसा बहुत कम होता है जब आप खूब लिखें और सारवान भी लिखें।

    अश्वघोष की वज्रसूची पर उन्होंने वैसे ही लिखा है जैसा भर्तृहरि और अमर सिंह पर कोसंबी ने लिखा था।

    वे स्वस्थ रहें, सक्रिय रहें

    Reply
  3. Rishi bhushan says:
    3 years ago

    हितेंद्र सर, नमस्कार।
    आपने यथासंभव तटस्थ भाव से लिखा है। अंतर-विषयक दृष्टिकोण से लिखा गया, यह आलेख संग्रहणीय है,शोध-दृष्टि से विशेषकर।आपको पुनः बधाई और समालोचना के प्रति आभार।
    समालोचना

    Reply
  4. ज्ञान चंद बागड़ी says:
    3 years ago

    बहुत अच्छा और जरूरी आलेख। अरुण जी आप हमेशा इस बात को दोहराते है कि साहित्य में समाज – शास्त्र को लिखने वाले बहुत कम हैं। आपके लगभग सभी साक्षात्कारों में आपने इस बात पर जोर दिया है। आपकी ये बात मेरे लिए बहुत उत्साह बढ़ाने का कार्य करती है। प्रयास हो रहा है। देखते है कितना सफल हो पाते हैं।

    Reply
  5. कृष्णा श्रीवास्तव says:
    3 years ago

    मैनेजर पांडेय जी की इतिहास दृष्टि को जानने-समझने के लिए बेहतरीन आलेख लगता है यह।
    एक बार पढ़ लिया है।
    फिर-फिर पढ़ना और समझना होगा।

    मैनेजर पाण्डेय जी की इतिहास दृष्टि को समझने के सूत्र देने के लिए हितेन्द्र जी का आभार।

    Reply
  6. ईश्वर सिंह दोस्त says:
    3 years ago

    यह अच्छा है कि लेख के उत्तरार्द्ध में हितेंद्र जी ने मैनेजर पाण्डेय जी की सीमाओं और सुरक्षित रहने के बोध की चर्चा भी की है। हालांकि लेख से उनकी इतिहास दृष्टि का ठीक पता नही चल पाता। प्रतिबद्धता और रुकी हुई संभावनाओं का पता जरूर पड़ता है। लेख में उनकी तुलना हाब्सबाम और रंधीर सिंह से की गई है। जबकि ये दोनों ही चिंतक समाजवादी बने रहते हुए भी पाण्डेय जी से बहुत ज्यादा निर्भीक आत्मालोचना कर पाए। खैर, यह लेख हिंदी के एक महत्त्वपूर्ण आलोचक व चिंतक की ज्यादा वस्तुनिष्ठ पड़ताल की एक अच्छी शुरूआत जरूर है।

    Reply
  7. दया शंकर शरण says:
    3 years ago

    आलोचना की सामाजिकता और इतिहास दृष्टि को जिन आलोचकों ने अपनी आलोचना के केंद्र में रखा-उनमें से एक नाम मैनेजर पाण्डेय का भी है। उनका मानना है कि प्रगतिशील होने के लिए मार्क्सवादी होना जरूरी नहीं है।इस संदर्भ में उन्होंने अश्वघोष की स्मारक कृति-बज्रसूची का उल्लेख किया है जो वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध एक महाग्रंथ है।यह एक आलोचक की इतिहास दृष्टि है। हितेन्द्र पटेल का यह आलेख मैनेजर पाण्डेय की आलोचना दृष्टि पर एक गंभीर विवेचना है।उन्हें साधुवाद !

    Reply
  8. रूद्रकान्त says:
    3 years ago

    ज्ञानवर्धक 💐

    Reply
  9. डाॅ. अशोक कुमार ज्योति says:
    3 years ago

    जिन पाँच बिंदुओं को आपने डाॅ. मैनेजर पांडेय की इतिहास-दृष्टि कहा है, वे सभी क्या उनके मौलिक विचार हैं? साम्यवाद के प्रति उनका ठहराव नहीं रहा, जैसा कि आपने भी कहा है, तो फिर वे ‘साम्यवादी’ कैसे रह जाते हैं? पूँजीवाद से समाज की ‘रक्षा’ की जाने के लिए वे या उनके जैसे तथाकथित ‘समाजहितैषी’ लोगों ने क्या किया है? भारतीय समाज में सदैव मानव-कल्याण और सर्वहित की चेतना रही है। जिन विसंगतियों को ‘उजागर’ कर साम्यवाद ने भारत में अपनी जमीन तलाशने का प्रयास किया, उनकी निंदा भारतीय समाज में सदा से रही है, इसलिए उसकी भूमिका को नकार दिया गया। समाज ने स्वयं को सँभालने का उपक्रम स्वतः किया है और भारतीय विचारकों के आह्वान पर किया है।

    Reply
  10. रवि रंजन says:
    3 years ago

    मैनेजर पांडेय की इतिहास दृष्टि को रेखांकित करता हुआ हितेंद्र पटेल का यह आलेख सार्थक किंतु बहसतलब है।
    वजह यह कि हितेंद्र जी ने इतिहास के अनुशासन के नज़रिए से पांडेय जी की कुछ पुस्तकों और निबंधों पर विचार किया है।जबकि मैनेजर पांडेय इतिहास के बजाय मूलतः और मुख्यत: हिंदी साहित्य के कुछ बड़े आलोचकों में एक हैं।
    जैसे इतिहासकार यदाकदा अपने मन्तव्य को पुष्ट करने हेतु साक्ष्य के तौर पर साहित्य का उपयोग करते रहे हैं,उसी प्रकार मैनेजर पांडेय इतिहास दर्शन के अपने गहन अध्ययन के बावजूद साहित्य को इतिहास की धारा में रखकर परखने पर बल देते हैं।
    इतिहास को ठीक ही विचाराधारों का कुरुक्षेत्र कहा जाता है जिसमें सबका अपना-अपना महाभारत तय होता है और विचित्र बात है कि इसमें भागीदारी करनेवाले सारे पक्षों के विचारक अपने-अपने युद्ध को धर्मयुद्ध ही कहते हैं,पर इनमें कौन धर्मयुद्ध है और कौन अपने निहित स्वार्थ के लिए किया जानेवाला युद्व है,इसका फैसला भविष्य करता है।
    इसके समानांतर साहित्य के इतिहास में हर काल में क्षयिष्णु और उदीयमान सामाजिक शक्तियों के बीच की रस्साकशी को रेखांकित करते हुए मैनेजर पांडेय उदीयमान सामाजिक शक्तियों के मनोभावों और सौंदर्यबोध की अभिव्यक्ति के व्याख्याता आलोचक के रूप में सक्रिय दिखाई देते हैं।
    हिंदी साहित्य के एक प्रखर आलोचक एवं चिंतक के रूप में यही उनका स्वधर्म है
    बावजूद इसके एक साहित्यकार के रूप में पांडेय जी के स्वप्न को रेखांकित करने के लिए हितेंद्र पटेल को साधुवाद।

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक