उद्योतन सूरि कृत ‘कुवलयमालाकहा’ (कुवलयमालाकथा) कथा में कथा और कथा से कथामाधव हाड़ा |
कुवलयमालाकहा (कुवलयलमाला कथा) भारतीय साहित्य का असाधारण और महान् ग्रंथ है, जिसकी रचना उद्योतन सूरि ने 779 ई. में जाबालिपुर (जालोर-राजस्थान) में की. यह गुणाढ्य की वृहत्कथा की तरह ही भारतीय कथा-आख्यान परंपरा की रचना है. यह सही है कि इस रचना में जैन धार्मिक आग्रह आद्यंत है, लेकिन इसकी कथा योजना इस तरह की है कि यह आपको निरंतर बाँधे रखती है. भारतीय कथा-आख्यान की कथा विस्तार, कथा में कथा, दृष्टांत, अतिमानवीय और लौकिक में निरंतर आवाजाही, कथा में अंतर्नियोजित संदेश जैसी सभी विशेषताएँ इसमें मिलती हैं. यह ‘कथा में कथा’ और ‘कथा से कथा’ की पद्धति से बुनी और गढ़ी गयी रचना है, जो आपको एक सम्मोहक भूल-भूलैया में खींच ले जाती है.
उद्योतन सूरि ने अपने और इस रचना के संबंध में ग्रंथांत प्रशस्ति में पर्याप्त और स्पष्ट उल्लेख किए हैं, इसलिए इसके संबंध में कोई ख़ास विवाद नहीं है. प्रशस्ति के अनुसार उद्योतन सूरि महाद्वार नगर के क्षत्रिय राजा उद्योतन के पुत्र वटेश्वर के पुत्र थे. उन्होंने अपनी गुरु परंपरा का भी उल्लेख किया है. उन्होंने अपने दो गुरुओं का उल्लेख किया है- विख्यात दार्शनिक समराइच्चकहा के रचनाकर हरिभद्र सूरि से उन्होने प्रमाण और न्याय की शिक्षा प्राप्त की, जबकि आचार्य वीरभद्र ने उन्हें सिद्धांत ग्रंथों का अध्ययन करवाया. ग्रंथ की रचना के समय के संबंध उन्होंने लिखा कि “जब शक संवत 700 पूर्ण होने में एक दिन शेष था, तब चैत्र वदी 14 के अपराह्न में यह रचना पूर्ण हुई.” इस आधार पर इस रचना के आरंभिक अध्येता हर्मन जैकोबी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि 21 मार्च, 779 ई. के दिन लगभग 12 बजे यह रचना पूर्ण पूर्ण हुई. उद्योतन सूरि के गुरु आचार्य वीरभद्र जालोर में रहते थे और उन्होंने जालोर में एक ऊँचा और भव्य ऋषभदेव का मंदिर भी बनवाया. इसी मंदिर के उपाश्रय में बैठकर उद्योतन सूरि ने इस महाकाय ग्रंथ की रचना की. उद्योतन सूरि ने ग्रंथ में अपने से पहले और अपने समय के विद्वानों और उनकी प्रसिद्ध रचनाओं का भी उल्लेख किया है. हाल की गाथासप्तशती, गुणाढय की वृहत्कथा, बाण की कादंबरी, विमल सूरि की पउमचरिउ, हरिभद्र सूरि की समराइच्चकहा, वाल्मीकि की रामायण, व्यास की महाभारत आदि के उल्लेख इसमें है. उद्योतन सूरि ने कुवलयमालाकहा को ‘प्राकृतभाषा निबद्धा चंपूस्वरूपा महाकथा’ कहा है. प्राकृत की तत्कालीन कथा-आख्यान परंपरा और उसकी श्रेणियों- सकल, खंड, उल्लाप, परिहास और संकीर्ण में से उद्योतन सूरि ने इसको ‘संकीर्ण (मिश्र) कथा’ कहा है, क्योंकि इसमें शेष चारों श्रेणियों का मिश्रण है. रचना में 4180 गाथाओं और 36 छंदों का प्रयोग है. रचना में यह उल्लेख भी है कि दाक्षिण्यचिह्न सूरि (उद्योतन सूरि का दूसरा नाम) पर ‘ह्री’ देवी प्रसन ने प्रसन्न होकर उनको जो वृतांत सुनाया, उसी को कुवलयमालाकहा के रूप प्रस्तुत किया गया है.
यह एक महाकथा है, जिसमें पाँच जीवों- लोभदेव, मानभट, मायादित्य, चंडसोम और मोहदत्त के आख्यान हैं, जो अलग-अलग भव में जन्म लेकर अंततः साधना द्वारा मुक्ति प्राप्त करते हैं. कथा का आरंभ कुवलयचंद्र, जो पूर्व भव के लोभदेव था, के आख्यान से होता है. कुवलयचंद्र का विवाह कुवलयमाला से होता है, जो पूर्व भव में मायादित्य थी. सभी चरित्र एक-दूसरे को सम्यक्त्व देकर जाति स्मरण करवाते हैं. कथा इतनी जटिल और विस्तृत है कि इसको पाँच विभागों बाँटा गया और इन विभागों को यथावश्यकता आगे भी एकाधिक उपविभागों में रखा गया है. कथा को संक्षिप्त करने के लिए अधिकांश दृष्टांतों को इसमें से निकाल दिया गया है.
कुवलयमालाकहा की एकाधिक पांडुलिपियों को आधार बनाकर 1959 ई. में मुनि जिनविजय की सिंघी जैन ग्रंथमाला के अंतर्गत इसका आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये के संपादन में दो भागों में आलोचनात्मक संस्करण प्रकाशित हुआ. बाद में कुछ अन्य विद्वान् प्रो. प्रेम सुमन जैन, महोमहापाध्याय विनय सागर, आचार्य नारायण शास्त्री आदि भी इसके संपादन और प्रकाशन प्रवृत्त हुए और इसके एकाधिक संस्कृत और हिंदी संस्करण भी सामने आए. कथा रूपांतर में इन सभी का सहयोग लिया गया है.
माधव जी हिंदी साहित्य के भंडार को अपनी तपस्या से निरंतर अधिक समृद्ध बना रहे हैं । साधुवाद !
ये तो बहुत मेहनत का काम है । मैं माधव हाड़ा से परिचित नहीं था । ऐसी वृहत पोथियों पर आज के दौर में भी काम हो रहा है यह जानकर आश्चर्य चकित हूं । मुझे ये लगता था कि राहुल सांकृत्यायन के बाद अब कोई और उनके जैसा नहीं है । ये आपकी एक नई खोज है ।
प्राचीन समाज की वर्गीय संरचना एवं जीवन मूल्यों को कथाओं से जानना एक दिलचस्प अनुभव है।ये कथाएँ
हमारे साहित्य की धरोहर हैं।माधव जी को साधुवाद !
Dr माधव hada जैन कथाओं पर अच्छा कार्य कर रहे है. साधुवाद