एक
जंबू द्वीप में विनिता नाम का एक नगर था. वहाँ दृढधर्मा नाम का राजा राज्य करता था. वह स्वभाव का सरल और दयालु था. दृढधर्मा एक बार अपने कुछ मत्रियों के के साथ अंतरंग सभा में बैठा था. उसकी पत्नी प्रियंगश्यामा उसके साथ थी. उसी समय प्रतिहारी आयी और उसने राजा से निवेदन किया कि उनकी आज्ञा से मालवा के राजा को जीतने के लिए गया हुआ सेनापति का शबर पुत्र सुषेण लौट आया है और उनके दर्शन करना चाहता है. राजा ने उसे भीतर आने की आज्ञा दी. राजा के पूछने पर सुषेण ने बताया कि हमने मालवा को जीत लिया है और वहाँ के राजा के पाँच वर्ष के बालक को बंदी बनाकर लाए हैं, जो अभी बाहर खड़ा हुआ है. बालक को राजा की आज्ञा से भीतर लाया गया. राजा ने उसको अपनी गोद में लिया. मालव राजकुमार महेंद्र की आँखों से टप-टप आँसू गिरने लगे. राजा ने बालक को आश्वस्त किया कि- “मालवराज कभी हमारे शत्रु थे, पर अब नहीं हैं, तुम निश्चिंत रहो.”
राजा दूसरे दिन सामंतों के साथ सभामंडप में बैठे हुआ था, तभी अंतःपुर की दासी सुमंगला वहाँ आई. उसने राजा के कान में धीरे-धीरे कुछ कहा. राजा तत्काल सिंहासन से उठकर प्रियंगश्यामा के महल की ओर चल दिया. रास्ते में राजा ने सोचा कि -“सुमंगला कहती है कि सेवकों के समझाने पर भी आज रानी ने न आभूषण पहने और न भोजन ही किया, केवल मौन धारण कर लिया है. भला, रानी के कोप का क्या कारण होगा? स्त्रियों के कोप के कारण पाँच होते हैं- एक तो प्रेम की शिथिलता, दूसरा गोत्र स्खलन, तीसरा चाकरों का अविनयी होना, चौथा सौत के साथ कलह और पाँचवाँ सास द्वारा तिरस्कार. इस प्रकार सोचते हुए राजा रानी के महल में पहुँचा. वहाँ उसे रानी दिखाई नहीं पड़ी. राजा कोपभवन में गया- वहाँ उसने टूटी हुई वनलता की तरह मुरझाई हुई रानी को देखा. राजा उसके पास पहुँचा. राजा ने कहा- “हे प्रिये! तुम्हारा मुख शरद् ऋतु के बादलों द्वारा हत हुए कमल की तरह क्यों हो गया है? क्या मैंने तुम्हारे भाई-बंधुओं का आदर नहीं किया? क्या तुम्हारे सेवक विनम्र नहीं हैं? क्या तुम्हारी सौतें तुमसे विरुद्ध हो गई हैं? किस कारण तुमने क्रोध किया है?”
रानी बोली कि- “स्वामी! आपकी कृपा से मुझे किसी प्रकार की कमी नहीं है. आपकी पत्नी होकर मैं अपने को भाग्यशाली समझती हूँ. मालव राजकुमार को देखकर आश्चर्य होता है कि मालवराज की पत्नी के ऐसा पुत्र उत्पन्न हुआ है और आप जैसा स्वामी होने पर भी मेरा कोई पुत्र नहीं है. यही सोचते हुए मुझे अपने ऊपर और आपके ऊपर क्रोध आया.” यह सुनकर राजा ने विचार किया कि “अहो! देखो स्त्री जाति की मूर्खता! इस प्रकार के झूठे प्रलापों से स्त्रियाँ पुरुष का चित्त हर लेती है.” मन में सोचकर राजा ने कहा- “देवि, यदि तुम्हारे क्रोध का यही कारण है, तो इसका क्या उपाय है? पुत्र होना भाग्य के अधीन है.” रानी ने उत्तर दिया कि “नाथ! आप किसी देवता की आराधना करके पुत्र की याचना करें, तो क्या हमारी कामना पूरा नहीं हो सकती.” इतना कहकर वह राजा के पैरों में गिर पड़ी. राजा ने अपने हाथों से उसे ऊपर उठाया और कहा कि- “प्रिये! जो तुमने कहा है, वह मैं अवश्य करूँगा.” राजा की यह प्रतिज्ञा सुनकर रानी प्रसन्न हो गयी.
राजा वहाँ से उठे और स्नान-भोजन आदि करके सभा में आए. सभा में आकर आज हुई घटना के संबंध में मंत्रियों को बताया. मंत्रियों ने राजा को परामर्श दिया कि- “आप राज्यलक्ष्मी नाम की देवी की उपासना कीजिये. दूसरे दिन पुष्य नक्षत्र और काली चतुर्दशी थी. राजा ने स्नान करके धुले हुए दो सफ़ेद वस्त्र पहने और नौकरों से पूजन की सामग्री की टोकरी उठवाकर राज्यलक्ष्मी देवी के मन्दिर में प्रवेश किया. भक्ति में लीन और इन्द्रिय निग्रह कर वह तीन रात और तीन दिन तक उसी अवस्था में रहा. अंततः क्रोध में आकर उसने बायें हाथ से अपने बाल पकड़कर और दाहिने हाथ से पास में पड़ी हुई तलवार उठा ली. वह अपनी गर्दन पर तलवार चलाना ही चाहता था कि तत्काल ‘हा! हा’ कहती हुई देवी ने उसका हाथ पकड़ लिया. देवी ने राजा से कहा कि- “महाराज! पूर्णिमा के चाँद के समान पुत्र तुम्हें प्राप्त होगा.” इतना कहकर देवी अदृश्य हो गयीं.
प्रियंगश्यामा अपने इष्टदेव और गुरु का स्मरण करने के बाद सो गई. रात्रि के पिछले भाग में उसने कुवलयमाला से घिरे हुए चन्द्रमा का स्वप्र देखा. वह तत्काल राजा के पास गयी और स्वप्र का सारा हाल कह सुनाया. सुनकर राजा हर्ष से बोला कि- “प्रिये! राज्यलक्ष्मी ने पुत्र का जो वरदान दिया था, वह अब पूर्ण होगा.” उसी दिन प्रियंगश्यामा ने गर्भ धारण किया और बाद में शुभ लग्र में एक पुत्र को जन्म दिया. ज्योतिषी ने कहा कि जन्म के समय के सभी ग्रह सौम्य हैं और मुहूर्त्त देखने से लगता है कि यह पुत्र चक्रवर्ती राजा होगा. बारहवाँ दिन आया. राजा ने नौकर-चाकरों का वस्त्र आदि देकर सत्कार किया. रानी ने स्वप्र में कुवलयमाला से युक्त चन्द्रमा देखा था, इसलिए कुमार का नाम कुवलयचंद्र रखा गया. वह पाँच धायों की देखरेख़ में प्रतिपदा का चन्द्रमा की तरह बढ़ने लगा और जब वह आठ वर्ष का हुआ, तो उसे गुरुकुल में विद्याभ्यास के लिए भेजा दिया गया.
शिक्षा पूर्ण होने के बाद एक दिन कुवयलयचंद्र अपने गुरु के साथ अपने पिता को प्रणाम करने आया. पुत्र को देखकर राजा प्रसन्न हो गया. राजा ने कुमार को अपनी गोद में बिठाकर उसके गुरु से पूछा कि- “उपाध्याय महाराज! इसने आप से समस्त कलाएँ ग्रहण कर लीं?” तो उपाध्याय बोले कि- “देव! कुमार ने मुझसे कोई कला ग्रहण नहीं की, परन्तु जैसे बहुत काल से उत्कंठित चित्तवाली स्त्रियाँ जैसे पति को स्वीकार कर लेती है, उसी प्रकार सब कलाओं ने इस कुमार को स्वीकार कर लिया है.” राजा ने कुमार से कहा कि- “बेटा! तुम्हारे वियोग रूपी अग्रि से उत्पन्न होने वाले चिन्ता रूपी धुँए से प्रियंगश्यामा श्याम होकर यथार्थ नाम वाली हो गई है, इसलिए उसके पास जाओ.” पुत्र से मिलकर माता ने उसका मस्तक चूमा और प्रेम से कहा- “बेटा! देव, गुरु और सतियों के प्रताप से ठीक अपने पिता जैसे बनो.” रानी इतना ही कह पाई थी कि उसी समय नौकरानी ने प्रणाम करके कहा कि- “देवी! आज महाराज स्वयं अश्व क्रीड़ा करने जाने वाले हैं, इसलिए कुमार को भेज दीजिये.”
रानी की आज्ञा पाकर कुमार राजा के पास आया. राजा ने अश्वपाल से कहा कि महेन्द्रकुमार के लिए गरुड़वाहन, मेरे लिए पवनावर्त और कुवलयचंद्र के लिए उदधिकल्लोल नाम का घोड़ा लाओ. दूसरे राजकुमारों के लिए भी घोड़े लाओ.” राजा के आदेश से अश्वपाल ने सब को घोडे दिए और कुवलयचंद्र के लिए घोड़ा लाकर उसके पास खड़ा कर दिया. उस घोड़े का मन हमेशा हवा से बातें करता था- वह क्षणभर में दूर देशों में पहुँच जाता था. राजा पवनावर्त घोड़े पर सवार हो गया, कुमार उद्धिकल्लोल पर चढ़ा, महेन्द्रकुमार गरुड़वाहन पर चढ़ा और दूसरे राजकुमार अन्य घोड़ों पर सवार हो गए. राजा पल भर में नगर से बाहर आ गया. कुवलयचंद्र ने पाँच प्रकार की चाल देखने के लिए अपने घोड़े को छोड़ा. देखते-ही-देखते वह आकाश में उड़ गया. वेगपूर्वक अपने अपहरण किये जाने पर कुमार ने विचार किया कि यदि सचमुच यह घोड़ा है, तो आकाश में कैसे है? कुमार ने तेज़ कटार से घोड़े के पेट में प्रहार किया. घोड़े के शरीर से रक्त की धारा बह निकली और वह धराशायी होकर मर गया. कुमार ने सोचा कि-“यह घोड़ा ही था, तो आकाश मार्ग से क्यों रवाना हुआ? यदि वास्तव में घोड़ा नहीं था, तो मेरे प्रहार से क्यों मर गया?”
कुमार इस प्रकार विचार कर रहा था कि उसे मेघ गर्जन के समान वाणी सुनायी पड़ी कि- “कुवलयचंद्रकुमार! मेरी बात सुनो! तुम्हें अभी दक्षिण की ओर दो कोस और आगे जाना है, जहाँ तुम्हारा सामना एक आश्चर्य से होगा.” यह सुनकर कुमार ने सोचा कि यह मेरा नाम और गोत्र कैसे जानता है? उसने सोचा शायद यह दिव्यवाणी हो. वह थोड़ा और आगे बढ़ा, तो उसे एक वट वृक्ष दिखाई दिया. उस पर पक्षी कोहलाहल कर रहे थे. राजकुमार ने वहाँ पहुँच कर इधर-उधर देखा, तो एक मुनि नज़र आए. उनका शरीर तपस्या के कारण सूख गया था, लेकिन शरीर की क्रान्ति से वे अग्रि के समान लगते थे. उनके एक और कोई दिव्य पुरुष और दूसरी ओर एक सिंह बैठा हुआ था. कुमार ने सोचा कि मुनि को अपने अश्वहरण का कारण पूछना चाहिए. मुनि ने उसे देख कर कहा कि- “हे वत्स कुवलयचन्दकुमार! आओ.”
माधव जी हिंदी साहित्य के भंडार को अपनी तपस्या से निरंतर अधिक समृद्ध बना रहे हैं । साधुवाद !
ये तो बहुत मेहनत का काम है । मैं माधव हाड़ा से परिचित नहीं था । ऐसी वृहत पोथियों पर आज के दौर में भी काम हो रहा है यह जानकर आश्चर्य चकित हूं । मुझे ये लगता था कि राहुल सांकृत्यायन के बाद अब कोई और उनके जैसा नहीं है । ये आपकी एक नई खोज है ।
प्राचीन समाज की वर्गीय संरचना एवं जीवन मूल्यों को कथाओं से जानना एक दिलचस्प अनुभव है।ये कथाएँ
हमारे साहित्य की धरोहर हैं।माधव जी को साधुवाद !
Dr माधव hada जैन कथाओं पर अच्छा कार्य कर रहे है. साधुवाद