दो
कुवलयचंद्र ने मुनि के चरणकमलों में वन्दना की. मुनि बोले- “कुमार! तुम यह जानना चाहते हो कि मेरा अपहरण किसने और किस कारण से किया है? यह वृत्तांत मैं विस्तार से बतलाता हूँ, सुनो.” इस असार संसार में जिनके चित्त क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह से आक्रांत हैं, उन प्राणियों ने जो फल भुगते हैं, उनके साथ अपने अश्वहरण तक का सारा वृत्तांत सुनो!
जंबू द्वीप में कौशांबी नाम की नगरी है, जिसका राजा पुरन्दरदत्त था. वह राजा गुणी था, लेकिन उसमें केवल एक दोष था कि धर्म में उसकी आस्था नहीं थी. वासव नाम का उसका मंत्री था, जिसको राजा बहुत मानता था. एक बार मंत्री वासव प्रातःकाल स्नानादि नित्यकर्म पूर्ण कर मंदिर में घुस रहा था कि इतने में बाहर के बगीचे का स्थवर नामक माली आया. उसने मंत्री को आम्रमंजरी भेंट की और कहा कि बगीचे में श्रीधर्मनन्दन नामक मुनि आए हैं. मंत्री ने देवपूजा की और राजभवन में जाकर वही मंजरी राजा के हाथ में रखी. राजा बोला कि- “क्या उद्यान में वसन्त ऋतु आ गई है”, तो मंत्री ने उत्तर दिया कि- “वसन्त की शोभा देखने उद्यान में चलना चाहिए.” राजा मंत्री सहित उद्यान में आया, जहाँ उसने देखा कि मुनियों के समूह में एक मुनिराज विराजमान है. उन्हें देखकर राजा ने मंत्री से पूछा कि- “हे मंत्री! कई मुनियों के बीच बैठा हुआ यह राजा के समान कौन है?” मंत्री ने कहा कि-“हे राजा ! जो सब के बीच में बैठे हैं, वे इन सब मुनियों के अधिपति हैं. उनका नाम है धर्मनन्दन सूरि है.”
1.
राजा ने मुनि के चरणों में नमन किया और उनके सामने बैठ गया. धर्मन्दन गुरु बोले कि- “क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चार इस संसार रूपी दुःखसमुद्र के कारण हैं. क्रोध से जिसका हृदय अंधा हो गया है, वह प्राणी पास में बैठे हुए इस प्राणी की समान है, जो अपने भाई और बहन की भी हत्या कर डालता है.” उसका वृत्तांत सुनो!
काशी के आग्नेय कोण में रगड़ा नामक एक गाँव है, जिसमें सूशमदेव नामक ब्राह्मण रहता था. उसकी सुशर्मा नाम की स्त्री थी और उसके बड़े लड़के का नाम रुद्रसोम था. उस रुद्रसोम का सोमदेव नाम का छोटा भाई तथा श्रीसोमा नाम की बहन थी. रुद्रसोम लड़कपन से ही प्रचंड और कटुभाषी था. वह अपनी गली में लड़कों से अकारण ही मारपीट किया करता था. बालकों ने उसका स्वभाव देखकर उसका नाम ‘चंडसोम’ रख दिया. कुछ दिन बीतने पर चंडसोम के पिता ने नन्दिनी नाम की एक कन्या के साथ उसका विवाह कर दिया. इसके बाद कुटुम्ब का भार उस पर डालकर उसके माता-पिता तीर्थयात्रा पर चले गए. धीरे-धीरे चंडसोम युवा हुआ. उसकी पत्नी नन्दिनी शीलव्रत पालन करती थी, तो भी यौवना होने के कारण चंडसोम का उस पर विश्वास नहीं था.
एक दिन उस गाँव में नटों की एक टोली आयी. रात्रि शुरू होते ही नटों ने मृदंग बजाना प्रारम्भ किया, जिसकी आवाज़ सुनकर लोगों की भीड़ जमा होने लगी. चंडसोम की इच्छा भी वहाँ जाने की हुई, लेकिन उसे अपनी स्त्री की चिंता सताने लगी. अंततः वह अपनी स्त्री को अपनी बहन के पास छोड़कर हाथ में तलवार लेकर नाटक देखने चल दिया. उसके चले जाने पर बहन ने नंदिनी से नाटक देखने चलने का आग्रह किया, लेकिन वह अपने पति के शंकालु स्वभाव को जानती थी, इसलिए उसने मना कर दिया. श्रीसोमा नंदिनी को घर पर छोड़कर नाटक देखने चली गई. चंडसोम जब नाटक देख रहा था, तो उसके पीछे बैठे हुए एक स्त्री-पुरुष आपस में बात करने लगे. उनमें से युवक बोला कि “हे सुन्दरी! स्वप्र में मुझे तू ही तू दिखाई देती है. आज तुझे आँखों से देखकर तेरे विरह की ज्वाला से मेरा शरीर भस्म हुआ जाता है, उसे अब तू अपने संयोगरूपी अमृतरस से सींच दे.” उत्तर में युवती कहने लगी कि- “मैं जानती हूँ कि तुम चतुर हो, परन्तु मेरा पति स्वभाव से ही चंड है.” संवाद में प्रयुक्त ‘चंड’ शब्द से चंडसोम को सन्देह हो गया. इतने में वह युवक बोला- “भले ही तुम्हारा पति चंड हो या सोम हो, पर आज तो तुझे मेरे साथ संयोग करना ही पडे़गा.” युवती बोली कि “यदि तुम्हारा यही निश्चय है, तो मेरा पति यहीं बैठा हुआ नाटक देख रहा है. मै अपने घर चलती हूँ, तुम भी मेरे पीछे चले आना.” चंडसोम ने सोचा यह दुष्ट उसकी ही स्त्री है. वह तत्काल वहाँ से उठ खड़ा हुआ. क्रोध के मारे उसकी छाती धड़कने लगी. वह अपने घर में घुसकर दरवाज़े के पीछे तलवार सँभालकर खड़ा हो गया. नाटक समाप्त होने पर उसका छोटा भाई और बहन घर आए. चंडसोम ने जैसे ही उन्हें दरवाज़े में घुसते हुए देखा, तो उसने उनकी हत्या कर डाली. आवाज़ सुनकर चंडसोम की स्त्री की नींद टूट गई. वह बोली- “हे पापी! यह क्या कर डाला? चंडसोम ने देखा, तो भाई-बहन मरे हुए थे. उसे बहुत पश्चाताप हुआ- उसने श्मशान में चिता बनाकर उसमें प्रवेश करने का संकल्प कर लिया. गाँव के लोगों ने आकर उसे रोका और पश्चाताप करने की राय दी. मुझे चार ज्ञानवाला समझकर चंडसोम मेरे पास आया है. चंडसोम अपना हाल सुनकर मुनि को हाथ जोड़कर बोला कि- “हे प्रभु! आपने जो कहा सत्य है. मुझे दीक्षा दीजिये.” उसके कहने पर मुनि ने उसे दीक्षा दी.
2.
श्रीधर्मनंदन ने कहा कि “हे पुरन्दरदत्त राजन्! मान धर्म का शत्रु है. मान के वश में होकर जीव इस आदमी की तरह अपने पिता, माता और पत्नी की भी उपेक्षा करता है.” यह बात सुनकर राजा ने उस आदमी के संबंध में पूछा, तो मुनि ने कहा कि- “जो हमारे बायें हाथ की तरफ़ बैठा है, उसके संबंध में विस्तार से सुनो!”
अवन्ती देश में कृपपुंड नाम का गाँव है. उस गाँव में क्षत्रभट नाम का बूढ़ा ठाकुर रहता था. उसका वीरभट नाम का इकलौता बेटा था, जो उसे बहुत प्रिय था. एक बार वह पुत्र को साथ लेकर उज्जयिनी नगरी में राजा प्रद्योतन की सेवा करने गया. राजा प्रद्योतन ने उसे कृपपुंड नामक गाँव दिया. आसपास के शत्रुओं के साथ बार-बार युद्ध से वह कमज़ोर हो गया. वह अपने पुत्र वीरभट को, राजा को सौंपकर अपने घर आ गया. वीरभट के शान्तिभट नामक पुत्र पैदा हुआ. वह बड़ा होकर राजा की सेवा करने लगा. शान्तिभट युवावस्था से ही घमंडी था. अतः राजा प्रद्योतन और राजपुत्रों ने मिलकर उसका नाम शान्तिभट से बदलकर मानभट रख दिया. मानभट एक बार राजा प्रद्योतन की सभा में गया. सभी सभासद यथास्थान बैठे हुए थे. वह राजा को नमस्कार करके अपने स्थान पर बैठने गया, तो पुलिन्द नामक राजकुमार को अपनी जगह बैठा पाया. मानभट उससे बोला कि- “हे पुलिन्द! यह मेरे बैठने की जगह है, तुम उठ जाओ.” पुलिन्द बोला- “मैं अनजाने में यहाँ बैठ गया हूँ. अपराध क्षमा करो, फिर कभी नहीं बैठूँगा.”
दूसरे सभासदों ने मानभट को भड़काया, जिससे उसने उचित-अनुचित का विचार छोड़कर पुलिंद की हत्या कर दी और वहाँ से भाग निकला. राजकुमारों ने उसका पीछा किया, परन्तु वह दौड़ता हुआ अपने घर जा पहुँचा. उसने अपने पिता को सारा वृत्तांत सुनाया. पिता ने कहा कि- “हमें इस परिस्थिति में यहाँ से कहीं अन्यत्र चले जाना चाहिए.” यह निर्णय कर क्षत्रभट और वीरभट तो चल दिए, परन्तु मानभट लौट आया. पिता ने उसे बहुत रोका, परन्तु घमंड में आकर वह वहीं ठहर गया. मानभट वापस लौटकर आया ही था कि इतने में पुलिन्द की सेना आ पहुँची और दोनों में पक्षों में युद्ध छिड़ गया. मानभट ने तलवार चलाकर पुलिंद की सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया, लेकिन वह भी घायल हो गया. वह अपने आदमियों को लेकर जिधर उसके पिता गए थे, उधर चल दिया और रास्ते में उनसे मिल गया. चलते-चलते वे नर्मदा नदी के किनारे आकर किसी गाँव में गुप्त रूप से रहने लग गए.
एक बार बसन्त ऋतु में मानभट गाँव के युवकों के साथ झूला झूलने गया. लोगों ने कहा कि- “जिसे जो प्रिय हो, वह उसका नाम ले.” उसने झूले पर चढ़कर श्यामांगी का नाम लिया, जिससे उसकी गौरांगी स्त्री नाराज़ हो गयी. वह सोचने लगी कि उसके पति ने सहेलियों के सामने भी उसकी इज़्ज़त नहीं रखी. गौरांगी स्त्री समूह मे से निकलकर मरने का उपाय सोचती-विचारती घर आई और उसने फाँसी लगा ली. मानभट ने स्त्रियों में अपनी पत्नी को नहीं देखा, तो उसे कुछ आशंका हुई. वह तुरन्त ही घर आया और शयन गृह में जाकर उसने फाँसी तोड़ दी. मानभट ने सोचा यह तो अकारण ही क्रोध के पहाड़ पर चढ़ गई है. उसने सोचा कि अनुनय-विनय करने पर भी यह प्रसन्न नहीं होती- स्त्रियाँ प्रायः ऐसी ही होती हैं. मानभट शयनगृह से बाहर निकला. माँ ने उससे पूछा कि- “ क्या मामला है”, लेकिन मानभट माँ को उत्तर दिए बिना ही घर से बाहर चला गया. मानभट के चले जाने पर गौरांगी ने सोचा कि– “मेरा हृदय पत्थर की तरह कठोर है, स्वामी के अनुनय-विनय पर मैं राजी न हुई? मैंने यह ठीक नहीं किया.” वह यह सोचकर शयनगृह से बाहर निकली और अपने पति के पीछे-पीछे चल दी. गौरांगी से उसकी सास ने पूछा- “बेटी! तू कहाँ जा रही है?” तो गौरांगी ने उत्तर दिया कि वह उसके बेटे के पीछे जा रही है. उसकी सास भी उसके पीछे-पीछे दौड़ पड़ी.
मानभट के पिता वीरभट ने भी वैसा ही किया. मानभट चलता-चलता एक कुँए के किनारे आया. वहाँ से उसने पीछे आती हुई अपनी स्त्री को देखा. उसने उसकी परीक्षा लेने की ठानी- उसने एक शिला कुँए में डाली, जिसकी आवाज़ से उसकी स्त्री को लगा कि उसका पति कुँए गिर गया है. वह यह सोचकर कि मैंने अपराध किया है, कुँए में कूद गयी. उसके सास-ससुर ने भी ऐसा ही किया. तीनों को मरा समझकर मानभट बहुत दुःखी हुआ. वह पश्चाताप के लिए तीर्थ, गंगा स्नान आदि करने लगा. अन्त में माता-पिता और पत्नी के वध के भीषण पाप को शान्त करने के लिए कौशांबी में आया. हे नरेश! यह मानभट तीर्थ किया करता है, लेकिन यदि चित्त शुद्ध हो, तो मनुष्य घर मे रहकर भी कर्मों का क्षय कर सकता है. मानभट ने मान त्याग दिया और श्रीधर्मनन्दन से दीक्षा ले ली.
3.
गुरु ने उपस्थित सभी लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि- “हे पुरन्दरदत्त राजन्! मायाचार करने वाला मनुष्य इस पुरुष की तरह यश, धन और मित्रों से हाथ धो बैठता है. राजा ने कहा- “हे भगवन्! वह पुरुष कौन है और उसने ऐसा क्या किया है.” गुरु ने कहा कि- “यह जो तुम्हारे सामने बैठा है और जिसका शरीर काले रंग का है, उसके मायाचार का वृत्तांत विस्तार से सुनो.”
भरतक्षेत्र में वाराणसी से वायव्य कोण में शालिग्राम नामक गाँव है. उस गाँव में गंगादित्य नामक एक वणिक रहता था. सारा गाँव धन-धान्यादि से पूर्ण था, बस वही एक ग़रीब था. मायाचार उसका स्वभाव था, जिससे लोग उसे गंगादित्य के बजाय मायादित्य कहा करते थे. उसी गाँव में स्थाणु नाम का एक वणिक पुत्र भी रहता था. वह धनहीन हो गया था. उसकी मैत्री इस मायादित्य के साथ हो गई. स्थाणु सरल स्वभाव, कृतज्ञ, और निर्दोष था. स्थाणु और मायादित्य का प्रेम बढ़ता गया और दोनों को एक-दूसरे पर विश्वास करने लग गये. दोनों ने धन कमाने के लिए दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान किया. दुर्गम वन को पार करके दोनों प्रतिष्ठानुपर में आए. वहाँ व्यापार करके उन्होंने पाँच-पाँच हज़ार सोने की मोहरें कमाईं और फिर वे लोग स्वदेश लौटने का तैयार हुए. उस समय उन्होंने सोचा कि इस द्रव्य की चोरों से रक्षा करना बहुत कठिन है.
उन्होंने दस हज़ार मोहरों के दस रत्न ख़रीदे और एक फटे कपड़े के छोर में बाँध लिए. वे तीर्थयात्री का वेश बनाकर चलते हुए किसी गाँव के पास आए. स्थाणु ने कहा कि- “मैं बहुत थक गया हूँ, इसलिए मुझमें भिक्षा के लिए जाने की शक्ति नहीं है. आज मेरी अछा भोजन करने की इच्छा है.” स्थाणु अच्छा भोजन बनवाने के लिए गाँव की ओर चला. मायादित्य के मन में पाप आ गया. उसने हीरों की गाँठ जैसी ही कंकड़ की गाँठ बनायी और इसे स्थाणु को देने के लिए उसकी प्रतीक्षा करने लगा. हलवाई की दुकान बन्द होने से स्थाणु जल्दी लौट आया. मायादित्य ने आते ही उससे कहा कि- “रत्नों की गाँठ का मुझे क्या करना है. यह तुम अपने पास रखो.” जल्दबाज़ी में उसने से सच्चे रत्नों की गाँठ स्थाणु को दे दी और भिक्षा लेने के बहाने वहाँ से चला गया. दूर जाकर जब उसने गाँठ खोली तो उसे कंकड़ नज़र आए. गाँव के बाहर ठहरे हुए स्थाणु ने बहुत देर तक उसकी प्रतीक्षा की, जब वह न आया, तो वह वहाँ से चल दिया.
स्थाणु सरल और सहृद्य मनुष्य था. उसने सोचा कि यदि उसका मित्र मर गया होगा, तो उसके पाँचों रत्न मैं उसके परिजनों दे दूँगा.’ स्थाणु अपने गाँव की ओर रवाना हुआ. मार्ग में चलते हुए नर्मदा नदी के किनारे रूखा चेहरा लिए हुए मायादित्य दिखाई दिया. मायादित्य ने मित्र को गले लगया. मायादित्य ने बहाना बनाया कि वह बंदी हो जाने के कारण उसके पास नहीं पहुँच पाया. दोनों मित्र भोजन करके वहाँ से रवाना हुए और चलते-चलते रास्ता भटक गए. स्थाणु ने कहा कि- “मुझे भूख सता रही है. रत्नों की गाँठ तू ले ले.” मायादित्य ने सोचा कि जो काम मेरे करने का था, वह इसने स्वयं ही कर दिया.” दोनों को ख़ूब प्यास लगी. दोनों इधर-उधर पानी की खोज करने लगे. ढूँढते-ढूँढते उन्हें एक कुँआ दिखाई दिया. कुँआ देखकर दुष्ट बुद्धि मायादित्य ने सोचा- “इसे कुँए में गिरा दिया जाए, यही सबसे अच्छा उपाय है.” यह सोचकर वह बोला कि- “मित्र स्थाणु! देखकर बताओ, कुँए में कितना गहरा पानी है?” यह सुनकर सरल चित्त स्थाणु जल की गहराई देखने लगा. मायादित्य ने स्थाणु को कुँए में ढकेल दिया. वह पानी की घास परगिरा, जिससे उसके शरीर को कुछ ज़्यादा चोट नहीं लगी.
मायादित्य ने सोचा कि अब इन दसों रत्नों का उपयोग करना चाहिए. तभी उसे चोरों का सरदार दिखाई दिया, जिसने उसे पकड़ लिया और रत्न भी छीन लिए. वह चोर सरदार फिरता-फिरता देव योग से प्यास का मारा उसी कुँए के पास आ पहुँचा. उसने चोरों को कुँए में से पानी निकालने का आदेश दिया. कुँए में पड़े हुए स्थाणु ने ज़ोर से आवाज़ देकर कहा कि- “किसी ने मुझे इस कुँए में पटक दिया है. मुझे भी बाहर निकालो.” सरदार का आदेश को सुनकर उसके सेवकों ने स्थाणु को तुरंत कुँए के बाहर निकाल लिया. सेनापति ने उसे रत्न दिखाए. स्थाणु ने उन्हें पहचान कर कहा कि- “आपने कब, कैसे और कहाँ से ये रत्न पाए? क्या मेरे मित्र को मारकर आपने ये रत्न ले लिए हैं?” सेनापति ने कहा कि- “तेरे मित्र को हमने मारा नहीं, बाँधकर सिर्फ़ रत्न ले लिए हैं.” इतना कहकर सेनापति ने दया कर स्थाणु को पाँच रत्न दे दिए. स्थाणु अपने मित्र की खोज में निकला. वह एक गहन वन में पहुँचा, तो क्या देखता है कि मित्र की भुजाएँ और पैर गठरी की भाँति बँधे हुए हैं और मुँह नीचे की ओर लटका हुआ है. स्थाणु ने उसके सब बन्धन खोल दिए और कहा कि- “मैंने नया जन्म पाकर पाँच रत्न पाये हैं. उनमें से आधे तुम्हारे और आधे मेरे. दुःख़ी मत होओ.” स्थाणु ने दवा आदि करके मायादित्य को अच्छा कर दिया. मायादित्य ने सोचा कि- “मैंने ऐसा अनुचित व्यवहार किया, तो भी स्थाणु कैसा परोपकारी है?” मायादित्य पश्चाताप में चिता जलाकर उसमें प्रवेश करने के लिए तैयार हो गया, लेकिन गाँव के बड़ो-बूढ़ों के समझाने के बाद पाप के निवारण के लिए स्थाणु को साथ लेकर यहाँ आकर बैठा है. अपना यथार्थ वृत्तांत सुनकर मायादित्य बोला कि- “मुझ पर अनुग्रह करके दीक्षा दीजिए.” गुरु ने वैसा ही किया.
4.
हे पुरन्दरदत्त राजन्! लोभ में फँसा हुआ प्राणी इस पुरुष की तरह धन से हाथ धो बैठता है, मित्र की हत्या कर डालता है और स्वयं दुःख में पड़ जाता है.” यह सुनकर राजा ने निवेदन किया- “भगवन्! वह कौन पुरुष है और उसने क्या किया है.” गुरु बोले कि- “हे राजन्! यह आदमी, जो तुम्हारे पीछे बैठा है, इसने लोभ के अधीन होकर जो काम किया है, उसका वृत्तांत एकाग्रचित होकर सुनो!
जंबू द्वीप में भरतक्षेत्र की तक्षशिला नगरी की नैर्ऋत्य दिशा में उच्छल नामक गाँव है. उस गाँव में उत्तम कुल में उत्पन्न एक व्यापारी का पुत्र धनदेव रहता था. धनदेव स्वभाव से ही लोभी था और दूसरों को ठगने में चतुर था. उसके ऐसे कृत्य देखकर दूसरे व्यापारियों के पुत्रों ने उसका धनदेव नाम बदलकर लोभदेव रख दिया. एक बार उसका मन धन कमाने के लिए उत्साहित हुआ. उसने गुरुजन की आज्ञा लेकर दक्षिण की ओर प्रस्थान किया. लोभदेव दक्षिण दिशा में चलता हुआ सोपारकपुर आ पहुँचा. उसी नगर में रुद्र नाम के एक वेद्ध सेठ रहते थे. वे गुणों का भंडार थे. लोभदेव ने उन्हीं के घर ठहरकर कुछ समय तक घोड़े बेचे और ख़ूब धन कमाया. कुछ समय बाद लोभदेव का मन घर की जाने को हुआ. उस नगर में वहीं के और कुछ देशान्तर से आए हुए वणिक लोग भी रहते थे. वे संध्या के समय एक जगह एकत्र होकर क्रय-विक्रय के संबंध में संवाद किया करते थे. एक बार लोभदेव उसी गोष्ठी में बैठा था, तो एक वणिक ने पूछा- “क्या कोई ऐसा देश है, जहाँ कम मूल्य की वस्तु से अधिक मूल्यवाली वस्तु प्राप्त होती हो?”
वणिक की बात सुनकर एक दूसरा वणिक बोला- “हाँ, मैं समुद्र को पारकर रत्न द्वीप गया था. मैंने वहाँ नीम के पत्ते देकर रत्न लिए थे.” यह बात सुनकर लोभदेव ने घर जाने का विचार छोड़ दिया. उसने और धन कमाने का निश्चय किया. वह वहाँ से उठकर अपने घर पर आया. उसने रुद्र सेठ से अनुरोध किया कि- “अच्छा हो, यदि आप भी मेरे साथ रत्न द्वीप चलें.” दोनों ने स्नान किया, वस्त्र-आभूषण पहने और फिर परिवार सहित समुद्र किनारे जाकर जहाज़ में बैठ गए. वायु अनुकूल थी, अतः कुछ ही समय में जहाज़ रत्न द्वीप पहुँच गया. वे दोनों नीचे उतरे और भेंट लेकर राजा के पास गए. राजा से आदर-सत्कार पाकर दोनों ने क्रय-विक्रय करके ख़ूब धन कमाया. अब दोनों की वापस अपने देश जाने की इच्छा हुई. वे जहाज़ तैयार करवा कर रवाना हुए. वायु की अनुकूलता से जहाज़ को जल्दी चलते देखकर लोभदेव मन ही मन सोचने लगा कि- “जितना चाहते थे, उससे भी अधिक लाभ हुआ. सारा जहाज़ रत्नों से भर गया है. किन्तु किनारे लगते ही यह रुद्र सेठ इसमें से हिस्सा माँगेगा.” लोभदेव ने यह सोचकर सेठ को मगरमच्छों से भरे हुए समुद्र में फेंक दिया.
रुद्र सेठ एक बड़े भारी मगरमच्छ के मुख का भोजन बन गया और वह मर कर राक्षस हो गया. अपने ज्ञान से अपने शरीर को मगर के द्वारा निगले जाते देखकर राक्षस ने सोचा कि- “अरे इस पापी लोभदेव ने मुझे समुद्र में डाल दिया.” यह सोचकर राक्षस समुद्र में आ धमका. समुद्र में जहाज़ को देखकर वह प्रतिकूल उपाय करने लगा. बादल चारों ओर घूमने लगे और बिजलियाँ चमकने लगीं, जिससे समुद्र में चलता हुआ जहाज़ टूट गया. लोभदेव को भाग्य से एक जहाज़ का टूटा हुआ पट्टा हाथ लग गया, जिसके सहारे वह एक सप्ताह में तारा द्वीप जा पहुँचा. वहाँ पहुँचकर वह स्वस्थ हो गया, लेकिन समुद्र के किनारे रहने वाले काले-कलूटे शरीर वाले आदमियों ने उसको को पकड़ लिया. वे लोभदेव को अपने घर ले गए. उन लोगों की बात सुनकर लोभदेव मन ही मन सोचने लगा कि- “ये लोग कितने अच्छे हैं?” लोभदेव यह सोच ही रहा था कि उन्होंने उसे कसकर बाँधा और शस्त्र के द्वारा उसके शरीर में से माँस और रक्त निकाल लिया. रक्त-माँस निकाल चुकने के बाद दवा का लेप कर उसके शरीर को वापस ठीक कर दिया. छह महीने बाद उन्होंने फिर वैसा ही किया.
बार-बार इस प्रकार करते रहने से लोभदेव का शरीर केवल अस्थिपंजर रह गया. इस हालत में रहते-रहते उसे बारह वर्ष बीत गए. एक समय की बात है. लोभदेव के शरीर में से हाल ही रक्त-माँस निकाला गया था, जिससे सारा शरीर लहू से लथपथ था. उसी समय एक भारंड पक्षी ने लोभदेव को उठा लिया. पक्षी समुद्र के ऊपर आकाश में उड़ रहा था कि उसका सामना दूसरे भारंड पक्षी से हो गया. दोनों में लड़ाई होने लगी. इस लड़ाई में, लोभदेव भारंड की चोंच से छूटकर समुद्र में जा गिरा. समुद्र में गिरते ही खारे पानी के कारण उसे पीड़ा होने लगी. वह किसी तरह किनारे पर पहुँचा. वहाँ स्वस्थ होकर समीप के वन में भ्रमण करने लगा. लोभदेव के मन में एकाएक रुद्र सेठ का स्मरण हो आया. स्मरण होते ही उसे पश्चाताप होने लगा. उसने लोभ छोड़ दिया. हे पुरन्दरदत्त राजन्. वह लोभदेव घूमता हुआ यहाँ आकर बैठा है. लोभदेव ने कहा कि- “आपने जो कहा, वह अक्षरशः सत्य है. हे भगवन्! मुझे दीक्षा देने की कृपा करें.”
5.
श्रीधर्मनन्दन फिर बोले कि- “हे राजन्! जिसका मन मोह से ग्रस्त है, वह इस पुरुष की तरह उचित-अनुचित का विचार नहीं करता, अपनी बहन के साथ भी संयोग की इच्छा करता है और पिता की भी हत्या कर डालता है.” गुरु की बात सुनकर राजा बोला- “स्वामी! इस सभा में कई आदमी हैं, इनमें से वह कौन है, मैं नहीं जानता.” गुरु ने कहा कि- “जो तुमसे दूर और वासव मंत्री से दाहिनी तरफ़ बैठा हुआ है, यह वही मनुष्य है. उसके संबंध में विस्तार से सुनो!
कौशल देश की कोशला नामक नगरी में कोशल नाम का राजा राज्य करता था. उस राजा के एक तोसल नाम का पुत्र था. वह पंडितों में प्रमुख और ख़ूबसूरती में इन्द्र के पुत्र जयन्त के समान था. एक दिन राजकुमार ने किसी बड़े नगरसेठ की हवेली के झरोखे में निकला हुआ, किसी युवती का मुख देखा. उस युवती ने भी राजपुत्र को देखा और दोनों को एक दूसरे से प्रेम हो गया. राजकुमार काम से पीड़ित हो गया. वह अपने महल की ओर जाते हुए विचार करने लगा कि इस युवती के मुख ने तो चन्द्रमा को भी लज्जित कर दिया है. राजकुमार अपने निवास भवन के समीप आ पहुँचा. राजकुमार के आँख से ओझल होते ही उस युवती के भी सभी अंग कामदेव के प्रहार से शिथिल हो गए. काम से पीड़ित राजकुमार ने सोचा कि बिना दुःख सहे सुख नहीं मिल सकता. वह तलवार लेकर युवती के घर के पास आया और किसी उपाय से ऊपर चढ़कर उसके झरोखे में आ गया. कुमार को अपने घर आया देख युवती सुवर्णलेखा ने उसे बैठने के लिए आसन दिया. कुमार ने कहा कि- “सुन्दरी! मैं तुम्हारा संयोग चाहता हूँ.”
युवती ने कहा कि –“मैं कोशला नगरी के नन्दन सेठ की पुत्री हूँ. मेरे माँ-बाप ने मुझे विष्णुदत्त के पुत्र हरिदत्त को विवाह के लिए दी है. उसे गए आज बारह वर्ष से अधिक बीत चुके हैं. वह जीवित है या मर गया, इसका भी पता नहीं. मेरा जन्म व्यर्थ जा रहा है. यह विचार कर मैंने मरने का निश्चय कर लिया था. फिर यह सोचकर कि आज अन्तिम बार मनुष्यों को भली-भाँति देख लूँ, झरोखे में बैठी थी. संयोग से तुम दिखायी पड़े. तुम्हें देखते ही, मैं तुम पर आसक्त हो गयी. यदि मैं तुम्हारे साथ संयोग करूँगी, तो मैं चरित्रहीन कहलाऊँगी.” युवती ने कुमार का आलिंगन किया. राजकुमार रात भर वहीं रहा और उसने विरह के समय विनोद करने के लिए युवती को अपने नाम की एक अँगूठी दी. राजकुमार को इस प्रकार आते-जाते आठ महीने बीत गए और बाला को गर्भ रह गया. यह समाचार उसकी सखियों ने उसकी माता रत्नरेखा से कहा. रत्नरेखा ने यही समाचार नन्दन श्रेष्ठी से कह दिया. सुनते ही सेठ को क्रोध चढ़ आया. उसने यह समाचार कौशल महाराज से कह सुनाया. राजा ने उत्तर दिया कि- “सेठ! आप अपने घर जाइये, मैं अभी इसकी जाँच करता हूँ.”
राजा की आज्ञा पाकर मंत्री ने जाँच की. मंत्री ने सारी बात राजा से निवेदन की. उसने आज्ञा दी कि- “मैं अपने अन्यायी पुत्र को भी क्षमा नहीं कर सकता. उसे शीघ्र दंड दो.” मंत्री कुमार श्मशान भूमि में ले गया. उसने कुमार से कहा कि- “कुमार! तुम्हारे दुराचार से महाराज तुम पर क्रुद्ध हो गए हैं. यहाँ से भाग जाओ और कहीं भी तोसल नाम से अपना परिचय मत देना.” कुमार उसी समय वहाँ से गायब हो गया और कितने ही नगरों को पार करता हुआ पाटलीपुत्र पहुँचा. उस समय वहाँ जयवर्मा नामक राजा था. कुमार उसी के पास जाकर सेवा करने लगा. एक तो निन्दा से और दूसरे कुमार के विरह से सुवर्णलेखा व्यथित रहने लगी. एक सखी ने उससे कहा कि- “तेरे अपराध के कारण, राजा की आज्ञा से मंत्री ने कुमार को मार डाला है.” यह सुनकर बाला सुवर्णदेवी ने गर्भवती होने के कारण प्राण त्याग तो नहीं किया, पर किसी बहाने से आधी रात के समय घर से बाहर निकल गयी. पाटलीपुत्र की ओर कोई संघ जा रहा था, उसी के साथ सुवर्णदेवी भी चल दी. गर्भ की वेदना से पीडित वह युवती धीरे-धीरे चलती थी.
अंततः वह बेहोश होकर धरती पर गिर पड़ी. वन में निराश्रय और अकेली सुवर्णदेवी ने एक पुत्र और एक पुत्री को जन्म दिया. प्राणों का त्याग तो अनुचित है, ऐसा करने से ये दोनों बालक-बालिकायें भी मर जाएँगे. यह सोचकर वह किसी गाँव के पास आ पहुँची. उसने राजकुमार तोसल के नाम वाली अँगूठी बालक के गले में और अपने नाम की बालिका के गले में बाँधी. इसी समय बाघिन अपने बच्चों के लिए भोजन की तलाश में घूमती-फिरती नये रुधिर की गंध के सहारे वहाँ आ पहुँची. उसने वस्त्र के टुकड़ों में लपेटे हुए दोनों बालकों को उठा लिया. चलते समय लड़की बीच रास्ते में ही गिर पड़ी. उसी समय पाटलीपुत्र के राजा जयवर्मा का दूत अपनी स्त्री सहित वहाँ पहुँचा. उसने लड़की को देखकर उसे उठा लिया और उसे अपनी निस्सन्तान पत्नी को सौंप दिया. दम्पती उस लड़की को लेकर पाटलीपुत्र आए. उन्होंने उसका नाम वनदत्ता रखा.
बाघिन आगे बढ़ी, तो जयवर्मा के पुत्र शबरशील ने उसे मार डाला. उसके पास पड़े हुए बालक को वह अपने घर ले गया और उसे अपने पुत्र की तरह मानकर अपनी पत्नी को सौंप दिया. बारहवें दिन उत्सव किया और उसका नाम व्याघ्रदत्त रखा. कुछ समय बाद शबरशील उस लड़के को लेकर पाटलीपुत्र में आया. वहाँ वह राजपुत्रों के साथ क्रीड़ा करने लगा. उसका चित्त मोह ग्रस्त रहता था, इसलिए लोगों ने उसका नाम मोहदत्त रख दिया. बालकों को बाघिन ने खा लिया, यह मानकर सुवर्णलेखा किसी गाँव में किसी भीलनी के घर आयी. उसने उसको अपनी लड़की बनाकर रख लिया. कुछ दिन वहाँ ठहरकर फिर भटकती हुई वह भी पाटलीपुत्र आ पहुँची. भाग्य से, वह उसी दूत के घर पहुँची और संयोग से दूत की स्त्री ने उसको वनदत्ता के लालन-पालन के लिए रख लिया. वह उसको पहचान तो नहीं पायी, लेकिन उसे अपनी पुत्री मानकर उसका लालन-पालन करने लगी. लड़की धीरे-धीरे यौवन से लावण्यमयी और चतुरता में निपुण हो गयी. एक बार कामदेव की यात्रा देखने के लिए वनदत्ता अपनी माता और सखियों के साथ बाहर गयी. वहाँ वह घूम रही थी कि मोहदत्त की नज़र उस पर जा पड़ी. देखते ही दोनों एक-दूसरे पर आसक्त हो गए. सुवर्णदेवी ने अपनी पुत्री पर मोहदत्त का प्रेम देखकर उससे कहा कि- “बेटी! यहाँ आए तुझे बहुत समय हो चुका है. तेरे पिता व्याकुल होंगे. घर चलो.”
वनदत्ता भी सिर्फ़ शरीर से घर आयी, उसका मन मोहदत्त में ही लीन था. घर आकर वह विरह की अग्रि में जलने लगी. वनदत्ता माता और सखियों के साथ फिर उसी उद्यान की ओर चली. मार्ग पर जाते समय राजपुत्र तोसल की नज़र उस पर पड़ी. विदेश में रूप, यौवन बदल जाने से सुवर्णदेवी उसे पहचान नहीं पायी. तोसल वनदत्ता पर मुग्ध हो गया. उसने सोचा कि- “इस कुमारी से किसी उपाय से विवाह कर लूँ.” उसने जीवन की आशा छोड़कर कहा कि- “भद्रे! यदि तू अपने प्राणों की रक्षा करना चाहती है, तो मेरे साथ क्रीड़ा कर, नहीं तो इस तलवार से तेरा काम तमाम कर दूँगा.” तोसल की यह लीला देख सखियाँ हाय-हाय करने लगीं. सुवर्णदेवी चिल्लाकर बोली- “लोगों! व्याघ्र की भाँति यह पापी पुरुष मेरी हिरणी की तरह निरपराध पुत्री के प्राण लिए लेता है.” पुकार सुनते ही वहाँ मौजूद मोहदत्त वृक्षों के पीछे से बाहर निकल कर बोला- “अरे दुष्ट! तू स्त्रियों प्रहार करता है.” मोहदत्त ने अपने को बचाकर तोसल पर प्रहार किया, जिससे उसकी मृत्यु हो गयी. वह वनदत्ता का आलिंगन करके उसके साथ क्रीड़ा करने को प्रस्तुत हो गया.
तभी अचानक उसके कानों तेज़ और मधुर ध्वनि पड़ी- “मूढ! अपनी माता के देखते हुए, पिता के प्राण लेकर, बहन के साथ क्रीड़ा करना चाहता है?” आवाज़ सुनकर मोहदत्त चारों ओर देखने लगा. वहाँ उसे एक मुनि दिखायी दिए, जिन्होंने उसे कोशला नगरी से लेकर तोसल की मृत्यु तक सारा वृत्तांत सुनाया. यह सुनकर मोहदत्त भी कामभोग से विरक्त हो गया और शरीर को सर्वथा अपवित्र समझने लगा. मुनि ने उसे गुरु धर्मनन्दन के पास जाने की सलाह दी. मुनि की आज्ञानुसार मोहदत्त गृहस्थी त्याग कर मुझे ढूँढ़ता-ढूँढ़ता यहाँ आया है. गुरु के मुख से, अपना वृत्तांत सुनकर मोहदत्त बोला- “हे भगवन्! आपने जो कहा, सब सत्य है. कृपा करके अब मुझे दीक्षा दीजिये.”
माधव जी हिंदी साहित्य के भंडार को अपनी तपस्या से निरंतर अधिक समृद्ध बना रहे हैं । साधुवाद !
ये तो बहुत मेहनत का काम है । मैं माधव हाड़ा से परिचित नहीं था । ऐसी वृहत पोथियों पर आज के दौर में भी काम हो रहा है यह जानकर आश्चर्य चकित हूं । मुझे ये लगता था कि राहुल सांकृत्यायन के बाद अब कोई और उनके जैसा नहीं है । ये आपकी एक नई खोज है ।
प्राचीन समाज की वर्गीय संरचना एवं जीवन मूल्यों को कथाओं से जानना एक दिलचस्प अनुभव है।ये कथाएँ
हमारे साहित्य की धरोहर हैं।माधव जी को साधुवाद !
Dr माधव hada जैन कथाओं पर अच्छा कार्य कर रहे है. साधुवाद