
3.
हत्या : वो जिसमें अँधेरे की विरासत का रंग है.
‘कैस्ट्रेशन एंग्जाइटी’ दुश्चिंताओं के कई स्वरूपों में से एक स्वरूप हैं, जिसमें व्यक्ति अपनी निजी असफलताओं के कारण धीरे-धीरे ‘मृत्यु-वृति’ की तरफ बढ़ने लगता है. यह वृति दो तरह से काम करती है. एक जिसमें व्यक्ति अवसाद के कारण स्वयं को हानि पहुँचाता है और दूसरे क्रोध के कारण आक्रामकता, विध्वंस की प्रवृति के प्रभाव में दूसरों को हानि पहुँचाता है. दूसरों को हानि पहुँचाने के इंतजाम में कई बार व्यक्ति सामाजिक संरचना में नफ़रत से भरे अँधेरे का प्रसार करने वाले संगठनों से जुड़ जाता है.
20 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी बिड़ला भवन में प्रार्थना सभा में आकर बैठे, गांधी जी थोड़े बीमार थे. उस दिन माइक्रोफ़ोन ख़राब था इसलिए सुशीला नैयर ने उनके भाषण का सारांश ऊँची आवाज में दुहरा रही थी. अभी कुछ ही मिनट भाषण के शुरू हुए थे कि
“एकाएक जोरों का धमाका हुआ. किंतु गाँधी जी शांत रहते हुए मनु से गांधी जी बोले- ‘क्यों डर गई ? अरे ! कोई सैनिक गोलीबारी की शिक्षा ले रहा होगा. यह तो ठीक है लेकिन अगर सचमुच कोई हमें गोली मारने आएगा तो तू क्या करेगी?’ …
प्रार्थना के बाद पता चला कि जिस स्थान पर गांधी जी बैठे थे वहाँ से 75 फुट की दूरी पर एक बम फटा था, जो गांधीजी की हत्या के षड्यंत्र का एक भाग था. षड्यंतकारियों ने लोगों का ध्यान बताने के लिए विस्फोट किया था. सभा मंच के पीछे से बिड़ला भवन के नौकरों की एक कोठरी से बम फेंकने की मूल योजना असफल हो जाने के बाद षड्यंत्रकारी भीड़ में शामिल हो गए थे… . गड़बड़ी फैलने पर उनकी योजना थी कि धमाके के बाद दिगम्बर बडगे मंच के पास जाकर गांधीजी पर हथगोला फेंकेगा, मगर अंतिम क्षणों में बडगे की हिम्मत जवाब दे गयी. कुल छह षड्यंकारी (नाथूराम गोडसे, नारायण आप्टे, विष्णु करकरे, गोपाल गोडसे, शंकर किस्तैया और दिगम्बर बडगे) पास खड़ी टैक्सी में भाग निकले, मगर मदनलाल पाहवा[34] पकड़ा गया.”[35]
मनुबेन गांधी अपनी किताब ‘अंतिम झांकी’ में यह बताती हैं कि जब मदनलाल पाहवा से पुलिस ने इस हमले के बारे में पूछताछ की तब पाहवा ने कहा था कि,
‘ क्योंकि मुझे शांति और मैत्री कायम रखने की गांधी की नीति पसंद नहीं है.’[36]
इस घटना के एक दिन बाद 21 जनवरी 1948 की प्रार्थना सभा में इस हमले का उल्लेख किया, उन्होंने कहा कि,
“ कल के बम फूटने की बात कर लूँ . … मुझसे कहा गया कि आप मरने वाले थे, पर ईश्वर की कृपा से बच गए. अगर सामने बम फटे और मैं न डरूं, तो आप देखेंगे कि वह बम से मर गया, तो भी हँसता ही रहा. आज तो मैं तारीफ़ के काबिल नहीं हूँ. जिस भाई ने यह काम किया, उससे आपको या किसी को नफ़रत नहीं करना चाहिए .”[37]
इसके ठीक छह दिन बाद 26 से 29 जनवरी के बीच महात्मा गांधी की राममनोहर लोहिया से बात होनी थी और यह बार-बार टल जा रही थी. स्वयं राममनोहर लोहिया ने अपने निबंध ‘अनूठे अहिंसक का हिंसक अंत’ (‘लोहिया के विचार’ पुस्तक में संकलित) में लिखा था कि,
“ 26 जनवरी को गांधी जी ने कहा कि तुमसे आवश्यक बातें करनी हैं. कल-परसों करूँगा. 28 जनवरी को फिर कहा कि समय नहीं बचता और तुमसे बातें विस्तार से करनी हैं. 29 जनवरी को कहा कि कल तुमसे जरूर ही बातें करूँगा. आखिर मुझे तुम्हारी पार्टी और कांग्रेस के बारे में कुछ निश्चय तो करना चाहिए. कल शाम जरूर आना. पेट भर कर बातें होंगी . … 30 जनवरी की शाम को मैं एक टैक्सी लेकर गांधी जी से मिलने बिडला भवन की ओर चला. लेकिन रास्ते में ही गांधी जी की घृणित व नृशंस हत्या की खबर मिली .”[38]
30 जनवरी 1948 को प्रार्थना सभा में नाथूराम गोडसे अपने काला बेरेटा पिस्तौल से गांधी के सीने में तीन गोलियाँ मार दी. सीने में गोली लगने से ठीक पूर्व महात्मा गांधी के मुख से निकलने वाले आखिरी वाक्य थे,
‘प्रार्थना में एक मिनट भी देर से आने से मुझे तकलीफ होती है’
और गोली लगने के बाद आखिरी शब्द थे, ‘हे राम’. महात्मा गांधी के मुख से उच्चरित इस अंतिम शब्द की ध्वनि आनेवाले समय तक गूँजती रही है. सनातन परम्परा पर महात्मा गांधी का अगाध विश्वास अपने पूरे जीवन काल में बना रहा है. इसलिए महात्मा गांधी के मुख से ‘हे-राम’ हठात नहीं निकला था. प्रार्थना स्थल पर महात्मा गांधी के साथ रहनेवाले प्यारेलाल अपनी किताब ‘पूर्णाहुति’ के चौथे खंड में महात्मा गांधी के मुख से निकलने वाले आखिरी शब्द ‘राम ! राम’[39] का उल्लेख करते हैं और मनुबेन गांधी जिनके कंधे का सहारा लेकर महात्मा गांधी प्रार्थना स्थल पर जा रहे थे, ने अपनी किताब ‘अंतिम झांकी’ में लिखती हैं कि
‘… हे रा…म ! हे रा… कहते हुए बापू मानो सामने पैदल ही छाती खोलकर चले जा रहे थे’[40].
दरअसल, महात्मा गांधी के जीवन में ‘रामनाम’ के महत्त्व की बुनियाद बचपन में ही पड़ गई थी. महात्मा गांधी अपनी आत्मकथा में ‘रामनाम’ के संदर्भ को याद करते हुए लिखते हैं, ‘…मुझे भूत-प्रेत आदि का दर लगता था. रम्भा (गांधी परिवार की पूरानी नौकरानी) ने मुझे समझाता कि इसकी दावा रामनाम है. मुझे तो रामनाम से भी अधिक श्रद्धा रम्भा पर थी, इसलिए बचपन में भूत-प्रेतादि के भय से बचने के लिए मैंने रामनाम जपना शुरू किया. यह जप बहुत समय तक नहीं चला. पर बचपन में जो बीज बोया गया, वह नष्ट नहीं हुआ. आज रामनाम मेरे लिए अमोध शक्ति है. मैं मानता हूँ कि उसके मूल में रम्भाबाई का बोया हुआ बीज है.’[41]
यही कारण रहा है कि महात्मा गांधी के चिंतन में राम और राम के आदर्श हमेशा एक रौशनी की तरह बने रहे. वे हर विपरीत स्थितियों में राम का नाम स्मरण करते हैं. उस दिन भी जब उनकी पोती मनु अपेंडिक्स के दर्द से तड़प रही थी और प्राकृतिक चिकित्सा से कोई फायदा नहीं हो रहा था, तब मज़बूरी में महात्मा गांधी डॉक्टरों को मनु के ऑपरेशन करने की इजाज़त देते हुए राम के नाम का स्मरण करते हैं. ऑपरेशन के लिए जब मनु को धीरे-धीरे बेहोश किया जा रहा था, तब महात्मा गांधी मनु के माथे पर हाथ रखकर कहते हैं, ‘राम-नाम याद करती रहो, सब थी हो जाएगा.’[42]
महात्मा गांधी के प्रिय भजनों में से एक ‘रघुपति राघव राजाराम, पतीत पावन सीताराम’ भी राम के नाम पर यकीन की रौशनी का विस्तार ही है.
महात्मा गांधी की मृत्यु के ठीक तेरह वर्ष बाद ‘गांधी की मृत्यु’ नाम से 1961 में नेमेथ लास्लो (1901-1975) जो हंगेरियन नाटककार और निबंधकार था, एक नाटक लिख रहा था. लिखने की इस प्रक्रिया के दौरान नाटक के संदर्भ से वह रोजाना अपनी डायरी लिखता था. अपनी डायरी में उसने लिखा, जिसे इस लेख के शुरूआती दो वक्तव्य के साथ जोड़कर निरंतरता में पढ़ा जाना चाहिए कि ,
“ भारत की जनता अभी इतनी पौढ़ नहीं है कि आत्मा की बगावत पूरी कर सकें, अहिंसा अभी महज एक शब्द मात्र है, अपनी शक्तिहीनता का एक अनिच्छा पूर्ण नारा मात्र, इसके पीछे प्रतिशोध की अंध-लिप्सा अपनी प्यास बुझाने की फ़िराक में हैं, और यह लिप्सा, यह बंद पड़ी हुई एक मशीन को चलाने की चिंगारी, भारत के निवासियों को न जाने कहाँ ले जाएगी … .”[43]
यह अहिंसा वह थी जिसके बारे में महात्मा गांधी अपने 3 सितंबर 1944 को सेवाग्राम में दिए भाषण[44] में विस्तार से समझा रहे थे कि,
‘अहिंसा तो कोई आकाश की चीज नहीं है. अगर यह आकाश की चीज है तो मेरे काम की नहीं.’…‘हमारे लिए अहिंसा का प्रत्यक्ष दर्शन करने वाला प्रतीक चरखा है.’…‘करोड़ों लोग जिसका पालन कर सकें ऐसी अहिंसा मुझे चाहिए.’
यह कहते हुए स्वयं पर कोफ्त और ग्लानि होती है कि, भारत अपनी सनातनता से लेकर आज तक करोड़ों लोगों द्वारा पालन किए जाने वाली अहिंसा की बुनियाद का निर्माण या ऐसी अहिंसा की समझ का अपना समाज अभी तक विकसित नहीं कर सका है. अलबत्ता हिंसा के प्रसार की नई-नई प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रविधियाँ जरूर विकसित कर ली है.
महात्मा गांधी की हत्या का प्रसंग भारतीय साहित्य में भिन्न-भिन्न ढंग से आया है. महात्मा गांधी की हत्या के छह बरस बाद हिंदी के प्रसिद्ध उपन्यास ‘मैला आँचल’ में उनकी हत्या का प्रसंग सामाजिक संरचना और उसकी जातीय स्थिति के साथ आया है. ‘मैला आँचल’ “ उपन्यास में गांधी की हत्या की ख़बर सबसे पहले जमींदार की बेटी कमली को रेडियो सुनते हुए मिलती है, ‘बाबा, गांधी जी मारे गए’ (पृष्ठ 284) और यह ख़बर पूरे गाँव में फ़ैल जाती है. गांधीवादी पात्र बालदेव इस ख़बर से बेहोश हो जाता है. इसी बीच रेडियो पर नेहरु और पटेल के संबोधन का संदर्भ है. और ठीक इसके बाद उपन्यास में बेतार के ख़बर का संदर्भ कि – ‘गांधी जी का हत्यारा पकड़ा जा चुका है ? …अरे ! कैसे नहीं पकड़ायेगा भाई ! हाय रे पापी. साला… जरुर जंगली देश का आदमी होगा. हत्यारा !… मराठा ? यह कौन जात है भाई ! मारा ढा ! अरे, बाभन कभी ऐसा काम नहीं कर सकता, जरुर वह साला चंडाल होगा.’(पृष्ठ 285) इस उद्धरण से हत्यारे की जाति का संदर्भ दरअसल, भारत में जाति व्यवस्था और जातियों के बारे में बने देशीय और औपनिवेशिक पूर्वाग्रह का पता चलता है. भारत में कई अंग्रेज अधिकारियों ने अपने रिपोर्ट में कुछ जातियों को अपराधी और लुटेरे की श्रेणी में रखा था. देशीय समझ में जाति की समाज और उसे लेकर बनाए गए पूर्वाग्रह का लंबा वृतांत है .”[45]
‘मैला आँचल’ में गांधी का हत्यारा ‘…जरुर वह साला चंडाल होगा’ और उपन्यास से बाहर हत्यारे के बारे में लैरी कॉलिन्स और डोमिनिक लापियर की चर्चित किताब ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ में ‘कोई मुसलमान था’ जबकि वास्तव में हत्यारा ‘हिंदू ब्रह्माण’ था. इन तीनों कथन की सतह के नीचे भारतीय सामाजिक बुनावट में कहीं गहरे धंसे जाति और धर्म की वर्चस्वकारी, साम्प्रदायिक और पूर्वाग्रही समझ के बहुस्तरी ढ़ांचे को समझा जा सकता है.“
‘मैला आँचल’ उपन्यास में महात्मा गांधी की हत्या के उल्लेख के बाद यह तय हुआ है कि,‘सारा दिन बासी मुँह रहकर साम को कमला के किनारे जलपरवाह करना होगा’(पृष्ठ 287) उपन्यास में गांधी जी की सांकेतिक शव-यात्रा निकाली जाती है.’… बांस की एक रंथी बनाकर सजाई गई है – लाल, हरे, पीले कागजों से. एक ओर बालदेव जी ने कंधा दिया है, दूसरी ओर सुमरितदास, जिबेसर मोची और सकलदीप ने.’ … मृत्यु-गीत (उपन्यास में जिसे ‘समदाउन’ कहा गया है) शुरू होता है- ‘आँ रे कांचही बाँस के खाट रे खटोलना / आखैर मूँज के र हे डोर !’(पृष्ठ 287)”[46]
असल में, महात्मा गांधी की हत्या की सतह के नीचे एक जातीय और धार्मिक परिपेक्ष्य की मजबूत भूमिका रही है. महात्मा गांधी के सहयोगी प्यारेलाल की किताब ‘पूर्णाहुति’ के चौथे खंड और कोलिन्स और लापियर की किताब ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ के उद्धरणों की संरचना से भी जातीय और धार्मिक परिपेक्ष्य की बुनावट को समझा जा सकता है, तब भी जबकि दोनों के दर्ज करने की शब्दावलियाँ अलग-अलग रहीं हैं. ‘माउन्टबैटन को गांधी के गोली लगने का समाचार उस समय मिला जब वह घुड़सवारी करके गवर्नमेंट-हॉउस लौट रहे थे. उन्होंने सबसे पहले वही सवाल पूछा जो अगले कुछ घंटों में लाखों लोग पूछने वाले थे: ‘यह किसने किया ?’ ‘मालूम, नहीं साहब’ सुचना देने वाले ए.डी.सी. ने जवाब दिया. …..जब तक ये दोनों (माउन्टबैटन और कैम्पबेल जॉन्सन) बिड़ला हॉउस पहुंचे, वहाँ बहुत बड़ी भीड़ जमा हो चुकी थी. जब वे भीड़ को चीरते हुए गांधी के कमरे की ओर बढ़ रहे थे किसी आदमी ने, जिसका चेहरा घृणा और उन्माद से विकृत हो गया था, चीखकर कहा, ‘कोई मुसलमान था.’ भीड़ पर अचानक सन्नाटा छा गया. माउन्टबैटन उस आदमी की ओर मुड़े और जोर लगाकर चिल्लाए, ‘बेवकूफ कहीं का, जानता नहीं कि वह हिंदू था ?’ प्यारेलाल ने अपनी किताब ‘पूर्णाहुति’ के चौथे खंड में माउन्टबैटन के कहे को अलग ढंग से दर्ज किया है – ‘मूर्ख, सब कोई जानते हैं कि वह हिंदू था.’[47]
कुछ ही सेकेंड बाद जब वे घर के अंदर पहुंचे तो कैम्पबेल जॉन्सन ने उनसे पूछा, ‘आपको कैसे मालूम कि वह हिंदू था ?’ ‘मुझे नहीं मालूम है,’ माउन्टबैटन ने जबाब दिया, ‘लेकिन अगर वह सचमुच कोई मुसलमान निकला तो हिंदुस्तान में ऐसा भयानक कत्लेआम होगा जैसा इससे पहले दुनिया में कभी नहीं हुआ.’ एक बार फिर प्यारेलाल अपनी किताब ‘पूर्णाहुति’ में माउन्टबैटन के इस कथन को अलग ढंग से दर्ज करते है – ‘…जरुर वह हिंदू ही होगा. क्योंकि वह अगर मुसलमान है, तो हमारा सत्यानाश हो जाएगा.’[48]
कोलिन्स और लोपियर तथा प्यारेलाल के कथनों के बीच अंतर होने के वाबजूद दोनों कथनों की सतह के नीचे भय की एक ही संरचना काम कर रही थी कि हत्यारा यदि मुसलमान हुआ तो भारत में भयानक स्थिति उत्पन्न हो जाएगी. बहरहाल, ‘…बिड़ला हॉउस से पुलिस ने रेडियो को सबसे महत्वपूर्ण खबर भेजी : नाथूराम गोडसे हिंदू ब्रह्माण था.’[49]
25 अप्रैल 1934 को बक्सर के एक सार्वजनिक सभा में महात्मा गांधी कह चुके थे, ‘यदि सनातनी लोग मेरी हत्या करना चाहें तो उसके लिए मैं इस स्थान से जितनी भी दूर कहिए मैं अकेला चलने को तैयार हूँ, जिससे वे अपना काम कर सकें.’ कहना चाहिए कि महात्मा गांधी के यह कहने के 14 साल बाद नाथूराम गोडसे ने यह काम कर दिया था. नाथूराम गोडसे जो हिंदू ब्राह्मण था और जो अपने सरपरस्त विनायक दामोदर सावरकर की किताब ‘हिंदुत्व’ का प्रशंसक था. 30 जनवरी 1948 की शाम, 5 बजकर 17 मिनट पर मृत्यु से हमेशा निर्भय रहनेवाले सनातनी महात्मा गांधी की हत्या[50]
‘नाथूराम गोडसे की बंदूक से दागी तीन गोली से हो गई. महात्मा गांधी की हत्या किए जाने के अपने तर्क को नाथूराम गोडसे हमेशा सही मानता रहा. मुकदमें के दौरान भी हत्या किए जाने के औचित्य को सिद्ध करता रहा. कट्टरता का यह अविवेक दरअसल नाथूराम गोडसे[51] के भीतर एक लंबी यात्रा तय करके आया था. मुसलमानों के प्रति उसके कट्टर विचार इस यात्रा का हासिल था और इस यात्रा में गोडसे अकेले नहीं थे बल्कि कट्टरता की एक पूरी की पूरी दुनिया थी जो महात्मा गांधी के समय में गति कर रही थी. इस गति का अहसास महात्मा गांधी को रहा था.
महात्मा गांधी अपने इस अहसास में अपनी मृत्यु की तमाम संभावनाओं को जानते थे. असल में वे धीरे-धीरे अपनी संभावित हत्या की तरफ बढ़ रहे थे और जवाहरलाल नेहरु तथा सरदार वल्लभभाई पटेल की तमाम चिंताओं के बाद भी हत्या से बचने के किसी भी सुरक्षात्मक उपाय का निषेध कर रहे थे. असल में, महात्मा गांधी अपनी मृत्यु के लिए धीरे-धीरे तैयार हो गए थे. क्योंकि ‘गांधी जानते थे कि उनके वास्तविक दुश्मन गोलियाँ चलाने वाले, षड्यंत्र रचने वाले, या हिंसा की विचारधारा से परिचालित लोग नहीं थे, बल्कि वे अकथनीय राजनैतिक और सांस्कृतिक शक्तियाँ थीं जिनको वे सारे लोग देवता मानकर उनकी आज्ञा का पालन करते थे.’[52] इस देवता से महात्मा गांधी का परिचय लंदन में ही हो गया था. यह देवता कोई और नहीं बल्कि विनायक दामोदर सावरकर [53] थे.
मन्मथनाथ गुप्त ‘सुकरात का मुकदमा और उनकी मृत्यु’ की भूमिका में जब सुकरात की मृत्यु के संदर्भ से यह लिख रहे होते हैं तब उसकी ध्वन्यात्मकता बहुत दूर तक जाती है कि, ‘गलत विचार मृत्यु से सही नहीं हो जाते, पर सही विचार को अक्सर शहादत की जरूरत होती है.’[54]
इक्कीसवीं सदी के इस तीसरे दशक की एकदम शुरुआत में आज जब मैं यह लेख लिख रहा हूँ तब ठीक इसी वक्त एक तरफ भारत सहित पूरी दुनिया में महामारी के कारण मृत्यु लगातार हर रोज श्रृखंलाओं में घटित हो रही है. हमारी मन:स्थितियाँ मृत्यु को, श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों के आलोक में देखे जाने की क्षीण से क्षीणतर होती जा रही है. दूसरी तरफ उत्पन्न कर दी गई हजारों असुविधा के बीच भारत में ‘भारत के निवासियों को’ एक निश्चित विचारधारा की राजनीति की ताप में ‘प्रतिशोध की अंध-लिप्सा’ की तरह देखे जाने की पद्धति विकसित होती जा रही है. ऐसे में महात्मा गांधी की मृत्यु-बोध की सनातन परम्परा की धारणा से गुजरते हुए, उनपर हुए हमले और हत्या की संरचना में विन्यस्त एक निश्चित विचारधारा की राजनीति के विवेक शून्य ताप को एकबार फिर से ऊपर उद्धृत कुँवर नारायण की काव्य-पंक्तियों के इस हिस्से को पुन: निष्कर्ष के रूप में पढ़ने की प्रस्तावना करता हूँ –
महात्मा ने पूछा था उससे –
“कितना विकसित है तुम्हारा जीवन-विवेक ?
कितना आधुनिक है तुम्हारा युद्ध ?
कितने प्रबुद्ध हैं तुम्हारे सैनिक ?
क्या वे लड़ सकते हैं
स्वयं से
एक आत्मिक न्याय – युद्ध ? ”
“मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझा ! ”
चीख पड़ा था एक अधीरज,
और बिना महात्मा का मतलब समझे
उसने एक महा-आत्मा की हत्या कर दी
हत्या के सब से विकसित हथियार से !’
संदर्भ एवं टिप्पणियाँ :
[1] महात्मा गांधी, अनासक्ति योग, नवजीवन प्रकाशन, संस्करण 1969, पृष्ठ 12
[2] श्रीमद्भागवत के दूसरे अध्याय का यह 62वाँ और 63वाँ श्लोक है. श्लोक का आशय है, ‘विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विध्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है.’ ‘क्रोध से अत्यंत मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भरम हो जाने से बुद्धि आर्थात ज्ञान शक्ति का नाश हूँ जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है.’ (श्रीमद्भागवत, गीताप्रेस गोरखपुर, पृष्ठ 43-44)
[3] महात्मा गांधी (1957 संस्करण), सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, पृष्ठ – 64
[4] अहिंसा विश्वकोश, नंदकिशोर आचार्य, https://bit.ly/33xOBPk लिंक पर 30 अप्रैल 2021 को देखा गया.
[5] श्रीमद्भागवत के दूसरे अध्याय का यह 27वाँ श्लोक है. श्लोक का आशय है, ‘क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए कि मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है. इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है.’ (श्रीमद्भागवत, गीताप्रेस गोरखपुर, पृष्ठ 33) इस श्लोक का उल्लेख कोलिन्स और लापियर ने भी अपनी किताब ‘बारह बजे रात के’ में पृष्ठ 382 पर किया है.
[6] श्रीमद्भागवत के दूसरे अध्याय का यह 28वाँ श्लोक है. श्लोक का आशय है, ‘हे अर्जुन ! संपूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जानेवाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं; फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है.’ (श्रीमद्भागवत, गीताप्रेस गोरखपुर, पृष्ठ 33)
[7] लैरी कॉलिन्स और डोमिनिक लापियर (2003 संस्करण), मिडनाइट एट फ्रीडम , (‘बारह बजे रात के’ नाम से हिंदी अनुवाद मुनीश सक्सेना), राधाकृष्ण प्रकाशन , पृष्ठ -368
[8] प्यारेलाल की चार खंडों में नवजीवन प्रकाशन से प्रकशित किताब ‘पूर्णाहुति’ के चौथे खंड के पृष्ठ – 466 से उद्धरित
[9] मनुबहन गांधी, अंतिम झांकी (हिंदी अनुवाद-गो.न. बैजारपुरकर), अखिल भारतीय सर्वसेवा संघ प्रकाशन, फरवरी 1960, पृष्ठ 244
[10] सौरभ वाजपेयी, (नवंबर 2019) गांधीजी: सत्य, अभय और मृत्यु , तद्भव-40, संपादक – अखिलेश, पृष्ठ-31
[11] श्रीमद्भागवत के दूसरे अध्याय का यह 23वाँ श्लोक है. श्लोक का आशय है, ‘इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता.’ (श्रीमद्भागवत, गीताप्रेस गोरखपुर, पृष्ठ 32)
[12] सौरभ वाजपेयी, (नवंबर 2019) गांधीजी: सत्य, अभय और मृत्यु , तद्भव-40, संपादक – अखिलेश, पृष्ठ 21-22
[13] https://www.gandhiheritageportal.org/journals/NDU= लिंक पर 20 अप्रैल 201 को देखा गया.
[14] महात्मा गांधी (1957 संस्करण), सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, पृष्ठ -17
[15] सुकरात का मुकदमा और उनकी मृत्यु, (अगस्त 1970 संस्करण), हिंदी अनुवाद- मन्मथनाथ गुप्त, नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, पृष्ठ-64
[16] रोमाँ रोल्याँ (2008 संस्करण), महात्मा गांधी : जीवन और दर्शन, (हिंदी अनुवाद- प्रफुल्लचंद ओझा), साहित्य आकादमी की ओर से लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृष्ठ – 40
[17] वही, पृष्ठ – 97
[18] लुई फिशर (2009 संस्करण), गाँधी की कहानी , सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली, पृष्ठ- 136-137
[19] करुणा और क्षमाशीलता की संस्कृति वाले भारत को गीता के इस श्लोक के साथ समझा जा सकता है,
‘अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।।16.2।। ( अहिंसा, सत्यभाषण ; क्रोध न करना ; संसारकी कामनाका त्याग ; अन्तःकरणमें राग-द्वेषजनित हलचल का न होना ; चुगली न करना ; प्राणियों पर दया करना सांसारिक विषयों में न ललचाना ; अन्तःकरण की कोमलता ; अकर्तव्य करने में लज्जा ; चपलता का अभाव ।)
[20] इस संदर्भ को समझने के लिए महाभारत के तीन श्लोक को देखा जा सकता है , मैंने यहाँ इस लिंक से लिया है – https://vichaarsankalan.wordpress.com/ 13 फ़रवरी 2021 को देखा गया .
अहिंसा सर्वभूतेभ्यः संविभागश्च भागशः ।
दमस्त्यागो धृतिः सत्यं भवत्यवभृताय ते ॥18 ॥ – महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय 60 – दानधर्म पर्व
(सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा बरतना, सभी को यथोचित भाग सोंपना, इंद्रिय-संयम, त्याग, धैर्य एवं सत्य पर टिकना अवभृत स्नान के तुल्य (पुण्यदायी) होता है।)
अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परं तपः ।
अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते ॥23॥ – महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय 115 – दानधर्म पर्व)
(अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम तप है, और अहिंसा ही परम सत्य और जिससे धर्म की प्रवृत्ति आगे बढ़ती है)
अहिंसा परमो धर्मः स च सत्ये प्रतिष्ठितः ।
सत्ये कृत्वा प्रतिष्ठां तु प्रवर्तन्ते प्रवृत्तयः ॥74॥ – महाभारत, वन पर्व, अध्याय 207 – मारकण्डेय समस्या पर्व)
(अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है, और वह सत्य पर ही टिका होता है। सत्य में निष्ठा रखते हुए ही कार्य संपन्न होते हैं )
[21] लुई फिशर (2009 संस्करण), गाँधी की कहानी , सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली , पृष्ठ 12-13
[22] महात्मा गांधी (पहली आवृति 1957), सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा, नवजीवन ट्रस्ट, अहमदाबाद, पृष्ठ – 387
[23] https://www.gandhiheritageportal.org/chronology/event-chronology-listing/MjM= पर 1893 से 1940 तक के हमले की पूरी सूची देखी जा सकती है. 12 फ़रवरी 2021 को देखा गया.
[24] महात्मा गांधी , सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा , नवजीवन ट्रस्ट, पुनर्मुद्रण, अगस्त 2017, पृष्ठ 105
[25] लुई फिशर (2009 संस्करण), गाँधी की कहानी , सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली , पृष्ठ 23
[26] जेम्स डब्ल्यू. डगलस (2020 हिंदी संस्करण),गांधी और अकथनीय सत्य के साथ उनका अंतिम प्रयोग (हिंदी अनुवाद-मदन सोनी), राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ – 42-43
[27] वही, पृष्ठ 44
[28] महात्मा गांधी (1968 संस्करण) दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास, नवजीवन ट्रस्टअहमदाबाद,पृष्ठ 184
[29] वही, पृष्ठ 189-190
[30] मूल रूप से यह 27 मार्च 1934 के हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित हुआ . संपूर्ण गांधी वांग्मय के 57वें खंड के पृष्ठ 470-471 में संगृहित है .
[31] यह भाषण संपूर्ण गांधी वांग्मय के 57 वें खंड के पृष्ठ 472-476 पर संकलित है .
[32] यह वक्तव्य संपूर्ण गांधी वांग्मय के 58 वें खंड के पृष्ठ 109 पर संकलित है .
[33] इस बातचीत को संपूर्ण गांधी वांग्मय के 78वें खंड के पृष्ठ 94 से 96 पर पढ़ा जा सकता है .
[34] मदनलाल पाहवा असल में पाकिस्तान से आया हुआ एक नौजवान हिंदू शरणार्थी था. पाकिस्तान से आने के बाद हिंदू महासभा के संगठनकर्ता विष्णु करकरे ने एक शरणार्थी शिविर में पहावा को भर्ती कर दिया था.
[35] प्रार्थना सभा के भाषण और हमले के विवरण को संपूर्ण गांधी वांग्मय के 90 वें खंड के पृष्ठ 444 – 445 पर पढ़ा जा सकता है .
[36] मनुबहन गांधी, अंतिम झांकी (हिंदी अनुवाद-गो.न. बैजारपुरकर), अखिल भारतीय सर्वसेवा संघ प्रकाशन, फरवरी 1960, पृष्ठ 176
[37] प्रार्थना सभा के भाषण को संपूर्ण गांधी वांग्मय के 90 वें खंड के पृष्ठ 451 पर पढ़ा जा सकता है .
[38] राममनोहर लोहिया , (1960) अनूठे अहिंसक का हिंसक अंत , साक्षात्कार-478-479-480 (अतिथि संपादक – ध्रुव शुक्ल), (अक्तूबर-नवंबर-दिसंबर 2019), साहित्य अकादमी, संस्कृति भवन, भोपाल, पृष्ठ 101-102
[39] प्यारेलाल की चार खंडों में नवजीवन प्रकाशन से प्रकशित किताब ‘पूर्णाहुति’ के चौथे खंड के पृष्ठ – 467 में ‘राम ! राम’ का उल्लेख हुआ है.
[40] मनुबहन गांधी, अंतिम झांकी (हिंदी अनुवाद-गो.न. बैजारपुरकर), अखिल भारतीय सर्वसेवा संघ प्रकाशन, फरवरी 1960, पृष्ठ 247
[41] महात्मा गांधी, सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा , नवजीवन ट्रस्ट, पुनर्मुद्रण, अगस्त 2017, पृष्ठ-28
[42]लैरी कॉलिन्स और डोमिनिक लापियर (2003 संस्करण), मिडनाइट एट फ्रीडम , (‘बारह बजे रात के’ नाम से हिंदी अनुवाद मुनीश सक्सेना), राधाकृष्ण प्रकाशन , पृष्ठ – 126
[43] राममनोहर लोहिया , (1960) अनूठे अहिंसक का हिंसक अंत , साक्षात्कार-478-479-480 (अतिथि संपादक – ध्रुव शुक्ल), (अक्तूबर-नवंबर-दिसंबर 2019), साहित्य अकादमी, संस्कृति भवन, भोपाल, पृष्ठ 341
[44] इस भाषण को संपूर्ण गांधी वांग्मय के 78वें खंड के पृष्ठ 81 से 85 पर पढ़ा जा सकता है .
[45] लमही (अक्तूबर-दिसंबर 2020, संपादक – विजय राय), मैला आँचल में राजनीति की बारादरी – अमरेन्द्र कुमार शर्मा, पृष्ठ – 86
[46] वही, पृष्ठ 86
[47] प्यारेलाल की चार खंडों में नवजीवन प्रकाशन से प्रकशित किताब ‘पूर्णाहुति’ के चौथे खंड के पृष्ठ – 469 पर उद्धृत
[48] वही,पृष्ठ 469
[49] लैरी कॉलिन्स और डोमिनिक लापियर (2003 संस्करण), मिडनाइट एट फ्रीडम, (‘बारह बजे रात के’ नाम से हिंदी अनुवाद मुनीश सक्सेना), राधाकृष्ण प्रकाशन , पृष्ठ – 390-391
[50] ‘गांधी की हत्या की साजिश के अभियोग में 27 मई 1948 को आठ आदमियों पर मुकदमा डायर किया गया – आप्टे, नाथूराम गोडसे,गोपाल गोडसे, मदनलाल करकरे, सावरकर,परचुरे और दिगम्बर बडगे का नौकर. शुरू से ही नाथूराम गोडसे ने सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली कि यह हत्या उसने राजनीतिक उद्देश्य से की थी और इस बार से इंकार किया कि दूसरे लोगों ने उसके साथ मिलकर कोई साजिश की थी. …नारायण आप्टे और नाथूराम गोडसे को अम्बाला जेल में,जहाँ वे कैद थे, 15 नवंबर 1949 को फाँसी दे दी गई. …नाथूराम गोडसे ने अपनी वसीयत में यह लिखा कि उसके पास अपने परिवार वालों को देने के लिए सिर्फ एक चीज थी-उसकी राख. उसने हिंदू प्रथा का उल्लंघन करके यह कहा कि उसकी राख समुद्र में मिलने वाली किसी नदी में बहा दिए जाने के बजाय पीढ़ी-दर-पीढ़ी उस समय तक रखी जाए जब तक कि उसे हिंदू शासन के आधीन इस उप-महाद्वीप के फिर एक हो जाने पर सिंधु नदी में न विसर्जित किया जा सके.’ लैरी कॉलिन्स और डोमिनिक लापियर (2003 संस्करण), मिडनाइट एट फ्रीडम, (‘बारह बजे रात के’ नाम से हिंदी अनुवाद मुनीश सक्सेना), राधाकृष्ण प्रकाशन , पृष्ठ- 392-393
[51] नाथूराम गोडसे के पिता पंद्रह रुपए महीने पर डाकिये का काम करते थे. लेकिन इस मामूली से सरकारी कर्मचारी ने अपने सभी बेटों का पालन-पोषण कठोरतम हिंदू संस्कारों का पालन करते हुए किया था. यज्ञोपवीत के बाद उसे रोज ऋग्वेद और गीता के श्लोकों का पाठ करना पड़ता था. …वह गांधी का पक्का शिष्य बन गया था और नाथूराम गोडसे गांधी के सत्याग्रह आंदोलन के सिलसिले में ही पहली बार जेल गया था. लेकिन 1937 में गोडसे गांधी के आंदोलन से अलग हो गया और उसने एक दूसरे आदमी को अपना राजनीतिक गुरु बना लिया था, जो उसी की तरह चितपावन ब्राह्मण थे-वीर सावरकर को.’ लैरी कॉलिन्स और डोमिनिक लापियर (2003 संस्करण), मिडनाइट एट फ्रीडम, (‘बारह बजे रात के’ नाम से हिंदी अनुवाद मुनीश सक्सेना), राधाकृष्ण प्रकाशन , पृष्ठ-323
[52] जेम्स डब्ल्यू. डगलस (2020 हिंदी संस्करण),गांधी और अकथनीय सत्य के साथ उनका अंतिम प्रयोग (हिंदी अनुवाद-मदन सोनी), राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ – 165
[53] विनायक दामोदर सावरकर जोशीला और प्रवाहमय भाषण देते थे. ‘लोग उन्हें ‘महाराष्ट्र का चर्चिल’ कहते थे. पुन और बंबई के जिन इलाकों में उनके गढ़ थे वहाँ वह नेहरु से ज्यादा बड़ी भीड़ जूता सकते थे. नेहरु,जिन्ना और गांधी की तरह ही सावरकर ने भी विलायत में बैरिस्टरी की शिक्षा पायी थी, लेकिन कानून के उस विद्यापीठ में अपने प्रवास के दौरान सावरकर ने जो कुछ सिखा वह उन लोगों ने नहीं सिखा था. … सावरकर को कांग्रेस से इसलिए नफ़रत थी कि वह हिंदू-मुस्लिम एकता की बातें करती थी और गांधी की अहिंसा का समर्थन करती थी. वह हिंदुत्व के आदर्श को स्वीकार करते थे, हिंदू जाती की सर्वोपरि श्रेष्ठता को मानते थे और सिंद्धु नदी के उद्गम से ब्रह्मपुत्र के उद्गम तक और कन्याकुमारी से हिमालय तक एक विशाल हिंदू साम्राज्य की स्थापना करने के स्वप्न देखते थे. उन्हें मुसलमानों से घृणा थी. उनकी कल्पना के हिंदू समाज में मुसलमानों के लिए कोई स्थान नहीं था.’ लैरी कॉलिन्स और डोमिनिक लापियर (2003 संस्करण), मिडनाइट एट फ्रीडम, (‘बारह बजे रात के’ नाम से हिंदी अनुवाद मुनीश सक्सेना), राधाकृष्ण प्रकाशन , पृष्ठ -321
[54] सुकरात का मुकदमा और उनकी मृत्यु, (अगस्त 1970 संस्करण), हिंदी अनुवाद- मन्मथनाथ गुप्त, नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, भूमिका से
______
![]()
अमरेन्द्र कुमार शर्मा 9422905755 |
लेख पढ़ने से लेकर गुनने की प्रक्रिया में यकसा नहीं रह जाता। अवचेतन में कुछ भी रहा हो पर बाहर से उन्हें लगता रहा कि वे मृत्यु को चूमेंगे।
मृत्यु एक कठिन वृत्त है उसके भीतर पैठना सहज नहीं माना जाता। बस आती है और चकित कर देती है।
हीरालाल नागर
लेख में गांधी के जिस मृत्यु बोध की बात की जा रही है वह आध्यात्मिक रूप से एक विचार है वह उनके जीवन में व्यवहार में प्रत्येक कार्य में भयमुक्ति की तरह प्रकट होता है और इस साध्य का साधन वे प्रत्येक कार्य में अहिंसा के रूप में देखते हैं | और इसी अहिंसा के रास्ते वे अनासक्त कर्म की उस स्थिति में स्वयं को पाते हैं जहाँ विचार और व्यवहार का भेद समाप्त हो जाता है और प्रत्येक अनासक्त कर्म में आसक्ति बोध ख़त्म हो जाता है यह विचार वे गीता से लेते हैं | पर व्यवहारिक भेद हमें उस आध्यात्मिक सत्य को समझने की दिशा में आगे नहीं बढ़ने देते जिस पर गांधी पहुँच चुके थे | मेरे विचार से लेखक ने यहाँ उनके आध्यात्मिक सत्य जहाँ विचार की मृत्यु असंभव है की स्थापना की है,यहाँ गोडसे के ह्त्या के व्यवहारिक विचार की तुलना गांधी के आध्यात्मिक मृत्यु बोध से नहीं हो सकती जो कि लेखक ने की भी नहीं है, लेख में उनकी विचार की हत्या को देह के खत्म कर दिए जाने से खत्म नहीं माना जा सकता ऐसी स्थापना है,गांधी बार बार उसी मृत्युबोध को अपने सार्वजनिक जीवन में दोहराते हैं जिससे उनके व्यक्तिगत सत्य को सार्वजनिक स्तर पर भी व्यक्त किया जा सके और ऐसा करते हुए वे सभी से अहिंसा के पालन की बात करते हैं जिससे सभी आध्यात्मिक मृत्यु बोध की, सत्य की शाश्वत स्थिति को समझ भय मुक्त हो सके,लोगों को उस भय बोध से बाहर निकाला जा सके जिससे विश्व का व्यवस्थित नैतिक शासन स्थापित हो सके,लेकिन व्यवहारिक भेद जो हमें दिखाई देते हैं उनके चलते कुछ लोग ऐसा भाष्य कर सकते है कि गांधी की ह्त्या उनकी आध्यात्मिक मुक्ति है क्योंकि गांधी स्वयं मृत्यु की शाश्वत स्थिति को समझ चुके थे | यदि इसका वाकई यह अर्थ ध्वनित होता तो बहुत आसानी से यह कहा जा सकता है कि मृत्यु एक अंतिम सत्य है जिसे गांधी पहले समझ चुके थे और उन्हें ‘सत्य के मेरे प्रयोग’ न लिखकर ‘मृत्यु के साथ मेरे प्रयोग’ लिखना चाहिए था |
गाँधी की आध्यात्मिक शक्ति जिसकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही उनके संघर्षशील व्यक्तित्व के निर्माण में-उसे बहुत बारीकी से समझा जा सकता है इस आलेख को पढ़ते हुए। गाँधी हमारी समूची जातीय परंपरा और अस्मिता के अपराजेय प्रतिनिधि चरित्र हैं-भारतीय मनीषा के प्रतीक पुरुष। इस सुंदर आलेख के लिए साधुवाद !
गांधी का विचार ‘मृत्यु किसी भी क्षण एक सौभाग्य है’ उनके गहरे आध्यात्मिक बोध को प्रकट करता है । वे अनासक्त थे, इसलिये निर्भय होकर जी सके । जन्म और मृत्यु व्यक्ति के शरीर के दो छोर हैं । गांधी का अंतर्बोध स्पष्ट है । वे ही कह सके “बीमारियाँ शरीर को मारती हैं, भय आत्मा को मार देता है । लेखक की पंक्ति है गांधी प्रेम को अहिंसा के सिद्धांत के रूप में देखते हैं । मेरी बुद्धि उलझन का निवारण नहीं कर सकती कि अमरेन्द्र कुमार शर्मा इतने ज्ञान की साधना कैसे कर लेते थे । मैं समालोचन के कई लेखों पर निरुत्तर हो जाता हूँ । रजनीश ने कहा था कि अहिंसा शब्द अच्छा होते हुए भी नकारात्मक है । प्रेम सकारात्मक शब्द है ।
अमरेंद्र कुमार शर्मा ने अद्भुत मनन किया है। वह शायद इस पर भी ग़ौर करना चाहेंगे कि ईश्वर और अमर आत्म या आत्मा पर विश्वास न हीं करने वाले लोग भी, महात्मा गांधी का मूलमंत्र अपना सकते हैं: निर्भयता! यह ऐसा अस्त्र है जो किसी भौतिक हथियार की मांग नहीं करता,अपने आप में पर्याप्त है, । हिंसक प्रतिकार का हामी भी, निर्भयता के बिना न तो प्रहार कर सकेगा, न अपनी रक्षा। लेकिन आत्मा की अमरता दुधारी है: हम गांधी आत्म की अमरता चाहते हैं, गोडसे या हिटलर या स्तालिन आत्म की नहीं।शहादत शायद अपनी निर्भयता का संदेश देने के साथ-साथ, अपने या अपने लक्ष्य आदर्श मंतव्य आदि के शत्रु के संपूर्ण विनाश का यक़ीन भी करना-कराना चाहती है?गोडसे या फिर कोई भी हत्यारा अगर आत्म की अमरता मान ले तो हिंसा-हत्या कर पाएगा? अगर गोडसे उस भारतीय अध्यात्म को मानता होता, तो? अगर उसे फांसी न मिलती—गांधी जी अगर बच गए होते ,तो उसे जरूर बचा लेते–नहीं? तब जेल में या हमारे समाज में विचरते हुए उसे वैसी ग्लानि होती, जैसी —! लेडी मैकबेथ की ग्लानि याद करें? यहीं एक और बात विचार के लायक है: अब तक की मेरी पढ़ाई लिखाई ने मुझे यही समझाया था कि भारत में मृत्यु का भय नहीं है, जबकि शेष दुनिया में उससे भयानक भय देखा जाता है। अनेक पश्चिमी विचारक यही बताते आए हैं! —और, कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी की स्मृति को बचाए रखना ही उसकी आत्मा की ‘अमरता’ मान ली जाती है?अध्यात्म और धार्मिक शास्त्रीय सवालों के ऐसे विकट व्यूह इस तरह खुलते चलेंगे —–
बेहतर यही जान पड़ ता है कि
हत्या को हत्या ही मानें और कहें भी; शायद तभी किसी और ‘महा-आत्मा’ को,उसकी ‘शारीरिक ‘ हत्या से बचाए रखने की सीख-समझ पैदा की जा सकती है?
आम अनुभव में, ‘स्वाभाविक ‘ कही जाने वाली मृत्यु मन में जैसी भावनाएँ जगाती है, वैसी भावनाएं कि सी भी ‘अस्वाभाविक ‘मौत से नहीं उपजती। गांधी या भगतसिंह की मौतें ,हिंसा के सवाल के बावजूद,रोष और निडरता, दोनों की प्रेरणा देती हैं। अमरेंद्र जी का यह एक अव्यक्त निष्कर्ष सही है कि ये मौतें प्रतिशोध नहीं, बलिदान के आदर्श की रक्षा हेतु, उस को आगे बढ़ाने के लिए ‘प्रतिकार ‘ जारी रखने की सीख देती या दे सकती हैं। पाप से घृणा,पापी से नहीं, –इस नसीहत पर अमल करते हुए, उस मानसिकता विचारधारा कुप्रयत्न कुप्रचार पर मुखर विरोध और प्रतिरोध जारी रहे जिनके कारण ‘पापी ‘ पैदा हो रहे हैं। मृत्यु के उदात्त भारतीय अध्यात्म का फ़ायदा हत्यारी विचारधाराएं न उठा सकें, विमर्श इस से भी आगाह रहे तो बेहतर।
विचारपूर्ण आलेख। भारतीय ज्ञान की सुदीर्घ परम्परा में महात्मा गांधी एक प्रयोगधर्मा मनीषी की तरह अकम्प दीखते हैं। अभय को अध्यात्म-पथ की पहली सीढ़ी कहा गया है जिसके प्रति लोगों को बारम्बार जागरूक करते हुए गांधी जी का मृत्यु-बोध श्रीमद्भगवतगीता से प्रकाश पाता हुआ सुदृढ़ होता है। अभयता के बोध के साथ उनका मृत्यु-बोध व्यक्तिगत ही नहीं, बल्कि समष्टिमूलक चेतना बन सके, इसकी कोशिश भी उनके महा-आत्मा होने की गवाही है। अभय ही अहिंसा का भी प्राणतत्व है। लेकिन मनुष्यों के समाज में हिंसा का बोलबाला ही अधिक रहा है। ऐसे में सत्य और अहिंसा पर अटल रहना मनुष्यता को लाजवाब तो करता ही है। इस सुन्दर और सार्थक आलेख के लिए अमरेन्द्र जी को साधुवाद। इसे साझा करने के लिए Arun Dev जी को भी बहुत धन्यवाद।