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हमले : वो जो मूढ़ता की काया का वारिस है.
विवेक का जब वास्तविक यथार्थ से संबंध धीरे-धीरे टूटने लगता है, तब व्यक्ति के मन में स्वयं के द्वारा निर्मित एक छद्म यथार्थ आकर ग्रहण करने लगता है. विवेक के ध्वंस हो जाने से मूढ़ता उत्पन्न होती है. महात्मा गांधी पर हुए लगभग सभी हमलों की प्रकृति में वास्तविक यथार्थ की संरचना को न समझे जाने और वास्तविक यथार्थ की जगह स्वयं द्वारा चाही/बनाई धारणा को महत्व दिया जाना शामिल रहा है. महात्मा गांधी की देह पर जितने हमले हुए उससे कहीं ज्यादा उनकी चेतना पर भी हमले किए जाने की राजनीतिक कोशिश होती रही है.
महात्मा गांधी की राजनीतिक यात्रा में ऐसे हमलों की बहुलता रही है. महात्मा गांधी को 31 मई 1893 को दक्षिण अफ्रीका के एक छोटे से रेलवे स्टेशन पीटरमैरित्सबर्ग पर प्रथम श्रेणी के डिब्बे से धक्का दे कर एक ठंड भरी रात में उतारा गया था. यह महात्मा गांधी के जीवन की वह पहली घटना थी जिसने गांधी के आत्मसमान पर पहला हमला किया था. यह घटना बरतानी हुकूमत के विरुद्ध खड़े होने की एक बुनियाद थी. यही कारण रहा कि, हर परिस्थितियों मनुष्य के आत्मसम्मान की रक्षा के मूल्य को गांधी ने अपने जीवन का सबसे प्रमुख आधार बनाया था. अपनी आत्मकथा में गांधी जी इस घटना को दर्ज करते हैं,
“सिपाही आया उसने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे धक्का देकर नीचे उतारा. मेरा सामान उतार लिया. मैंने दूसरे डिब्बे में जाने से इनकार कर दिया. ट्रेन चल दी. मैं वेटिंग रूम में बैठ गया. अपना हैंडबैग साथ में रखा. बाकी सामान को हाथ न लगाया. रेलवे वालों ने उसे कहीं रख दिया. सर्दी का मौसम था. दक्षिण अफ्रीका की सर्दी ऊंचाई वाले प्रदेशों में बहुत तेज होती है. मेरित्स्बर्ग इसी प्रदेश में था. इससे ठंड खूब लगी. …मैंने अपने धर्म का विचार किया, या तो मुझे अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए या लौट जाना चाहिए, …”[24]
हम जानते हैं गांधी जी दक्षिण अफ्रीका और फिर भारत में ब्रितानी हुकूमत के विरुद्ध एक लंबी लड़ाई लड़ते हैं.. इस घटना के बाद 2 जून 1893 को दक्षिण अफ्रीका के ट्रांसवाल में घोड़ा गाड़ी के कोचवान द्वारा उनपर हमला किया गया.
18 दिसंबर 1896 को जब एक जहाज जिसपर गांधी जी सवार थे दरबान के बंदरगाह पर पहुँचा तो उनको जहाज से उतरने से रोक दिया गया. असल में, दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के साथ किए जा रहे भेदभाव के विरुद्ध भारतीयों में चेतना फ़ैलाने के महात्मा गांधी के कार्य को लेकर दक्षिण अफ्रीका में काफी विरोध का वातावरण बन गया था. महात्मा गांधी जब अपने परिवार के साथ एक जहाज पर और उनके पीछे दूसरे जहाज ‘नेडेरी’ पर लगभग पांच सौ भारतीयों के साथ पहुँचे तो ब्रिटिश को यह लगा कि गांधी जी भारतीयों के साथ उन्हें घेरने आ रहे हैं. इसी अफरा-तफरी में लगभग तेईस दिनों तक जहाज से नीचे उतरने पर प्रतिबंध लगा दिया गया और बहाने के रूप में यह प्रचारित किया गया कि ऐसा वे महामारी के खतरे से निपटने के कारण कर रहे हैं. फिर उसके बाद एक लंबे घटनाक्रम के बाद 13 जनवरी 1897 को डर्बन के बंदरगाह पर वे जब ‘कोर्लेंड’ जहाज से पुलिस की मदद से गांधी जी उतर रहे थे तब उतरते ही भीड़ ने उनपर हमला कर दिया था.
‘लोगों ने उनपर पत्थर, ईंट और अंडे फेंके. फिर उन्होंने गांधी जी की पगड़ी छीन ली और उनपर मार ठोकरें लगाई.’[25]
जहाँ पुलिस सुपरिटेंडेंट अलेक्जेंडर की पत्नी जेन अलेक्जेंडर बड़ी मेहनत से महात्मा गांधी को छाते की ओट में बचाकर उनके दोस्त के घर पहुँचा दिया जहाँ उन्होंने अपने परिवार को पहले ही पहुँचा दिया था. रात में हजारों की संख्या में भीड़ ने उस घर को घेर लिया जहाँ गांधी रुके हुए थे. भीड़ हिंसा पर उतारू थी और धमकी दे रही थे, कि वे उस घर को जला देंगे. पुलिस सुपरिटेंडेंट रिचर्ड सी. अलेक्जेंडर ने गुप्त रूप से गांधी जी के पास यह संदेश भिजवाया कि यदि आप उस घर में रह रहे अपने मित्र के परिवार और अपने परिवार की रक्षा चाहते हैं तो वहाँ से छद्म वेश धारण कर वहाँ से निकल जाइए. अलेक्जेंडर की सलाह पर महात्मा गांधी एक भारतीय पुलिस का वेश धरकर वहाँ से निकले और पुलिस स्टेशन में आकर तीन दिनों तक रुके रहे. इस तरह महात्मा गांधी भीड़ द्वारा संभावित हत्या के प्रयास से बाहर निकल आए.
1907 में जब महात्मा गांधी के आह्वान पर ट्रांसवाल में लगभग 13000 भारतीयों ने ‘ट्रांसवाल एशियाटिक रजिस्ट्रेशन एक्ट’ के तहत अपना पंजीकरण कराना, अपराधियों की तरह अपनी अंगुलियों के निशान दर्ज कराने से इनकार कर दिया, तब जोहान्सबर्ग में महात्मा गांधी को दो महीने की जेल हुई. यह उनकी पहली जेल यात्रा थी. बाद के घटनाक्रम में महात्मा गांधी का जनरल स्मट्स के साथ इस कानून को लेकर एक समझौता होता है कि,
‘अगर ज्यादातर हिन्दुस्तानी स्वैच्छिक ढंग से पंजीयन करा लेते हैं, तो वह (जनरल स्मट्स) उस कानून को रद्द कर देगा.’[26]
महात्मा गांधी को रिहा कर दिया जाता है. महात्मा गांधी इस समझौते की जानकारी देने के लिए आधी रात को एक मस्जिद के मैदान में एक आम सभा बुलाते हैं और स्पष्ट करते हैं कि क्यों
‘वह करना सही था जिसे कभी न करने की शपथ उन लोगों ने उनके साथ ली थी.’[27]
गांधी जी के इस प्रस्ताव का काफी विरोध होता है. उनपर रिश्वत लेकर समझौता करने के आरोप तक लगाए जाते हैं. गांधी जी का एक पठान दोस्त और मुवक्किल मीर आलम इसपर घोर आपत्ति उठाता है. मीर आलम कहता है,
‘…मैं खुदा की कसम खाकर कहता हूँ कि जो आदमी एशियाटिक ऑफिस में सबसे पहले जाएगा, उसे मैं जान से मार दूँगा.’[28]
इस कानून पर बहुत दिनों तक विचार होने के बाद 10 फरवरी 1908 को जोहान्सबर्ग में स्वैच्छिक पंजीकरण के लिए जब महात्मा गांधी जा रहे थे तब ऑफिस के बाहर महात्मा गांधी को मीर आलम खड़ा दिखा. महात्मा गांधी लिखते हैं, कि,
‘उसने (मीर आलम) मुझसे पूछा, कहाँ जाते हो ? मैंने उत्तर दिया, मैं दस उँगलियों की छाप देकर रजिस्टर निकलवाना चाहता हूँ. अगर तुम भी साथ चलोगे तो तुम्हें दस अंगुलियों की छाप देने की जरूरत नहीं है, तुम्हारा परवाना (सिर्फ दो अंगुली की छाप के साथ) पहले निकलवाने के बाद मैं अंगुलियों की छाप देकर अपना निकलवाऊंगा. अंतिम वाक्य मैंने मुश्किल से पूरा किया होगा कि मेरी खोपड़ी पर पीछे से लाठी का एक वार हुआ. मैं ‘हे-राम’ बोलते-बोलते बेहोश होकर जमीन पर लुढ़क गया.’[29]
भला कौन जानता था कि 1908 में दक्षिण अफ्रीका में हुए हमले में बोले गए शब्द ‘हे राम’ चालीस साल बाद 1948 में भारत की धरती पर महात्मा गांधी अपने सीने पर गोली खाते हुए बोलेंगे. जैसा कि जोहान्सबर्ग में हुए हमले के आरोप में मीर आलम को गिरफ्तार कर लिया गया था तब महात्मा गांधी ने उसे छोड़ देने की अपील की थी. क्या उसी तरह वे नाथूराम गोडसे को छोड़ने की अपील भी करते ? महात्मा गांधी की विचारणा शक्ति और हमलों के दृष्टान्तों के आधार पर आसानी से कहा जा सकता है कि निश्चित ही महात्मा गांधी गोडसे की गिरफ्तारी का विरोध करते. असल में, महात्मा गांधी का हृदय परिवर्तन पर अगाध विश्वास रहा है. इस विश्वास के कई प्रमाण महात्मा गांधी जीवन में बार-बार घटित होते रहें हैं.
स्मट्स के एक और कानून का विरोध हो रहा था जिसमें बहु विवाह की जगह पर एक समय में सिर्फ एक ही वैध पत्नी रखने का प्रावधान किया गया था. इस कानून को लेकर भारतीय मुसलमानों में काफी रोष था. इसी कानून के विरोध में जब 27 से 28 मार्च 1914 को जोहान्सबर्ग में एक सभा आयोजित की गई थी उस सभा में महात्मा गांधी हमले की आशंका के बावजूद शामिल हुए थे. भीड़ का एक हिस्सा जैसे ही उनपर हमला करने की तैयारी में था. ठीक उसी वक्त महात्मा गांधी को हमले से बचाने के लिए एक पठान आगे आ जाता है, यह वही पठान मीर आलम था जो छह साल पहले महात्मा गांधी पर हमला कर रहा था, उन्हें जान से मार देना चाहा था.
दक्षिण अफ्रीका में हुए हमलों की दास्तान भारत लौटने पर भी जारी रहती है. 1917 में महात्मा गांधी जब चंपारण गए तो वहाँ नील मिल के मैनेजर जिसका नाम इरविन था. इरविन ने गांधी को बातचीत के लिए अपने यहाँ बुलाया था और अपने खानसामा को गांधी जी के खाने में धीरे-धीरे असर करने वाला जहर मिलाने के लिए तैयार कर लिया था. समय रहते यह बात महात्मा गांधी के सामने यह बात खुल गई और वे यह खाना खाने से बच गए. इसके बाद 22 मई 1920 को अहमदाबाद में गांधीजी जिस रेलगाड़ी में यात्रा करनेवाले थे उसको दुर्घटनाग्रस्त करने की योजना बनाई गई थी, जो असफल हो गई थी. 11 जनवरी 1921 को अहमदाबाद में ही हत्या की धमकी भरा एक पत्र महात्मा गांधी को मिला था. 1934 का वर्ष गांधी जी के लिए सबसे कठिन वर्ष रहा, इस वर्ष उनपर कई हमले हुए और हमलों की कई साजिशें हुई. 25 अप्रैल 1934 को बक्सर (बिहार) में महात्मा गांधी को एक सार्वजनिक सभा में हरिजन-उद्धार पर भाषण देना था. दिन के तीसरे पहर कुछ सनातनी लोगों ने गांधी जी के विरुद्ध प्रदर्शन करते हुए झगड़ा करना शुरू कर दिया, इस झगड़े में तीन लोग घायल हो गए. उस दिन गांधी जी ने अपने भाषण में इन हमलों और अपनी मृत्यु के संदर्भ से अपना वक्तव्य दिया,
“अबतक मेरी जान लेने की पाँच या छह बार कोशिश की जा चुकी है और मैं उनसे बचा रहा हूँ . मैं एक क्षण के लिए भी यह नहीं भूलता कि जाने या अनजाने हर आदमी अपनी मृत्यु अपने बगल में लिए फिरता है. और मैं किसी की धमकी में आकर हरिजनोद्वार – आंदोलन संबंधी अपने विश्वास को छोड़ने के बदले ऐसी किसी भी व्यक्ति की गोद में अपना कटा हुआ सिर डालने के लिए ख़ुशी से तैयार हो जाऊँगा जो मेरी हत्या करना चाहता है.”[30]
असल में, महात्मा गांधी अपनी संभावित हत्या की राह पर धीरे-धीरे बढ़ रहे थे. ठीक इसके एक दिन बाद महात्मा गांधी 26 अप्रैल 1934 को मंदिर में हरिजनों के प्रवेश के मुद्दे पर देवघर में भाषण देने के लिए पहुँचे. देवघर जाने के लिए उन्हें रेलगाड़ी से जसीडीह नामक रेलवे स्टेशन पर उतरना था. स्टेशन पर उतरने के बाद वे जब देवघर जाने के लिए कार में बैठ रहे थे तब उनकी कार के अगले हिस्से पर लाठी से प्रहार किया गया और फिर कार के पिछले हिस्से के सीसे पर पत्थर बरसाए गए. कार का सीसा बीच से टूट गया. गांधी जी खिड़की की तरफ बैठे थे जिससे वे बाल-बाल बच गए. यह भाषण बाद में 04 मई 1934 को हरिजन के अंक में प्रकाशित हुआ. गांधी जी ने वहाँ अपने भाषण में इस हमले को लेकर फिर दुहराया कि,
“मुझे बड़े दुख के साथ यह कहना पड़ रहा है कि आज सुबह जब मैं दो बजकर पन्द्रह मिनट पर जसीडीह पर उतरा तो सनातनी मित्रों ने अपनी भाषा और अपने काम दोनों के मामले में आत्मसंयम की भावना को बिल्कुल छोड़ दिया. हर तरह की आवाजों और नारों के साथ बड़े बड़े काले झंडे लहराए जा रहे थे मुझे बड़ी मुश्किल से एक कार में ले जाकर बैठाया गया. कार के हुड पर लाठियां बरसने लगी तभी एक लाठी या पत्थर मैं नहीं कह सकता कि क्या था मगर उसी कार में बैठे शशि बाबू का कहना था कि वह पत्थर ही था और ताककर कार के पिछले हिस्से के शीशे पर मारा गया था. सौभाग्य की बात थी कि पीछे की सीट पर मैं अकेला ही और वह भी कोने में बैठा हुआ था. शीशा टूट कर मेरी बगल में गिरा. यदि मैं बीच में बैठा होता तो अवश्य ही गंभीर रूप से घायल हो जाता…”.[31]
बाद में गांधी जी ने इस हमले को लेकर अख़बारों के लिए वक्तव्य भी जारी किया था. यह विचारणीय है कि अधिकांश हमलावर उसी सनातन परम्परा से जुड़े थे जिस परम्परा पर महात्मा गांधी का अगाध विश्वास था. महात्मा गांधी पर हमलों का यह सिलसिला लगातार जारी था. इन हमलों की निरंतरता में 25 जून 1934 को महात्मा गांधी पुणे में अस्पृश्यता पर सार्वजनिक सभा में एक भाषण देने जा रहे थे तब एक कार पर यह मानकर कि उसमें गांधी जी बैठे हुए हैं, एक बम फेंका गया था. दरअसल उस समारोह में जाने के लिए दो गाड़ियां आईं थी. दोनों गाड़ी लगभग एक जैसी दिखने वाली थी. एक में आयोजक थे और दूसरे में कस्तूरबा और महात्मा गांधी थे. जो आयोजक थे, उनकी कार निकल गई. बीच में एक रेलवे फाटक पड़ता था. और रेल आने वाली थी इसलिए महात्मा गांधी की कार वहां रुक गई. जो कार आगे निकल गई थी उसमें गांधी जी के होने के भ्रम के कारण उसपर ही बम फेंका गया था. महात्मा गांधी इस हमले से फिर एक बार बच गए थे. शाम सात बजकर तीस मिनट पर जब गांधी जी समारोह स्थल पर पहुंचे तब इसकी जानकारी उन्हें हुई. उस दिन उन्होंने कुछ अख़बारों को अपने वक्तव्य दिए जो बाद में 29 जून 1934 को ‘हरिजन’ में प्रकाशित हुई थी. गांधी जी ने अपने वक्तव्य में एक बार फिर कहा,
“अपने जीवन में मैं इतनी बार बाल-बाल बचा हूं कि इस ताजा घटना से मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए कि बम से किसी की जान नहीं गई.”[32]
11 जुलाई 1934 को जब महात्मा गांधी कराची में उपवास पर थे तो वहाँ उनसे मिलने के लिए आया एक मुलाकाती गांधी जी पर हमला के उद्देश्य से फावड़ा लेकर आया था जिसे पुलिस ने जब्त कर लिए था. इस कारण हमले का संभावित खतरा टल गया था. 31 जुलाई 1934 को बनारस में मणिलाल शर्मा नाम का एक व्यक्ति गांधी जी की गिरफ्तारी का एक आदेश बनारस के एक प्रसिद्ध मंदिर के देवता बाबा कालभैरव के निर्देश पर लेकर आया. निर्देश में यह लिखा था कि गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया जाए और अगर वे गिरफ्तारी न दें तो उन्हें सजा दी जाए. असल में महात्मा गांधी बनारस में अस्पृश्यों को मंदिर प्रवेश दिलाने के मुद्दे पर बात करने आए थे. गांधी जी जिस सभा में बोल रहे थे वहाँ पंडित मदनमोहन मालवीय भी उपस्थित थे. 27 फरवरी 1940 को श्रीरामपुर कलकत्ता में गांधी जी पर जूता फेंक कर हमला किया गया जो महादेव देसाई को लगा था. महात्मा गांधी कलकत्ता में अहिंसा के सवालों पर पत्रकारों को संबोधित कर रहे थे. यह वही दौर जब महात्मा गांधी शांति निकेतन की यात्रा करते हैं. 1944 में जब महात्मा गांधी, भारत छोड़ो आंदोलन के बाद जेल से रिहा होकर पुणे के के नजदीक प्राकृतिक रूप से सुंदर स्थान पंचगनी में रुके हुए थे. पाकिस्तान के रूप में अलग देश बनाए जाने की माँग के बीच साम्प्रदायिकता का वातावरण तेजी से विकसित हो रहा था. इस वातावरण के प्रभाव में ही युवकों का एक दल गांधी जी का विरोध करने के लिए पंचगनी में महात्मा गांधी के ठहरने के स्थान पर नारे लगा रहे थे. युवकों के इसी दल में निकलकर एक युवक छुरा लेकर गांधी जी पर हमला करने के लिए आगे बढ़ा. उस युवक को जल्दी से मणिशंकर पुरोहित और भिलारे गुरूजी ने पकड़ लिया. हमला करने वाला वह युवक कोई और नहीं बल्कि नाथूराम गोडसे था. 9 सितंबर 1944 को महात्मा गांधी की बातचीत मुहम्मद अली जिन्ना से बंबई में लगभग सवा तीन घंटे तक चलती रही.[33]
दरअसल, युवाओं की एक बड़ी संख्या मुहम्मद अली जिन्ना से महात्मा गांधी के मुलाकात का विरोधी था. इन विरोधों के बाद भी महात्मा गांधी अपने फैसले पर अडिग थे. इस मुलाकात के लिए जब गांधी जी सेवाग्राम से निकल रहे थे उसी दौरान गांधी जी को मुहम्मद अली जिन्ना से मिलने से रोकने के लिए नौजवानों की भीड़ आई थी जिनमें से एक के पास छुरा पकड़ा गया. 1946 में मुंबई से पुणे रेलगाड़ी से महात्मा गांधी जा रहे थे तो रेलगाड़ी को पटरी से उतारने के लिए करजत स्टेशन से ठीक पहले पटरी पर एक बड़ा पत्थर रख दिया गया था. यह कल्पना की गई थी कि रेल दुर्घटना में महात्मा गांधी की मृत्यु हो जाएगी. अक्तूबर 1946 में ही अलीगढ़ में महात्मा गांधी पर बम से हमला करने की बात सामने आती है. 1947 में मुंबई से रावलपिंडी जाते हुए पिल्लोर स्टेशन पर महात्मा गांधी पर हमले की असफल कोशिश की जाती है.
असल में महात्मा गांधी पर छोटे-बड़े हमलों का एक विस्तृत संचार है. काई बार तो महात्मा गांधी अपने कार्यक्रमों के द्वारा, अपनी आगामी योजनाओं के लिए अपनाई जाने वाली नीतियों के द्वारा हमलों को आमंत्रित करते हुए दिखलाई भी देते हैं.
लेख पढ़ने से लेकर गुनने की प्रक्रिया में यकसा नहीं रह जाता। अवचेतन में कुछ भी रहा हो पर बाहर से उन्हें लगता रहा कि वे मृत्यु को चूमेंगे।
मृत्यु एक कठिन वृत्त है उसके भीतर पैठना सहज नहीं माना जाता। बस आती है और चकित कर देती है।
हीरालाल नागर
लेख में गांधी के जिस मृत्यु बोध की बात की जा रही है वह आध्यात्मिक रूप से एक विचार है वह उनके जीवन में व्यवहार में प्रत्येक कार्य में भयमुक्ति की तरह प्रकट होता है और इस साध्य का साधन वे प्रत्येक कार्य में अहिंसा के रूप में देखते हैं | और इसी अहिंसा के रास्ते वे अनासक्त कर्म की उस स्थिति में स्वयं को पाते हैं जहाँ विचार और व्यवहार का भेद समाप्त हो जाता है और प्रत्येक अनासक्त कर्म में आसक्ति बोध ख़त्म हो जाता है यह विचार वे गीता से लेते हैं | पर व्यवहारिक भेद हमें उस आध्यात्मिक सत्य को समझने की दिशा में आगे नहीं बढ़ने देते जिस पर गांधी पहुँच चुके थे | मेरे विचार से लेखक ने यहाँ उनके आध्यात्मिक सत्य जहाँ विचार की मृत्यु असंभव है की स्थापना की है,यहाँ गोडसे के ह्त्या के व्यवहारिक विचार की तुलना गांधी के आध्यात्मिक मृत्यु बोध से नहीं हो सकती जो कि लेखक ने की भी नहीं है, लेख में उनकी विचार की हत्या को देह के खत्म कर दिए जाने से खत्म नहीं माना जा सकता ऐसी स्थापना है,गांधी बार बार उसी मृत्युबोध को अपने सार्वजनिक जीवन में दोहराते हैं जिससे उनके व्यक्तिगत सत्य को सार्वजनिक स्तर पर भी व्यक्त किया जा सके और ऐसा करते हुए वे सभी से अहिंसा के पालन की बात करते हैं जिससे सभी आध्यात्मिक मृत्यु बोध की, सत्य की शाश्वत स्थिति को समझ भय मुक्त हो सके,लोगों को उस भय बोध से बाहर निकाला जा सके जिससे विश्व का व्यवस्थित नैतिक शासन स्थापित हो सके,लेकिन व्यवहारिक भेद जो हमें दिखाई देते हैं उनके चलते कुछ लोग ऐसा भाष्य कर सकते है कि गांधी की ह्त्या उनकी आध्यात्मिक मुक्ति है क्योंकि गांधी स्वयं मृत्यु की शाश्वत स्थिति को समझ चुके थे | यदि इसका वाकई यह अर्थ ध्वनित होता तो बहुत आसानी से यह कहा जा सकता है कि मृत्यु एक अंतिम सत्य है जिसे गांधी पहले समझ चुके थे और उन्हें ‘सत्य के मेरे प्रयोग’ न लिखकर ‘मृत्यु के साथ मेरे प्रयोग’ लिखना चाहिए था |
गाँधी की आध्यात्मिक शक्ति जिसकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही उनके संघर्षशील व्यक्तित्व के निर्माण में-उसे बहुत बारीकी से समझा जा सकता है इस आलेख को पढ़ते हुए। गाँधी हमारी समूची जातीय परंपरा और अस्मिता के अपराजेय प्रतिनिधि चरित्र हैं-भारतीय मनीषा के प्रतीक पुरुष। इस सुंदर आलेख के लिए साधुवाद !
गांधी का विचार ‘मृत्यु किसी भी क्षण एक सौभाग्य है’ उनके गहरे आध्यात्मिक बोध को प्रकट करता है । वे अनासक्त थे, इसलिये निर्भय होकर जी सके । जन्म और मृत्यु व्यक्ति के शरीर के दो छोर हैं । गांधी का अंतर्बोध स्पष्ट है । वे ही कह सके “बीमारियाँ शरीर को मारती हैं, भय आत्मा को मार देता है । लेखक की पंक्ति है गांधी प्रेम को अहिंसा के सिद्धांत के रूप में देखते हैं । मेरी बुद्धि उलझन का निवारण नहीं कर सकती कि अमरेन्द्र कुमार शर्मा इतने ज्ञान की साधना कैसे कर लेते थे । मैं समालोचन के कई लेखों पर निरुत्तर हो जाता हूँ । रजनीश ने कहा था कि अहिंसा शब्द अच्छा होते हुए भी नकारात्मक है । प्रेम सकारात्मक शब्द है ।
अमरेंद्र कुमार शर्मा ने अद्भुत मनन किया है। वह शायद इस पर भी ग़ौर करना चाहेंगे कि ईश्वर और अमर आत्म या आत्मा पर विश्वास न हीं करने वाले लोग भी, महात्मा गांधी का मूलमंत्र अपना सकते हैं: निर्भयता! यह ऐसा अस्त्र है जो किसी भौतिक हथियार की मांग नहीं करता,अपने आप में पर्याप्त है, । हिंसक प्रतिकार का हामी भी, निर्भयता के बिना न तो प्रहार कर सकेगा, न अपनी रक्षा। लेकिन आत्मा की अमरता दुधारी है: हम गांधी आत्म की अमरता चाहते हैं, गोडसे या हिटलर या स्तालिन आत्म की नहीं।शहादत शायद अपनी निर्भयता का संदेश देने के साथ-साथ, अपने या अपने लक्ष्य आदर्श मंतव्य आदि के शत्रु के संपूर्ण विनाश का यक़ीन भी करना-कराना चाहती है?गोडसे या फिर कोई भी हत्यारा अगर आत्म की अमरता मान ले तो हिंसा-हत्या कर पाएगा? अगर गोडसे उस भारतीय अध्यात्म को मानता होता, तो? अगर उसे फांसी न मिलती—गांधी जी अगर बच गए होते ,तो उसे जरूर बचा लेते–नहीं? तब जेल में या हमारे समाज में विचरते हुए उसे वैसी ग्लानि होती, जैसी —! लेडी मैकबेथ की ग्लानि याद करें? यहीं एक और बात विचार के लायक है: अब तक की मेरी पढ़ाई लिखाई ने मुझे यही समझाया था कि भारत में मृत्यु का भय नहीं है, जबकि शेष दुनिया में उससे भयानक भय देखा जाता है। अनेक पश्चिमी विचारक यही बताते आए हैं! —और, कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी की स्मृति को बचाए रखना ही उसकी आत्मा की ‘अमरता’ मान ली जाती है?अध्यात्म और धार्मिक शास्त्रीय सवालों के ऐसे विकट व्यूह इस तरह खुलते चलेंगे —–
बेहतर यही जान पड़ ता है कि
हत्या को हत्या ही मानें और कहें भी; शायद तभी किसी और ‘महा-आत्मा’ को,उसकी ‘शारीरिक ‘ हत्या से बचाए रखने की सीख-समझ पैदा की जा सकती है?
आम अनुभव में, ‘स्वाभाविक ‘ कही जाने वाली मृत्यु मन में जैसी भावनाएँ जगाती है, वैसी भावनाएं कि सी भी ‘अस्वाभाविक ‘मौत से नहीं उपजती। गांधी या भगतसिंह की मौतें ,हिंसा के सवाल के बावजूद,रोष और निडरता, दोनों की प्रेरणा देती हैं। अमरेंद्र जी का यह एक अव्यक्त निष्कर्ष सही है कि ये मौतें प्रतिशोध नहीं, बलिदान के आदर्श की रक्षा हेतु, उस को आगे बढ़ाने के लिए ‘प्रतिकार ‘ जारी रखने की सीख देती या दे सकती हैं। पाप से घृणा,पापी से नहीं, –इस नसीहत पर अमल करते हुए, उस मानसिकता विचारधारा कुप्रयत्न कुप्रचार पर मुखर विरोध और प्रतिरोध जारी रहे जिनके कारण ‘पापी ‘ पैदा हो रहे हैं। मृत्यु के उदात्त भारतीय अध्यात्म का फ़ायदा हत्यारी विचारधाराएं न उठा सकें, विमर्श इस से भी आगाह रहे तो बेहतर।
विचारपूर्ण आलेख। भारतीय ज्ञान की सुदीर्घ परम्परा में महात्मा गांधी एक प्रयोगधर्मा मनीषी की तरह अकम्प दीखते हैं। अभय को अध्यात्म-पथ की पहली सीढ़ी कहा गया है जिसके प्रति लोगों को बारम्बार जागरूक करते हुए गांधी जी का मृत्यु-बोध श्रीमद्भगवतगीता से प्रकाश पाता हुआ सुदृढ़ होता है। अभयता के बोध के साथ उनका मृत्यु-बोध व्यक्तिगत ही नहीं, बल्कि समष्टिमूलक चेतना बन सके, इसकी कोशिश भी उनके महा-आत्मा होने की गवाही है। अभय ही अहिंसा का भी प्राणतत्व है। लेकिन मनुष्यों के समाज में हिंसा का बोलबाला ही अधिक रहा है। ऐसे में सत्य और अहिंसा पर अटल रहना मनुष्यता को लाजवाब तो करता ही है। इस सुन्दर और सार्थक आलेख के लिए अमरेन्द्र जी को साधुवाद। इसे साझा करने के लिए Arun Dev जी को भी बहुत धन्यवाद।