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Home » शहर जो खो गया: लीलाधर मंडलोई

शहर जो खो गया: लीलाधर मंडलोई

इसी वर्ष प्रकाशित वरिष्ठ कवि-लेखक विजय कुमार की पुस्तक ‘शहर जो खो गया’ पर आधारित लीलाधर मंडलोई का यह गद्य, पुस्तक के प्रति उत्सुकता पैदा करता है. खुद में सृजनात्मक गद्य का सुंदर नमूना है. मोहक है. मुम्बई से एक लगाव जो आम भारतीय महसूस करते हैं उसकी तस्दीक़ करता है. प्रस्तुत है.

by arun dev
July 14, 2023
in समीक्षा
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शहर जो खो गया: लीलाधर मंडलोई
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शहर जो खो गया
अब तक जो बिसरा हुआ था, सामने है
लीलाधर मंडलोई

दिल से ख़ुशतब्अ मकां फिर भी कहीं बनते हैं
इस इमारत को टुक इक देख के ढाया होता
(मीर)

‘शहर जो खो गया’  कवि-आलोचक विजय कुमार की आग की मानिंद एक खरी कृति है. एक ऐसा शहरनामा जो कभी-कभी लिखा जाता है. पीछा करता हुआ. घेरता हुआ. मुंबई को प्यार करने को उकसाता- उद्वेलित करता. इक दरवेश सिफ़त इंसान की अदब-आवारगी का नज़राना और अफ़साना. जिसमें शहर के तलछट धारावी, मांडवी, कसाईबाड़ा, गिरणगांव, कुर्ला से लेकर फिनिक्स मिल, बांद्रा-कुर्ला कांप्लेक्स, एल्फ़िन टावर और तमाम उत्तर आधुनिक संस्कृति के भव्य और चमकदार जीवन के एक्स-रे हैं. इसमें शहर के दाग़-धब्बों, गलियों में बजबजाती गंदगी, सीलन की दुर्गन्ध में रुका हुआ समय, नलों पर पानी की मारा-मारी और गाली-गलौज, खोली में बेढब गिरस्ती और भंडार, अपराध के नासूर और अंधेरे जीवन शिल्प से उत्तर-आधुनिक कार्पोरेट कल्चर की झकाझक उपभोक्ता संस्कृति तक एक करुण महाकाव्यात्मक दास्तान है.

मैं समीक्षा नहीं रचनात्मक शिल्प में आधा-अधूरा स्केच लिख  रहा हूं. वो नज़र, वो धीरज कहां से लाऊं, जो लेखक के हौसले में था. इस किताब में प्रयोग हैं- जिसमें मिथक , किंवदंतियों, क़िस्से-कहानियों से लेकर किताबों, फ़िल्मों, पेंटिग्स से इतिहास और संस्कृति के हवाले हैं और उनसे उभरता अतीत से आज तक का बोलता-टेरता शहरनामा है. सो ठिठकती क़लम है और मैं हूं.

 

दो)

मैं मुंबई से साल २००० तक डरता रहा हूं. इस शहर को फ़िल्मों में देखकर बचपन में बेहद डर गया था. वो डर अपराध जगत की हिंसाओं के साथ  क्रूर छवियों  के कारण था. इस शहर की भव्यता और  तीव्र गति से मुझे डर लगता था. फ़िल्मों में जिस तरह गाड़ियों की अराजक-हिंसक रेस, एक्सीडेंट्स, गुंडे-मवाली, हत्याएं, उनके बिंबों की भयावहता आदि  ने कभी मुझे सहज-सामान्य न होने दिया और मैं डरता रहा. गांव की ज़िंदगी के भीष्म यथार्थ के बरक्स मुंबई की आधुनिकता एक लोमहर्षक सपना थी. यह मेरा यथार्थ शायद गप्प लगे, लेकिन वह ऐसा ही था. उसी तरह किशोर से युवा काल में हालीवुड- जहाँ  युध्द ,हारर और  विज्ञान की फंतासी और  फिल्मों की अविश्वसनीय-अमानवीय कथाओं ने मानस में भय भर दिया था. उससे मुक्त होना सहज न था. बंबई कोई कम न थी वह अमरीका का विस्तार थी.

मीडिया में रहते हुए रील और रियल का भेद ,बहुत बाद में मिटा.

मेरे लिए यह प्रीतिकर अनुभव है कि इस किताब ने मुंबई के प्रति धारणा को बदला. मेरे अवचेतन के अंधेरों को हटाया. जीवन और कला की दृष्टि से शहर को समझने की एक राह दी. मैंने मुंबई को समझने के लिए जो  अपने ऊपर स्थगन आदेश लागू कर रखा था, उसे किताब ने हटा दिया. यह किताब का कमाल है.

पुराने बंबई शहर को जिसे ज़्यादा डाक्यूमेंट्री या समानांतर सिनेमा में देखा, मैंने वहाँ से लेखक को लोकेट किया और उसे गलियों में उबलते जीवन के बीच और कहीं भीतर अंधेरी गलियों में देखा. लोअर परेल का पुराना मजदूर समय, गुम हुआ और हो रहे की शिनाख़्त में बैचेन मन और उमड़-घुमड़ भरा मस्तिष्क मैं शहर और उसके लेखक के साथ हो लेता हूं.यह किताब का भी नहीं लेखक का हमसफ़र होना है. लेखक का वो मुंबई राग गोया उसे लिखकर कोई कर्ज़ उतारा जा रहा है, वह भाषा, वह अभिव्यक्ति मुझमें कहां? एक  बीते हुए समय को-मंटो, इस्मत आपा, ख़्वाजा अहमद अब्बास, कृश्न चंदर, राजेंद्र सिंह बेदी, प्रेमचंद, मुरारी, सत्यदेव दुबे, जानिसार अख़्तर, बलराज साहनी, कैफ़ी आज़मी, साहिर, बिमल राय, दीना पाठक, हंगल, रविशंकर, रज़ा, हुसेन, गायतोंडे, वाकरे ,नामदेव ढसाल, सुर्वे और तमाम कला अनुशासनों के अदीबों के संघर्षों और भूमिकाओं की निगाह से लिखा गया है. बहुत मुश्किल है इतनी खोज़बीन, इतनी जगहों की नयी सोच से यात्राएं और रचनात्मक इतिहास को फ्लेशबैक से आए में मूर्त करना. लगता है लघु फ़िल्मों का विराट कोलाज है कहीं कट टू कट तो कहीं डिज़ाल्व. वहीं  सौन्दर्य दृष्टि जो उस दौर के सार्थक सिनेमा में थी.

विजय कुमार ने मुंबई की मनुष्यता के सृजनात्मक इतिहास को केनवस पर बड़े एहतियात से पेंट किया है. इसमें बीते हुए की लयात्मक सिंफनी सुनाई पड़ती है. समय पर अंकित भूले-बिसरे किरदारों के अक़्स हैं अपने भूगोल में दमकते और शहर को हमआगोश करते. इसमें मुंबई की स्थानिकता का आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में क्रमश: खोना है. और यह धूसर और स्याह रंगों में है. जन-सामान्य का अंधेरों से गुज़रता कोई कारवां है. डूबता हुआ.

यह किताब खोने के दर्द को जिस सघन संवेदना में, ज़ुबान देती है, वह मेरे लिए  करुण विस्मय की अनुभूति है.

धारावी दस लाख जलावतन लोग
अपनी कलाओं के साथ तलघर का आकाश
अध्ययन और शोध का एक आश्चर्य इलाक़ा
जिसमें भटकता है एक शायर
समाज विज्ञानी के नये रूप में
मैं उसकी निगाह से देखता हूं शहर
और अपनी से पढ़ता हूं

दरअसल इस किताब के पहले, विजय कुमार की स्मृतियों में मुंबई -‘हड़प्पा या बेबीलोन’ था. जिसे पुरातत्ववेत्ता कवि ने एक नाम, एक मानी दिया. जो भुलाने के दौर में ज़िंदा होने का हलफ़नामा है. हलफ़नामा शहर की धड़कनों को हस्बमामूल रखने का.  जिसे लेखक फुटपाथ पर कमलेश की, सुल्तान की किताब दुकान और वे नामी गिरामी ‘बुक हंटर’ जो बोरीबंदर, बांद्रा, कालकादेवी के इलाकों में घूमते और फुटपाथों से दुर्लभ किताबों की तलाश में होते थे, लेखक उनकी रोमांचक गाथाओं तक पहुंचता है. सोचता हूं,शहर को गुम होने से बचाने की एक बैचेन करने वाली फंतासी, लेखक के भीतर न जाने कबसे ज़िंदा रही होगी ,उसी का कारनामा बन कर यह किताब दृश्य में है.

शहरनामा की किताबें अमूमन अकादमिक जड़ता में बेसुरी हो जाती हैं. उनमें दोआब  की आवाज़ें कम होती हैं. शहरनामा वह होता है जिसमें हर कोने, हर वर्ग, हर समुदाय, हर धर्म और समाज का सम्यक अंकन हो. गणपति बाप्पा मोरया के साथ नमाज़ की अज़ान, बेघरों का तज़्किरा,अपराध में डूबों की हक़ीक़त, हंसी, रुदन, चीख़ों, रहस्यों, रंगों, दृश्यों आदि का अंकन  होता है.

शहरनामा जनसंपर्क और टूरिज्म विभाग के पम्पलेट, हैंड आउट, गाईड के साथ गूगल के सूचनात्मक साहित्य की तफ़सीलों का ठस्स प्रदर्शन नहीं होता है. विजय कुमार इन सबसे बचकर क्रिटिएव ढंग से इस शहर को परत दर परत खोलते हुए किताब में उसे तामीर करते जाते हैं. बदलते समय की धड़कनें इसमें आबाद हैं. शहर के बदलने, बिगड़ने और बनने के मोटे-मोटे इंदराज इसमें दिप-दिप करते हैं जो नरेटिव को समय के धागों से जोड़ देते हैं. और अनेक कथाओं से वह विशाल नगर गाथा का आकार ले लेती है.

यह एक ऐसी मौलिक किताब है, जिसे एक पेंटिंग, एक वृत्त चित्र या जीवंत सांगीतिक सिंफनी की तरह अनुभव किया जा सकता है.

 

तीन)

अधिकांश शहर केन्द्रित रचनाओं में, शहर की धड़कनें, रंग, आवाज़ें, हंसी, उदासी, संगीत, चौपाटी, खान-पान, मौहल्ले, रेल, बसें, लोग, समुद्र आदि होकर भी जीवन विहीन रूप में आते हैं. क्योंकि उन तक पहुंचा और उन्हें जिया नहीं गया होता है. विजय ने आवारगी में शहर को जीने का पागलपन ज़िंदा रखा. एक तरह से उनकी कविता से छूट गयी मुंबई, यहां एक विराट केनवस पर जीवंत हो उठी है.वह विजुअल में है और उसके बिंब अवचेतन में घर बना लेते हैं. और इन बिंबों में पाठक एक कंपोजिट मुंबई का आस्वाद पा लेता है. यानी संगीत, नृत्य, फ़िल्म, साहित्य के साथ संस्कृति के उन सभी अड्डों के यथार्थ सामने जागृत हो उठते हैं जो कला स्थानों के अलावा ओर-छोर विरासत के अवशेषों के साथ रह-रहकर दृश्यमान हो उठते हैं.

जब किसी रचना की थरथराहट अनुभूत होने लगे तो यह एक बड़ा गुण है. इस किताब को पढ़ते हुए कुछ बेहद ज़रूरी को खोने का अहसास होना शुरु होता है और एक उदासी घेर लेती है. लगता यह एक शहर के बहाने सभी का दुख  है ,सभी शहरों और सभी लोगों का. यह अनुभव किताब के सार्वजनिक महत्व को प्रतिपादित करता है.

होने से अधिक न होने की एक टीस किताब में बरामद होती है.इसमें ख़य्याम के कंपोज़ किये गये गानों में मौजूद, दुख के इंटरल्यूड मानो सुनाई पड़ते हैं ,जो शहर को हमारी स्मृति से बिसरने नहीं देते.

इस किताब में एक ओर नयी दुनिया का शोरगुल है तो दूसरी ओर ख़ामोशी. एक ओर दमकते रंग हैं तो दूसरी ओर स्याह, धूसर और मटमैले बिंब. इन्हीं के बीच उजाड़ ठीहों की बीती हुई सरगोशियों में याद आते वे लोग, वे जगहें, वे समय; जिनके होने से यह मुंबई अज़ीम हुई- फिल्मकार, शायर, चित्रकार, संगीतकार, अफ़सानानिगार, डाक्टर, ईरानी रेस्तरां, कुर्ला, खेतबाड़ी, पारसी थियेटर, मैरवान कैफ़े भिंडी बाज़ार, मिलें, चालें, यहूदी कलाकार, जान विल्सन, इस्मत आपा, कृश्न चंदर, बेदी, मारियो आदि के साथ सैकड़ों लोगों की यादें किताब में रोशन हैं.

चार सौ पचास  सफ़ों पर लिखा गया एक मेघा नरेटिव है और अधूरा. इसमें हर रचना अधूरेपन की कशिश में ज़िंदा है.’खोया हुआ शहर’ सुर-ताल में गाया हुआ एक अविस्मरणीय मर्सिया है. यह अधूरे आख्यान में, अधूरा संवाद है. समग्र की जिजीविषा में अधूरे दृश्य, अधूरे शाहकार, अधूरा गाना, अधूरा स्थापत्य, यहाँ प्रत्यक्ष होता है. गोया अधूरेपन में ही किताब की समग्रता का होना है.

कुछ जो था नहीं है
जो होना चाहिए था, हुआ नहीं
यह न होने और बचे हुए में से
शहर को और लापता होने से
बचा लेने की ख़ूबसूरत ज़िद है

विजय कुमार मुंबई के पुरातत्व की अहमियत को समझते हैं. इतिहास की ज़रुरत और ख़ूबसूरती से वाक़िफ़ हैं. स्मृतियों की क़ीमत को जानते हैं. इसलिए उनके भीतर बंबई का आर्काइव है अधूरा होकर भी बेशक़ीमती.

एक लंबे कालखंड का विराट चित्र. मानो सुधीर पटवर्धन का चित्रात्मक विज़न. यह किताब शांता गोखले की किताब “दि सीन्स वी मेड”की प्रकारांतर से याद दिलाती है. इस अर्थ में इसकी मूल ज़मीन देखने से बनी है. बाक़ी इंद्रियां देखे हुए दृश्य के भीतर आकार लेती हैं. शहर दरअसल एक फ़िल्म है जो स्मृतियों का कोलाज है. जो अभी देखने की सृजनात्मक प्रक्रिया में दर्ज़ हो रहा है.और उसके एंबीएन्स का प्रकृत जगत रिकार्ड हो रहा है.

वह देखता है शहर को आंखों के कैमरे से
कानों में लगे हैं सुरीले माइक्रोफोन

और एक किताब का रा फुटेज रिकार्ड होता हुआ
दीगर इन्द्रियों से छू और चख रहा है

यह समझ आया जब मैं मुंबईया सा होकर देखने लगा
उस शहर को
जिसका डर अब नहीं है नाभि में
वह कानों में शंकर जयकिशन के पार्श्व संगीत की मानिंद है
पीछे से आगे में अगरबत्ती की सुगंध सा

मुंबई एक नहीं अनेक हैं. वे शहर के भीतर हैं. उनकी असम्बध्द छवियां हैं. पुरानी पर नयी सुपरइंपोज़ होतीं. एक रुपहले यूटोपिया के अवशेषों पर नये का आग़ाज़ है. जो प्रजेंट कन्टीन्युस टेंस के असमाप्त शिल्प में है.

जैसे ‘शहर खो गया’ खोने के ध्वन्यार्थ में असमाप्त है. यहाँ जो बहुत ज़रुरी था, अब ग़ैर ज़रूरी है. विकास की आंधी ने संस्कृति-सभ्यता के तत्वों को अप्रासंगिक कर दिया है.

बचाना एक जुनून है
जैसे माली बचाता है बागीचा

एक लेखक अपने शहर को
शब्दों में आबाद करने की फ़िक्र में होता है

लिखना बचाने का क़ौल-ओ-क़रार है
(शायद ख़ुद को भी)

एक सिनेमाघर, एक पुस्तकालय, एक कैफ़े, एक थियेटर ,एक ज्ञान उत्तेजक मंडली, पलुस्कर का संगीत कार्यालय, सफ़िया मंज़िल, काला घोड़ा की पुरानी हस्तियां, आपेरा हाउस, पटवर्धन के चित्रों में जन-सामान्य के क्लोज अप, रायबा का करुण अकेलापन, पारसी थियेटर का भग्नावशेष समय, गौहर, मेरी फेंटन , मोतीजान, अमीरजान, लतीफ़ा  बेग़म आदि के पुराने कला ठिकाने और कई-कई पते हैं जो अब शायद इस किताब में बचे रहेंगे. और इसी तरह नामचीन और नामहीन जन कलाकार बचे रहेंगे तो शहर का खोना भी बचा रहेगा.

बची रहेंगी पुरानी बारिशें नयी बारिशों में
पुरानी बंबई नयी मुंबई में
हिन्दू और मुस्लिम पुरानों से नयी में
और फ़िल्में और अभिनेता-अभिनेत्री और संगीतकार व गायक
और लोकल ट्रेन और मुसाफ़िर और सपने देखने वाले
और अदीब पीछे से आगे होते हुए
बचे रहेंगे कि यह है बंबई में मुंबई  मेरी जान

इसलिए कि वहाँ एक अख़बार है नवभारत टाइम्स. उसमें एक संपादक हैं सुंदरचंद ठाकुर और एक कवि हैं विजय कुमार. इन तीनों ने इरादतन  शहर के इतिहास को इस किताब में बड़ी हद तक बचा लिया है.

कि इसमें यथार्थ का आईना है.
एक जागरुक और जिम्मेदार लेखक की रूह की इबारतें हैं.
अंततः कथेतर साहित्य में यह एक नया मक़ाम है.

अब तक जो बिसरा हुआ था, सामने है
यह रोशनी
अंधेरे के सौंदर्य में ,कम तो नहीं

बीता हुआ समय
किस जुगत लौट आया है
और इसे मैं सिर्फ़ फ्लेशबैक नहीं कह पाता

मैं इसे शहर का खोना कम
खोते जाने की बेरहम प्रक्रिया में
उसे बचाने का रोमांचक ख़्बाब कहूंगा


यह किताब यहाँ से प्राप्त करें.

लीलाधर मंडलोई

Akhar- B 253, B Pocket, Sarita Vihar, New Delhi 76
leeladharmandloi@mail.com

Tags: 20232023 समीक्षामुंबईलीलाधर मंडलोईविजय कुमार
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Comments 13

  1. राजेश जोशी says:
    2 years ago

    वाह! विजय की इस अदभुद किताब पर यह टिप्पणी बहुत आत्मीय और महत्वपूर्ण है ।मुझे नहीं याद आता कि हिन्दी में शहर पर इतनी अच्छी कोई दूसरी किताब है ।उर्दू में गुजिश्ता लखनऊ को याद किया जा सकता है ।

    Reply
  2. मधु कांकरिया says:
    2 years ago

    दो प्रतिभाओं को साथ साथ पढ़ना एक विरल अनुभव रहेगा।

    Reply
  3. स्वप्निल श्रीवास्तव says:
    2 years ago

    विजय कुमार जी ने मुंबई के साहित्य और संस्कृति पर संबंधित लेख लिखे है । पढ़कर लगता है बीते वक्त की मुंबई साहित्यिक रूप से समृद्ध थी । मंडलोई जी की समीक्षा काव्यात्मक है ।

    Reply
  4. कर्मेन्दु शिशिर says:
    2 years ago

    आपने कहा कि समीक्षा नहीं लिख रहा.लेकिन जो भी लिखा, जिस खूबसूरत गद्य में लिखा और जिस मोहक अंदाज में लिखा क्या इससे बेहतर लिखा जा सकता था? मुझे तो नहीं लगता.आपने जो लिखा,उसे एक सांस में पढ़ने से कोई पाठक खुद को रोक सकता था? मुझे तो नहीं.बहुत-बहुत बढ़िया!समालोचन में प्रतिक्रिया लिखने के लिए जो करना होता है,वह मुझे नहीं आता.बस आपको याद करता रह गया.काश,ऐसा मोहक गद्य मुझे भी लिखना आ जाता!

    Reply
  5. विनोद दास says:
    2 years ago

    यह अनौपचारिक तरीके से लिखा औपचारिक लेख मुंबई की धमनियों में बहने वाले रक्त की शिनाख्त करने वाली किताब पर अच्छा विवेचन है। हार्दिक बधाई।

    Reply
  6. Devi Prasad Mishra says:
    2 years ago

    कवि-आलोचक विजय कुमार को मैं ने एक बार जाना तो जानना नहीं छोड़ा। वह जानना आज तक जारी है जो गाहे ब गाहे होती दूरभाषीय बातचीत से प्रगाढ़तर ही हो जाया करता है। वित्तीय दुर्दिनों से निजात पाने की एक तरकीब के तौर पर मैं तब स्टार न्यूज में था । फोन पर बात होने लगी तो मैंने कहा, विजय जी , मुझे हॉल में बहुत सर्दी लगती है । एक दिन मिलना तय हुआ तो देखा कि एक पुलोवर और मफ़लर लेकर वह स्टार न्यूज के स्टूडियों में मौजूद हैं। उस समय उन्होंने मुझे भावुक नहीं होने दिया। एक बार हम चर्चगेट के पास फुटपाथ पर टहल रहे थे तो मैंने कहा हिंदी में कुछ बड़ा नहीं हो सकता तो वह रुक गये और बोले – क्यों | मैंने कहा, क्योंकि हिंदी में पाखंड बहुत है और सत्य को जानने के उपकरण लगातार कम होते गये हैं। मैंने यह भी कहा कि नग्नता को विवृत करने वाली पदावली और निर्भीकता हमारे पास नहीं है। विजय किसी भी नये विचार और असहमति को सुनने और कहने के लिए , अपनी विकलता के लिए, जाने जाते हैं। हाल में मैंने उनकी अंधेरे समय में विचार किताब ख़त्म की । बंबई पर उनकी किताब जल्दी ही पढूँगा | लीलाधर मंडलोई ने उनकी किताब के लिए खिड़की खोली है – विजय कुमार के काम और व्यक्तित्व को सेलेब्रेट करने का कोई मौका हमें चूकना नहीं चाहिए । विडंबना ही कहिए कि जिन कुछ ठीक – ठाक कवियों को बड़ा होने में उन्होंने आलोचनात्मक मदद की, वे ही उनके विरुद्ध घृणा – प्रसारक बन गये :

    देखा जो खा के तीर कमीं – गाह की तरफ़
    अपने ही दोस्तों से मुलाक़ात हो गई

    साहित्यिक अवसरवाद से कमतर कुछ नहीं।

    Reply
    • आशुतोष दुबे says:
      2 years ago

      अलग अलग दशकों के सभी लेखक अस्सी के दशक के लेखकों से एक दूसरे पर निरंतर लिखते रहने की प्रेरणा ले सकते हैं।

      बाक़ी, विजय कुमार जी प्रिय लेखक आलोचक हैं और इस किताब के जितने भी अंश पढ़े हैं, बहुत अच्छी लगी है। बीते हुए को इतनी मार्मिकता से याद करने का सलीका कम ही लोगों में है।

      देवी प्रसाद जी ने विजय जी के बारे में सही लिखा है।

      Reply
  7. अनूप सेठी says:
    2 years ago

    जितनी तरल यह किताब है, उतनी ही सजलता से मंडलोई जी ने इसे देखा है। दिल खुश हो गया।

    Reply
  8. अच्युतानंद मिश्र says:
    2 years ago

    आमतौर पर हम संगीत में जुगलबंदी की बात देखते हैं। यह गद्य भाषा में जुगलबंदी का एक अनूठा नमूना है। लीलाधर मंडलोई जी ने पुस्तक की आत्मा को अपनी लय में प्रस्तुत कर दिया है। इसमें सुर, गति और ताल है।
    इस पुस्तक के बहाने विजय कुमार जी ने शहर को देखने की, समझने की ,उसके काल बोध को पहचानने का अलहदा ढंग विकसित किया है। इसमें विकास का चरम भी है और उसके बोझ तले दबी आत्माओं का चीत्कार भी। इस पुस्तक के रास्ते जब हम एक शहर को देखते हैं तो जान पाते हैं कि कोई शहर मनुष्यता के इतिहास में किस तरह आकार लेता है। जीवित शहर में क्या क्या मरा रहता है और मृत शहर में क्या जीवित।
    एक शहर जो आबादी के बाहर दिखाई देता है, लोगों की स्मृति में उससे कितना भिन्न आकार ग्रहण करता है?

    Reply
  9. अनुराधा सिंह says:
    2 years ago

    एक बहुत ज़रूरी क़िताब की सार्थक व काव्यात्मक समीक्षा। विजय कुमार जी अपने आपमें बहुत सा मुम्बई समेटे हुए हैं। मुम्बई में एक आम कामकाजी मनुष्य की तरह रहने में और विजय कुमार बन कर रहने में बहुत अंतर है। यह महानगर देश भर के कलाकारों और साहित्यकारों की रग़ों में ख़ून की तरह क्यों दौड़ता है यह बात समझने के लिए इस किताब को पढ़ना ज़रूरी है। मेरे लिए तो इस किताब को बार – बार पढ़ना अपने महबूब शहर में कुछ और बस जाना है।

    Reply
  10. Sumit Tripathi says:
    2 years ago

    बेहद पुरकशिश अंदाज़ में किताब को पेश किया गया है और उतनी ही दानिशवरी के साथ।

    Reply
  11. Stuti rai says:
    2 years ago

    बेहतरीन समीक्षा, एकबार शुरू करों तो रूकना अच्छा न लगे।

    Reply
  12. mamta kalia says:
    2 years ago

    मंडलोई जी की विशद समीक्षा उकसाने का काम कर गयी।हिंदी में कुछ साहित्यकार ऐसे हैं जिन्हें पढ़ कर हम शिक्षित होते हैं।विजयकुमार और जितेंद्र भाटिया को मैं हमेशा जिज्ञासु की तरह पढती रही हूँ।साम्झ नही आया,विजयजी की किताब कहाँ से प्रकाशित है।फौरन पढ़नी है

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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