विशाल श्रीवास्तव की कविताएँ |
टीन की चादर पीटने की आवाज़
दृश्य के सौन्दर्य के साथ नत्थी है
टीन की चादर पीटने की आवाज़
जब पीपल के पत्तों से छनकर आती धूप
तनिक देर पहले झाड़ू से सहलाई हुई सड़क को
वात्सल्य की नाजु़क गर्मी के साथ चूम चुकी होती थी
ठीक उसी समय
लाल गेंदों की तरह उछलते हुए स्कूल जाते
बच्चों का कलरव थमते ही
शुरू हो जाती थी
टीन की चादर पीटने की आवाज़
जीवन एक रोमांच भरा इन्द्रजाल था
कि लकड़ी के हथौड़ों से पीटी जाती चादरें
किसी जादू की तरह खूबसूरत बक्सों में बदल जाती थीं
पूरी दोपहर ठक! ठा! ठा! ठक! ठक! ठक!
करते हुए पसीने में तर-बतर हफीज़ चचा
हमारे लिए श्रम की साक्षात मूर्ति थे
उन दिनों किताबों में पढ़े जाने वाले
मेहनत शब्द का एक ही अर्थ होता था
टीन की चादर का मुसलसल पीटा जाना
टीन की चादरों का हथौड़ों से पीटा जाना
और यह ठक! ठा! ठा! ठक! ठक! ठक! की आवाज़
कुछ इस तरह तय थे हमारे जीवन में
कि कभी-कभी यह भय लगता था कि
अगर यह आवाज़ बन्द हुई तो दिन कैसे निकलेगा
गणित का सवाल हल करते हुए
गेंद को बल्ले से मारते हुए
कैंची साइकिल चलाते हुए
या पिता से झापड़ खाकर अपना रोना छिपाते हुए
टीन की आवाज़ हमपर तारी रहती थी
ठक! ठा! ठा! ठक! ठक! ठक!
हमारी दिनचर्या का अनिवार्य संगीत था
वह पानी में नमक की तरह
हमारे जीवन के द्रव में घुला था
फिर अचानक किसी साल दिसम्बर आया
और टीन की आवाज़ की जगह
डरावने भीड़ के शोर ने ले ली
किसी ने देखा नहीं लेकिन यह बताया गया
बीती रात सड़क पार करते हफीज़ चचा के सीने में
एक टेम्पो अपना टीन का तिकोना मुँह लेकर घुस गया
टीन का संगीत थम गया था
पर कुछ ही दिनों बाद फिर सुनाई दी वह आवाज़
ठक! ठा! ठा! ठक! ठक! ठक!
हम सहमे हुए बाहर निकले और देखा
पसीने से नहाया हुआ
हफीज़ चचा का हमउमर बेटा
अपने पतले हाथों से पूरी ताक़त के साथ
सड़क पर टीन की चादर पीट रहा था
ठक! ठा! ठा! ठक! ठक! ठक!
इस बार हमने इसे जादू नहीं कहा
या जीवन के सौंदर्य का इन्द्रजाल
हम अचानक समझदार हो गये थे
हमारे जीवन में
लज्जा और अपराधबोध
चुपचाप दाखि़ल हो गये थे
खिली हुई धूप में हम-तुम
खिली हुई धूप में हम-तुम
अपनी उदासियों के साथ मिलते हैं
मैं अपनी बेचैनी में तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ
कि तुम्हारे पीछे खड़े पौधे पर खिला फूल
सर हिलाकर कहता है न! न! न!
तुम कुछ मत कहो
एक उदासी को दूसरी उदासी से बात करने दो
उदासियाँ सगी बहने होती हैं
जो बिना रुलाई के एक दूसरे से भेंटती नहीं
और जिनके भीतर होता है
अनंत काल तक बतियाने का सामर्थ्य
मैं चाहता हूँ कि
मेरी उदासी तुम्हारी उदासी से बताये
कि एक भरा दीखता हुआ जीवन
कितना खाली हो सकता है
और यह भी कि तुम्हारी स्मृति में
मैं भले एक उद्दाम असंयत प्रेमी की तरह रहा हूँ
लेकिन मैंने अब यह जान लिया है कि
प्रेम का असल जीवन
देह की सीमा के आगे शुरू होता है
मेरी स्मृति की आकांक्षा अब केवल
तुम्हारी नरम अंगुलियों का स्पर्श है
जब हम-तुम एक दूसरे के प्रेम में डूबे थे
यह दुनिया कितनी सुंदर हुआ करती थी
या फिर इसका उल्टा भी सम्भव है कि
यह दुनिया कितनी सुंदर हुआ करती थी
जब हम-तुम एक दूसरे के प्रेम में डूबे थे
फिर भी
हो तो यह आज भी नहीं पाया
कि हम इस दुनिया को थोड़ा और सुंदर बना पाते
जैसे कि यह नहीं हो पाया कि हम अंततः मिल पाते
उदासियों को बात करते हुए यह तय करने दो
कि कौन सी बात ज़्यादा उदास करने वाली है
दुनिया का सुंदर न बन पाना
या हमारा विछोह
बसंत के बारे में एक बयान
रक्त के खि़लते हुए फूलों
और ग़र्दो-ग़ुबार से निराश मत होना साथी
बसंत अब भी एक सम्भावना है
वह आयेगा हमारी शिराओं में
आग भरी हरारत की तरह
किसी लम्बी सुनसान सड़क पर
आँखों को मद्धिम सेंक बख़्शते हुए बिछे
लाल फूलों की तपन की तरह
चाह से देख लिए जाने पर लजाई
किसी वयमुग्धा की मुस्कुराहट की तरह
बसंत आयेगा हमारे जीवन में
ऋतुओं के बारे में यह कितना तय है
कि वे आ ही जाती हैं बेरोकटोक बिलानागा
जैसे बसंत केवल उपवन में नहीं उतरता
वह आता है तो हर जगह आता है
बसंत भीषण युद्ध के बीच भी आयेगा
गिरते हुए बमों को धता बताते हुए
बारूद की गंध को अपने सौरभ से
पराजित करते हुए वह आयेगा
बसंत को किसी बुलडोज़र का डर नहीं है
उसके वैभव के भीतर प्रकृति का लोहा है
सबसे ऊँची कुर्सी पर बैठा हुआ आदमी
अपनी तमाम अश्लील ज़्यादतियों के बावजूद
कम से कम
बसंत का आना नहीं रोक पायेगा
बसंत तमाम क्रूरताओं के बीच आयेगा
राष्ट्राध्यक्षों की शातिर चालों के बीच आयेगा
हथियारों की सौदेबाजी के बीच
राजनीतिक षड्यंत्रों के बीच
बसंत पत्थर फाड़कर निकले
निर्भय अंकुर की तरह आयेगा
बस एक बात है जो कहनी है
हमारी दुनिया का यह बसंत
केवल किसी मंजरी से नहीं पहचाना जायेगा
वह किसी ध्वस्त स्कूल की इमारत में
फटा बस्ता लेकर पढ़ने जाते हुए
एक छोटे बच्चे के जज़्बे में चमकेगा
और हमें बताएगा कि
गिरती हुई मिसाइलों के बीच
पढ़ने जाता हुआ बच्चा
बारूद के जंगल में खिला हुआ एक फूल है
अब आप ही कहें
बसंत के बारे में अपना बयान देते हुए
इस फूल को मैं किस नाम से पुकारूँ
दादी की भाषा
भइया हो!
ढेर स्याबलेखी न झाड़ौ
मनई मा रहौ
गोड़ ज़मीनिन मा राखौ
अनवादी न बतुआव
अंगरेजी न भूँकौ
उखमज़ बन्द करौ
मुराही न छाँटौ
चैवाल मा न बाझौ
महतारी कै अँचरा मा न लुकान रहौ
अपनइ बघवा बाप से तनी डराव
मुआफी चाहूँगा अगर आपको
इन सबका मतलब कुछ कम समझ आया हो
लेकिन अरसा हुआ
यह सब मुझसे किसी ने नहीं कहा
कि मैं सुनूँ और चिहुँक जाऊँ अचानक
दादी बहुत पहले चली गयी थीं
धीरे-धीरे उनकी भाषा भी चली गयी है
बहुत दूर
इतना कि
किसी से अवधी में बतिया पाता हूँ
तो लगता है पानी दे रहा हूँ दादी को
सोचता हूँ कि
कितना उत्फुल्ल हो जाऊँ मैं अगर
बगल से गुज़रता हुआ कोई आदमी
‘ओ माई गॉड’ की जगह ‘अरे ददई’ कह दे
लेकिन
गिटपिट भाषा का आधुनिक जंगल कितना क्रूर है
जिसमें दादी की भाषा के शब्द मुरझाए हुए हैं
इतना कि अब तो रुलाई से भी उनका
हो चुका है दाखिल-खारिज़
ऐसा नहीं कि कहने वालों से खाली ये जहाँ हैं
लेकिन उनकी ज़बान में वह बात कहाँ है
कल्लू कथिक
इस कहानी को एक आदमी की कहानी कहना
खुद के साथ नहीं पूरी परम्परा के साथ धोखा होगा
जिस आदमी ने अपने पसीने के नमक से
लावण्य भर दिया हो लोक की नदी में
उसकी कथा कहने के लिए साहस का समुद्र चाहिए
इतिहास के गौरवशाली चमचमाते संग्रहालय में
एक कथिक की कला को किसी अँधेरी कोठरी में जगह मिली है
जहाँ उनपर अँधेरा तारी होता है
वहाँ हाँफते होंगे कल्लू कथिक
उनकी आवाज़ को काठ मार जाता होगा वहाँ
वही कल्लू कथिक
जो पैरों में घुंघरू और कमर में फेंटा बाँधकर
किसी योद्धा की तरह कूद जाते थे कथा के मैदान में
और लगता था कि अभी यहीं खून-खराबा हो जायेगा
तो कभी लय बदलती थी और महज एक आँचल की ओट से
स्त्री हो जाते थे कल्लू कथिक
वे समझते थे कि
योद्धा होना स्त्री होने से अधिक आसान है
किसी स्त्री में अगर पुरुषत्व हो
तो वह सराहना का विषय है
किसी पुरुष के भीतर यदि तनिक भी स्त्री हो
तो उसके हिस्से लज्जा और उपहास के सिवा कुछ नहीं
जबकि संसार में जितनी भी करुणा है वह इसीलिए है
कि हर पुरुष के भीतर की स्त्री कभी-कभी जाग जाती है
कल्लू कथिक की कला में ही नहीं
उनके जीवन में भी करुणा थी
लोग कहते थे स्वांग भरते हैं वे
अभिनय में रोज मिलने वाली मृत्यु की पीड़ा
केवल कल्लू कथिक का जियरा ही जानता था
अपनी अँधेरी कोठरी से निकल कहीं आज आ जायें तो
सहमकर रह जायेंगे कल्लू कथिक
जिस आसन्नप्रसवा निर्वासित स्त्री की पीड़ा की कथा
कहते-कहते रोने लगते थे वे
उनका नाम उनके प्रिय के साथ जोड़कर
पैंलगी करने वाले लोगों से अब अवध खाली हो गया है
जिस लोक को माँजते हुए बीता था उनका जीवन
उसका रीता घट अब फूटकर बिखर गया है.
बेदखली
तुम्हारे पास ताकत है तो क्या मुश्किल है
किसी कागज से मेरा नाम खारिज करना
वैसे भी जिस देश में जीवन और मृत्यु
दोनों का प्रमाण प्रस्तुत करना
असम्भाव्यता की सीमा तक कठिन हो
वहाँ अपने होने पर किसी मुहर की दरकार
एक निरर्थक गल्प से अधिक है ही क्या
मैं उम्मीद के परदे से झाँकता हूँ तो देखता हूँ
बदलती ऋतुओं को धरती पर उतरते हुए
इनके रंग को कैसे बेदखल करोगे मुझसे
मेरी आंखों में कितने नयनाभिराम दृश्य हैं
यहाँ के फूलों वनस्पतियों पहाड़ों झरनों वगैरह के
शुक्र है कि
तुम मेरी आँखें तो निकाल सकते हो लेकिन ये मंजर नहीं
जिस देह का अथाह प्यार मयस्सर हुआ मुझे
कैसे खारिज करोगे उसकी खुशबुओं को मेरी देह से
दोस्तों के जिन कंधों पर मेरे आँसुओं ने शरण पायी
वहाँ की नमी को कैसे सुखा पाएगी तुम्हारी क्रूरता की धूप
कितना कितना कितना
नमक अर्जित किया है मेरी देह ने इस मिट्टी से
कि सारा खूँ पसीना निचोड़ने के बाद भी बचा रहेगा वह
मैं किसी नक्शे की इबारतों का नहीं
प्रेम के अपूर्व संसार का नागरिक हूँ
जिसे तुम देश कहते हो वह मैं हूँ
जिसे तुम मैं कहते हो वही देश है
बताओ जरा
देश से देश को कैसे खारिज करोगे
मुझमें से कैसे बेदखल करोगे मुझे ही.
फ़ैज़ाबाद में जन्मे विशाल श्रीवास्तव (१९७८) अभी वहीं रहते हैं और पढ़ने-पढ़ाने से वास्ता रखते हैं. एक संग्रह ‘पीली रोशनी से भरा कागज़’ साहित्य अकादेमी से प्रकाशित है. ‘अंकुर मिश्र स्मृति पुरस्कार’, ‘वेणुगोपाल सम्मान’, ‘मीरा मिश्रा स्मृति पुरस्कार’ एवं ‘मलखान सिंह सिसोदिया कविता पुरस्कार’ से सम्मानित हैं. संपर्क : 9415468684 |
बहुत मर्मस्पर्शी कविताएं। दादी की भाषा बहुत सुंदर कविता हो सकती है यदि एक पंक्ति – “गिटपिट भाषा का आधुनिक जंगल कितना क्रूर हैं” , इस पंक्ति को थोड़ा बदल दिया जाए। बेदखली एक जरूरी कविता है। समालोचन और Vishal Srivastava ji को हार्दिक बधाई
जीवन के घनीभूत संत्रास और स्वप्न के बीच कवि की गवाहियां है ये कविताएं।
विशाल जी अच्छा लिख रहे हैं।
शुभकामनाएं
ख़ूबसूरत कविताएँ । टीन की चादर पर अब हफ़ीज़ चचा का बेटा ठक ठक ठकठकाता है । शासक समझो । एक कविता है लिखा है असली प्रेम तब शुरु होता है जब हम देह के पार चले जाते हैं ।
दादी की बोली भावप्रवण कविता है । “जब मैं अवधि बोलता हूँ तो लगता है दादी को पानी दे रहा हूँ । [काग़ज़ पर नहीं लिखी अपितु याद हो गयी] ।
वसंत कविता ने फिर से शासक की गाल पर थप्पड़ मारा है ।
बाक़ी कविताओं को याद नहीं रख सका, परंतु भावपूर्ण हैं । अलबत्ता एक कविता में लिखा है कि हर पुरुष में एक स्त्री छिपी होती है । जब वह जागती है तो दुनिया सुंदर हो जाती है ।
हमारे बच्चों के सदृश कवि को स्नेह । [अधिक और बहुत अधिक फ़ालतू शब्द हैं । लोग क्यों लिखते और कहते हैं बहुत ज़्यादा सुंदर]
विशाल जी अपनी इन कविताओं में दृश्यों के माध्यम से सामान्य मनुष्य की पीड़ा का आख्यान रच रहे हैं। समय पर पैनी नजर तो है ही। एक साथ इतनी चीजों को उपस्थित किया है कि लगता है कि इन कविताओं से कुछ छूटा ही नहीं। फिर भी ,यहाँ अतिरिक्त कुछ भी नहीं। अर्थपूर्ण और स्पर्शी कविताएं।
सुन्दर कविताएँ। पहली कविता मुझे मेरे शहर की लुहारपट्टी में ले गई जहाँ पूरी सड़क पर टीन की कोठियों में लगातार समवेत ठकठक होती रहती थी। वह हमारे स्कूल के रास्ते में आती थी। आते जाते वह शोर हमारे दैनिक अनुभव का हिस्सा था। अब वहां प्लास्टिक के ड्रम मिलते हैं।
बसंत आएगा हमारे जीवन में – वाह!
मैं उम्मीद के पर्दे से झांकता हूं……….. बहुत ही सुंदर और भाव पूर्ण कविताएं हैं…. कलम की यात्रा को अनवरत करिए…. प्रतीक्षा होगी आपकी अगली कविता की….. चरण स्पर्श