‘डिजिटल मीडिया के आने के बाद भी पुस्तकें जीवित रहेंगी.’निर्मल वर्मा से धीरेन्द्र अस्थाना की बातचीत
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“हाल ही में हिंदी के सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कथाकार- उपन्यासकार चिंतक निर्मल वर्मा हिंदी की अनिवार्य एवं विरल उपस्थिति हैं. वे न होते तो हिंदी साहित्य का परिदृश्य वैसा दुर्लभ और संपन्न न होता, जैसा है. प्राचीन पुस्तकालयों में बैठा हिंदी का यह लगभग ‘संत’ लेखक जबरदस्त और जादुई ढंग से लेखक होने का प्रतिमान है. सन 1929 को शिमला में जन्में निर्मल वर्मा का इतना लंबा जीवन लेखन से लेखन की यात्रा का नायाब नमूना है. वे दिन लाल टीन की छत, एक चिथड़ा सुख, रात का रिपोर्टर और अब अंतिम उनके अप्रतिम उपन्यास हैं. परिंदे, जलती झाड़ी, पिछली गर्मियों में, बीच बहस में, कव्वे और काला पानी आदि संग्रहों में संकलित उनकी कहानियां हिंदी साहित्य की अनुपम धरोहर हैं, आजादी के बाद के हिंदी साहित्य की सबसे छोटी सूची में भी अगर निर्मल वर्मा का नाम नहीं हो, तो वह न सिर्फ अविश्वसनीय होगी वरन हास्यास्पद भी कहलाएगी. अत्यंत विनम्र, लेकिन उतने ही संकोची, आम तौर पर इंटरव्यू देने से बचने वाले, बहत्तर बरस के इस विश्व विख्यात लेखक ने दिल्ली के अपने सह विकास आवास में प्रसिद्ध युवा कथाकार धीरेंद्र अस्थाना से यह लंबी बातचीत की. पेश हैं उसके प्रमुख अंश.”
धीरेंद्र अस्थाना
1.
उम्र की बहत्तरवीं सीढ़ी पर खड़े होकर बीता हुआ जीवन देखना कैसा लगता है?
बहुत ज्यादा पीछे मुड़ कर देखने की मुझे आदत नहीं है. यह जरूर है कि हर दिन जीते हुए, काम करते हुए, सोचते हुए कुछ लोगों के साथ बीता हुआ जीवन, उनका साहचर्य, उनका चेहरा याद आता है. उनमें से अनेक लोग अब नहीं रहे. या तो उनसे एक तरह का अलगाव हो गया या उनकी मृत्यु हो गई. लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता कि उनके अभाव से मेरे जीवन में किसी किस्म की कोई शून्यता आ गई हो, उनका कभी मेरे जीवन में होना ही मुझे एक सुखदायी अनुभव देता है.
कभी-कभी यह ख्याल जरूर आता है कि अगर मैं अधिक संयमित या एकाग्र जीवन जीता तो कुछ और अलग किस्म का लिख पाता या अधिक लिख पाता. लेकिन इसकी शिकायत भी मुझे अपने से कम ही होती है, क्योंकि मैं सोचता हूं कि आदमी को जो समय मिलता है, जैसा जीवन मिलता है, उसकी जो सीमाएं होती हैं, जैसा सामर्थ्य होता है, उसके भीतर ही वह अपना काम संपन्न कर पाता है. लेकिन यह जरूर है कि जो कुछ मैंने जिया है, उसके प्रति एक कृतज्ञता का भाव मेरे मन में है.
२.
निर्मल जी, हम नई पीढ़ी के बहुत सारे लेखक आपको एक ‘संत लेखक’ की तरह अपने बीच पाते हैं, एक ऐसा लेखक जिसको अपने भीतर महसूस कर लेने से जीवन की प्रतिकूलताओं के बीच ताकत मिलती है. जीवन की क्रूर वास्तविकताओं का मुकाबला अपनी दुर्लभ और शाश्वत संतई से आप कैसे करते हैं?
मुझे नहीं लगता कि मेरे भीतर कोई बहुत कर्मठ किस्म की संकल्पशीलता है जो मुझे मेरे काम के प्रति लेखन के लिए मिलती रहती है. बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि अपने जीवन का भरापूरापन मैं अपने लिखने से ही प्राप्त करता हूं. इसमें न तो मैंने कोई त्याग भावना प्रदर्शित करने की कोशिश की है, न ही मैंने कोई संत जैसा काम किया है.
संत और सन्यासी तो जीवन का त्याग कर एक अलौकिक शक्ति की राह में चल पड़ते हैं. लिखना तो एक तरह से अंधेरे में भटकना ही है. कभी-कभी सौभाग्य के क्षणों में आप कोई सत्य पा लेते हैं, अच्छा लिख लेते हैं. मैं नहीं समझता कि इसमें मेरी कोई बहादुरी है या महानता है, किसी तरह का कोई संत भाव है. एक तरह का मिशन, दायित्व जीवन ने हमें दिया है जो हमें पूरा करना है. इस तरह के दायित्व और लोग भी अपने-अपने कार्यक्षेत्रों में निभाते हैं.
प्रोफ़ेसर अपने शिक्षण में, एक डॉक्टर अस्पताल में, एक समाजसेवक समाज में इस तरह का दायित्व निभाता है. मैं नहीं समझता कि मैंने कोई विशिष्ट भूमिका निभाई है.
3.
पुरस्कारों की दुरभिसंधि के इस दौर में जब सहसा आप जैसे वीतरागी लेखक को कोई पुरस्कार मिलता है तो आपको कैसा लगता है? क्या आपको हंसी आती है?
नहीं. न तो हंसी आती है, न रोना आता है. यह महसूस होता है कि लिखना काफी अकेलेपन का काम है. हम बैठे रहते हैं, कभी-कभी तीन या चार पन्ने लिख लेते हैं और दूसरे दिन उन्हें फाड़ भी देते हैं. लेखन एक थिएटरकर्मी या सिनेकार या संगीतज्ञ के काम से एकदम अलग की चीज है, जहां तात्कालिक रूप से एक कलाकार को श्रोताओं या दर्शकों की प्रतिक्रिया सुनने का सौभाग्य मिल जाता है.
एक लेखक की जिंदगी इससे बहुत अलग है. उसे एक तरह की स्वीकृति बहुत देर में मिलती है और पुरस्कार एक तरह की स्वीकृति ही है. एक सीमा के बाद लेखक के लिए पुरस्कार का कोई महत्व भी नहीं रह जाता है. उसके लिए तो ज्यादातर महत्वपूर्ण यह है कि उसने जो लिखा है उसके बारे में लोगों की क्या प्रतिक्रिया है?
लेकिन जब मैं ऐसा कहता हूं तो पुरस्कारों की उपेक्षा नहीं करता. क्योंकि ऐसे लेखक हैं, मैं भी उनमें से हूं, जो कहीं नौकरी नहीं करते. जो दस से पांच वाले नियम में नहीं हैं, जिनके पास कोई काम नहीं है. जो अपने लेखन से ही जीवनयापन करते हैं, उनके लिए पुरस्कार एक तरह से आर्थिक सहायता के रूप में भी आ जाता है जो कि अपने में नगण्य नहीं है, पुरस्कार स्वीकार करते हुए हम उस कृतज्ञता को भी महसूस करते हैं जो हमने समाज से पाई है.
पुरस्कार देना अगर एक औपचारिकता नहीं है तो यह एक तरह का कृतज्ञता भाव है, समाज का लेखक के प्रति और लेखक का समाज के प्रति.
4.
कोई कहानी या उपन्यास आपकी चेतना में किस तरह प्रकट होता है?
क्या आप ‘नोट्स’ लेते हैं?
‘नोट्स’ लेना तो मैंने कभी सीखा नहीं और न ही मुझे अच्छा लगता है. यह जरूर है कि जब कहानी का कोई विषय हम धुंधले ढंग से सोच लेते हैं तो उसी कहानी के साथ-साथ अनेक प्रसंग दिमाग में अनायास आते-जाते हैं. लिखने के दौरान कई प्रसंग कई स्मृतियां अपने आप आती हैं जो उस कथानक को परिपुष्ट कर सकें. यह सब अवचेतन में होता है. मेरे साथ ऐसा होता है कि मैं कहानी का पूरा ढांचा एक साथ नहीं सोच पाता. मुझे कहानी या उपन्यास का बीच का या अंत का हिस्सा पहले से मालूम नहीं होता. सिर्फ एक धुंधला-सा आकार मेरे मन में होता है. ऐसे कमजोर से ढांचे पर मैं कहानी या उपन्यास लिखना शुरू करता हूं और फिर धीरे-धीरे उसका परिवेश, उसका कलेवर, उसकी काया अधिक सुडौल, अधिक स्पष्ट होता चला जाता है.
5.
भूमंडलीकरण के इस आक्रामक दौर में सृजनात्मक साहित्य का ‘स्पेस’ कम से कमतर होता जा रहा है.
आने वाले समय में लेखक की हैसियत क्या रह जाने वाली है?
देखिए, भूमंडलीकरण का परिणाम अगर यह होता है कि पुस्तकों का अंत हो जाएगा तो मैं समझता हूं कि यह बहुत ही गलत धारणा है. भूमंडलीकरण का सबसे बड़ा खतरा एक किसी शक्ति का सार्वभौमिक होना होता है चाहे वह अमेरिका या अन्य कोई पश्चिमी शक्ति हो.
भूमंडलीकरण का एक परिणाम यह भी हो सकता है कि सब देश एक दूसरे के इतने निकट आ जाएं कि उनमें एक दूसरे के साहित्य और संस्कृति को जानने की उत्सुकता बढ़े. इस उत्सुकता को पूरा करने के लिए जाहिर है कि अनुवादों की आवश्यकता पड़ेगी और उसकी मशीनरी में एक नई टेक्नोलॉजी का विकास या उसमें परिवर्तन हो सकता है. लेकिन यह एक तरह की ख़ाम-ख़याली भी हो सकती है. क्योंकि मैं नहीं समझता कि हम अभी से भूमंडलीकरण और साहित्य के बारे में सोचते हुए बता सकते हैं कि क्या होगा पुस्तकों के साथ? हम केवल यह कह सकते हैं कि डिजिटल मीडिया के आने के बाद भी पुस्तकें जीवित रहेंगी.
6.
प्राकृतिक आपदाएं, सूखा, बाढ़ और भूकंप आपकी रचनात्मकता पर किस तरह का असर डालती हैं, ऐसे समय में आप किस स्तर पर विचलित होते हैं?
हम बहुत सी चीजों से विचलित होते हैं. बाढ़ है, सूखा है, भूकंप है, ये तो खैर बहुत बड़ी विपत्तियां हैं. हमारे पड़ोस में कहीं आग लग जाती है, कोई दुखद घटना घट जाती है या किसी की मृत्यु हो जाती है. ये चीजें मन को बहुत क्लेश पहुंचाती हैं. हमारे मन पर, हृदय पर, चिंतन क्षेत्र पर ये सब घटनाएं अपनी छायाएं बराबर छोड़ती जाती हैं. इसलिए लिखते समय इन विषयों के बारे में हम न कभी लिखें तो भी ये छायाएं हमारे आसपास मंडराती रहती हैं.
हम जब भी अस्तित्व या जीवन के विषाद के बारे में लिखते हैं तो जरूरी नहीं है कि मरनेवालों के बारे में लिखें लेकिन ये चीजें हमारे लिए सन्दर्भ बन जाती हैं, हम हर चीज पर नहीं लिख सकते लेकिन उन सबका असर हमारी लेखन क्षमता पर पड़ता रहता है. इस दृष्टि से मैं समझता हूं कि लेखक का संवेदन क्षेत्र जितना अधिक विस्तृत होता है, उतना ही उसके विशिष्ट होने की संभावना बढ़ जाती है क्योंकि फिर उसके अनुभव के दरवाजे बंद नहीं रहते.
7.
एक बार आपने कहा था कि भाजपा को सरकार बनाने का अवसर मिलना चाहिए.
अब आपका क्या विचार है?
जब मैंने कहा था कि भाजपा को भी सरकार बनाने का मौका मिलना चाहिए तो इस दृष्टि से कहा था कि भाजपा भी एक भारतीय पार्टी है. गैर भारतीय दल तो नहीं है. ( हंसी) जिस तरह और भारतीय दलों को, कम्युनिस्ट पार्टी तक को सरकार बनाने का अवसर मिल सकता है, पश्चिम बंगाल में, उस कम्युनिस्ट पार्टी को जो बरसों से एक विदेशी सत्ता की नीति को अपनाती रही है. अपने देश में तो कम से कम भाजपा जो अपने को भारतीय दल कहती है, उसके साथ हमें क्यों भेदभाव करना चाहिए?
लोकतंत्र में कोई पार्टी जो मान्यता प्राप्त है, वह यदि बहुमत प्राप्त कर लेती है तो उसे सरकार बनाने का अधिकार है. इतनी सीधी सी बात है. मैंने कौन सी ऐसी बात कह दी है जो आपत्तिजनक है. अगर कांग्रेस सरकार बना सकती है, कम्युनिस्ट पार्टी बना सकती है तो भाजपा क्यों नहीं बना सकती? मेरे सामने कांग्रेस है या कम्युनिस्ट हैं तो मुझे लगता है कि उनकी तुलना में भाजपा ने कोई बुरा काम नहीं किया है.
8.
इधर बहुत से लोग जीवनी या आत्मकथा लिख रहे हैं. डॉ. नामवर सिंह और राजेंद्र यादव के आत्मकथा अंश भी सामने आए हैं. आपके जीवन के बारे में पाठक कब जानेंगे?
मेरा जीवन तो मेरा साहित्य ही है. मुझे नहीं लगता कि मैं अपने बारे में कोई आत्मकथा लिखना चाहूंगा. मैंने आज तक इस बात की जरूरत महसूस नहीं की कि मैं अलग से अपने विगत जीवन के बारे में लिखूं. लेकिन हो सकता है कि मैं कुछ ऐसे लोगों के बारे में लिखूं जिन्होंने मेरे जीवन को बहुत गहरे तक प्रभावित किया, क्योंकि वे लोग मेरी कहानियों में तो नहीं आए हैं. लेकिन इसके बारे मैं मैंने अभी निश्चय नहीं किया है.
9.
आपको अपनी कौन सी कहानी सर्वाधिक प्रिय है और क्यों?
यह कहना तो बहुत मुश्किल है क्योंकि मेरा जो चुनाव है वह बदलता रहता है. पिछले साल जो कहानी अच्छी लगी थी वह इस साल नहीं लगती.
10.
अच्छा, मैं आपकी समस्या थोड़ा दूर करता हूं.
आज अपनी पसंद इन कहानियों के संदर्भ में बताएं:
परिंदे, बीच बहस में और सूखा.
बीच बहस में.
11.
भारत को जिस प्रकार एक खुले बाज़ार के रूप में बदल दिया गया है, उसे देखते हुए क्या आपको लगता है कि हम आर्थिक उपनिवेशवाद के ख़तरे से घिर गए हैं?
इस प्रश्न का तो केवल एक ही उत्तर हो सकता है कि अगर हम स्वतंत्र चेतना के स्तर पर अपने आर्थिक विकास का मार्ग चुन पाएं तो वह सर्वश्रेष्ठ होगा.
भारत में इस प्रकार के विकल्पों का अभाव नहीं रहा है. आखिर गाँधीजी ने यही विकल्प सुझाया था- स्वदेशी और स्वावलंबी.
अगर पश्चिमी विकास का रास्ता हमारे सर्वांगीण विकास में बाधा है तो हम उस सभ्यता के मॉडल को क्यों अपनाएं, यह मुझे समझ में नहीं आता. मेरा मतलब यह प्रश्न केवल आर्थिक विकास का नहीं है. यह पूरी संस्कृति और सभ्यता से सम्बन्ध रखता है.
यदि हमारी सभ्यता के लक्ष्य अलग हैं, मनुष्य के जीवन का उद्देश्य अलग है, विचार के लक्षण अलग हैं तो फिर हमें अलग तरह की आर्थिक नीतियों का भी वरण करना चाहिए.
आखिर दो सौ वर्षों के औपनिवेशिक शासन ने हमारे आर्थिक ढांचे को ही नहीं बदला है, उसने हमारे विश्वविद्यालयों के शिक्षण स्तर को भी बदल डाला है. अगर आजादी के पचास वर्ष बाद भी हम लकीर के फकीर बनकर उसी ढांचे पर चल रहे हैं तो आर्थिक उपनिवेशवाद का खतरा बढ़ेगा ही. इसी ढांचे के अंदर रहकर हम किसी तरह का मौलिक आर्थिक चिंतन कर सकेंगे, इसमें मुझे संदेह है.
12.
साहित्य में मौलिकता पर बहुत जोर दिया जाता है. लेकिन एक लेखक, जो दुनिया भर के लेखकों को पढ़ता और उनसे प्रभावित भी होता रहता है, क्या पूर्णतः मौलिक हो सकता है?
एक लेखक जो मौलिक बनने की कोशिश करता है, वह सबसे ज्यादा ग़ैरमौलिक होता है. एक लेखक बहुत से प्रभावों को ग्रहण करता है. समकालीन और पूर्ववर्ती लेखकों के प्रभाव होते हैं. जिस परिवेश में रहता है उसके प्रभाव तो उस पर पड़ते ही हैं. इन सब प्रभावों के समुच्चय से जो प्रतिभा उसकी कहानियों में प्रकट होती है वह मौलिक भी होती है और ऋणी भी होती है, बहुत सी चीजों के लिए.
लेकिन जो सत्य हम अपनी कहानी में अपने ढंग से कह पाएं, उसकी मौलिकता उस कह पाने में निहित होती है. मौलिकता इस अर्थ में हो ही नहीं सकती कि कोई नई चीज हम कह रहे हैं.
मौलिकता इस अर्थ में होती है कि पुराने सत्य को नए अर्थ में, नए ढंग से नए सत्य के रूप में कहा है कि नहीं?
13.
आप हिंदी के नए पुराने किन रचनाकारों को पसंद करते हैं?
मुझे जैनेंद्र, अज्ञेय, रेणु, भारती, रमेशचंद्र शाह, विनोद कुमार शुक्ल पसंद हैं. नए रचनाकारों में अलका सरावगी अच्छी लगती हैं. शिल्प और शैली की दृष्टि से भी इनके उपन्यास अलग हैं.
14.
बहुत से रचनाकार आप पर हिंदुत्ववादी होने का आरोप लगाते हैं? हिंदूवादी लेखक का आरोप क्यों और किन आशयों से आता है?
असल में जिस तरह का सेकुलरिज्म, जिस तरह की धर्मनिरपेक्षता हमने अपने देश में आरोपित की है, उसका ही दुखद परिणाम है यह कि भारतीय संस्कृति या भारतीय अतीत के बारे में बोलना ही हिंदुत्व मान लिया जाता है. यह समझना चाहिए कि जिस देश में पच्चासी प्रतिशत हिन्दू हों, वहां स्वाभाविक रूप से उस देश की संस्कृति का रंग और उसके संस्कार साहित्य में आयेंगे ही.
जब तक हम भारतीयता की बात करते हैं तब तक सब ठीक रहता है लेकिन जैसे ही हिंदू और हिंदू धर्म की बात करते हैं तो कुछ लोगों को उसमें संप्रदायवाद नजर आने लगता है. हालांकि मुझे दोनों के बीच में किसी तरह का भेद नहीं जान पड़ता और जब हम भारतीय परंपरा की बात करते हैं तो स्वभावतः उसमें जैन और बौद्ध परंपराएं भी आती हैं लेकिन ये विशेष दर्शन की परंपरा हैं जिन्हें मैं अंग्रेज या मुस्लिम सभ्यताओं से अलग करके देखता हूं. क्योंकि उनका धार्मिक दृष्टिकोण इन जैन, बौद्ध और हिंदू धर्म के दृष्टिकोणों से बहुत अलग रहा है. यह ऐतिहासिक तथ्य हैं.
जब मैंने कम्युनिस्ट पार्टी का विरोध करना शुरू किया तो वे भी इस तरह की बातें करते थे.
अपने समाज के प्रति, अपनी परंपरा के प्रति, अपनी संस्कृति के प्रति घृणा का जो रवैया है, उसे मैंने कभी स्वीकार नहीं किया है.
15.
तो क्या अब मार्क्सवाद का कोई भविष्य नहीं है?
विचारधारा का भविष्य: वह तो इस बात पर निर्भर करता है कि उस विचारधारा में समाज में रहने वाले व्यक्तियों के सत्य को पकड़ने की कितनी क्षमता है?
16.
अगर मार्क्सवाद को भारतीय संदर्भों में लागू किया जाता तो क्या फर्क पड़ता?
कैसे करते? क्या करते? आप बताइए. मार्क्सवाद इतिहास को देखने की एक दृष्टि है. जहां तक उसने पूंजीवाद तंत्र का परीक्षण किया है, वैज्ञानिक परीक्षण किया है, वहां तक उसने बहुत कुछ ठीक बातें और सही बातें भी कही हैं. बल्कि मैं तो यहां तक कहूंगा कि मार्क्सवाद की सबसे बड़ी देन उसका यूरोपियन पूंजीवादी व्यवस्था का विवेचन करना है.
लेकिन यह पूंजीवादी व्यवस्था भी हर देश में एक जैसी नहीं है. इसलिए हर देश में जिस तरह का पूंजीवाद विकसित हुआ है, चीन में, भारत में, अरब देशों में- उसके लिए हमें अलग-अलग यंत्र चाहिए उनका आपरेशन करने के लिए. सबको एक ही कसौटी पर नहीं नापा जा सकता.
17.
क्या आपको लगता है कि अगर आप नौकरी कर रहे होते तो इतने बड़े लेखक न होते, जितने हैं?
मैं सोचता हूं कि यह बात सही है. नौकरी करने से जितना समय मुझे नौकरी में देना पड़ता, उतना समय मैं फिर साहित्य पर न लगा पाता. ऐसा नहीं है कि मैं सारा समय लिखता ही रहता हूं, लेकिन जब लेखक न भी लिख रहा होता है तो भी बराबर सोचता रहता है, उन विषयों के बारे में, जो उसे लिखने हैं या पढ़ता रहता है उन चीजों के बारे में जो उसके निकट हैं.
यह जरूरी नहीं कि जो नौकरी नहीं करता वह अनिवार्यतः उत्कृष्ट लेखक बन ही जाए. लेकिन यह संभावना अधिक रहती है उस व्यक्ति के पास जिसने कि सिर्फ लेखन को चुना है. उसके पास अपने को बेहतर लेखक बनाने का अवकाश जरूर उपलब्ध हो जाता है.
वह उस स्थिति का लाभ उठा पाता है या नहीं, यह तो उस पर निर्भर करता है लेकिन जहां तक व्यक्तिगत रूप से मेरी बात है तो इतना तय है कि यदि मैं नौकरी कर रहा होता तो न तो इतनी पुस्तकें लिख पाता, न ही इतनी यात्राएं कर पाता.
18.
जीवन में कुछ ऐसा है जिसे न कर पाने का अफसोस आपको सालता हो?
(लगभग पांच मिनट चुप रह कर)
नहीं. कुछ विशेष नहीं.
19.
अगर आपको किसी अख़बार का संपादक बनने का ऑफर मिलता तो क्या आप उसे स्वीकार कर लेते?
(तत्काल) नहीं. बिल्कुल नहीं.
20.
विभिन्न क्षेत्रों के आपके पसंदीदा व्यक्तित्व कौन-कौन से हैं?
विभिन्न क्षेत्रों यानी थिएटर, सिनेमा, खेल और राजनीति न? इस प्रश्न का उत्तर देना मेरे लिए थोड़ा कठिन है, क्योंकि इन क्षेत्रों के लोगों को लेकर मेरे मन में कोई आदर नहीं है.
21.
क्या आप वोट देते आए हैं? किस राजनीतिक दल को थोड़ा बहुत पसंद कर पाते हैं?
वोट तो हमेशा देता हूं लेकिन किस राजनीतिक दल को वोट देता हूं उसके बारे में आपको नहीं बताऊंगा.
22.
अगर पुनर्जन्म आपके हाथ में हो तो कहां जन्म लेना चाहेंगे और क्या बनना चाहेंगे?
(बिना दुविधा के) यहीं और लेखक.
धीरेन्द्र अस्थाना ‘लोग हाशिए पर’, ‘आदमीखोर’, ‘मुहिम’, ‘विचित्र देश की प्रेमकथा’, ‘जो मारे जाएंगे’, ‘उस रात की गन्ध’, ‘खुल जा सिमसिम’, ‘नींद के बाहर’ जैसे कहानी संग्रहों तथा ‘समय एक शब्द भर नहीं है’, ‘हलाहल’, ‘गुजर क्यों नहीं जाता’, ‘देश निकाला’ जैसे उपन्यासों के लेखक धीरेन्द्र अस्थाना जनसत्ता मुबंई के साप्ताहिक ‘सबरंग’ के कारण भी विख्यात हैं.
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अच्छा इंटरव्यू है पर प्रश्न बेहद सरल हैं । बड़े लेखक से चुनौती भरे प्रश्न करने चाहिए , तब ही उसकी असल प्रतिभा का पता चलता है । असल में इस इंटरव्यू में पत्रिका/अखबार की लोकप्रियता को दृष्टि में ज्यादा रखा गया है , जबकि धीरेंद्र बहुत प्रतिभाशाली हैं ।
इतने दिनों बाद भी निर्मल जी के जवाब हमें वर्तमान धुंध से मुक्ति के सूत्र देते दिखते हैं. उन्हें काफ़ी कम देखा, जितना देखा उससे ज़्यादा पढ़ा. आज भी पुरानी पत्रिकाओं में उनकी छपी चीज़ें ढूँढ़ता-पाता और पढ़ता रहता हूँ, जो उनकी छपी किताबों में नहीं हैं…मोहन राकेश और निर्मल वर्मा को ऐसे लेखक के रूप में पाता हू, जिन्होंने सिर्फ़ लेखन के लिए जिया…दोनों की प्रकृति भिन्न भले हों।।।
प्रश्न ५ में भूमंडलीकरण, डिजिटल मीडिया और पुस्तकों की नियति पर उनकी टिप्पणी सटीक थी।
प्रश्न ६ का उत्तर और अधिक रोचक है; बड़ी त्रासदियों के बरक्स रोज़मर्रा के जीवन के क्लेश और त्रासदियां।
साक्षात्कार का ट्रांसक्रिप्शन अच्छा है; लेखक की चुप्पियां और pauses भी सम्मिलित हैं
धन्यवाद धीरेंद्र जी, अरुण जी।
बहुत बढ़िया। निर्मल जी के विषय में बहुत कुछ पढ़ा, उसी की एक झलक देता वार्तालाप। बहुत ही सीधे और सटीक उत्तर दिए गए हैं, कहीं भी संतुलन का प्रयास नहीं किया गया।अपने साहित्य के समान ही एक निर्मल व्यक्तित्व। संग्रहणीय अंक। बहुत आभार अरुण सर🙏🙏
साझा कर रहा हूँ।
निर्मल जी से दो बार मिलना हुआ। मुझे पढ़ने में वह जितने दिलचस्प अनुभव हुए, मिलने पर नहीं। वह बातचीत में थोड़े जिद्दी दिखे। उनकी भाषा में एक जादू जैसा कुछ होता है, लेकिन कहने केलिए उनके पास बहुत नहीं था। लेकिन वह ईमानदार लेखक थे। अपने जमाने के सबसे जोरदार पाखण्ड से वह टकराते रहे।
यह कीमती साक्षात्कार प्रकाशित करने के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें. निर्मल वर्मा और धीरेन्द्र अस्थाना दोनों ही इस बातचीत को महत्वपूर्ण बनाते हैं. निर्मल वर्मा का लेखन तो हमेशा सुकून देता ही है, उनकी बातचीत भी अवचेतन की गुत्थियों को कुछ इस तरह स्पर्श करती है कि वे खुद ब खुद सुलझती लगने लगती हैं. बेशक साक्षात्कार लेने वाले की खूबी भी इसमें शामिल है. सवाल सरल सहज लगते हैं लेकिन जवाब देने वाले को गहराई में उतरने को प्रेरित करते हैं, बगैर उसे रेखांकित किए. धीरेन्द्र जी के साहित्य की खूबियां अलग हैं, यहां पत्रकारीय कौशल झलक रहा है, पूरी सादगी के साथ.
धीरेंद्र अस्थाना ने बिना झिझक के निर्मल वर्मा से प्रश्न पूछे । मेरी दृष्टि में धीरेंद्र जी ने कल्पना नहीं की होगी कि सरल परंतु प्रभावी ढंग से उत्तर मिलेंगे ।
मुझे आश्चर्य है कि निर्मल वर्मा ने गंभीरता से सपाट जवाब दिये । जैसे सिनेमा, खेल और दो अन्य विधाओं में । निर्मल जी ने स्वीकार किया कि यदि वे नौकरी कर रहे होते तो लेखन को कम समय दे पाते ।
कभी मैंने लिख कर फाड़ने का प्रसंग पढ़ा था । लेखक नहीं लिख रहा होता तो रचना प्रक्रिया के बारे में सोचता है । मैं समझता हूँ कि चुपचाप पंक्तियों को सँवारने में समय बीतता है । पता नहीं दोस्तों को नहीं जमें लेकिन निर्मल वर्मा के उत्तर दैवी लगे । भारतीय जनता पार्टी के बारे में इनकी राय आज के समय की भाजपा को सोचने के लिये मजबूर करती है ।
एक अर्स: बाद गंभीर वार्ता पढ़ी ।
भारतीय संस्कृति के प्रगतिशील मूल्यों के समर्थक साहित्यकारों में निर्मल वर्मा का स्थान अन्यतम है।उनसे पूछे गये प्रश्न और जवाब पठनीय हैं और ऐतिहासिक धरोहर भी।सादर नमन। धीरेन्द्र जी एवं समालोचन को बधाई!
अच्छा लगा। उनकी रचना प्रक्रिया के बारे में जो मैं सोच रहा था, वही उनके मुँह से सुनकर तरह की आश्वस्ती सी हुई.