पंकज सिंह या कि जैसे पवन पानी
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समय और सीलन की मार से विनष्ट हुए असंख्य पत्रों में शेष रह गया एक पत्र. चित्रलिपि जैसे सुंदर और सुडौल अक्षरों में काली स्याही से लिखा हुआ.
नयी दिल्ली प्रिय अशोक, पिछली मुलाकात में कई रातों के निरंतर जागरण और थकान से मैं कुछ ऐसी पस्ती और निंदायी सी दशा में था कि मुझे खुद ही बुरा लगा कि तुम आए और प्रेसों के चक्कर में जरा देर को भी अलग कहीं हमारा बैठना न हो पाया. तब से सोचता रहा कि तुम्हें लिखूं- मगर दिल्ली की जिंदगी की विकट आपाधापी में तमाम अपनों को लिखना टलता रहता है. मैं बहुत कामकाजी किस्म के पत्रों को लिखने का अभ्यास आज तक नहीं कर पाया और इसके विपरीत वैसे पत्र जो आत्मीयता से निकले शब्दों से बनते हैं तब तक नहीं लिखे जाते जब तक मन को अपेक्षित शांति न मिले. पिछले दिनों माँ का एक घबड़ाया सा पत्र आया जिसके जवाब में अपनी कुशलता की सूचना पर एक पोस्टकार्ड पर घसीटकर लिखा और उन्हें पठा दिया, मगर ऐसे करके अपराध बोध सा होता है. बहरहाल, जिंदगी चल रही है. ऐसा कुछ विशिष्ट कभी नहीं घटित होता जो मेरे संदर्भ में कोई खबर बने और दुर्घटनाओं से हर समझदार आदमी की तरह मैं भी बचना चाहता हूं. साहित्य के सार्वजनिक अखाड़ों में नहीं जाता क्योंकि या तो लोग अपनी मूर्खताएं विज्ञापित करते होते हैं या बातचीत के प्रमाद भरे सुख के बाद आखिरी बसों से घर जाकर सो जाते हैं. मेरी अनुपस्थिति में कई लोगों को मेरे बारे में तरह-तरह के प्रवाद फैलाने का अवसर मिलता है जिनकी यात्रा उत्तरी दक्षिणी दिल्ली में चलती रहती है. कई बार ऐसे प्रवाद मुझ तक आते हैं और दुख भरा क्रोध और हिंसा जगाते हैं, मगर मैं एक शमन की निरंतर चेष्टा में जीता हूं, कि यही काफी है कि अब तक मैं दया या गिजगिजी सहानुभूति का पात्र बनने से बचा रहा हूं. किताब (आहटें आसपास) की क्या प्रगति है? अगर तत्काल मेरे करने योग्य कुछ हो तो बताओ. मुखपृष्ठ की छपाई का अंततः क्या तय हुआ? चूंकि सिल्क स्क्रीन प्रिंटिंग का काम बहुत ही धीमा होता है इसलिए अब तक उसे प्रेस में होना चाहिए था. क्या पता, शायद हो ही. इधर मैंने राधाकृष्ण प्रकाशन के लिए एक कहानी संग्रह ‘बहराती घटाएं’, महाश्वेता देवी की पांडुलिपि का संपादन खत्म किया है और एक विदेशी को हिंदी पढ़ा रहा हूं. एलिजाबेथ 19 की सुबह आ रही है. आज ही गोमती में कमरा पाने के लिए भागदौड़ भी करनी है. तुम निकट भविष्य में कभी दिल्ली आ रहे हो? अमितेश्वर तो आते होंगे. उन्हें कहना कि मिलें. स्वप्निल को मेरी शुभकामनाएं और स्नेह देना. बच्चों को प्यार. माँ, पिताजी और भाभी को मेरी नमस्कार देना और छोटी बहन को स्नेह. और?? |
एलिजाबेथ उसके फ्रांस में बिताए दिनों की आत्मीय मित्र रही थी. एलिजाबेथ और उसके साथ आए एक अन्य फ्रांसीसी मित्र के साथ पंकज सिंह हापुड़ आये. स्वप्निल श्रीवास्तव उन दिनों गंगा किनारे बसे गढ़मुक्तेश्वर के मनोरंजन कर अधिकारी का दायित्व संभाले हुए थे. हम सभी ट्रेन से बृजघाट के लिए निकले. गढ़मुक्तेश्वर के पुराने मंदिरों में स्थापित प्रतिमाओं, पौराणिक धरोहरों और स्थानीय बाजार में तरह-तरह की विभिन्न वस्तुओं के बारे में इन फ्रांसीसी मेहमानों की जिज्ञासाओं का समाधान पंकज सिंह एक पारंगत गाइड की तरह उनकी भाषा में कर रहे थे. साहित्य और कला के अलावा इतिहास, समाजविज्ञान, पुरातत्वशास्त्र और अन्य विषयों की भी उसे गहन जानकारी थी.
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कितनी-कितनी
आहटें
कितनी-कितनी आहटें
आसपास
वर्ष 1981 में प्रकाशित अपने पहले कविता-संग्रह ‘आहटें आसपास’ का नाम उसने इसी कविता के आधार पर निर्धारित किया. इस कविता-संग्रह की तैयारी उसने अपने फ्रांस के दिनों में ही कर ली थी. वहाँ रहते हुए उसका आत्मीय संपर्क प्रख्यात कलाकार सैयद हैदर रज़ा से बना और उन्होंने उसके कविता-संग्रह के लिए विशेष रुप से दो आवरण तैयार किए थे. दूसरे आवरण का उपयोग पंकज ने अपने बाद में आने वाले दूसरे कविता-संग्रह ‘जैसे पवन पानी’ के लिए किया.
वर्ष 1979 पंकज सिंह से मेरी पहली मुलाकात गोमती गेस्ट हाउस में हुई. वह हाल में ही फ्रांस से वापस लौटा था और अस्थाई रूप से जे.एन.यू. के मंडी हाउस स्थित गोमती गेस्ट हाउस में रह रहा था.
उस पहली मुलाकात में इस बात का अहसास हो गया कि पंकज अपने आसपास की आहटें सिर्फ सुनता ही नहीं उन्हें पूरे मनोयोग से रेखांकित भी करता है. दूसरी बात यह कि कविता के बाद उसके जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपस्थिति उसके मित्रों की है. उन्हीं से वह जीवन-रस और जीवन-शक्ति ग्रहण करता है. उस वक्त भी गोमती के उस छोटे से कमरे में उसके दो-तीन मित्र जोशीले अंदाज़ में एक दूसरे की टांग खिंचाई करने का उपक्रम कर रहे थे. विजय चौधरी का स्मरण आज भी है.
पहली मुलाकात में उसका आचरण कुछ-कुछ सामने वाले को प्रभावित करने वाला होता, जिसके लिए वह बाहरी उपकरणों और चटपटी वक्रोक्ति भरी उक्तियों का भी सहारा लेता. कंधों पर झूलते बड़े-बड़े केश, घनी दाढ़ी, बलिष्ठ शरीर और अधरों पर बिखरी चौड़ी मुस्कुराहट उसकी इस भूमिका में मददगार होतीं. उसने फ्रांसीसी वाइन में सिझोए अंजीर खिलाए. पाइप में सुगंधित तंबाकू भरकर धूम्रपान किया और कराया. फ्रांस के अपने प्रवास के दिनों में संपर्क में आये युवा कवियों और कलाकारों की बोहेमियन जिन्दगी के किस्से भी मनोयोग से सुनाये.
जिसे वह स्नेह या प्रेम करता उसके प्रति वह अभिभावकत्व से भरा किसी से भी भिड़ंत को तैयार हो जाता. उसके साथ घटी अधिकांश दुर्घटनाओं का संबंध उससे न होकर उसके मित्रों से होता जिनमें वह स्वयं को उलझा लेता.
वर्ष 1980 से 1984 के दौरान पंकज सिंह का हापुड़ आगमन कुछ समय के अंतराल से नियमित होता रहता था. वह प्रायः ट्रेन से आता. आने पर सबसे पहले स्नानघर का रुख लेता. सफर की धूल और थकान दूर कर मुसकुराता हुआ बाहर निकलता. उसके सांवले चौड़े मुंह पर खिली मुस्कुराहट उसका स्थायी भाव था. सबसे अधिक अचरज तब होता जब वह डस्टर से मेज के भीतरी हिस्सों पर जमी गर्द को साफ करना प्रारंभ करता. बाहर से बेतरतीब दिखाई देने वाला यह शख़्स भीतर से कितना अनुशासित और सफाई पसंद है. इसका एहसास उस समय होता. मेज पर रखे कागजों को व्यवस्थित करता और भी ऐसे छोटे-छोटे कार्य जो उसकी सुरुचि का परिचय देते.
मीर, मज़ाज और शमशेर उसके प्रिय कवि थे. मज़ाज की अनेक नज़्में उसे कंठस्थ थीं. मयकशी के दरम्यान वह मज़ाज की लोकप्रिय नज़्म ‘आवारा’ अक्सर ही गुनगुनाया करता—
शहर की रात और मैं नाशाद ओ नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती सड़कों पर आवारा फिरूँ
ग़ैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
कम्पनों से लबरेज़ उसकी सुरीली भारी आवाज उस गोष्ठी में शरीक सभी को अपनी गिरफ्त में ले लेती. शास्त्रीय संगीत और लोक-कलाओं में उसकी रुचियों का दायरा विस्तार लिए था.
लेखक की पहली किताब उसके पहले प्यार की तरह होती है. वह उत्कंठा से भरा उसकी प्रतीक्षा करता है. बाद में छपने वाली दूसरी किताबों के वक्त यह रोमांच धीरे-धीरे कमतर होता चला जाता है. पहले-पहल लिखी गई कविताओं में कवि का आत्म सर्वाधिक निर्दोष कोमल और सघन अनुभूतियों के तंतुजाल से आकार पाता है. बाद की कविताओं में शिल्प का निखार भाषा का परिमार्जन और वैचारिक प्रतिबद्धताएँ ठोस शक्ल अख्तियार करती हैं. उनमें और पहली कविताओं में यह सूक्ष्म अंतर पाठक महसूस कर सकता है. ‘पहाड़ पर लालटेन’, ‘एक दिन बोलेंगे पेड़’, ‘सुनो कारीगर’ और ‘शब्द लिखने के लिए ही यह कागज बना है’ कविता-संग्रहों को इस संदर्भ में देखा जा सकता है.
जिस दिन मैं घर से चला था
सुबह-सुबह
ओस से भीगा एक घोंसला जमीन पर गिरा था
पंकज सिंह के पहले कविता-संग्रह ‘आहटें आसपास’ में भी बारिश में ताजा घास की हरी गंध, गंवार आदमी के अधरों में डबडबाती हुई अजीब सी खुशियां, बच्चों की हंसी, शाम के आसमान में टंगी एक फूटी स्लेट, आंगन में रात भर चमकती एक कुदाल, शीशम के जंगल में नाचते मोर, पीछे छूटी माँ और बेटे श्वेताभ की स्मृतियाँ मकई के कच्चे दानों की सुगंध की तरह दिखाई देती हैं—
वे घर की तलाशी लेते हैं
वे पूछते हैं तुमसे तुम्हारे भगोड़े बेटे का पता ठिकाना
तुम मुसकुराती हो नदियों की चमकती मुस्कान
तुम्हारा चेहरा दिए की एक जिद्दी लौ सा दिखता है
निष्कम्प और शुभदा
दिल्ली आने के प्रारंभिक सालों तक वही कोमल और आत्मीय ग्रामीण संवेदनाएं पंकज सिंह के साथ बनी रहती हैं. ‘आहटें आसपास’ में संकलित वर्ष 1980 तक लिखी गई उसकी कविताएं इसका प्रमाण हैं—
वंदना मिश्रा बुखार में भी दफ्तर जा रही है
क्योंकि उसकी सारी छुट्टियां खत्म हो चुकी हैं
कभी-कभी वह
अपनी माँ और पिता के बारे में
सप्रू हाउस के लान पर बैठी सोचती है
रविवारों को
और आंखें पोंछ कर श्रीराम कला केंद्र चली जाती है
(एक थका सैरा नई दिल्ली)
अपने पहले कविता-संग्रह के प्रकाशन से वह बेहद रोमांचित और प्रफुल्लित था और उसने यह कविता-संग्रह अपने उन दिनों के सभी मित्रों को एक साथ समर्पित किया. उसके मित्र उसकी शिराओं में प्रवाहित होते रक्त की तरह थे. वह कभी आहत होता, कभी दिनों तक पारस्परिक अनबन रहती, लेकिन उनकी अनुपस्थिति का तनाव वह बर्दाश्त न कर पाता.
जे.एन.यू. के नियमों के विरुद्ध जाते हुए वह लंबे अरसे तक गोमती गेस्ट हाउस में ठहरा रहा लेकिन गोमती गेस्ट हाउस से निकलने के बाद उसे कई आवास परिवर्तित करने पड़े. कुछ माह वह भगवती चरण वर्मा के राज्य सभा सांसद के नाते आवंटित उनके फिरोज शाह रोड पर स्थित विशाल बंगले के पीछे बने सर्वेंट क्वार्टर के ऊपर बने एक छोटे कमरे में रहा. इस कमरे तक जाने वाली सीढ़ियां पृथक से बनी थीं. बाद के दिनों में महाराष्ट्र के एक सांसद के नार्थ एवेन्यू स्थित अपार्टमेंट की बरसाती में रहने के लिए चला आया.
पीछे के रास्ते ऊपर की ओर जाने वाली सीढ़ियों की दीवार पर लगे बिजली के मीटर के ऊपर उसकी बरसाती की चाबी रखी रहती थी. मई-जून की दोपहरी में दिल्ली की गर्मी से त्रस्त जब मेरा मन सुस्ताने के लिए करता तो निःसंकोच उस ओर चला आता और उसकी अनुपस्थिति में उसकी उपस्थिति महसूस करता. कभी पंकज से मुलाकात होती तो कभी बिना मुलाकात किये वापस लौट आता. कमरे में चाय बनाने के लिए इलेक्ट्रिक कैटल, एक सुराही और चंद बर्तनों के अलावा जमीन पर बिछी चटाई के ऊपर सिर्फ पत्रिकाओं और किताबों का ढेर होता. अधिसंख्यक किताबें अंग्रेजी भाषा की होती. गैबरियल गार्सिया मार्केज के कहानी-संग्रहों को मैंने उसी समय पढ़ा था.
विशाखापट्टनम से आए कवि जितेंद्र कुमार भी मेरे साथ उसी बरसाती में कुछ दिन ठहरे थे. बरसाती के पीछे का दरवाजा छत की ओर खुलता. रात्रि में हम छत पर अधलेटे देर तक गपशप करने के बाद सोने का उपक्रम करते. पंकज सिंह उन दिनों दिल्ली से बाहर गया हुआ था और बरसाती की चाबी मेरे पास थी. विशाखापट्टनम लौटने वाले दिन की सुबह-सुबह जितेंद्र कुमार यह कहकर कि मैं अभी कुछ देर में आता हूं बाहर निकल लिए. दोपहर में पसीने से लथपथ स्टील का दस लीटर का वाटर फिल्टर दोनों हाथ से उठाए लौटे. वह चांदनी चौक के पास सदर बाजार की ओर निकल गए थे और ऑटो वाले ने उन्हें कुछ दूरी पर उतार दिया था. हंसते हुए सिर्फ इतना कहा- ‘‘पंकज लापरवाह प्राणी है और आसानी से प्रदूषित पानी पीकर अपने को बीमार कर लेगा.’’ एक अराजक और सूफियाने मिजाज वाले कवि को अपने जैसे दूसरे प्राणी की चिंता करते देखना एक दिलचस्प अनुभव था.
त्रिवेणी कला संगम के रेस्तरां में जब कभी उसके साथ बैठना होता तो उसके आसपास अनेक मित्रों का जमावड़ा होता. पंकज के मित्रों का दायरा विस्तार लिए था. रंगमंच, कला जगत और साहित्य के अलावा वामपंथी विचारधारा से जुड़े आंदोलनकारी, जेएनयू के उसके साथी तो थे ही कभी-कभी सक्रिय राजनीति से जुड़ी नामी गिरामी शख्सियतें और पत्रकार भी उसके साथ दिखाई दे जाते. इनमें लेखिका नूर जहीर और चित्रकार अपर्णा कौर का स्मरण विशेष रुप से आ रहा है. रामचंद्र गांधी और कोलकाता से आए अशोक सेकसरिया से मुलाकातें भी वहीं हुई थीं.
अशोक सेकसरिया बंगाली मार्केट के पास अपने किसी मित्र के यहां रुके थे. रामचंद्र गांधी उन्हीं से मिलने आए थे. सुबह घटित हुई घटना के बारे में बताते हुए अशोक सेकसरिया अत्यंत व्यथित और विचलित दिखाई दे रहे थे. वह लाइफबाय साबुन खरीदने रिफ्यूजी मार्केट गए थे. दुकानदार से मात्र इतना कहा कि कहीं वह भूल से अधिक पैसे तो नहीं मांग रहे हैं तो उसने कितने हिंसक तरीके से हाथ से साबुन छीन उनके दिए दस के नोट को उनके ऊपर फेंका था. उस अपमान की खरोंच अभी भी उनकी चेहरे पर दिखाई दे रही थी. बार-बार उनके मुंह से सिर्फ इतना निकलता-
“दिल्ली कितना हिंसक हो गई है.’’
जीविका के लिए वह कभी किसी किताब की पांडुलिपि का संपादन करता तो कुछ समाचारपत्रों और मीडिया संस्थानों के लिए अनुवाद का कार्य भी. उसकी यह भागमभाग देख मुझे आश्चर्य होता कि वह अपने लिखने के लिए समय कब निकाल पाता है.
वर्ष 1984 में लक्ष्मीधर मालवीय अपने छायांकनों की प्रदर्शनी के लिए भारत आए. निर्मल वर्मा, मंगलेश डबराल, प्रयाग शुक्ल आदि अनेक मित्रों से उन्हें मिलवाने और उनके छायांकनों की प्रदर्शनी के लिए आर्ट गैलरी बुक करवाने की भाग-दौड़ में पंकज सिंह निरंतर मेरे साथ लगा रहा.
वापिस जापान लौटने पर लक्ष्मीधर मालवीय का एक पत्र आया जिसमें उन्होंने पंकज सिंह का जिक्र इन शब्दों में किया-
‘‘पिछले दिनों बस स्टॉप पर खड़ा था. एकदम गांव है यह. पीछे धान के खेतों में हवा से हरी लहरें उठ रही थीं. देखकर पंकजजी की कविता अचानक याद आ गई- ‘‘किसान की आंखों में सिहरते धान के खेत….’’ वह लड़ने-भिड़ने में अपनी शक्ति जाया क्यों करते हैं. हर समय अपने को मर्द डिक्लेयर करते रहने की क्या जरूरत. व्यर्थ. छीजन.
(ओसाका 17/8/84)
लक्ष्मीधर मालवीय ने संक्षिप्त शब्दों में पंकज सिंह के व्यक्तित्व का एक सच अन्वेषित कर दिया था.
पद्माशा झा को पहली बार त्रिवेणी कला संगम के रेस्तरां में देखा. पंकज के आग्रह पर मैं वहाँ आया था. संक्षिप्त परिचय के निर्वहन के बाद हम बंगाली मार्केट के एक रेस्त्रां में कॉफी पीते हुए चालीस मिनट के आसपास बैठे होंगे, लेकिन याद नहीं पड़ता कि एक शब्द का भी वार्तालाप उनके बीच हुआ हो. कॉफी समाप्त होने का इंतजार जैसे दोनों कर रहे हों. दोनों ने एक दूसरे से विदा ली. दोनों के वैवाहिक जीवन का समापन पहले ही हो चुका था. कानूनी रूप से विच्छेद की कुछ औपचारिकताएं शेष रह गई थीं. संभवतः इसी बारे में बातचीत करने पद्माशा पटना से दिल्ली आईं थीं. दोनों की राहें और शहर जुदा-जुदा हो चुके थे. दोनों के बीच प्रेम की कोई छाया शेष नहीं रही थी. उनके बीच की नदी सूख गई थी. दोनों के जीवन में नया प्रेम धड़कने और करवटें लेने लगा था.
पद्माशा और पंकज सिंह में सिर्फ कविता लिखने की समानता को छोड़कर कुछ भी समान नहीं था. दोनों की राजनीतिक विचारधाराएं भिन्न-भिन्न थीं. पद्माशा की महत्वाकांक्षाएं उसे सक्रिय राजनीति की ओर ले गईं. वह बिहार विधान परिषद् की सदस्य भी निर्वाचित हुईं. बाद के दिनों में उनका एक कविता-संग्रह और कहानी-संग्रह भी प्रकाशित हुआ. पंकज के उन दिनों का सबसे गहरा और यातनादायी दुःख अपने बेटे श्वेताभ से अलगाव था. कुछ दिन पहले पद्माशा की किताबों के प्रकाशक हरीशचंद्र शर्मा ने बताया कि सालों पहले पटना पुस्तक मेले में जब श्वेताभ की अंग्रेजी में लिखी कविताओं की पहली किताब का लोकार्पण हुआ था तो उस अवसर पर पंकज सिंह उपस्थित थे.
वर्ष 1983 की एक शाम पंकज सिंह का आकस्मिक रूप से हापुड़ आगमन हुआ. विद्यालय की छात्रा जैसी दिखाई देती तन्वंगी, लंबी, संकोच से भरी एक आकर्षक लड़की उसके साथ आई थी. यह सविता सिंह थीं, जो उन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीतिशास्त्र में पीएचडी की पढ़ाई कर रही थीं. कुछ समय तक अनजाने लोगों के बीच अनजानी जगह आने का संकोच तारी रहा जो धीरे-धीरे अगले दिन सुबह तक विलुप्त हो गया.
वर्ष 1982 के सितंबर माह में पंकज सिंह किसी पत्रिका में प्रकाशित उसकी कविताएं पढ़कर, उससे मिलने इंद्रप्रस्थ कॉलेज के कैंपस जा पहुंचा. पहले उसका अनुमान था कि सविता सिंह वहाँ पढ़ाती होंगी लेकिन अपने सामने एम.ए. की छात्रा को देख उसे हैरानी हुई. यहीं से उनके प्रेम संबंध की शुरुआत हुई.
सविता सिंह प्रखर मेधा की प्रतिभाशाली छात्रा थी. उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि राजनीतिक दृष्टि से प्रभावशाली बिहार के उच्चवर्गीय संपन्न परिवार से जुड़ी थी. उसके पिता कुवैत में लंबे समय से रह रहे एक समृद्ध व्यवसायी थे.
ये सविता और पंकज के प्रेम से भरे दिन थे. पंकज उसकी स्मृतियों से घिरा रहता. अपनी बरसाती में दरी पर अधलेटा वह शर्मीले स्वर में बताता- ‘‘कल दोपहरी में सविता उसके पास शाम तक बैठी रही थी.’’
हर प्रेम की तरह ऊहापोह, एक दूसरे को खो देने का भय और भविष्य से जुड़े ढेर सारे संशय भी साथ-साथ दस्तक देते रहते.
सविता सिंह के पिता उसके और पंकज सिंह के पारस्परिक संबंधों से खफा थे. सविता जान गई थी कि उनकी स्वीकृति पाना भारत में रहते संभव नहीं होगा. वर्ष 1986 में सविता कनाडा स्थित मैकगिल विश्वविद्यालय में उच्च अध्ययन के लिए प्रस्थान कर गईं. वर्ष 1987 में बीबीसी हिंदी रेडियो के लंदन दफ्तर में उद्घोषक की नियुक्ति तक के बीच का समय पंकज सिंह के लिए बेहद अवसाद भरा था. पीछे छूट जाने का दुख उसके साथ-साथ बना रहता. बीबीसी ज्वाइन करने के पीछे सबसे बड़ा कारण यही था कि लंदन में रहते हुए वह आसानी से सविता सिंह के संपर्क में बना रहेगा. दिन-रात प्रयास करने के बाद वह अपने मकसद में कामयाब हुआ.
वर्ष 1989 में सविता और पंकज ने लंदन में कोर्ट मैरिज कर ली. साढ़े 4 साल के सविता के शोध व अध्यापन के साथ पंकज सिंह का भी बीबीसी से अनुबंध पूरा हो गया था. वर्ष 1991 में दोनों भारत लौट आए और यहाँ सविता सिंह के पिता की इच्छा के अनुरूप पुनः विधिवत् विवाह किया.
पंकज के भारत वापसी के बाद मेरा उससे संपर्क टूटा सा रहा. अधिकतर मेरे निजी कारण थे. प्रकाशन में अरुचि होने लगी थी और दिल्ली आना-जाना भी कम हो गया था. पंकज के आग्रह पर एक बार मयूर विहार स्थित उसके निवास पर गया. सुरुचिपूर्ण सजाया-संवारा आकर्षक अपार्टमेंट, जैसी उसने कभी कामना की होगी. सविता सिंह कॉलेज पढ़ाने के लिए गई हुई थीं. दो प्यारी छोटी बेटियों के सुख से भरे पंकज ने खुले दिल से मेरा स्वागत किया. भरपूर गपशप के बाद जब चलने लगा तो वह भाव भरे स्वर में बोला—
‘‘अशोक इस घर का एक कोना तुम्हारे लिए हमेशा सुरक्षित रहेगा और जब मन चाहे बिना संकोच चले आना.’’
यह दीगर बात है कि मेरा दूसरी बार वहाँ जाना न हो सका.
9 मई 2008 को आर्ट हेरिटेज गैलरी में हिमा कौल के मूर्ति शिल्पों की प्रदर्शनी हुई. विश्वविख्यात रंगकर्मी, कला संग्राहक और आर्ट हेरिटेज गैलरी के संचालक इब्राहिम अल्काजी ने अपने उद्बोधन भाषण में इस प्रदर्शनी को आर्ट हेरिटेज के 40 साल के इतिहास में सबसे मार्मिक कला प्रदर्शनी के रूप में याद किया था. मुझे और हिमा को बाद में यह जानकर विस्मय हुआ कि हमारी अनुपस्थिति में पंकज सिंह दिल्ली दूरदर्शन के लिए एक वृत्तचित्र बनाने के लिए कुबेर दत्त और उसकी टीम के साथ वहाँ आया था.
हिमा के शिल्पों से सम्बंधित उसने इब्राहिम अल्काजी से एक महत्वपूर्ण वार्तालाप भी किया जो इस वृत्तचित्र का हिस्सा बना. कुबेरदत्त ने इस साक्षात्कार का उपयोग अपने उस आलेख में किया जिसे ज्ञानरंजन ने ‘पहल’ में छापा था. जिन मित्रों को पंकज स्नेह और प्यार करता था उन्हें इस तरह बिना बताए विस्मित करते रहना उसका शगल था.
प्रत्येक लेखक का अपना एक निजी ‘स्पेस’ होता है, जहाँ वह उन अनुभवों, स्मृतियों या प्राणियों को सहेज कर रखता है, जो उसके लेखन का स्रोत होती हैं. पंकज सिंह के इस स्पेस के एक बड़े हिस्से में सिर्फ उसके मित्र दस्तक देते थे. इन्हीं के इर्दगिर्द उसकी अधिकांश कविताएं अपना आकार ग्रहण करतीं. कभी वह इनसे लड़ते-झगड़ते नाराज होता और दिनों तक खुद को आहत करता रहता.
प्रारंभिक दिनों के उसके बहुत से मित्रों का मानना था कि पंकज सिंह की दोस्तियां बदलती रहती हैं और समाज-राजनीति के चमकदार, प्रभावशाली और उपयोगी लोगों से नजदीकी बनाने में उसे महारथ हासिल है. वामपंथी विचारधारा से प्रतिबद्ध उसके अनेक मित्र इसे पंकज सिंह के वैचारिक विचलन के रूप में देखते.
‘पहल-123’ में प्रकाशित पंकज सिंह की स्मृति में लिखी अजय सिंह की कविता ‘पंकज सिंह 1948-2015 मेरा दोस्त था- दोस्त नहीं था’ का एक अंश—
बसंत के बादल की गरज
और शरद के बादल के संगीत के बीच
पुल बनाने का सपना लिए
तुम मिले
तुम्हारी चौड़ी हथेलियाँ चौड़ी मुस्कान चौड़ी आंखें
बेतकल्लुफ दोस्ती के पैगाम से भरी थीं
जिन्हें तुम्हारे ठहाके और जोरदार बना देते
… …तुमने अपनी जिंदगी की नोटबुक के पहले पन्ने से
मेरा नाम काट दिया था
कुछ और पुराने दोस्तों के भी नाम
काट दिए गए थे
अब इनकी दरकार तुम्हें नहीं रह गई थी
अब तुम्हारे नए दोस्त बन रहे थे
अजब-गजब किस्म के लोग
स्वतंत्र विचरणवादी
जो ताल ठोक कर कहते
मैं कहीं भी रहूं—चाहे प्रधानमंत्री निवास में
या लेफ्टिनेंट गवर्नर के महल में या अकबर रोड के बंगले में
दिल तो मेरा वामपंथ के साथ हइए है
अजय सिंह की इस कविता को इस संदर्भ में भी देखने की जरूरत है कि पंकज सिंह ने अपने पहले संग्रह ‘आहटें आसपास’ को जिन अभिन्न मित्रों को समर्पित किया था उनमें अजय सिंह भी एक थे. अजय सिंह की यह कविता बहुत आत्मीय और मार्मिक ढंग से उस व्यक्ति को संबोधित है जिसे वह बहुत अधिक प्यार करते थे.
पंकज सिंह भी अपने मित्रों के साथ आ रही इस दूरी से अनभिज्ञ नहीं था. वह उनसे पुरानी दिनों की तरह आत्मीय संवाद स्थापित नहीं कर पा रहा. इसका असर उसके जीवन और कविताओं पर भी पड़ रहा था. ऐसी मनःस्थिति मे लिखी गई उसकी कविता ‘कुछ नहीं छिपाऊंगा’ को देखा जा सकता है—
मैं कुछ नहीं छिपाऊंगा
बड़ी चीज है साफ ज़िन्दगी बड़ी चीज है
साफ़गोई
आतंकी आंखों में आंख डाल सादगी से कहना अपनी बातमैं कुछ नहीं छिपाऊंगा
प्यार करता हूं करता रहूंगा भरपूर
अपने साथियों से जो हर चीज का अर्थ
बन उपस्थित रहे हैं
बरसों से मेरे बेतरतीब सफर में
पंकज से मेरा संपर्क धीरे-धीरे कम होता गया. सिर्फ फोन पर सूचनाओं का आदान-प्रदान होता. उसी से पता चलता कि वह डिस्कवरी चैनल के लिए तो कभी आगरा के किसी बड़े बिल्डर के अखबार में प्रधान संपादक के बतौर काम कर रहा है. उसी से जानकारी मिली कि वह ऐसे रोग से ग्रस्त हो गया है जो लाखों में किसी एक को होता है. कई बार के वार्तालाप के बाद मैं ‘हिमोफीलिया’ नाम याद रख पाया. ऐसा रोग जिसमें यदि किसी दुर्घटनावश शरीर से रक्तस्राव प्रारंभ हो जाए तो उसका रुकना लगभग नामुमकिन है. भय की यह अदृश्य परछाई उसके साथ बनी रहती. जीवन में कम से कम छह-सात बार मृत्यु की इस परछाईं को चकमा देने के बावजूद आखिरकार 26 दिसंबर 2015 के दिन इसकी खौफ़नाक गिरफ्त से अपने को न बचा सका.
मार्च 2015 में सबसे पहले विजय मोहन सिंह ने अपने मित्रों से विदाई ली. सितंबर में वीरेन डंगवाल और दिसंबर में पंकज सिंह के अलविदा कहने के कुछ माह बाद नीलाभ भी उनके साथ जा मिले. पिछले साल 2020 में मंगलेश डबराल भी अपने इन दोस्तों की संगत करने जा पहुंचे. जीवन शैली और लेखन में भिन्न-भिन्न शख्सियतें होने के बावजूद सिर्फ मित्रता ऐसा सूत्र था जिसने इन सभी को एक साथ जोड़कर रखा था. पंकज सिंह ने अपने-अपने पहले कविता-संग्रह ‘आहटें आसपास’ जिन मित्रों को समर्पित किया था- उनमें ये चार मित्र भी थे.
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चंद पंक्तियां और
इस स्मृति आलेख के लिखने के दौरान सविता सिंह से फोन पर वार्तालाप के दरमियान पता चला कि वह पंकज सिंह की अप्रकाशित कविताओं, डायरियों और अन्य विधाओं में लिखी गई उस विपुल सामग्री को संग्रहित कर रही है जो छह खंडों में समेटी जा सकेंगी. एक लेखक अपने जीवन काल में जितना प्रकाशित होता है उससे कई गुना अधिक अपने पीछे छोड़ जाता है. पंकज सिंह के बारे में ऐसा सोचना अकल्पनीय था.
सविता सिंह के शीघ्र प्रकाश्य कविता-संग्रह ‘खोई चीजों का शोक’ की कविताएं पढ़ना एक नए अनुभव से गुजरना है. जीवन सहचर के विछोह के बाद लिखी गई आंतरिक संवेदना और मार्मिक ध्वनियों से गुम्फित इन कविताओं का स्वर हिन्दी कविता में विरल है. विष्णु नागर ने इनके बारे में सही लिखा है—
‘‘पंकज के अंतर जगत का सच्चा साक्ष्य कहीं देखना हो तो इन कविताओं को पढ़ा ही जाना चाहिए.’’
‘खोई चीजों का शोक’ कविता का एक अंश—
वैसे जाने का एक सलीका भी होना चाहिए
यह मेरा अनुबंध था मृत्यु से
जाना शानदार होना चाहिए
अच्छे कपड़ों में अपने बिस्तर में किताबों के बीच
चाय पीते हुए अबीर गुलाल से खेलती हुई अप्सराओं की सोहबत मेंठीक से जाने का अनुबंध था मेरा
वैसे ही गया भी
सोचता हुआ देश और बच्चों के भविष्य के बारे में
छोड़कर जाना चाहता था अपना थोड़ा रक्त
वही था मेरे पास साहस सरीखा
उससे भी लड़ी जा सकेगी आगे की लड़ाई
हमारी बेटियां लड़ेंगी
गैर बराबरी और क्रूरताओं से
मुझे यकीन है जैसे है तुम पर भी
वरिष्ठ कथाकार अशोक अग्रवाल की सम्पूर्ण कहानियों का संग्रह ‘आधी सदी का कोरस’ तथा ‘किसी वक्त किसी जगह’ शीर्षक से यात्रा वृतांत ‘संभावना प्रकाशन’ हापुड़ से प्रकाशित है. मोब.-८२६५८७४१८6 |
मार्मिक संस्मरण ।
अद्भुत संस्मरण! पंकज को जानता था, पर पहली बार इस तरह जाना।…इतने करीब से जाना।
आभार भाई अशोक जी, समालोचन और अरुण भाई का।
सस्नेह,
प्रकाश मनु
अशोक जी की कलम से लिखा यह नया संस्मरण ‘पंकज सिंह या कि जैसे पवन और पानी’ पढ़ा। मज़बूत काठी के मर्दाने शरीर की बेहद कोमल भावनाओं और कवि के अंतर्मन की आहटों को सुन कर उन्होंने यह सशक्त स्मृति चित्र रचा है। मेरी सिर्फ आधे दिन और देर शाम की मुलाक़ात थी पंकज से लखनऊ में। एक सुबह वे मंगलेश जी, वीरेन, नीलाभ और मोहन थपलियाल जी के साथ मेरे घर पर आए थे और चाय-नाश्ते के बाद शाम को डालीगंज में कवि राजेश शर्मा के घर पर मिलने की बात करके लौट गए थे। राजेश जी के घर पर हम मिले जहां साथी वीरेन्द्र यादव और कवि लीलाधर जगूड़ी भी मौज़ूद थे। वह गीत,संगीत और मयक़शी की शाम थी जिसके सुरो-सुरूर में रवीन्द्र कालिया के अचानक आगमन से खलल पड़ा था। उस पहली मुलाक़ात में अशोक जी की तरह मुझे भी लगा था, जैसे पंकज प्रभावित करने की कोशिश करता था और कहीं-न-कहीं लक्ष्मीधर मालवीय जी की बात भी ठीक लगती है कि ‘हर समय अपने को मर्द साबित करने की क्या जरूरत।’ लेकिन,यह भी सच है कि वह उसका प्रकृति-रचित शरीर था जिसका अंदरूनी हिस्सा बेहद कोमल भावनाओं और संवेदनों के अदृश्य तारों से बुना हुआ था। मित्रों से इतना लगाव तभी रखा जा सकता है और तभी जीवन की मौन आहटों को सुन कर हृदयस्पर्शी कविताएं रची जा सकती हैं।
पंकज सिंह से अनेक मुलाकातें हैं ,उनके मर्दाने शरीर के बीच एक सम्वेदनशील व्यक्ति छिपा हुआ है ,यह बात बहुत कम लोग जानते है । अपने बेटे श्वेताभ की याद करते हुए वे विह्वल हो उठते थे ।
अशोक भाई ने उनके जीवन और कविता के कई तथ्यों से परिचय कराया है । अच्छे लोगों को इस तरह दुनिया से नही विदा होना चाहिए ,इससे उनके चाहनेवालों की तकलीफ बढ़ जाती है । मार्मिक संस्मरण
बहुत आत्मीय और तलस्पर्शी। पंकज जी को बिल्कुल सही-सही पकड़ने वाला। बाद के वर्षों में पंकज जी की आत्मीयता मुझे भी हासिल हुई थी
अशोक जी से पंकज जी के बारे में अनेक बार जाना, सुना। इस लेख के माध्यम से उन्हें और भी अधिक गहराई से समझ सका। शुक्रिया अशोक जी।
अशोक जी का पंकज सिंह पर लिखा यह बहुत दिल से लिखा गया संस्मरण वाकई दिल छू लेता है।पंकज जी की कविताएं ओर उनके बारे में अन्यत्र भी छूट पुट पढ़कर उनके बारे में कुछ ज्यादा जानना भी चाहता था।अशोक जी ने इस आलेख में उनके बारे में, व्यक्तित्व के सथ ही कृतित्व पर भी अच्छा लिखा है।सादर स्मरण
अविस्मरणीय संस्मरण, पंकज सिंह के जीवन के अनेक अछूते प्रसंगों को आत्मीय स्पर्श से दीप्त करता।किसी कवि के अतीत से रू-ब-रू होना, उसकी जीवन-यात्रा के महत्वपूर्ण पड़ावों और मोड़ को जानना एक विरल अनुभव है।
इस बेहद मार्मिक संस्मरण लेखन के लिए अशोक अग्रवाल जी को साधुवाद।
मुजफ्फरपुर के पढ़ने-लिखने वालों के बीच पंकज सिंह को लेकर कई सच्चे-झूठे किस्से प्रचलित थे।
उनकी छवि एक औसत पढ़े-लिखे आक्रामक व्यक्ति की थी जो किसी बात पर नाराज़ होकर अपने साथ उठने बैठने वाले की शारीरिक समीक्षा करने से नहीं हिचकता था।
मुजफ्फरपुर जैसे छोटे शहर में उन दिनों पद्माशा झा और पंकज सिंह के रिश्ते भी विवादास्पद माने जाते थे।
एक शाम पुरानी बाज़ार चौक पर कवि राजेन्द्र प्रसाद सिंह और जितेंद्र जीवन की मौजूदगी में वे अचानक प्रकट हुए और देर रात तक हम सब बैठे बातें करते रहे।
उनके पास लेखकों के आस पास की आहटों के किस्से हज़ार थे।यह अलग बात है कि वे खुद कई किस्सों के नायक थे।
हमेशा की तरह अच्छा संस्मरण।ये उस दौर के संस्मरण हैं,जब मैं उन्हें निकट से नहीं जानता था।तब भी वह मुझ पर इतना अधिकार समझते थे कि मेरा पहला कविता संग्रह अधिकारपूर्वक ले लिया। पंकज का जाना इतना आकस्मिक था कि मैं हतप्रभ रह गया।संयोग से मैं उस समय दिल्ली में नहीं था।उनकी छवि अंतिम समय में देख नहीं पाया।पंकज के पास स्मृतियाँ का बहुत बड़ा खजाना था,जिसमें साहित्य और उसके बाहर के अनेक लोग थे।उनसे गद्य लिखवाना लगभग असंभव था।पता नहीं सविता जी को उनकी डायरियों में कितना यह सब मिला होगा।
बड़ी आत्मीयता और सघनता से लिखा संस्मरण है यह। अभी पढ़ते हुए सोचने लगी कि क्या अब ऐसा वक्त बचा है कि लोग एक दूसरे को याद रख सकें या उनपर कुछ लिख सकें ?🤔 डिजिटल तकनीक के इस समय में भी अब सब कुछ फौरी और अल्पजीवी हो चुका है, मानवीय संबंधों से ऊष्मा खत्म हो रही है, चिट्ठियों का दौर तो शायद अब लुप्तप्राय ही है, ऐसे कठिन समय में इस संस्मरण को पढ़ना उस समय में ले गया जहां एक चर्चित महत्वपूर्ण कवि अपने जीवन संघर्ष के बीच कविताएं लिख रहा था और प्यार कर रहा था। Savita Singh ji की आने वाली किताब की प्रतीक्षा है। समालोचन और अशोक जी को बधाई इस सुंदर संस्मरण को साझा करने के लिए।
बहुत ही प्रभावशाली संस्मरण
बेहद आत्मीय, तरल और स्पर्शी संस्मरण। पंकज भैया का स्नेह मुझे भी मिला था। यह संस्मरण उन्हें लगभग उसी रूप में मूर्त करता है जैसा मैंने उन्हें पाया था।
आपके संस्मरणों को पढना यानी अनोखी अनुभूतियों से गुजरने जैसा है , अद्भुत व मर्मस्पर्शी।
Adbhut badhai
अशोक जी का लेखन अद्भुत है पाठक पढ़ते-पढ़ते कब उनके साथ हो लेता है पता ही नहीं चलता। मैंने पंकज सिंह को देखा है और सविता सिंह को सुना है पर पढ़ने के बाद ऐसा लग रहा है कि मेरे परिचय का दायरा और बढ़ गया है। खूबसूरत लेखन के लिए अशोक जी को बहुत-बहुत बधाई।
Simply Awesome ! Ashokbhai is extraordinarily different as a writer and inherits many different experiences about people, places and things, however he knows the Art of making mortals, Immortal through his unique style of presentation his narrative in his desired literary version and putting camaflogged character before the reader to understand every cover leaf serially to himself acquaint and discover the life in write-up.His memoir about Pankaj Singh is mesmerising and as impressive as Pankaj was.
बहुत मन के करीब संस्मरण, प्रेम जीवन का रुख मोड़ देता है….जो नहीं जानती थी उसे पढ़कर जाना।
शायद यह सबसे कमजोर और झूठा संस्मरण है. अगर मैं न janata तो क्या जानता कि बात किस के बारे में हैं?
अपने को पीछे रखते हुए संस्मरण कैसे लिखा जा सकता है इसकी मिसाल है यह
कितने अनजान पक्ष उनकी कविता और व्यक्तित्व के कितने लगाव से उदघाटित किये हैं अशोक जी ने
और बीच बीच में कविताओं पर टिप्पणी
प्रथम काव्य संग्रह पर जो लिखा है अद्वितीय है
मुझे कब से प्रतीक्षा थी आपके इस संस्मरण की। आपने एक काल- यात्रा करा दी। एनएसडी के उनके मित्र ब्रजमोहन व्यास के पास आहटें आसपास संकलन था, जो पंकज जी द्वारा उन्हें दिया गया था। व्यास ने वह मेरी कविताओं में रुचि देखकर दे दिया। तब से वे कविताएँ मेरे साथ रही हैं और उनके बारे में मेरी रुचि बढती गयी है। ऐसे कम रचनाकार हैं जो अपने सृजन में ऐसे व्यक्त होते हैं। आपने कितना सही चीन्हा है। उनकी सविता जी और बेटियों को संबोधित कविताएँ कितनी पारदर्शी हैं। यह बहुत मूल्यवान संस्मरण है, जैसी कि उम्मीद थी।
जीवन यात्रा का दुर्लभ आत्मीयत से लबरेज संस्मरण। इसमे पंकज सिंह की विशिष्टता सामने आ पाती है। अंत मे सविता सिंह की कविता ने तो इस संस्मरण को काव्यत्मक उत्कर्ष पर पहुँचा दिया। इतने विशिष्ट जीवन को विशिष्टता से लिखा ही जाना चाहिए ।
यह संस्मरण-भर नहीं है। किसी साहित्यकार अथवा समाज की किसी भी प्रतिभा का यथासंभव सम्यक परिचय संबंधित समाज या समुदाय की धाती होता है। अशोक अग्रवाल जी ने कौशलपूर्वक ऐसी धरोहरों का समुच्चय सहेज रखा है जिसे वे एक-एक करके अपने साहित्यिक समाज को सौंप रहे हैं।
पंकजसिंह जी पर उनकी लिखत की बात करें तो एक स्मृतिशेष आत्मीय साहित्यिक के व्यक्तित्व का अनूठापन अशोक जी ने इतनी पारदर्शिता और गहरी संवेदनशीलता से दर्शाया है कि संस्मरणकार की दक्षता का एक अलग ही स्तर दिखता है। अपने वर्णन में वे स्पष्ट उपस्थित हों या नेपथ्य में हों, स्वयं को आलंकारिक या निर्णायक वक्ता नहीं होने देते, यह उनकी उपलब्धि है। ऐसी अर्जित वस्तुनिष्ठता सहज सुलभ नहीं होती। लक्षित व्यक्तित्व को भरसक समग्र रूप से प्रस्तुत करने के लिए वे जिस तरह से घटना-क्रम का चयन और अन्य साक्ष्यों का संचयन सामने लाते हैं उससे उनकी मेधा ही नहीं बल्कि प्रज्ञा का भी परिचय मिलता है। मेरी आत्मिक शुभकामनाएँ हैं कि वे ऐसी अमूल्य रचनात्मकता की निधि से हिन्दी साहित्य को अधिक संम्पन्न करते रहें !
पंकज भैया मेरे लिए एक हीरो की तरह रहे हैं, हमदोनों एक ही शहर के हैं. जब मैं अगस्त 1997 के बाद दिल्ली रहने लगा तो उनसे मिलना होता रहा. मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ कि मेरी दो छोटी-छोटी समीक्षायें इंडिया टुडे के अंकों में उनकी समीक्षा के साथ छपी. जिस दिन वे नहीं रहे मैं इलाहाबाद में था और भाभी बनारस में. निगमबोध घाट पर उनके अंतिम संस्कार में शामिल था….अशोक वाजपेयी से लेकर अभय कुमार दुबे तक भरे मन के साथ उपस्थित थे. दोआबा पत्रिका के लिए उनसे कवितायें लीं, उनके हैंडराइटिंग में लिखी कविताओं की मूल प्रति अब भी मेरे पास है…अशोक अग्रवाल जी का यह संस्मरण पंकज भैया जैसे ज़हीन व्यक्ति का स्वस्थ्र आकलन जैसा है…
उनकी कविताओं के तीनों संग्रह मेरे पास है, वे मेरे प्रिय कवि रहे हैं…आईआईसी…जाने पर अब भी जाने पर लगता है पंकज भैया कहीं से आयेंगे और कहेंगे कहो मनोज…
ख़ैर! यह सब नहीं होना है…पंकज भैया स्मृति मे हैं…
पंकज सिंह को मैं भी बहुत निकट से जानता था। वे दो बार सविता के साथ मेरे पास मास्को भी आए थे। कभी मैं भी उन पर लिखूँगा। यह सच है कि उनका ’मर्दवाद’ उन पर हॉवी रहता था। मेरे संस्मरण कुछ बिल्कुल ही दूसरी किस्म के हैं। अभी तक नहीं लिखा था। अब लिखूँगा। बाक़ी आपका संस्मरण एकदम असली लगता है। असली पंकज सिंह को पेश करता है।
अशोक जी अग्रवाल ने पंकज सिंह जी को याद किया है । याद करने के तरीक़े से मालूम हो रहा है कि वे एक-दूसरे के क़रीब रहे । माँ, परमात्मा और दोस्त को तू से सम्बोधित किया जाता है । प्रोफ़ेसर अरुण जी, यह अंक पंकज सिंह पर केंद्रित है । इसलिए मैं पहली बार लिख रहा हूँ । मेरे दादा जी, पिता जी (लाल जी) और चाचा जी पश्चिमी पंजाब, अब पाकिस्तान, के मुल्तान ज़िले से आये थे । 1990 तक मुफ़लिसी भरी ज़िंदगी जी थी । इसलिए मुझ में भी थोड़ा-थोड़ा communism है । मैं ग़रीबों की ज़िंदगी देखकर व्यथित होता हूँ । तकलीफ़ होती है, आँसू निकलते हैं । कम्युनिस्ट नास्तिक होते हैं । मैं परमात्मा के अस्तित्व पर विश्वास करता हूँ ।
पंकज सिंह ने अशोक जी को लिखे पत्र के पहले पहरे को पढ़कर महसूस होता है कि पंकज सिंह भावुक व्यक्ति थे । मुझे मालूम है कि उनका पहली पत्नी से सम्बन्ध विच्छेद हो गया था । कुछ वर्षों पहले सुमन केशरी तथा दूसरी पत्नी सविता सिंह हिसार में आये थे । विपिन चौधरी और मैं भी वहाँ के कार्यक्रम में श्रोता थे । सुमन केशरी का हिन्दी भाषा का उच्चारण ग़ज़ब का है । सविता सिंह ने अपनी कविता पढ़ने से पहले भूमिका में कहा था,”मेरी कम्युनिस्ट विचारधारा है” । उच्चारण अच्छा नहीं था । उनमें श्रेष्ठ ग्रंथी भी है ।
फ़्रांस की एलिज़ाबेथ उनके एक दोस्त और पंकज सिंह का हापुड़ में जाने वाला प्रसंग दिलचस्प है । इतिहास, विज्ञान और पुरातत्व में पंकज जी की योग्यता का मैं क़ायल हूँ । फ़ोन से मैंने उनसे दो बार बात की थी । वे आत्मीय थे । पंकज सिंह ने मुझे कहा था कि दिल्ली आओ तो मिलना । जैसे पवन पानी संग्रह की कविताओं के अंश मैंने फ़ेसबुक पर साझा किये थे । एक बार मैंने सराबोर शब्द को सरोबार लिख दिया । उन्होंने तुरंत मेरी ग़लती की तरफ़ इशारा किया था ।
‘ जैसे पवन पानी ‘ पर मैंने उनके ऑटोग्राफ़ दिल्ली में विश्व पुस्तक मेले में लिये थे । इसके पीछे की घटना लिख रहा हूँ । इस कविता संग्रह की एक कविता “प्रेम ही करेगा इस पृथ्वी को इतना नि:शंक कि जा सके जीवन अपने पैरों भविष्य की ओर” नवभारत टाइम्स में छपी थी । मुझे याद थी । ऊपर लिखी पंक्तियों को दिवाली के उत्सव पर छपवाकर मित्रों को बधाई भेजी थी । राजकमल प्रकाशन के स्टाल पर मैं गया । बिक्री के काउंटर पर बैठे हुए कर्मचारी से मैंने पूछा कि क्या पंकज सिंह जी यहाँ आये हुए हैं ? उन सज्जन ने हाँ कहा । इससे पूर्व मैं ‘ जैसे पवन पानी ‘ ख़रीद चुका था । पंकज जी रचनाकारों के लिए बनाये गये स्थान से बाहर आये । मैंने उन्हें उपर्युक्त पंक्तियाँ सुनाईं । सुनते हूँ पंकज जी ने मुझे गले लगा लिया और ऑटोग्राफ़ कर दिये ।
पंकज जी भावुक और आत्मीय इन्सान थे । परमात्मा ने उन्हें जल्दी अपने पास बुला लिया । सामान्य रूप से कहा जाता है कि प्रभु को भी अच्छे व्यक्तियों की ज़रूरत होती है ।
रोचक और भावपूर्ण संस्मरण!
अपने शोधकार्य के क्रम में मैंने उनकी तीन पुस्तकें – आहटें आसपास, जैसे पवन पानी; नहीं – खरीदी थीं और इसी संदर्भ में उनसे बातचीत भी हुई थी,पर उनसे मिल न सका और वे चले गये!
कवि को जाने बिना उसकी कविता को ठीक से नहीं जाना जा सकता ..