रूपम मिश्र की कविताएँ |
1.
लोकतांत्रिक छूना
बुखार से देह इतनी निढाल है कि मौत से पहले ही माटी की लगने लगी हूँ
घर से दूर हूँ तो घर की ज़्यादा लगने लगी हूँ
कदमों में चलने की ताक़त नहीं
पर दोस्त से झूठ कहती हूँ कि आराम है
घर जाने के लिए बस की एक सुरक्षित सीट पर पसर जाती हूँ
खिड़की के पास की सीट अपनी लगती है
क्योंकि उसके बाद कोई कहाँ धकेलेगा
बस चली नहीं है और एक सज्जन बगल की सीट पर आ गये हैं
कुछ नये रंगरुट से हैं पूछते हैं कहाँ पढ़ाती हो
तकलीफ़ इतनी है कि होंठ खुलना ही नहीं चाहते लेकिन जवाब तो देना था
कहा कहीं नहीं!
सिर को आगे की सीट पर टिका दिया है जिसपर टेरीकॉट कुर्ता पहने एक अधेड़ और उदास आदमी बैठा है जिसकी धुंवासी उंगलियों पर खड्डे ही खड्डे हैं
वह मुझे चिर-परिचित सा लग रहा है
बाबतपुर हवाई अड्डे पर एक जहाज़ अभी उड़ान पर थी
बगल में बैठे साहब मुझे खिड़की से जहाज़ दिखाने लगे देखो अब उड़ेगी !!
पल भर को लगा
जैसे कोई चीन्हार बच्ची को जादुई दुनिया दिखा रहा हो
पितृ स्नेह को अहका मेरा मन सिर न उठाने की मंशा को त्याग कर उनका मन रखने को जहाज़ देखने लगा
देह और मन दोनों इतने विक्लांत थे कि बार-बार देह का दाहिना हिस्सा किसी छुअन से खीजता
पर भ्रम समझ फिर निढाल हो जाता
लेकिन अंततः देह ने कहा ये भ्रम नहीं है एक धृष्टता है
लेकिन विरोध का चेत न मन में है न देह में
अंततः एक लोकतांत्रिक भाषा में धीरे से मैंने कहा
भाई साहब आप मुझे न छूइये ! देखिए मैंने अबतक एकबार भी आपको नहीं छूआ.
2.
हमारे नाम
वे ख़ुद को लोरी गाकर सुलाती थीं
और ख़ुद ही प्रभाती गाकर जग जातीं थीं
वे जाने कब जन्मी थीं और कब ब्याही थीं तिथियां नहीं जानतीं
कभी जरूरत भी न पड़ी
लेकिन उस दिन बैंक पर मुझे मिल गयीं
अपना पासबुक लेकर
नाम बुलाया गया उठीं ही नहीं
दो बार-तीन बार
अबकी कैशियर ने खीजकर नाम लिया
रामरती- पत्नी हीरालाल
पति का नाम सुनकर उन्हें लगा उनको बुलाया गया
पर अपने नाम को लेकर वह आश्वस्त न थीं
बैंक वाले बार बार डाँट रहे थे
आपका यही नाम है न?
संशय से परेशान होकर कहतीं सौ बिस्सा यही तो है
वहीं बेंच पर माथे पर पल्ला डाले मैं भी बैठी थी
मैं जो उनकी जाति की हूँ
मैं जो नाम के इतिहास को कुछ-कुछ जानती हूँ वह पासबुक लेकर मेरे पास आ गयीं हैं
बहुत संकोच से कह रही हैं दुलहिन इसमें मेरा नाम लिखा है क्या
मैंने कहा बताइये अम्मा आपका नाम क्या है!
उन्होंने दो-तीन नाम लिये सोचते हुए कि
इसमें से ही कोई एक नाम मेरा है
बाकी मेरी बहनों के नाम हैं
वे इतनी सहजता से अपने ही नाम की पड़ताल कर रही थीं कि करुणा आवेग बनकर मेरे कंठ में रुक गयी
अपने अस्तित्व को लेकर इतनी उदासीनता क्या जन्मजात है यहाँ
या सामाजिक संरचना की बलिहारी है
मैंने कहा याद कीजिए ठीक-ठीक आपका क्या नाम है
वह असहाय सी फिर वही बात दुहरातीं कभी मेरी ओर कभी बैंक वालों को ओर देखतीं
सई,गोमती, वरुणा, वसुही नदियों के कछार की बलुअरा माटी क्या मैयभा होती है
हमारे गांवों को अँकवार देकर बहती नदियों क्या तुम भी भूल जाती हो हमारे नाम.
3.
तुम्हारी तारीफ़ सुनते ही
तुम्हारी तारीफ़ सुनते हुए हमेशा ऐसे लगा जैसे तुम मुझसे निःसृत हो,
मुझसे बने हो, या संसार में मेरी एक अप्रतिम खोज हो तुम
या ये भी कि एक केवल मैं ही जानती हूँ तुम्हारी सारी सतहें
तुम्हारी भूख-प्यास
अंतहीन यात्राएँ और दिया-बाती की तरह तुमसे लिपटी तुम्हारी पीड़ाएं
लेकिन इस सच को कहाँ लेकर जाऊँ कि
प्रेम में हम बहुत कुछ वह चाहने लगते हैं जो हमारा नहीं है
उस दूसरे मनुष्य का है जिससे हम प्रेम करते हैं
और तुम तो जानते ये प्रेम-वेम मनुष्य से बड़ा नहीं होता
और आज जब तुम खो गये हो मुझसे
तो दुःख और बेचैनी का आलम ये है कि लगता है कि गाँव में मनमारे हुए शोक की साँझ उतरी है
वीराना अंधेरा घना हो रहा है और दूर कहीं कोई स्त्री रो रही हो क्योंकि उसका नन्हा सा बच्चा कहीं खो गया है.
4.
अभी तुमसे बहुत कुछ सीखना था मुझे
अभी तुमसे बहुत कुछ सीखना था मुझे
शायद प्रेम करना भी
कुछ दूर तक तो तुम्हारे साथ चलना ही था
पर तुमने बस पहला सबक बताकर
झटके से उँगली छुड़ा ली
अपने प्रथम प्रेम की अनगढ़ स्मृति से जब तुम्हारी उदास आँखों में शर्म भरी मुस्कुराहट ढरकती तो धरती पर एक अजोर उगता था
वो अँधेरे से लड़ने की बेहिसाब रसद होती थी
एक निस्पृह अनुराग से चेहरे पर जो गहरी हरीतिमा उतरती थी
उससे का दुनिया एक हिस्सा तो हरा हो ही सकता था
मुझे जानने थे मेरी जान उन दिनों के रंग कितने चटख़ थे
जहाँ पीड़ा का इतिहास था पर तुम्हें हँसा देने की कूवत भी वहीं थी
तुम्हारे सारे अनुभवों से अपना पहला प्रेम समृद्ध करना था मुझे
तुमसे जानना था प्रेम की मूलभूत जरूरतों को
जिनके बिना एक दिन प्रेम मर जाता है!
तुमसे सीखना था असंग प्रेम में हँसकर विष पीना
नहीं तो प्रेम ही विष बन जाता है
अब ये है कि तुम जाने कहाँ हो तो मैंने अपने शिकायती पत्रों को फाड़ दिया और तुम्हें ढूंढती हूँ
तुमसे मिलकर बताना था कि तुमने मुझे बचा लिया मेरे मन की सबसे बड़ी त्रासदी से
मैं तो सोचकर कांप जाती हूँ
उस पल को जब तुम्हारे लिए मेरा प्रेम नष्ट हो जाता
शायद तब जीने का मोह भी खत्म हो जाता
तुमने एक शाश्वत प्रेम को
कालांतर के कुरूप से बचा लिया
जहाँ लड़ाई की बहसें दो आत्माओं के एकांत में उलझ जातीं
जहाँ पीड़ा की चुप्पियां शोक की रुलाई के लिए तरस जातीं
पर, पल भर तुम्हें और रुकना था ना
तुम्हें आँख भर देखना था !
जल्दबाज़ी में मैं शुक्रिया भी न कह पायी!
और तुमने अलविदा कह दिया.
5.
उजाले की रात
उजाले से भरी रात है
जहाँ तारिकाओं की सहन में तुम शरद के डहर भरे अजोर की तरह उतरे हो
स्मृति ने हँसकर आगत-विगत पर गुलाबी कैनवास डाल दिया था
दुःख का खटका लगा मन मिठास से भर गया
जेठ की तपती रात अचानक सेहलावन लगने लगी
उसी रात का उजाला पकड़ बहुत दूर निकल आयीं हूँ
जबकि उजाले के चारों तरफ बस अंधेरा ही अंधेरा दिख रहा है
और अंधेरे से मुझे बहुत डर लगता है
तुम मुझे आवाज़ देते रहना
गर्म आँसुओं की नदी में रह-रहकर डूबने लगती हूँ
ठीक उसी पल जब तुम पराये लगते हो
तुम जानते हो न! परायेपन से मेरी आत्मा बहुत करकती है
तुम्हें याद करते ही मन महकते फूलों से भर जाना था
पर चित्त है की एक गोदामिल पीड़ा से चिलक उठता है
कभी यहीं कहीं चलते हुए हम थकेंगे भी साथी
तब भी एक छुटपन की साध
या अलग़रज़ी में कही बात की तरह ही सही
तुम मुझे अपना कहते रहना
वसंत चला भी जाये तो प्रेम की आस से जीवन बचा रहेगा
अकेलापन बहुत सह सकती हूँ
बस यकीन खत्म न होने पाये कि तुम जहाँ भी हो मुझे याद करते हो
रात को खिली चमेली अभी तक महक रही है और मन है कि रूमानी होता ही नहीं
मैं हमेशा कुछ प्रश्नों को लिए तुम्हारी ओर देखती हूँ
तुम हो कि जवाब से बचने के लिए रूमानियत की रेशमी चादर खींच कर सामने कर लेते हो
मन वैसे ही अपने हरेपन से हलकान रह जाता है जिसमें उजला-मैला सब जल्दी उतर जाता है
कितनी रातें, कितनी दोपहर आती हैं और उदास चली जातीं हैं कि तुम उन पलों में नहीं आये
वे सारे पल मुझसे उलाहने देते हैं
मैं इल्ज़ाम तुम्हारी मसरूफ़ियत पर डाल देती हूँ
वे खिलखिला पड़ती हैं मुझपर
उनकी हँसी नीरफूल तुम्हारी हँसी जैसी है
तुम्हारी हँसी जैसे आल्हारि उम्र की गदबद हँसी
तुम यूँ ही जहाँ हो वहीं से अपनी चिरपरिचित हँसी भेजते रहना मुझे
नहीं तो सब ग़लीज़ लगने लगेगा
तुम्हारा साथ, मेरा प्रेम, और वो रात का उजाला सब.
6.
हमारा प्रेम
प्रेम से पहले हम छुटपन में अचानक धूल में चमके अरुआ-परुआ पैसे की तरह मिले थे
और खगोल दुनिया के खुलते रहस्य की तरह होतीं थीं हमारी बातें
देखा हमने एकदूसरे को बहुत दिनों बाद
लेकिन ऐसे नहीं जैसे सौंदर्य प्रेमियों ने चाँद को देखा
हमने देखा एकदूसरे को ऐसे जैसे
भूख की यातना में जिया मनुष्य रोटी को देखता हो
जैसे देखता हो दुःख में बीता अतीत सुख के आसार को
जबकि आगत वहीं खड़ा दिखता रहता है उदास अनमना हारा सा.
7.
शरद में तुम
शरद अनगिनत रंग के फूल लेकर आ रहा है
अबकी भी तुम्हारे मखमुलहे मन को देखकर आधा ही न लौट जाये
अबकी हँसना, देखना शिशु की लाल हथेली जैसा सबेरा फिर उगेगा
कुछ मटमैले उदास चेहरे थोड़ा हँसेंगे
बच्चे काम पर कम स्कूल ज्यादा जायेंगे
सड़कें कार बाइक के धुएं से कम अटेंगी
सीटी बजाती हुई साइकिल चलाती लड़कियों से गुलज़ार होंगी
काम पर जाती स्त्रियां अवसाद की दवा कम खायेंगी
घर में अपनी बेटियों के साथ ‘कांटो से खींच के आंचल’ गाने पर रोज घंटों नाचेंगी
घरेलू स्त्रियां सब्जी छौंकती तेल के छीटे से जलने पर पहले जाकर बर्फ़ मलेंगी
वह चौराहे के पार बड़ी नाली पर बैठा बूढ़ा मोची कुछ कहकर हँसेगा
गाँव छोड़ शहर में बसा ठठेरा किसी ग्रामीण को चीन्ह देस का हाल पूछेगा
बूढ़े रिक्शे वाले के रिक्शे पर कुछ करुण मन की कोचिंग से लौटती लड़कियाँ बैठेंगी
और थोड़ी दूर जाकर अपने साथ उसे मौसम्बी का जूस पिलायेंगी
अखबार में अबकी हत्या बलात्कार से ज्यादा लड़कियों के खेल की खबरें होंगी
देखना दुनिया थोड़ी-थोड़ी बदलेगी
दुःख चिंता और गलतियों से बने हम दोनों थोड़े और मनुष्य बनेंगे
तीसी के फूल अबकी बड़े चटक खिलेंगे
तिल के अधगुलाबी फूल भी उस हँसी का अलाप जोहते हैं
पगडंडी के सारे खेत शरद में कैसे हँसते थे
उनकी हँसी नीरफूल तुम्हारी हँसी जैसी होती थी
तुम्हारी हँसी है या खिलखिलाहटों का जादुई दर्पण
या किलकारियों से गूँथी गयीं उजासी श्रृंखला
गदबदी सरपत की सफ़ेद रेशमी कलियों जैसी चिक्कन
लटपट बसंती हवा जैसी
या गुदगुदाये जा रहे बच्चे की बेसम्भार हँसी
मैं इस हँसी को हथेली में भर कर आने वाले समय के लिए आस बो रही हूँ
देखना अन्न के साथ यहाँ फूल भी उगेंगे
सही अर्थ में मनुष्य के साथ तितलियों का झुंड यहाँ आएगा
तुम बस चलते हुए कभी मुड़कर मुझे हरकार देते रहना
मैं वह राह और वहाँ के वासियों को पहचान ही लूंगी
चीन्ह पर अब कुछ तो मेरा कस-बस हो ही गया है
क्योंकि मैंने तुम्हारा आँसुओं से भीजा चेहरा
चखा है.
रंगमंच पर नये ढंग की प्रेमिकाएं आयीं थीं
उन्हें सबकुछ सचमुच का चाहिए था
और खोना कुछ झूठमूठ का भी नहीं चाहिए था
यहाँ प्रेमी वही पुराने चलन के थे
वे अब भी अपने दुःख और प्रेमिका पर इल्ज़ाम काम चलाते थे
ये प्रेमिकाएं खेल को कुछ-कुछ समझ गयीं थीं
पर अपने मन से अब भी अनजान थीं
खेल में मन उतारकर वे खेल ही नहीं पायीं
जबकि उनके प्रतिभागी मन पहनकर कभी खेलते ही नहीं थे
बड़ा बेमेल खेला होता था
वे अपनी हर शाम प्रेमी से फोन पर बात करके गुलज़ार करना चाहतीं थीं
और होता ये कि हर रात सहेली से रोकर बीतने लगीं
सहेलियां बस सुनतीं भर थीं गुनती कम थीं
वे अपने प्रेम को संसार का महानतम प्रेम मानकर खुश थीं
क्यों कि वे अभी फाइनल में उतरीं नहीं होतीं
जब उतरेंगी तो उनकी भी शामें उदास और रातें काली होंगी
नयी राग पर उनके आलाप मध्यम से उठे जरूर थे
पर लय बहुत नहीं बदल पायीं वे
हाँ अब “तुम कौन सो पाटी पढ़े हो लला
मन लेहु त देहु छटाँक नहीं, की जगह
“बदले रुपया के दे न चवन्नियां …झमक कर गातीं हैं
हालांकि उनकी खोज में अर्थ के साथ प्रेम अब भी है पर दोनों वे खुद पर भरमन खर्च नहीं करतीं
इस तरह वे अपना बहुत हरजा करतीं
पर किसी भी विधा व्यवस्था में बनी रहतीं
जबकि उस व्यवस्था की धुरी की कील स्त्रियों के सीने पर गड़ी थी.
8.
जाति की चीन्ह
मुझे तुम न समझाओ अपनी जाति को चीन्हना श्रीमान
बात हमारी है हमें भी कहने दो
तुम ये जो कूद-कूद कर अपनी सहूलियत से मर्दवाद के नाश का बहकाऊँ नारा लगाते हो अपने पास रखो
कर सको तो बात सत्ता की करो, जिसने अपने गर्वीले और कटहे पैर से हमेशा मनुष्यता को कुचला है
जिसकी जरासंधी भुजा कभी कटती भी है तो फिर से जुड़ जाती है.
रामचरितमानस में शबरी-केवट प्रसंग सुनती आजी सुबक उठतीं और
घुरहू चमार के डेहरईचा छूने पर तड़क कर सात पुश्तों को गाली देतीं
कोख और वीर्य की कोई जाति नहीं होती ये वे भी जानतीं थीं
जो पति की मोटरसाइकिल पर जौनपुर से बनारस तक गर्भ में आई बेटी को मारने के लिए दौड़तीं रही
और घर के किसी मांगलिक कार्य में बिना सोने के बड़का हार पहने बैठने से इनकार कर देतीं हैं
सब मेरी ही जाति से हैं
चकबंदी के समय एक निरीह स्त्री का खित्ता हड़पने के लिए जिसने अपनी बेटियों को कानूनगो के साथ सुलाया और वो जो रात भर बच्चे की दवाई की शीशी से बने दीये के साथ सांकल चढाए जलती रहीं और थूकती रही इस लभजोर समाज पर
वो भी मेरी ही जाति से थीं
जानते तो आप भी बहुत कुछ नहीं हैं महराज
क्या जानते हैं हरवाह बुधई का लड़का जिसे हल का फार लगा तो खौलता हुआ कड़ूँ का तेल डाल दिया गया
उसका चीख कर बेहोश होना जमींदार के बेटों का मनोरंजन बना
और वही लड़का बड़े होने पर उसी परिवार के प्रधान बेटे की राइफल लेकर भइया ज़िन्दाबाद के नारे लगाता है
मेरी लड़खड़ाती आवाज़ पर आप हँस सकते हैं क्योंकि आप नहीं जानते मेरी आत्मा के तलछट में कुछ आवाजें बची रह गयी हैं जो एक बच्ची से कहती थीं कि तुम्हें कोई सखी-भौजाई ने बताया नहीं कि रात में
होंठों को दांतों से दबाकर चीख रोकी जाती है जिससे कमरे से बाहर आवाज़ न जाये
हम जब ठोस मुद्दे को दर्ज करना चाहते हैं तो उसे भ्रमित करने के लिए सिर से पैर तक सुविधा और विलास में लिथड़े जन जब कुलीनता का ताना देकर व्यर्थ की बहस शुरू करते हैं तो मैं भी चीन्ह जाती हूँ विमर्श हड़पने की नीति
मुझे आपकी पहचानने की कला पर सविनय खेद है श्रीमान
क्योंकि एक आदमीपने को छोड़ आपने हर पन पहचान
लिया जो घृणा के विलास से मन को अछल-विछल करता है
रोम जला भर जानना काफी कैसे हो सकता है
जब रमईपूरा और कुंजड़ान कैसे जले आप नहीं जानते
जहाँ समूची आदमियत सिर्फ़ घृणा रसूख़ नस्ल और जाति जैसे शब्दों पर खत्म हो जाती है
अपने कदमों की धमक पर इतराना तो ठीक है पर बहुत मचक कर चलने पर धरती पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है
तुम अपनी बनायी प्लास्टिक की गुड़ियों से अपना दरबार सजाओ श्रीमान !
मन की कारा में आत्मा बहुत छटपटा रही है
मुझे अपनी कंकरही जमीन को दर्ज करने दो
जो मेरे पंजो में रह-रह कर चुभ जाती है.
9.
लड़ाई
लड़ाई-भिड़ाई बहुत जरूरी थी हमारे लिए पर हमारे लिए उद्धारक नियुक्त किये गए
और हमें सजना-संवरना, लजाना- शर्माना, रोना-डरना, उनका मनोरंजन करना, यही विभाग सौंपा गया
जबकि जन्म लेते ही हमारे कान में लड़ाई-भिड़ाई का मंत्र फूंकना था
सबसे लड़ो! पिता से, प्रेमी से, पति से, पुत्र से
नहीं तो एक ग़ैर ज़रूरी सामान की तरह घर के किसी कोने में पड़ी रहो
संसार को बचाने के लिए संसार से लड़ो
नदियों के लिये लड़ो, पेड़ों के लिए लड़ो, जंगल और पहाड़ के लिए लड़ो
स्थूल देहों के भार से दबी कमजोर देहों के लिए लड़ो
टोने-टोटके के लिए जान लेने वाले विक्षिप्त समाज से लड़ो
प्रेम करने पर सिर काट लेना और हत्या करने पर सिर पर बिठाकर जयघोष करती दुर्दान्त सोच से लड़ो
श्रम करने वाले श्रम ही करते रहे और चालाक शासन व विलास
ऐसी महाजनी व्यवस्था से लड़ो
नशे और बाल-श्रम के गंदे पंजे में छटपटाते बच्चों के लिए लड़ो
रोज पिटती, खटती फिर साथ सोने को बेबस कमजोर स्त्रियों के लिए लड़ो
पितृ सत्ता की थमाई लाठी लेकर इतराती फिरतीं उन अबोधों के लिए लड़ो
जिन बेचारियों को शायद पता ही नहीं उस सत्ता की सोढ़ कितनी गहरी है
कैसे भी करके स्त्रियों को नीचे रखो सारे धर्मों की इस सन्निपाती सोच से लड़ो
बोलियों और भाषाओं के भदेसपन के लिए लड़ो
खान-पान, रहन-सहन, पहनने -ओढ़ने में शुद्धता के अनावश्यक दखल से लड़ो
अन्याय की सारी कड़ियाँ एक दूजे की सगी हैं
सारे खाप और ताब से लड़ो
ऐ प्रेम करने वाली नई नस्लों उठो हमारी लड़ाई बेहद कठिन है क्योंकि हमें घृणाओं से बिन घृणा किये लड़ना है
तुम लड़ो, तुम्हें लड़ना ही होगा, क्योंकि एक आत्मघाती समाज सब कुछ नष्ट करने की ज़िद पर है
लड़ो कि वह एक बहुत बड़ी विषमाधी भीड़ को लेकर बढ़ा आ रहा है…!
१०.
अगर हम मिलते तो
अगर हम मिलते तो किसी का कुछ न बिगड़ता
किसी की इंच भर जमीन या अंगुल भर आसमान भी हम न लेते
किसी के हिस्से की हवा पर हमारी सांसे न चलती
अपनी आंखों के पानी के सिवा कोई प्यास ग़ैर के हक़ पर नहीं बुझती
पर हम नहीं मिले
दुनिया से ज्यादा अपनी आकबत पर मरे हम
जलते रहे बिन आग-खड़ के
दिन में चढ़ी जलन रात में पिघल कर पानी बन गयी जो धार-धार हमारी आँखों से बही
शहर उस दिन धूल से मड़ियाया था आंधी के आसार थे
पर नहीं आयी आंधी एक संतापी सा दिन आया
रह-रह के उबकाई सी आ रही थी हमें अपनी आत्मा को दबोचे शुद्धतापन से
नीला आसमान का रंग उस दिन उद्धत था उसमें ऊजहा चंद्रमा उदास साथ चल रहा था
बस में भीड़ थी, मेरे बगल की सीट पर बैठी बुजुर्ग मुसलमान औरत मेरे रोने का सबब पूछती रही
और पास खड़े अपने बेटे से रामदाना खरीदने की ज़िद भी करती रही
न बेटे ने रामदाना उसके लिए ख़रीदा
न मैंने रोने का सबब कहा
सांत्वना से जी ऐसे अहुका था कि
साड़ी का आँचल मुँह पर डाल लिया
कंठ में जैसे युगों की प्यास ऊधिरायी थी
बस में गाना बजता रहा ‘जालिमा कोका कोला पिला दे…!’
तुम नहीं जानते उस दिन अंधेरा दिन चढ़े ही ऊतराया था
और उस अंधेरे में मैं ढूँढती रही अपने मन में उगे प्रेम को
आज मैं उसके मुँह पर थूक देना चाहती थी कि
इतना ही कायर व मुँहचोर थे तो जन्म क्यों ले लिया मुझमें
जीवन की तरह बस ऊबड़-खाबड़ सड़क पर चलती रही
और नैतिकता आदर्श से ऊकठा हमारा मन
लौट-लौट कर उस दिन भी सोचता रहा कि
अगर हम मिलते तो..!
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गोदामिल-थोड़ा थोड़ा मीठा. मीठा का अंश बेहद कम. जैसे अधपके फलों का मीठापन.
मखमुलहे- रुआँसा सा.
रूपम मिश्र |
‘भाई साहब आप मुझे न छूइये ! देखिए मैंने अबतक एकबार भी आपको नहीं छूआ.|’ अक्उसर बसों में अकेली महिलाओं के साथ वाली सीट पर बैठने वाले व्यक्तियों की कामुक कुंठा के लिए एक लोकतांत्रिक सौम्य भाषा में आग्रह है जबकि यहाँ कुछ सख्ती की आवश्यकता थी.| घृणाओं से बिना घृणा किए लड़ने का संदेश सराहनीय है | इन कविताओं में समाज में वांछित परिवर्तन की नई राह है |
बहुत अच्छी कविताएँ हैं। शिल्प व भावभूमि दोनों बहुत समृद्ध।
रुपम की कविताओं पर हम अवध के लोगों को गर्व है।हमें तो और अधिक कि वह हमारे ही इलाके की है।पहली बार जब उसने भारत भवन में अपनी सुगंध बिखेरी थी तो किताबी भाषा लिखने वाले कवियों की विरादरी को सीधे उस जमीन पर उतार लाई थी पूर्वांचल के
तेवरों को परिभाषित कर रहा था।अवध क्या है ,उसकी स्त्री का दुखदर्द क्या है,इसे वह किन किन स्तरों पर झेलती और कैसे कैसे सधे हुए उत्तरों में जवाब देती है,यह भी रूपम में है।
यह सही है उसके कहने में एक बेखौफी भी है और दर्द भी।दो हजार इक्कीस में वह मेरे गाँव आने वाली थी परअचानक एक हादसे के चलते आ नहीं पाई थी।इस बार शायद हमारी मुलाकात संभव हो।
भोपाल के श्रोता तो उसकी काव्य भंगिमा पर लट्टू हैं।
रूपम की कविताएँ अवध की धरती में उगी फसलों की तरह हैं. इनमें मिट्टी है, पानी है, हमारा घर आँगन है. मेरी पसंदीदा कवि हैं रूपम. इन कविताओं में अनगिनत पंक्तियाँ ऐसी हैं जिन्हें समय समय पर उद्धृत किया जा सकता है. बहुत बहुत रूपम को.
बहुत ताज़ा और धारोष्ण अनुभवों वाली कवयित्री जिन्हे पढ़ना हर बार अजाने रोमांच से भर देता है। अवध के जन जीवन की मटमैली आभा को जिस तरह वे अपनी ही बोली के शब्दों को टांकते हुए कविताएं करती हैं, हम बोलचाल की लय में को जाते हैं। मुझे कई शब्द पाहुन तरह लगते हैं जैसे वे अरसे बाद मेरी स्मृति को झकझोरने आए हों । कविता के नए स्थापत्य में रुंध कर ये उसका हिस्सा बन जाते हैं और कतई बाजरे की कलगी की तरह सजाए हुए नहीं लगते।
रूपम की कविताएं पूरबी मन, मनुष्य और समाज को पढ़ने की अचूक समझ पैदा करती हैं और शहरी स्त्रीवाद की आंच में अधपकी कविताओं के लिए एक चुनौती पेश करती हैं जो पुरुष वर्चस्व की गुहार लगाते हुए भी प्रतिरोध के ऐसे रसायन से वंचित लगती हैं।
समालोचन और रूपम को साधुवाद।
एक वाक्य में कहूँ तो रूपं को पढ़ना सुखद है। बिना लग-लपेट के कठघरे में खड़े कर देती हैं। बधाई तो बनती है।
ललन चतुर्वेदी
अच्छी लगीं कविताएँ। बीच बीच में मन को उदास भी करती गयीं। शब्द संयोजन का कमाल है। प्रेम, प्रतीक्षा और पीड़ा।
दिल ओ दिमाग को अंतरतम तक झकझोर कर, देर तक, दूर तक साथ चलती, प्रेम को प्रतिरोध में रूपांतरित करती, ऐसी कविता पहली बार पढ़ी
मेरे लिए रूपम मिश्र का महत्व यह है कि वह मुझे मातृभाषा के नजदीक ले जाती है जो स्मृति का भूलता हुआ हिस्सा है । लेकिन उनकी आंचलिकता में उस वधस्थल की गहरी पहचान होती है जो अवध का बैडलैंड – प्रतापगढ- रहा है और जो सामंती अपराध का रूपक है। यहाँ बेशक मैं उन कविताओं को न देख पा रहा होऊँ लेकिन रूपम के काव्य जगत का वे अनिवार्य कथ्य हैं। इसीलिए रूपम की कविता का हठ समाजार्थिक पुनर्निर्माण की जिद है। वह वृत्तांतों की देशजता से जिस काव्य बोध को बनाती हैं उसमें न्याय बोध के ढहने की कितनी ही आवाजें सुनाई देती हैं। उनके वर्णन इतने आत्मीय, मानवीय और परिदृश्यात्मक होते हैं कि वे बहुत क्षिप्रता से आने जाने के बावजूद विडंबनामय निहितार्थों से भरे होते हैं। कनबतियों से लेकर पुकार और आह्वान को अपनी काव्य युक्तियों में वह जितनी संवेदना से समो लेती है उस में विस्मित करने की द्युतिमय खूबियाँ है। देशजता उनके लिए सजावट नहीं भाषिक और संवेदीय निर्विकल्पता है। ग्रामीण भारत का यदि कोई नारीवाद बनता हो तो इसके लिए रूपम की कविता अपरिहार्य वातायन है जहाँ मातृपक्ष की उनकी दलीलों में करुणा एक अनिवार्य तत्त्व है। उनकी कविता को नये भा षिक आस्वाद के लिए ही नहीं सकारक नवोत्थान के लिए भी पढना चाहिए।
अपने सीमित अनुभव और ज्ञान के बावजूद यह कहने से गुरेज नहीं करूंगा कि अभी लिख रहे लोगों में इतनी सधी हुई भाषा-शिल्प और मंजे हुए भाव बहुत कम कवियत्रियों/कवियों के पास है।
रूपम मिश्र अपनी कविता में क्या कहना चाहती हैं और किससे संबोधित हैं, इसे लेकर उन्हें कोई दुविधा नहीं है। और यही कारण कि वह अपनी कविताओं में इस कदर औरों से मुख्तलिफ और मानीखेज़ हैं। यह किसी भी लिखने वाले के लिए बहुत बड़ी चीज़ है,यह आसानी से हासिल भी नहीं होती।
इनकी कविताएँ जितनी प्रौढ़ हैं, उतनी ही भिगोती भी हैं और इनमें अंतर्धारा की तरह बहने वाली प्रतिबद्धता सवालों और समस्यायों के सामने हमें ठीक तरीके से खड़ा होना सिखाती हैं।
एक-एक पंक्ति इतनी सधी हुई हैं कि उन्हें बार-बार पढ़ने की इच्छा होती है। कुछ बिम्ब तो इतने टटके हैं कि रुक कर ठीक से उसे और महसूसने का मन करता है।
अपनी भाषा और शिल्प को हासिल करना, किसी भी लिखने वाली/वाले के लिए सच्चा हासिल है और यह सिर्फ कविताई की समझ से नहीं आती।
जोहार☘️🍀