स्वर्ण नगरी में सोन चिरैया की खोज |
अक्सर ही मैं सोचता हूं कि यह सफर कैसे शुरू हुआ. जहाँ तक मेरी स्मृति जाती है, मुझे लगता है कि पहली बार वर्ष 2010 में मैंने यह नाम सुना था. सोन चिरैया. इस पर छाए संकटों के बारे में जाना. हालांकि, आज की तुलना में वह काफी धुंधला-धुंधला था. लेकिन, फिर भी वह मेरी पहली स्मृतियां थीं. पहला परिचय था. और कहें कि लव ऐट फर्स्ट साइट था. पहली नजर का प्यार.
इसके बाद से ही मैंने इस पक्षी के बारे में लगातार पढ़ने की कोशिश की. किसी ने इसे भारत का शुतुरमुर्ग कहा. किसी ने इसे भारत का सबसे बड़ा पक्षी. किसी ने कहा कि यह भारत का सबसे बड़ा उड़ने वाला पक्षी है. खासियत देखिए, यह पक्षी उड़ता तो है, छोटी दूरी के प्रवास भी करने की बात कही जाती है, लेकिन यह पक्षी कभी पेड़ पर नहीं बैठता. इसके पंजों की बनावट ही ऐसी होती है जो इसे जमीन पर दौड़ने लायक बनाती है. जमीन पर ही घोसले बनाती है. कुछ ने तो यह भी कहा कि कभी इसके अंडों को ही पारस पत्थर समझा जाता था. आप जानते हैं न उस मशहूर पत्थर को. जिसके छूते ही हर चीज सोना बन जाती है. सदियों से लोग उसकी तलाश में रहे हैं. अपने जीवन के कीमती घंटों को इसी खब्त में खतम करते.
कोई इसे गोडावण कहता है. कोई सोन चिरैया. कोई हुकना और तुगदर भी. यह ग्रेट इंडियन बस्टर्ड था. जिसे कभी भारत का राष्ट्रीय पक्षी भी चुना जा सकता था. लेकिन, कोई ग्रेट इंडियन बस्टर्ड को ग्रेट इंडियन बास्टर्ड न समझ ले. इसलिए इसके चुनाव को वरीयता नहीं दी गई. जाहिर है कि अन्य कारण भी रहे होंगे.
इन सारे वर्षों में मैं इस पक्षी की तलाश करता रहा. इसके बारे में सूचनाओं को एकत्रित करता रहा. हाईटेंशन लाइन से होने वाली उसकी मौतों और उन हृदयविदारक शवों की तस्वीरों को देखता रहा. जंगलकथा में लोगों को इसके बारे में बताने की कोशिश की. पर मैंने खुद इसे कभी देखा नहीं था. एक टीस बनी हुई थी. कसक सी. इसे देखने की तड़प थी.
यह तड़प मुझे जैसलमेर तक लेकर गई. दिल्ली कैंट से यह 18 घंटे की यात्रा थी जो मुझे रेलगाड़ी की बिना आरक्षित सीट के करनी थी. सीट कंफर्म नहीं हुई थी. इसके चलते मन ऊहापोह में भी था.
लगभग पंद्रह मिनट की देरी से ट्रेन आई. अपनी समझ से मैं कम भीड़-भाड़ वाले स्लीपर कोच में घुस गया. डिब्बे के अंदर लोग अपनी सीटों पर सोए पड़े थे. शोरगुल से उनमें से कई लोगों की नींद टूट गई थी. कुछ लोग जाग भी रहे थे. वैसे भी कुछ ही देर में सूरज निकलने वाला था. फिर सबको बैठकर ही यात्रा करनी थी. ट्रेन में बहुत ज्यादा भीड़ थी. सुबह से मैंने चाय भी नहीं पी थी. चलते हुए बैग में एक सेब रख लिया था. तो रेलगाड़ी में बस उसे हल्के-हल्के कुतरने लगा. हमारी रेलगाड़ियों की खासियत यही है. भीड़ चाहे कितनी भी हो, थोड़ी देर में सब सामान्य हो जाते हैं. शुरुआत में हर छोटे-छोटे स्टेशन से कुछ लोग डिब्बे में चढ़ जाते. भीड़ और ज्यादा हो जाती. लेकिन, रेवाड़ी से उसके खाली होने का सिलसिला शुरू हो गया. जयपुर पहुंचकर रेलगाड़ी लगभग खाली हो गई. मेरे पास रेल की खिड़की आ गई.
एक बरसों की साध पूरी होने वाली थी. मैं उस पक्षी को पहली बार देखने जा रहा था, जिसके प्यार और चिंता ने मुझे सालों से जकड़ रखा था. मैं एक बार उसे देखना चाहता था. यह काफी दुर्लभ था. क्योंकि, अब पक्षी डेढ़ सौ से भी कम की संख्या में बच गया है. कभी भारत के बड़े हिस्से में पाए जाने वाले गोडावण या सोन चिरैया या ग्रेट इंडियन बस्टर्ड की आबादी साफ हो गई है. राजस्थान के जैसलमेर व आसपास के क्षेत्र में ही उनकी कुछ आबादी बची हुई है. राष्ट्रीय मरु उद्यान और आसपास के क्षेत्र में. पोखरण में परमाणु विस्फोट वाले क्षेत्र में. लेकिन, यह सब संख्या भी कुल मिलाकर सवा सौ के करीब ही मानी जाती है.
ऐसे में इन पक्षियों के लिए कंजर्वेशन ब्रीडिंग कार्यक्रम की शुरुआत भारत सरकार, राजस्थान सरकार, भारतीय वन्यजीव संस्थान द्वारा की गई है. इस तरह का एक सेटंर रामदेवड़ा में है तो दूसरा सम गांव में. गोडावण पक्षी जमीन पर घोसले बनाकर ही अंडे देते हैं. ऐसे में उनके अंडों के नष्ट होने की संभावना भी बहुत रहती है. एक पक्षी, जिसकी आबादी ही डेढ़ सौ से कम रह गई हो, उसके एक अंडे के नष्ट होने से भी कितना बड़ा नुकसान पूरी प्रजाति को हो सकता है, यह समझा जा सकता है. यह स्थिति और भी ज्यादा चिंताजनक इसलिए बन जाती है क्योंकि गोडावण आमतौर पर साल भर में एक ही अंडे देते हैं.
इसलिए विशेषज्ञ मरु भूमि में इनके घोसलों का पता लगाते हैं. उन पर निगाह रखते हैं. जब वे अंडे देते हैं तो उन्हें एकत्रित कर लिया जाता है. फिर उसे प्रजनन केन्द्र में लाकर इंक्यूबेशन मशीनों में रखा जाता है. अंडे सेने का जो काम पक्षी करते हैं, इन मशीनों के सहारे इनसान वह काम करता है. इस तरह के प्रयासों को शुरुआती सफलता मिली है. इसके पीछे कामना यह है कि सोनचिरैया की एक आबादी को सुरक्षित कर लिया जाए. ताकि, अगर वे अपने प्राकृतिक आवास में नहीं भी बचते हैं तो उन्हें पूरी तरह से विलुप्त होने से रोका जा सके. इस तरह से तैयार आबादी से बाद में पैदा होने वाले बच्चों को फिर से वन्यजीव की आदतें दिलाकर उन्हें प्राकृतिक आवास में छोड़ा जा सकता है.
तो दोस्तों, मुझे इन्हीं दो प्रजनन केन्द्रों में जाना था. इसके साथ ही राष्ट्रीय मरु उद्यान में भी. जहाँ पर प्राकृतिक आवास में गोडावणों के दिखने की सबसे ज्यादा संभावना रहती है. अगर आप खुशकिस्मत हैं तो यहाँ पर गोडावण दिख सकते हैं. हालांकि, गोडावण भले ही न दिखे लेकिन मरु भूमि की जटिल और सुंदर संरचना जरूर प्रभावित करती है.
एक |
वन्यजीवन से जुड़े कुछ बहुत पुराने संपर्कों से मुझे प्रजनन केन्द्र के संचालकों का नंबर मिला था. जिनसे मैंने केन्द्र देखने की इच्छा जताई. उन्हें मैंने गोडावण पर किताब लिखने की भी जानकारी दी. उन्होंने मुझे आने के लिए कहा. मैंने पूछा कि कहाँ पर मैं आऊं. तो दिल्ली से आने की बात जानकर उन्होंने मुझे पहले राम देवड़ा आने के लिए कहा.
इसलिए मुझे पहले रामदेवड़ा जाना था. यह जैसलमेर से दो स्टेशन पहले पड़ता है. आठ-साढ़े आठ बजे इस रेलगाड़ी को रामदेवड़ा पहुंच जाना था. लेकिन, शुरू से ट्रेन ने जो देरी की थी, उसमें कुछ न कुछ देरी वह लगातार जोड़ती रही थी. राम देवड़ा तक पहुंचते-पहुंचते ट्रेन दो घंटे के लगभग देर हो चुकी थी. रात के इस समय कहाँ ठहरने की जगह मिलेगी. मैं धड़कते दिल से स्टेशन पर उतरा. लेकिन, थोड़ी खोजबीन के बाद मुझे कमरा मिल गया.
रात के उस ग्यारह बजे के समय में यह मुझे कोई उजाड़ सा देहाती कस्बा लग रहा था. जहाँ पर जैसे कोई मेला अभी-अभी उठ गया हो. वैसा ही उजाड़ सा माहौल था. लेकिन, वैसी ही रंग-बिरंगी रोशनियां भी दिखाई दे रही थीं. थकान की झोंक में ही मैंने एक जगह खाना खाया. वहाँ से चुपचाप लौटा और सो गया. लेकिन, जब अगले दिन सुबह मैं उठा तो मेरे सामने एक अलग ही दुनिया जाहिर थी.
नई जगह थी तो थकान के बावजूद नींद जल्दी खुल गई. मैंने सोचा कि आसपास का थोड़ा जायजा ही लिया जाए. उस समय तक यह कस्बा अधनींद में था. कुछ जाग हो चली थी. कुछ सोए थे. इससे पहले मैं असली वाले बाबा रामदेव को नहीं जानता था. राम देवड़ा बाबा रामदेव की कर्मभूमि है. यह एक बेहद प्रसिद्ध सिद्ध थे. यहाँ पर लाखों लोग उनकी पूजा करते हैं. हर साल उनके मंदिर में आने वालों की संख्या लाखों में होती है. वे हमारे आज के योग और आयुर्वेद के उस व्यापारी से काफी अलग थे, जिसे उनके नाम के अलावा कोई और गुण प्राप्त नहीं हुए. पूरे रास्ते मुझे धर्मशालाएं, गेस्टहाउस, होटल और चायपानी की दुकानें देखने को मिलीं. बहुत सारे लोग राजस्थानी पगड़ी में थे और दूर-दराज से आए हुए थे. बहुत सारे लोग गुजराती पगड़ी में थे और दूरदराज से आए थे. राजस्थान और गुजरात के अलग-अलग शहरों के नाम पर धर्मशालाएं थीं. अलग-अलग जाति वालों ने अपनी अलग-अलग धर्मशालाएं भी बना रखी थीं. खास बात यह लगी कि यहाँ पर दलित जातियों की धर्मशालाएं भी अलग दिखीं. बाबा रामदेव एक प्रकार से धर्मनिरपेक्ष सिद्ध हैं. उनके अनुयायियों में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही हैं.
मैं जिस जगह पर सोने और ठहरने की इतनी चिंता कर रहा था. वह पूरा कस्बा ही मुसाफिरों से भरा हुआ था. वहाँ लोग रहते कम थे, ठहरने वालों की संख्या ज्यादा थी. वहाँ पर महंगे होटलों की कोई पूछ नहीं थी. सस्ते गेस्टहाउस, सस्ती धर्मशालाएँ मौजूद थीं. यहाँ तक कि सड़क पर बिछी हुई खाट भी मौजूद थी. सोने के लिए जिसे सिर्फ पचास-साठ रुपये में हासिल किया जा सकता था. बहुत ही जमीन से जुड़ा हुआ, गरीब लोगों का कम खर्चे में दर्शन कराने वाला यह एक तीर्थ स्थल है. जहाँ पर लोग अपनी आस्थाओं को लेकर आते हैं. जाहिर है कि आस्थाएँ हमें बहुत सारे कष्टों को सहने में सक्षम बनाती हैं. हम उन कष्टों की परवाह ही नहीं करते. मुझे भी प्रेरणा मिली. मुझे भी तो अपनी आस्था के लिए अपने हिस्से के कष्ट और परेशानियां उठाने ही होंगे. तभी तो उसका असली आनंद मिलेगा. अनुभूति होगी.
दो |
चाय की दो-तीन टपरियां बदलने के बाद मैं एक बार फिर रेलवे स्टेशन की तरफ आ गया. दरअसल चाय की टपरियों पर मैंने कई लोगों से गोदावण प्रजनन केन्द्र के बारे में पूछताछ की. लेकिन, उनमें से कोई भी इसके बारे में जानता नहीं था. लोग गोडावण पक्षी को तो जानते थे. बुजुर्ग बचपन में अपनी आंखों से उन्हें देखने की बात बताते. यह भी जोड़ते कि अब कहीं दिखता नहीं. लेकिन, उन्हें प्रजनन केन्द्र के बारे में नहीं पता था. मैंने उन्हें समझाने की भी कोशिश की. अरे वहीं, जहाँ गोडावण पक्षी के अंडे लाकर उनसे बच्चा निकाला जाता है. पर वे इससे अनभिज्ञ थे. मेरे मन में एक बार फिर से आशंकाएँ जोर पकड़ने लगी. मैं रेल से सही जगह उतरा तो हूं न. या फिर गलत स्टेशन पर उतर गया.
मैं अपने कमरे पर वापस आ गया. यहाँ पर आकर मैंने एक बार प्रजनन केन्द्र के अपने संपर्क को फोन किया. उनका फोन उठा नहीं. इसकी बजाय उन्होंने तत्काल ही मुझे दो नंबर मैसेज कर दिए. मैसेज में लिखा कि मैंने बोल दिया है आप इन्हें फोन कर लेना. आशंकाएँ फिर हावी हुई. कहीं गच्चा तो नहीं मिलने वाला.
मैंने धड़कते दिल से पहले नंबर पर फोन किया. दूसरी तरफ एक बेहद ही सौम्य और विनम्र आवाज मुझे मिली. उन्होंने मुझसे पूछा आप रेलवे स्टेशन पहुंच गए हैं. मैंने बताया कि मैं रात में ही पहुंच गया था. उन्होंने कहा कि आप वहीं पर रुकिए हम गाड़ी भेज देते हैं. आपने नाश्ता किया है या नहीं. मैंने कहा कि नहीं. उन्होंने कहा कि हमारे साथ ही कर लीजिएगा. मैं इस सौजन्यता पर निहाल हो गया. मन खुशी और उत्साह से भर उठा.
मैं तुरंत ही नहा-धोकर तैयार हो गया. पिट्ठू टांगकर रेलवे स्टेशन पर आ गया. कुछ ही देर में गाड़ी आई और मैं उसमें बैठ गया. मुश्किल से पांच मिनट में ही गाड़ी कस्बे से बाहर हो गई. इसके बाद एक हाईवे आया. उस हाईवे से एक ओर को उतरकर एक अंडरपास को पार करने के बाद मुझे दूर-दूर तक उजाड़ धरती दिखने लगी. एक ऐसी धरती जहाँ दूर-दूर तक बंजर दिखता था. छोटी-छोटी झाड़ियाँ. बीच-बीच में मिसवाक या पीलू के घने पेड़. बेर और खेजड़ी के पेड़. घुटनों के थोड़ा नीचे तक पहुंचती हुई सूखी घास. इन सबसे इस पूरी धरती को अलग ही सौंदर्य हासिल हो रहा था. यह सितंबर के अंतिम दिन थे. सुबह के आठ-साढ़े आठ बजे हुए थे. लेकिन, सूरज बेहद चमकदार था. ऐसा लगता था कि कुछ ज्यादा ही सफेद रंग वाला दिन है. उजला सा.
गाड़ी पर आगे बढ़ते हुए कंटीले तारों की बाड़ दिखने लगी. हम बाड़ के किनारे-किनारे गाड़ी से चल रहे थे. यहाँ पर कोई सड़क नहीं थी. बस गाड़ियों के टायरों की लीक थी. जिसके बारे में वहाँ के लोगों को पता था. कोई अनजान चालक यहाँ पर रास्ता भूल सकता था. मैं अपने आसपास के सारे दृश्यों को अपनी आंखों में भरने की कोशिश में जुटा हुआ था.
तभी मैंने पहली बार स्पाइनी टेल लिजार्ड को देखा. हमारी गाड़ी की आवाज़ सुनकर वह अचानक चौंक गई. और तेजी से भागकर कुछ ही दूरी पर मौजूद अपने बिल में छिप गई. मैंने उसे साफ-साथ देखा. उसकी पूंछ पर हल्के कांटे उगे हुए थे. जो कि धारीदार पंक्तियों में सजे हुए थे. सूरज की रोशनी जब उसकी पूंछ पर पड़ रही थी तो उनसे हल्की नीले रंग की आभा निकलती हुई दिखती. मैं आपको यहीं पर बताता चलूं कि इससे पहले मैंने बहुत बचपन में कई बार स्पाइनी टेल लिजार्ड को देखा था. शायद आप लोगों ने भी उसे देखा हो. लेकिन, वह उसकी बहुत ही दैन्य अवस्था थी. अधमरी सी. जीवनहीन.
ये बेचारे इतने निरीह जीव हैं कि हम इंसानों की कुछ हवसों ने इनका जीवन छीन लिया है. स्पाइनी टेल लिजार्ड को ही स्थानीय तौर पर सांडा कहा जाता है. राजस्थान के जिस इलाके में वे रहते हैं, वे ज्यादातर मरु भूमि है. यहाँ पर गर्मियाँ जानलेवा होती हैं तो सर्दियां भी खून जमाने वाली पड़ती हैं. इसके चलते सर्दियों के कुछ हिस्सों में अपने पर्यावास के लिए विशेष तौर पर ढली यह छिपकली शीतनिद्रा जैसी स्थिति में चली जाती है. लंबे समय तक निष्क्रिय रहने के लिए उसे अपने शरीर में वसा एकत्रित करनी होती है. यह वसा वह अपनी पूंछ में एकत्रित करती है. इसी वसा के सहारे जब वह सर्दियों के समय में अपने बिल में छिपी रहती है तो शरीर ऊर्जा की न्यूनतम आवश्यकताएँ पूरी करता है.
यह वसा ही उसके लिए जानलेवा बन जाती है. बहुत सारे इंसानों के अंदर यह भ्रम है कि सांडे के शरीर की यह वसा यौन शक्ति में इजाफा करती है. इसके चलते जगह-जगह पर सांडे के तेल बेचने वाले अपना मजमा लगाते हैं. अपने कैशोर्य में मैंने ऐसे मजमे अपनी आंखों से देखे हैं. जहाँ पर मजमेबाज दरी बिछाकर ढेर सारे सांडे को लाइन से बैठाए रहता है. कहा जाता है कि सांडे की रीढ़ की हड्डी तोड़ दी जाती है. जिसके चलते वे भाग नहीं पाते हैं और अधमरे से पड़े रहते हैं. एक ओर मजमेबाज सांडे को किसी बर्तन में उबाल रहा होता है. इसके उबलने के बाद निकलने वाली वसा को ही वह सांडे का तेल कहकर बेचता है. यह इतनी हृदयविदारक और घृणित प्रक्रिया है कि इसकी जितनी भी निंदा की जाए कम है. जाहिर है कि इस अपराध में जुटे हुए लोगों को सजा दिलाने के साथ ही लोगों को इन निरीह जीवों के महत्व के प्रति जागरूक किए जाने की भी जरूरत है.
स्पाइनी टेल लिजार्ड एक खास किस्म के ईकोसिस्टम का हिस्सा है. इंसान के सिर्फ एक भ्रम के चलते आज इनके अस्तित्व पर संकट मंडराया हुआ है. क्या होगा जब वे समाप्त हो जाएंगे. यह ईकोसिस्टम बहुत कुछ खो देगा.
तो, मैंने जब स्पाइनी टेल लिजार्ड को भागते हुए देखा तो पहली बार मुझे अहसास हुआ कि मैं जंगल में आ चुका हूं. यहाँ पर सबकुछ बदला हुआ था. शहर के चिह्न नहीं थे. बस अहसास था कि दूर-दराज पर कहीं एक शहर मौजूद है. दूर-दूर तक धरती पीली-पीली और धूसर लग रही थी. आसमान नीला था. उसमें सफेद बादलों के कुछ अनगढ़ से टुकड़े तैर रहे थे. बस थोड़ी ही देर में हमारी गाड़ी भी उस बाड़ेबंदी के गेट पर पहुंच गई. यहाँ पर मेरा इंतजार ही किया जा रहा था. जंगल मुझे सहज कर देते हैं. मन खुश हो जाता है. किसी मॉल में जाकर मन पर न जाने कैसी मनहूसियत छा जाती है. कहीं भी देखने का मन नहीं करता. लेकिन, जंगल में जैसे हर किसी दृश्य को अपनी आँखों में बैठा लेने की इच्छा जगी रहती है. कुछ छूट न जाए. एक-एक दृश्य को पी जाऊं.
यहाँ मुझे बहुत ही शानदार आतिथ्य प्राप्त हुआ. जिस सौम्य और विनम्र आवाज़ से फोन पर मेरी बात हुई थी. अब वे मेरे सामने थे. जंगल की जिंदगी में मैंने खूसट लोग कम ही देखे हैं. ज्यादातर लोग बेहद खुशमिजाज, विनम्र और प्रकृति और वन्यजीवन में ही रमे हुए दिखते हैं. अपने आसपास के जीवन के लिए वे जीवन से भरे होते हैं. ऐसी ही कुछ विनम्रता और सौजन्यता मुझे उनके अंदर भी दिखी. उन्होंने बहुत ही प्यार से मेरा स्वागत किया. बात ही बात में मैंने उन्हें अपने आने का उद्देश्य बताया. कहा कि मैं गोडावण या सोनचिरैया पर एक किताब लिख रहा हूं. यह किताब हिन्दी में होगी और इस पक्षी के बारे में एक संपूर्ण पुस्तक होगी. उन्हें किताब का आईडिया बहुत ही अच्छा लगा. थोड़ा आश्चर्य भी हुआ कि मैं अपनी किताब के लिए दिल्ली से इतनी दूर चला आया.
नाश्ते के दौरान ही सोनचिरैया के बारे में तमाम बातें होती रहीं. जंगल में ग्रेट इंडियन बस्टर्ड का घोसला खोजना, उसमें ऐसे घोसले की पहचान करना जिसमें अंडे हो और मादा उसे ‘से’ रही हो, फिर उन अंडों को एकत्रित करके ले आना, एक बहुत ही श्रमसाध्य काम है. इसके लिए तमाम तरह की विशेषज्ञता की जरूरत होती है. क्योंकि, यह पक्षी जमीन पर घोसला बनाते समय कुछ घास-फूस भी एकत्रित नहीं करता. कोई कंकड़-पत्थर एकत्रित करके कटोरी जैसा बनाने की भी कोशिश नहीं करता. बस जहाँ छोटी सी गड्डेनुमा जगह होती है, वहाँ पर ये अपना घोसला बना सकता है. बस शर्त इतनी सी है कि आसपास घुटनों से थोड़ा नीचे तक पहुंचने वाली झाड़ियाँ होनी चाहिए, ताकि अंडे सेते समय भी यह दूर से आने वाले खतरों को भांप सके.
सोनचिरैया के बारे में तमाम खबरों, शोधपत्रों आदि को पढ़ने के बाद मेरे मन में एक सवाल बैठा हुआ था. सबसे पहले मैंने उन्हीं से पूछा कि क्या आपने कभी इसे किसी पेड़ पर या दीवार पर बैठे देखा है. मुझे लगता है कि मेरे इस नादान सवाल पर वे मन ही मन थोड़ा हंसे जरूर होंगे. उन्होंने कहा कि नहीं. यह पक्षी कभी पेड़ पर या दीवार पर नहीं बैठता. इसके पैर के पीछे तरफ की उंगलियां ही नहीं होती है. जिससे आमतौर पर पक्षी पेड़ों की डाल आदि पकड़ने का काम करते हैं. यह पक्षी पूरी तरह से जमीन पर रहने-दौड़ने के हिसाब से अनुकूलित है.
शरीर का वजन ज्यादा होता है. कई बात तो यह उड़ने में भी आनाकानी करता है. कोशिश करता है कि उड़ना नहीं पड़े. खतरा भांपकर यह तेज-तेज चलकर दूर भागने की कोशिश करता है. कई बार ऐसा भी होता है कि खतरा देखकर यह चुप-चाप बिना हिले-डुले बैठ जाता है. जैसे कि उसे अपने केमोफ्लाज या छलावरण पर भरोसा हो कि कोई उसे देख नहीं पाएगा. मुसीबत आने पर जब एकदम ही जरूरी हो जाता है तभी यह पक्षी उड़ान भरता है. पहले उड़ान को टालने का प्रयास करता है.
अच्छी खबर यह है कि कृत्रिम प्रजनन केन्द्र को चार साल के समय में ही अच्छी खासी सफलता मिली है. दोनों केन्द्रों में कुल 28 पक्षी हो गए हैं. इसी वर्ष यानी 2023 में कुल आठ बच्चों का जन्म हुआ है. इसमें से सात बच्चे तो उन अंडों से पैदा हुए हैं जो जंगल से एकत्रित करके केन्द्र में लाए गए और यहाँ पर कृत्रिम तरीके से उन्हें सेने का काम किया गया. जबकि, पहले से ही केन्द्र में रह रहे माता-पिता के मिलन से हुए अंडे से भी बच्चे को पैदा करने में केन्द्र को कामयाबी मिली है.
अब तक मेरे मेजबान ने मुझे गोडावण के प्रजनन और उनके पोषण से जुड़ी बातें लगभग बता दी थीं. खाने के मामले में यह पक्षी बहुत ही ज्यादा लचीला होता है. इसकी आहार सूची में मांसाहार और शाकाहार दोनों ही शामिल है. उन्होंने मुझे सबसे पहले वो जगहें दिखाई जहाँ पर गोडावण के लिए लाइव फीड यानी जिंदा भोजन तैयार किया जाता है. यहाँ पर कुछ अलग-अलग बक्सों में मील वर्म एक प्रकार के इल्ली जैसे कीड़े को तैयार किए जाते हैं. गोडावण जब छोटे होते हैं तब उन्हें यह खिलाया जाता है. फिर कुछ दूसरे बक्सों में झिंगुरों की फसल तैयार की जा रही थी. यहाँ पर अलग-अलग अवस्था के झिंगुर मौजूद थे. यह बेहद बारीकी का काम है. एक कटोरी में झिंगुरों के पीने के लिए पानी भी रखा हुआ था. लेकिन, कटोरी में सीधे पानी रखने से झिंगुर उसमें डूबकर मर भी सकते हैं. इसलिए उस कटोरी में छोटे-छोटे कंकड़ डाल दिए जाते हैं. जिससे नमी बनी रहती है और झिंगुर बिना अपनी जान को खतरे में डाले प्यास को बुझा सकते हैं.
कुछ अलग-अलग बाक्स में छोटी-छोटी चुहियों का पालन भी किया जाता है. गोडावण जब थोड़ा बड़े हो जाते हैं तो उन्हें ज्यादा पौष्टिक भोजन चाहिए होता है. ऐसे में उन्हें नियमित अंतराल पर चुहियों का भोजन भी कराया जाता है. इस दौरान जो चुहिया खाने से बची रह जाती हैं और बड़ी हो जाती हैं, बाद में उनसे प्रजनन कराकर अन्य चुहियों को पैदा कराने का काम किया जाता है. इस तरह से यह सिलसिला चलता रहता है.
(तीन) |
यहाँ के बाद हम एक दूसरे इंक्लोजर की तरफ बढ़े. जो करीब सात-आठ सौ मीटर की दूरी पर था. पहले एक बड़ी बाड़े बंदी थी. उसके अंदर हल्के झीने पर्दे से ढकी हुई जगहें बनाई गई थी. यहाँ से मुझे गोडावण की पहली झलक दिखाई पड़ी. रोमांच से मेरे रोंगटे खड़े होने लगे. अब वह क्षण आ चुका था, जब मुझे इस पक्षी का दीदार होने वाला था. इसके लिए मैंने कई सालों तक इंतजार किया. कई सौ किलोमीटर की थका देने वाली यात्रा की.
बड़ी वाली बाड़ेबंदी में लगे ताले को खोलने में कुछ समय लगा. लेकिन, इतनी देर में भी मुझे बेचैनी सी होती रही. फिर हम अंदर गए. दूर से ही मुझे गोडावण के उन भूरे-सुनहरे पंखों का अहसास होने लगा था. उसकी वह लंबी सुराहीदार गर्दन भी दिख रही थी. हम दबे पांव चलते हुए उसके बाड़े के पास पहुंचे. लेकिन, मेरा आभास पाकर पक्षी थोड़ा बिदक गया. मैंने केमोफ्लॉज ट्राउजर के साथ एक टीशर्ट पहन रखी थी, जिसमें लाल, सफेद, बैंगनी, नारंगी रंग मौजूद थे. शायद इतने ढेर सारे रंगों और एक अजनबी को देखकर पक्षी की सहज वृत्ति जाग गई. थोड़ी देर के लिए मैं पीछे हो गया. फिर दबे पांव चलता हुआ बाड़े के पास आ गया. जालीदार बाड़े के अंदर वह मौजूद था. नीचे की जमीन रेतीली थी. पक्षी के साथ उसके पालक मौजूद थे. वे उसके साथ रहते हैं. उसके साथ खेलते या उसे कसरत कराते हैं. उसे भोजन देते हैं. पक्षी उनके साथ रहने का अभ्यस्त होता है.
इस बार जब मैं बाड़े के पास पहुंचा तो गोडावण बाड़े के एकदम पास आकर अपनी चकर-मकर आंखों से मुझे देखने लगा. यह सचमुच एक बड़ा पक्षी था. लंबी मजबूत टांगे. पूरा शरीर सुडौल. पेट और गर्दन पर सफेद पर. गले में काले रंग के परों का एक कंठा. शरीर की तुलना में पूंछ छोटी. गर्दन लंबी और सुडौल. जब वह चलता है तो सचमुच उसकी चितवन देखते ही बनती है. सिर पर काले पंखों का एक छोटा सा मुकुट. या उसे टोपी भी कह सकते हैं. उस टोपी में से कुछ बाल चोटी की तरह पीछे की तरफ निकले हुए. अपने पालक के साथ मौजूद यह पक्षी अपनी खुशी भी प्रदर्शित कर रहा था. बीच-बीच में वह अपने गर्दन के पंख फुला लेता और अलग-अलग किस्म की छोटी कलाबाजियाँ करके दिखाता. पालक ने बताया कि इसके जरिए वह पक्षी अपनी उत्तेजना को जाहिर कर रहा है. यह भय में आने वाली उत्तेजना नहीं है. बल्कि, वह सहज हो गया है. मैं कुछ देर तक मंत्रमुग्ध होकर उसे देखता रहा. अपने मोबाइल से मैंने कुछ फोटोग्राफ भी उसके लिए. हालांकि, बीच में मौजूद जाली के चलते फोटोग्राफ ज्यादा अच्छे आने की उम्मीद कम थी. इसलिए मैंने बहुत ज्यादा कोशिश भी नहीं की. बस मैं उसे अपनी आँखों में ज्यादा बिठाने की कोशिश में था.
खूब भर नजर मैंने उसे देखा. गहरी लंबी सांसें लेता रहा. यहाँ पर वह बंदी अवस्था में था. पाल्य अवस्था में था. शायद उसके प्राकृतिक आवास में बहुत दूर से मुझे उसकी एक झलक मिलती और वह गायब हो जाता. या फिर उसकी झलक भी नहीं मिलती. लेकिन, यहाँ पर वह मेरे सामने मौजूद था और मैं उसे भर नजर देख सकता था. हालांकि, वह बंदी था. लेकिन, इस प्रजाति के भविष्य के लिए फिलहाल यह भी बेहद जरूरी है. वह अपनी संततियों को आगे बढ़ाएगा. उससे आने वाली संततियाँ पैदा होंगी. एक समय ऐसा आएगा कि इतने पर्याप्त पक्षी होंगे जब उन्हें फिर से प्राकृतिक आवास में छोड़ा जा सके. नैतिकता के सवालों को छोड़ दिया जाए तो हाउबारा बस्टर्ड की प्रजाति को बचाने के लिए इस तरह के विज्ञान और तकनीक को खोजा जा चुका है. इससे बस्टर्ड की अन्य प्रजातियों को बचाने में भी मदद मिली है. यह विशेषज्ञता भारत में गोडावण और खरमोर के अस्तित्व को बचाने में भी काम आ रही है.
कुछ देर वहाँ पर बिताने के बाद हम लोग बाहर निकले. इंक्लोजर के बाहर का नजारा मुझे किसी अफ्रीकी सवाना जैसा लगा. मानसून के समय में उगने वाली टखने से ऊपर तक की घासें अब सूखकर पीली पड़ चुकी थीं. दूर-दूर तक वे फैली हुई थी. बीच-बीच में इक्का-दुक्का खेजड़ी, बेर, मिसवॉक और सफेद बबूल के पेड़ खड़े थे. यहाँ से निकलकर हम एक दूसरे बाड़े में पहुंचे. यहाँ पर गोडावण को खिलाई जाने वाली शाकाहारी चीजें तैयार की जा रही थीं. इसमें अनार के पेड़ से लेकर अल्फाल्फा घास तक शामिल है. इन सभी चीजों को गोडावण को खिलाया जाता है. केन्द्र में मौजूद सभी गोडावण पक्षियों को अलग-अलग टैग या नाम या पहचान दी गई है. ताकि, यह ध्यान रखा जा सके कि किस पक्षी को कितना पौष्टिक भोजन कराया जा चुका है. ताकि, सभी को संतुलित भोजन मिल सके. उनके स्वास्थ्य पर निगाह रखने में भी इससे आसानी होती है.
सच कहूं तो मेरी यात्रा का एक चरण यहाँ पर पूरा हो चुका था.
(चार) |
रामदेवड़ा के इस केन्द्र में मैं फिर ज्यादा देर नहीं रहा. गोडावण से मुलाकात के बाद बाहर निकला तो पहली बार मुझे अलग तरह के घास के मैदान के दर्शन हुए. मानसून के सीजन में उगी हुई घास टखने से थोड़ा ज्यादा ऊंचाई तक की हो चुकी थी. कभी हरी-भरी रहने वाली घास का रंग अब सफेदीपन लिए हुए पीला था. बीच-बीच में खेजड़ी, मिसवाक, बेर या सफेद बबूल के पेड़ भी दिख रहे थे. ऐसा लगता कि जैसे अफ्रीका के घसियाले मैदानों के बीच मैं गर्मी के मौसम में पहुंच गया हूं.
रामदेवड़ा केन्द्र में कुछ समय और बिताकर और जैसलमेर के आगे सम गांव में बने दूसरे केन्द्र में जाने आदि का वायदा लेकर मैं वहाँ से चला आया. मुश्किल से साढ़े ग्यारह बजे होंगे जब मैं दोबारा राम देवड़ा के रेलवे स्टेशन के सामने खड़ा था. उनकी गाड़ी मुझे यहाँ पर छोड़ गई थी. चार-पांच घंटे बाद ही जैसलमेर के लिए कोई ट्रेन जानी थी. तो एक ऑटो पर सवार होकर मैं पोखरण की तरफ बढ़ चला. ऑटो मुझे लेकर हाईवे की तरफ बढ़ा. इस रास्ते के किनारे-किनारे मिसवॉक के तमाम पेड़ मुझे दिख रहे थे. जिनमें झंडियां फंसी हुई थीं. जगह-जगह अभी-अभी बीते यहाँ लगने वाले मेले के निशान दिख रहे थे.
रास्ते के एक तरफ लंबी दूरी तक मुझे चप्पलें और जूते छूटे हुए दिखाई पड़े. यह मुझे काफी असामान्य बात लगी. एक-दो चप्पल-जूते सड़क के किनारे पड़े रहें तो हैरत नहीं. लेकिन, इतनी बड़ी संख्या में और इतनी दूरी तक. ऐसा क्यों. ऑटो वाले ने बताया कि दर्शन के लिए आने वाले बहुत सारे लोग पैदल यात्रा करते हैं. इस दौरान वे अपने जूते भी निकाल देते हैं और नंगे पांव ही बाबा के मंदिर तक जाते हैं. उसी के चलते रास्ते के किनारे यह जूते-चप्पलों का ढेर लगा रहता है.
कोई एक बजे के लगभग ऑटो वाले ने मुझे पोखरण पहुंचा दिया. रामदेवड़ा एक गांव जैसा था. लेकिन, पोखरण उससे बड़ा एक कस्बे जैसा लगा. लेकिन, इससे पहले कि मैं उसे कुछ ठीक से देख पाता, सामने जैसलमेर की बस लगी हुई थी. मैं भागकर बस में चढ़ गया.
अभी तक का दिन बहुत संतोष भरा था. मैं बस की सीट पर आराम से पसर गया. बीच के कॉरीडोर के बाद वाली सीट पर एक बुजुर्ग बैठे हुए थे. वे पोखरण के बगल में किसी गांव में रहते थे. किसी काम से कस्बे में आए थे और गांव की तरफ लौट रहे थे. उनकी दिलचस्पी बस में बैठे हर बाहरी यात्री में थी. स्थानीय लोगों से बात करने में उन्होंने खास रुचि नहीं दिखाई. मुझसे मेरे बारे में पूछा. मैं कहाँ से आ रहा हूं. क्या करता हूं. फिर मेरी पीछे वाली सीट पर बैठे दो लोगों से बात करने लगे.
इनमें से एक तो चुप्पा था. कम बोलने वाला और दूसरों की बात पर ज्यादा ध्यान नहीं देने वाला. लेकिन, दूसरा मेरठ का रहने वाला था. दोनों किसी सशस्त्र बल में थे और छुट्टियाँ काटकर लौट रहे थे. उन बजुर्ग सज्जन ने उनसे कुछ बातचीत छेड़ दी. शुरुआत आर्मी वालों को वन रैंक वन पेंशन के मुद्दे से शुरू हुई. फिर, आर्मी वाले और सशस्त्र बलों की स्थिति पर पहुंची. अग्निवीर योजना पर पहुंची और राजस्थान और उत्तर प्रदेश की स्थिति पर पहुंच गई. बुजुर्ग सज्जन हर बात में केन्द्र की सरकार की नीतियों के आलोचक थे. जबकि, सशस्त्र बल का वह जवान हर मुद्दे पर समर्थक था और बहुत ही बलपूर्वक अपनी बात रखता था. अपनी बात साबित करने के तर्क और तथ्य भले उसके पास नहीं थे लेकिन उसे उन पर विश्वास बहुत था. अपने विश्वास के जोर से वह बुजुर्ग के तर्कों को काटने की कोशिश करता. मेरे पीछे हो रही इस चर्चा को मैं कान लगाकर सुनता रहा. कई बार मेरा भी मन इसमें हस्तक्षेप करने का हुआ, कुछ नए तथ्यों को जोड़ने का हुआ. लेकिन, अब मैं जानता हूँ कि बस या रेल में किसी अजनबी से बहस करने के परिणाम बहुत घातक हो चुके हैं. खासतौर पर उससे तो कभी भी बहस नहीं करो जिसे हथियारों की ट्रेनिंग मिली हो, जिसके पास हथियार होने की संभावना हो. बुजुर्ग सज्जन बहस करना अफोर्ड कर सकते थे. क्योंकि वे स्थानीय थे, आर्मी से रिटायर्ड थे, उनके दो बेटे आर्मी में नौकरी कर रहे थे. मैं नहीं.
खैर, बुजुर्ग सज्जन को कुछ ही दूर आगे रुकना था. तो वे उतर गए. इस बीच उन्होंने मुझे चलती बस से ही वह हिस्सा दिखाने की कोशिश की जहाँ पर पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद बाड़ेबंदी कर दी गई है और उसके आगे जाने का अधिकार किसी को नहीं है. हालांकि, दूर-दूर तक फैले मरुस्थल, मध्यम आकार के पेड़ और झाड़ियों के बीच उस जगह को देख पाना मुश्किल था. लेकिन, उन्होंने मुझे फौजियों के कुछ वॉच टावर दिखाने का प्रयास किया. बोला कि उसके आगे ही दूर कहीं जाकर परमाणु परीक्षण किया गया था. मैं कुछ समझता और कुछ नहीं समझता हुआ बस हामी भरता रहा.
यहाँ पर मुझे बड़ी तादाद में मैक्सिकन कीकर या विलायती कीकर भी दिखाई पड़े. आक्रामक प्रजाति का यह पौधा आज देश के काफी बड़े हिस्से में दिखने लगा है. दिल्ली में तो इस आक्रामक प्रजाति के पौधे को हटाने की बात लंबे समय से कही जाती रही है और इस पर मामूली तौर पर कुछ अमल भी हुआ है. लेकिन, यहाँ वे दूर-दूर तक फैले हुए दिखते हैं. ऐसा कैसे. क्योंकि, इन पेड़ों को पानी के मामले में बेहद खराब बजट वाला कहा जाता है. इनके पत्ते आदि को पशु भी नहीं खाते. ऐसे में इनकी उपयोगिता कम हो जाती है. अपने आसपास किसी अन्य पौधे को उगने नहीं देते और खुद बेहद तेजी से बढ़ते हैं. इसलिए भी अन्य स्थानीय वनस्पतियों को इनसे खतरा होता है. इसलिए इन आक्रामक प्रजातियों की रोकथाम पर काम किया जा रहा है. लेकिन, बुजुर्ग सज्जन ने बताया कि इन पेड़ों की वजह से रेतीली धूल ज्यादा तेज गति से आगे नहीं बढ़ती है. इससे रेगिस्तान को फैलने से रोकने में मदद मिलती है. उन्होंने मुझे यही बताया. अब इसके पीछे कोई विज्ञान है या नहीं, इस विषय में मैं कुछ खास नहीं कह सकता.
खैर, तीन बजे तक मैं जैसलमेर पहुंच गया. जब मैं बस से उतरा तो सामने ही ऊंचाई पर जैसलमेर का किला दिख रहा था. मुझे किसी परिचित ने बताया था कि किले और किले के आसपास रहने के सस्ते और महंगे दोनों ही तरह के होटल मिल सकते हैं. तो मैं बिना किसी से कुछ पूंछे-आंछे सीधे ही किले की दिशा में चल पड़ा.
ऊंचाई पर बने इस किले की उँचान जहाँ से शुरू होती है, वहीं से ढेरों होटलों की शुरुआत हो जाती है. कोई महल है तो कोई कोठी, तो कोई हवेली. सब में कमरे उपलब्ध है. बाहर से इनकी बनावट तो काफी कुछ विरासती है. बाद में मैंने कुछ जगहों पर ध्यान दिया कि हवेलियों को बनाया तो उसी पैटर्न पर जाता है, जिस पैटर्न पर दिल्ली या अन्य जगहों पर. जैसे पहले आरसीसी के पिलर और छतें ढाल दी जाती हैं. फिर उसे बाद में ऐसा लुक दे दिया जाता है जो राजस्थान के किलों और हवेलियों की पहचान होती हैं. वैसी ही मेहराबें और खिड़कियों की चिलमनें. खैर, सीमित अनुभव के आधार पर आखिर ये बात मैं बहुत निश्चित होकर कहूं भी तो कैसे.
थोड़ी-बहुत देखभाल के बाद मुझे एक हवेली में कमरा मिल गया. यहाँ पर मुझे दो-तीन रातें रुकना था. इसलिए कमरा थोड़ा बेहतर लेने पर जोर था. जिस हवेली में मैं रुका था, उससे पतली-संकरी गलियाँ निकलकर किले की तरफ जाती थीं. पूरे समय मुझे किले के परकोटे दिखते रहे और किस दिशा में मुझे जाना है, इसका मार्गदर्शन करते रहे. किले की लंबाई-चौड़ाई मुझे बहुत ज्यादा लगी. मुझे कुछ भी आईडिया नहीं था. किले के बाहर से ही एक स्कूटी किराए पर ले ली और किले की तरफ बढ़ गया.
सचमुच यह एक विशालकाय किला है. यह मेरे देखे में सबसे अनोखा किला था. मैंने अभी तक जितने भी किले देखे हैं, उनमें से ज्यादातर में मुझे संग्रहालय मिला है. या फिर उन्हें किसी बड़े होटल वाले को किराए पर दिया हुआ है. कुछ हिस्सों में राजपरिवार के लोग रहते भी हैं. लेकिन, जैसलमेर का किला पूरा एक जीता-जागता किला है. यहाँ पर दो-ढाई सौ परिवार रहते हैं. उन्होंने टूरिस्टों के लिए तमाम दुकानें खोल रखी हैं. रेस्टोरेंट हैं, होटल हैं. रेस्तराओं की सेटिंग इस तरह की है कि छत पर रात में महफिल सजाई जा सके. बाकी, सजावटी कपड़ों, सजावटी सामानों की ढेर सारी दुकानें हैं. पतली-पतली गलियाँ. किले के परकोटे पर खड़े होकर फोटो खिंचाने वालों की भीड़ लगी है. मैं भी वहाँ पर घूमने आए दो युवकों से अपने मोबाइल से कुछ फोटो क्लिक करने की गुजारिश करता हूं. मेरे पीछे पूरा जैसलमेर शहर बिखरा पड़ा है. मैं ऊपर किले के परकोटे पर खड़ा हूं. पूरे शहर का रंग पीला है. जैसे चटक हल्दी के रंगों में हल्का सा मैदा मिला दिया गया हो. जिससे पीलेपन की चमक कुछ फीकी पड़ गई हो.
परकोटे के एक कोने पर शायद पीतल से ढली हुई तोप की एक नली रखी हुई है. एक कोने में एक आदमी जमीन पर ही अपने हार्मोनियम के साथ बैठा हुआ है. उसकी वही खरखरी सी आवाज़ है. उसी में उसका लहरदार गाना गूंजता हुआ दिखता है, केसरिया बालमा. आओ-आओ, पधारो म्हारे देश. उसका गाना सुनने, उसके साथ सेल्फी खिंचाने और अपने दोस्तों-मित्रों को लाइव दिखाने का युवाओं में जोर है. गायक के हार्मोनियम के पास उसकी कमाई के नोट पड़े हैं. लोगों की भीड़ देखकर उसकी आवाज़ और ऊंची हो जाती है. किले का परकोटा, नीचे पूरा बिखरा हुआ जैसलमेर शहर, परकोटे पर रखी हुई पीतल से ढली तोप की नली और उस पर वह गूंजती हुई आवाज, सबकुछ जैसे किसी जादू के जोर से बंधा हुआ था.
स्कूटी से किले का कोना-कोना छानते हुए फिर मैं वापस लौटा. यहाँ पर स्कूटी वापस की और उससे अगले दिन सम गांव के लिए मोटर साइकिल किराए पर लेने की मोलभाव करने लगा. सुबह नौ बजे उससे बाइक लेने की बात तय हुई.
अगले दिन सुबह उठकर मैं यूं ही हवेली से काफी दूर तक घूमने चला गया. इस दौरान मैंने नाश्ता वगैरह किया और अपने कमरे में आकर नहाने के बाद मैं सम गांव के लिए तैयार हो गया. बाइक लेकर मैंने सोचा कि जैसलमेर की कुछ और जगहों का चक्कर मार लिया जाए. तो सबसे पहले में गढ़ीसर लेक पहुंचा. यह एक बड़ी झील है, जिसके किनारे चबूतरे बने हुए हैं. विरासती छवि वाली छतरियाँ बनी हुई हैं. पानी इतना साफ है कि ढेरों मछलियां साफ तैरती हुई दिखती हैं. किसी जोड़े का प्री वेडिंग शूट चल रहा था.
मैं हमेशा सोचता हूं कि हमारे समाज में सचमुच प्यार कितनी दुर्लभ चीज है. क्या हम प्यार के नाम पर सिर्फ प्यार का अभिनय करते हैं. दिखावा करते हैं. या सचमुच वह कहीं पर एक्जिस्ट भी करता है. भावी वर और वधु एक से एक मुद्राओं में फोटो खिंचा रहे थे. एक पूरी टीम थी, जो दूर से उनके ऊपर रोशनी भी डाल रही थी, फोटोग्राफर उन्हें मुद्राएं बता रहे थे, मेकअप आर्टिस्ट थे जो उनके मेकअप और कपड़ों को लेकर सजग थे. भावी वर और वधू का एक-एक दोस्त या कजिन भी था. जिसके चलते दोनों का थोड़ा आत्मविश्वास बना हुआ था. घरवाले मोलभाव कर चुके थे. अब उन्हें शादी करनी थी. उन्हें एक-दूसरे को प्यारी चितवनें और मुस्कानें देनी थी. फिर प्यार के दिखावे का यह गठबंधन न जाने कितने सालों तक चलता रहेगा. कुल मिलाकर यह किसी छोटी-मोटी फिल्म की शूटिंग जैसा था. इसे देखना मनोरंजक और रोचक था.
यहाँ पर एक विशालकाय मिसवॉक के पेड़ के नीचे एक बुजुर्ग हार्मोनियम लेकर बैठे थे. यहाँ पर भी संगीत की चढ़ती-उतरती धुनों के साथ ही केसरिया बालम को अपने देश में पधारने के लिए आमंत्रित किया जा रहा था. वहाँ पर घूमने वालों में विदेशी पर्यटकों की संख्या भी काफी थी. उन्हें भी प्री वेडिंग शूट में काफी मनोरंजन हासिल हुआ. फिर वे बुजुर्ग का गाना सुनने बैठ गए. उस कलाकार को लोगों से संवाद बनाना आता था. पर्यटकों के समूह में दो महिलाओं को गाने में कुछ ज्यादा ही दिलचस्पी थी. कलाकार ने उनसे उनका नाम पूछा. एक ने अपना नाम रोमिला और दूसरे खास्मोलीरा जैसा कुछ नाम बताया. बुजुर्ग ने गाने की धुन बदल दी और होलिया में उड़े रे गुलाल गाने लगे. इस गाने में उन्होंने रोमीला और खास्मोलीरा नाम को कुछ इस तरह से फिट कर दिया कि दोनों महिलाएँ और भी ज्यादा खुश हो गईं. आप जानते ही हैं कि तारीफ से किसी का भी दिल जीता जा सकता है. उन्होंने कलाकार को अच्छी फीस दी और उनके साथ सेल्फी भी ली. माहौल रमणीक था. मेरा भी मन उनके साथ सेल्फी का था. लेकिन, फिर मैंने इसे टाल दिया. भाई, तू यहाँ सैलानी होकर नहीं आया है. तू शोधार्थी है.
तो बस मेरा समय हो गया था. मैंने बाइक उठाई और सम गांव की ओर चल पड़ा. यह जैसलमेर से लगभग चालीस किलोमीटर दूर है.
पांच |
यह कोई दस-साढ़े दस का वक्त रहा होगा. मैंने जैसलमेर से सम गांव के लिए यात्रा शुरू की. मुझे कोई जल्दी नहीं थी. बल्कि आराम से बाइक चलाते हुए जाना था. रास्ते का नजारा देखते हुए. अक्तूबर की शुरुआत हो चुकी थी. लेकिन, आसमान में खासा तेज और चमकदार सूरज चमक रहा होगा. उसकी रोशनी से ही उसके जलाल का अहसास हो रहा था. धीरे-धीरे घर-मकान-दुकान सब पीछे छूट गए. पीतवर्णी जैसलमेर शहर पीछे छूट गया.
उसके बाद जिस दुनिया में मेरा प्रवेश हुआ, वह एक अलग ही दुनिया थी. इसकी तस्वीरें तो मैं बरसों से देखता रहा था लेकिन यह दुनिया मेरे सामने इस तरह से जाहिर नहीं हुई थी. दूर-दूर तक मरुभूमि का अहसास था. रास्ते में कुछ जगहें ककरीली-पथरीली थी. कुछ जगहें ढीली मिट्टी वाली. कुछ जगहें काफी रेतीली. सेवण घासों के छोटे-छोटे समूह बीच-बीच में उगे हुए. बीच-बीच में कोई पेड़ भी दिख जाता. यहाँ पर पहली बार मैंने उन विशालकाय दैत्यों को देखा, जिनकी तस्वीरें भी मुझे हैरान करती रही हैं. जी हां, जैसलमेर नगर पालिका की सीमा समाप्त होने के बाद पांच-दस किलोमीटर दूरी से थोड़ी-ऊंची नीची जमीन शुरू हो जाती है. इसमें दूर-दूर तक मुझे विशालकाय पवनचक्कियों की कतारें लगी हुईं दिखाई पड़ती हैं. वे सचमुच काफी विशालकाय हैं.
उनके विशालकाय पंख इस समय शांत पड़े हुए थे. या फिर बहुत ही धीमे-धीमे अलसाए हुए से घूम रहे थे. इन विशालकाय पवनचक्कियों से ग्रीन ऊर्जा पैदा की जा रही थी. जिसे बिजली की मोटी-मोटी हाईटेंशन लाइनों के जरिए दूसरी जगहों पर पहुंचाया जा रहा था. हमारे शहरों में. जहाँ इस ऊर्जा की सबसे ज्यादा जरूरत थी. वे शहर इस ऊर्जा के भूखे थे. उनकी भूख मिटानी जरूरी थी. इसके बिना वे मर सकते थे.
यहाँ पर पहली बार मैंने उन बड़े-बड़े बर्ड डायवर्टर को भी देखा. जिन्हें इन बिजली की हाईटेंशन लाइनों पर लगाया हुआ था. क्योंकि, यह विशालकाय पवनचक्कियाँ और हाईटेंशन लाइन सोन चिरैया की मौत के आधुनिक कारणों में सबसे ज्यादा घातक साबित हो रहे हैं. दरअसल, सोन चिरैया सामने की तरफ बहुत ज्यादा साफ और दूर तक नहीं देख पाती है. शरीर उसका बड़ा होता है. इसलिए उड़ान भरते समय अक्सर ही वह हाईटेंशन लाइन से टकरा जाती है. या टकरा जाने का खतरा रहता है. इस तरह से कई पक्षियों की मौत हो चुकी है. पक्षी को पहले ही उड़ान के समय अपने मार्ग के अवरोध का ज्ञान हो जाए, इसलिए इस तरह के बर्ड डायवर्टर लगाए जाते हैं. हालांकि, इनकी सफलता को लेकर भी अलग-अलग लोगों की राय अलग है.
हमारी सड़कें जानलेवा हैं. खासतौर पर वन्यजीवों के लिए. और इनकी मौत की कोई गिनती भी नहीं होती है. अगर आप कहीं भी सड़क की थोड़ी लंबी दूरी की यात्रा करें तो आपको सड़कों का शिकार होने वाले जीवों के क्षत विक्षत शव मिल सकते हैं. इन्हें रोड किल कहा जाता है.
सम गांव की तरफ जाते हुए मुझे इसका बेतरह अहसास हुआ. रास्ते में मैंने बीच सड़क एक छोटे जानवर का क्षत-विक्षत शव पड़ा हुआ देखा. मैं अपनी बाइक किनारे रोककर उसके पास गया. ओह, यह एक हेज होग था. एक कांटेदार चूहा. इसके शरीर पर भी साही की तरह ही कांटे निकले होते हैं. मैंने इसे हमेशा तस्वीरों में देखा था. लेकिन, अब जब देख भी रहा हूं तो यहाँ पर उसका क्षत-विक्षत शव. पीठ वाली जगह पर जहाँ शरीर थोड़ा सलामत था, मैंने छूकर उसके शरीर के कांटों का अहसास किया. हाँ, ये छोटे-छोटे और मजबूत कांटे जैसे हैं. इनकी वजह से इस चूहे का शिकार काफी मुश्किल साबित होता होगा, इसके शिकारियों के लिए. मैंने पहली बार हेज होग के बारे में तब पढ़ा था, जब दिल्ली में कोई इसे चोरी-छिपे पालने के लिए ले आया था और उसके पास से इन जीवों को रेस्क्यू करा लिया गया था. एंथ्रोपोजेनेटिक कारणों से ही आज इन कांटेदार चूहों के जीवन पर भी संकट छाया हुआ है.
इसके कुछ ही आगे जाने पर ऐसे ही मुझे एक नेवले का शव भी मिला. यह भी सड़क पार करने की कोशिश में मारा गया था. उसके पर्यावास से गुजरती हुई यह चौड़ी काली सड़क उसके लिए मौत से कम नहीं होगी. हर बार जब वह इसे पार करता होगा, उसे मौत को चकमा देना पड़ता होगा. इस बार वह मौत को चकमा नहीं दे सका. मौत ने उसे चकमा दे दिया. इसके कुछ ही आगे मुझे एक स्पाइनी टेल लिजार्ड का भी आधा शव मिला. इस लिजार्ड का पूरा शरीर गायब था, सिर्फ पूंछ और पिछले पैर का एक पंजा सलामत था. जरूर इसका किसी ने शिकार किया होगा और शरीर का पूरा हिस्सा खा लिया होगा. जो बचा हुआ हिस्सा वह छोड़ गया. शायद बाद में वह फिर खाने के लिए आए. उसकी पूंछ पर उभरे हुए कांटे भी साफ नजर आ रहे थे. जिसके चलते ही इसे स्पाइनी टेल लिजार्ड कहा जाता है. इसके जीवन पर छाए संकटों के बारे में हम पहले ही बात कर चुके हैं.
बाइक चलाते हुए पूरे रास्ते मैंने जिन कुछ बातों पर खास गौर की थी, उसमें किनारे पड़ी हुई बोतलें भी शामिल हैं. जैसलमेर से पूरे सम गांव तक सड़क के दोनों किनारों पर मुझे बीयर के केन और व्हिस्की आदि की बोतलें पड़ी हुई दिखाई पड़ीं. ठीक वैसे ही जैसे रामदेवड़ा में सड़क के किनारे जूते और चप्पलों के ढेर पड़े हुए थे. गाड़ियाँ तेज-तेज भाग रही थीं. आवागमन के लिए अलग-अलग सड़क नहीं थी. दूर-दूर तक वीराना था. इसलिए इन भागती हुई सड़कों पर किसी बाइक वाले के लिए किनारे हो जाना ही सबसे सहज और सुरक्षित है. सम गांव से कुछ पहले ही तमाम रिसार्ट शुरू हो जाते हैं. हमारा देश विडंबनाओं और विरोधाभासों से भरा हुआ है. सैलानियों को आकर्षित करने के लिए लगाए हुए इनमें से कई बोर्ड में लिखा हुआ है, एसी टेंट. यानी उनके यहाँ जो टेंट लगाए गए हैं वे वातानुकूलित हैं. मुझे हंसी आती है. वे कौन लोग हैं, जिन्हें रेगिस्तान का अहसास भी लेना है और वातानुकूलित टेंट में भी रहना है.
तमाम जगहों पर लगे हुए बोर्ड गुजराती भाषा में भी लिखे हुए हैं. इससे गुजरात से आने वाले पर्यटकों की खासी संख्या का भान होता है. गढ़ीसर लेक पर जो जोड़ा प्री वेडिंग फोटो शूट में जुटा हुआ था, वह भी गुजराती था. गुजरात के निशान इस पूरी जगह पर बिखरी हुई थी. न जाने क्यों सड़क के किनारे पड़ी हुई उन खाली बोतलों का संबंध मैं बार-बार गुजरात में लागू नशाबंदी से जोड़ लेता हूं. यह कारण हो सकता है और नहीं भी हो सकता है.
रिसार्ट वगैरह की बहुतायत के बाद मैंने रास्ते में पहली बार मरुस्थल की उस जगह का दीदार किया, जिसे हम आमतौर पर तस्वीरों में देखते हैं. यहाँ पर काफी दूरी तक फैला हुआ एक रेतीला टीला है. यहाँ की उड़ती हुई रेत ऊंचाई-निचाई वाली एक अलग ही भू-दृश्य तैयार करती है. इसी रेत पर हवाओं के चलने के निशान बन जाते हैं. पर्यटकों को ऊंटों की सैर कराई जाती है. लोग अपनी मुट्ठी में रेत को बंद करने की कोशिशों के फोटो खिंचवाते हैं और ब्लाग बनाते हैं. खैर, यह मेरी मंजिल नहीं थी. मुझे आगे जाना था.
रिसार्ट वगैरह पीछे छूटने के बाद सम गांव शुरू होता है. यहाँ पर चौराहे पर ही रास्ता पूछने और चाय पीने के लिए मैं रुका. चाय की दुकान पर जो लड़का बैठा था, जब मैंने उससे गोडावण पक्षी और उसके प्रजनन केन्द्र के बारे में पूछा तो उसने तुरंत ही हामी भर ली. उसने बताया कि वह भी एक बार गोडावण के अंडे खोजने वाली टीम में शामिल हो चुका है. उसने मुझे रास्ता बताया.
मैं उसी पर चल पड़ा. आगे जाकर वन विभाग का एक बैरियर मुझे दिखाई पड़ी. उसके कार्यालय जैसा भी अंदर परिसर में था. मुझे वहाँ पर किसी के दर्शन नहीं हुए. सामने डिजर्ट नेशनल पार्क का बोर्ड लगा हुआ था. मैंने अपनी बाइक को आगे बढ़ा दी. डिजर्ट नेशनल पार्क की सीमा शुरू हो चुकी थी. दूर-दूर तक मरु भूमि के वैसे ही नजारे थे जिनका जिक्र मैं पहले ही कर चुका हूं. इस तरह से मैं करीब सात-आठ किलोमीटर दूर चला गया. मुझे लगा कि मैं आगे आ गया हूँ. मैं किसी से इस बारे में पूछना चाहता था, लेकिन वहाँ था कौन. दूर-दूर तक आदमी नहीं दिख रहा था. सड़क सीधी थी तो भटक जाने का डर नहीं था. पर मेरे पास वापस लौटने के अलावा कोई विकल्प नहीं था. वापस लौटकर मैं वहीं पर आया, जहाँ पर बैरियर लगा हुआ था. उसके बगल में बने हुए परिसर के अंदर मैं गया. वहाँ पर सुरक्षा कर्मी तो मौजूद था, लेकिन उसे गोडावण प्रजनन केन्द्र के बारे में जानकारी नहीं थी. यह वन विभाग की चौकी थी. उसने अंदर मौजूद अपने किसी अधिकारी से इस बाबत पूछा. मैंने बताया कि प्रजनन केन्द्र में मेरी बात हो चुकी है. बस वह है कहाँ, मुझे यह बता दीजिए.
उसने कुछ ही दूरी पर मौजूद एक दीवारों से घिरे एक अलग परिसर की तरफ इशारा किया. उसने कहा कि जिनसे मिलने वाले हैं, उनको फोन करके उस परिसर का गेट खुलवा लीजिए. मैंने फोन किया. इस दौरान वह इस बात की पूरी ताकीद करता रहा कि उधर से मुझे बुलाया जा रहा है या मैं अवांछित मेहमान हूं. सामने से भी जवाब मिलने के बाद उसने मुझे गेट की तरफ इशारा कर दिया.
सम गांव में स्थापित किया गया गोडावण प्रजनन का यह केन्द्र बेहद महत्वपूर्ण है. कृत्रिम प्रजनन के लिए सबसे पहले इसे ही स्थापित किया गया था. रामदेवड़ा वाला केन्द्र इसके बाद बना है, इसलिए वह काफी बड़ा और ज्यादा व्यवस्थित है. लेकिन, सम गांव के इस केन्द्र में अभी भी सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण काम किया जाता है.
वह है अंडे को सेने और चूजों की शुरुआती देखभाल करने का काम.
किसी भी जीव के लिए उसके जीवन के शुरुआती कुछ मिनट, कुछ घंटे और कुछ दिन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं. उसी पर उसकी आगे की जिंदगी टिकी रहती है. उस समय मिलने वाली देखभाल उसे आगे की जिंदगी के लिए तैयार करती है. गोडावण की जिंदगी के लिए भी सम गांव का यह प्रजनन केन्द्र बेहद महत्वपूर्ण होता है. अंडे से बाहर निकलने के बाद सबसे पहले उनकी देखभाल यहीं पर की जाती है.
आप लोगों ने शायद चिड़िया के घोसले की तस्वीरें देखी होंगी. कुछ वीडियो भी. जिसमें चिड़िया के बच्चे निरीह से बैठे होते हैं. बच्चों की आंखें भी बंद और अविकसित होती हैं. शरीर पर पंख नहीं होते हैं. बस उनके शरीरों पर पतली सी त्वचा लिपटी हुई दिखती है. अपने माता-पिता के परों की आवाज सुनकर वे अपनी चोंच खोलकर चिल्ला-चिल्लाकर खाना मांगते लगते हैं. माता-पिता उन्हें खिलाने के लिए लगातार उड़ान भर कर घोसले से बाहर जाते हैं और जो कुछ भी खाने को मिलता है, उसे लाकर उनकी खुली हुई भूखी चोंचों में डाल देते हैं. लेकिन, उनकी मांग कभी खत्म नहीं होती है. माता-पिता के लिए यह बेहद थकाने वाला काम होता है. और ऐसा उन्हें शुरुआती हफ्ते-दस दिन तक लगातार करना होता है.
यूँ तो यह बात पक्षियों और स्तनपायी दोनों के लिए कही जाती है, लेकिन यहाँ पर हम पक्षियों पर केन्द्रित रहेंगे. पैदाइश के आधार पर पक्षियों को दो भागों में बांटा जाता है. एक तरफ तो एल्ट्रीशियल पक्षी होते हैं. अंडे से निकलते वक्त जिनके बच्चे अर्धविकसित होते हैं. आंखें विकसित नहीं होती हैं और शरीर पर पंख नहीं होते हैं. वे अपने जीवन के लिए पूरी तरह से मां-बाप पर निर्भर होते हैं. मां-बाप की देखभाल और पोषण से धीरे-धीरे उनके शरीर का विकास होता है. आंखें खुल जाती हैं और शरीर पर पंख आ जाते हैं. ऊपर चोंच खोलकर खाना मांगते जिन भूखे चूजों का जिक्र किया गया है, वे एल्ट्रीशियल पक्षी हैं.
लेकिन, इसके अलावा पक्षियों का एक दूसरा भी प्रकार होता है. ये हैं प्रीकोशियल पक्षी. अंडे से निकलते वक्त भी इनके शरीर पर रोएंदार पंख होते हैं और ये काफी हद तक विकसित होते हैं. कुछ ही देर में ये चलने-फिरने लगते हैं और खाना भी ढूंढने लगते हैं. हमारी यह सोन चिरैया भी ऐसे ही पक्षियों में शामिल है. यह प्रीकोशियल है. जाहिर है कि जो पक्षी जमीन पर ही बिना घोसला बनाए अंडा देते हों, अगर उसके बच्चे अर्ध विकसित हों और हर समय खाना मांगने के लिए शोर करते हों तो फिर उनके जीवित बचे रहने की संभावना कितनी कम हो जाएगी. जबकि, पेड़ की ऊंची डाल पर या किसी चट्टान के ऐसे किनारों पर जहाँ पर शिकारियों के पहुंचने की संभावना कम हो, वहाँ पर चूजे इस तरह से ढेरों शोर मचा सकते हैं. लेकिन, हर किसी के पास यह सुविधा नहीं होती है. तो उसके लिए वह रास्ता भी निकालता है.
(छह) |
सोन चिरैया एक प्रीकोशियल पक्षी होता है. अंडे से निकलते वक्त भी यह काफी हद तक विकसित होता है. कुछ ही देर में अपने पैरों पर खड़ा हो जाता है. लेकिन, इसका मतलब यह नहीं होता है कि देखभाल की उसे जरूरत नहीं है. सम गांव में बने इस केन्द्र के अंदर जाने से पहले मुझे खुद को पूरी तरह से सैनिटाइज करना पड़ा. यहाँ पर अंदर आने के लिए मुझे पूरी तरह से सैनीटाइज एक ड्रेस पहनने को दी गई. कोहनियों से ऊपर तक मैंने अपने हाथों को साबुन से धोया और एक साफ-सुथरे तौलिए से उसे पोंछा. अस्पतालों में किसी नर्स द्वारा पहनी जाने वाली यूनीफार्म जैसी उस ड्रेस को पहनकर मैं विशेषज्ञों के साथ अंदर गया. यहाँ पर दो विशेषज्ञों से मेरी मुलाकात हुई. एक महिला और एक पुरुष. दोनों ही अपने कामों में माहिर और पूरी लगन से डूबे हुए थे.
अंडे से निकलने वाले चूजों की शुरुआती देखभाल करने वाली विशेषज्ञ से मैंने पक्षी के चूजे की विशेषताओं के बारे में पूछा. वे बताती हैं कि अंडे से निकलने के बाद वे सबसे पहले जिसे देखते हैं, उसे ही अपना अभिभावक जैसा समझने लगते हैं. अंडे निकलने के बाद उन्हें विशेष प्रकार के तापमान और नमी वाले बॉक्स में रखा जाता है. यहाँ पर वे अपने पैरों पर खड़े होने लगती हैं और हल्का टहलने लगती हैं. लेकिन, उन्हें हर समय अपने अभिभावकों की मौजूदगी अपने आसपास चाहिए होती है. पैदाइश के बाद उन्हें थोड़ा नम करके विशेष प्रकार से गोडावण के लिए तैयार भोज्य को खिलाया जाता है. चूजों के हाथ और पंख अच्छी तरह से काम करें इसलिए उन्हें हल्का-हल्का सहलाते हुए मालिश और कसरत भी कराई जाती है.
इससे उनके शरीर मजबूत होते हैं. संतुलित आहार देने के चलते कुछ ही दिनों में वे आत्मविश्वास से भरे हो जाते हैं. जब बच्चे होते हैं तब वे बिना किसी हिचक के जिसे अपना अभिभावक समझते हैं, उसके पास आ जाते हैं, लेकिन जब बड़े होने लगते हैं तो धीरे-धीरे उनका करीब होना कम होने लगता है. वे दूर होने की कोशिश करने लगते हैं. यह काफी कुछ अपने अभिभावकों के साथ उनके व्यवहार जैसा है. क्योंकि, आमतौर पर बड़े होने के बाद पक्षी अपने अभिभावकों से अलग अपनी दुनिया बसाते हैं. मैंने देखा कि पक्षियों के पालन-पोषण और देखभाल से जुड़ी इन बातों को साझा करते समय उन विशेषज्ञ की भी आंखों में भी भावनाओं की चमक सी दिखी.
मैं समझ गया. भावनाएँ कभी एकतरफा नहीं रह जाती हैं. वे हमेशा ही दोतरफा होने का रास्ता खोज लेती हैं. फिर मैं विशेषज्ञों के साथ केन्द्र में अलग-अलग बाड़ों में मौजूद सोन चिरैया को देखने गया. मेरी यूनीफार्म भी लगभग वैसी ही थी, जैसी की वहाँ पर मौजूद अन्य लोगों की. लेकिन, पक्षी ने उन सभी के बीच मुझे पहचान लिया. जैसे ही उसने मुझे देखा एक अजीब सी आवाज ‘बों’ निकालकर वह चिंहुककर दूर चला गया. यह एक प्रकार की अलार्म काल थी, जो बाकी सभी को सचेत करने के लिए निकाली गई थी. हालांकि, कुछ देर बाद पक्षी इस मौजूदगी का अभ्यस्त हो गया.
यहाँ पर मैंने उस कृत्रिम प्रजनन केन्द्र में वास्तविक तौर पर पैदा होने वाली दूसरी पीढ़ी के पहले चूजें का भी दीदार किया. इस चूजे के माता और पिता दोनों ही वन क्षेत्र से लाए गए अंडे से प्रजनन केन्द्र में पैदा हुए थे. उनके मिलन से पैदा होने वाला यह पहला चूजा है. इस केन्द्र में मैं करीब दो घंटे रहा. इस पूरे दौरान हमारी बातचीत का केन्द्र सिर्फ और सिर्फ यह पक्षी ही रहा. इससे जुड़े तमाम पहलुओं पर चर्चा होती रही.
मरूभूमि की एक झलक मुझे मिल चुकी थी. सोन चिरैया से मेरा परिचय भी हो चुका था. अब बस एक तमन्ना थी कि उन्हें उनके प्राकृतिक पर्यावास में देखा जाए. लेकिन, ऐसा अभी होने की संभावना कम दिख रही थी. तो मैं सभी लोगों से विदा लेकर लौट आया.
उस समय शाम के चार बजे का वक्त रहा होगा. धूप वैसी ही पीली और चमकीली दिख रही थी. दूर-दूर तक फैली मरु भूमि की जमीन वैसी ही पीली सुनहरी थी. लेकिन, उसके बीच-बीच में छोटी छोटी झाड़ियां, सेवण घास और इक्का-दुक्का पेड़ दिख रहे थे. पीले-पीले रेतीले टीले दूर पीछे छूट चुके थे. मेरे सामने जैसमेर शहर था. वह शहर जिसके ज्यादातर घर पीतवर्णी पत्थरों से बनाए हुए थे. जिन पर की गई रंग रोगन भी उन्हें पीतवर्णी रूप देती है. सामने मुझे ‘स्वर्ण नगरी में आपका स्वागत है’ का बोर्ड भी दिखता है. इस पीतवर्णी शहर को स्वर्ण नगरी कहने का चलन है. पीले रेतीले टीले में जैसे स्वर्ण धूल बिखरी हो.
और इस स्वर्ण धूल वाली मरुभूमि में, इस स्वर्ण नगरी में मुझे सोने की चिड़िया, सोनचिरैया की पहली झलकियाँ मिलीं.
मैं शुक्रगुजार हुआ.
कबीर संजय 10 जुलाई 1977 (इलाहाबाद) पेशे से पत्रकार कबीर संजय का आधार प्रकाशन से एक कहानी संग्रह ‘सुरखाब के पंख’ तथा वाणी प्रकाशन से ‘चीता: भारतीय जंगलों का गुम शहजादा’ प्रकाशित है तथा एक कहानी संग्रह तथा औरांगउटान पर केंद्रित एक किताब प्रकाशनाधीन है. वे जंगलकथा नाम से फेसबुक पर एक पेज चलाते हैं जो काफी लोकप्रिय है. रवीन्द्र कालिया स्मृति सम्मान से पुरस्कृत हैं. ई-मेल : sanjaykabeer@gmail.com/ मो. : 8800265511 |
कुछ चीजों को आप पढ़ते हैं, पढ़ते रहना चाहते हैं। मन में लेखक से एक मूक संवाद चलने लगता है। जिसमें आप उसके शुक्रगुजार तो होते हैं, पर बिलकुल एक नवयुवक की तरह खटमिट्ठी नाराज़गी भी लिए होते हैं कि उसने इस फलां पंक्ति को आगे क्यों नहीं बढ़ाया। या इस पैराग्राफ में और कुछ क्यों नहीं डाला। मैं और जानना चाहता हूं लेखक, तुम क्या महसूस कर रहे हो, कुछ और कहो, उस झील की तरह जिसमें तुम मछलियां देख पा रहे हो, उसी तरह अपने मन की परतों को हमारे सामने उजागर कर दो। इस अवस्था को पढ़ने वाले की चरम स्थिति के रूप में देख पाता हूं। इस तरह का एक्सपीरियंस विरल होता जा रहा है। खासकर समकालीन लेखन में। कबीर संजय का सोनचिरैया पर केंद्रित यह लेख पढ़ने पर मैने अजीब-सी खुशी महसूस सी। क्यों का कोई प्रत्यक्ष कारण तो नहीं दिया जा सकता, पर हां, शायद लेखन की सच्चाई और लेखक की ललक उस तेज को लेकर आती है जिसकी कौंध से आप अछूते नहीं रह पाते। कबीर के काम से वाक़िफ़ रहे है और इस नई किताब का इन्तजार है। हां, एक बात और, जिसके लिए संपादक बधाई के पात्र हैं (या शायद लेखक ही) कि उन्होंने सांडे के तेल से कोई शीर्षक निकालने का सनसनीखेज अपितु भौंडा प्रयोग नहीं किया।
बहुत दिलचस्प और रोमांचक यात्रा की कहानी है। जीवंत विवरण। पढ़कर संपन्न हुआ। संजय कबीर ने इसे प्रभावी ढंग से लिखा है। अरुण, इस तरह की सामग्री पत्रिका को वैविध्यपूर्ण बनाती है। बधाई। और धन्यवाद।
कितना सच्चा और सजीव वृत्तांत! आपके शब्दों की रवानी के साथ हम भी सोन चिरैया को देखने की ललक से भर इस रोमांचक यात्रा में शामिल हो गए। रोड किलिंग, सांडे का तेल जैसे कितने ही जड़ीभूत कर देने वाले शोचनीय प्रसंगों ने इस लेखन को और भी महत्वपूर्ण बनाया हैं। Kabir Sanjay जी आपका बहुत आभार। शुक्रिया ‘समालोचन’।
आसपास से बेखबर रहकर हम कितना कुछ जान ही नहीं पाते। संजय कबीर ने अपने पर्यवेक्षण दृष्टि और भाषा की रवानी से विशिष्ट सोन चिरैया और मरुभूमि का आकर्षक चित्र खींचा है। समालोचना और संजय कबीर दोनों को बहुत बधाई।
मां मुझे सोन चिरैया के बारे में बताती रहती थी लेकिन इस चिड़िया को देखा नही था । इस संस्मरण के जरिए बहुत से तथ्य मालूम हुए । मुझे अचानक बहुत सी चिड़ियाएं याद आई । हम चिड़ियों और प्रकृति के बारे में बहुत कम जानते हैं ,वे कविताओं में भी नहीं उड़ रही है ।
अरुण जी, अभी-अभी समालोचन का अंक पढ़ा । कबीर संजय ने सोन चिरैया को खोजने की भूख ने मुझे भी ‘अच्छा नाश्ता’ करा दिया । इनकी मुश्किलों से भरी यात्रा में सुखद संस्मरण मिले ।
एक रोचक जानकारी के साथ ही मन को समृद्ध करता लेख। कहानी सा आनंद देता अपने प्रवाह में साथ लेकर चलता है और साथ ही संतोष के एक पड़ाव पर पूरी संतुष्टि देता हुआ छोड़ता है। हार्दिक बधाई।
अच्छी रचनाएँ देर-सबेर अपने पाठक तक पहुँच ही जाती हैं. और ऐसी रचनाएँ अवसाद में डूबे हमारे पाठक का सहारा बनकर हमें नई ऊर्जा तो देती ही हैं, लेखन के प्रति नए सिरे से विश्वास भी जगाती हैं.
देर से पढ़ी कबीर संजय का यात्रा-वृत्त ‘स्वर्ण नगरी में सोन चिरैया की खोज’ ऐसी ही रचना अभी हाथ लगी. इस तरह के गहरे रचनात्मक विवरण कोई सिद्धहस्त लेखक ही लिख सकता है. अमूमन इस प्रकार के विवरणों में लेखक की छवि ज्यादा हावी हो जाती है और मूल विषय हशिये में चला जाता है. यह रचना भी कबीर संजय से ही शुरू होती है मगर चुपके से लेखक पीछे हट जाता है और हमें भी अपनी जिज्ञासा का हमराही बना लेता है. अद्भुत भाषा और शैली में कही गई आत्मीय यात्रा है यह और एक प्रभावशाली कहानी की तरह हमें अपने प्रभामंडल में घेर लेती है. इससे आत्मीय प्रतिक्रिया और हो ही क्या सकती है भला?
संजय भाई, आप का यह प्रयास सराहनीय है।
आपकी किताब का इंतजार रहेगा।
धन्यवाद
गुरप्रीत सिंह, राजस्थान