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समालोचन

Home » टोकरी में दिगंत: शहर एक विस्मृत गंध का नाम है: गीताश्री

टोकरी में दिगंत: शहर एक विस्मृत गंध का नाम है: गीताश्री

कथाकार, पत्रकार और स्त्रीवादी लेखिका गीताश्री ने यह आलेख हिंदी की महत्वपूर्ण कवयित्री अनामिका की कविताओं में शहर- ख़ासकर मुज़फ़्फ़रपुर की उपस्थिति के विविध आयामों को ध्यान में रख कर लिखा है, जहाँ तक मैं समझता हूँ किसी कवि की कविताओं में उसके अपने शहर को लेकर यह पहला कार्य है.  दीगर कवियों की कविताओं में भी इस तरह की कोशिशें की जानी चाहिए. साथ ही अनामिका की स्त्री चेतना की भी पड़ताल की गयी है कि यह दूसरों से किस तरह अलग है. लेख दिलचस्प और वैचारिक रूप से समृद्ध है.

by arun dev
July 16, 2021
in आलोचना, साहित्य
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टोकरी में दिगंत: शहर एक विस्मृत गंध का नाम है: गीताश्री
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अनामिका की समकालीन कवयित्रियों से तुलना करें तो इस समय उनकी पीढ़ी की तीन-चार कवयित्रियाँ ही सक्रिय हैं. उनसे अनामिका तीन कदम आगे हैं. उनकी कविता में उनके पास आग भी है, पानी भी और अपनी मिट्टी भी. सिर्फ आग काफी नहीं, सिर्फ पानी काफी नहीं. जब तक मिट्टी का साथ न हो आप मनुष्यता के बीजों के प्रस्फुटन की कामना कैसे करेंगे. ये कहना अतिशयोक्ति न माने कि भारतीय परिवेश में स्त्री का सही रुप सिर्फ अनामिका के काव्य-संसार में ही दिखाई देता है. उन्होंने ही कविता में स्त्री को अलग पहचान दी है. यहां उनकी कुछ कविताओं को याद करें, और उस काल खंड को जब वे कविताएं लिखी गईं.

इन कविताओं में पुरुष काम्य या आराध्य नहीं, बल्कि एक नये पुरुष के जन्म लेने की कामना की गई है जो अपनी मानसिकता में रामगुप्त न रहे. वह बदलती हुई स्त्री यानी ध्रुवस्वामिनी वाली कद-काठी पाती हुई स्त्री के साथ तालमेल बिठा सके.

अनामिका का कवि जानता है कि नई स्त्री बिल्कुल अकेली है. वे एक लेख में लिखती हैं-

“नई स्त्री बेतरहा अकेली है. क्योंकि उसको अपने पाये का धीरोदात्त, धीरललित, धीरप्रशांत नायक अपने आसपास कहीं दिखता ही नहीं. गाली बकते, ओछी बाते करते, हल्ला मचाते, मार-पीट, खून-खराबा करते आतंकवादी या टुच्चे पुरुष से प्रेम कर पाना या उसे अपने साथ सोने के लायक समझना किसी के लिए भी असंभव है. स्त्रियों का जितना बौद्धिक और नैतिक विकास पिछले तीन दशकों में हुआ है, पुरुषों का नहीं हुआ.”

अनामिका की कविताओं में बौद्धिक स्त्रियां अपनी आग, पानी और माटी के साथ दिखाई देती हैं. उनकी कविताओं ने कविता के केंद्र में बौद्धिक स्त्रियों को ला कर खड़ा कर दिया है और समूचे विमर्श को एक नयी दिशा दी. स्त्रियों की दशा पर विलाप करते हुए स्त्री-विमर्श को बहस और विचार के लिए नये गवाक्ष खोले. अनामिका से पहले किसी स्त्री कवि की कविता में इस तरह विचार नहीं दिखता है. साहसी स्त्रियां तो कविताओं में खूब मिलेंगी और हुंकार भरती हुई भी, पितृ सत्ता तो ललकारती हुई भी मिलेंगी लेकिन वे कोई व्यापक समाधान नहीं प्रस्तुत करतीं हैं. कोई दृष्टिकोण नहीं देती. इस लिहाज से अनामिका की कविताएं कविता के केंद्र में स्त्री का प्रथम प्रस्थान बिंदु है. स्त्री-विमर्श का सबसे साहसी, प्रखर बयान हैं उनकी कविताएं जो यह स्थापित करती हैं कि विनम्र प्रतिरोध भी मारक हो सकता है, बदलाव का कारक हो सकता है.

वे अपने आलेखों में स्पष्ट करती चलती हैं कि स्त्री आंदोलन प्रतिशोध-पीड़ित नहीं है, अब समय आ गया है कि अच्छी तरह समझ लिया जाए- स्त्री–आंदोलन की समर्थक मानवियां हैं, मादा ड्रैकुलाएं नहीं. इन्हें न्याय चाहिए पर ये जानती हैं कि अन्याय का प्रतिकार अन्याय नहीं है. एक दमन चक्र का जवाब दूसरा दमन-चक्र नहीं है.

हम बेधड़क कह सकते हैं कि अनामिका युग में स्त्री-कविता को नयी प्रतिष्ठा मिली है और नयी बहसें और विचार-बिंदु भी, जो पहले नदारद था.

यहां उनकी कुछ प्रतिनिधि कविताओं को याद करना लाजिमी है- दरवाजा, चौका, अनब्याही स्त्रियां, पतिव्रता, तृष्णा थेरी, भाषा थेरी, शांता थेरी इत्यादि. साहित्य अकामी सम्मान से सम्मानित कविता संग्रह “टोकरी में दिगंत” तक में भी वे अपने लक्ष्य से भटकती नहीं हैं.

अपनी अस्मिता के प्रति सजग स्त्रियां कुछ इस तरह हुंकार भरती हैं.

बिछी हुई हूं दर पर सदियों से मैं, धूल-धूसर!
कसमसाते बूट पहने हुए वक्त गुजर गया मुझ पर से
थोड़े-से दरक गए धागे, फिर भी मैं कायम हूं
जस-की-तस.

इस कविता को मैं स्त्रीत्व का हुंकार मानती हूं. इन पंक्तियों में छिपा है पूरी थेरीगाथा का मर्म. यह संग्रह टोकरी में दिगंत, दिग-दिगंत में स्त्रीत्व का मानचित्र है. हमेशा मैंने कहा है कि अनामिका की कविताएं स्त्रीत्व का मानचित्र ही नहीं, उसका घोषणापत्र तैयार करती हैं. स्त्रीत्व एक अलग विचारधारा है जिसका घोषणापत्र हैं अनामिका की कविताएं. स्त्री को कविता के केंद्र में लाने वाली और कविता को स्त्री की चौखट, घर-आंगन, बंद कोठरी तक लेकर आने वाली कवि अनामिका हमारे समय की विलक्षण कवि हैं जिनकी कविताओं की पकड़ आसान टूल्स से करना असंभव है. पारंपरिक टूल्स में देना होगी थोड़ी धार, पिजाना होगा सान पर टूल्स को. टूल्स को पिजाने के लिए अनामिका के लोक तक पहुंचना होगा और उनकी स्मृतियों के जाल को भेदना होगा. उस लोक की सैर पर बिना पूर्वग्रह निकलना होगा तभी समझ पाएंगे कि अनामिका कविता के शिल्प में कितना तोड़-फोड़ मचाती हैं और जहां पर प्रयोगवादी चित्त ठिठक जाता है वहां से विषय को कैसे उठाती हैं.

शिल्पगत और विषयगत दोनों स्तरों पर वे तोड़-फोड़ मचाती हुई नव सृजन कर चौंका देती हैं. परंपरा और आधुनिकता ये दो हिरणियां हैं जो काव्य संसार में बेखौफ कुलाँचें भरती हैं.

कोई और कवि तोड़-फोड़ दोनों स्तरों पर मचाने की हिमाकत उस दौर में नहीं कर सकता था जिस दौर में अनामिका कर रही थीं. आज तो सारे बंधन झनझना कर टूट गए जिसकी पूर्व पीठिका अनामिका ने तैयार की, जिससे कविता का अनामिका स्कूल बन कर खड़ा हो गया है. वे एक ऐसी परंपरा का सूत्रपात करती हैं जिसमें अनेक कवि पनाह लेने पहुंचते हैं. एक पूरी पीढ़ी पर उनकी कविताओं का प्रभाव, उनके स्कूल का प्रभाव लक्षित किया जा सकता है.

उनकी कविताओं में तोड़-फोड़ के एक उदाहरण देना असंभव है. सारी कविताएं ही उसका उदाहरण हैं. कोई भी उठा लीजिए. लोक-विमर्श की सादगी के बावजूद ये कविताएं एकबारगी पाठकों को ठिठका देती हैं, उनके मानस को झकझोर देती हैं. उनकी कविताओं का दरवाजा आसानी से डी-कोड नहीं होता. जबकि उसका पासवर्ड बहुत सादा है. जैसे हम बहुत आसानी से याद रह जाने वाला पासवर्ड रखते हैं, लोग उसे जटिलताओं में ढूंढते हैं. अनामिका की कविताओं का पासवर्ड बहुत सादा है…उसके लिए कबीर के भाव में जाना होगा…जो घर फूंके आपना…सरीखा. पहले कविता की चौखट पर अपना सीस धर दे, तब प्रवेश मिलेगा. जिसने जटिल संचरना में सादगी का सौंदर्य देख लिया, ढूंढ लिया, उसे दिक्कत नहीं आएगी. कविता के पास सैर सपाटे के लिए जो आते हैं, या रमण के लिए, उनके लिए अनामिका की कविताएं नहीं हैं.

“टोकरी में दिगंत” कविता संग्रह को हम कई भागों में देख सकते हैं. यानी कई खंड हैं.

पहला खंड है, पुरोवाक, फिर थेरियों की बस्ती, ये मुज़फ़्फ़रपुर नगरी है सखियों, और अंतिम खंड चलो दिल्ली, चलो दिल्ली, वैशाली एक्सप्रेस-2009. हर खंड में कुछ खास है, जिसकी पड़ताल हम आगे करेंगे.

ये संग्रह अनामिका की पूरी कविता-यात्रा और जीवन-यात्रा का झरोखा है. परंपरा की खोज में वे काल की यात्रा करती हैं और सदियां लांघती हुई दो ढाई हजार साल पीछे जाती हैं, वहां से फिर वो सन 2014 में लौटती हैं. पुरोवाक में खंड में उनकी कुछ चर्चित कविताएं हैं जैसे-आम्रपाली, कूड़े में पन्नियां, थर्मामीटर, कीमोथेरेपी के बाद. आम्रपाली कविता में वैशाली की नगरवधू के स्वाभिमान और उसके वैभव का बखान है. क्या ये सिर्फ एक गणिका की कथा है. क्या बात है उस एक स्त्री में जिसके वैभव का बखान आज भी साहित्य में उसी ठसक के साथ होता है. आम्रपाली के चरित्र को कुछ घटनाओं से समझा जा सकता है. और इससे फिर एक स्त्री को. जो कालांतर में भी अपने मूल स्वभाव में नहीं बदली. जब वह बुद्ध को भोज-भात का न्योता देकर लौटती है तब वैशाली के सामंतों को ये बात अच्छी नहीं लगी. वह उनके पहिये से अपने रथ का पहिया मिलाती हुई लौटती है. एक स्त्री की ठसक चुभती हैं उन्हें. वे कहते हैं-

“जे आम्रपाली, क्यों तरुण लिच्छवि कुमारों के धुर से
धुर अपना टकराती हैं?
“आर्यपुत्रों, क्योंकि भिक्खुसंघ के साथ
भगवान बुद्ध के लिए मेरा निमंत्रण किया है स्वीकार.”
“जे आम्रपाली !”
सौ हज़ार ले और इस भात का निमंत्रण हमें दे!”
“आर्यपुत्रों , यदि तुम पूरा वैशाली गणराज्य भी दोगे,
मैं यह महान भात तुम्हें नहीं देने वाली!”

इस कविता में अनामिका ने दो मूल बातों पर जोर दिया है जिससे यह कविता अपने लोकेल से ऊपर उठकर वैश्विक फलक पर चली जाती है.

करुणा और मैत्रीभाव. समूचे विश्व के लिए, स्त्री-पुरुष संबंधो के ये दो मूलाधार उन्हें नजर आते हैं. यहां पर उनकी कविताएं कभी-कभी विश्व राजनीति की ओर संकेत करने लगती है. इसे कविता की “डिप्लोमेसी” (कूटनीति) भी कह सकते हैं.

बुद्ध ने कहा था आम्रपाली से-

रह जाएगी करुणा, रह जाएगी मैत्री, बाकी सब ढह जाएगा…

इस कविता का संदेश सार्वभौम है. काल की नदी सारे वैभव बहा ले जाती है. मनुष्य के सारे अहंकार, दर्प काल के आगे राख की मानिंद उड़ जाते हैं. यह कविता एक वैभवशाली स्त्री के बहाने समूची मानवता की बात करती है और पूरे विश्व को करुणा और मैत्री का संदेश देती है. यहां कविता अपने विराट स्वरूप को प्रकट होती है.

अगर पहचान सकते हैं तो पहचानिए कि अनामिका की कविता के यही मूल स्वर हैं- करुणा और मैत्री. इसका भार वे सिर्फ स्त्री पर नहीं डालती, वे स्त्री-पुरुष दोनों को संबोधित करती हैं. वे स्त्री-पुरुष के बीच संघर्षों की बात करती हुई करुणा का मार्ग नहीं भूलती हैं और वे बार-बार उनके बीच मैत्री के भाव पर जोर देती हैं. कवि का मार्ग बुद्ध की तरह लोक-कल्याणकारी मार्ग है जिसपर चलने का आग्रह करती हैं ये कविताएं. अनामिका की मुक्तिगामी चेतना अहिंसक मार्ग की बात करती है.

वे जानती हैं कि करुणा से दृष्टि बदलती है और मैत्री से गैरबराबरी खत्म होती है.

अनामिका के काव्य-संसार में, लेखन में संघर्ष के स्वर बहुत प्रबल हैं, चिंताएं हैं, निराशा है, मगर उम्मीदें कम नहीं. वे उस चिकित्सक की तरह नजर आती हैं जो रोग की जड़ में पैठता है जैसे कोई पुराना वैद नाड़ी देख कर रोग पकड़ता है और दवा बताता है.

वे समाधान ढूंढती हुई हजारों साल पीछे थेरियों की बस्ती में प्रवेश करती हैं.

उनका सुर नहीं बदलता है और न दृष्टि बदलती है. वे बदलाव चाहती हैं मगर इसके लिए हिंसा का मार्ग नहीं चाहती. “शांता थेरी बोली” कविता में वे स्पष्ट कहती हैं-

ऐसा नहीं कि मैं विस्फोट नहीं चाहती
मैं चाहती हूं विस्फोट-
एक प्रज्ञावान, प्रतिबद्ध, अहिंसक
किंतु अटल और सामूहिक विस्फोट….

बदलाव की आकांक्षा पुरुष कवियों में भी खूब है मगर उनका रास्ता हिंसक विस्फोट का आकांक्षी है.

बालकृष्ण शर्मा नवीन लिखते हैं-

कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ
जिससे उथल पुथल मच जाए.

इस क्रांतिकारी कविता में पुरानी सड़ी-गली व्यवस्था को नष्ट कर नये के निर्माण के लिए महानाश के परिणाम तक जाने को तैयार हैं. यह कविता की पुरुष दृष्टि है. अनामिका के यहां कवि की स्त्री-दृष्टि है जो अहिंसक मार्ग से बदलाव की बात करती है.

(2)

उसी तरह उनकी एक और कविता “भाषा थेरी बोली” इस खंड की अलहदा मिजाज की विलक्षण कविता है. भाषाओं के बहाने कवि स्त्री-अस्मिता की बात रखती हैं. भाषा के घर में सिर झुका कर, झोली फैला कर ही एक रचनाकार जाता है. भाषा उसका घर हुआ करती है. भाषा में रचनाकार जब पनाह लेता है तब भाषा के पास झूठ और पाखंड नहीं चलता. वह सत्यप्रिय होती है और बदले में चेतना उपहार में देती है. यह भाषा और स्त्री का भिक्षुणी भाव है.

इस खंड की सारी कविताएं उल्लेखनीय हैं और अलग पाठ की मांग करती हैं लेकिन एक कविता तृष्णा थेरी का विशेष रुप से उल्लेख करना चाहती हूं. एक विशेष प्रयोजन है, इसलिए अलग से ध्यान दिलाना चाहती हूं. सारी थेरियां कवि से संवाद करती हैं. पहले स्पष्ट कर देना चाहिए कि यह कविता एक स्त्री की आदिम भूख की कविता है. दो तरह की भूख होती है, एक पेट की, दूसरी देह की. पेट की भूख जरूरत है, देह की भूख पर बात करना अश्लील है. खासकर स्त्रियों के लिए. ये प्रतिबंध सदियों से रहा है. आज तक कई अंतर नहीं आया है. तृष्णा थेरी एक साथ दो युग की स्त्री का प्रतिनिधित्व कर रही है. एक आदिम स्त्री है तो दूसरी नयी स्त्री. तृष्णा स्पष्ट कहती हैं-

मैं आदिम भूख हूं बेटी, मुझको पहचान रही हो?
दुर्भिक्ष में चूल्हा
एक फकीर की आंख –सा-धंसा
जांचता है गौर से मुझको, हंसता है !
और अट्टहास की तरह
फैल जाती हूं मैं हर तरफ
कभी-कभी शादी की सेज पर भी जगती हूं
एक दु:स्वप्न की तरह !

इस कविता में शादी की सेज पर जागी हुई स्त्री कौन है, पहचानते हैं. उस स्त्री की आदिम भूख क्या है. कौन है जो उसकी इस भूख को नहीं समझता है और उस पर हंसता है. स्त्री मन को इन पंक्तियों से समझा जा सकता है जो सदियों से अपने भीतर दैहिक कामनाओं की आग को दबाए-दबाए इस सदी में लहक उठी है. इसीलिए यह कविता एक सदी से छलांग लगा देती है. कविता की ऐसी छलांग बहुत कम देखी जाती है. बहुत कौशल चाहिए जो सदियों को ऐसे गूंथे कि उस सदी की स्त्री इस सदी में भी पहचानी –सी लगे. एक स्त्री उस सदी से निकल कर सीधी आज के समय में पहुंच कर कहती है-

तीन मिनट की ट्रैफिक की लाइट के बाद
धांय-धांय, धक-धक, सब धूल-धुआं
दुल्हन की आंखों में
चकित-थकित हंसती है
दिन-भर की सब घुड़कियां
और फिर पचती है अधखाए अन्न की तरह
धीरे-धीरे !

कहां वो आदिम भूख में छटपटाती हुई तृष्णा और कहां ये इक्कीसवीं सदी की ट्रैफिक लाइट में फंसी हुई स्त्री , दोनों की समस्याएं एक-सी. उसे चिन्हा न गया है अब तक. घरेलू हिंसा और मैरिटल रेप के कई प्रकार होते हैं. बुद्ध काल में घरेलू हिंसा चरम पर था. स्त्रियां वैवाहिक बंधनों में घुट रही थीं. घर में उपेक्षित पत्नी और बाहर मनबहलाव के लिए गणिकाओं की बस्ती बसाने वाले सामंतों की वजह से स्त्रियां गृहस्थ का बंधन काट कर घर से भाग रही थीं. बाहर अपने लिए वेश्या रखने वाला सामंती समाज कभी घर के प्रति वफादार हो ही नहीं सकता. ऐसे में घर में घुटती, अपमानित होती हुई स्त्रियों को मुक्ति का मार्ग दिया बुद्ध ने. तब स्त्री के पास विकल्पहीनता थी. थेरी गाथा उनके दारुण आख्यानों से भरा है. थेरियो के लिए जीवन आसान नहीं था. उन्हें घर में रहते मुक्ति संभव नहीं थी, इसीलिए घर स मुक्ति ले ली. इससे उस समय के समाज में भूचाल आ गया. प्रसिद्ध आलोचक डॉ धर्मवीर इसे गलत करार देते हैं और बुद्ध पर घर तोड़ने का आरोप लगाते हैं. बुद्ध को वे स्त्रियों को घर से बेघर करने वाला बताते हैं. ऐसा कहना, उस काल की स्त्री की समस्याओं से आंखें मूंद लेना है. यह सामंती सोच है, उस युग में भी समाज इसी तरह सोचता था. वे कबीर का उदाहरण देते हैं –

घर में जोग-भोग घर ही में
घर तज बन नाहिं जावैं
घर में जुक्त मुक्त घर ही में
जो गुरु अलख जगावे

वे किसी के लिए भी घर को छोड़ कर मुक्ति पाने को समर्थन नहीं देते हैं. स्त्रियों के लिए घर में रहते मुक्ति संभव न थी. बुद्ध ने स्त्रियों को आमंत्रण नहीं भेजा था., स्त्रियां स्वयं चल कर आग्रह करने गई थीं, तब संघ के द्वार उनके लिए खुले. संघ ने गैरबराबरी खत्म कर दी. बुद्ध की सामाजिक चेतना वाह्य और आधुनिक है, नरम और कोमल है. और यह भी ध्यान योग्य है कि बुद्ध से समय समाज इतना जटिल नहीं था. उस काल में स्त्रियों को उनके घरवाले ही संघ में थेरी बनने के लिए अनुमति दे देते थे. कई प्रसंग है जिसमें थेरी बनने की जिद पर अड़ी हुई स्त्रियों को पुरुषों ने बुद्ध से शरण देने का आग्रह किया है. बुद्ध और स्त्रियों पर जो आरोप लगे, उसका जवाब डॉ. विमल कीर्ति थेरीगाथा की भूमिका में लिख कर देते हैं-

नारी के लिए एकमात्र गृहस्थ जीवन ही विकल्प नहीं है.

आज एक्टिविस्ट मलाला युसुफजई भी ने यही बयान दिया है और नवस्त्रीवाद भी यही बात कह रहा है. स्त्री के चयन की बात हो रही है. ऐसे में स्त्री को जबरन घर में रहकर मोक्ष और मुक्ति का मार्ग ढूंढने की बात कहना, उसे भरमाना है.

अनामिका की कविताएं इसका जवाब अच्छे से देती हैं-

वितृष्णा इसको ही कहते होंगे भन्ते, है न!

अनामिका का यह संग्रह ऐसे समय में आया है जब फिर से समाज में हलचल है और बुद्ध फिर से प्रासंगिक हो उठे हैं. साहित्य और समाज से बुद्ध पर बहसे शुरु हो चुकी हैं. मुक्ति की चेतना, वर्ग-संघर्ष की चेतना के तत्व बुद्ध के विचारो में ढूंढे जाने लगे हैं. वर्ग-संघर्ष का जो रास्ता बुद्ध ने निकाला था, उस पर फिर से बातें होने लगी हैं. मार्क्स और बुद्ध का तुलनात्मक अध्ययन होने लगा है.

बुद्ध के यहां जो संतुलन और संतुष्टि है वहीं संतुलन अनामिका की कविताओं में दिखाई देती है.

अनामिका के यहां समर्थन से ज्यादा थेरी बनने के पीछे के कारणों की तलाश है. उनके सुख-दुख की कथा कही गई है. स्त्री के दुख का इतिहास बहुत लंबा है. ऐसी कथा जो दो हजार साल से चली आ रही है और आज भी स्त्री-मुक्ति का सवाल बन कर खड़ी है. फर्क ये आया है कि अब स्त्री के सामने विकल्पहीनता नहीं है.

(3)

अब आते हैं काव्य संग्रह के उस खंड की ओर जहां मेरा छोटा-सा शहर रहा करता है.

मुज़फ़्फ़रपुर , अनेक कवियों का शहर है. उस छोटे से, जाग्रत शहर की लंबी साहित्यिक परंपरा और विरासत है. छोटा शहर में कवि की त्वचा पर परत बन कर चढ़ा रहता है और उसकी आत्मा में स्थायी रुप से बस जाता है. ये दो जगहें ऐसी होती है जहां से उसे कोई बाहर नहीं कर सकता. छोटे शहर की बड़ी कवि अनामिका के इस संग्रह में ज्यादातर कविताओं में छोटा-सा शहर छाया हुआ है. कविता के मानचित्र पर कोई छोटा शहर इतना छाया रहे , कहीं न देखा, पढ़ा. उस शहर की गली, चौक चौराहें, इमारते, स्कूल, कॉलेज, सखियां , सहेलियां, शिक्षक, आस-पड़ोस, टोला-मुहल्ला सब इतना पोएटिक ढंग से चित्रित है कि पहली बार किसी स्थान को कविता की काया में बदलते देखा. इस खंड में केंद्र में शहर है, शहर की मामूली चीजें हैं. कविता मामूली और गैर जरूरी चीजों को अपने साथ लेकर महान बना देती है. यह कविता की ही ताकत है कि मुज़फ़्फ़रपुर की मामूली चीजें भी अपनी अस्मिता के साथ मौजूद हैं. जब कवि शहर छोड़ जाता है तो अपनी चेतना में अपने शहर को बसाए बसाए जीता है. कविता उसे शहर की स्मृतियों से मुक्ति देती है. कहीं मन में एक शहर को छोड़ने का गिल्ट होता है, जो कवि को किसी अनजान नगर में रॉंग नंबर होने का अहसास से भर देता है, कविता उसे दूर कर देती है.

संग्रह की एक कविता “रॉंग नंबर” में इससे जुड़े सवाल और जवाब छुपे हैं.

जो उस शहर का है, वो इस कविता खंड की एक-एक कविता से शहर को सूंघ सकता है. अनामिका के लिए मुज़फ़्फ़रपुर का वही महत्व है, जो महत्व स्पेन के महान कवि लोर्का के लिए अपने शहर ग्रेनाडा का है. अपने शहर पर वे इसी तरह मुग्ध होते हैं. यहां एक फर्क है कि अनामिका उस तरह से रीझती नहीं बल्कि शहर के प्रति जो मोह है, वो उन्हें बार बार स्मृतियो में ले जाता है. शहर के दुख, भूली हुई वस्तुएं, लोग सब याद करती हैं. अपना घर ढूंढती हैं. वे बचकाने ढंग से शहर का सौंदर्य वर्णन नहीं करती कि मेरा शहर सुदंर, मेरा गांव सुंदर…मेरे गांव की पगडंडियां सुंदर…टाइप बातें नहीं करतीं हैं. न ही छोटे शहर वर्सेज महानगर कोई बहस खड़ा करती हैं. उनका उद्देश्य शहर का महिमा मंडन और महानगर को ओझल कर देना नहीं है.

मुज़फ़्फ़रपुर सीरीज की कविताएं उस तरह की हैं मानों किसी महान चित्रकार ने कैनवस पर पूरा शहर उकेर दिया हो. कैनवस पर शहर के भिन्न-भिन्न दृश्य तैर रहे हों. ठीक वैसे जैसे स्मृतियों के कैनवस पर तैरते हैं गुजरे वक्त. उन स्मृतियों में शहर से जुड़ी साधारण बातें भी होती हं और साधारण जन भी. उनका रिक्शेवाला नारायण महतो भी है, पुरानी सहपाठी भोला भंडारी भी है, अघोरिया बाजार है, हरिसभा चौक है, मिठनपुरा की गली है, शहर का सबसे ऐतिहासिक महिला कॉलेज, एमडीएम कॉलेज है, प्रोफेसर पदमप्रिया भी हैं, सिलाई शिक्षिका उमा दी भी हैं, भगवान बाजार है, रिक्शे पर गुल्ली से फेंका गया पहला प्रेमपत्र भी है, शहीद चौक भी है, चैपमैन स्कूल की लाइब्रेरी भी है, शहर की सबसे बदनाम गली गणिका गली भी है, शहर के वैद्य जी भी हैं, मिथिला पेंटिग भी है….और भी बहुत कुछ जो उस शहर से जुड़ा है. स्मृति में इतना सबकुछ संभाल कर रखना मुश्किल तो रहा होगा. क्योंकि इस खंड के बाद अंतिम खंड उन्हें वैशाली एक्सप्रेस से लेकर दिल्ली चला आता है. जहां आते ही उनकी कविताओं का टोन बदल जाता है.

उनके शहर की गली-गली में अनामिका जैसे खुद को अक्षत की तरह छींटती हुई चलती हैं. और आश्चर्य की बात ये कि गली मोहल्लों की इन कविताओं में सबके भाव एक-से हैं. सब में करुणा की लय बहती है. करुणा की नदी बहती है , यही कवि का लक्ष्य भी है. मनुष्यों में क्षमा भाव और करुणा का संचार होता रहे. ‘गणिका गली’ कविता में लिखती हैं-

लेटी हुई छत निहारती
अपभ्रंश का विरह–गीत दीखती हैं ये गणिकाएं
पूरे शहर के लालटेन बाज़ार में
लालटेन तो नहीं जलती पर
ये जलती हैं
लालटेन वाली
धुंधली टिमक से.

मुज़फ़्फ़रपुर की यह गली देश भर में प्रसिद्ध हैं. यह तवायफों और वेश्याओं की ऐतिहासिक बस्ती है जहां हुस्न का बाजार सजता है. अब तो उजड़ गई वह बस्ती. उनकी चिंता में हैं, वे स्त्रियां जिनकी जिंदगी इसी गली के अंधेरे में गुजर गई. उन्होंने इसके सिवा कुछ नहीं किया न जिया. उनके जीवन के आखिरी दिनों में. वे लिखती हैं-

कोई यहां अब नहीं आता!
…..

छाती पर हाथ धरे सोचती है कुछ-कुछ,
छाती पर हाथ धरे क्या सोचती हैं वे ?

अपने शहर, गली, मोहल्ले पर लिखते समय कवयित्री का अतीत के मोह पाश में बंध जाना स्वाभाविक है. उनका बचपन लौट आता है. उनकी स्मृतियों में डेरा डालकर, दुबकी हुई वे यादें, सिर उठाती हैं जब हम कुछ रचने चलते हैं. सबसे पहले वे ही हमें घेरती हैं. हम बड़े होकर दूर देश चले जाते हैं, परदेस में जीवन शुरु करते हैं, लेकिन हम कभी अपना बचपन और जवानी वहां से नहीं ले जा पाते हैं. उसी शहर में वह छूट जाता है और वे यादें वहीं की मिट्टी में रच-बस जाती हैं.

मुज़फ़्फ़रपुर गंध का नाम है….जो कवि की स्मृतियों में, कविता में महकता है रात-दिन.

वे मिठनपुरा गली में प्रवेश करती हैं तब उन्हें वृद्ध दंपति का प्रेमालाप याद आता हैं-

आकाश खुला-खुला होगा वहां,
धूप बहुत नम होगी
और प्रसन्न बहेंगी हवाएं.
कनखियों से देखेंगे हमको
खट्मिट्ठे बब्बूगोशे-
एक ही टहनी पर सटे हुए,
एक साथ पकने की गंध में नहाए.
तरह-तरह से झेलते
वक़्त और बारिश और हवा के थपेड़े
‘कुमारसंभव’ का उजला कबूतर
सिर पर मंडराएगा अपने
लाल-लाल आंखें नचाता
उड़ेगा इधर से उधर.

इस कविता में कई तरह की चेतना काम कर रही हैं. शुरुआती पंक्तियों में रीति कालीन प्रेम की चाहत है, वह प्रेम जो समय की चिंताओं से मुक्त, कामकाज की परेशानियों से निर्द्वंद्व दो लोगों के बीच घटित होता था. यहां “कुमारसंभव” का जिक्र यूं ही नहीं है. सुधि पाठक भलीभांति जानते हैं कि उजला कबूतर की उपस्थिति कितनी ऐंद्रिकता लिए हुए है. प्रेम के आंतरिक क्षणों का गवाह और समूची सृष्टि में प्रेम के अमरत्व की कथा जानने वाला इकलौता वह कबूतर अनामिका की कविता में भी मंडरा रहा है. यह कविता संकेतों में वृद्ध स्त्री-पुरुष के बीच बची हुई कामेच्छाओं की अभिव्यक्ति है. यह वही मिठनपुरा की गली है जिसमें उनका घर भी है. वे लिखती हैं-

बारिश घनघोर
मिट गए हैं घरों के नंबर
शायद ये घर मेरा है.

यह घर सिर्फ एक स्त्री का घर नहीं रह जाता, वह एक नगर में बदल जाता है जब उसके ऊपर पूरे घर का भार आ पड़ता है. यह कविता कस्बाई स्त्रियों के दिनचर्या और जीवन का आख्यान प्रस्तुत करती है.

इसी घर में स्त्री का शोषण होता है और पितृ सत्ता की गुलामी शुरु होती है. उसके अत्याचारों की दास्तानें घर की दीवारों पर लिखी होती है. छोटी-सी कविता है– स्त्री-सुबोधिनी, बड़ी मार करती है. यहां फिर करुणा का संचार दिखाई देता है. वह अत्याचारी पुरुष जब स्त्री की गोद में सिर रख कर लेट जाए तो उसे क्षमा कर देना चाहिए. कविता है-

जिसने विश्वास कर लिया, उससे छल करने में कौन-सी विलक्षणता
जो गोदी में आकर लेट गया
उसे मार देने में कौन-सी बहादुरी.
मेरा गठबंधन किया आपने जिस अनुपम विश्वास से
कठिन गृहस्थी मैंने की उसके साथ.
दुनिया में जब कुछ बुरा घटता
वह मुझसे ही लड़ता.

इस कविता में किसी भी मध्य वर्गीय घरेलू स्त्री का चेहरा दीख जाएगा. घर की चक्की में पिसती हुई, सहती हुई स्त्री जो अपने समूचे जीवन काल में कम से कम एक बार उस पुरुष का गला घोंट देने के बारे में अवश्य सोचती है जो उसे गुलाम बना कर रखता है या उसे सताता है. कुछ शोध में ऐसे सत्य सामने आ हैं जिसमें पति पत्नी दोनों अपने जीवन काल में एक बार एक दूसरे से पीछा छुड़ाने के बारे में जरूर सोचते हैं. अनामिका के यहां स्त्री का हृदय बहुत उदार है. वह माफ कर देती हैं. थेरियां माफ नहीं कर पाईं, इसीलिए तो गृहस्थ जीवन त्याग कर भिक्षुणी बन गईं.

(4)

अनामिका थेरी गाथा लिखते हुए भी गृहस्थी बनाए रखने पर जोर देती नजर आती हैं. वे उस सामाजिक व्यवस्था में यकीन रखती हैं जहां परिवार एक महत्वपूर्ण इकाई के तौर पर नजर आता है. और यह सब स्त्री ही बचा सकती है. इस कविता को आलोचना की कड़ी कसौटी पर कस कर देखने की जरूरत है. नव-स्त्रीवाद को यह करुणा, यह क्षमाभाव नहीं रुचता है. वहां सीधे-सीधे अलगाव है, दो टूक फैसला है. एकल जीवन की राह है.

एक कविता है- शिखा सक्सेना, प्रथम वर्ष, एम.आई.टी.: वितृष्णा के शरबत की रेसिपी इसमें चोट खाई हुई वह स्त्री सुबोधिनी की झलक मिलती है. वह पूछती है-

टभक रहे थे उसके माथे पर
चोट के निशान.
रुंधे हुए स्वर में पूछा उसने
बर्दाश्त की सरहद क्या होती है आखिर.
सुनती हूं, न्याय से बड़ी है क्षमा
प्रति हिंसा विष है
और वितृष्णा
नींबू या इमली.
मुंह का स्वाद बदल देती है.

अनामिका हिंसा के विरुद्ध हिंसा की कतई समर्थक नहीं हैं. उनके यहां क्षमा है, बर्दाश्त की हदें हैं. करुणा हैं और अंत में एक उम्मीद है. साझे जीवन का सुंदर स्वप्न सरीखा जीवन. उनके भीतर का कस्बाई संस्कार कूट-कूट कर भरा है जो मुज़फ़्फ़रपुर सीरीज की कविताओं में दिखाई देता है. उन कविताओं से उस शहर का चेहरा पहचान सकते हैं. छोटे शहर की बेटियों को पोटली में जो संस्कार मिलते हैं, वे आजीवन उसकी चेतना का हिस्सा बने रहते हैं. कविता हो या जीवन, कहीं साथ नहीं छूटता है. वह लिखती हैं-

जितना रच पाए, वही सपना है
इस स्वप्न संध्या में
एक झुटपुटा है
यह झुटपटा ही अब मेरा खुदा है .

इस तरह की सारी कविताएं अनामिका की आत्मकथात्मक कविताएं हैं. इसीलिए उनमें आत्मीय गंध है. मेरी छूटी हुई दुनिया की गंध. यहां हमारी स्मृतियां साझा हैं, अनुभव भी एक-से. वे किस तरह वे “हमारे” होने को लिखती हैं-

इसमें रहती थी मेरी गुड़िया
शानो-शौकत से
अब इसमें रहते हैं छिपकलियां,
घोंघे और भुइंले !
कोई बुलाता है
जन्मों के पार से….
“कैसी हो गुड़िया?”
क्या जाने कितनी सदियों से
गोल-गोल उड़ रही हैं मेरे गुंबद के भीतर
नन्ही–सी बेचैन चिड़ियां !

हिंदी साहित्य में कम लोगों को पता होगा कि ये गुड़िया कौन है जिसे कोई बुलाता है. ये गुड़िया हैं स्वयं कवि अनामिका और बुलाता है वह छूटा हुआ शहर. वह घर. विस्थापन भी एक बड़ा दुख है.

संग्रह के अंतिम खंड तक आते –आते अनुभव में पकी, सीझी हुई कवि को इस बात की तसल्ली है कि उन्होंने दुनिया खूब देखी है. अपने हिस्से का सच उनके पास है. दुनिया का क्रूरतम रुप देख कर ही उनके भीतर दुख खदकता है, जब वे स्त्री कवि की जहालतें शीर्षक कविता में लिखती हैं-

कविता भी है तो स्त्री ही
कोई उसे सुनता नहीं,
सुनता भी है तो समझता नहीं,
सब उसके प्रेमी हैं और दोस्त कोई नहीं!
कितनी अकेली है

अनामिका का यह संग्रह बड़ा रूपक रचता है. स्त्री जीवन का महाआख्यान प्रस्तुत करता है. टोकरी में दिगन्त एक बड़ा रूपक है. इन कविताओं में स्त्री के दुख, सभ्यताओं के आतंक, समाज के पहरे और पाबंदियां तो हैं ही, स्त्रीत्व का ठाठ –बाट कम तो नहीं है. दुख के लिए वे लिखती हैं-

दुख की अलग-अलग प्रजातियां.
किसको कहें दुश्मन,
किससे संघर्ष करें
कि क़रीब से देखने पर
सब ही लाचार लगे:
किसिम-किसिम के दु:खों में गिरफ्तार !

वे स्त्रीत्व के ठाठ की कवि हैं. युग द्रष्टा होने के लिए ये एक कारण ही पर्याप्त है. क्योंकि वे स्त्री मुक्ति की बात झुंड में करती हैं यानी सामूहिक संघर्ष की बात करती हैं. ये जानते हुए कि अभी स्त्रियों में एकजुटता दूर की कौड़ी है. अभी-अभी तो उन्हें अपनी ताकत का अहसास हुआ है, बोलना सीखा है. वे सभी अलबला गई हैं और उन्हें अहसास ही नहीं कि पितृसता ने यों ही नहीं उन्हें एक दूसरे के बरक्स शत्रु रुप में खड़ा कर दिया है. सामूहिक संघर्ष के लिए खोखले अहंकारों और क्षुद्र स्वार्थों से मुक्ति जरूरी है.संग्रह की अंतिम कविता वापसी में वे लिखती हैं-

देखो भाई, होना तो होना हवामहल!
सब खिड़कियां खोल कर रखना जीवन-भर !
जो आए भीतर, वह टिके नहीं
बह जाए !
एक कान से सुनकर ज्यों दूसरे कान से बाहर
कर देते हों बातें तुम सब
वैसे ही इस खिड़की आए, उस खिड़की निकल जाए
द्वेष-राग, दुख-सुख, कुछ जबदे नहीं भीतर !

अनामिका सूक्त वाक्यों में बड़ा संकेत दे जाती हैं. ना समझे वो अनाड़ी है. वो मुक्ति को तरसे. अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता. लड़ाईयां समूह में जीती जाती हैं. संघर्ष का इतिहास पढ़ना चाहिए. यहां पर अनामिका मुझे क्रांतिकारी रोजा लक्जमबर्ग के बहुत करीब दिखाई देती हैं.

रोजा ने प्रोलेतारियत पार्टी ज्वायन करने के बाद संगठित संघर्ष पर जोर दिया था. उसे उच्चाभिलाषी, षड्यंत्रकारी, बकवादी इत्यादि कहा गया, लेकिन उसने परवाह न की और अपने संगठन के उच्च पदाधिकारियों से टकराते हुए आंदोलन को गति दी. रोजा के बारे में कहा जाता है कि उसने भी कभी गालियों की भाषा का जवाब कभी गालियों से नहीं दिया, अपने काम से दिया. कभी परवाह नहीं की.

अनामिका कविता में यही काम कर रही हैं. वे जानती हैं कि स्पार्टकस विद्रोह में सामूहिक एकता की जरूरत होती है. जब तक स्त्रियां एकजुट नहीं होंगी, स्त्री मुक्ति एक अपूर्ण स्वप्न ही रहेगा.

अनामिका की तमाम कविताओं को स्त्री-मुक्ति के घोषणापत्र की तरह बांचिए. युग का प्रतिनिधित्व वही करते हैं जो अपने समकाल और आगामी पीढ़ियों के लिए रचनात्मक नेतृत्व की धारा तैयार करते हैं.

__________

गीताश्री
मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार,

कविता जिनका हक (कविता संग्रह), स्त्री आकांक्षा के मानचित्र (स्त्री विमर्श), तेईस लेखिकाएं और राजेंद्र यादव (संपादन और संयोजन), नागपाश में स्त्री (स्त्री-विमर्श, संपादन), औरत की बोली (स्त्री विमर्श), सपनो की मंडी (आदिवासी लड़कियों की तस्करी पर आधारित), प्रार्थना के बाहर और अन्य कहानियां (वाणी प्रकाशन), स्वप्न, साजिश और स्त्री (कहानी संग्रह) आदि प्रकाशित.

Tags: अनामिकागीताश्रीटोकरी में दिगंत
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Comments 16

  1. Krishna Kalpit says:
    4 years ago

    यह हिंदी कविता का अनामिका युग है !
    इस मूर्खतापूर्ण वाक्य से शुरु होने वाले आलेख को कोई मूर्ख ही पढ़ सकता है ।

    Reply
    • Manoj Srivastava says:
      4 years ago

      स्त्री को उसका स्त्रीत्व ही सबल बनाता है और वह ही उसे निर्बल भी करता है। अनामिका जी की कविताओं में उसके दोनों पक्ष दृष्टिगोचर होते हैं। इसलिए उनका लेखन रचनात्मक होने के साथ सफल माना जाता है।

      Reply
  2. मनोज मोहन says:
    4 years ago

    यह महत्त्वपूर्ण और ज़रूरी लेख है. अनामिका हमारे समय की ख्यात कवयित्री हैं, उन्हें किसी विशेषण की ज़रूरत नहीं है…गीताश्री को बधाई…

    Reply
  3. डा कैलाश कौशल says:
    4 years ago

    ‘अनामिका स्त्रीत्व के ठाठ की कवि हैं ‘सच में, ‘टोकरी में दिगन्त ‘ की कविताएं के माध्यम से गीता श्री का यह विवेचन अनामिका जी की कविताओं की गहन विवेचना करता है, स्त्री मन की सशक्त अभिव्यक्ति करते हुए उन्होंने मन की विविध परतों को उकेरा है। प्रस्तुत आलेख इन कविताओं को समझने की दृष्टि विकसित करता है, सटीक सम्यक् आकलन के लिए गीता श्री को साधुवाद

    Reply
  4. RASHMI BAJAJ says:
    4 years ago

    आलेख अच्छा है। यदि प्रारंभिक अतिशयोक्तिपूर्ण टिप्पणियों से बचा जा सकता तो और बेहतर होता। समीक्षक ,आलोचक से बहुत अधिक अपेक्षाएं हो जाती हैं जिसमें एक संतुलित प्रस्तुति ही अधिक श्रेयस्कर होती है।

    गीता जी आपने यहां बहुत कुछ बहुत सही भी लिखा है।
    साधुवाद, शुभकामनाएं 💐

    Reply
  5. Pooja singh says:
    4 years ago

    यह आलेख लंबे समय तक याद किया जाएगा l इस काम को गीता श्री जी ही कर सकती थीं उनके इस आलेख के माध्यम से अनामिका जी की काव्य यात्रा ही नहीं काव्य यात्रा के विन्यास विस्तार का पूरा पूरा आकलन भी मिलता है l हिन्दी कविता के शोधार्थी को इस आलेख को अवश्य ही पढ़ना चाहिए l निसंदेह दर्ज यह समय आधुनिक हिंदी कविता के नाम में अनामिका काल के नाम से भी पहचाना जाएगा l

    Reply
  6. Anu Shakti Singh says:
    4 years ago

    एक आलोचकीय आलेख है जिसके कथ्य की विवेचना होनी चाहिए थी। सहमति-असहमति को दर्ज किया जाना चाहिए था किंतु जिस तरह से यहाँ लेखक पर आक्रमण किया गया है वह भौंचक्क करने वाला है।
    रोज़ हिंदी की दुनिया को परिष्कृत करने की बातें होती हैं। रोज़ देखती हूँ द्वेष का नया आयाम। हाँ, यहाँ मुझे स्त्रीद्वेष भी दिख रहा और पुरुषोचित मानसिकता से सीधे तौर पर ख़ारिज करने की प्रवृत्ति भी।

    Reply
  7. Priyanka Dubey says:
    4 years ago

    किसी भी लेख से कोई सहमत- असहमत हो सकता है …पसंद ना पसंद बिल्कुल अपनी जगह है …सबकी होती है और ज़ाहिर भी की जानी चाहिए. लेकिन ज़ाहिर करने की भाषा में जब literary होने की बजाय स्त्री द्वेष से भरी हो, समस्या तब होती है. मुझे कई बार यह देख कर हैरानी होती है है कि हिंदी में स्त्री द्वेष कितना स्वीकार्य सा है !

    Reply
    • Saurabh says:
      4 years ago

      अब शायद अनामिका जी ही स्पष्ट करें कि क्या यह कविता का अनामिका युग है. शुरुआती पंक्ति महिमामंडन के चर्मोत्कर्ष को प्राप्त कर रही है. क्या अनामिका जी के साहित्यिक व्यक्तित्व को स्थापना की इतनी आवश्यकता है.

      Reply
  8. Anonymous says:
    4 years ago

    अनामिका की कविताओं को स्त्री मुक्ति के घोषणापत्र की तरह बाँचिये।
    शायद अनामिका जी की कविताएं और आपके लेख का यह मर्म ही लोगो की परेशानी का कारण है और वास्विकता में दोनों का ही उत्सव मनाना चाहिए।बधाई और आभार इसे लिखने के लिए

    Reply
  9. Daya Shanker Sharan says:
    4 years ago

    जैसा कि हर वाद अपने समय के अंतर्विरोधों से टकराते और उनसे वाद-विवाद-संवाद करते कई धाराओं में बंटता रहा है,स्त्री विमर्श भी इसका अपवाद नहीं है।मुझे हमेशा लगा है कि अनामिका जी अपने स्त्रीवादी मंतव्यों में रैडिकल होने की बजाय लिवरल रही हैं। वह अपने स्वभाव से इतनी मृदुभाषी एवं सहृदय हैं कि उनका सौम्य व्यक्तित्व स्वयं एक कविता है।लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि उनमें संघर्ष का माद्दा नहीं है। गीता श्री जी ने सही कहा है कि सविनय अवज्ञा भी प्रतिरोध का एक कारगर उपाय है। इसका एक रूप मीरा में और उसी का दूसरा रूप गाँधी के सत्याग्रह में भी दीखता है। दरअसल, सत्याग्रह की प्रेरणा गाँधी ने मीरा से ही ली थी। अनामिका जी को एवं उनके काव्य मर्म को गहराई से छूती-महसूसती इस समीक्षा के लिए गीता श्री जी को बधाई !

    Reply
  10. Anonymous says:
    4 years ago

    बहुत सुंदर समीक्षा । बधाई एवं साधुवाद गीता श्री जी।
    नारीवाद होने का अर्थ पुरुष विरोधी होना नही अपितु एक दूसरे की कमियों को दुरूस्त कर ऐसे समतामूलक समाज की रचना करना है जहां हम एक दूसरे को बड़ा और छोटा दिखाने के बजाय मित्रवत संबंधों के लिए वातावरण तैयार करने की दिशा में आगे बढ़े । जिसके लिए स्त्री और पुरुष दोनों का सहयोग अपेक्षित है।
    आवेशजनित आधुनिक नारीवादियों को स्त्री मुक्ति के सही अर्थ को समझने के लिए लिए अनामिका दी को जरूर पढ़ना चाहिए ।
    अनामिका दी अक्सर वह कहती है “खोलते पानी में अपना चेहरा दिखाई नही देता ।ठहरे और शांत पानी में ही हम स्वयं को देख पाते है । ”
    इस सूत्र वाक्य को आत्मसात करने की जरूरत है।

    Reply
  11. Anonymous says:
    4 years ago

    सुबह से फेसबुक पर एक ही पंक्ति घूम रही है जबकि पूरा आलोचकीय आख्यान इसके बाद शुरू होता है । पूरा आलेख ‘ टोकरी में दिगन्त ‘ कविता संग्रह को केन्द्र में रखकर विवरण सहित उल्लिखित है । इसे पढ़ने के बाद मुझे लगा कि लेखिका पर हो रहे तमाम हमले व्यक्तिगत खुन्नस से ज़्यादा कुछ नहीं । बाकि सहमति-असहमति अपनी जगह ।

    Reply
  12. शिरीष मौर्य says:
    4 years ago

    अनामिका पर विस्तृत आलोचनात्मक विवेचन अब अपेक्षित हैं। मैं अतिरेक पर आपत्ति नहीं करूँगा, उसके पीछे नितान्‍त भावनात्मक कारण हो सकते हैं। लेख का स्वागत।

    Reply
  13. Anonymous says:
    4 years ago

    बहुत सुंदर लिखा है गीताश्री ने। अनामिका दी कविताओं में आम आदमी की आवाज है। उनकी कविताएं जीवन के सारे रंगों से भरी है। गीताश्री ने बहुत खूबसूरती से सारे रंगों को हमारे बीच रखा है।

    Reply
  14. Shardula Nogaja says:
    4 years ago

    “कविता भी है तो स्त्री ही
    कोई उसे सुनता नहीं,
    सुनता भी है तो समझता नहीं,
    सब उसके प्रेमी हैं और दोस्त कोई नहीं!
    कितनी अकेली है”

    अनामिका जी की कविताओं में डूबे तो उनसे उबरना आसान नहीं!
    गीताश्री जी आलेख में कुछ बातें इतनी अच्छी हैं, कि समालोचन की तरफ़ से एडिटिंग की कमी अनदेखी सी करने पर मजबूर कर रही हैं।
    – “करुणा से दृष्टि बदलती है और मैत्री से गैरबराबरी खत्म होती है”
    -“भाषा सत्यप्रिय होती है और बदले में चेतना उपहार में देती है! “
    अनामिका जी अपनी कविताओं और वक्तव्यों में बार-बार सविनय अवज्ञा की बात करती हैं। एक Commune of Friends, बिना दीवारों के घर की बात करती हैं। वह कहती हैं कि सजग स्त्री की विश्व दृष्टि, छद्म क्रांति से अलग होती है। यह सब बातें इस आलेख में खूबसूरती से उतर कर आई हैं। लेखिका ने कविता में छुपे हुए शहर को पंक्ति दर पंक्ति ढूँढ निकाला है, एक गाईड की तरह। यह पढ़ने वालों और लिखने वालों को नई राहें देगा!

    Reply

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