• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » महात्मा गांधी: मृत्यु-बोध, हमले और हत्या: अमरेन्द्र कुमार शर्मा

महात्मा गांधी: मृत्यु-बोध, हमले और हत्या: अमरेन्द्र कुमार शर्मा

महात्मा गांधी की हत्या भारत पर ऐसा कलंक है जिससे वह चाह कर भी छुपा नहीं सकता, उससे बच नहीं सकता. महात्मा गांधी ख़ुद मृत्यु के विषय में क्या सोचते थे, उनकी हत्या के लिए उनपर कितने हमले हुए और अंततः उनकी हत्या के दिन क्या कुछ घटित हुआ, इसकी विस्तार से चर्चा कर रहें हैं- आलोचक अमरेन्द्र कुमार शर्मा. ३० जनवरी को पिता (राष्ट्र) की शहादत के ७४ वर्ष पूरे हो रहें हैं. यह ख़ास आलेख इसी अवसर पर.

by arun dev
January 29, 2022
in समाज
A A
महात्मा गांधी: मृत्यु-बोध, हमले और हत्या: अमरेन्द्र कुमार शर्मा
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

महात्मा गांधी: मृत्यु-बोध, हमले और हत्या

अमरेन्द्र कुमार शर्मा

मृत्यु-बोध महज एक बोध है या महज विचार या दोनों या फिर दोनों नहीं ?  इस प्रश्न पर लंबी बहस के बाद भी ठीक-ठीक उत्तर प्राप्त कर लेने का संदेह मेरे मन में हमेशा से बना रहा है. कठोपनिषद में नचिकेता के यम से किए गए प्रश्न और यम द्वारा दिए गए उत्तर भी इस संदेह को ख़त्म नहीं कर सके है और न ही यक्ष-युधिष्ठिर के संवाद ही. संदेह की भी अपनी सीमा होती है और मेरी भी. लेकिन सिद्धार्थ (गौतम बुद्ध) के ज़ेहन में उठने वाले सवाल ‘क्या मैं भी मर जाऊँगा ?’ मृत्यु की अनिवार्यता के संदर्भ में कभी कोई संदेह मन में रहने नहीं देता है. जीवन के आरंभ से ही मृत्यु के बीज गुंथे हुए होते हैं. जैसे-जैसे जीवन आगे बढ़ता जाता है, उसके साथ-साथ मृत्यु भी पल्लवित-पोषित होकर वृक्ष का आकर ग्रहण करती जाती है.  मृत्यु-बोध और मृत्यु पर अपने-अपने समय की परिधि में भारत सहित दुनिया के लगभग सभी चिंतकों ने विचार किया है. मैं यहाँ इनमें से कुछ का उल्लेख शुरुआत में इसलिए कर देना चाहता हूँ ताकि महात्मा गांधी की मृत्यु-बोध संबंधी चिंतन की आध्यात्मिकता, उनपर हुए हमलों की पद्धति और हमलावरों के बारे में महात्मा गांधी की प्रतिक्रिया और अंततः हत्या की तरफ जाने की उनकी स्वीकृति के मार्ग के  उच्चावच को समझे जाने की प्रस्तावना की जा सके.

‘यदि मृत्यु न हो तो जगत में कोई धर्म भी न हो’- अरस्तु (384 ईसा पूर्व – 322 ईसा पूर्व )

‘हमें यह कहने से सावधान रहना चाहिए कि मृत्यु जीवन के विपरीत है. जीवित प्राणी केवल मृतकों की एक प्रजाति है, और एक बहुत ही दुर्लभ प्रजाति है’ – फेड्रिक नीत्से (1844 -1900)

मुझे मृत्यु का भय नहीं है. मैं पैदा होने से पहले अरबों और अरबों वर्षों के लिए मर चुका था, और इससे थोड़ी भी असुविधा नहीं हुई थी – मार्क ट्वैन (1835-1910)

सभी कहानियां, यदि बहुत दूर तक जारी रहीं, तो मृत्यु में समाप्त हो जाती हैं – अर्नेस्ट हेमिंग्वे (1899-1961)

मृत्यु प्रकाश को नहीं बुझा रही है, यह केवल दीपक को बाहर रख रही है, क्योंकि भोर आ गया है – रवीन्द्रनाथ टैगोर (1861-1941)

‘मृत्यु केवल मित्र नहीं है, यह सबसे गहरी मित्र है. यह हमें व्यथा से बचाती है. यह हमारे

विरुद्ध सहायता करती है. यह हमेशा हमें नए मौके देती है, नयी आशा देती है. यह मीठी नींद की तरह है जो हमें स्वस्थ करती है.’- महात्मा गांधी (1869 -1948)

 

1

मृत्यु-बोध : वो जो काया में बजता है अनहद

अरस्तु, फेड्रिक नीत्से, मार्क ट्वैन, अर्नेस्ट हेमिंग्वे, रविन्द्रनाथ टैगोर और महात्मा गांधी जैसे अपने समय के अनेक चिंतकों ने मृत्यु-बोध को अपने-अपने वैचारिक घूर्णन बिंदु से देखे और समझे जाने की प्रस्तावना करते रहे हैं. इन वैचारिक घूर्णन बिंदुओं की अपनी-अपनी दार्शनिक प्रणाली रही है. मृत्यु-बोध संबंधी चिंतन की दार्शनिक भूमि मोटे तौर पर भाववाद और भौतिकवाद की पृष्ठभूमि में संरचित होती हुई दिखलाई देती है. एक दृष्टिकोण के तौर पर मृत्यु-बोध संबंधी चिंतन को आस्तिक और नास्तिक परम्पराओं की परिधि में भी समझा जा सकता है. मृत्यु-बोध संबंधी चिंतन को आध्यात्मिकता और भौतिकता के वृत्त पर भी परिगणित किया जा सकता है.

यदि मृत्यु-बोध को मात्र आध्यात्मिक धरातल के वृत्त में ही देखा जाए तो मृत्यु-बोध आवश्यक रूप से धर्म के साथ घूर्णन करता हुआ दिखलाई देता है. यदि भारत में मृत्यु-बोध को भौतिक अवधारणा के धरातल पर देखे जाने की संभव दृष्टि विकसित की जाए तो यह संभव है कि मृत्यु-बोध धर्म के दामन से विलग होती हुई दिखलाई दे. असल में, भारतीय चिंतनधारा में मृत्यु-बोध या मृत्यु संबंधी चिंतन धर्म की परिधि के भीतर अपना आकर ग्रहण करती रही है. मृत्यु-बोध का धर्म रहित चिंतन या भाष्य भारतीय चिंतन धारा में दिखलाई नहीं देता है. धर्म का कोई न कोई सिरा मृत्यु-बोध के चिंतन में जाकर अवश्य मिल जाता रहा है या यों भी कह सकते हैं कि मृत्यु का कोई न कोई सिरा धर्म के किसी न किसी तंतु को जरूर स्पर्श करती रही है. वैदिक, बौद्ध, जैन, सिख, इस्लाम, ईसाई आदि परम्पराओं के चिंतन में मृत्यु-बोध का प्रसंग धर्म के सहचर के रूप में दिखलाई देता है. चार्वाक के यहाँ भी मृत्यु-बोध भोगवाद के सहारे धर्म को भिन्न धरातल पर स्पर्श कर लेती है.

यह प्रश्न पूछने में प्रायः यह संशय बना रहता है कि क्या भारत में मृत्यु-बोध का विचार धर्म रहित हो सकता है. क्या भारत में मृत्यु को निरे एक देह के अंत के साथ आत्मा की धारणा को निषेध करते हुए देखा जा सकता है ? महात्मा गांधी की हत्या द्वारा संभव मृत्यु और भगत सिंह की फाँसी द्वारा संभव मृत्यु, हमें मृत्यु-बोध की आध्यात्मिक और भौतिक अवधारणाओं की तरफ ले जा सकती है. बल्कि ले जाती ही है. भगत सिंह के निबंध ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’ की वैचारिक संरचना के सहारे मृत्यु (शहीद) के संबंध में उनकी विचारणा शक्ति को समझा जा सकता है. इस शक्ति की पहचान फाँसी के क्षण में जेलर द्वारा दी गई सलाह ‘वाहे गुरु को याद कर लो’ के प्रत्युत्तर में भगत सिंह के जवाब से भी की जा सकती है. भगत सिंह की मृत्यु-बोध संबंधी चिंतन के रूपबंध और उसके भौतिकवादी सिरे की पहचान को स्थगित रखते हुए यहाँ हम महात्मा गांधी की मृत्यु-बोध संबंधी चिंतन के रूपबंध की पहचान करते हुए उनपर हुए जानलेवा हमलों और उनकी हत्या के परिदृश्य की राजनीतिक और आध्यात्मिक धरातल की ग्रहणशीलता को समझने की कोशिश करेंगे.

महात्मा गांधी के विचार में मृत्यु-बोध का चिंतन सनातन परम्परा के रस से पगकर आया हुआ रहा है. महात्मा गांधी के चिंतन में मृत्यु-बोध की यात्रा आध्यात्मिक रास्ते से होकर गुजरती रही है. श्रीमद्भागवत गीता की भूमिका इस यात्रा में केंद्रीय रहा है. महात्मा गांधी पर श्रीमद्भागवत गीता का प्रभाव बहुकोणीय  रहा है. यही कारण रहा है कि महात्मा गांधी गीता का गुजराती अनुवाद ‘अनासक्ति योग’ नाम से 1929 में कौसानी में रहकर कर चुके होते हैं. यह अनुवाद 1930 में ठीक दांडी मार्च के दिन प्रकाशित हुआ था. इसी किताब की प्रस्तावना में श्रीमद्भागवत गीता से अपने प्रथम परिचय का उल्लेख भी गांधी जी करते हैं, वे कहते है –

‘गीता का प्रथम परिचय मुझे एडविन आर्नोल्ड के पद्य अनुवाद (जो सॉंग सेलेस्टियल नाम से थी) से सन 1888-1889 में हुआ था.’[1]

महात्मा गांधी अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा’ में भी श्रीमद्भागवत गीता के पास पहुँचने की कहानी बताते हैं – ‘…थियोसाफिस्ट मित्रों से मेरी पहचान हुई . दोनों सगे भाई थे और अविवाहित थे. उन्होंने मुझसे गीताजी की चर्चा की. वे एडविन आर्नल्ड का गीताजी का अनुवाद पढ़ रहे थे. पर उन्होंने मुझे अपने साथ संस्कृत में गीता पढ़ने के लिए न्योता. मैं, शरमाया, क्योंकि मैंने गीता संस्कृत में या मातृभाषा में पढ़ी ही नहीं थी. मुझे उनसे कहना पड़ा कि मैंने गीता पढ़ी ही नहीं है, पर मैं उसे आपके साथ पढ़ने को तैयार हूँ. …दूसरे अध्याय के अंतिम श्लोकों में से

‘ध्यायतो विषयान्पुंस: संगस्तेषूपजायते. संगात्संजायते काम: कामात्क्रोधोSभिजायते. क्रोधाद भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम:. स्मृतिभ्रंशाद बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति.’[2] इन श्लोकों का मेरे मन पर गहरा असर पड़ा.’[3]

आत्मकथा में महात्मा गांधी के इस उल्लेख को विशेष संदर्भों के साथ समझा जाना चाहिए कि महात्मा गांधी किस तरह से भारतीय ज्ञान परम्परा के आध्यात्मिक ग्रंथ श्रीमद्भागवत गीता के पास इंग्लैण्ड जाने के बाद अंग्रेजी माध्यम से पहुँचते हैं. असल में, भारतीय ज्ञान परम्परा के पास पहुँचने के माध्यमों में एक द्वैत रहा है. भारत में पुनर्जागरण के दौर में भी बड़े पैमाने पर भारतीय ज्ञान परम्परा से परिचय पश्चिम द्वारा किए गए अंग्रेजी अनुवाद के आधार पर होता है. कमोबेस आज भी भारतीय ज्ञान परम्परा को देखने का ढ़ांचा पश्चिम की निगाह से ही करने के हम आदि है. भारतीय ज्ञान पद्धति का यह एक अनोखा द्वैत है.

रवीन्द्रनाथ टैगोर और महात्मा गांधी सहित कई भारतीय चिंतकों में इस प्रकार के द्वैत की कई परतें हमें दिखलाई देती है. महात्मा गांधी की विचार पद्धति में श्रीमद्भागवत गीता के प्रवेश को महात्मा गांधी की आत्मकथा के रास्ते गांधीवादी चिंतक नंदकिशोर आचार्य भी अपने ‘अहिंसा विश्वकोश’ में अलग ढंग से रेखांकित करते हैं,

 ‘…गीता से प्रथम परिचय भारत में नहीं बल्कि इंग्लैंड में हुआ, जब दो थियोसोफीवादी भाइयों ने उनके साथ बैठकर एडविन आर्नोल्ड कृत गीता का अंग्रेजी अनुवाद मूल संस्कृत से मिलाकर पढ़ने में उनकी सहायता चाही. महात्मा गांधी ने लिखा है कि गीता के इस प्रथम पाठ में ही दूसरे अध्याय के उन श्लोकों ने उन्हें सर्वाधिक प्रभावित किया- जिसे उनके शेष जीवन की साधना कहा जा सकता है- कि विषयों का ध्यान करने से उनके प्रति आकर्षण बढ़ता है, आकर्षण से कामना उत्पन्न होती है तथा कामना से क्रोध, क्रोध से मूढ़ता, मूढ़ता से स्मृतिभ्रंश और स्मृतिभ्रंश का तात्पर्य सब कुछ का नष्ट हो जाना है. महात्मा गांधी गीता के इस दूसरे अध्याय को संपूर्ण गीता का सार तथा पूरी गीता को इस अध्याय की व्याख्या और इसीलिए अनासक्ति को गीता का सार मानते हैं. वह अनासक्ति की इस अवधारणा के समर्थन में ईशोपनिषद् के मंत्र ईशावास्यमिदं यत्किंच जगत्यां जगत. तेनत्यक्तेन भुंजीथा. मा गृधः कस्यस्विद्धनम्. का उल्लेख करते हैं. महात्मा गांधी इस तेनत्यक्तेन भुंजीथा अर्थात् त्यागपूर्वक भोग को ही अनासक्ति का मूलमंत्र मानते हैं तथा मंत्र के अंतिम भाग मा गृधः कस्यस्विद्धनम् अर्थात् अन्य की संपत्ति के प्रति लालच न रखने को अनासक्ति का प्रमाण.[4] और उस दिन भी जो उनके जीवन का आखिरी दिन था, 30 जनवरी 1948 की अलसुबह महात्मा गांधी, प्रार्थना के ठीक बाद अपने शिष्यों के साथ भगवद्गीता के प्रथम और द्वितीय अध्याय के श्लोकों का पाठ कर रहे थे. द्वितीय अध्याय का यह श्लोक उन्हें विशेष प्रिय था-‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्युधुर्वं जन्म मृतस्य च.  तस्मादपरिहार्येSथे न त्वं शोचितुमर्हसी.’[5]

और फिर उस दिन जब महात्मा गांधी की चिता जल रही थी, जो लगभग चौदह घंटे तक जलती रही थी, तब भी भजन गाए जा रहे थे और अनवरत पूरी गीता का पाठ किया जा रहा था. महात्मा गांधी के संपूर्ण जीवन-प्रसंगों में विशेषकर मृत्यु-बोध के प्रसंगों में श्रीमद्भागवत गीता के महत्त्व को रेखांकित किया जा सकता है. स्वयं महात्मा गांधी 6 अगस्त 1925 के ‘यंग  इंडिया’ के अंक में गीता के महत्व को अपने जीवन के लिए स्वीकारते हुए लिख चुके थे,

‘जब शंकाएँ मुझे घेर लेती है, जब निराशाएँ मेरे सामने आकर खड़ी हो जाती हैं और मुझे आशा की एक भी किरण नहीं दिखाई देती, तब मैं भगवद्गीता का आश्रय लेता हूँ और चित्त की शांति देनेवाला श्लोक पा जाता हूँ, और मैं अत्यधिक विषाद के बीच भी तुरंत मुस्कराने लगता हूँ.’ जीवन कर्म, मृत्यु-बोध आदि के सबंध में महात्मा गांधी के चिंतन पर गीता का प्रभाव सबसे ज्यादा रहा है. द्वितीय अध्याय के उपर्युक्त श्लोक के ठीक बाद का श्लोक है – ‘अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानी भारत. अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना.’[6]

यह श्लोक अव्यक्त और व्यक्त देह की अस्तित्व मीमांसा करती है और शोक के कारण को अकारण मानती है. महात्मा गांधी के मृत्यु-चितंन में शोक का कोई महत्व नहीं रहा है.

गीता में मृत्यु संदर्भों के रास्ते महात्मा गांधी मृत्यु के संबंध में बार-बार विचार करते हैं. विचार करते हुए वे, मृत्यु से निर्भय बने रहने की एक विस्तृत संरचना विकसित करते रहते हैं. स्वयं के ऊपर किए हमलों को भी महात्मा गांधी इसी निर्भय बने रहने के परिप्रेक्ष्य से देखते हुए हमेशा बड़ी ही निडरता के साथ प्रस्तुत होते हैं. ‘यंग इंडिया’ के 13 अक्तूबर 1921 के अंक में महात्मा गांधी मृत्यु को एक सौभाग्य की तरह देखे जाने की प्रस्तावना करते हैं-

‘मृत्यु किसी भी क्षण एक सौभाग्य है, लेकिन एक योद्धा के लिए यह सौभाग्य दोगुना हो जाता है जो अपने उद्देश्य जो कि सत्य है, के लिए मारा जाता है.’

और अपने जीवन की आखिरी शाम भी जब वे सरदार बल्लभभाई पटेल से बातचीत कर 5 बजकर 10 मिनट पर प्रार्थना सभा में जाने के लिए उठ रहे थे तो उन्होंने पटेल से कहा था,

‘अब मुझे जाने दो. मेरा भगवान से मिलने का वक्त हो गया है.’[7]

प्रार्थना सभा के लिए देर हो जाने को लेकर वे चिंतित हो रहे थे, ठीक उसी समय आश्रम की एक सेविका ने उन्हें बताया कि काठियावाड़ के दो कार्यकर्त्ता (मनुबेन गांधी अपनी किताब ‘अंतिम झांकी’ में इस कार्यकर्त्ता का नाम रसिक भाई पारिख और ढेबर भाई लिखती हैं.) आपसे मुलाकात का समय माँग रहे हैं, तब महात्मा गांधी अगले ही पल हो जाने वाली अपनी हत्या के ठीक मुहाने पर, उस सेविका से कहते हैं,

‘उनसे कह दो कि प्रार्थना के बाद आ जाएँ, मैं जीवित रहा तो उस समय उनसे मिलूँगा.’[8]

इसी बात को मनुबेन गांधी अपनी डायरी ‘अंतिम झांकी’ में दूसरे तरह से दर्ज करती हैं,

‘उनसे कहो कि यदि जिंदा रहा तो प्रार्थना के बाद टहलते समय बात कर लेंगे.’[9]

और फिर प्रार्थना के लिए जाते महात्मा गांधी की हत्या हो जाती है. ‘मेरा भगवान से मिलने का वक्त’ और ‘यदि जिंदा रहा तो’ जैसे पदबंध का प्रयोग महात्मा गांधी अपनी हत्या के ठीक कुछ मिनट पूर्व जब कर रहे होते हैं, तब दरअसल यह जान रहे होते हैं कि विभाजन के बाद देश में उनके विरुद्ध एक ऐसे परिवेश की निर्मिति होती जा रही है जिनमें उनकी हत्या अवश्य कर दी जाएगी. हत्या की प्रबल संभावनाओं के बीच भी वे सुरक्षा के हर उपाय को नकार देते हैं. दरअसल, मृत्यु का स्वीकार वे निडरता के साथ करना चाहते हैं. महात्मा गांधी, ‘यंग इंडिया’ के 13 अक्तूबर 1921 के अंक में अपने कहे को कि ‘मृत्यु किसी भी क्षण एक सौभाग्य है’, सार्थक करते हुए प्रतीत होते हैं. मृत्यु की तमाम संभावनाओं पर विचार करते हुए महात्मा गांधी कई बार निर्भयता के साथ स्वयं के लिए मृत्यु को आमंत्रित करते हुए या स्वयं को मृत्यु के लिए तैयार करते हुए दिखलाई देते है. तब क्या यह कहा जाना चाहिए कि, महात्मा गांधी की मृत्यु को श्रीमद्भागवत गीता के मृत्यु संदर्भों, जिससे महात्मा गांधी प्रभावित रहते हुए मृत्यु से निर्भय हो रहे थे, के साथ देखा जाना चाहिए ?

क्या महात्मा गांधी की मृत्यु को ‘हत्या’ के आवरण से मुक्त करते हुए गीता में कहे गए मृत्यु से जोड़कर देखा जाना चाहिए ? देखे जाने की यह दृष्टि असल में महात्मा गांधी की ‘हत्या’ के संपूर्ण राजनीतिक बुनावट को ध्वस्त कर देती है और जीवन को अनिवार्य मृत्यु की आध्यात्मिकता से जोड़ देती है. जीवन है तो मृत्यु होगी ही. इस संपूर्ण परिप्रेक्ष्य की विस्तृत चर्चा करते हुए सौरभ वाजपेयी अपने लेख ‘गांधीजी : सत्य, अभय और मृत्यु’ में निष्कर्षित होते हुए लिखते हैं,

‘30 जनवरी 1948 की उनकी मृत्यु को हत्या माने जाने वाले अगर गांधी के अभय व मृत्यु संबंधी विचार पढ़ें तो उन्हें अपने कृत्य की निस्सारता का अहसास होगा.’[10]

असल में यह विश्लेषण मृत्यु का एक भाववादी, अध्यात्मवादी और आस्तिक पाठ है. जाहिर है यह पाठ महात्मा गांधी के मृत्यु संबंधी विचारों से गुजरते हुए बड़ी ही सहजता से प्राप्त किया जा सकता है. गौर करने वाली बात यह है कि इस तरह के पाठ के आधार पर सभी हत्यारों को बरी किया जा सकता है, महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को भी. क्योंकि गोडसे ने महात्मा गांधी के सिर्फ देह का अंत किया था. आत्मा का नहीं. मृत्यु में सिर्फ देह का अंत होता है आत्मा का नहीं. एक स्तर पर मृत्यु जीवन का आरंभ ही तो है. गीता के दूसरे अध्याय के 23वें श्लोक में तो यह दर्ज है ही -‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:. न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:’[11] महात्मा गांधी ने भी कई बार दुहराया है कि पाप से घृणा करो, पापी से नहीं. नाथूराम गोडसे से भी नहीं.

महात्मा गांधी प्रेम के सिद्धांत को अहिंसा की शब्दावली में स्वीकारते हैं. सत्य के लिए उनका आग्रह प्रबल है. आत्मोत्सर्ग की भावना के लिए आत्मबल की अनिवार्यता को वे जानते हैं, इसलिए वे कभी भयभीत नहीं होते. निर्भयता महात्मा गांधी का एक प्रमुख हथियार है. यहीं पर, यह उल्लेख कर देना उचित होगा कि यदि महात्मा गांधी में मृत्यु का संदर्भ निर्भयता से जुड़ता है तो फिर भगत सिंह की मृत्यु भी निर्भयता से जुड़ता है. दोनों के यहाँ जो निर्भयता है उस निर्भयता में कोई तात्विक अंतर नहीं है लेकिन मूल्यगत अंतर जरूर है.

महात्मा गांधी के चिंतन में मृत्यु संबंधी निर्भयता का संदर्भ सामाजिक संदर्भों और संदर्भों की संपूर्ण प्रक्रिया से गुजरते हुए विकसित हुई सामूहिक चेतना को प्रभावित करने वाली दिखलाई देती है. भगत सिंह के यहाँ यह मृत्यु, मृत्यु की एक शहीदाना दास्तान सिरजती है. यह दास्तान तात्कालिक स्वतंत्रता के आंदोलन से जुड़ता है. यह मृत्यु आकर्षित करती है, उत्तेजना पैदा करती है लेकिन यह मृत्यु निर्भयता की सामूहिक चेतना पैदा नहीं करती है. भगत सिंह की तरह भारत में शहीद होने की परम्परा फिर कभी विकसित नहीं हुई. यहाँ इस तथ्य पर गौर किया जाना चाहिए कि महात्मा गांधी के पास अपने जीवन-काल में यह अवकाश था कि वे मृत्यु संबंधी निर्भयता का एक पर्यावरण अपने प्रयोगों के द्वारा निर्मित कर सकते थे, उन्होंने किया भी. लेकिन तेईस साल में भगत सिंह की मृत्यु , भगत सिंह को यह अवकाश नहीं दे सका था.

मैं यहाँ अपने समर्थन में एक बार फिर से सौरभ वाजपेयी के लेख ‘गांधीजी: सत्य, अभय और मृत्यु’ को याद करना चाहूँगा, ‘…गांधीजी और भगत सिंह दोनों ही मृत्यु के प्रति लगभग एक प्रकार का साहसबोध विकसित कर सके. गांधी जी के यहाँ यह दर्शन वैयक्तिक नहीं है, जैसा कि भगत सिंह के मामले में है.  भगत सिंह स्वयं को मृत्यु भय से मुक्त कर सके लेकिन समाज के व्यापक हिस्से को भयमुक्त करने का समय उनको नहीं मिला.’[12]

महात्मा गांधी के चिंतन में मृत्यु संबंधी निर्भयता संपूर्ण सामाजिक संदर्भों की प्रक्रिया से घटित होते हुए गतिशील हुआ है. मृत्यु का संदर्भ महात्मा गांधी में हमेशा सौदेश्यता को स्पर्श करती है. यह सौदेश्यता, गीता के कर्म सिद्धांत के साथ घुल-मिल कर आती है.  28 अक्तूबर 1910 के ‘इंडियन ओपिनियन’ में महात्मा गांधी ने लिखा, …

अगर हम इस मुद्दे पर गहराई से विचार करें, हम यह महसूस करेंगे कि मृत्यु, चाहे वो जल्दी आए या देर से, हर्ष या विषाद का विषय नहीं होना चाहिए. इसके विपरीत, समुदाय की सेवा में मर जाना या किसी अन्य भले उद्देश्य की तलाश में मरना वास्तव में जीवित रहना ही है.’ 26 सितंबर 1920 के ‘नवजीवन’ में वे कहते हैं, ‘…

भारत में मृत्यु का भय अन्य स्थानों की अपेक्षा अधिक है, जहाँ यह कम होना चाहिए. हम मानते हैं कि आत्मा अनश्वर है. हम जानते हैं कि शरीर किसी भी क्षण नष्ट होने के लिए बना है. आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर अपनी कर्म के अनुसार विचरण करती है. अगर ऐसा है तो मृत्यु से भय या शोक कैसा?’

19 अगस्त 1921 के ‘नवजीवन’ के तीसरे और चौथे पृष्ठ पर ‘मृत्य का भय’ शीर्षक में महात्मा गांधी फिर लिखते हैं,

‘…जिस देश के लोग मौत के भय से घबराए रहते हैं वह न तो स्वराज प्राप्त कर सकता है और न उसे संभाल ही सकता है. …परंतु जिस मृत्यु-भय को छोड़ने का दीर्घ प्रयत्न हम कर रहे हैं वह एक शुद्ध यज्ञ है और उसके द्वारा हम, थोड़े ही समय में, बड़ी भरी विजय प्राप्त करने की आशा रखते हैं.’[13]

मृत्यु के हर संदर्भ के साथ निर्भय रहने/ निर्भय बने रहने की सीख महात्मा गांधी के चित्त में कार्य करती रहती है. निर्भयता की इस यात्रा में ऐसा नहीं था कि महात्मा गांधी अपने जीवन में कभी डरे नहीं थे. महात्मा गांधी अपने किशोर जीवन को याद करते हुए डर का उल्लेख करते हैं, किशोर जीवन का यह डर दरअसल सिर्फ महात्मा गांधी का नहीं है, जीवन के शुरुआती पड़ाव में लगभग सभी बच्चों/किशोरों  में इस प्रकार का डर रहता ही है,

‘…मैं बहुत डरपोक था. चोर, भूत, साँप आदि के डर से घिरा रहता था. ये डर मुझे हैरान भी करते थे. रात कहीं अकेले जाने की हिम्मत नहीं थी. अँधेरे में तो कहीं जाता ही न था. दिए के बिना सोना लगभग असंभव था.’[14]

यह कौन जानता था कि  ‘चोर, भूत, साँप’ से डरने वाला एक किशोर, मृत्यु से निर्भय रहने की पाठ पढ़ाएगा. महात्मा गांधी के जीवन में जीतनी भी मृत्यु आयी हैं, वे सभी आघात की तरह आयीं, किसी भी तरह के भय का दामन थामे नहीं. महात्मा गांधी भय को दरअसल ‘मलेरिया या कालाजार से भी बुरी बीमारी’ मानते थे. वे कहते हैं,

‘बीमारियाँ शरीर को मिटा देतीं हैं, भय आत्मा को मारता है.’

अपने पिता, अपनी माता, अपनी पत्नी की मृत्यु को वे आघात की तरह याद करते हैं किसी भी तरह के भय के रूप में नहीं. मृत्यु में रुदन का वे लगातार निषेध करते रहे हैं. गांधी के बोध में ‘मृत्यु’ निर्भयता की टेक लिए आता है. निर्भयता की टेक के धरातल पर ही महात्मा गांधी मृत्यु को कभी ‘केवल मित्र नहीं है, यह सबसे गहरी मित्र है.’

कहते हैं तो कभी मृत्यु के सहज स्वीकार को

‘और कुछ नहीं बस एक लंबी नींद.’

एक ‘मीठी नींद’ की तरह देखते हैं. महात्मा गांधी से बहुत पहले सुकरात ने भी अपने ऊपर मुकदमा चलाए जाने के दौरान मृत्यु-दंड के संदर्भ से मृत्यु की प्रक्रिया को स्वप्नहीन नींद या एक यात्रा पर जाने के दार्शनिक आशयों को न्यायाधीश के सामने रखते हैं. यह आशय मृत्यु के अभिग्रहण के संदर्भ को भिन्न ढंग से प्रस्तुत करता है,

‘यदि मृत्यु की यही प्रकृति है कि वह स्वप्नहीन निद्रा है, तो मैं इसे लाभ ही समझूँगा क्योंकि इसका यह अर्थ निकलता है कि चिरन्तनता एक रात से ज्यादा नहीं है. पर यदि मृत्यु किसी दूसरे स्थान के लिए यात्रा है और साथ ही इस संबंध में प्रचलित विश्वास सही है कि जो लोग मर चुके हैं, वे सब मौजूद हैं, तो मेरे न्यायाधीश इससे बढ़ कर अच्छी बात क्या हो सकती है ?’[15]

महात्मा गांधी मृत्यु-बोध के चिंतन में मृत्यु के अनुभव और मृत्यु से निर्भयता को वे वैयक्तिक धरातल से मुक्त करते हुए एक सार्वजनीन अनुभव में तबदील कर देते हैं. महात्मा गांधी के यहाँ मृत्यु से निर्भयता का आशय हमेशा सामूहिक चेतना से जुड़ कर परिभाषित होता रहा है. अहमदाबाद आश्रम के लिए जब वे नियम बना रहे थे तब वे उन नियमों के साथ अलग से एक नियम निर्भयता का जोड़ा था.

‘जो डरेगा, वह पहले के निर्देशों का पालन न कर सकेगा. सब प्रकार के भय से मुक्ति पानी होगी- राजा के भय से, जाति के भय से, परिवार के भय से, मनुष्य और हिंस्र पशुओं के भय से, मृत्यु के भय से. जो व्यक्ति निर्भय है, वह ‘सत्य और आत्मा की शक्ति’ से अपनी रक्षा करता है.’[16]

दरअसल, महात्मा गांधी के चिंतन में गीता के प्रभाव से यह स्थापित हो गया था कि दुर्बलता से भय का जन्म होता है और भय से घृणा आती है. इसी कारण महात्मा गांधी अपने ऊपर हमला करने वाले तमाम हमलावरों से घृणा नहीं करते हैं. महात्मा गांधी का निर्भय चित्त जिस काया में बसता था, उस काया का आरेख कई भारतीय और विदेशी विद्वानों ने खींचा है. सबसे प्रामाणिक तौर पर आरेख खींचने वालों में रोमाँ रोल्याँ और लुई फिशर का नाम आता है. दोनों अलग-अलग समय में महात्मा गांधी के साथ रहे थे. गांधी के साथ रहते हुए दोनों ने महात्मा गांधी के न केवल कार्य-प्रणाली को बारीकी से देखा था बल्कि उनके ‘निज’ का अध्ययन भी सूक्ष्मता से किया था. लुई फिशर द्वारा महात्मा गांधी पर लिखित जीवनी सबसे अधिक चर्चित और प्रामाणिक मानी जाती रही है. बहरहाल, उन दोनों के लिए महात्मा गांधी की काया कैसी थी ? तुलनात्मक रूप से देखना दिलचस्प है.

रोमाँ रोल्याँ लिखते हैं, ‘सितंबर 1931- गांधी को देखने के बाद उनके बारे में मेरी बहन और प्रिवा दंपति का ख्याल है कि वे लंबे नहीं हैं, मस्तक बड़ा है, गंजे नहीं हैं, लेकिन बाल छोटे कटे हुए हैं, सुंदर न होने पर भी बड़े मधुर हैं. ललाट माथे की ओर चढ़ गया है, आगे के दांत नहीं हैं, शरीर का रंग वैसा काला नहीं है, लगभग यूरोपियनों जैसा ही है- मोटे चश्मे के पीछे से अत्यंत सजीव दो आँखें झाँकती हैं, वे आँखें सीधी चेहरे की ओर देखती हैं, एकदम भीतर तक पैठ जाती हैं- उनमें शरारत का भाव है और रसिकता का भी, जिसके बीच अचानक गंभीर हो जाते हैं, एकाग्र होकर सोचने लगते हैं. उनके गले की आवाज बड़ी मीठी और गंभीर है. शुद्ध निर्दोष अंग्रेजी बोलते हैं, एक बात को दो बार नहीं कहते, उनकी बातों में जोड़-टाँका नहीं रहता, लगता है जैसे बोलने के पहले हर वाक्य को उन्होंने सोच रखा है. जैसा सोचते हैं, ठीक वैसा ही बोलते हैं. शरीर मजबूत है, छाती खासी चौड़ी है, हाथ लंबे, पतले और ठंडे हैं. प्रिवा कहते हैं, डर था कि वहाँ जाकर किसी साधु-संत धर्म-पुरोहित को देखूँगा, अथवा वैसे ही किसी तेजस्वी को. लेकिन देखा एक सुकरात को ’[17]

महात्मा गांधी के आश्रम में कुछ दिनों तक साथ रहने वाले लुई फिशर लिखते हैं,

‘गांधीजी का शरीर सुगठित था, सीने के स्वस्थ पुट्ठे उभरे हुए, पतली कमर और लंबी, पतली मजबूत टंगे, जो चप्पलों से धोती तक नंगी थी. उनके घुटनों की गाँठें निकली हुई थीं और उनकी हड्डियाँ चौड़ी तथा मजबूत थीं. उनके हाथ बड़े-बड़े तथा अंगुलियाँ लंबी और सुदृढ़ थीं. उनकी चमड़ी कोमल, चिकनी और स्वस्थ थी. वह तिहत्तर वर्ष के थे. उनकी अंगुलियों के नाख़ून, हाथ-पाँव तथा शरीर निर्दोष थे. उनकी धोती, धूप में कभी-कभी पहना जानेवाला टोप और सिर पर रखा हुआ गिला अंगोछा सफ़ेद-झक थे. …उनका शरीर बूढ़ा नहीं मालूम देता था. उनको देखकर यह नहीं लगता था कि वह बूढ़े हैं. उनके बुढ़ापे का पता उनके सिर से लगता था. …उनकी शांत, विश्वासभरी आँखों के सिवा उनके चेहरे की आकृति भद्दी थी. विश्राम की अवस्था में उनका चेहरा भद्दा प्रतीत होता, परंतु वह कभी विश्राम की अवस्था में होता ही नहीं था. चाहे वह बात करते हों या सुनते हों, उनका चेहरा सजीव बना रहता था और उस पर तुरंत प्रतिक्रिया होती थी. बात करते समय वह प्रभावशाली ढंग से हाथों द्वारा भाव-प्रदर्शन करते थे.’[18]

महात्मा गांधी अपनी इसी काया की निर्भीकता से तत्कालीन विश्व के सबसे बड़े साम्राज्य की चूलें हिला दी थी. आत्मबल और आत्मोसर्ग की भावना निरे भावना के रूप में नहीं बल्कि कार्य-योजना के रूप में, ठोस ढंग से उनके रोजमर्रेपन के जीवन में घटित होता था. ‘लव ऑफ़ विजडम’ पर उनकी आस्था थी. यही कारण रहा है, कि दो महायुद्धों के बीच भयानक रूप से पसरी हुई हिंसा, यूरोप में फासिस्टों द्वारा किए नृशंस  कत्लेआम, विभाजन के दौरान भयानक साम्प्रदायिक हिंसा की कार्यवाही, स्वयं के ऊपर किए गए अनगिनत हमलों के बीच महात्मा गांधी निर्भयता के साथ एक अहिंसक दुनिया बनाने के प्रयत्नों से एक पल के लिए भी विचलित नहीं हुए थे. अपने समय में और आगामी समय में भी उनकी काया और निर्भीकता की संरचना एक मिथ की तरह लगती है.

मृत्यु-बोध, हमले, हत्या और ‘हे राम’ लेख के वृत्त में मुझे अहिंसा पर प्रसिद्ध सूफी संत हजरत निजामुद्दीन  औलिया (1236-1325) के गुरु प्रसिद्ध सूफी संत और पंजाबी के कवि हजरत ख्वाजा फरीद्दुद्दीन गंजशकर जो बाबा फरीद (1173-1266) के नाम से प्रसिद्ध हुए, उनका एक प्रसिद्ध दोहा जो गुरुग्रंथ साहिब की बानी में भी संग्रहित है याद हो आती है-

‘जो तैं मारण मुक्कियाँ, उनां ना मारो घुम्म,
अपनड़े घर जाईए, पैर तिनां दे चुम्म .’
(कोई भी यदि आपको घूंसा मारे तो पलट कर उसे आप मत मारो. उसके पैरों को चूमो और अपने घर की राह लो.)

और इस दोहे के ठीक साथ ही हिंदी के प्रसिद्ध कवि कुँवर नारायण (1927-2017) के काव्य ‘वाजश्रवा के बहाने’ की कुछ काव्य-पंक्तियाँ जिसमें जीवन-विवेक के अभाव में मृत्यु घटित होती है, याद हो आती है –

‘किसी महात्मा से पूछा था एक बार

किसी ने –

“कितना समकालीन है तुम्हारा सत्य ?
कितने आधुनिक हैं तुम्हारे हथियार ?
कितना तर्कसंगत है तुम्हारा संदेश ?
क्या तुम्हारे सिपाही
लड़ सकते हैं
एक महायुद्ध ? ”
कोई उत्तर न देकर
महात्मा ने पूछा था उससे –

“कितना विकसित है तुम्हारा जीवन-विवेक ?
कितना आधुनिक है तुम्हारा युद्ध ?
कितने प्रबुद्ध हैं तुम्हारे सैनिक ?
क्या वे लड़ सकते हैं

स्वयं से

एक आत्मिक न्याय–युद्ध ? ”
“मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझा ! ”
चीख पड़ा था एक अधीरज,
और बिना महात्मा का मतलब समझे
उसने एक महा-आत्मा की हत्या कर दी
हत्या के सब से विकसित हथियार से !’ (पृष्ठ-114-115)

ठीक इस दोहे और काव्य-पंक्ति के साथ मैं अपने इस वक्तव्य को जोड़कर देखने की गुजारिश करता हूँ कि, ‘हम भारत के लोग’ अभी इतने धैर्यवान और सक्षम नहीं हुए हैं कि ‘अहिंसा’ की धारणा को ठीक से धारण कर सकें. अहिंसा अभी भी हमारे लिए महज एक शब्द मात्र है. क्योंकि अहिंसा की सतह के नीचे हिंसा लगातार खौलती रहती है, हल्के दवाब से जिसका लावा सतह पर न केवल फ़ैल जाता है बल्कि हमारी मनुष्यता को भीतरी तौर पर झुलसा भी देता है. हिंसा, ‘हम भारत के लोग’ के ‘हम’ के सत्त्व को नष्ट करता हुआ कई बार ‘मैं’ में परिघतित हो जाता है. भारत की राजनीतिक स्थितियाँ अपने लाभ-लोभ के लिए ‘हम’ और ‘मैं’ के खेल में हिंसा को राजनीतिक हथियार की तरह प्रयुक्त करती रही है. इस प्रयुक्ति में धर्म हमेशा उनका सहचर हुआ करता है. जबकि, मनुष्य का अहिंसक होना ही वास्तविक अर्थों में ‘मनुष्य’ होना और जीवन के विकास की गति में अपनी सार्थक भूमिका निबाहना है. बाबा फरीद का दोहा और कुँवर नारायण की काव्य-पंक्तियों को मेरे इस आलेख में दो धमनियों की तरह देखा जा सकता है. यह धमनियाँ महात्मा गांधी की मृत्यु-बोध संबंधी चिंतन में, उनपर हुए हमलों में और फिर अंततः उनकी हत्या की संरचना में बार-बार उभरकर आती दिखलाई देती है.

महात्मा गांधी (2 अक्टूबर 1869 -30 जनवरी 1948) का संपूर्ण जीवन जिस सामाजिक और राजनीतिक वातावरण में साँस ले रहा था वह हिंसा और अहिंसा के बीच द्वंद्व और उसके बीच कड़े मुकाबले का समय रहा है. या यों कहें कि वह समय हिंसा और अहिंसा के द्वैत के बीच खड़ा रहा है. महात्मा गांधी जब 1915 में भारत लौट रहे थे  दुनिया का एक बड़ा हिस्सा प्रथम विश्व युद्ध की आग में जल रहा था. विश्वयुद्ध से उठने वाली हिंसा की आग उनकी आत्मा पर लकीर की तरह उभर आयी थी. यह लकीर और गहरी तब हो गई थी जब महात्मा गांधी कुछ बरसों के लिए वर्धा में रहे थे और उन्हीं कुछ वर्षों में पूरी दुनिया दूसरे विश्व युद्ध की ताप सह रहा था. तानाशाहों के फलने-फूलने, रक्त बहाने का दौर भी यही था. दो महायुद्धों में और दो महायुद्धों के बीच के समय में पसरी हुई हिंसा, आजाद होते भारत में दंगों के बर्बर और हिंसक रूप के बीच महात्मा गांधी की अहिंसा को कितनी और किस रूप में साँस मिल रही होगी, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है.

कहना होगा कि महात्मा गांधी अपने जीवन में अहिंसा के रास्ते पर आत्मविश्वास से भरे एक जिद के साथ जितनी मजबूती से आगे बढ़ते रहे थे, हिंसा उनके जीवन में उतनी ही ताकत और वेग से आगे बढ़ती रही थी. उनपर व्यक्तिगत हमलों से लेकर राजनीतिक आंदोलनों और भारत-विभाजन के संपूर्ण परिदृश्य में फैली हिंसा को, हिंसा की ताकत और उसके बेपरवाह वेग के परिप्रेक्ष्य से देखा जा सकता है. महात्मा गांधी अहिंसा की राह पर चलते हुए अंतत: दिल्ली में 30 जनवरी 1948 की एक गुनगुनी ठंड की शाम में अपने सीने में तीन गोली खाई. एक अहिंसक मनुष्य की हिंसक मृत्यु. यहीं, कुँवर नारायण की कविता पंक्ति अपने अर्थ का परिपाक करती है –

‘और बिना महात्मा का मतलब समझे
उसने एक महा-आत्मा की हत्या कर दी
हत्या के सब से विकसित हथियार से !’

राममनोहर लोहिया ने जिसे ‘घृणित व नृशंस हत्या’ कहा था. उस दिन एक अहिंसक व्यक्ति की हत्या, करुणा और क्षमाशीलता की संस्कृति[19] एवं ‘अहिंसा को परम धर्म’[20] मानने वाले महान भारत के माथे पर हमेशा के लिए लिख दी गई थी.

कई भारतीय लेखक, विचारक सहित महात्मा गांधी की प्रामाणिक और सारगर्भित जीवनी लिखने वाले लुई फिशर, महात्मा ‘गांधी की कहानी’ कहते हुए तफसील से हत्या की उस शाम का जिक्र अपनी किताब में करते हैं. हत्या की उस शाम का एक छोटा सा हिस्सा मैं यहाँ उद्धृत करना चाहता हूँ यह जानते हुए कि आप में से हर कोई यह विवरण जानता है लेकिन मेरे इस लेख के शीर्षक  के लिए यह दुहराव आवश्यक है –

‘प्रार्थना- स्थान की भूमि पर पहुँचने वाली पाँच छोटी सीढ़ियाँ उन्होंने जल्दी से पार का लीं. प्रार्थना के समय जिस चौकी पर वह बैठते थे, वह अब कुछ ही गज दूर रह गई थी. अधिकतर लोग उठ खड़े हुए. जो नजदीक थे वे उनके चरणों में झुक गए. गांधी जी ने आभा और मनु के कंधों से अपने बाजू हटा लिए और दोनों हाथ जोड़ लिए. ठीक उसी समय एक व्यक्ति भीड़ को चीरकर बीच के रास्ते में निकल आया. ऐसा जान पड़ा कि वह वह झुककर भक्त की तरह प्रणाम करना चाहता है, परंतु चूंकि देर हो रही थी, इसलिए मनु ने उसे रोकना चाह और उसका हाथ पकड़ लिया. उसने  आभा को ऐसा धक्का दिया कि वह गिर पड़ी और गांधीजी से करीब दो फुट के फासले पर खड़े होकर उसने छोटी-सी पिस्तौल से तीन गोलियाँ दाग़ दीं. ज्योंही पहली गोली लगी, गांधीजी के सफ़ेद वस्त्रों पर खून के धब्बे चमकने लगे. उनका चेहरा सफ़ेद पद गया. उनके जुड़े हुए हाथ धीरे-धीरे नीचे खिसक गए और एक बाजू कुछ क्षण के लिए आभा की गर्दन पर टिक गया. गांधीजी के मुँह से शब्द निकले -‘हे राम’ ! तीसरी गोली की आवाज हुई. शिथिल शरीर धरती पर गिर गया. उनकी ऐनक  जमीन पर जा पड़ी. चप्पल उनके पाँवों से उतर गए . …पहली गोली शरीर के बीच खिंची गई रेखा से साढ़े तीन इंच दाहिनी ओर नाभि से ढाई इंच ऊपर, पेट में घुस गई और पीठ में होकर बाहर निकल गई. दूसरी गोली इस मध्य-रेखा के एक इंच दाहिनी ओर पसलियों के बीच में होकर पार हो गई और पहली की तरह यह भी पीठ के पार निकल गई. तीसरी गोली दाहिने चूचुक से एक इंच ऊपर मध्य-रेखा के चार इंच दाहिनी ओर लगी और फेफड़े में ही धंसी रह गई.’[21]

यह था ‘प्रेम अथवा अहिंसा के प्रति मेरी अविचल श्रद्धा’[22] कहने वाले गांधीजी का अंत. लेकिन महात्मा गांधी की हत्या के लिए यह तीन गोली अकस्मात नहीं चलाई गई थी और हत्यारा भी कोई एक व्यक्ति नहीं था. स्वयं महात्मा गांधी भी यह जानते थे कि उनकी हत्या किए जाने की लगातार एक प्रवृति विकसित होती जा रही है.  दक्षिण अफ्रीका के विभिन्न शहरों से लेकर भारत के विभिन्न शहरों तक फैले हुए भूगोल में  ऐसे कई हमलावर और हत्यारे, महात्मा गांधी के समय को हिंसक, असहिष्णु और कठोर बना रहे थे. लेकिन हम जानते हैं कि इन सबके बीच महात्मा गांधी ‘प्रेम के नियम’ अहिंसा पर ठोस यकीन के साथ खड़े थे. मैं अपने इस लेख में महात्मा गांधी को 31 मई 1893 दक्षिण अफ्रीका के पीटरमैरित्सबर्ग स्टेशन पर ट्रेन से धक्का देकर निकालने की घटना से लेकर 30 जनवरी 1948 की शाम 5 बजकर 17 मिनट, प्रार्थना सभा, नई दिल्ली तक गाँधी पर हमले, मारपीट[23] और हत्या की क्रमवार दास्तान कहूँगा जिसकी सतह के ठीक नीचे और समानांतर अहिंसा समर्थित पाठ मौजूद है. 

 

Page 1 of 3
123Next
Tags: 20222022 समाजअमरेन्द्र कुमार शर्मागाँधी-हत्यामहात्मा गांधी
ShareTweetSend
Previous Post

महात्मा गांधी का जेल-जीवन: मोहसिन ख़ान

Next Post

तुषार गांधी से के. मंजरी श्रीवास्तव की बातचीत

Related Posts

तानाशाह की स्त्रियाँ : अमरेन्द्र कुमार शर्मा
आलेख

तानाशाह की स्त्रियाँ : अमरेन्द्र कुमार शर्मा

महात्मा की ज़मीन: राजीव रंजन गिरि
आलेख

महात्मा की ज़मीन: राजीव रंजन गिरि

उतारकर चश्मा आँखों का: अरुण खोपकर
आलेख

उतारकर चश्मा आँखों का: अरुण खोपकर

Comments 7

  1. Anonymous says:
    3 years ago

    लेख पढ़ने से लेकर गुनने की प्रक्रिया में यकसा नहीं रह जाता। अवचेतन में कुछ भी रहा हो पर बाहर से उन्हें लगता रहा कि वे मृत्यु को चूमेंगे।
    मृत्यु एक कठिन वृत्त है उसके भीतर पैठना सहज नहीं माना जाता। बस आती है और चकित कर देती है।
    हीरालाल नागर

    Reply
  2. अमित राय says:
    3 years ago

    लेख में गांधी के जिस मृत्यु बोध की बात की जा रही है वह आध्यात्मिक रूप से एक विचार है वह उनके जीवन में व्यवहार में प्रत्येक कार्य में भयमुक्ति की तरह प्रकट होता है और इस साध्य का साधन वे प्रत्येक कार्य में अहिंसा के रूप में देखते हैं | और इसी अहिंसा के रास्ते वे अनासक्त कर्म की उस स्थिति में स्वयं को पाते हैं जहाँ विचार और व्यवहार का भेद समाप्त हो जाता है और प्रत्येक अनासक्त कर्म में आसक्ति बोध ख़त्म हो जाता है यह विचार वे गीता से लेते हैं | पर व्यवहारिक भेद हमें उस आध्यात्मिक सत्य को समझने की दिशा में आगे नहीं बढ़ने देते जिस पर गांधी पहुँच चुके थे | मेरे विचार से लेखक ने यहाँ उनके आध्यात्मिक सत्य जहाँ विचार की मृत्यु असंभव है की स्थापना की है,यहाँ गोडसे के ह्त्या के व्यवहारिक विचार की तुलना गांधी के आध्यात्मिक मृत्यु बोध से नहीं हो सकती जो कि लेखक ने की भी नहीं है, लेख में उनकी विचार की हत्या को देह के खत्म कर दिए जाने से खत्म नहीं माना जा सकता ऐसी स्थापना है,गांधी बार बार उसी मृत्युबोध को अपने सार्वजनिक जीवन में दोहराते हैं जिससे उनके व्यक्तिगत सत्य को सार्वजनिक स्तर पर भी व्यक्त किया जा सके और ऐसा करते हुए वे सभी से अहिंसा के पालन की बात करते हैं जिससे सभी आध्यात्मिक मृत्यु बोध की, सत्य की शाश्वत स्थिति को समझ भय मुक्त हो सके,लोगों को उस भय बोध से बाहर निकाला जा सके जिससे विश्व का व्यवस्थित नैतिक शासन स्थापित हो सके,लेकिन व्यवहारिक भेद जो हमें दिखाई देते हैं उनके चलते कुछ लोग ऐसा भाष्य कर सकते है कि गांधी की ह्त्या उनकी आध्यात्मिक मुक्ति है क्योंकि गांधी स्वयं मृत्यु की शाश्वत स्थिति को समझ चुके थे | यदि इसका वाकई यह अर्थ ध्वनित होता तो बहुत आसानी से यह कहा जा सकता है कि मृत्यु एक अंतिम सत्य है जिसे गांधी पहले समझ चुके थे और उन्हें ‘सत्य के मेरे प्रयोग’ न लिखकर ‘मृत्यु के साथ मेरे प्रयोग’ लिखना चाहिए था |

    Reply
  3. दया शंकर शरण says:
    3 years ago

    गाँधी की आध्यात्मिक शक्ति जिसकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही उनके संघर्षशील व्यक्तित्व के निर्माण में-उसे बहुत बारीकी से समझा जा सकता है इस आलेख को पढ़ते हुए। गाँधी हमारी समूची जातीय परंपरा और अस्मिता के अपराजेय प्रतिनिधि चरित्र हैं-भारतीय मनीषा के प्रतीक पुरुष। इस सुंदर आलेख के लिए साधुवाद !

    Reply
  4. M P Haridev says:
    3 years ago

    गांधी का विचार ‘मृत्यु किसी भी क्षण एक सौभाग्य है’ उनके गहरे आध्यात्मिक बोध को प्रकट करता है । वे अनासक्त थे, इसलिये निर्भय होकर जी सके । जन्म और मृत्यु व्यक्ति के शरीर के दो छोर हैं । गांधी का अंतर्बोध स्पष्ट है । वे ही कह सके “बीमारियाँ शरीर को मारती हैं, भय आत्मा को मार देता है । लेखक की पंक्ति है गांधी प्रेम को अहिंसा के सिद्धांत के रूप में देखते हैं । मेरी बुद्धि उलझन का निवारण नहीं कर सकती कि अमरेन्द्र कुमार शर्मा इतने ज्ञान की साधना कैसे कर लेते थे । मैं समालोचन के कई लेखों पर निरुत्तर हो जाता हूँ । रजनीश ने कहा था कि अहिंसा शब्द अच्छा होते हुए भी नकारात्मक है । प्रेम सकारात्मक शब्द है ।

    Reply
  5. Girdhar Rathi says:
    3 years ago

    अमरेंद्र कुमार शर्मा ने अद्भुत मनन किया है। वह शायद इस पर भी ग़ौर करना चाहेंगे कि ईश्वर और अमर आत्म या आत्मा पर विश्वास न हीं करने वाले लोग भी, महात्मा गांधी का मूलमंत्र अपना सकते हैं: निर्भयता! यह ऐसा अस्त्र है जो किसी भौतिक हथियार की मांग नहीं करता,अपने आप में पर्याप्त है, । हिंसक प्रतिकार का हामी भी, निर्भयता के बिना न तो प्रहार कर सकेगा, न अपनी रक्षा। लेकिन आत्मा की अमरता दुधारी है: हम गांधी आत्म की अमरता चाहते हैं, गोडसे या हिटलर या स्तालिन आत्म की नहीं।शहादत शायद अपनी निर्भयता का संदेश देने के साथ-साथ, अपने या अपने लक्ष्य आदर्श मंतव्य आदि के शत्रु के संपूर्ण विनाश का यक़ीन भी करना-कराना चाहती है?गोडसे या फिर कोई भी हत्यारा अगर आत्म की अमरता मान ले तो हिंसा-हत्या कर पाएगा? अगर गोडसे उस भारतीय अध्यात्म को मानता होता, तो? अगर उसे फांसी न मिलती—गांधी जी अगर बच गए होते ,तो उसे जरूर बचा लेते–नहीं? तब जेल में या हमारे समाज में विचरते हुए उसे वैसी ग्लानि होती, जैसी —! लेडी मैकबेथ की ग्लानि याद करें? यहीं एक और बात विचार के लायक है: अब तक की मेरी पढ़ाई लिखाई ने मुझे यही समझाया था कि भारत में मृत्यु का भय नहीं है, जबकि शेष दुनिया में उससे भयानक भय देखा जाता है। अनेक पश्चिमी विचारक यही बताते आए हैं! —और, कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी की स्मृति को बचाए रखना ही उसकी आत्मा की ‘अमरता’ मान ली जाती है?अध्यात्म और धार्मिक शास्त्रीय सवालों के ऐसे विकट व्यूह इस तरह खुलते चलेंगे —–
    बेहतर यही जान पड़ ता है कि
    हत्या को हत्या ही मानें और कहें भी; शायद तभी किसी और ‘महा-आत्मा’ को,उसकी ‘शारीरिक ‘ हत्या से बचाए रखने की सीख-समझ पैदा की जा सकती है?

    Reply
  6. Girdhar Rathi says:
    3 years ago

    आम अनुभव में, ‘स्वाभाविक ‘ कही जाने वाली मृत्यु मन में जैसी भावनाएँ जगाती है, वैसी भावनाएं कि सी भी ‘अस्वाभाविक ‘मौत से नहीं उपजती। गांधी या भगतसिंह की मौतें ,हिंसा के सवाल के बावजूद,रोष और निडरता, दोनों की प्रेरणा देती हैं। अमरेंद्र जी का यह एक अव्यक्त निष्कर्ष सही है कि ये मौतें प्रतिशोध नहीं, बलिदान के आदर्श की रक्षा हेतु, उस को आगे बढ़ाने के लिए ‘प्रतिकार ‘ जारी रखने की सीख देती या दे सकती हैं। पाप से घृणा,पापी से नहीं, –इस नसीहत पर अमल करते हुए, उस मानसिकता विचारधारा कुप्रयत्न कुप्रचार पर मुखर विरोध और प्रतिरोध जारी रहे जिनके कारण ‘पापी ‘ पैदा हो रहे हैं। मृत्यु के उदात्त भारतीय अध्यात्म का फ़ायदा हत्यारी विचारधाराएं न उठा सकें, विमर्श इस से भी आगाह रहे तो बेहतर।

    Reply
  7. डॉ सुमीता says:
    3 years ago

    विचारपूर्ण आलेख। भारतीय ज्ञान की सुदीर्घ परम्परा में महात्मा गांधी एक प्रयोगधर्मा मनीषी की तरह अकम्प दीखते हैं। अभय को अध्यात्म-पथ की पहली सीढ़ी कहा गया है जिसके प्रति लोगों को बारम्बार जागरूक करते हुए गांधी जी का मृत्यु-बोध श्रीमद्भगवतगीता से प्रकाश पाता हुआ सुदृढ़ होता है। अभयता के बोध के साथ उनका मृत्यु-बोध व्यक्तिगत ही नहीं, बल्कि समष्टिमूलक चेतना बन सके, इसकी कोशिश भी उनके महा-आत्मा होने की गवाही है। अभय ही अहिंसा का भी प्राणतत्व है। लेकिन मनुष्यों के समाज में हिंसा का बोलबाला ही अधिक रहा है। ऐसे में सत्य और अहिंसा पर अटल रहना मनुष्यता को लाजवाब तो करता ही है। इस सुन्दर और सार्थक आलेख के लिए अमरेन्द्र जी को साधुवाद। इसे साझा करने के लिए Arun Dev जी को भी बहुत धन्यवाद।

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक