वर्किंग विमेंस हॉस्टल और अन्य कविताएँस्त्री-कविता की दिशाएंऋत्विक भारतीय |
‘वर्किंग विमेंस हॉस्टल और अन्य कविताएं’ अनामिका का नवीनतम कविता संग्रह है जो अपनी प्रयोगधर्मिता के लिए अलग से रेखांकित किया जाना चाहिए! उक्त संग्रह पाँच अंकों में क्रमशः विभाजित है- ‘भाषा-घर’, ‘ध से धरम और धमाका’, ‘गगन में गैब उड़ै निसार उरै’, ‘देखी तुम्हारी दुनिया, साधो’ और ‘वर्किंग विमेंस हॉस्टल!
अनामिका की कविताएं अक्सर स्त्री जीवन का आख्यान रचती जीवन-जगत की विडम्बनाओं और विसंगतियों को स्त्री बिंबों के माध्यम से एक कौंध में उजागर करती हैं. पर यह संग्रह अबला और देवी की जो आरंभिक अवधारणाएं समाज में प्रचलित हैं, उसे यह तोड़ता है. स्त्री के असूर्यम्पश्या रूप का अपना करुण इतिहास रहा है तो देवदासियों का! जहां एक ओर स्त्री को देवी मान नैतिकता के बंधनों में जकड़, पाषाण में बदलने को मजबूर किया गया, वहीं दूसरी ओर स्त्री को अबला मान घर की चहारदीवारी में कैद रहने को विवश! आज भी अधिकांश पुरुष याज्ञवल्क्यों की भूमिका में देखें जाते हैं जो स्त्रियों के अधिकार ही नहीं उनके स्वतंत्र वजूद को भी एक सिरे से नकारते हैं!
अनामिका की शिक्षादीप्त स्त्रियां पितृसत्ता की उपयोगिता और उपभोगितावादी दृष्टि को समझने लगी हैं, वे अब गार्गी या ध्रुवस्वामिनी की भूमिका में हृदय परिवर्तन का गांधीवादी सूत्र थामे पुरुषों के ‘मन मांझने की जरूरत’ को समझती, ‘स्वाधीनता का स्त्रीपक्ष’ रखती हैं और ‘मौसम बदलने की आहट’ को पूरी तटस्थता के साथ दर्ज करती हैं ताकि किसी प्रकार का पूर्वाग्रह हो या ऊंच-नीच की दीवार भहराकर टूट गिरे! कुछ ऐसे जैसे, निराला की श्रमशीला ने पत्थर तोड़े थे! इनकी स्त्रियाँ स्त्री-विषयक भ्रांतियाँ तोड़ती हैं ताकि समता और स्वतंत्रता जैसे मानवाधिकार सबको सम्यक रूप से मिले और ‘साहित्य का नया लोक’ में अलग से रचने की आवश्यकता ही न पड़े सुमन राजे के शब्दों में कहूं तो ‘हिंदी साहित्य का आधा इतिहास’ या नीरज माधव के शब्दों में कहूँ तो ‘हिन्दी साहित्य का ओझल नारी इतिहास’ और अनामिका के शब्दों में कहना होगा तो ‘स्त्रीत्व का मानचित्र’!
एक अंतर्विक्षा में अनामिका कहती हैं कि संदूकची में धरे फटे-पुराने तहियाए कपड़ों की पोटली से मनपसंद कपड़े निकाल- कटाई-बुनायी-सिलाई कर बेल-बूटे लगा, नयी फ्राक निर्मित कर लेने का हुनर अनामिका ने अपने पुरखिनों से सीखा. यही प्रक्रिया वे इस संग्रह की अंत:पाठीय कविताएं रचने में भी आजमाती दिखती हैं. वे परंपरा से बीज अवश्य उठाती हैं, किन्तु उसे बोती आधुनिकता की जमीन पर हैं- जो नयी जमीं, नयी फिजां पा एक ऐसे छतनार वृक्ष का रूप धारण करता है- और वहां हर परेशान व्यक्ति और पूरी कायनात उसकी छांव तले आश्रय पाती है. अनामिका की इस प्रक्रिया में उनकी रचना-प्रकिया के बिम्ब भी ढूंढें जा सकते हैं, वे स्वयं लिखती हैं-
‘‘जो बातें मुझको चुभ जाती हैं,
मैं उनकी सुई बना लेती हूं.
चुभी हुई बातों की ही सुई से मैंने
टांके हैं फूल सभी धरती पर!’’
अनामिका अत्यंत ही संवेदनशील कवयित्री हैं. उनके ही शब्दों में उनकी ‘कल्पना के स्थायी नागरिक’ भी वही बनते हैं जिन्हें कभी न्याय नहीं मिला. कविता की इस यात्रा में आपको न्याय के लिए संघर्षरत वैसे चरित्र मिलेंगे जो बरबस आपको अपने आस-पास के चरित्र लग सकते हैं- वर्किंग विमेंस हॉस्टल की तमाम स्त्रियों के अलावा यहां दिल्ली की गली-मुहल्ले की वे औरतें भी हैं जिन्हें मजारों में प्रवेश की अनुमति नहीं, इसके अलावा अदम्य जिजीविषा से भरी, तेजाब से जला दी गयी राबिया भी, जो अब दर्जिन हैं, तो घर से अलस्सुबह निकले बेटे की चिंतातुर मां, घर-बाहर के अंतर्द्वंद्व झेलती- वैसी स्त्री भी जिसे पूजा करते हुए भी घरेलू कामों से छुट्टी नहीं मिलती तो अपने अधूरे सपनों की तलाशी देती स्त्री भी. विस्फोट के ऐन एक मिनट पहले के कई ऐसे चरित्र मिलेंगे जिनके काम अभी बमुश्किल एक मिनट पहले संपन्न हुए थे या होने ही वाले थे. निंदिया का द्वीप रचती नई माएं भी हैं यहां तो आसन्नप्रसवा भी. नव वर्ष पर ‘कोहरे की गाती लपेटे बेमन निकला सूरज’ तो बिनु काज के ही दाहिने-बाएं’ रहते ‘दुश्मन’ और कुछ ‘पुराने दोस्त’ भी ‘सूली ऊपर सेज की व्याप्ति से परिचय करवाते ‘आइसोलेशन वार्ड में पखेरू’ और नागरिकता बिल की विडम्बना से परिचय करवाता, ‘ऊधो, कौन देस के बासी’. और अंततः यहाँ मिलेंगे- स्त्रीवाद के गर्भ से जन्मे नवल पुरुष:
‘‘प्रज्ञा से शासित संबुद्ध अनुकूलित,
प्रज्ञा का प्यारा भरतार,
प्रज्ञा को सोती हुई छोड़कर जंगल
इस बार लेकिन वह नहीं जाएगा.’’
यहाँ- ‘वर्किंग विमेंस हॉस्टल और अन्य कविताएं’ में एक अंक ऐसा भी है जो देवियों, भक्त कवियों, दस महाविद्याओं और नयी लड़कियों का साझा निवास है- भारतीय चिंतन में स्त्री शक्ति के दस महा रूपों का वर्णन है जो विद्याएं कहलाती हैं. अनामिका ने ‘वर्किंग विमेंस हॉस्टल’ में इन महाविद्याओं को सामान्य स्त्री में अंतर्निहित प्रतीक के रूप में देखा है. एक तरह से यह इकोफेमिनिस्ट रचना है जिसमें प्रकृति और स्त्री नाभिनालबद्ध दिखाएं गए हैं- यहां नवरसों के समानान्तर दस महाभावों का मानवीकरण स्त्री रूप में किया गया है- ‘काली, तारा, त्रिपुरसुन्दरी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, पीताम्बरा, धूमावली और मांतगी ऐसी ही कविताएं हैं!
अनामिका की दृष्टि में हर देवता किसी महाभाव का रूपक है. दस महा विद्याएं प्रकृति के दस आयाम की तरह पढ़ी जानी चाहिए जो दुर्गा के दस हाथों की तरह दसों दिशाओं में व्याप्त हैं-
काली आद्याशक्ति है जो तकलीफ और भयावह स्थितियों से निपनटने के साहस के रूप में रूपायित है. यह कालरात्रि का चेहरा है. शक्ति का सूर्योदय स्त्री के भीतर होता है तो सूर्योदय के क्षितिज की सौम्य लाली उसके चित्त पर फैल जाती है. जितने सौम्य भाव हैं (मृदुता-सुन्दरता-प्रेम-क्षमा-सहिष्णुता आदि) वे ललित भाव भी हैं इसीलिए उसे मां ललिता रूप में पढ़ा गया है. शक्ति का सूर्य जब सर पर चढ़ जाता है तो उसकी प्रचण्डता की लगाम खींचने के लिए मन की जो शक्ति होती है- उसी को अनामिका ने वल्गा के रूपा में पढा है. ऐश्वर्य के चारों तरफ फैलने का भाव भुवनेश्वरी भाव है. इस फैलाव के बाद अगर किसी में अहंकार जग जाता है तो उसके विनाश के लिए अपना ही सर काट देने वाली छिन्नमस्ता की कल्पना की गई है.
भैरवी की कल्पना इससे भी अधिक उग्र रूप में अपनी द्रुर्वृर्तियों के नियमन के लिए होती है. उसके बाद ऐश्वर्य के रूप में आती है कमला. अगर शक्ति का दुरुपयोग होता है तो तांडव के बाद उसका अंत हो जाता है. सृष्टि तहस नहस हो जाती है वह जलने लगती है जैसा की करोना काल में हुआ. प्रकृति ही मनुष्य से रुष्ट हो गयी और प्रलयंकर रूप में उसकी कल्पना हुई. शव से उठते धुएं की साड़ी पहनकर जो शोकाकुल शक्ति प्रकट होती है, वही धूमावती है. उसके बाद सृष्टि फिर से कालरात्रि में प्रवेश कर जाती है फिर अवतरित होती है- आद्या में और यही क्रम सृष्टि के प्रारंभ से अंत तक चलता रहता है- सभी देवियों के अंत में कमरा संख्या दरसाई गयी है जैसा कि वर्किंग विमेन्स हॉस्टलों में होता है! कविता लिखना इसी मायने में काल कोठरी में सुरंग खोदने के सादृश्य है-
“अपनी कलम से लगातार
खोद रही हूं मैं तो कालकोठरी में सुरंग!”
इन दसों महाभावों के अलावे यहां बिना किसी पदानुक्रम के कुछ पौराणिक देवियाँ भक्तिकालीन कवयित्रियां भी विराजमान हैं, जैसे- मीराबाई, जनाबाई, सीता, तारा, अण्डाल, अक्क महादेवी इत्यादि. वे चाहती तो इन्हें अलग शीर्षकों में निबद्ध कर सकती थी किन्तु उन्होंने इन्हें ‘वर्किंग विमेंस हॉस्टल’ के अन्तर्गत रखा तो इसलिए कि ‘वर्किंग विमेंस हॉस्टल’ नाम अपनी सार्थकता सिद्ध कर सके! अनामिका के वर्किंग विमेन्स हॉस्टल में भी अलग-अलग वर्गो-वर्णों और धर्मों की स्त्रियां हैं जिनका उद्देश्य एक हैं- हिंसाविह्वल, आतंककातर समय में जीवन को समरस बनाना, सबके बीच बुद्धत्व के बीज प्रस्फुटित कर समाज में प्रेम-करुणा और सहकारिता की भावना विकसित करना-
‘‘रह जाएगी करुणा
रह जाएगी मैत्री
बाकी सब ढह जाएगा!’’
स्त्री विमर्श को दैहिक विमर्श से जोड़कर जिस तरह की भ्रांतियां समाज में फैलायी जा रही हैं अनामिका की ‘जनाबाईः कमरा संख्या बी 27’ कविता मानो उसी का प्रत्युत्तर हो, कविता में स्त्री-मुक्ति के सार्थक अर्थ ढूंढे जा सकते हैं-
‘‘हे माधव, देखो न-
कितने तो काम धरे हैं सर पर,
इतना आटा गूंधना है अभी
इतने कपड़े कूटने हैं,
कम्प्यूटर हैंग कर गया है,
पूरी करनी है असाइनमेंट,
हाथ बंटा दो जरा-सा
या फिर तुम हेर दो जुएं ही जरा,
कुछ तो करो, कुछ करो!’’
घरेलू बिम्बों से पटी ये कविता ‘गगन में गैब निसान उरै’ भाव से अपने अर्थ खोलती है! स्त्री-कर्तव्यों और दायित्वों की जो फेहरिस्त सदियों पहले जारी की गयी थी, वह प्रजातांत्रिक कहे जाने वाले इस देश में अब भी बरकरार है बल्कि आधुनिक कहे जाने वाले इस देश में नयी स्त्री के कर्तव्यों और दायित्वों में इजाफा ही हुआ है. इसके बावजूद स्त्रियां घर-बाहर दोनों ही दायित्वों को कुशलता पूर्वक निभा रही हैं. सीमोन द बोउवार लिखती है,
‘‘हमारे देश में औरत यदि पढ़ी-लिखी है और काम करती है, तो उससे समाज और परिवार की उम्मीदें अधिक होती हैं. लोग चाहते हैं कि वह सारी भूमिकाओं को बिना किसी शिकायत के निभाए. वह कमा कर भी लाए और घर में अकेले खाना भी बनाए, बूढ़े सास-ससुर की सेवा भी करें और अपने बच्चों का भरण-पोषण भी.’’
अनामिका लिखती हैं कि स्त्री पहले भी तन मन से घर-परिवार की सेवा करती थी. नयी स्त्री अब तन मन के साथ कमाया हुआ धन भी लगा रही है. इतना ही नहीं पहले वह घर वालों की सेवा करती थीं अब वे घर से बाहर भी सेवा करती हैं. कहना न होगा नयी स्त्री बिना दीवारों के एक ऐसे घर की कल्पना करती है जिसके आश्रय हर परेशान-दुखी आ जाएं,
‘‘स्त्री समाज एक ऐसा समाज है जो वर्ग, नस्ल, राष्ट्र आदि संकुचित सीमाओं के पार जाता है और जहां कहीं दमन है- चाहे जिस वर्ग, जिस नस्ल, जिस आयु, जिस जाति की स्त्री त्रस्त है- उसको अंकवार लेता है. बूढ़े-बच्चे-अपंग-विस्थापित ओर अल्पसंख्यक भी मुख्यतः स्त्री ही हैं.’’
इसके बावजूद स्त्री को बंधु और सखा समझने वाले पुरुष इस धरती पर आज भी कम ही हैं- स्त्री-पुरुष हो या पति-पत्नी का संबंध आज भी पूर्वग्रह से ग्रस्त दिखते हैं- भेड़-भेड़िया, या स्वामी-सेवक या अभिभावक और अभिभूत वाला ही! ‘प्रजातंत्र’ की सैद्धांतिकी और व्यावहारिकी में हाथी के दांत वाला ही अन्तर है- खाने के कुछ और दिखाने के कुछ! अधिकांश पुरुषों की स्थिति बयां करती अनामिका की निम्न पंक्तियां द्रष्टव्य हैं-
‘‘वर्किंग विमेंस हॉस्टल की हम सब औरतें
ढूंढ़ती ही रह गयीं कोई ऐसा
जिसे देख मन में जगे प्रेम का हौसला!
लोग मिले पर कैसे-कैसे-
ज्ञानी नहीं, पण्डिताऊ,
वफादार नहीं दुमहिलाऊ,
साहसी नहीं, केवल झगड़ालू,
दृढ़पतिज्ञ कहां, सिर्फ जिद्दी,
प्रभावी नहीं, सिर्फ हावी,
दोस्त नहीं, मालिक
सामाजिक नहीं, सिर्फ एकान्तभीरू,
धार्मिक नहीं कट्टर!’’
अनामिका का ‘स्वाधीनता का स्त्रीपक्ष’ देखें-
‘‘हमारे हिंसा विह्वल, आतंकातुर समय की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि स्त्रियां तो ‘ध्रुवस्वामिनी’ वाली कद-काठी पा गईं, किन्तु पुरुष अभी रामगुप्त की मनोदशा में ही हैं, चंद्रगुप्त नहीं हुए! नई स्त्री बेतरह अकेली है क्योंकि उसको अपने पाए का धीरोदात्त, धीरललित, धीरप्रशांत नायक आस-पास कहीं दिखता ही नहीं! गाली बकते, ओछी बातें करते, हल्ला मचाते, मार-पीट, खून-खराबा करते’’
पुरुष ही दिखते हैं. इसके बावजूद स्त्रियों ने पुरुषों के प्रति अपनी आस्था नहीं खोयी. वे मानकर चलती हैं कि अन्याय का प्रतिकार अन्याय नहीं है, एक दमन-चक्र का जवाब दूसरा दमन-चक्र नहीं.
‘‘पुरुषों का ‘वाई फैक्टर’ उन्हें स्वभाव से उग्र, दुर्दम्य और विध्वंसक बनाता है. स्त्रियों में यह होता ही नहीं, इसलिए वे स्वभावतः शान्तिप्रिय, स्नेही, कोमल और उच्च मानवीय गुणसंपन्न होती हैं. ये उच्च मानवीय गुण पुरुषों में ज्यादातर सतत प्रशिक्षण से पैदा होते हैं, और नारी-आन्दोलन इस प्रशिक्षण की बड़ी भूमिका अदा कर सकता है, क्योंकि उत्तरसंरचनावादी आलोचकों की तरह यह भी मानता है कि चेतना कोई ठोस वस्तु नहीं, एक सतत प्रवहमान इकाई है, जहां अस्मिताएं लगातार बदलती रह सकती हैं, इसलिए परकाया प्रवेश या दूसरे की दृष्टि से स्वयं को देखना और अपना दृष्टिकोण मार्जित करना असम्भव नहीं.’’
कहना न होगा अनामिका का मानना है स्त्री के प्रेम का पात्र बनने की पात्रता अर्जित करनी होती है- जिसे वे ‘‘दिल्ली: गल्ली-मुहल्ले की वे औरतें: 1275‘ कविता में उद्धृत करती हैं- प्रेम की पात्रता हासिल की जा सकती है-
‘‘युद्ध में थके-हारे जिद्दी लुटेरे
औरत की गोद में शरण चाहते हैं
जैसे पहाड़ की तराई या लहरों में,
पर उनको याद नहीं आता-
कि स्त्री चेतन है
उसके भीतर तैर पाने की योग्यता,
उसकी तराइयों-ऊंचाइयों में
रमण करने की योग्यता
हासिल करनी होती है धीरज से, श्रम से, संयम से!’’
अयोग्य-अज्ञानी या अपने से कमतर व्यक्ति से स्नेह तो किया जा सकता है पर प्रेम नहीं, प्रेम तो बराबर वाले से ही होता है- जो एक-दूसरे का मान रखें- एक-दूसरे को क्षमा करें, एक-दूसरे को प्रेम करें! अनामिका यहां ‘प्रेम की पात्रता’ का सवाल खड़ा करती हैं और प्रत्युत्तर में खुद ही कहती हैं- स्त्री के प्रेम का पात्र बनने के लिए धीरज, श्रम और संयम अनिवार्य हैं- पुरुषों को नयी स्त्री के योग्य बनना होगा- चारों ओर मार-काट-गाली-गलोज करते हिंसक पुरुष दिखते हैं जो स्त्री को छल-बल और कौशल से स्त्री पर प्रभुत्व कायम करना चाहते हैं- पर अनामिका का मानना है, स्त्री देह को बलात वश में की जा सकती है पर स्त्री मन तो धूप और चांदनी है जिसे मुट्ठी में कैद नहीं किया जा सकता है, जैसा कि वे लिखती हैं-
‘‘क्या कब्जे की चीज है चांदनी!
गठरी में बंधती है धूप क्या कभी और खुशबू?
ये कैसी बादशाहत?
खुद को जो जीत सका, बादशाह तो वो ही,
जिसको न कुछ चाहिए, बादशाह वही.’’
अनामिका भाषा की सम्राज्ञी हैं- भाषा में आए- अलग-अलग स्रोतों के शब्द उनकी भाषा को इन्द्रधनुष की चमक देते हैं. अनामिका के लिए भाषा केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं, चेतना परिवर्तन करने का, क्रांति घटित, करना का एक अचूक बाण भी है. वे लिखती हैं-
‘‘जिनके पास और कुछ नहीं होता,
उनके बटुए में
आशा होती है और भाषा भी-
भाषा यानी पुरखों की असीसी हुई
एक जादू की पुड़िया
जो वक्त के हिसाब से
रूप बदल सकती है-
कुल्हाड़ी, खुरपी,
जंगल, दंगल,
गांती, गंड़ासा
कुछ भी हो सकती है!’’
अनामिका की भाषा स्त्री भाषा है- जहां स्त्री बिम्बों की प्रचुरता है, विस्मयादिबोधक और प्रश्नवाचक चिह्नों की भरमार भी- जो व्यक्ति को आत्मसजग तो करता ही है- सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक चेतना की समझ भी विकसित करता है. अनामिका की भाषा संवादधर्मी है- पुरुषों की भाषणधर्मिता यहां एक सिरे से गायब है- ‘उठो तात अब आंखें खोलो/ पानी लाई हूं मुंह धो लो’ वाले भाव से वे व्यक्ति पर प्रहार न कर व्यक्ति की सोई चेतना पर प्रहार करती हैं. ‘संवादधर्मिता’ उनकी कविताओं को विशिष्ट पहचान देते हैं. सुधीश पचौरी जी का मंतव्य अनामिका की कविता के सम्बंध में देखना संगत होगा-
‘‘अनामिका माधुर्य भाव की कवयित्री हैं. वे स्त्रियों के शोषण, दमन, वेदनाएं, संताप और संचित दुखों को चालू ‘रेडिकल’ स्त्रीत्ववादियों की तरह किसी तेजाबी भाषा में नहीं कहतीं, बल्कि व्यंग्य-वक्र-मिठास के साथ कहती हैं. वे कविता को पुल्लिंगी सत्ता के खिलाफ किसी ‘एफ.आई.आर’ की तरह दर्ज नहीं करतीं, बल्कि मीठा उलाहना देकर उसकी ताकत को ही व्यर्थ करती चलती हैं. इस मायने में वे मुझे भ्रमरगीत की गोपियों की तरह ‘उपालंभों से उद्धव की सारा उद्धवता को निरस्त्र कर देती हैं उसी तरह अनामिका अपनी वक्रोक्तियों और उपालम्भों से पुल्लिंगी प्रतीकों को निरस्त्र करती चलती हैं.’’
अनामिका की भाषा सही मायने में सविनय अवज्ञा है!
इतिहास, कल्पना और यथार्थ एक साथ तीनों लोकों में विचरण करने वाली अनामिका समकालीन कवियों में इकलौती हैं जिनके यहां विषयों की विविधता के साथ अन्तर्वस्तु की विशिष्टता भी है- अभिधा, लक्षणा और व्यंजना तीनों तरह की शब्द शक्ति पर उनकी असाधारण पकड़ है, उनकी विलक्षणता के सम्बंध में प्रियदर्शन लिखते हैं,
“अनामिका हिन्दी की ऐसी विरल कवयित्री हैं जिनका परम्परा-बोध जितना तीक्ष्ण है आधुनिकता-बोध भी उतना ही प्रखर. उनकी पूरी भाषिक चेतना जैसे स्मृति के रसायन से घुलकर बनती है और पीढ़ियों से नहीं, सदियों से चली आ रही परम्परा का वहन करती हैं. उनकी पूरी कहन में यह वहन इतना सहज-सम्भाव्य है कि उसे अलग से पकड़ने पहचानने की जरूरत नहीं पड़ती, वह उनकी निर्मिति में नाभिनालबद्ध दिखाई पड़ता है. कहने की जरूरत नहीं कि उनका स्त्रीत्व सहज ढंग से इस परम्परा की पुर्नव्याख्या और पुनर्रचना भी करता है- उनके जो बिम्ब कविता में हमें बहुत अछूते और नये लगते हैं, जीवन की एक धड़कती हुई विरासत का हिस्सा हैं, उसी में रचे-बसे, उसी से निकले हैं और अनामिका को एक विलक्षण कवयित्री में बदलते हैं!’’
अनामिका की विलक्षण कविता का एक उदाहरण देखें- ‘विस्फोट’ कविता में अनामिका विस्फोट के बाद उसकी विभीषिका से उपजे अवसाद देखा नहीं जा सकता, केवल महसूस किया जा सकता है-
‘‘विस्फोट के ऐन मिनट पहले
किसी ने वादा किया था,
जिन्दगी का वादा!
घास की सादगी
हृदय की पूरी सच्चाई से
खायी थीं साथ-साथ जीने और मरने की कसमें!
विस्फोट के ऐन एक मिनट पहले!
किसी ने चूमा था नवजात का माथा!’’
विस्फोट के ऐन एक मिनट पहले ऐसे अनेक कार्य सम्पन्न हुए ये होने ही वाले थे जो अर्से से नहीं हुए थे. किन्तु कवयित्री विस्फोट के बाद की घटना का ब्यौरा न दे ‘क्या होता? अब क्या होता?’ जैसा अवसाद हृदय में छोड़ देना चाहती है. यह मारक शैली गालिब की याद दिलाती है जिन्होंने कहा था-
“इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ खुदा
लड़ते हैं और हाथों में तलवार भी नहीं.”
कहानी के क्षेत्र में सर्वप्रथम यशपाल ने ‘करवा का व्रत’ कहानी के माध्यम से जन्म ले रहे एक नये पुरुष की अवधारणा पर प्रकाश डाला तो कविता में अनामिका ने.
‘मेकअप मैन’ ऐसी ही कविता है जिसमें शौकत अली नामक पुरुष में धीरोदात्त और धीरप्रशांत नायकों के गुण समाहित है- इतने रहमदिल थे कि अपनी महबूबा के साथ भागे तो उसके चारों बच्चों को लेकर भागे. इतना ही नहीं उसके धीरज की दाद देनी होगी- जरा देखिए कि वे अपने रकीब को चिट्ठी में क्या लिखते हैं-
‘‘माफ कर दें जनाब!
आप अपना ख्याल रखें,
मैं इनकी देख-भाल ठीक ही करूंगा!
आप इनका हलवा टाइट रखते थे!
जाहिर है, आप भी खुश तो नहीं थे
अब खुश रहें
और किसी चीज की जरूरत हो तो
हमें इत्तला करें!’’
सचमुच, यदि धरती पर शौकत अली जैसे धीरोदात्त, धीरप्रशांत और हंसमुख नायक आ जाएं तो धरती गुलजार हो जाए!
वर्किंग विमेन्स हॉस्टल में संकलित कविताओं के अलावे भी कविता के चार ऐसे पड़ाव हैं जहां कविता- स्त्री-विषयक ना होकर समकालीन विमर्श से आ जुड़ती है- ‘ध’ से ‘धरम’ और ‘धमाका’ खण्ड में ‘धर्मचिन्त बाई-बाई’ कविता अस्मिता के संकट के अलावा स्त्री के दैनंदिन संघर्ष को दिखाती है-
‘‘गयी रात लौटा हूं घर!
लौटा हूं अजनबी के साथ सोकर
पी रखी है थोड़ी सी!
दरवाजा खोलते हुए मां को भभका लगा होगा,
लेकिन मां हो गयी है अब सयानी,
कुछ भी नहीं पूछती!
हादसों के शहर में
कितनी बड़ी है नेमत लौट आना भी
हाथ-पांवों से सलामत!’’
अनामिका की कविता की एक और खासियत उन्हें औरों से अलग करती है- कविताओं के भीतर अवांतर कथाएं. भाषा से खेलने का कौशल उन्हें खूब है- कबीर के सम्बंध हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था- कबीर भाषा के डिक्टेटर थे- वे भाषा से जो भी चाहते थे कहना उसे अपने ढंग से कहलवा लेते थे. अनामिका भाषा की सम्राज्ञी हैं- भाषा से उनका सख्य भाव है- वे भाषा की अलटन-पलटन भी खूब करती हैं और कब कहां संदर्भ बदल किसी दूसरे संदर्भित विषय से जोड़ देती हैं कि सामने वाला दंग रह जाता है उनके इस भाषायी खेल को उक्त कविता के आरम्भ में भी लक्ष्य किया जा सकता है- वे कविता की शुरूआत अस्मिताई संकट से करती हैं किन्तु आगे कविता स्त्री के दैनंदिन के संघर्ष से आ जुड़ती है-
‘‘या देवी सर्वभूतेषु’- सविता, देखो, बेटी,
जल तो नहीं रही सब्जी?
निंद्रारूपेण संस्थिता’- जागा पिंटू, उसे जगाओ,
स्कूल बस छूटेगी!
‘नमस्तस्यै नमस्तस्यै’- फोन बज रहा है, उठाओ तो,
मेरा होगा तो कह देना,
सीएल पर हूं आज!
‘ऊं जयंन्ती काली-महाकाली’-
अखबार वाले भैया, रुक लो!
‘‘आती हूं, कर लूं हिसाब…’’
कामों की फेहरिस्त लगातार बढ़ती है- अंततः उक्त कविता में पूजा अधूरी छोड़ बाकी काम निपटाये जाते हैं- पर क्या स्त्री के काम निपटते हैं, वह तो पृथ्वी की तरह घूमते रहते हैं स्त्री की अन्तिम सांस तक!
अनामिका कवि और उपन्यासकार होने के साथ-साथ एक निबन्धकार भी हैं जिनमें वे अक्सर राजनीतिक मुद्दों को उठाती रही हैं. कविता में भी उसकी स्पष्ट झलक देखी जा सकती है- ‘उधौ कौन देश के बासी’ उनकी ऐसी राजनीतिक कविता है जो हाल में लागू किये गए ‘नागरिकता कानून’ पर लिखी गयी थी: उक्त कविता में वे इस कानून के सम्बंध में वे कुछ संगत प्रश्न भी उठाती हैं-
‘‘उधौ, कौन देस के बासी?
कौन देस के बासी पाखी-
पार-पत्र के बिना उड़े जो
हरदम सीमा-पार?
कैसे कोई कार्ड बनाये?
किस जमीन का पता बतायें
जिसके पांव-तले जमीन ही
खिसकी बारम्बार?’’
आइसोलेशन वार्ड में पखेरू’ कविता कोरोनाकाल की विसंगतियों को सामने रखती है- तो सूली ऊपर सेज की व्याप्ति भी दिखाती है-
‘‘एक आदमी जिसको मैं जानती थी: कई सदियों से
किसी पुरोहित के निर्देशों पर
डबल मास्क पहने हुए रंग रहा था
मेरे सब नाखून!’’
× × ×
उलटबांसियों का यह अजब देश,
महंगी हैं सारी दवाएं, महंगे हैं रामबान
और जान तो सस्ती है:
बाई वन गेट वन फ्री.’’
अनामिका की इस कविताई दुनिया में केवल स्त्री विमर्श ही नहीं, ‘टोकरी में दिगन्त’ भरने की शैली वे यहां भी आजमाती हैं- और सृष्टि के टूटे बिखरे कतरे, पहाड़, पर्वत, तारे ही नहीं पूरी कायनात बुहार लाती हैं, जहां समकालीन विमर्श अपनी प्रौढ़ता के साथ पूरी तटस्थता में मौजूद हो जाता है. विशेष है नया प्रयोग- मिथकों-पुराणों और इतिहास से जिस तरह के अनछुए बिम्ब अनामिका निकाल लाती हैं और उनमें नए प्रयोग करती हैं, वह विलक्षण है! लोकरंग में पगे- विविध स्रोतों से आए शब्दों से घुमरीपरैया खेलती इंद्रधनुष रचती भाषा में आंचल का दूध, आंखों का पानी और बतरस के शहद की त्रिवेणी बहती है जो अनामिका की कविता को समकालीन कविता के क्षितिज पर विशिष्ट उजास प्रदान करते हैं!
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ऋत्विक भारतीय संप्रति- दिल्ली विश्वविद्यालय में सीनियर फ़ेलो. |
बहुत सुंदर आलेख। स्त्रीवाद की सख्त मिजाज भाषा
से कुछ अलग मीठे उलाहनों की भाषा में अपना काव्य
संसार रचनेवाली कवयित्री की रचनात्मकता पर एक
सारगर्भित समीक्षा।ये कविताएँ पुरूषसत्ता के विरुद्ध
सविनय अवज्ञा की परंपरावाहक भी हैं।सुधीश पचौरी
एवं प्रियदर्शन की टिप्पणियां भी गौरतलब हैं।सभी को
साधुवाद!
सुन्दर ,चिंतनपरक और प्रवाहयुक्त समीक्षा
बहुत ही सुन्दर लिखा है
पढ़ती चली गई। अनामिका जी प्रिय कवि हैं
उनकी हर कविता अपना विशेष प्रभाव छोड़ती है। साधुवाद
समीक्षा के बहाने अनामिका के कविता-कर्म की व्यापक पड़ताल करता आलेख। अंतर्वस्तु की दृष्टि से संग्रह का शीर्षक इसमें शामिल कविताओं और कवि की रचना-दृष्टि का पता देने के लिए पर्याप्त है। ऋत्विक भारतीय ठीक लिखते हैं कि स्त्री-कविता के नाम पर तर्कहीन आक्रामकता और ‘प्लास्टिक प्रोग्रेसिविज़्म’ से इतर अनामिका स्त्री के जीवन और संघर्ष की करुणा को सटीकता के साथ अभिव्यक्ति देने वाली व्यंजना की कवि हैं। जिस तरह वर्किंग हॉस्टेल में रहने वालीं स्त्रियाँ विभिन्न सामाजिक परिवेशों से आती हैं, उसी तरह अनामिका की कविताओं में क़स्बे से लेकर महानगरों तक की औरतें नज़र आती हैं। विस्तीर्ण समीक्षा।
बहुत ही सुन्दर व्याख्यान और सारगर्भितआलेख ।