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समालोचन

Home » विष्णु खरे को याद करते हुए: प्रकाश मनु » Page 3

विष्णु खरे को याद करते हुए: प्रकाश मनु

आज विष्णु खरे की तीसरी बरसी है. प्रकाश मनु का उनसे घनिष्ठ लगाव रहा है, उनके द्वारा विष्णु खरे का लिया गया साक्षात्कार हिंदी के कुछ अच्छे साक्षात्कारों में से एक है. विष्णु खरे का युवाओं से सम्मोहक लगाव था, अच्छी कविताओं पर उनकी टिप्पणियाँ कवियों को जब-तब मिलती रहती थीं. समालोचन से वह गहरे जुड़े थे और लगभग सभी अंक पढ़ते थे, लिखते थे. उनकी याद आती है. कमी खलती है. प्रकाश मनु ने उन्हें शिद्दत से यहाँ याद किया है.

by arun dev
September 19, 2021
in संस्मरण
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(6)

 

खैर, वह इंटरव्यू पूरा लिखने के बाद मैंने लगभग किसी जुनूनी उत्साह में विष्णु जी को फोन किया. कहा, “मैंने इंटरव्यू लिख लिया है. जल्दी ही टाइप कराके मैं आपके पास ले आऊँगा.

उन्होंने पूछा, “कुल कितने पन्नों में गया वह इंटरव्यू?”

मैंने कहा, “मेरे हाथ के लिखे कोई डेढ़ सौ पन्ने. टाइप होकर शायद पचास-साठ पन्ने बनेंगे.”

विष्णु जी बोले, “अरे, आपने काफी टाइम बर्बाद किया. इतना बड़ा इंटरव्यू कौन छापेगा?”
मैंने हँसकर एक दीवानगी के साथ कहा, “कौन छापेगा, कौन नहीं, यह सब सोचकर तो किया नहीं था. कोई नहीं छापेगा, तो मेरी किताब में तो आएगा ही.”

“ठीक है, अच्छा…!” विष्णु जी ने अपने खास अंदाज में कहा, जिससे पता चलता था कि मेरी यह ‘अदा’ उन्हें उतनी नागवार तो नहीं लगी है.

कुछ समय बाद विष्णु जी का फोन आया. उन्होंने कहा, “प्रकाश जी, क्या वह इंटरव्यू टाइप हो गया है? या उसमें अभी कुछ समय और लगेगा.?”

मैंने कहा, “मेरा अनुमान है, मैं अगले सप्ताह इसे लेकर आपके पास आऊँगा.”

उन्होंने कहा, “असल में ध्रुव शुक्ल ‘साक्षात्कार’ में उसे छापना चाह रहे हैं.”

“पर क्या इतना लंबा इंटरव्यू वे छाप पाएँगे?” पूछने पर विष्णु जी बोले, “इसमें तो उन्हें कोई परेशानी नहीं है. बल्कि उनका कहना है कि अगर पूरे अंक में वह इंटरव्यू ही केवल आ पाए, तो भी उन्हें कोई परेशानी नहीं है.”

यह बात मेरे लिए खासी उत्साहजनक थी. वह लंबा इंटरव्यू कहीं पूरा छप सकेगा, यह सोचना ही मेरे लिए मुश्किल था, हालाँकि इच्छा थी कि वह पूरा ही छपे.

उसी हफ्ते मैं उन्हें इंटरव्यू की टाइप्ड प्रति दे आया.

कुछ रोज बाद मैंने विष्णु जी को फोन करके पूछा, “विष्णु जी, मैं पास हुआ या फेल?” इस पर उनका जवाब था, “आश्चर्य है, आपने बगैर नोट्स के इतना लंबा इंटरव्यू कैसे लिख लिया? इसमें तो मेरे विचार ही नहीं, कई जगह तो भाषा भी ज्यों की त्यों आ गई है!”

बहरहाल, यह इंटरव्यू छपने चला गया, पर अभी मुश्किलें खत्म कहाँ हुई थी. कुछ रोज बाद विष्णु जी ने फोन पर सूचना दी कि ध्रुव शुक्ल यों तो इंटरव्यू की काफी तारीफ कर रहे थे, पर दो-एक जगह वे इसे संपादित करना चाहते हैं.

“अरे!” मैंने अफसोस के साथ कहा, “यह तो बड़ी खराब बात होगी.”

फिर तय हुआ कि फरवरी 1996 के पुस्तक मेले में विष्णु जी ध्रुव शुक्ल से मेरी मुलाकात करा देंगे. वहीं ध्रुव जी से इस पर मेरी बात हो जाएगी.

फरवरी 1996 के पुस्तक मेले में ध्रुव शुक्ल से मेरी मुलाकात हुई. संभवत: मध्यप्रदेश ग्रंथ अकादमी के स्टॉल पर. विष्णु जी ने उनसे मेरा परिचय करा दिया था. ध्रुव शुक्ल जी ने इंटरव्यू की काफी तारीफ की, पर जो सुझाव दिए वे मुझे इस इंटरव्यू की भावना और गरिमा के विरुद्ध लगे. मैंने उन्हें बताया कि इसमें से कुछ भी हटाना मुझे अस्वीकार्य है. ध्रुव जी ने एक-दो बार और आग्रह किया, फिर मान गए कि वे इंटरव्यू मुझे वापस कर देंगे.

मेरे लिए ये बहुत कठिन क्षण थे. तकलीफ भरे भी. लेकिन संयोगवश उसी पुस्तक मेले में भाई ज्ञानरंजन जी से मेरी भेंट हुई. मेरे पास इंटरव्यू की दूसरी प्रति थी. उनसे जब मैंने विष्णु जी के इंटरव्यू और इस पूरे प्रसंग की चर्चा की, तो उन्होंने तुरंत इंटरव्यू की प्रति मेरे हाथों से ली और कहा, “मनु जी, इसे तो ‘पहल’ में ही छपना चाहिए.” साथ ही उन्होंने आश्वासन दिया कि वह इंटरव्यू जस का तस छपेगा. उसमें से एक शब्द भी नहीं कटेगा.

बहरहाल वह इंटरव्यू ‘पहल’ में छपा और छपते ही उसकी कितनी चर्चा हुई, उस पर प्रशंसा में कितनी चिट्ठियाँ आईं मेरे पास, विष्णु जी के पास, ज्ञानरंजन जी के पास—उसे याद करना अब भी रोमांच से भर देता है! कई नामचीन साहित्यकारों ने पत्र लिखकर या फिर फोन पर मुझे बधाई दी कि मनु जी, ऐसा इंटरव्यू हमने तो अपने जीवन में पहले कभी पढ़ा नहीं!…ऐसे ही फोन और पत्र विष्णु जी के पास भी आ रहे थे. बहुत से लेखकों ने उन्हें बताया कि ‘पहल’ वाला इंटरव्यू उन्होंने फोटोस्टेट करवा के अपने कई दूर-दराज के मित्रों को दिया, क्योंकि वे हर हाल में यह इंटरव्यू पढ़ना चाहते थे. चिट्ठियों की लगभग बरसात थी. इसलिए कि हर कोई मानो प्रतिक्रिया जताकर उन मुद्दों से और उस उत्तेजना से जुड़ने की कोशिश कर रहा था.

यहाँ तक कि मराठी की एक प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका में उस इंटरव्यू का मराठी अनुवाद छपा. इस इंटरव्यू को लेकर मेरे दूर-पास के मित्र ही नहीं, परिचित-अपरिचित साहित्यिक जन भी इतने उत्साहित थे कि उनकी प्रतिक्रियाएँ जानकर अकसर रोमांच होता!
मुझे लगा, श्रम व्यर्थ नहीं गया.

खुद विष्णु जी कुछ अभिभूत से थे. एक बार तो उन्होंने मुझसे मजाक में कहा,

“इतनी चिट्ठियाँ तो मेरी रचनाओं पर भी नहीं आतीं प्रकाश जी. मैं सोचता हूँ, लिखना छोड़कर अब मैं इंटरव्यू ही देने लगूँ.”

(7)

 

विष्णु खरे का एक और रूप मैंने ‘कथा सर्कस’ पर प्रेस क्लब में हुई गोष्ठी में देखा था. यह सन् 1995 के दिसंबर की कोई तारीख थी.

‘कथा सर्कस’ पर हुई इस गोष्ठी में हालाँकि श्यामाचरण दुबे, रामदरश मिश्र, डॉ. माहेश्वर, डॉ. शेरजंग गर्ग तथा और भी कई लोग बोले थे, पर यह आकस्मिक नहीं कि विशिष्ट वक्ता की हैसियत से विष्णु खरे ने जो बातें उस गोष्ठी में कहीं, वे बहुत दिनों तक हवा में लहराती रहीं.
‘कथा सर्कस’ को ‘चाबी वाला उपन्यास’ उन्होंने ही कहा था. उनका कहना था कि यह उपन्यास पाठकों के लिए थोड़ी दिक्कत पैदा कर सकता है, इसलिए कि यह आसान उपन्यास नहीं है, मुश्किल उपन्यास है. लेकिन एक बार इस उपन्यास की चाबी आपके हाथ में आ जाती है, फिर यह मुश्किल नहीं रह जाता और पूरा उपन्यास आप के आगे खुलता जाता है. प्रकाश मनु को समझे बगैर आप इस उपन्यास को समझ ही नहीं सकते….पर एक बार आप इसके भीतर प्रवेश कर जाते हैं तो यह आपका पीछा नहीं छोड़ता. इसलिए कि यह पाठक की त्वचा, रक्त, मज्जा और हड्डियों के भीतर धँस जाने वाला उपन्यास है!

कहना न होगा कि ‘कथा सर्कस’ मेरे पहले उपन्यास ‘यह जो दिल्ली है’ से काफी भिन्न तरह का प्रयोगशील उपन्यास था, जिसे लिखते समय मैंने बहुत अजब तरह की मुश्किलें और मुसीबतें झेलीं थी. यह पूरा का पूरा उपन्यास जैसे अर्धचेतना में लिखा गया था. एक लेखक की भीतरी बड़बड़ाहट की तरह, जिसमें जाने-अनजाने उसकी भीतरी और बाहरी त्रासदियाँ निकल-निकलकर सामने आती हैं.
उपन्यास पूरा होने पर भी उन तकलीफों से मैं उबरा नहीं था, जिन्हें उपन्यास लिखते समय मुझे झेलना पड़ा था. मैं सचमुच गहरे तनाव में था और एक तरह की असहज मन:स्थिति या डिप्रेशन में…!

इस हालत में प्रेस क्लब वाली गोष्ठी में विष्णु खरे की इन पंक्तियों ने मेरे लिए सचमुच रास्ता बनाया और सैकड़ों पाठक भी दिए, जिन्होंने यहाँ-वहाँ से लेकर यह उपन्यास पढ़ा और उन हालात को समझने में रुचि दिखाई, जिनमें यह लिखा गया था. ‘कथा सर्कस’ को लेकर यों तो मुझे अनेक तरह की प्रतिक्रियाएँ मिली थीं, अच्छी-बुरी सभी तरह की. पर उन्होंने मुझे उत्साहित ही किया. इसके लिए वैसा सन्नाटा मुझे लेखकीय जगत का नहीं झेलना पड़ा, जैसा शुरू में ‘यह जो दिल्ली है’ को लेकर था. इसके लिए सच ही मैं विष्णु खरे का आभारी हूँ. मैंने देखा है, वे जिस ढंग से बात कह लेते हैं, जिस शक्ति के साथ, वैसे कह पाना सबके लिए संभव नहीं है. यहाँ वे सचमुच हजारों से अलग दिखते हैं.

(8)

 

विष्णु खरे के उस चर्चित इंटरव्यू के बाद, उनसे दर्जनों मुलाकातें हुईं. उनसे तीन लंबे इंटरव्यू मैंने और किए. पर इनमें कबीर पर हुई बातचीत सबसे अलग है, जो ‘सापेक्ष’ पत्रिका के कबीर विशेषांक में छपी और बेहद चर्चित हुई थी. मेरे लिए यह एक नायाब अनुभव था. इसलिए कि यह सचमुच कबीर पर एक ‘महाकाव्यात्मक’ किस्म का इंटरव्यू था, जिसमें खुद-ब-खुद इतना कुछ सिमटता चला गया था कि मैं चकित था. कबीर से शुरू होकर यह बातचीत आज के समाज के भीतरी द्वंद्वों, विकट समस्याओं और लड़ाइयों तक चली आती है. इसलिए कि मेरा एक सवाल यह भी था कि कबीर आज होते, तो कैसी परिस्थितियाँ उनके सामने होतीं और किस तरह की लड़ाइयाँ उन्हें लड़नी पड़तीं. सवाल विष्णु जी को अच्छा लगा, और उसका जवाब देते हुए चर्चा का फलक विस्तृत होता चला गया, और काफी विस्तार उसने ले लिया.

मैं समझता हूँ, कबीर पर हिंदी के दो लेखकों की इतनी लंबी बातचीत शायद ही कभी हुई हो.

हालाँकि एक विडंबना यह कि ‘सापेक्ष’ संपादक भी इस इंटरव्यू के कुछ हिस्से निकालना चाहते थे, जिसकी अनुमति देने का प्रश्न ही नहीं था. अंततः यह इंटरव्यू वहाँ अविकल छपा. पर उसके लिए मुझे कैसी थका देने वाली भीषण लड़ाई लड़नी पड़ी, सोचकर आज भी भीतर एक थरथराहट सी होती है.

मैं सोच रहा था, विष्णु खरे के साथ ही यह परेशानी बार-बार क्यों आती है? भीतर किसी आत्मस्थ ‘मनु’ ने जवाब दिया, “शायद इसलिए कि वे खतरनाक कवि हैं, खतरनाक लेखक और चिंतक हैं.”

“लेकिन इसीलिए तो वे मुझे इतने प्रिय भी है.” मैंने खुद को ठकठकाया.

विष्णु खरे की एक प्रसिद्ध कविता है, जिसमें सत्य को लेकर कुछ नायाब पंक्तियाँ हैं. वे शब्द तो ठीक-ठीक याद नहीं, पर उनका आशय याद है. उसमें कहा गया है कि सत्य यह जानना चाहता है कि मेरे पीछे आने वाले कितनी दूर तक मेरा पीछा कर सकते हैं और कितने कष्ट उठा सकते हैं. इसलिए वह लगातार दुर्बोध और जटिल रूप में अपने को अभिव्यक्त करता है और यों बार-बार हमारी परीक्षा लेता है.

कोई आश्चर्य नहीं कि विष्णु खरे और खुद उनकी कविताएँ भी इसी तरह हमारी परीक्षा लेती हों और उस परीक्षा में कम ही लोग सफल हो पाते हों. हालाँकि बहुत कम लोग यह जानते हैं कि विष्णु खरे जो इतने उद्धत और अहंकारी-से लगते हैं, वे उनके आगे जिनका वे मन से सम्मान करते हैं, बहुत-बहुत झुकते हैं और इस कदर विनम्र हो जाते हैं, जितने विनम्र विष्णु खरे ही हो सकते हैं. मसलन उनकी एक कविता है जिसमें विष्णु खरे अपने आपको निराला, मुक्तिबोध जैसे कवियों की रखवाली के लिए बैठा हुआ एक कूकर…यानी कुत्ता कहते हैं. कल्पना कीजिए, कूकर! और उन्हें इसमें कोई हेठी, कोई शर्म नहीं, बल्कि एक तरह का बड़प्पन ही महसूस होता है. हिंदी का कौन-सा कवि भला यहाँ उनका मुकाबला करेगा?

विष्णु जी के इंटरव्यू का मुझे एक प्रसंग याद आता है. वे बता रहे थे कि रघुवीर सहाय के कविता-संग्रह पर उन्होंने एक लंबा समीक्षात्मक लेख लिखा था, जिसमें इन कविताओं की अंतर्हित शक्ति को उजागर करते हुए उनकी जमकर तारीफ की गई थी. उनके हिसाब से उन कविताओं को समकालीन कविता के मानक की तरह पेश किया जा सकता है. यानी अगर इन्हें नंबर देने हों तो वे सौ में से पंचानबे नंबर देना पसंद करेंगे. विष्णु खरे बता रहे थे कि यह लेख लिखने के बाद उन्हें साहित्य अकादेमी में रघुवीर सहाय मिले, तो उन्होंने विष्णु जी के पास आकर कहा, “आपने मेरे पाँच प्रतिशत नंबर क्यों काट लिए?” और रघुवीर सहाय का इतना कहना था कि अचानक विष्णु खरे की आँखें भीग गईं.

जब यह प्रसंग वे उस इंटरव्यू के समय मुझे सुना रहे थे, तब भी यकीन मानिए, उनकी आँखें बेहद गीली थीं, रोने-रोने को तैयार. और मैं हैरानी से उन्हें सुन और देख रहा था कि विष्णु जी इस हद तक भावुक भी हो सकते हैं.

इसी तरह रघुवीर सहाय पर लिखी विष्णु जी की एक कविता में रघुवीर सहाय और अज्ञेय की एक मुलाकात का जिक्र है. ‘दिनमान’ के संपादक पद से हटाए जाने या कहिए कि पदावनति के बाद ‘नवभारत टाइम्स’ में भेजे जाने पर रघुवीर सहाय उद्विग्न हैं और अपना वही दुख अज्ञेय को बताने वे उनके निवास पर गए हैं. विष्णु खरे ने इस कविता में रघुवीर सहाय की तब की मन:स्थिति का इतना सच्चा, इतना मार्मिक चित्र खींचा है, मानो वे खुद सूक्ष्म रूप में वहाँ मौजूद हों और सब कुछ देख-सुन रहे हों. अज्ञेय और रघुवीर सहाय के अलग-अलग व्यक्तित्व, मूड्स और स्थितियाँ यहाँ काबिलेगौर हैं तो रघुवीर सहाय की वह विवशता भी है, जो उन्हें अपने साथ हुए अपमान को खून के घूँट की तरह पी लेने को विवश करती है. और यह दुख, क्रोध, अपमान और बेबसी एक साथ उनके पूरे व्यक्तित्व में फैलकर छा जाती है.

कुल मिलाकर हमारे समाज में एक बड़े कवि की स्थिति या उसके साथ घटित हुई क्रूर विडंबना का भीतर तक स्तब्ध कर देने वाला चित्र इस कविता में है. एक बड़े सरोकारों से जुड़ा बड़ा कवि, जो सबके दुख, सबके साथ ही हो रहे अत्याचारों पर लिखता है, खुद अपने दुख, निराशा में वह कितना अकेला हो जाता है—यह इस कविता को पढ़कर जाना जा सकता है….
फिर एक और बात. मुझे जाने क्यों लगता है, इस कविता में रघुवीर सहाय के दुख और बेबसी के साथ-साथ कहीं न कहीं विष्णु खरे का अपना दुख भी शामिल है. या उसकी एक मद्धिम छाया जरूर है, जिसने इस कविता को इतना अधिक करुण और स्मरणीय बना दिया है.

(9)

 

बहरहाल, तमाम दुखों के बावजूद मेरे जीवन के जो बड़े से बड़े सुख हैं, इनमें एक यह है कि मैंने विष्णु खरे को देखा है. बहुत भीतर तक देखा है. मैं विष्णु खरे से मिला हूँ, बार-बार मिला हूँ और हर बार एक अलग रंग में उन्हें देखा है!

बल्कि मैं तो कहूँगा कि जीवन भर कुछ और न करना और सिर्फ एक कवि की गवाही में रहना- उसके जीवन के संघर्षों का गवाह होना और उसके बदलते मूड्स को पहचानना भी खुद में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाना है. और यह कोई छोटी सच्चाई नहीं है कि अलग-अलग समयों में लिए गए विष्णु जी के इंटरव्यूज में उनकी जो धीरे-धीरे बदलती और क्रमश: विकास पाती हुई भावनात्मक छवियाँ हैं, उन्हें बहुत निकट से, बल्कि छू-छूकर देखा और जाना जा सकता है.

शायद इसलिए कि अपने इन इंटरव्यूज में विष्णु खरे जितना खुले हैं, उतना कोई सोच भी नहीं सकता. जैसे अपने भीतर का रेशा-रेशा वे दिखा देना चाहते हों. फिर जितनी गहरी नाटकीयता के साथ बोलते हुए, घनीभूत संवेदना वे अपनी बात कहते हैं, वह कोई बनाई हुई चीज नहीं थी. लगता था, एक पूरा युग अपनी आत्मा के साथ- अपनी आत्मा की समूची ताकत और तकलीफ के साथ बोल रहा हो. और एकाध दफा तो सच मानिए, मेरा मन हुआ कि मैं उन्हें सुनना छोड़कर देखूँ और सिर्फ देखता ही रहूँ!

हालाँकि इन इंटरव्यूज में बहुत-सी बातें ऐसी भी हुईं, जिन्हें विष्णु जी ने ‘ऑफ द रिकॉर्ड’ कहा और उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए, मैंने उनके किसी इंटरव्यू में उन्हें शामिल नहीं किया. उन चीजों को अब यहाँ लिखने की भी कोई तुक नहीं है. पर इतना जरूर लिख दूँ कि उनमें विष्णु जी की अपनी त्रासदी से जुड़ी हुई कुछ बातें तो ऐसी थीं कि मैं महीनों छटपटाता रहा.

काश, मैं उन्हें लिख पाता और पाठकों के आगे ला पाता. पर नहीं, मैं उनके विश्वास की रक्षा करूँगा और वे मुझ तक ही रहेंगी.

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Tags: विष्णु खरे
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Comments 8

  1. कुमार अम्बुज says:
    4 years ago

    उनका साक्षात्कार प्रसिद्ध रहा है। विष्णु जी को याद करनेवाली इस पोस्ट से गुजरना एक अच्छा अनुभव है।

    Reply
  2. दया शंकर शरण says:
    4 years ago

    विष्णु खरे पर प्रकाश मनु के संस्मरण दिल की गहराइयों से इतने डूबकर लिखे गये हैं कि इन्हें पढ़ना भी एक विरल अनुभव लोक से अपने को समृद्ध करने जैसा है। इनमें रोमांच है,आत्मीय स्पर्श है, समकालीन यथार्थ की कड़वाहट और मिठास भी है। और भाषा इतनी पारदर्शी और बेबाक कि एक सम्मोहन की-सी स्थिति में पाठक को छोड़ आती है। मैं इस बात को हर बार दोहराता हूँ कि विष्णु खरे की कविताएँ उस प्रविधि को अपनाती हैं जो चीजों को विखण्डित करती हुई,उसके रेशे-रेशे को अलगाती हुई सत्य तक पहुँचती हैं। यह सान्द्र से तनु होते जाने की रचना प्रक्रिया है। इस बेहद अंतरंग और आत्मीयता भरे संस्मरण के लिए प्रकाश मनु जी को शुभकामनाएँ और बधाई !

    Reply
  3. Anonymous says:
    4 years ago

    व्यक्तिगत रूप से मैं कवि विष्णु खरे को बहुत पसंद करता था। जो उन्हें बोलना होता था वे मंच पर निर्भीक होकर बोलते थे। कविता उनके लिए जीवन जीने की कार्यवाई थी। अपनेआसपास ही क्यों सुदूर-दूर तक बसे-रहते लोगों का ख्याल रखते। जो उन्हें नापसंद थे उनके लिए ललकार और प्रियजनों के लिए अपार प्यार। यह उनका स्वभाव था।
    बहरहाल, मुक्तिबोध की तरह वे प्रलयंकारी काव्यमेधा के प्रतिनिधि कवि थे।

    Reply
  4. Girdhar Rathi says:
    4 years ago

    विष्णु खरे की याद शिद्दत से आती है। मुझे ही नहीं, मेरे परिवार को उनके चले जाने के तथ्य को आत्मसात करने में काफ़ी मशक्कत करनी पड़ी है। उनका अभाव है, रहेगा। प्रकाश मनु के इंटरव्यू अनोखे हैं। मेरी स्मरण शक्ति मुझे ऐसे एक ही अन्य की याद दिलाती है, और उनके इसी तरह, बिना किसी टीप या रिकार्डर के लिए गए निहायत अनोखे साक्षात्कारों की- मनोहर श्याम जोशी, उन्हें याद करने वाले भी इन दिनों गिनेचुने ही होंगे। लेकिन जोशी जी चौतरफ़ चौकन्ने इंटरव्यूकार थे। यानी, सामने मौजूद अपने सम्मानित नायक की मूर्ति गढ़ते हुए, वह ऐंचक वैंचक लकीरों निशानियों ऐबों की भी अनदेखी नहीं करते थे,संकेत तो कर ही देते थे। अंग्रेज़ी में Hagiography और Biography में बड़ा फ़र्क़ माना जाता है। इन विधाओं के भीतर भी गुणावगुण अलग से रेखांकित किये जाते हैं। प्रकाश मनु शायद इस मामले में जोशी जी से को क़तई सहमत न होंगे। जहां जोशी जी अपने हीरो को कुछ ऐसे पेश करते थे कि वह केवल जोशी जी का नहीं, पाठकों का भी हीरो बन जाता था, वहां इस संस्मरण में प्रकाश मनु के विष्णु खरे, प्रकाश मनु के ही विष्णु खरे रह जाते हैं।
    भावनात्मकता और भावुकता के बीच ,हमारे प्रिय मित्र प्रकाश मनु की डायरी में, किसी तरह का फ़र्क़ दर्ज नहीं हो पाता। मझधार के झकोलों का उल्लेख चाहें जितना हो, नैया हमेशा उस पार ही रहती है–इस पार नहीं, क्योंकि इतने क़रीब चांद का मुंह टेढ़ा भी लग सकता है। ऐसा नहीं कि evil को देखना पहचानना वे जानते न हों– ऐसा होता तो उनका कथा लेखन वह कदापि न होता जैसा कि है, बल्कि कुछ कविताएं भी evilकी पराकाष्ठा हमें दिखा जाती हैं–पर अपने किसी भी प्रिय के बारे में कोई कटाक्ष तक मनु जी के मुख से नहीं सुना जा सकेगा। नतीजा ये होता है कि अत्यंत प्रिय होने के बावजूद, मनु भाई के खरे किसी और लोक के जीव लगने लगते हैं! और यह कोई प्रशंसनीय उपलब्धि तो नहीं ही है! मेरा संपर्क विष्णु खरे से लगभग 1965 से बना रहा, और इस मित्रता में हम दोनों ने एक दूसरे को ऐब कुटेव भी देखें ही। और भी हमारे दस पांच मित्र परिचित हैं जो तमाम स्नेह के बावजूद, बतला सकते हैं कि चांद में कुछ दाग़ तो थे। समाचार जगत की बगिया उधेड़ने वाले प्रकाश मनु की नज़र भी उस ओर ज़रूर मुड़ी होगी, लेकिन दुनिया का साहित्य पढ़ते-पढ़ते कुछेक हिंदी वाले भी , निंदा पुराण से परहेज़ करते हुए भी, ख़ालिस कशीदाकारी पर ज़रा सहम से जाते हैं। इस संस्मरण में हम प्रकाश मनु के अंतरंग को बख़ूबी पहचान सकते हैं, और एक समर्पित साहित्य प्रेमी, प्रकाश जी को जान पाना भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।

    Reply
  5. वंशी माहेश्वरी says:
    4 years ago

    विष्णु खरे के स्मृति-आकाश में आपका नक्षत्र अत्यन्त देदीप्यमान है.
    उन स्मृतियों में अपनत्व भरा आचमन ह्रदय में तीर्थ हो जाता.
    आपका स्मरण बहुविध तो है ही साथ ही साथ उस नदी में नहाते हुए उनके रचनात्मक संसार में डूब जाना भी है.
    ये आलेख लिखा नहीं गया -लिखा गया है.
    तन्मय होकर आपने रत्नों से भरा जो ख़ज़ाना खोजकर-खोलकर बिखेर दिया वह आपकी खरेजी के प्रति अनुराग-आसक्ति तो है ही वह पाठकों के लिये भी प्रासंगिक है.

    आपकी कविता भावात्मक होती हुई, गहराई से बौद्धिक धरातल से जुड़ी है-

    ‘दुनिया को उठाए है हाथ में एक गेंद की मानिंद’
    ‘जो सात दिशाओं सत्ताईस खुले षड्यंत्रों से चला आता है
    मोरचा बाँधे’

    विष्णु खरे पिपरिया भी आये वे छिंदवाड़ा में थे तब. असंख्य वर्ष हो चुके इस बात को.
    दिल्ली में मिलते थे तो पिपरिया के संदर्भ में पूछते ही थे.

    वे नारियल हैं-बाहर से कठोर,भीतर से मुलायम.
    इस लेख के स्मरण से विष्णु जी स्मरणीय हैं .
    मेरी स्वस्तिक कामना.

    Reply
  6. प्रकाश मनु says:
    4 years ago

    प्रिय भाई अरुण जी,
    अपनी तरह के दुर्जेय कवि और खाँटी शख्स विष्णु खरे जी की तीसरी बरसी पर कुछ लिखना
    मेरे लिए स्मृतियों के एक सैलाब से गुजरने सरीखा था।

    मुझे खुशी है कि आपके आग्रह पर कुछ लिखा गया, ऐसे कवि के लिए जो कई मामलों में बेनजीर था
    और रहेगा। शायद इसीलिए उनके जाने के बाद भी उनका होना उसी तरह महसूस होता है।

    मैंने बेशक अपनी स्मृतियों में बसे उन विष्णु करे को सामने लाने की कोशिश की,
    जो मेरे विष्णु खरे थे–मेरे अपने विष्णु खरे।

    पर आज सुबह से ही मित्रों और आत्मीय साहित्यकारों की जैसी उत्साह भरी
    प्रतिक्रियाएँ मुझे मिल रही हैं, उससे लगता है, कि जिस तरह से वे मेरे–मेरे अपने विष्णु खरे थे,
    उसी तरह बहुतों के अपने–बहुत अपने विष्णु खरे जरूर रहे होंगे। इसीलिए उनके संग-साथ वालों को
    उनकी उपस्थिति आज भी ठीक वैसी ही वार्म्थ के साथ महसूस होती है।

    वैसे भी एक बार उनके निकट आने के बाद कोई उन्हें भूल नहीं सकता था।
    मैं आज भी चौंकता हूँ, जब कभी-कभी निस्तब्धता में एकाएक उनकी आवाज
    गूँजती हैं– “कैसे हैं प्रकाश जी?”

    अलबत्ता भाई अरुण जी, आपने इतने सलीके से और एक बड़े विजन के साथ
    विष्णु जी से जुड़ी इन स्मृतियों को प्रस्तुत किया, इसके लिए आपका और ‘समालोचन’ का
    बहुत-बहुत आभार!

    स्नेह,
    प्रकाश मनु

    Reply
  7. Anonymous says:
    4 years ago

    कुछ काम हम रोज़ करते हैँ. ब्रश करना, नाश्ता करना, नहाना, इत्यादि, उसी तरह खरे जी को याद करना भी है. उनका प्रेम और गुस्सा दोनों याद आते हैँ. खरे जी पर जब उदभावना का विशेष अंक निकाला तो उनकी पत्नी का कमेंट बड़ा अच्छा लगा. उनका कहना था ” आपने ऐसा अंक निकाला जैसे विष्णु निकालते “मैंने उनके साथ अपनी ज़िन्दगी का क्वालिटी टाइम बिताया है. उन्हें भूलना असंभव है.

    Reply
  8. Sanjeev Buxy says:
    4 years ago

    विष्णु खरे जी पर अच्छा संस्मरण लिखा है प्रकाश मनु जी ने उनसे मेरी बात होती रहती है विष्णु खरे जी को लेकर मेरा उपन्यास भूलन कांदा जब गया में छपी थी तब विष्णु खरे जी ने मुझे फोन करके कहा था कि मैं उनसे मुंबई आकर मिलूं उन्हें मुझसे कुछ बातें करनी है उनसे कहा, “मैं ज़रूर मुम्बई आकर आपसे मिलता हूँ।” संयोग से जनवरी 2011 में ही मुझे एक कार्य मुंबई का मिल गया। मैं पंजीयक फर्म एवं संस्थाएँ था। उससे संबंधित एक कंपनी ला के प्रकरण में मुख्यसचिव विवेक ढाँढ को नोटिस मिला। कंपनी ला बोर्ड मुंबई में 7 जनवरी को उपस्थित होना था। मुझे कहा गया इस प्रकरण में मुंबई जा कर बोर्ड के सामने उपस्थित हो जाएँ। नेकी और पूछ-पूछ! मैं तो विष्णु खरे से मिलने के लिए लालायित था सो मैं तुरंत तैयार हो गया। अपने साथ चलने के लिए रमेश अनुपम को तैयार कर लिया। मैं और रमेश अनुपम दोनों 6 जनवरी को मुम्बई गए। विष्णु खरेजी के निवास के पास ही मलाड वेस्ट के एक होटल में हम लोग रुके। पहले दिन तो विष्णु खरे होटल में आ गए। रात बारह बजे तक उनसे बातें होती रहीं। दूसरे दिन हम लोग उनके निवास ए 703 महा लक्ष्मी रेसीडेंसी, गेट नं 8, मालवणी माहडा के फ्लेट में छह बजे शाम को पहुँच गए। घर में वे अकेले ही थे। उनका कुत्ता था और कोई नहीं। इस तरह हमारी दो बैठकें हुईं और ‘भूलन कांदा’ को लेकर अच्छी चर्चा हुई। उन्होंने पूछा कि गाँव के लोग क्या मुखिया के सामने बीड़ी पिएँगे ? मैंने बताया कि ज़रूर पिएँगे, इसमें कोई लिहाज या परहेज नहीं है। यह आमतौर पर देखा जाता है। बल्कि ऐसा होता है कि कई बार मुखिया ही गाँव वालों को अपनी ओर से बीड़ी देते हैं। इसी तरह कई और प्रश्न उन्होंने किए जिसका समाधान मैंने किया। उनसे यह मुलाक़ात मैं हमेशा याद रखूँगा। उन्होंने बताया कि वे तीन बार ‘भूलन कांदा’ उपन्यास पढ़ चुके हैं। विष्णु खरेजी ने पूरा घर दिखाया और बताया कि उनका बेटा फ़िल्म निर्देशन के क्षेत्र में काम कर रहा है। दिन रात व्यस्त रहा करता है। फ़िल्म ब्लैक और उसके पहले संजय लीला भंसाली के फ़िल्मों में सहायक के रूप में निर्देशन का कार्य किया है आजकल सतीश कौशिक के साथ फ़िल्म कर रहा है। हमारे बैठे में ही तीन बार बेटे का फ़ोन आता है कि सबके लिए क्या डिनर भिजवा दूँ? हम लोगों ने मना कर दिया क्योंकि तीन बजे ही हम भोजन किए थे

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