संग साथ |
संभावना एक प्रकाशन संस्थान नहीं एक मठ था जिसमें प्रायः साधु-असाधु किस्म के कवि-लेखक आते रहते थे. यहाँ कुछ व्यवस्थित रूप से नहीं घटित होता था. हमें घनघोर अव्यवस्था में सुख मिलता था. देर रात तक गप्प गोष्ठी होती रहती थी, हास्य–उपहास और निंदा रस अविरल प्रवाहित होता रहता था. उसके बाद हम निष्कलंक हो जाते थे, हमारी आत्मा शुद्ध हो जाती थी. मैं सिद्धार्थनगर के एक ठेठ गाँव से अपना झोला-झण्डा उठाकर गाजियाबाद में नौकरी करने आया था और इस इलाके के पिलखुवा, ग़ढ़मुक्तेश्वर और हापुड़ कस्बे में स्वर्णिम तीन साल गुजार दिए थे.
मैं धुर पूर्वी उत्तर प्रदेश से ठेठ से दूसरे क्षेत्र में पहुँच चुका था जिसकी सीमाएं दिल्ली से लगती थीं. मैं यह समझता था कि हापुड़ कलकता के पास का कोई शहर है. हापुड़ के नीचे जनपद का नाम नहीं लिखा जाता था. हापुड़ अनाज मंडी के लिए मशहूर था वहाँ कीमतें तय की जाती थीं. कुछ लोग तुक मिलाते हुए कहते थे कि हापुड़ का पापड़ बहुत प्रसिद्ध है. संभवत; ‘संभावना’ का प्रारम्भ 1972 में हुआ था. पहले पहल हरिशंकर परसाई, ज्ञानरंजन श्रीलाल शुक्ल आदि की किताबें का पहला सेट प्रकाशित हुआ था.
मेरे लिए भाषा बहुत बड़ी अड़चन थी, बड़ी उम्र के लोग अगर तुम कहें तो यह बात बर्दाश्त की जा सकती थी लेकिन छोटी उम्र के छोकरे मुझे तुम कह कर संबोधित करते थे. हमारे इलाके की जबान इतनी शीरीं थी कि हम बच्चों को भी आप कहते थे. मेरे लिए यह मुश्किल वक्त था, कमरे से निकल कर जब ढाबे में लंच करने के लिए निकला तो उसके पास हापुड़ का बोर्ड देखकर चौंक गया, वह तो इतनी नजदीक की जगह थी कि इस दूरी को बीस पच्चीस मिनट में तय किया जा सकता है. हापुड़ में प्रभात मित्तल (लेखक-संपादक पश्यन्ति) के मार्फत अशोक अग्रवाल से मुलाकात हुई और वे मेरे दोस्त बन गए. वे केवल दोस्त तक महदूद नहीं थे बल्कि उन्होंने बड़े भाई का उत्तरदायित्व संभाला, मेरे राजदार भी बन गए. कोई भी समस्या होती तो उनकी अदालत में पेश कर देता. यह क्रम अनवरत चल रहा है. चार दशक से ऊपर का लंबा वक्त बीत गया. दूर होते हुए वह हफ़्ते में दो–तीन बार मेरा हालचाल पूछते थे. यह रिश्ता सिर्फ उनके साथ नहीं था, उनका घर मेरा परिवार बन गया था. चाचा-चाची, गीता भाभी का जो प्रेम मिला, वह मेरे लिए अमूल्य था.
अभिषेक तब गोद में था. दूसरों के लिए वहअशोक अग्रवाल थे लेकिन मेरे लिए अशोक भाई. साहित्य की यह मंडी तब खूब समृद्ध थी, यहाँ प्रभात मित्तल, सुदर्शन नारंग, नफ़ीस आफ़रीदी, अमितेश्वर और अवधेश श्रीवास्तव का संग–साथ मिला. वे कहानियाँ लिखते और कभी-कभी उनकी कहानी का मैं प्रथम पाठक बनता.
दो)
कहानियों के अलावा वह संस्मरण लिखने लगे, उसमें भाषा की रवानगी देखते बनती थी. उन्होंने कभी आसान यात्राओं का चुनाव नहीं किया, दुर्गम यात्राओं को प्राथमिकता देते रहे. ‘किसी वक्त किसी जगह’ उनकी यात्रा संस्मरण की पहली किताब है जिसमें उनके संस्मरण- ‘सूखे चरागाहों का रेगिस्तान’, ‘झुलसे साल–वनों का नाद’, ‘चलो चलें धान मड़ुआ हो जहाँ’, ‘ब्रह्मा की आँखों से गिरे दो आँसू’ पठनीय और रोचक हैं.
उनका यह संग्रह जगहों पर केंद्रित था जबकि ‘संग साथ’ लेखकों और कवियों पर आधारित हैं. इस संग्रह में पुराने लेखक-कवि के साथ उनके समकालीन अदीब भी सम्मिलित हैं. नागार्जुन पर लिखे गए संस्मरण का शीर्षक– ‘बुजुर्ग हिप्पियों का आदिब्रह्म’, यह शीर्षक उन पर फबता है. हापुड़ में उनकी आवाजाही 78-79 से शुरू हुई थी, इसी समय के आसपास मैं हापुड़ की धरती पर उतरा था. वह इस मठ में आनेवाले सबसे वरिष्ठ नागरिक थे. बात-बात पर खुश और ख़फ़ा हो जानेवाले दरवेश थे. उनकी दाढ़ी और तुड़ी मुड़ी भेष भूषा को देखकर नहीं लगता था कि यह आदमी हिन्दी का कोई बड़ा कवि है. यह आदमी तो अघोर पंथ का पथिक दिख रहा है. बातचीत करने में बालसुलभ चंचलता के दर्शन होते थे. मुझे वह प्रकरण भी याद है जब वह हठात हापुड़ के चौपले पर पहुँच कर–
‘इन्दु जी, इन्दु जी, क्या हुआ आपको?
बेटे को तार दिया, बोर दिया बाप को!’
नाच–नाच कर सुनाने लगे, थोड़ी देर में भीड़ इकट्ठी हो गयी. उन्हें देख कर लोगों को कवि का भान नहीं था लगा कि कोई बहुरूपिया है. ऐसे थे बाबा नागार्जुन, वे कविता को जनता के बीच ले जाते थे.
उ. प्र. हिन्दी संस्थान ने ‘भारत-भारती’ सम्मान से बाबा को विभूषित किया गया, उस समारोह में इंदिरा गांधी उपस्थित थीं लेकिन उनके चेहरे पर कोई कटुता नहीं थी बल्कि एक दूसरे को देखकर वे परस्पर मुस्कराते रहे थे.
क्या आज के समय में यह कल्पना की जा सकती है कि कोई प्रधानमंत्री के विरूद्ध लिखे और उसे उसके हाथ से पुरस्कार मिले ?
जब सुदर्शन नारंग के बड़े भाई अमरीक नारंग पर आतंकवादी होने का आरोप लगा था और सीबीआई की टीम उन्हें गिरफ्तार करने आयी तो अमरीक की डायरी में लिखे नागार्जुन के वाक्य ने उन्हें बचाया था. सीबीआई का अफ़सर नागार्जुन का मुरीद था.
नागार्जुन के गोत्र के दूसरे कवि थे त्रिलोचन, उन्हीं की तरह फक्कड़ लेकिन अद्भुत व्याकरणाचार्य एक शब्द पर घंटों बहस कर सकते थे. जब मैंने उनसे ‘थेथर’ शब्द की व्याख्या जाननी चाही तो उन्होंने उसे लोकशब्द और संस्कृत वांगमय के जरिए स्पष्ट किया था.
उनका कविता संग्रह ‘ताप के ताए हुए दिन’ संभावना से प्रकाशित हुआ था, इस संग्रह पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला. इस किताब की पांडुलिपि तैयार करते समय कवि राजेश जोशी और अशोक भाई के छक्के छूट गए थे.
संस्मरण ‘लहरों में साथ रहा कोई’ में अशोक जी की बहन के विवाह के प्रसंग हैं. त्रिलोचन का जीवन बेहद संघर्षमय रहा है लेकिन उनकी जिजीविषा प्रबल थी.
नागार्जुन-त्रिलोचन की पीढ़ी के कवि शमशेर बहादुर सिंह मासूम कवि थे. उनकी शमशेरियत से हिन्दी समाज वाकिफ है. उन्होंने अपने लिए घर नहीं बनाया, वे अजय सिंह, मलयज और अंत में रंजना अरगड़े के घर में घर के मालिक के रूप में रहते रहे.
अशोक जी ने इस संस्मरण (मौन स्वर के कवि) में बताया है कि ‘जब ये तीनों कवि (नागार्जुन, त्रिलोचन तथा शमशेर) प्रातः भ्रमण के लिए मॉडल टाउन की सड़कों पर निकलते थे तो लगता था कि देवलोक से तीन फ़रिश्ते श्वेत दाढ़ी लहराते और मासूम बच्चों की तरह हवा में हँसी बिखेरते इस धरती पर उतर आयें हैं.’ इस तरह की काव्यात्मक भाषा वह ही लिख सकते हैं. शमशेर वास्तव में मौन स्वर के कवि थे, उनमें तनिक भी आक्रामकता नहीं थी. वे मितभाषी कवि थे, उनकी कविता में कोई फालतू वाक्य नहीं मिलेगा.
उनके समवयस्क कवियों में अज्ञेय का अलग महत्व है लेकिन उनकी कोटि अलग है. वह बंद दरवाजे की तरह थे जो खटखटाने पर बमुश्किल से खुलता था. तारसप्तक प्रकाशन हिन्दी कविता की दुनिया में बड़ी घटना थी जिसने कविता की गति को बदलने का काम किया. सप्तक की कोख से मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, कुँवर नारायण, केदारनाथ सिंह जैसे बड़े कवि पैदा हुए. अज्ञेय ने सभी विधाओं में अपनी उपस्थिति दर्ज की है. वे ‘प्रतीक’ नाम की पत्रिका का संपादन करते थे जिसमें अशोक भाई की कहानी ‘मेरा कोई नाम नहीं’, ‘नाटे और दूसरे’ प्रकाशित हुई थी. उनसे उनका पत्र-व्यवहार भी होता रहता था. अज्ञेय के जीवन काल में वामपंथी लेखक और आलोचक उनपर खूब हमलावर होते थे लेकिन उनकी मृत्यु के बाद कुछ लोगों ने अपना स्टैंड बदल दिया था, उनके प्रति कोमल हो गये थे. इसमें कोई संदेह नहीं कि वह हिन्दी के चमचमाते हुए नक्षत्र हैं. उन्हें घटा कर हम हिन्दी साहित्य का मूल्यांकन नहीं कर सकते. इस संस्मरण का शीर्षक उनके लेखकीय स्वभाव को ध्यान में रख कर लिखा गया यानी- ‘कुछ जो कहा नहीं गया’.
अशोक अग्रवाल सिर्फ कवियों–लेखकों का चरित्र चित्रण नहीं करते बल्कि उनके अवदानों की चर्चा भी करते हैं. उनके संस्मरण पढ़ने के बाद पाठक उस समय में दाखिल हो जाते हैं जिस समय में उनकी रचनाएं संभव हुईं थीं.
संस्मरण में वर्णित वरिष्ठ कवियों का संसार अलग था, आज की स्थिति अलग है. साहित्य की प्राथमिकताएं बदल चुकी हैं. साहित्य उद्देश्य नहीं साधन बन चुका है, कोई समर्पित भाव नहीं बचा है. अज्ञेय को छोड़ कर इन तीनों कवियों ने जिस तरह का कठिन जीवन जिया है, वह अब लोगों के लिए आदर्श नहीं रह गया है. अभिव्यक्ति के खतरे उठा कर कोई लिखने के लिए तैयार नहीं है.
तीन)
विनोद कुमार शुक्ल और लक्ष्मीधर मालवीय वरिष्ठ कवि-लेखक हैं. नागार्जुन की पीढ़ी 1911 के पास पैदा हुई थी लेकिन लक्ष्मीधर मालवीय और विनोदकुमार शुक्ल क्रमश: 1937 और 1937 में पैदा हुए थे. मालवीय जी विनोद कुमार शुक्ल से उम्र में बड़े हैं. लक्ष्मीधर मालवीय का निधन 2019 में हुआ था, उनका जीवन वैविध्यपूर्ण था. वह इलाहाबाद से जोधपुर होते हुए ओसाका पहुंचे और आजीवन जापान रहे. उन्होंने ‘देव ग्रंथावली’ का संपादन तीन खंडों में किया जो हिन्दी की अमूल्य निधि है जिसकी झलक इस कथा में मिलती है लेकिन विस्तार से इस प्रकरण का उल्लेख उन्होंने अपने संस्मरण की किताब– ‘लाई हयात आए’ में विस्तार से किया है. इस संस्मरण का शीर्षक अद्भुत है–‘इच्यों की पीली पत्तियाँ, तामाबोचि और कौसानी: लक्ष्मीधर मालवीय’. इस संस्मरण में लेखक कवि बन जाता है. जापान पर उनका एक अन्य लेख ‘किसी वक्त किसी जगह’ उनकी संस्मरण की किताब में शामिल है.
यह स्मृति-लेख दिल से लिखा गया है. मालवीय जी जब भारत आते थे तो हापुड़ की जमीन छूकर जरूर जाते थे. उनके साथ कई बार दिल्ली जाने का सौभाग्य मिला है. एक बार मैंने उनसे पूछा कि हमारे यहाँ अधिकांश गालियां स्त्री–पुरुष के प्रजनन अंगों पर आधारित हैं, जापान में गालियों का क्या स्वरूप है ? उन्होंने संजीदगी से जवाब दिया कि वहां ‘किसी को गैर जिम्मेदार कहना’ सबसे बड़ी गाली हैं.
इस स्मृति–लेख में उन्होंने मालवीय जी के सहकर्मी तानिमुराजी के बारे में लिखा है, उनकी पत्नी कैंसर की मरीज थी लेकिन उन्होंने इसका आभास किसी को नहीं होने दिया. वह खुद उनकी देखभाल करते थे और नियमित पढ़ाने आते थे. विश्वविद्यालय खुलने के बाद जब मालवीय जी ने पत्नी का हालचाल जानना चाहा तो उन्होंने कहा– आज चार बजे वह विदा हो गयीं. जापानी अपने काम के प्रति जिम्मेदार होते हैं, उसके किस्से बहुत प्रचलित हैं. बहुत सारे किस्से मैंने उनके मुख से सुने हैं. लेखन के प्रति वे इतने जुनूनी थे कि उपन्यास ‘किसी और सुबह’ लिखने के लिये विश्वविद्यालय को इस्तीफा सौंप कर अर्जेन्टाइना चले गये. जापान से अर्जेन्टाइना की दूरी बहुत अधिक थी. यह जुनून हिन्दी के लेखकों में विरल है. वे मदनमोहन मालवीय के परिवार से आते थे, उनके पिता मालवीय जी के बेटे थे लेकिन उनका मिजाज अलग था. वे अपने ढंग का जीवन जीना चाहते थे. पिता-पुत्र में इस बात को लेकर गहरा अंतर्विरोध था. एक बार उन्होंने अपने पिता से कह दिया था कि आप जितने बड़े पिता के बेटे हैं, मैं उतने बड़े पिता का बेटा नहीं हूँ. मैं एक मामूली नौकरी पेशा आदमी बनना चाहता हूँ.
जापान में इस क्रिया को पूर्वजों के इंद्रधनुष से बाहर निकलना कहते हैं. इस आलेख में जापान के जीवन और समाज के अनेक किस्से हैं जिन्हें अशोक जी से आत्मीयता के साथ बुना है. लक्ष्मीधर मालवीय ने ‘किसी और सुबह’, ‘रेतघड़ी’ जैसे उपन्यास लिखे हैं. ‘दायरा’, ‘क्या यह चेहरा तुम्हारा है’, उनके कहानी संग्रहों के नाम हैं. वह लेखक होने के साथ अप्रतिम फोटोग्राफर भी थे. दिल्ली में लगाई गयी न्यूड चित्रों की प्रदर्शनी उनके मुरीदों को जरूर याद होगी, जिसमें किसी तरह की अश्लीलता नहीं थी बल्कि उसमें कलात्मक सौन्दर्य था. यह दुख की बात है कि उनकी चर्चा नहीं हुई, क्या इसलिए कि वह प्रवासी हो गये या आलोचक उनके लिये संगदिल थे ?
किसी कवि की मासूमियत और सहजता देखनी हो तो विनोद कुमार शुक्ल पर लिखा संस्मरण–‘सब कह दिया गया का चुप’ जरूर पढ़ा जाना चाहिए. वह कवि के साथ बेजोड़ गद्यकार भी हैं. ‘वह आदमी नया गरम कोट पहिनकर चला गया विचार की तरह’, ‘सब कुछ बचा होना बचा रहेगा’. ‘नौकर की कमीज’ और ‘दीवार में एक खिड़की रहती है’, उनके उपन्यासों के नाम हैं. इस संस्मरण में दो घटनाओं का प्रमुखता से जिक्र किया गया है. उन दिनों मैं हापुड़ में पदस्थ था, विनोद जी आये हुए थे, मैंने उन्हें अपने डेरे पर बुलाया और रायपुर संभाग कविता पढ़ने का आग्रह किया. कुछ पंक्तियाँ पढ़ने के बाद उनकी आवाज रूँधने लगी, मैंने उनका हाथ पकड़ लिया और कविता–पाठ बंद करने के लिया कहा, इसके बावजूद उन्होंने पूरी कविता पढ़ी. यह थी कवि की अपनी कविता के प्रति संलग्नता.
उनके कविता संग्रह का नामकरण संस्कार अशोक बाजपेयी के चौहत्तर बंगले के आवास पर हुआ था. विनोद जी रायपुर से भोपाल आये थे, कथाकार सत्येन कुमार भी मौजूद थे. तय यह किया गया कि कविता शीर्षक का नाम ऐसा रखा जाए कि वह सबसे अलग हो. इस तरह संग्रह का नाम हुआ ‘वह आदमी चला गया गरम कोट पहिनकर विचार की तरह’. यह शीर्षक बहुत मशहूर हुआ, उनको प्रतिष्ठा मिली.
चार)
इस संग्रह के विश्वेश्वर, पंकज सिंह, नवीन सागर, जितेंद्र कुमार, ज्ञानेन्द्रपति, अमितेश्वर, अशोक माहेश्वरी अशोक अग्रवाल के समकालीन थे या तो कुछ साल छोटे बड़े थे. उनके मित्रों में अधिकांश कवि थे, उनकी निर्मिति कवियों जैसी थी.
उनके गद्य में काव्यात्मकता का पुट है. ऐसे कवियों में पंकज सिंह न भूलनेवाली कवि थे. मुझे याद है कि वह ‘आहटें आसपास’ की पांडुलिपि लेकर संभावना आए थे जिसका कवर प्रसिद्ध पेंटर रज़ा ने तैयार किया था, जिसे देखकर हम मुग्ध हो गये थे. इस संग्रह में आपातकाल के दौर की कविताओं के साथ संवेदनशील प्रकृति की कविताएं थीं. वह देखने में दबंग थे लेकिन भीतर से अत्यंत भावुक. मैंने उन्हें अपने बेटे श्वेताभ के लिये रोते हुए देखा था. उनका विवाह पद्मासा से हुआ था जो उस समय कांग्रेस की सक्रिय कार्यकर्ता थीं लेकिन उनके वैचारिक मतभेद कम नहीं थे. इस आलेख में लेखक ने पद्मासा से अलगाव और सविता सिंह के साथ प्रेम –प्रसंग का वर्णन किया है.
दूसरा संस्मरण एलिजाबेथ और उनके साथ आये फ्रांसीसी मित्र के बारे में है. जब पंकज सिंह फ्रांस में थे तब एलिजाबेथ से उनकी मित्रता हुई थी. उन दिनों मैं गढ़मुक्तेश्वर में पोस्टेड था और उन्हें सैर कराने की जिम्मेदारी मेरी थी. पंकज सिंह की अंग्रेजी बहुत अच्छी थी, वे युवा जोड़े को अपनी नफ़ीस अंग्रेजी में ग़ढ़ और बृजघाट के दर्शनीय स्थलों के बारे में बता रहे थे. पंकज सिंह ने अपने जीवन–यापन के लिए अनेक काम किये. अशोक जी ने पंकज सिंह के मित्र रहे पत्रकार–कवि अजय सिंह की पहल में प्रकाशित कविता ‘मेरा दोस्त था- दोस्त नहीं था’ का उल्लेख किया है. उनके मित्रों ने उन पर मित्रता के बदलने के इल्जाम लगाये हैं. मेरा मानना है कि कोई व्यक्ति विवाद से परे नहीं है, असल चीज है रचनात्मकता.
समर्थ और विलक्षण कथाकार विश्वेश्वर पर लिखा उनका संस्मरण विश्वेश्वर की प्रकृति के अनुरूप है. ‘एक फांतासी भरा जीवन’ में विश्वेश्वर के विडम्बनापूर्ण जीवन की दास्तान है. विश्वेश्वर को जो महत्व मिलना चाहिए, वह नहीं मिला. वे आजीवन छोटी–मोटी नौकरियां करते हुए संघर्ष करते रहे, इसके पीछे उनके अराजक स्वभाव की कम भूमिका नहीं थी. वह छोटी उम्र से ही सारिका, धर्मयुग, कहानी तथा अन्य पत्र–पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे. हिन्दी के पाठकों को उनकी कहानियां, ‘दबा हुआ मस्तिष्क’, ‘गोह’, ‘बदलना’, ‘बैसाख का एक दिन’, ‘महतारी’ जरूर याद होगी. उन्होंने ‘महापात्र’ और ‘ग्रामसेवक’ उपन्यास लिखा है, इस वृतांत में उन्होंने हिन्दी लेखिका ‘निरूपमा सेवती’ के एकतरफा प्रेम प्रसंग के बारे में लिखा है. अपनी इस हरकत के कारण उन्हें पागलखाने की हवा खानी पड़ी. इस प्रकरण का वर्णन अशोक जी ने रोचक ढंग से किया है. कमलेश्वर विश्वेश्वर को हिन्दी का बालजाक कहते थे.
हापुड़ में विश्वेश्वर से कई मुलाकातें याद हैं, अशोक भाई से उनकी गहरी आत्मीयता थी. वह बीच–बीच में गायब हो जाते थे और किसी न किसी विपत्ति की संभावना में प्रकट होते थे. फक्कड़ और अलमस्त विश्वेश्वर के जीवन में नियति तरह-तरह के खेल खेलती थी, वह पस्त हो गये थे. उनकी मृत्यु साहित्य के लिए शोक की कोई खबर नहीं बन सकी
विश्वेश्वर की प्रजाति के अन्य कथाकार थे प्रियदर्शी प्रकाश, जो कम चर्चित थे, उनकी जीवन–व्यथा को ‘प्रियदर्शी प्रकाश के बहाने कलकत्ता की याद’ में पढ़ा जा सकता है. उनके जीवन का कथानक बहुत रोचक है. वह कई अखबारों में काम करते और छोड़ते रहे. वह भूमिगत आंदोलनों में काम करते रहे. इस संस्मरण में उनकी नेपाली औरत का प्रेम प्रकरण दिया गया था. प्रेग्नेंट होने के बाद वह उसे छोड़ना चाहते थे लेकिन उसके प्रति प्रेम के कारण वह उसे छोड़ नहीं सके. मनुष्य कितना भी स्वार्थी हो लेकिन उसके अंदर मानवीय भाव और कही न कही संवेदना जरूर होती है. इस आलेख में कलकत्ता का सांस्कृतिक जीवन खुल कर सामने आता है. उस दौर में कलकत्ता में हिन्दी के लेखक, कपिल आर्य, माणिक बच्छावत, छेदीलाल, अवधनायण सिंह, सकलदीप सिंह बेहद सक्रिय रचनाकार थे.
कोलकाता के बीच अनेक कवि–लेखक हिन्दी की लौ जलाए हुए थे, वह बांग्ला और हिंदी के बीच सेतु का काम कर रहे थे. बांग्ला के अनेक उपन्यासकार हिन्दी में अनूदित हो रहे थे- जैसे शरतचंद, विमल मित्र. उन्हीं दिनों हिन्दी के कवि–ग़ज़लकार शलभ श्रीराम सिंह बहुत मकबूल हुए थे. लेखक से उनकी मुलाकात कोलकाता में हुई, फक्कड़ शलभ ने अशोक भाई को प्रकाश के साथ पार्क स्ट्रीट के बार में दावत दी, एक दो पैग के बाद कई व्यंजनों के आर्डर दे दिये. प्रियदर्शी ने अशोक जी कहा– जितना खाना हो खा लो, बिल आने के बाद बार का वेटर हमारी धुनाई करते हुए हमें सड़क पर फेंक देगा. इसी बीच एक खूबसूरत लड़की काउंटर पर नमूदार हुई और बिल अदा करके चली गयी. यह था शलभ का जलवा.
पांच)
कोलकाता की सैर करते हुए ज्ञानेद्रपति की कविता ट्राम में एक याद की स्मृति हो आयी है जिसकी नायिका चेतना परीक थी, यह कविता बहुत मशहूर हुई. यह कविता ज्ञानेन्द्रपति की सिग्नेचर ट्यून बन गयी थी. ‘काग़ज–कलम, बनारस और ज्ञानेन्द्रपति’ शीर्षक से लिखे संस्मरण में लेखक ने 1970 में पटना में नंदकिशोर नवल द्वारा युवा सम्मेलन आयोजित किया गया था, उस सम्मेलन में लेखक की उनसे मुलाकात हुई थी. उन्हें अशोक बाजपेयी ने पहचान सीरीज में ‘आँख हाथ बनते हुए’ शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित किया था. संभावना से उनका संग्रह ‘शब्द लिखने के लिए ही काग़ज बना है’ छपा था.
इस संस्मरण में यह तथ्य उल्लिखित है कि उन्होंने 1989 में ‘कारा और सुधार सेवा’ के अपने पद से इस्तीफा दे दिया था और सदा के लिए बनारस के स्थायी नागरिक बन गए थे. बनारस, गंगा नदी और मल्लाह-माझी उनकी स्मृतियों में बसते हैं. इन पंक्तियों का लेखक बनारस के सन्निकट मऊ जनपद में पदस्थ था, वह सरकारी कामकाज के लिए जब बनारस आता था तब मिलने की बात तय हो जाती थी. हर बार गंगा घाट मिलन स्थल होता था. हम बातचीत करते रहते थे, पुष्पिता जी भी आ जातीं थीं
ज्ञानेद्रपति हिन्दी के पूर्णकालिक कवि हैं, साहित्य अकादमी, पहल सम्मान के अतिरिक्त कई महत्वपूर्ण सम्मानों से नवाजे जा चुके हैं.
नवीन सागर के प्रति अशोक भाई जितने संवेदनशील हैं उतने जितेंद्र कुमार के प्रति दुरूह हैं. संस्मरण का शीर्षक ‘खुद अपना एक दिलचस्प अपयश’ खुद उनकी कहानी बयान करता है. वह जब भी हापुड़ आते थे, थोड़ी देर बाद ही मुजफ्फरनगर जाने के लिए लालायित हो उठते थे. वह अपने एक निकट संबंधी की लड़की के आकर्षण में मुब्तिला थे. मुझे उनकी जालिम आंखें अब तक याद हैं. जब मेरा हापुड़ से ट्रांसफर चंदौसी हुआ, उनके निकट संबंधी का तबादला कोतवाली चंदौसी में हो गया था. मैं उनसे मिलने गया था, ‘मैं जितेंद्र कुमार का मित्र हूँ’, यह सुन कर उनका मुंह कसैला हो गया था. इससे यह पता चलता था कि जितेंद्र जी के प्रति उनकी क्या राय रही होगी ? इन सबके बावजूद उनके कविता संग्रह ‘ऐसे भी तो संभव है मृत्यु’ का मैं मुरीद था. जहां तक मुझे याद है, इस कविता का ब्लर्ब मैटर पंकज सिंह ने लिखा था.
जीवन के साथ मृत्यु के भी खेल निराले हैं. अपने बेटे की मृत्यु की दुखद सूचना के बाद वे अपनी मृत्यु में धीरे–धीरे शामिल हो रहे थे. इस तरह उनकी दारुण मृत्यु हुई.
नवीन सागर के तमाम पत्र और छोटे–छोटे किस्से ‘कुछ कुछ कहा बहुत कुछ अनकहा, अपने भूले रहने की याद में’ शामिल है. उनके नाम दो संस्मरण हैं, इससे पता चलता है कि दोनों एक दूसरे के प्रति कितने आत्मीय थे. अशोक जी उनके बारे में तमाम किस्से सुनाते थे, उनकी भावुकता का स्मरण कराते थे. वह कहानियों के अतिरिक्त कविताएं भी लिखते थे. उनकी मृत्यु के बाद एक पत्रिका ने उन पर अंक केंद्रित किया था. उनकी कविताएं पढ़कर मैं हैरान था. इस स्मरण में उनकी कहानी ‘रफीक मियां की जादुई पतंग, जिसे देखकर आसमान दंग रह गया’, जरूर पढ़नी चाहिए.
यह कितना अच्छा होता कि कवि–लेखक के जीवन–काल में उनके बारे में लिखा जाए ताकि उसे भी अपनी भूमिका के बारे में पता चलता लेकिन हिन्दी में यह रवायत नहीं है. इसके लिये हम सब सामूहिक रूप से जिम्मेदार हैं.
किसी लेखक के बारे में उसकी मृत्यु के बाद ही जान पाते हैं. लेकिन यह क्या कम है कि अशोक अग्रवाल जैसे लेखक ऐसे भूले-बिसरे लोगों की याद दिलाते रहते हैं ?
इस किताब में ऐसे कई लेखक शामिल हैं जिससे हिन्दी–संसार अपरिचित है. विश्वेश्वर, प्रियदर्शी प्रकाश, अमितेश्वर को कितने लोग जानते हैं जो भी लोग जानते होंगे वे उनकी अराजकता के कारण जानते होंगे. इसी क्रम में विदिशा के अशोक माहेश्वरी को जोड़ लिया जाना चाहिए. वे साहित्यकार नहीं उम्दा दर्जे के छायाकार थे लेकिन उससे बड़े रिंद थे और मय से आशिकी के कारण उनके जान पर बन आयी. बाबा नागार्जुन से वे गहरे जुड़े थे और उनके साथ संभावना आये थे. अशोक जी की कई यात्राओं में उनके साथ थे. उन्होंने मेरे कविता की किताब ‘ताख पर दियासलाई’ का आवरण तैयार किया था. उनके साथ अपना एक यात्रा-संस्मरण मैं भी जोड़ दूँ. जिन दिनों मैं झांसी में पोस्टेड था, दिल्ली में उनसे मुलाकात हो गयी, उनकी ट्रेन झांसी होकर विदिशा की तरफ जाती थी. अपनी तलब मिटाने के लिए हम लोगों ने ‘औषधि’ खरीद ली. स्टेशन पर उसे सेवन करने की जगह नहीं मिली. ट्रेन के वासरूम में बारी–बारी जाकर हमने अपनी प्यास बुझाई.
छह)
अब संभावना मठ के एक दो अफ़साने बाकी रह गये हैं, उनके बिना यह दास्तान अधूरी होगी. मठ के स्थायी श्रद्धालु थे अमितेश्वर, उन्हें पंडित जी के नाम से संबोधित किया जाता था. मूल नाम था लक्ष्मीनारायण लेकिन इस नाम ने उनकी कोई मदद नहीं की, उम्र भर लक्ष्मी उनसे दूर रही, हमेशा गर्वीली गरीबी में दिन काटते रहे. वह दिल के बहुत धनी थे. वह अगर हापुड़ में हैं तो मठ में बने रहते थे, स्वभाव से बहुत अराजक थे लेकिन प्रेम भाव से सराबोर रहते थे. उनके बिना महफ़िल में कोई रौनक नहीं होती थी. जब हम मिलते थे तो दोनों के चेहरे एक साथ खिल जाते थे. अशोक भाई के वे हनुमान थे और संभावना का काम काज उनके जिम्मे था. संभावना से उनके रिश्ते पारिवारिक थे. वह बहुत अच्छी कहानियां लिखते थे, ‘हुक्का पानी’ नाम से उनका संग्रह प्रकाशित हो चुका है. बाद में वह साहित्य अकादमी में चले गये, यह काम अशोक जी ने किया था. उन दिनों गिरधर राठी समकालीन के संपादक थे. मैं दिल्ली में अमितेश्वर से मिल कर शटल से हापुड़ आता था. नफ़ीस आफ़रीदी हिन्द पाकेट बुक्स में काम करते थे, नफ़ीस और पंडित जी की जोड़ी विख्यात थी. वे दोनों साथ–साथ जाते–आते थे और हापुड़ के एक होटल में गम गलत करते थे. कुछ लोग उन्हें घीसू माधव भी कहते थे. इस प्रकरण का वर्णन अशोक जी ने बहुत खूब किया है. इस स्मरण में उन्होंने गढ़मुक्तेश्वर के कार्तिक मेले के बारे में लिखा है.
इस मेले में मेरा काम काज बढ़ जाता था लेकिन ऐसे शुभ अवसरों के लिये मैं बराबर खतरा उठा लेता था. अशोक भाई के साथ, प्रभात मित्तल, नफ़ीस आफ़रीदी, सुदर्शन नारंग और अमितेश्वर बिना सूचित किये मेरे डेरे पर आ धमकते थे. एक दिन सुरूर में आने के बाद हम सब लोग छगड़े पर सवार होकर मेले में पहुंचे. हमें ‘तीसरी कसम’ फिल्म के तमाम दृश्य याद आ गये. वह यात्रा अत्यंत दिव्य थी, इस तरह की कोई दूसरी यात्रा हमें नसीब नहीं हुई.
अब अपने बारे में कुछ शब्द जाया करने की इजाजत चाहता हूँ. स्मृति–लेख का शीर्षक ‘स्वेटर के साथ सपने बुनती लड़की’ है. अशोक भाई ने कई बार मेरी इस दारुण कथा को लिखने की इच्छा व्यक्त की, मैं ही मना करता रहा. मैं जानता था कि उसे लिखने में उन्हें जो तकलीफ होगी, वहीं तकलीफ मुझे पढ़ने में भी होगी. बहरहाल उन्होंने यह कथा लिखी और मुझसे कहा कि इसे लिखते समय मैं भयानक यंत्रणा से गुजरा हूँ. वह मेरे प्रति बहुत संवेदनशील थे.
इस किताब को पढ़ते हुए यह लगता है कि स्मृति–कथा लिखना कोई हँसी–खेल नहीं है, उसे लिखना यातना से गुजरना हैं. हम उन लोगों के बारे में लिखते हैं जो इस दुनिया में नहीं हैं, उनकी अनुपस्थिति से बढ़कर क्या दु:ख हो सकता है.
वह अपने संस्मरण का जो शीर्षक देते हैं, उससे उस व्यक्ति की शख्सियत का पता चल जाता है. उनकी भाषा अत्यन्त प्रभावशाली है, उसके साथ हम चलते रहते हैं, कभी बिलग नहीं होते. इस तरह की भाषा कवि लिखते हैं. अशोक जी गद्यकार हैं लेकिन स्वभाव से कवि हैं. प्रिय कवि विष्णु नगर ने इन संस्मरणों को गद्य में कविता कहा है.
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संभावना प्रकाशन
रेवती कुंज, हापुड़ -245101
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अशोक जी के कई संस्मरण समालोचन पर पढ़ने के बात प्रस्तुत कृति की बहुत प्रतीक्षा थी । डूब कर पढ़ने वाली किताब है । स्वप्निल जी ने बढ़िया लिखा । साधुवाद
अशोक जी के संस्मरण तो प्रभावशाली हैं ही, स्वप्निल जी ने उन पर और उनकी पुस्तक पर बहुत आत्मीयता से लिखा है। बहुत अच्छी प्रस्तुति।
इसी किताब के साथ हूं इन दिनों। नागार्जुन जी , लक्ष्मीधर मालवीय जी, नवीन सागर जी पर लिखे संस्मरण विशेषकर उल्लेखनीय हैं। विनोद जी के स्टेशन वाले प्रसंग को पढ़कर लगा कि दुनिया को बहुत ज्यादा विनोद कुमार शुक्ल होना चाहिए।
बहुत सुंदर समीक्षा। स्वप्निल और सुमन जी भी अशोक अग्रवाल की इस संस्मरण की किताब में हैं । ’संग साथ’ संस्मरण साहित्य की एक उपलब्धि से कम नहीं है। स्वप्निल जी ने इस किताब पर बहुत सुंदर लिखा है । उनकी यह समीक्षा संस्मरण में आए सभी चरित्रों के साथ न्याय ही नहीं करती हैं बल्कि अशोक अग्रवाल की सुंदर भाषा शैली, उनका गहरा ऑब्जर्वेशन , चरित्रों के साथ उनके बाहर और भीतर तक की आत्मीय यात्रा को भी प्रदर्शित करती है। ’संग साथ’ निश्चय ही संस्मरण की एक लाजवाब किताब है । इस सुंदर किताब की सुंदर समीक्षा के लिए ’समालोचन’ और स्वप्निल श्रीवास्तव बधाई के पात्र हैं सो अरुण देव और स्वप्निल श्रीवास्तव को बहुत बहुत बधाई।
भाई स्वप्निल जी के अग्रलेख ने संगसाथ के प्रति उत्सुकता बढा़ दी है अब यह किताब खोज ढूंढ़ कर पढ़ना होगा. ईश्वर अशोक जी को स्वस्थ करें ताकि वे अभिषेक को प्रकाशन के काम में गाइड कर सकें….. स्वास्थ्य कामनाएं……
अशोक जी का संस्मरण लेखन अद्भुत है। समालोचन में प्रकाशित उनके लेखों को पढते हुए अकल्पनीय आनंद से गुज़रा हूं। अब उनकी किताब पर आपकी टिप्पणी इसमें और इजाफ़ा कर रही है। ‘संग साथ’ बहुत जल्दी ही हाथ में होगी।